रविवार, 23 जनवरी 2022

गोंडियन सगाजनों का पेन पुरखा सेवा अर्जी अनुष्ठान/पूजा अनुष्ठान


यह फोटो सिवनी/ छिंदवाड़ा जिला मध्यप्रदेश के गोंड जनजातियों के किसी पूजा अनुष्ठान का है। इसे गोंड समाज महासभा, मध्यप्रदेश के कुटुंब एप से जुड़े तिरुमाल दीनाजी मरकाम, छिंदवाड़ा द्वारा दिनांक 17 जनवरी 2022 को प्रकाशित उनके वालपोस्ट से लिया गया है।

इसे देखकर समाज के मुखियाओं, सभी भूमकाओं और सगा समाज के अंतर्मन में सवाल उठना चाहिए कि क्या ऐसे क्लिष्ट, इतनी ज्यादा मात्रा में उपयोग की जाने वाली सामग्री, सामग्री को विधिपूर्ण और व्यवस्थित अर्पण करने में लगा अधिक समय और खर्च उचित है? साथ ही यह भी कि क्या इस तरह के आधुनिक पूजा अनुष्ठान की विधि प्रक्रियाएं और क्रियाकलाप उनके पुरखों के द्वारा की जाने वाली मूल पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठानों से मेल खाते हैं?

कुदरत और पेन पुरखे हमें सबकुछ दिए। आज कुदरत को और हमारे पुरखों को जो जरूरत वो हम बहुत कुछ दे सकते हैं। हमने अपने पुरखों कितना सम्मान दिया, क्या दिया, कितना दिया, कितना रुलाया, क्या खिलाया, क्या पिलाया, यह अलग बात है। किंतु अब वे पेन अवस्था में हैं। यह पेन अवस्था कुदरतीय अदृश्य महाऊर्जा/ महाशक्ति की अवस्था है। ऐसी अपार ऊर्जा से हम अपने जीवन की अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सुरक्षा पाने के लिए सम्मान और सादगीपूर्ण तरीके से की जाने वाली उनकी अर्जी बिनती की प्रक्रिया को ही अनुष्ठान या पेन पुरखा अनुष्ठान कह सकते हैं। 

मुझे भी आप लोगों की तरह सामाजिक धर्म संस्कृति के अस्तित्व और सुरक्षा पर चिंता होती है। पर एक बात अवश्य जान लें कि पुरखों की बनाई हुई संस्कृति आपका, समाज का अपना निजी है। यहाँ संस्कृति का आपका निजी होना आपके ऊपर निर्भर है कि उसे कैसे स्तेमाल करोगे। यदि आपने उसकी मूल अवधारणा को बिगाड़ दिया है, या उसके स्वरूप में काफी हद तक परिवर्तन कर दिया है, तो उसकी मौलिकता खत्म हो जाती है। जब उसकी मौलिकता खत्म हो जाती है, तो वह संक्रमण की अवस्था में चली जाकर नष्ट हो जाती है या किसी अन्य विधि के स्वरूप में सम्मिलित हो जाती है- जैसे हिन्दू विधि .... आदि।

यदि हम एक दो दशक पहले के अपने पेन पुरखाओं के सामान्य पूजा अनुष्ठानों को याद करें तो पाते हैं कि हमारे दादा दादी, पंडा पुजारी, भूमका, गायता कभी इतनी भारी भरकम सामग्री का उपयोग नहीं करते थे!

वे कम से कम सामग्री, संसाधन या सीमित संसाधनों से बिना किसी दिखावा किये, शालीन और शांत मंत्रोच्चार करके अनुष्ठान पूरा कर लेते थे। ऐसे सीमित संसाधनों के अनुष्ठान भी स्थाई शक्ति, सुरक्षा देने वाले, फलदाई व कुदरतीय अनुष्ठान के रूप में माने जाते थे। यही इसका मूल है।

आज समाज में इतने क्लिष्ट, अधिक खर्च, अधिक सामग्री और अधिक समय लगाकर सजावट से भरपूर दिखने वाले अनुष्ठान की जरूरत क्यों है?

क्या सामाजिक जनों को ऐसा नाहीं लगता कि वे इस तरह के अनुष्ठान करके ब्राम्हणों के अनुष्ठान विधि से अधिक कठिन बना रहे हैं? जब समाज ब्राम्हणी अनुष्ठानों का विरोधबकर रहा है, तब इस तरह के दिखावा करने की आवश्यकता क्यों??

यदि यही गोंडियन पद्धति के अनुष्ठान हैं तो जो हमारे एक पीढ़ी पहले के लोग जो सादगी से पेन पुरखा अनुष्ठान करते थे, क्या वे गलत अनुष्ठान करते थे? क्या वे गोंडियन अनुष्ठान नहीं थे??

आज आस्था, धर्म, संस्कृति की इतनी बेइज्जती करने की आवश्यकता नहीं हैं! जितनी शालीनता, कम सामग्रियों के साथ, कम समय में पूरा हो सके वही अनुष्ठान कुदरतीय और श्रेठ है। गोंडियन पेन पुरखा सेवा अनुष्ठानों को ब्राह्मणी अनुष्ठानों जैसा अपनाकर दिखावा करने का जामा न पहनाया जाय। हमारे पेन पुरखा अनुष्ठान दिखावा के लिए नहीं होते!!

इस कुदरत की हवा, पानी, मिट्टी, आग, आकाश की अनंत ऊर्जा में विलीन आपके पुरखों को याद करने के लिए किसी अनुष्ठान की नहीं, बल्कि आपके कुदरतीय आत्मिक भाव और सहज व विनम्र वाणी से उस ऊर्जा को अपनी ओर आकर्षित करने की आवश्यकता है। साधारण से साधारण परिस्थिति में कम से कम अनुष्ठान सामग्री के साथ उन्हें नम्र भाव से सम्मानपूर्वक अपनी अर्जी बिनती पहुंचाना होता है। इन्हें उसी सरल विधि में पूरा किये जाएं। विधि को क्लिष्ट या कठिन न बनाया जाए, ऐसा मेरा मानना है।

इसे देखकर मुझे यही लग रहा है कि हम अपने पुरखों की बनाई हुई धार्मिक अनुष्ठानों की मौलिकता खत्म करने में लगे हुए हैं! अनुष्ठानों को मनोरंजक और आकर्षक बनाने में समय का दुरुपयोग और सामग्रियों का व्ययभार बढ़ा रहे हैं! साथ ही भविष्य को एक ऐसे अनचाहे धार्मिक अंधकार की ओर हांक रहे हैं, जो पहले से गोंडियनों की धार्मिक राह में उनकी धार्मिक मौलिकता को लीलने के लिए आतुर बैठी है!!

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शनिवार, 15 जनवरी 2022

हमारे पेन पुरखे चमत्कार नहीं करते...

हमारे पेन पुरखे चमत्कार नहीं करते, बल्कि सांस्कारिक कार्यप्रक्रियाओं में कुदरत के साथ जीव और जीवन का संतुलन बनाते हैं।

अपने पूर्वजों का धन, धरा और धर्म की रक्षा हमारे शिवा कोई और नहीं कर सकता। इस धरा पर जितनी भी बाहर की सभ्यताएं आई, वे सभी ने खूब लूटा, जी भरके लूटा, लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ा! इनमें से एक सभ्यता आज भी इस धरा पर विद्यमान है, जो चमत्कारों पर विश्वास करता है! वह पत्थरों के मूर्तियों के लिए करोड़ों का घर (मंदिर) बनवाता है, उनको दूध पिलाता है, फल फूल और पौष्टिक भोजन खिलाता है, महंगे रत्न जटित वस्त्र पहनाता है, उनकी सेवा और सम्मान करता है, चिकित्सा कराता है, उन्हें स्वस्थ और खुश रखने के लिए कुदरत की बनाई हुई तमाम जीवन संसाधनों का उपयोग करता है! ये प्रक्रियाएं इंसानी प्रजाति के लिए करना उनके चरित्र और सांस्कारों का हिस्सा नहीं लगता!!

पर इन इंसानों ने जिस तरह हिन्दू ग्रंथों लिखा है और इस समय मिट्टी, पत्थर, घांस फूस, रंग रोगन से उनके विचित्र और 8-10 हाथ पैर, शिर के विकृत इंसानी स्वरूप में गढ़े जाने वाले भगवान- गणेश, दुर्गा, कृष्ण, सरस्वती, ब्रम्हा, विष्णु ...... इत्यादि सभी विभिन्न चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध हैं!!

यदि आप हिन्दू ग्रंथों को मानव सांस्कारिक, वैज्ञानिक और विवेकपूर्ण तरीके से पढ़ें/अध्ययन करें तो इनके जीवन व्यवहार में किसी तरह का दैवीय और जैवीय गुणों का सदैव अभाव महसूस कराता है! इनमें मानव सांस्कारिक गुणों की स्थापना का विषय तो कहीं नजर ही नहीं आता, शिवाय चमत्कार के!!

मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूँ क्योंकि गणेश अपनी माँ पार्वती के शरीर के मैल से पैदा हुए, इसे चमत्कार बताया गया! दुर्गा जो स्वर्ग के देवताओं की शारीरिक शोषण की शिकार मामूली सी नर्तकी थी, जो अचानक एक आदिम वंश के धन बल, जन बल, बाहुबल से सम्पन्न राजा महिसासुर की हत्या करके आर्यों की शक्तिशाली देवी और पूज्यनीय माता बन गयी! चमत्कार करने वाली बन गयी!!

कृष्ण को हमेशा से चमत्कारी पुरुष माना जाता है! ये महाभारत में भाई भाइयों को लड़ाकर अपने चमत्कार को स्थापित किया! इनके चमत्कार तब कहां गुम हो गए थे जब द्रोणाचार्य गुरु दक्षिणा के रूप में भील आदिमवंश के एक योद्धा, जो अर्जुन के मुकाबले धनुर्विद्या में ज्यादा पारंगत, धनुर्विद्या के ज्ञानी एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा के रूप में  मांगकर उसे कटवा दिया! जबकि द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाया ही नहीं था, तो गुरु दक्षिणा मांगने का औचित्य ही पैदा नहीं होता! इन्होंने हमेशा समाज से औचित्यहीन दक्षिणा लेकर, भीख मांगकर अपने आपको ज्ञानी समझते रहे!!

द्रोणाचार्य और उस समय के गुरुकुल केवल ब्राम्हण कुल के बच्चों को ही शिक्षा दिया करते थे! इनके अलावा किसी को भी पढ़ने, ज्ञानार्जन का अधिकार नहीं था! यह कोई कम बड़ी बात नहीं है! इनके इन्ही कारणों से आदिम समाज में युगों युगों तक शिक्षा की कमीं रही या बराबरी नहीं कर पाया! यह उस युग से अब तक का सबसे बड़ा कारण रहा है!!

सरस्वती विद्या की देवी के रूप में पुज्यनीय हैं! मैं अब तक यह समझ नहीं पाया कि इस विद्या की देवी का चमत्कार हमारे समाज पर क्यों नहीं हुआ! न ही इसने कोई आश्रम खोले, न ही कोई यूनिवर्सिटी खोली और इनके द्वारा किसी बच्चे को पढ़ाने का कोई पौराणिक प्रमाण भी नहीं है! फिर भी चमत्कार करने वाली विद्या की देवी है! सरस्वती ब्रम्हा की मानसपुत्री थी, वह उसकी पत्नी बन गई! विष्णु ने ऋषिपत्नी अहिल्या का शारीरिक शोषण की! चमत्कारी कृष्ण के हजारों महिला मित्र थे! नदी में नहाते हुए महिलाओं के अंतरंग कपड़े छुपाना, चुराना ये सब ग्रंथों में उल्लेख मिलना हर तरह से इनकी संस्कारहीनता की झलक हैं! इनकी इन्ही संस्कारहीनताओं पर पर्दा डालने का तरकीब ही चमत्कार हैं!!

इनके जन्म की कहानियां तो कुदरत और सारे जीव जगत को मानो शर्मशार करने वाले हैं! कोई अपने माता पिता के द्वारा फलों के खीर खाने से पैदा हो गए, कोई सूर्य का पुत्र है, कोई मुख से पैदा हुआ, कोई मछली से पैदा हुआ, कोई हवा का पुत्र है! जीव का इन तरीकों से जन्म लेने की प्रक्रिया अब तक कुदरतीय जीवन में कभी नहीं देखा गया! ये किसी जीव के द्वारा स्वयं के जैसा दूसरा जीव पैदा करने की शारीरिक प्रक्रियाओं, परिश्रमों तथा कुदरत और विज्ञान को धिक्कारने का अमानवीय व अनैतिक प्रमाण है!!

जीवन में चमत्कार का कोई अस्तित्व नहीं हैं। हमारे पुरखों, गुरुओं, समाज सेविकाओं नें मानवता को गढ़ने के लिए, कुदरतीय और सांस्कारिक अनुशासन को स्थापित करने के लिए असीम शोध और मेहनत की। आगे इनकी हर पीढियां अपने इस कार्य को करते करते जीवन कुर्बान कर दिए।

इसी का प्रतिफल है कि आज इन्ही सांस्कारों के माध्यम से 'मानुष' अब 'मनुष्य' बन सका। रिश्तों की नीतियां और संस्कार बन सके। हजारों साल पहले बनें ये संस्कार, रिश्तों के अनुशासन का जीवन में सदैव सरवोपरि स्थान रहेगा। इन रिस्तो और संस्कारों का सम्मान करने वाले चाहे वे ट्राइबल हो या नानट्राइबल सभी में मानवता बनी रहेगी।

ऐसी दूरदर्शी अनुशासनिक सांस्कारिक व्यवस्था किसी दीगर समाज के किसी भी पुरखों ने नहीं की। बल्कि दीगर समाज ने आपके पुरखों की सांस्कारिक व्यवस्था को ही अपनाया। वर्ना इनके सामाजिक इतिहास में ऐसे टुंडा, मुंडा, कुंडा और गोटूल जैसे सांस्कारों का इनके ग्रंथों में कोई दूसरा नाम भी नहीं दिखता! इन्होंने आपकी सांस्कारिक व्यवस्थाओं, प्रक्रियाओं को चुराई! आपके गोटूल का नाम बदल कर अपने वंश के बच्चों की शिक्षा स्थल का नाम गुरुकुल रखा! इन्होंने गोंडियनों के हर व्यवहार, संस्कार को अपनाया पर कभी गोंडियनों का सम्मान नहीं किया!!

इसका आशय यह है कि इन्होंने जिस पत्तल में खाना खाया उसी में छेद कर दिया! सब कुछ हमारे पुरखों का बनाया हुआ, पर इन्होंने कभी हमारे पुरखों का भी सम्मान नहीं किया, बल्कि फूहड़ता से उन्हें गालियां दी! उन्हें असुर, राक्षस, दैत्य, दानव, पशु इत्यादि की संज्ञा दी! उनके साथ अत्याचार किये, उन्हें गुलाम और दास बनाया, उनके जीवन चरित्र को विकृत रूप में सम्पूर्ण मानव समाज के सामने परोसा गया!!

इस बात को समाज समझे। हमारी नासमझी के कारण इस गोंडवाना धरा पर आए उत्पाती प्रजातियों के वंशों नें अब तक जिस पत्तल पर खाया उसी पत्तल पर छेद करने की व्यवस्था को बनाए रखा है, भले ही इसके स्वरूप अलग हों!!

स्वर्ग के देवियों, चमत्कारिक मातृशक्तियों, चमत्कार से भरे स्वर्ग के देवताओं को पूजा अर्चना करना, उनकी आरती उतारना, घंटी बजाना, अगरबत्ती जलाना ये सब गोंडियन कल्चर का हिस्सा नहीं है। ऐसे धार्मिक कल्चर को बंद करे आदिम समाज। ये सब स्वर्गवासी देवियों, देवताओं के द्वारा थोपा गया चमत्कार मानसिक गुलाम बनाए रखने का पाखंड है!!

आज मेरी शास्वत शिक्षा और ज्ञान ही है जो इन हिन्दू ग्रंथों पर सवाल खड़ा कर रहा है। इस बात का अंदेशा आर्यों को भी था कि यदि ब्राम्हणों के अलावा यहां के, इस धरा के मूलवंश पढ़ लिखकर समझदार बन जायेंगे, ज्ञानार्जन कर लेंगे, तो उनके चमत्कार को कोई नहीं मानेगा! इसलिए वे उन्हें शिक्षा से युगों युगों तक दूर रखा और उनकी अज्ञानता की कोरी बुद्धि में चमत्कार जैसे पाखंड को भरा जाता रहा!!

आज भी चमत्कार या अज्ञानता से भरे आस्था के प्रतीक इन देवी देवताओं की विकृत शरीर वाले फोटो आदिमवंशों के घरों में टंगे दिख जाएंगे! जिनके कारण समाज का जीवन युगों युगों से सत्यानाश होता रहा, उन्ही सत्यानाशियों की फोटो अपने घरों में सजाकर रखना उसी चमत्कारिक आस्था की महागुलामी में फंसे रहने का प्रतीक है!!

ऐसी चमत्कारिक आस्था की महागुलामी का त्याग करे आदिम वंश। उनके अपने पेन पुरखों को सम्मान तभी मिलेगा, जब आपके पुरखों से मिली शिक्षा, संस्कार, विधान अनुसार उनकी बनाई हुई रीति, नीति, परंपराओं का निर्वहन करोगे।

समाज में आज परंपराओं के नाम पर पेन पुरखा पूजाओं में कुछ ऐसे ही आर्य पद्धति के आडंबर देखने को मिल रहे हैं! पूजा पद्धति मानो एक तरह से जरूरत से अधिक खाद्य सामग्रियों के माध्यम से आस्था, परंपरा को सजाने और संवारने की प्रतियोगिता हो रही हो!!

कर्म की महत्ता, संस्कारों की सादगी, शास्वत कुदरत व कुदरत के जीवन संसाधनों और पुरखों का सम्मान जैसे गुणों, प्रक्रियाओं का जीवन व्यवहार में पाया जाना हमें इंसान बनाता है। इन्ही गुणों में ज्ञान है, विज्ञान है और यही असल आदिम जीवन संस्कारों, अलंकारों से सुसज्जित जीवन का परिधान है।

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