"विश्व आदिवासी दिवस" को सुनने उपस्थित आदिवासी जन सैलाब |
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व में शान्ति स्थापना के साथ साथ विश्व के देशों में पारस्परिक मैत्रीपूर्ण समन्वय बनाना, एक दूसरे के अधिकार एवं स्वतंत्रता को सम्मान के साथ बढ़ावा देना, विश्व से गरीबी उन्मूलन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के विकास के उद्देश्य से 24 अक्टूबर 1945 में "संयुक्त राष्ट्र संघ" का गठन किया गया, जिसमे अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, भारत सहित वर्तमान में 193 देश सदस्य हैं | अपने गठन के 50 वर्ष बाद "संयुक्त राष्ट्र संघ" ने यह महसूस किया है कि 21वीं सदी मे भी विश्व के विभिन्न देशों में निवासरत जनजातीय (आदिवासी) समाज अपनी उपेक्षा, गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा का अभाव, बेरोजगारी एवं बंधुआ मजदूर जैसे समस्याओं से ग्रसित हैं | जनजातीय समाज के उक्त समस्याओं के निराकरण हेतु विश्व के ध्यानाकर्षण के लिए वर्ष 1994 में "संयुक्त राष्ट्र संघ" के महासभा द्वारा प्रतिवर्ष 9 अगस्त को "INTERNATIONAL DAY OF THE WORLD'S INDIGENOUS PEOP "विश्व आदिवासी दिवस" मनाने का फैसला लिया गया | तत्पश्चात पूरे विश्व यथा अमेरिकी महाद्वीप, अफ्रीकी महाद्वीप तथा एशिया महाद्वीप के आदिवासी बाहुल्य देशों में 9 अगस्त को "विश्व आदिवासी दिवस" बड़े जोर शोर से मनाया जाता है, जिसमे भारत भी प्रमुखता से शामिल मिल है |
संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nation Organisation) UNO द्वारा 21वीं में तेजी से विकास करते
विकासवादी मानव और दूसरी ओर इस विकासवादी परिवेश में भी विश्व के आदिवासियों के
गिरते जीवन स्तर पर चिंता व्यक्त किया गया | दुनिया के आदिवासियों की संस्कृति, मान्यताएं और पारंपरिक जीवन
मूल्य, प्रकृति (Nature) से संलग्न हैं और लगभग एक जैसी हैं | यह
आधुनिक विकासवाद के लिए एक जटिल समस्या है | अतः उनकी संस्कृतिक मान्यताएं और पारंपरिक जीवन मूल्यों को संरक्षित करते हुए, उनके विकास हेतु 46 अनुच्छेद का क़ानून बनाया गया | यह क़ानून विश्व के सभी देशों
में जहां आदिवासी हैं, समान रूप से लागू करने हेतु बंधनकारी हैं | इनमें भारत भी प्रमुखता से शामिल है | दुनिया के आदिवासियों के
संरक्षण हेतु UNO द्वारा बनाए गए 46 अनुच्छेद के क़ानून की विस्तृत जानकारी पृथक से "संयुक्त राष्ट्र (United Nation) महासभा द्वारा विश्व के आदिवासियों के हित संरक्षण हेतु प्रदत्त अधिकार"
शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है, जिसका अध्ययन किया जा सकता है |
दुनिया में पहली बार UNO द्वारा विश्व स्तर पर आदिवासियों की संस्कृति, मान्यताएं और पारंपरिक जीवन मूल्यों का संरक्षण करते हुए, विशेष क़ानून बनाकर उनके हक़ और अधिकारों की रक्षा की गई है, ताकि दुनिया के आदिवासी भी अपने देश और विश्व की विकास की मुख्य धारा में
शामिल हो सकें |
इस क़ानून के माध्यम से आदिवासी देशों का प्रशासन अपने अपने देश के आदिवासियों
के विकास के रास्ते तय करने व जन जन में जागृति का संदेश देने हेतु UNO ने 9 अगस्त 1994 से "विश्व आदिवासी दिवस" मनाने की घोषणा की | UNO की घोषणा अनुसार वर्ष 1994 से पूरे विश्व के आदिवासी 9 अगस्त के दिन "विश्व
आदिवासी दिवस" को उत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं | वर्ष 1945 से भारत UNO का सदस्य है, किन्तु विश्व आदिवासी दिवस मनाने या जन
जाग्रति हेतु प्रचार प्रसार करने के लिए 22 वर्षों तक मौन रहा है | भारत को 22 वर्षों तक इस क़ानून की जानकारी नहीं थी, यह कहना गलत होगा | देश के किस सचिवालय में विलुप्त
हो गया, कहाँ गया संयुक्त राष्ट्र संघ का कानून ? जरूर जमीन खा गई या आसमान के देवता निगल गए ! भारत सरकार ने इस वैश्विक क़ानून को अब तक लागू नहीं की और न ही विश्व आदिवासी
दिवस मनाने के लिए दिलचस्पी दिखाई !
फिर भी इस देश के क्रांतिकारी आदिवासी नेताओं के पहल, लगन और मेहनत के कारण भारत के
आदिवासी राज्यों, क्षेत्रों में "विश्व आदिवासी दिवस" मनाना लगभग इसी दशक से शुरू हुआ | इसी क्रम में देश के आदिवासियों द्वारा मंगलवार 9 अगस्त, 2016 को भी UNO द्वारा घोषित विश्व आदिवासी
दिवस मनाया गया | अब धीरे धीरे यह जागृति देश के
प्रत्येक राज्य, जिला, तहसील, ब्लाक और ग्राम स्तर पर भी
पहुँच रहा है |
इस देश के प्रमुखों ने यह परंपरा कायम की है कि देश के राष्ट्रीय पर्व, किसी भी धर्म के तीज त्यौहार, उत्सव के लिए जन समुदाय को बधाई और शुभकामनाएं व्यक्त किया जाता है | इसके तहत सभी राष्ट्रीय पर्व, वर्ग विशेष धर्मों के तीज त्यौहार, उत्सव मनाए जाने पर जन समुदाय में सुख, शान्ति और समृद्धि की कामनाओं
सहित देश के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, राज्यों के राज्यपाल और मुख्य मंत्रियों द्वारा बधाई और शुभकामनाएं हमेशा
प्रेषित की जाती रही है |
देश में विभिन्न धर्मानुयायी हैं, किन्तु देश के आदिवासियों का कोई धर्म नहीं है | हिन्दू धर्म को जबरदस्ती आदिवासियों के ऊपर लादा गया है | केवल हिन्दुओं की जनसख्या बढाने के लिए, देवत्व
के धार्मिक नियंत्रण में रखकर जन्म जन्मान्तर तक अपनी सेवा और भरण पोषण कराने के
लिए, जूते चप्पलों की तरह सुरक्षा का इस्तेमाल और आघात करने के लिए | समय समय पर किसी न किसी तरह की कुटिलता से उन्हें अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी
मारने के लिए मजबूर कर दिया जाता है | यह ब्राम्हण हिन्दुओं की चतुराई
और कुटिल दक्षता का प्रमाण है | दूसरी ओर आदिवासी और हिन्दुओं
के सांस्कृतिक मान्यताओं और जीवन दर्शन में जमीन आसमान का फर्क है | आदिवासी न वह हिन्दू है न मुसलमान, न सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध है | वह केवल इस देश का जमीनदार, प्रकृति का मालक, प्रकृति
का पूजक, प्रकृति का पालक आदिवासी है, जो केवल प्रकृति और पूर्वज
दर्शन के सांस्कृतिक मान्यताओं में "पेन" और "वेन" को मानता
है |
अब तक यह देखने में आया है कि आदिवासियों के तीज त्यौहार, उत्सवों को छोड़कर सभी धर्मानुयायियों के तीज त्यौहार, उत्सव के आते ही देश और राज्यों के प्रमुखों की ओर से शुभकामनाएं प्रेषित करने
की होड़ सी लग जाती है | बधाई और शुभकामनाएं प्रेषित
करने की सचित्र भाव भंगीमाएं छापने के लिए इस देश की प्रिंट मीडिया में उत्साह की
मानो लहर दौड़ जाती है | दूर संचार, टी.व्ही.चेनल एंकर सांस भर भर कर राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और राज्यों के
राज्यपाल व मुख्यमंत्रियों के द्वारा भेजे गए बधाई और शुभकामना संदेश का बढ़ चढ़कर
प्रसारण करते हैं | प्रसारण सुनकर, अखबार पढ़कर लोगों को ख़ुशी होती
है, सुकून मिलता है कि उनके पर्व पर
देश के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और राज्य के
राज्यपाल और मुख्य मंत्री ने शुभकामनाएं व्यक्त किए | झूठा ही सही, किन्तु प्रमुखों के इस सम्मान के दो बोल से, समाज के लोगों का भी सम्मान पा
जाते हैं | किन्तु आदिवासियों के कार्यक्रमों, उत्सवों, वीरगाथाओं, स्वतंत्रता सेनानियों की पुण्यतिथियों की जानकारी या खबर छापने या प्रसारण के लिए देश के सारे अखबार के
पन्नों और इलेक्ट्रानिक मीडिया को सांप सूंघ जाता है ! इसके क्या मायने हैं ?
इस धरती के मूल जनों के साथ जातिवाद, नश्लवाद, वर्णवाद, धर्मवाद का भेदभाव आज का ही
नहीं ऐतिहासिक है | देश के सारे तंत्र के लिए
स्वर्गवासी नस्लों के जमात ही योग्यता के वाहक बने हुए हैं | उनकी योग्यता की पहचान आदिवासियों को भी है | किन्तु समझ फर्क यह है कि
आदिवासी प्रकृति की तरह सरल और सच्चे हैं | समुद्र की तरह अथाह धैर्यवान, गंभीर और अटल हैं | जिन्हें अयोग्यता के आईने में
देखा जाता है | वे पेड़ों की तरह सीधे हैं | इसलिए उन्हें काटने वाले, लूटने वाले लुटेरों की
प्रतियोगी निगाहें हमेशा उन्ही पर बनी होती हैं |
विश्व के आदिवासी हजारों सालों से तरह तरह के प्राकृतिक और प्राकृतिक से भी
अधिक भयावह प्रत्यायोजित विध्वंश झेलने का आदि हो चुके हैं | आने वाले प्राकृतिक और प्रत्यायोजित
विध्वंश के स्वर सुनने और मुकाबला करने की उनकी पुरखौती आदत बन चुकी है | इसी प्रत्यायोजित विध्वंश की निःशब्द कटु गूँज देश के आदिवासियों के कान ही
नहीं दिल और दिमाग तक पहुँच चुका है | ऐसी विशेषज्ञता केवल भारत भूमि
के ही नहीं दुनिया के आदिवासियों में है |
अनंत काल से समृद्ध गोंडवाना की पावन सांस्कारिक मध्य भूमि इंडिया (भारत) आदिवासियों की रही है और अब भी है | उन्होंने गोंडवाना की इस पुनेमी
धरती पर कुकुरमुत्ती की तरह उगाए जाने वाले धार्मिक विकासवादी परिवेश के
लोगों को पनाह दिया | आदिवासियों के इस पावन पुनेम
धरा को धार्मिक विकासवाद की स्वार्थी दीमकों ने कुतर कुतर कर धर्मों का भिमोरा
(पुत्ती) खड़ा किए | इन धार्मिक विकासवादी भिमोरों
और विज्ञान के नींव निर्माण के पूर्व से ही दुनिया के लिए रहस्यपूर्ण किन्तु
पुरखों से हस्तांतरित प्रकृति के पुनेमी आधार (समता, समानता, समरसता, समृद्धि और संतुलन) को धारण कर
निःस्वार्थ, संतुलित व संतोषी जीवन जीने
वाला केवल आदिवासी है | आदिवासियों की इस महान जीवन
दर्शन से विज्ञान और विद्वान् सभी परिचित हैं, किन्तु इनकी अच्छाईयां व्यक्त करना स्वार्थियों को स्वयं के गले का फांस महसूस
होता है !
गोंडवाना काल से आज तक आधुनिक विकासवादी, स्वार्थी, प्रकृति विनाशकारी, धार्मिक और मानवता विध्वंशक वैज्ञानिकता से परे रहकर आदिवासियों ने जमाने के
लोगों को अपनी धरती पर पनाह दिया | मालक आदिवासियों की धरती पर लोगों, उनके धर्म, राजनीति और प्रशासन ने भी पनाह पाया | पनाह
पाकर राजनीति व प्रशासन के शीर्ष पर पदासीन देश के प्रथम नागरिक और प्रशासक
महामहिम राष्ट्रपति, माननीय प्रधान मंत्री, राज्यपाल और मुख्य मंत्री के मुख से "विश्व आदिवासी दिवस" के
उपलक्ष्य में देश के आदिवासियों के लिए अब तक शुभकामना स्वरुप संदेश के दो मीठे
बोल भी नहीं निकले ! यह किस तरह का भेद भाव है ?
यह निश्चित ही आदिवासियों के साथ अनंतकाल से चली आ रही अस्तित्व और धार्मिक
अस्तित्व या स्वार्थी राजनीति की जमीन की हो सकती है, जो फेरी वालों के पूर्वजों द्वारा प्रशासनिक पटल पर राजनीतिक रंगहीन श्याही से
लिखा जाकर "मन की बात" अब भी निःशब्द व्यक्त किया जा रहा है, इसे पढने की जरूरत है ! आदिवासियों को जन्म जन्मान्तर से प्रकृति की मौन भाषा पढने की महारत हासिल है | उसी तरह राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और राज्यपाल व मुख्य मंत्रियों की मौन भाषा को भी समझते हैं | सदियों से चली आ रही आदिवासियों के भविष्य के लिए
अस्तित्व का यह विध्वंशक निःशब्द स्वर है | इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है |
यह आश्चर्य उन लोगों के लिए है जो संदेश के धरातल पर "शुभकामना" में
छिपे विकसित विचार और भाई चारा के मायने समझते हैं | अब आदिवासी भी समझने लगे हैं कि उनके साथ कब, क्यों और कैसे भाई चारा स्थापित
किए जाते हैं | ज़माना यह जानता है कि गरीब के
चीथड़े लूटने वाले ही विकास का आसमान चूमते हैं | उन आसमान चूमने वाले विशेष जाति वर्ग के लोगों के लिए ही राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य मंत्रियों की शुभकामनाएं हैं | चीथड़े का विकास करके संतोष रहने वाले आदिवासियों को शुभकामनाओं की क्या जरूरत ?
जब भी देश के आदिवासियों से सम्बंधित कोई पर्व, तीज त्यौहार, उत्सव आता है, तो सभी के नजर फिर जाते हैं ! भारत सरकार और राज्यों के प्रमुख अपना रुख और मुह दोनों मोड़ लेते हैं, मानो आदिवासियों के तीज त्यौहार, उत्सव सरकार के मुह पर तमाचा
मारने आ रहे हों ! देश के आदिवासी इन प्रमुखों के
शरीर का लहू कौन मांग रहे हैं, शुभकामना के दो मीठे बोल की उम्मीद ही तो करते हैं | आदिवासियों के लिए यह उम्मीद भी
निराशाजनक ही होती है | इससे यह साबित होता है कि देश और राज्यों के प्रशासकों के मन में आदिवासियों
के प्रति, उनकी भावनाओं के प्रति, उनके संस्कारों के प्रति, उनके उत्सवों के प्रति जबरदस्त कड़वाहट भरी हुई है | यह देश के आदिवासियों के प्रति दबी हुई आंतरिक दुर्भावना का प्रतीक है या अवश्य
आने वाली किसी और खतरे के पूर्व की खामोशी |
यही कारण है कि देश ही नहीं पूरी दुनिया के प्रशासन और राजनीति में, धर्म और संस्कृति में, देश के विकास के आड़ में, हर तरीके से लालच और स्वार्थ
पूर्ती के लिए हमेशा सीधे साधे आदिवासियों को ही बलि का बकरा बनाया जाता है | एक तरह से आदिवासी चारागाह बन
चुका है | किन्तु आदिवासी है की ख़त्म ही नहीं होता | जानवरों के चरने के बाद भी उजार
(घांस) की तरह फिर पनप जाता है | इसका कारण है कि उनका जड़
प्रकृति से जुड़ा हुआ सांस्कृतिक, धीर गंभीर व सच्चा, मानवीय नैतिक विश्वास है जो
उन्हें पुनः पनपने के लिए सबल बनाता है | उन्हें पशु, दैत्य, दानव, राक्षस, उपद्रवी कह कह कर मार काट, जीवन
का संघार करने वाले स्वर्गवासी, त्रीलोकी, त्रिदेवों, स्वर्गाधिपति, देवी
देवताओं का कुनबा ख़त्म होकर अस्तित्व मिट गया, किन्तु
पशु, दैत्य, दानव, राक्षस, उपद्रवी
कहलाने वाले आदिवासी अभी भी इसी धरा पर सत्यवादी, सरल आचरण के साथ जीवित हैं | इस धरती पर वंशवृद्धि करने वाले स्वर्गारोहियों के वंशजों को इससे भी संतोष
नहीं हुआ तो अब उनका पुतला बना बना कर अंगार फूंक रहे हैं | मन की घृणा की आग दब नहीं सकती
कहीं न कहीं प्रज्ज्वलित हो ही जाती है | इन्होने मन की इस जलन रूपी
ज्वलन को तीज त्योहारों के साथ जोड़ लिया और आदिवासियों को हिंदुत्व का
झुनझुना पकड़ाकर संस्कारों के माध्यम से उनके ही पैरों पर कुल्हाड़ी मरवा रहे हैं ! बिना पेंदी के धार्मिक नाव में सवार हुए आदिवासी इस तथ्य को कब समझेंगे ?
प्रकृति शक्ति से पूरित आदिवासियों के धैर्य, सरल और सबल मानवीय नैतिक विश्वास की ताकत का अंदाजा दुनिया को नहीं हुआ था | अब हो रहा है | प्रकृति के ज्ञान, विज्ञान को भी हो गया है | इसलिए भारत को छोड़कर दुनिया के वैज्ञानिक प्रकृति को बचाने के लिए आदिवासी
संस्कारों को अपनाकर जीवन जीने का आवाहन कर रहे हैं | ऐसे प्रकृति प्रेमी और जीवन
संरक्षकों के प्रति यह कैसी कुंठा है ?
देश के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और राज्यों के
राज्यपाल व मुख्य मंत्री आदिवासियों के प्रति ऐसे ही अनेक प्रकार की कुंठाओं से
ग्रषित हैं | स्वप्न सुन्दरी विकास की स्वर्ण थाली में सजाकर वर्ग विशेष, स्वार्थी, कारपोरेटियों
को परोसे जाने वाले लजीज "मेक इन इण्डिया" रूपी दाल भात में देश के आदिवासी मूसरचंद बन रहे हैं | स्कूल भवन बिना, झाड़ के
नीचे, बिना शिक्षक के सरकारी स्कूलों
में पढ़ने वाले, बैल चराकर जरल प्रमोशन से पास
होने वाले बच्चों को मेक इंडिया के खयाली सपने दिखाए जा रहे हैं | गरीब आदिवासियों के जल, जल, जमीन, संस्कृति
छीनकर एक रूपए किलो चांवल, चरण पादुका, छतरी, लुगड़ा, पोल्का
बाटकर विकास की और घर वापसी, गायत्री, रामायण
की मण्डली बना बना कर धर्म की गंगा बहाई जा रही है | बंदूक की नोक पर उनके मूलवास उजाड़कर, मूल संस्कृति से दिग्भ्रमित कर
पुतलों से "पुरखौती मुक्तांगन" सजाई जा रही है ! दो प्रकार के
फिरंगियों के हाथों हजारों वर्षों तक लुटी हुई देश के बंजर भूमि और आदिवासियों की सूखी छाती में, स्वार्थी कारपोरेटिया भेड़ियों के माध्यम से "एल.पी.जी., सेज, मेक इन इंडिया" की आग जलाई
जा रही है, जहां
विकास के नाम पर विकसित समाज को अपने अपने स्तर से स्वार्थी हाथ सेंकने के लिए
सरकार खुली छूट दे रखी है ! विकास के धरातल के नीचे अशिक्षा और अयोग्यता के
कालिख मलवे में दबे आदिवासियों का यहां क्या काम ! आजादी के 70 सालों से वंचितों को तमाम बुनियादी सुविधाएं देने के सपने दिखाने वाले देश और
राज्यों की सरकारें संविधान के चेहरे पर ही कालिख पोतने में लगे हैं !
देश के प्रमुखों के द्वारा विभिन्न धार्मिक जमातों के सारे पर्वों, देवी देवताओं के जन्मदिन, पुण्यतिथि, तीज त्यौहार, उत्सव, गणेश पंचमी, दुर्गाष्टमी, राम जन्माष्टमी, राम नवमी, कृष्ण
जन्माष्टमी, देव उठनी, रक्षाबंधन, दशहरा, होली, दिवाली, योग
दिवस, महिला दिवस, शिक्षक
दिवस, माता दिवस, पिता दिवस, बालिका दिवस, बालक दिवस, गोमाता
दिवस, गोरक्षा दिवस, पर्यावरण
दिवस, देश और दुनिया के तमाम दिवसों
पर साल के 365 दिन शुभकामना देने में ही बीतते
हैं | किन्तु 1994 से 2016 के दरम्यानी 22 सालों तक देश के किसी राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और राज्यों के
राज्यपाल व मुख्य मंत्री के मुख पर "विश्व आदिवासी दिवस" का नाम तक नहीं
आया ! समूचे साल में आदिवासियों की
जागृति के लिए एक उत्सव आया तो प्रमुखों के मुह से शुभकामना के मीठे बोल बोलने
वाले जुबान सूख गए ! इसका अर्थ यह है कि मन ही मन
आदिवासियों से घृणा करते हैं | इसी का परिणाम है कि "विश्व आदिवासी दिवस" पर या अन्य आदिवासी
उत्सवों के लिए देश के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, राज्यों के राज्यपाल और मुख्य मंत्रियों के मुख से बधाई और शुभकामनाओं के दो
मीठे बोल भी नहीं निकलते ! यह देश के आदिवासियों के प्रति
एक गंभीर विषाद है |
इस देश में निवास करने वाले जैन, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई आदि प्रत्येक धर्म के
धर्मावलम्बियों की जनसंख्या आदिवासियों की जनसंख्या के आधे से भी कम है | किन्तु उनके प्रत्येक धार्मिक तीज त्योहारों, उत्सवों आदि में देश की ओर से बधाई और शुभकामनाएं प्रसारित की जाती है | यह भारत देश के 15 करोड़ आदिवासियों का दुर्भाग्य नहीं है कि उनका कोई धर्म नहीं है, किन्तु दुर्भाग्य इसलिए है कि आदिवासी, धर्मों और धर्मानुयायियों के
लिए चारागाह बन गए हैं | सरकार और कारपोरेट के अमीर
दलालों के विकास की रफ़्तार के लिए आदिवासी अड़ंगे बन रहे हैं | उनके स्वार्थी विकास और लालच के उड़ान में बाधक बन रहे हैं | शहरों में अब स्वार्थी विकास के कारपोरेटिया पाँव, लालच और लूट के हवाई पंख पसारने
न आसमाँ बची, एक इंच जमीन न संपदा बचा | अब स्वार्थी विकास रूपी सपनों
के उड़ान जंगलों की ओर रुख कर चुके हैं | उनके रास्ते में आने वाले, भू
सम्पदा, जल, जंगल और जमीन पर सदियों से काबिज अंगूठे छाप आदिवासियों को रौंदने के किए
लालायित हैं | इसलिए आदिवासियों को येन केन
प्रकारेन उनके जीवन संपदा जल, जंगल, जमीन, हक़ और अधिकारों से सदैव वंचित करना, हमेशा से दीगर विकसित समाज, कारपोरेट घरानों के लुटेरे और सरकारों, चोर चोर मौसेरे भाईयों की सोची
समझी स्वार्थी रणनीति रही है | जिसकी घृणा विकसित समाज, कारपोरेट और इनके गुलाम, देश की सरकार तथा सरकार के मुख्य कारिंदों के दिल से ऊपर आकर अब आँखों और
कार्यप्रणाली में भी छलक रही है | किन्तु सदियों से प्राकृतिक
विपत्तियों, गोली तथा गोला खाकर, अत्याचार और शोषण सहकर
आदिवासियों के लाश ने भी प्रकृति और समुद्र की तरह अपना धैर्य अब तक कायम रखा है | आगे प्रकृति और आदिवासी ही जाने, किन्तु अब लाशों का भी धैर्य छलकने लगा है | बयार चलने लगी है | खामोशी तोड़कर समुद्र में हिलोरें उठने लगे हैं | सुनामी तो आना ही है |
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