शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

हम क्यों बन रहे हैं "आदिवासी"?

आज 26 नवम्बर है। आज का दिन इस देश और देश के नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण और यादगार है। आज ही के दिन 26 नवम्बर, 1949 को डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा 22 भाग, 396 अनुच्छेद और 12 अनुसूची के साथ 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में तैयार किये गए इस पवित्र भारतीय संविधान को पूर्ण स्वरूप देकर देश को सौंपा गया, स्वीकार किया गया। इसी दिन को देशवासियों द्वारा संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद 26 जनवरी, 1950 को इसे लागू किया गया। देश का संविधान/ लोकतंत्र/ गणतंत्र लागू होने की तिथि को 26 जनवरी अर्थात गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

आज संविधान दिवस के उपलक्ष्य में देश के इस लोकतंत्र/ गणतंत्र पर विश्वास रखने वालों के बीच एक दूसरे को बधाई संदेश भेजने का तांता लगा है। एक वक्त था जब जनजातीय समाज के लोग इसे बहुत कम या केवल शिक्षित लोग ही जानते थे। समाज में अशिक्षा और अजागरुकता का व्याप्त होना इसका सबसे प्रमुख कारण था। आज भी समाज के लोग भारतीय संविधान को कम ही सही, किन्तु पढ़ रहे हैं, जागरूक हो रहे हैं और अपने अधिकारों को जानकर समाज को प्रेरित करने का काम भी कर रहे हैं।

हमने अपने जीवन में समाज के कई ऐसे पढ़े-लिखे, वरिष्ठ शासकीय सेवक/ अधिकारी/ कर्मचारियों को भी देखा, जो संविधान, समाज और सामाजिक साहित्यों के प्रति कोई लगाव नहीं रखते थे। उनके पास संविधान या साहित्यों को पढ़ने और जानने की कोई रुचि नहीं थी, जिसके कारण वे साहित्य खरीदते थे न ही पढ़ते थे! ऐसी विडम्बनाएं भी सामाजिक अजागरुकता के कारण बनें। आज भी कमोबेश वही हालात है, किन्तु कई मोबाईल प्लेटफार्म के माध्यम से जागरूकता बढ़ रही है। यह अच्छा संकेत है

यह जागरूकता की ही निशानी है कि लोग संविधान को एक पवित्र ग्रंथ की संज्ञा दे रहे हैं। आज कई लोगों द्वारा सोसलमीडिया के प्लेटफार्मों में लिखा गया कि भारत का संविधान ही देश का सबसे पवित्र ग्रंथ है। इन शब्दों में समाज के लिए एक सुखद भविष्य और मजबूत राष्ट्र निर्माण के लिए बेहतर और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की स्थापना की उम्मीद है। भारतीय संविधान के अनुच्छेदों में उल्लेखित तथ्यों और तर्कों से प्रेरणा लेने, ग्रहण करने और कार्यरूप में क्रियान्वित कराने के लिए संघर्ष से ही सदियों से शोषित, पीडित भारतीय जनजातीय समाज का उद्धार संभव है। यही संविधान की मंशा है

संविधान दिवस के अवसर पर आज लोगों ने संविधान की पुस्तक पर फूल चढ़ाकर उसकी पूजा भी की। मैं समझता हूँ कि देश का संविधान पूजा करने की वस्तु नहीं है। हमारा संविधान श्रेष्ठ लोकतंत्र की स्थापना के लिए ज्ञान की पूँजी है, बौद्धिक ऊर्जा देने वाली ताकत और उज्जवल व सुखद भविष्य के लिए संघर्ष की प्रेरणा देने वाली सबसे बड़ी शक्ति है। इसके सामने सारे ग्रन्थ निर्मूल हैं।

इसी पवित्र ग्रन्थ में भारतीय आदिमजनों/ इस देश के मूलबीज/ मूलवंशों को "जनजाति" नाम दिया गया है। सदियों से विभिन्न समस्याओं से जूझने वाले इन जनजातीय लोगों के उद्धार के लिए इस पवित्र ग्रंथ में सबसे ज्यादा प्रावधान किए गए हैं। या यूं कहें कि भारतीय संविधान के अधिकतर अनुच्छेद/ प्रावधान इन जनजातियों के युक्तिसंगत विकास के कार्यों को दिशा देने के लिए ही स्थापित किये गए हैं। इन जनजातियों को एक अलग और स्पेशल/ विशेष केटेगरी में रखकर स्पेशल ट्रीटमेंट/ उपचार देने के लिए इनके लिए विशेष कानून का प्रावधान किया गया है। विशेष केटेगरी वाले क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र, विशेष केटेगरी वाले लोग अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ावर्ग के केटेगरी में रखे गए हैं। केटेगरी अनुसार उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं तमाम तरह के विपन्नताओं से उबारने के लिए स्पेशल ट्रीटमेंट के प्रावधान किए हैं- जैसे पांचवी अनुसूची, छठी अनुसूची, आरक्षण इत्यादि।

इन विशिष्ट वर्गों के लिए भारत के संविधान में दिए गए ये सारे प्रावधान केवल "अनुसूचित जाति/ जनजाति/ अन्य पिछड़ावर्ग" के नाम से शब्दशः  केटेगराईज करते हुए उन्हें विशेष पहचान, विशेष अधिकार और विशेष शक्ति प्रदान करती है। किन्तु आदिम समाज उस संविधान, जिसे आज पवित्र ग्रंथ मानता है, उस संविधान के द्वारा दी गई "जनजाति" नाम, नाम के साथ दी गई पहचान, पहचान से मिले अधिकार और शक्ति का स्वयं की पहचान "आदिवासी" लिखकर/ बोलकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने में लगा है!

गोंडवाना महादेश के उपमहाद्वीप/ भारत देश के आदिमवंशों/ आदिम जातियों/ मूलवंशों को महामानव, डॉ.बाबासाहब द्वारा देश के संविधान में उन्हें "जनजाति" नाम से संबोधित करते हुए इस शब्द को अपार शक्ति और अधिकार प्रदान की है। आज देखने और सुनने में आता है कि समाज का हर पढ़ा लिखा व्यक्ति, राजनीतिज्ञ, प्रशासन के लोग और सरकार भी, जो संविधान का पालन करने के लिए बाध्य है, वे भी देश के जनजाति समाज को संबोधित करने के लिए प्रायः "आदिवासी" शब्द का ही उपयोग करते हैं!  जनजाति समाज के लोग भी इस गैरों के दिए हुए "आदिवासी" शब्द के पिछलग्गू बन रहे हैं! आखिर ये "आदिवासी" शब्द को जनजातीय समाज के लोग क्यों पसंद करते हैं? ऐसा क्या है इस नाम में? कहां, कब और किसने समाज को यह नाम दिया? क्या यह नाम गोंडवाना वासियों के लिए सम्मानजनक और अस्मिताबोधक है? रिजर्व/ आरक्षित सीट से चुनाव जीतने वाले पढ़े लिखे और संविधान की सपथ लेने वाले सामाजिक राजनेता भी बेधड़क और बेतरतीब तरीके से जनजातीय लोगों को "आदिवासी/ वनवासी/ गिरिवासी" कहते नहीं थकते! ऐसी स्थिति में पूरे जनजातीय समाज को इस विषय में गंभीरतापूर्वक चिंतन करने की आवश्यकता है।

"आदिवासी" शब्द के विषय में नीचे लिखे तथ्यों पर कृपया चिंतन करें-

1. आदिवासी शब्द प्रथमतः गैर संवैधानिक है। जैसे बिना लायसेंस का ड्राइवर! इसलिए भारत का संविधान इस शब्द के माध्यम से आने वाले समय में हमारे अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएगी।

2. यह अस्मिताबोधक लगने के बजाय भीख में मिला हुआ गाली सूचक संम्बोधन का प्रतीक बना हुआ है। जिससे यह आदिम जनों के मूल ऐतिहासिक धरा, संस्कार और सम्मान को ठेस पहुंचाता है।

संम्बोधन में यह जरूर आसान है, किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। संविधान इस शब्द से संबोधन की इजाजत नहीं देती। इसलिए या तो संविधान से "जनजाति" शब्द के स्थान पर "आदिवासी" शब्द स्थापित कराना होगा, और ऐसा कराना आज की स्थिति/ परिस्थिति मे इतना आसान नहीं है। तभी इस शब्द से समाज को शक्ति, सम्मान और अधिकार मिलेगी। हालांकि संविधान सभा मे शामिल समाज के पुरखों ने, खासकर जायपाल सिंह मुंडा जी ने "आदिवासी" शब्द को संविधान मे स्थापित करने के लिए ज़ोर दिया था, किन्तु सर्वमान्य नहीं हो सका।  ऐसी स्थिति मे भविष्य में इस असंवैधानिक शब्द के माध्यम से समाज को भ्रमित और छल किया जा सकता है। यह भविष्य में इस देश के मूलवंशों/ गोंडवाना के गोंडियनों के संवैधानिक आधारभूत ढांचे का सेहत बिगाड़ सकता है और ऐतिहासिक अस्तित्व का नाश कर सकता है। जिनको यह लगता है कि जनजातीय समाज, गोंडवाना धरा के गोंडियन/ गोंड/ कोइतुर जैसे (अस्मिताबोधक, ऐतिहासिक व सांस्कारिक नाम) को "आदिवासी" नाम/ गैर संवैधानिक संबोधन से उनके अधिकार सुरक्षित रह जाएंगे, तो यह सबसे बड़ी भूल है।

इसके साथ ही गोंड जनजातियों के ऊपर उनके अस्तित्व का संकट छत्तीसगढ़ तथा अन्य सभी राज्यों में और गहरा रहा है। वह यह कि गोंडियनों की पहचान का असल गोत्रनाम न लिखना है, जैसे-ठाकुर, ध्रुव, सिदार, गोंड, राजगोंड आदि। ये उपनाम गोंडियनों के गोत्रनाम नहीं हैं। ये उपनाम/ टाइटल असल गोत्रनाम को इंगित नहीं करते। इतिहास के हमारे पुरखे इन नामों को संभवतः समाज में अपनी व्यक्तिगत पदवी/ योग्यता/उच्चता को दर्शाने के लिए लिखते थे। इससे आने वाले 10-20 सालों में उनकी अगली पीढियां अपने मूल गोत्रनाम से वंचित हो जाएंगे/भूल जाएंगे, यह भी आशंका बनी हुई है। इससे उनके मूल हिस्टोरिकल और कल्चरल सामाजिक गोत्र नाम विलुप हो जाएंगे। वहीं नाम के बाद गोत्र नाम लिखने से अगले जानकार लोगों के लिए लिखने/ बोलने/ बताने वाले का ऐतिहासिक कुल कुनबा, गढ़, बाना, देव् संख्या, संबंध, रिस्ता ट्रांस्पिरेन्ट स्वरूप में तुरंत क्लियर हो जाता है। इतना पारदर्शी और दूरदर्शी पारिवारिक/ सामाजिक रिस्ते की समझ से भरा सांस्कारिक जीवन दर्शन का सरल/ मौखिक/अलिखित पारंपरिक साहित्य किसी दूसरे आधुनिक समाज ने अब तक विकसित नहीं पाया है।

इसलिए पूर्व की लेखनी में भी समाज के लोगों को अपनी मंशा से समय समय पर संवैधानिक और कानून की शाब्दिक वर्जनाओं/ सीमाओं को यथाशक्ति जाहिर करते आ रहा हूँ कि "गोंड हिन्दू नहीं है"। यह गोंडवाना धरा के गोंड, गोंडियन कल्चर और शाब्दिक रूप से आदिमजनों के सामाजिक सभ्यता, सांस्कारिक पहचान केवल "गोंड" लिखने वाले समाज के लिए सुप्रीम कोर्ट का 1971 का निर्णय है। यह सुस्पष्ट निर्णय अपने आप को "आदिवासी" लिखने, बोलने, समझने और मानने वालों पर लागू नहीं होता है। इसका आशय यह है, कि जो गोंडवाना धरा के गोंड अपने आपको "आदिवासी" लिखते या समझते हैं, वे कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कानून की नजरों में हिंदुओं का स्थान धारण कर चुके हैं!!

इसी का परिणाम है कि आज धर्म के आधार पर जनजातियों के संवैधानिक अधिकार छिनने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। जल्द ही अब आदिवासियत की स्वीकार्यता के गंभीर दुष्परिणाम सामने आने वाले है। अभी भी वक्त है संभल जाओ और संविधान में नीहित जनजाति और गोंडियनों के ऐतिहासिक संस्कार भूमि/ जन्मभूमि/ धर्मभूमि/ कर्मभूमि से जुड़े पुरखौती नाम गोंडवाना के "गोंड" जैसे शब्द को सम्मान पूर्वक धारण करें, अन्यथा अस्तित्व मिट जाएगा। यह चेतावनी नहीं बल्कि कानून की नजर से भविष्य दृष्टाओं की सच्चाई है।

हमने यह भी देखा कि शासकीय सेवा में जो जनजाति/ गोंड समाज के लोग सेवा दे रहे है, और अपने आपको आदिवासी संबोधित करते हैं, लिखते हैं, उनमें से 99.9% लोगों की सेवापूस्तिका में अपना धर्म "हिन्दू" लिखा हुआ है! वे कभी अपने सर्विस दस्तावेज में सुधार करने की रुचि ही नहीं दिखाते! जबकि सुधारना/ सुधार करवाना उनके अधिकार क्षेत्र में है!!

इसका भी आशय यह है कि वे पढ़े लिखे लोग स्वयं अपने हाथों से अपने आगे की पीढ़ी को उसकी मूल पहचान, संस्कृति, धर्म-धरा और संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने का काम कर रहे है। ऐसा काम कानून की कुल्हाड़ी से अपने और समाज के बच्चों के भविष्य खुद के हाथों से नष्ट करने जैसा है।

यह सभी को पता है कि ब्रांहण/ सवर्ण सामाज, जनजाति समाज के साथ इतिहास से लेकर अब तक कई तरह के छल बल, कानूनी व शाब्दिक कूट रचना का खेल खेलता आया है, और यह अभी भी जारी है! यदि ऐसा नहीं होता तो पिछले 74 सालों के संवैधानिक निर्देशों की प्रगति से देश के हर पीढ़ित, शोषित व्यक्ति, परिवार, समाज को उनके हक, अधिकार और न्याय से दूर नहीं रहना पड़ता! इन छल बल के तरीकों को समझने के लिए शिक्षित होना पर्याप्त नहीं है। शिक्षित होकर देश का संविधान पढ़िये, धार्मिक ग्रंथ नहीं। शिक्षित होकर आप संविधान पढ़ोगे और सरकार से प्रश्न करोगे, इसलिए सदियों से आपके अच्छी शिक्षा के द्वार बंद रखे गए! आपने शिक्षा ली, तो दान मे अंगूठा काट लिया गया! आज भी इस देश में द्रोणाचार्यों की कमी नहीं हैं! आपकी योग्यता के हाथ इन्ही द्रोणाचार्यों के द्वारा काटा जाना निरंतर जारी है! यदि कुछ बदला है तो केवल इनके छल बल, अन्याय, अत्याचार के तौर तरीके बदले हैं! ऐसी दशा मे संविधान ही आपकी रक्षा कवच है, संविधान ही आपकी शक्ति। संविधान से ही न्याय के द्वार खुलेंगे। यह बात अभी के युवाओं को कम समझ आ रहा है, जिससे वे अपने आप को संवैधानिक नाम से अलग नाम "आदिवासी" लिखने, बोलने में गर्व महसूस कर रहे हैं! यह उचित नहीं है।

शायद कुछ लोग सोचते होंगे कि अपना धर्म "कोइतुर/ गोंडी/ सरना/प्राकृतिक/ ट्रायबल इत्यादि) लिखने से उनका सामुदायिक सम्मान छिन जाएगा। यह धारणा गलत है। कोइतुर/ गोंडी ..... लिखने से आपके मूल ऐतिहासिक धरा/ पुरखों की विरासत भूमि "गोंडवाना" का नाम, गोंडियन संस्कृति आपको गौरव और अस्मिता का बोध कराता है। गोंडवाना नाम की ऐतिहासिक धरा आपकी संस्कृति, धर्म, पुरखों के विरासत का सम्मान से जुड़ा हुआ है। जो गोंडवाना के ऐतिहासिक दर्शन/ साहित्यों को पढ़ा है, अपने मूल संस्वकारों से जुड़ा है, वही इस विरासती नाम के महत्व को समझ पाएंगे। पहले अपना इतिहास जानो, फिर मानो।
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