
प्राचीन काल में कुपार लिंगों
कोया पुंगार (मानव पुत्र) हमारे समाज में पैदा हुआ और कोया वंशीय गोंड सगा समाज का
प्रणेता एवं कोया पुनेम का संस्थापक बना. उसका सविस्तार जीवन चरित्र तथा उसके द्वारा
प्रस्थापित किए गए कोया पुनेम और सगा सामाजिक तत्वज्ञान की जानकारी आज हमारे समाज
में व्याप्त है, किन्तु किसी भी भाषा में आज तक इस विषय पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा
गया है. प्रचीन काल में जब गोंडी भाषा गोंडवाना की राजभाषा थी तब किसी के द्वारा
लिखा गया भी हो तो आज उसका नामोनिशान नहीं है. उस अदितीय महापुरुष की चरित्र कथा, उसके द्वारा प्रस्थापित किए गए कोया पुनेमी नीति, सिद्धांत एवं सगायुक्त सामाजिक
तत्वज्ञान की जानकारी आज भी हमारे समाज में मुहजबानी प्रचलित है, फिर भी उस ओर
हमारे समाज के लोग असीम उदासीनता दर्शाते हैं, यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है.
सगा समाजिक तथा धार्मिक तत्वज्ञान इतना उच्च कोटि के मूल्यों से परिपूर्ण है कि हमारे
इस कोया वंशीय मानव समाज पर आर्यों के आक्रमण से लेकर आज तक कितने ही धर्मियों का आक्रमण
हुआ, राजसत्ता छीन ली गई तथा समाजिक व्यवस्था तहस-नहस हो गई, फिर भी हमारे समाज
में धार्मिक विचार धाराओं पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ. कल भी हमारा समाज फड़ापेन का
उपासक था, आज भी है और भविष्य मे भी रहेगा.
हमारा समाज जय सेवा मंत्र का
परिपालनकर्ता था, आज भी करता है और भविष्य में भी रहेगा. इन सभी बातों की ओर ध्यान देने
पर हम गोंड समाज के लोगों का कुपार लिंगों के बारे में स्वाभिमान जागृत होना
स्वाभाविक बात है. क्योंकि वह हमारे समाज में पैदा हुआ तथा वही हमारे लिए सतधर्म
का मार्ग बनाया. उसके द्वारा प्रतिस्थापित की गई सगा सामाजिक व्यवस्था हमारी प्रगत
सभ्यता की विशालकाय वृक्ष है. इसलिय उसका चरित्र एवं कोया पुनेम तत्वज्ञान और सगा सामाजिक
दर्शन का अर्थ समझ लेने की जिज्ञासा हमारे मन में पैदा होनी चाहिए. हमारा कोया
पुनेम तत्वज्ञान उच्चतम मूल्यों से परिपूर्ण होकर भी आज हमें उसका ज्ञान नहीं होना
बहुत ही आश्चर्यजनक बात है. कुपार लिंगों जैसा महान यौगिक तथा बौद्धिक ज्ञानी पुरुष
इस कोया वंशीय गोंड समाज का पुनेम मुठवा (धर्म गुरु) होकर भी उसकी कुछ भी जानकारी
हम स्वयं को गोंड कहने वाले लोगों को नहीं होना और उसे प्राप्त करने कि जिज्ञासा
हमारे दिल में जागृत नहीं होना बहुत ही शर्मनाक बात है. हमारे समाज के लोगों के दिल में हमारी प्राचीन गाथा, पुनेम, इतिहास और संस्कृति के संबंध में बेगजब
वास्तव्य कर रही है. इसलिए हमारी सही योग्यता से हम अनभिग्य हो गए हैं. हमारे
प्राचीनतम अच्छे मूल्यों के बारे में हमारे दिल में स्वाभिमान जागृत होने पर
हमें हमारी वर्तमान हालत पर थोड़ी शर्म आएगी तथा उसमे सुधार करने की इच्छा हममे
जागृत हुए बिना नहीं रहेगी.
गोंड समाज में प्रचलित पुनेमी
कथासरों से कुपार लिंगों का कोया पुनेम दर्शन की जानकारी हमे मिलती है. पारी कुपार
लिंगों के अनुयायियों की संख्या सर्वप्रथम
मंडून्द कोट (तैंतीस) थी. उस वक्त
कुयवा राज्य में चार सम्भाग थे. वे चार संभाग याने उम्मोगुट्टा कोर, येर्रुंगुट्टा
कोर, सयामालगुट्टा कोर और अफोकगुट्टा कोर थे. इन चार संभागो में चार वंशो के कोया
सगा समाज के लोग निवास करते थे, छोटे-छोटे गणराज्य थे. कोया पुनेमी मूठ लिंगों मंत्रों में पूर्वाकोट. मुर्वाकोट, हर्वाकोट, नर्वाकोट, वर्वाकोट, पतालकोट,
सिर्वाकोट, नगारकोट, चाईबाकोट, संभलकोट, चंदियाकोट, अदिलकोट, लंकाकोट,
समदूरकोट, सीयालकोट, सुमालकोट, सुडामकोट आदि गणराज्यो का नाम स्मरण किया जाता है.
उसी तरह उमोली, सिंधाली, बिंदरा, रमरमा, भीमगढ़, आऊंटबंटा, नीलकोढ़ा, सयूममेढ़ी, यूल्लीमट्टा,
पेडूममट्टा, आदि पर्वतों का और युम्मा, गुनगा, सूलजा, नरगोदा, सूरगोदा, पंचगोदा,
वेनगोदा, पेनगोदा, मायगोदा, कोयगोदा, रायगोदा, मिनगोदा आदि नदियों का नाम स्मरण
किया जाता है. उपरोक्त सभी गणराज्य, पर्वतमालाएं और नदियाँ आज किस परीक्षेत्र में हैं
और कौन से नामो से जाने जाते हैं, यह एक अनुसंधान और शोध का विषय है. उपरोक्त सभी
परीक्षेत्रों में कोया पुनेम का पचार प्रसार का कार्य किया गया था, इस बात की
पुष्टि मिलती है, जो हमारे लिए स्वाभिमान की बात है.
अब उस अद्वितीय कोया पुनेम गुरु
कुपार लिंगों ने इस भूतल पर जन्म लेकर कौन-कौन से कार्य किया, इस पर गौर किया गया
तो निम्न बातें हमारे सामने आ जाती है :-
१- प्राचीन कुयवा राज्यों में
प्रजा तिर्या छोटे-छोटे गणराज्यों में निवास करते थे, वे आपस मे अपने-अपने गण
विस्तार के लिए हरदम एक दूसरे के साथ लड़ाई तथा संघर्ष किया करते थे. उन्हें सगा सामाजिक
व्यवस्था में विभाजित कर एक दूसरे में पारी संबंध प्रस्थापित करने का मार्ग बताया,
जिससे उनमे आपसी संघर्ष मिटकर शांतिपूर्ण वातावरण प्रस्थापित हुआ.
२- उसने अपने बौद्धिक ज्ञान प्रकाश
से प्रकृति की सही रूप को पहचाना प्रकृति की जो श्रेष्ठतम शक्ति है, उसे उसने
परसापेन (सर्वोच्च शक्ति) नाम से संबोधित किया जिसके सल्लां और गांगरा ये दो
पूना-उना परस्पर विरोधी हैं और जिनकी क्रिया प्रकिया से ही जीव जगत का निर्माण
होता है और प्रकृति चक्र चलता है. इस प्रकृति को किसी ने बनाया नहीं. वह पहले भी
थी, आज भी है, और भविष्य में भी रहेगी. उसमे केवल परिवर्तन होता रहता है और होता
रहेगा.
३- प्राकृतिक काल चक्र में स्वयं
को समायोजित कर स्वयं का अस्तित्व बनाए रखने सबल और बुद्धिमान नवसत्व मानव समाज
में निर्माण होना अति आवश्यक है. यह जानकर उसने अपने बौद्धिक ज्ञान के बल पर सम-विषय
गुणसंस्कारो के अनुसार सगा सामाजिक संरचना निर्माण की ओर सम-विषम गोत्र, सम-विषम कुल
चिन्ह और सम-विषम सगाओं में भी पारी (वैवाहिक) संबंध प्रस्थापित करने का मार्ग
बताया. जो विषय की सबसे श्रेष्ठ और उच्च कोटि के मूल्यों से परिपूर्ण सामाजिक
संरचना है.
४. कोया पुनेम का अंतिम लक्ष्य सगा
जन कल्याण साध्य करना है. उसके लिए उसने जय सेवा मंत्र का मार्ग बताया है. जय सेवा
याने सेवा का भाव जयजयकार करना अर्थात एक दूसरे की सेवा करके सगा कल्याण साध्य करना.
उसके लिए उसने मूंदमुन्सूल सर्री (त्रैगुण मार्ग) बताया है, जो हमारे बौद्धिक
मानसिक और शारीरिक कर्म इन्द्रियों से संबंधित है.
५- मनुष्य इस प्रकृति का ही अंग
है. अत: प्रकृति की सेवा उसे हर वक्त प्राप्त होती रहे, इसलिये प्रकृतिक संतुलन
बनाए रखना अनिवार्य होता है. उसके लिए प्रकृतिक सत्वो का कोई पालनकर्ता होना चाहिए. कोया वंशीय गोंड सगा समाज में जो ७५० कुल गोत्र है, उन प्रत्येक गोत्र के
लिए एक पशु, एक पक्षी तथा एक वनस्पति कुल चिन्हों के रूप में निश्चित कर दिया है. प्रत्येक
कुल गोत्र धारक का कुल चिन्ह है, वह उनकी रक्षा करता है और अतिरिक्त प्राकृतिक
सत्व हैं, उनका भक्षण या संहार करता है. इस तरह ७५० कुल गोत्र धारण कोया वंशीय
गोंड समाज के लोग एक साथ २२५० प्रकृतिक सत्वों का एक ओर सुरक्षा भी करते हैं,
दूसरी ओर संहार भी. जिससे प्राकृतिक संतुलन बना रहता है और उन्हें प्रकृति की सेवा
निरंतर प्राप्त होती है.
६- सम्पूर्ण कोया वंशीय समाज को
सगायुक्त समाजिक संरचना में विभाजित कर उस संरचना के लिए पोषक हो ऐसे व्यक्तित्व
नववंश के निर्माण करने वाले गोटूल नामक शिक्षा संस्थान की प्रतिस्थापना प्रत्येक ग्राम
में की गई, जहां सगा समाज के छोटे बाल बच्चों को तीन से लेकर अठारह वर्षो तक उचित
शिक्षा प्रदान करने का कार्य किया जाता था, परन्तु आज दुर्भाग्यवश गोटूल शिक्षा
संस्था का नामोनिशान मिट गया है और जहाँ कहीं भी प्रचलित है उसमे विद्रुपता आ चुकी
है.
७- सगा समाज के लोगों को एक जगह
आकर सद्विचार एवं प्रेरणा लेने के लिए उसने पेनकड़ा नामक सर्वसामाजिक गोंगोस्थल की
प्रतिस्थापना की. आज भी गोंड समाज के लोग सामूहिक रूप से पेनकड़ा में जाकर सद्विचार
लेते हैं.
८- प्राकृतिक न्याय तत्व पर आधारित
मुंजोक अर्थात अहिंसा तत्वज्ञान का सिद्धांत भी पारी कुपार लिंगो ने गोंड समाज को
बताया है. मानमतितून नोयसिहवा, जोक्के जीवातून पिसीहवा जीवा सियेतून हले माहवा,
जीवा ओयतून हले ताहवा. पारी कुपार लिंगों का यह कोया पुनेमी मुंजोक सिद्धांत एक
अनोखा सिद्धांत है.
९- उसी प्रकार सत्य मार्ग पर चलने
के लिए सगापूय सर्री, सगा पारी सर्री, सगा सेवा सर्री, सगा मोद सर्री आदि पुनेम
विचार उसने सगा समाज को दी है और यही वजह है कि कोया वंशीय गोंड सगा समाज के लोगों
में सतप्रतिशत ईमानदारी दिखाई देती है.
उपरोक्त सभी बातें अकेले लिंगों
ने ही नहीं की, बल्कि उसके जो मंडून्द कोट शिष्य थे, उन्होंने इस कार्य में मदद
किया. कोया वंशीय गोंड समाज के लोग उन्हें अपने सगा देवताओं के रूप में मानते है.
इस प्रकार जिसने त्रिकलाबाधित कोया पुनेमी निति सिद्धांत एवं सगा सामाजिक संरचना की
प्रतिस्थापना की वह कुपार लिंगों कितना महान बौद्धिक ज्ञानी, योग सिद्ध पुरुष,
श्रेष्ठ नरत्ववेत्ता, शिक्षा वेत्ता तथा भौतिक जगत का ज्ञाता था, यह बात पाठकों के
ध्यान में आए बिना नहीं रहेगी.
इस तरह अदितीय महामानव का महत्व
हमारे कोया वंशीय गोंड सगा समाज में यह महान जीवरत्न पैदा होकर भी उसके बोधामृत से
आज हम लोगों ने परे रहा. यह एक आश्चर्य की बात है. तो आइए हम सब एक साथ मिलकर यह प्रण
करें कि हमारे समाज में प्रचलित लिंगों तत्वज्ञान के सभी पहलूओं का अध्ययन करें
उसे लिखित रूप देकर समाज के लोगों का स्वाभिमान जागृत करें तथा उन्हें एक नए ढंग
से जीने की राह दिखाएं. जिसकी एक निश्चित सामाजिक सगंठन है, सामाजिक संरचना है.
गोंडवाना सामाजिक व्यवस्था में मात्र गोंड समुदाय का ही नहीं अपितु द्रविड मूल के अनेक समुदायों का सांस्कृतिक संगठन एक सा है.
युगविशेष की सामाजिक आवश्यकताओं
को पूरा करने के लिए कार्य विभाजन के आधार पर व्यवस्था का निर्माण हुआ. यही
व्यवस्था जिसका जो काम था उसी काम के अनुसार समुदाय का रूप और पहचान बन गया. इस व्यवस्था से आवश्यकताओं की
पूर्ति होने लगी. जमीन से लोहा तत्व को निकाल कर, उसे पिघला कर उपयोगी लोहा का रूप
देने वालों को अगरिया या अगरिहा, लोहा से कृषि एवं अन्य जीवनोपयोगी व्यावहारिक
सामग्री, औजार बनाने वाले को या काम करने वालों को लोहार, मरे पशुओ के चर्म का
जीवनोपयोगी वस्तु बनाने वाले चर्मकार, पशु संरक्षण एवं संवर्द्धन करने वालो को
गायकी, राऊत या अहीर, नदी तालाब जल में रहने वाले जोवों को पकड़ कर दूसरे के उपभोग हेतु
प्रदान करने वालों को केंवट और ढीमर, वनोपज तथा जड़ी-बूटी के जानकार को बैगा या
भूमिया कहते है. जमीन के अन्दर खुदाई करने वालो को कोल, जंगल में पशु, पक्षी पकड़ने
वाले शिकारी या बहेलिया, सेवा करने वाले जातियों में शुभ अवसर या मनोरंजन के लिए
बाजा बजाने, नृत्य गीत गाकर अपनी प्रतिभा को बनाए रखने वाले बजगरिया या ढोलिया, बांस
की जीवनोपयोगी सामग्री बनाने वाले कंडरा, महार, नगारची, गांड़ा, चिकवा आदि कहलाए.
ये सभी मानव समुदाय प्रकृति मूल की व्यवस्था से आज भी अपना जीवन यापन कर रहे है,
किन्तु सृष्टि एवं मानव व्यवस्था परिवर्तन ने इनके कार्मिक एवं व्यावहारिक जीवन को
अत्यधिक प्रभावित किया है.
मूल रूप से सभी का व्यवसाय धरती
से अन्न पैदा कर स्वयं का तथा इस मानव जाति के लिए भोजन प्राप्त करने का कार्य था.
सामाजिक व्यवस्थाओं के नियमित संचालन के लिए प्रकृति प्रदत्त शक्तियों की मान्यताओं
के साथ उनसे होने वाले लाभ की दृष्टि से श्रद्धा उत्पन्न होने पर पूजा अर्चना होने
लगी.
अग्नि से हमें प्रकाश मिला,
वायु से स्वास बनी, जल हमें जीवन देता है. धरती में स्वयं जीव जगत पैदा हुआ.
वनस्पति हमें शीतल शुद्ध आक्सीजन, वायु मिलता है. शक्ति सामर्थ्य जातियों में गण
प्रमुख जो अपने कबीले और गांव की सुरक्षा, सामाजिक व्यवस्था का परिपालन कराने वाले समुदायों में गोंड (कोयतूर) आगे था. इस समुदाय में जो जहां निवास किया, स्थानीय
क्षेत्रीय परिवेष का असर इसके रहन-सहन, अचार-विचार, व्यवहार में समावेश हो गया. दूरस्थ
और अंचलों में बिखरे होने पर एक दूसरे के सामीय्य न हो सका तथा समय और काल
परिवर्तनों, बाहर से आने वाली आर्य संस्कृति की छाप हमारी सामाजिक व्यवस्था में भी
पड़ने लगी. बाह्य संस्कृति का समावेश होते ही प्रभुसत्ता संपन्न लोगों को पहले धराशाही होना
पड़ा. मजदूर किसान और सामान्य तौर पर मध्यम स्तर के इस प्रभाव से दूर रहे. जिनमे
आर्य संस्कार पड़ा वे अपनी रीति-निति, रोटी-बेटी का व्यवहार भी बदल डाला. मूल रूप
में गोंड वंश एक है. कृषि व्यवसाय और सैनिक के स्तर से लोग सामान्य तथा जो मुखिया
और समकक्ष सामंत लोगों को आगंतुकों ने उपसर्ग लगाकर, जिसके पास कुछ अधिकार था, उसे
“राज” शब्द से संबोधित किया गया और उन्हें राजगोंड की संज्ञा दे दी गई. पूजा में
से कुछ रीति-नीति, कर्म-कांड को व्यवस्थित ढंग से वंश की जानकारी यशोगान का बखान
तथा पूजा पाठ में हिस्सा लेकर संचालन कराने वाले को परधान गोंड कहा गया. जड़ी-बूटी,
मन्त्र-तंत्र तथा जड़ चेतन को समाज हित में उपयोग करने के कार्य में भूमकाल बैगा.
गांव में शादी विवाह, ठाकुर देव, खीला मुठवा, धरती देवों का पूजन वही भूमकाल बैगा
ही करता है. इसके अलावा अनेक समुदाय हैं जो अपने सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप गोंडवाना
समाज में हैं.
वर्तमान स्थिति में गोंडवाना
सामाजिक व्यवस्था अपने मूल सामाजिक संरचना के अनुकूल तो है, किन्तु विकास की जो
परिवर्तन प्रक्रिया है, उसमें शहरों का विकास, अंचलों का क्षीण होना, गांव से
पलायन होने से उनकी धार्मिक आस्थाओं का टूटना, समूह में रहने की सहकारिता की भावना
में कमी के कारण पारिवारिक विघटन की संभावनाएं अधिक हैं. जो नई संस्कृति पनप रही
है उसमे उनकी भिन्न जीवन पद्धति व स्वच्छता के अनुकूल का अभाव दिख रहा है. जिस
सामाजिक व्यवस्था ने प्रकृति व सृष्टि के संतुलन को बनाए रखा. मानव जातियों द्वारा
विज्ञान के नाम पर जो परिवर्तन किए जा रहे है, वे जड़ चेतना के संतुलन को विनष्ट
करने में लगे हैं. जो विज्ञान आज से कई हजार साल विकसित हुई उससे आज की तुलना में
जमीन आसमान का अंतर आ गया है. कौन सा विज्ञान था जिसमे वर्षा, अग्नि, वायु को समय
पर गिरा सकना, एक पल में हजारों किलो मीटर के दृश्य को बता देना, पानी निकाल देना
उस युग की ज्ञान की सीमा है, जिसमे प्रकृति का, धरती का विज्ञान से विनाश नही था,
बल्कि सृष्टि एवं जीव कल्याण उस जीवन पद्धिति में था. अभी भी गोंडवाना जीवन पद्धति
संसार की अनेक मानव समुदायों में पाई जाती है.
दक्षिण गोलार्द्ध में निवास
करने वाले अधिकांशतः कठिन कार्य और शरीर श्रम पर निर्वाह करने के कारण श्याम वर्ण
हैं. जिनकी बनावट आर्य (स्वेत) नश्ल से भिन्न हैं. अस्वेत लोग अपनी आस्था प्रकृति
को माना. ईश्वर या भगवान में निराकार रूप को मानते हैं.
गोंडवाना दर्शन
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yah jankari bahut rochak aur hame apne dharm ki jankari pradan karti hai. iske liye parte ji aapko dhanyawad aur isi tarah ki jankari apne dharm ke baare me dete rahiye jisse hame apne dharm ke prati rujhan badhe.
जवाब देंहटाएंसुक्रिया नेताम जी आपको यह जानकारी अच्छी लगी. हमारा प्रयास यही है कि गोंड और गोंडी धर्म के बारे में जो जानकारी विद्वानों से हमें दी है तथा इतिहासों में उल्लेख है, उसे लोगों तक पहुंचाएं. आगे भी ऐसी जानकारियाँ प्रसारित होती रहेंगी जो लोगों को पढ़कर अपना जीवन धर्म में प्रतिसाद करना चाहिए.
हटाएंdilip bhai aap kaha se ho kya aap ka contect nomber mil sakta hai
हटाएंसब कुछ वही तो है जो सभी मतों..सेक्तों...धर्मों में होता है....नया क्या है ...???
जवाब देंहटाएंइस धर्म में लोगों को बांटने का काम नहीं किया गया है
हटाएंसब कुछ वही है पर इसमे आर्य समाज ,बाह्मण और मुस्लिम का बहुत बडा योगदान रहा आदिवासी की संस्कृति और धर्म ग्रंथो को मिटाने में।
हटाएंमै परधान समाज के अंतगर्त आता हूँ क्या गोंड और परधान अलग अलग है
जवाब देंहटाएंBahut sahi likhe aap ne
जवाब देंहटाएंBilkul satty hai
Aapko dil se seva zuhar jai
Jai seva jai badhadev jai Gondwanaland
बिल्कुल सही जानकारी दिए हैं सर आपने इस विचार के लिए और गोंडवाना संदेश के लिए हमारा सगा समाज
जवाब देंहटाएंसदा आपका आभार व्यक्त करते रहेंगे जय सेवा जय कोयापुनेम पहादी पारी कुपर लिंगो मुंडवा की जय सेवा
बिल्कुल सही जानकारी दिए हैं सर आपने इस विचार के लिए सदा आपका आभार व्यक्त करते रहेंगे जय सेवा जय कोयापुनेम
जवाब देंहटाएंJay seva Jay badadev
जवाब देंहटाएंजय सेवा परते जी बहुत अच्छा लगा और सगा समाज के लिए हमेशा जागृति पैदा करने में मदद मिलत रहे ऐसी कामना करते हैं प्रकृति शक्ति फड़ा पेन जय सेवा!!
जवाब देंहटाएंगोंडवाना महासभा मध्य प्रदेश एवं गोंडवाना के रतन आचार्य मोती रावण कंगाली गोंडवाना संपादक दादा सुनहर सीताराम परम सम्मानीय गोंडवाना समग्र क्रांति आंदोलन के जनक गोंडवाना रतन दादा हीरा सिंह मरकाम की बताए अनुसार गोंडवाना की संस्कृति सभ्यता इतिहास को संजोए रखने के लिए और हमारी परंपरा रीति रिवाज को बनाए रखने के लिए कोया पुनेम गोंडी दर्शन का अध्ययन करते रहिए हमारे समाज की रीति नीति और शिक्षा दीक्षा के बारे में ज्ञान प्राप्त होता रहेगा और समाज को आगे बढ़ाने में कारगर साबित होगा आप सभी को ईद उल सगा समाज को मेरे तरफ से सादर सादर सेवा जोहार
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