रविवार, 7 अक्तूबर 2012

बाणासुर की राजधानी दंडकारण्य

वर्तमान ऐतिहासिक ग्रंथों में देव, दैत्य, असुर, राक्षस जैसे मानव जातियों का सामाजिक जीवन का उल्लेख कहीं नही मिलता न उनकी भाषा-बोली, संस्कार, रीति-नीति ! वे देव, दैत्य, असुर, राक्षस हैं कौन ? इस पर न भारत के और न विश्व के इतिहासकार अपनी लेखनी से सिद्ध कर सके. भारतीय साहित्य जिनमे गीत, कहानी आदि रचनाओं को वर्णनात्मक शैली में प्रचारित किया, इससे ज्ञात होता है कि आर्यों के कोयवाराष्ट्र में पदार्पण के बाद उनके बारे में प्रथम पचार करते हुए 'अगस्त' नामक आर्य पुरुष भारत के उत्तर से दक्षिण को गया. जब विंध्याचल और सतपुड़ा की ऊँचाई हिमालय से भी ऊंची थी. कहने का तात्पर्य हिमालय को तो पार कर लिया गया लेकिन विंध्याचल और सतपुड़ा, बीच में नरमादा (नार गोदा-नर्मदा नदी) को पार करना लोहे के चना चबाने के बराबर था. इन पर्वत मालाओं में अनार्य राजाओं का प्रशासन था. अमरकंटक (लंका) में विश्व का महान वैज्ञानिक, तत्ववेत्ता, योद्धा रावण का राज्य था. पश्चिम जम्बूदीप, मेलघाट, पश्चिमी घाट के सम्मुख पम्पापुर में महान योद्धा, अतुलित शक्ति का आध्येता बाली का आधिपत्य था. उसे जीत सकना अपने को मिटाना ही था. पूर्वी समुद्र तट तक दंडकारण्य में बाणासुर का एक छत्र राज्य था.  दक्षिण भूभाग सिंहल द्वीप समूह तक समुद्र में भी रावण का अग्रज अहिरावण का साम्राज्य था.


यह थी हिमालय से भी शक्ति संपन्न राज्य में प्रविष्ट करना. सीमा क्षेत्र सिंधु तट खैबर और बोलन दर्रा, सिंधुकुश पर्वत को पार कर सिंधु क्षेत्र में वर्षों तक युद्ध होता रहा. वही युद्ध देवासुर संग्राम के नाम से आर्य गर्न्थों में वर्णन दृष्टांत आर्य ग्रंथों में दिया गया है. संस्कृत की रचना इस पृष्ठभूमि में आर्यों के ज्ञानी गायक, रचनाकार और प्रचारक हुए जो सिंधु पर सैकड़ों वर्षों तक कोयवाराष्ट्र को विजित कर प्रवेश करने की योजना बनाते रहे. योजना को क्रियान्वित करने वाला 'अगस्त' आर्य धर्म प्रचारक योद्धा के रूप में अपने कई अंगरक्षक साधू के रूप में सिंधु तट से गंगा तट, फिर नर्मदा तट और महानदी, इन्द्रावती, फिर गोदावरी तट तक पहुचा. गोदावरी नदी जो 'गोइंदारी' के नाम से विख्यात था. इस नदी के आगे 'अगस्त' की यात्रा समाप्त हो गई. अगस्त इस नदी में डूबकर मर गया. उसके साथी भी नदी में नाव डूबने से जल में समा गए. 


वेन्यांचल और येरुंगुट्टाकोर में योगी राज शंभूसेक अनार्य देव शक्ति का संरक्षक था. उसके अनुयायी अपनी मातृशक्ति और पितृशक्ति को आराध्य मानकर अन्य प्रकृतिसम्मत शक्तियों को देवी-देवताओं के रूप में प्रस्थापित करते थे. इन शक्तियों के आधार पर बाह्य आक्रमण और आंतरिक सुख समृद्धि के लिए सतत प्रयास करते रहते थे.


दंडकारण्य में भूपति विश्व वैज्ञानिक रावण का सहोदर असुर राज, योद्धा बाणासुर राज्य करता था. उसका दंडकारण्य भूभाग इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्रतट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्द्क कोया परिक्षेत्र था. वर्तमान बस्तर की बारसूर- इन्द्रावती नदी के तट पर समृद्ध नगर की नीव बाणासुर ने डाली और ग्राम देवी कोयतर माँ की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की. बाणासुर के द्वारा स्थापित देवी (दान्त तोना) गोंडी शब्द को कालान्तर में आर्यों के संस्कृति गीत में दंतेवाड़िन का सीधा अर्थ दांत से कर दिया गया.


इन शक्ति पीठों को ही ध्वस्त करना आर्य धर्म प्रचारकों का कार्य था. जो नगर बसे वहाँ आर्यो का कब्जा हुआ और उस स्थान में ऐसे शिल्प कला का प्रदर्शन करना हुआ जिससे उनके पुरखों की चित्रावली और उनके योद्धा पुरुषों के वर्णन अंकित किये गए. बारसूर राजधानी अनेक राजवंशों की राजधानी थी. ईशा पूर्व २००० वर्ष पूर्व तक असुर योद्धाओं की, नलवंश ४०० से ५०० ई. तक, गंगवंश ८५० ई. से १०२३ ई. और नागवंश महाभारत काल से छिट-पुट शक्ति संपन्न करने में सक्रीय रहे. छिंदक नागवंश ने अपने वंश की शक्ति १०२३ से १३१४ ई. तक अपने पुरखों की शक्ति को संपन्न किया. यह वही वंश है जो कौरव-पांडव के वंश को समाप्त कर दिया था. नागवंश को आर्य ग्रंथ सर्प की जाति मानती है. किन्तु यह अनार्य जाति नाग है, जिसका वंश सब जगह मिलेंगे.


कोईतोर मानवाल अपने मूल पुरुष और शक्ति स्त्रोत संपोषण पशु पक्षी और वनस्पति को मानता है. नागवंश अपना मूल पुरुष नाग जीवधारी से विकसित हुआ और उसे ही अपना देव के रूप में मानता है. नलवंश नेवला को अपना मूल पुरुष मानता है. इसलिए नल और नाग में कभी दोस्ती नहीं हो सकती. वे एक दूसरे से सदा के दुश्मन हैं. गंगवंश- कश्यप, नेताम कछुआ को अपना आध्य पुरुष मानता है. मरकाम लोग सांड को अपना मूल पुरुष के रूप में मानते हैं. बारसूर में नलवंश, गंगवंश, नागवंश, पोलवंश तथा पुलस्त्य वंश का भी आधिपत्य था.


महिसासुर संथाल योद्धा था. पूर्वांचल में पर्वत मालाओं में प्रवेश करना कठिन था. उस महान योद्धा महिषासुर में अनेक भैंसों के बराबर अपार शक्ति थी. उसे जीत पाना आर्यों को कठिन तो था ही तो उन्होंने रात्री के समय आर्य कन्याओं को श्रृंगारित और बना ठनाकर महिषासुर के पास भेजते थे. स्त्रियों को देख पहले तो महिषासुर को आश्चर्य होता था कि मै एक योद्धा और ये स्त्रियाँ, वह भी कमनीय इनसे युद्ध कैसा ? उनके पास जासूसी के लिए आई आर्य कन्या आर्यों के द्वारा दी गई मद्द (नशीली पेय) को पिलाकर अपने साथ रमण करने की इच्छा व्यक्त करती थी. जब पुरुष कामातुर हो जावे और स्त्री रजामंदी से उसे तृप्त करने की उत्सुकता जतावे  तब वह पुरुष, योद्धा प्रवीण होने पर भी स्त्री के सामने नतमस्तक हो जाता है. वैसे ही परिस्थिति में आर्य कन्या दुर्गा द्वारा महिषासुर की ह्त्या हुई, जिसका चित्रण जगह-जगह पत्थरों में, मूर्तियों में उकेरा जाता है और अतिसंयोक्तिपूर्ण प्रचार किया जाता है.


बारसूर में जो पत्थरों की मूर्तियाँ हैं वे १४वी १५वी सदी में आर्य शिल्पकारों द्वारा निर्मित किये गए हैं. छिंदक, दंतेवाड़ा और बस्तर के अनेक स्थलों में इसी समकक्ष के काल में आर्य धर्म प्रचार कड़ी तैयार किये. दंतेवाड़ा के आगे ५००० वर्ष से भी अधिक पुराना मरघट (मुर्दावाली) है. कोंदा मेंदल (बैलाडीला) के नीचे तराई में कश्यप गोत्र का गोंगो ठाना है. कोंदा मेंदल में नंदोरी पहाड़ है, जहां मरकाम गोत्र का सांड उस परिक्षेत्र में पहले पाया जाता था. वहीँ से शंभूसेक ने बाल गौरी को प्राप्त किया था. 


बारसूर वर्तमान बस्तर जिले में गीदम-बीजापुर रोड के उत्तर दिशा में प्राचीन भव्य नगर था. इन्द्रावती नदी के तट पर अनेक भग्नावेश प्राचीन ईशा पूर्व अनार्य राजा बाणासुर की स्थापित राजधानी है. वहीँ अंधकार युग के बाद नलवंश, नागवंश, पोलवंश फिर कौवेवंश की राजधानी का इतिहास तो प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य कारों द्वारा वर्णन किया गया है. किन्तु जब कोइतोर मानव समाज के सामाजिक अध्ययन और उनकी संस्कृति, धर्म, पूजा-अर्चना की अध्ययन करते हैं तो आर्य कथानक सर्वथा झूठे और मनगढ़ंत लगते हैं. दंतेवाड़ा का मड़ई-मेला वास्तव में आर्यों के धर्मानुसार नहीं है. वह तो कोयापुनेम के अधिष्ठाता आदि धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो की ग्राम व्यवस्था के अनुकूल कोयतर माँ की बेटी माता माय खेरमाता मावली (मावा दायी) की पूजा होती है. दक्षिण बस्तर के सभी ग्राम के देवी माता इस मुख्य ठाना में आकर सेवा भेंट करती हैं. उनके सेवक उनका झंडा पालो और आंगा (अंग) को लेकर दंतेवाड़ा में फाल्गुन माह के मड़ई में आते हैं. मेला पखवाड़ा तक रहता है, लेकिन पूजा अर्चना एक दिन होता है. मड़ई में नित्य रात्री को जीवन के शिक्षणों, शिकार आनंद का प्रदर्शन, नृत्य-गीत वाद्य से होता है. यह पर्व बारसूर में प्रथम की जाती थी लेकिन राज्य व्यवस्था परिवर्तन होने पर नदियों के संगम में होने लगा. इस प्रथा परम्परा को आर्यों नें अपने अनुकूल मंदिर, मूर्ती और दंतेवाड़िन की कथा प्रचारित कर शक्तिपीठ को अपने अनुकूल किये. बारसूर में मावली माता (माता माय) की स्थापना लिंगो के सगा भूमकाओं द्वारा हुआ था.  योद्धा बाणासुर ने दंडकारण्य में राज्य स्थापित किया तो माता माय की सर्वप्रथम स्थापना किया, जो माता मावली के रूप में विख्यात हुई. वही १५वी सदी में कौवे वंश ने दंतेवाड़िन का नामकरण वास्तविक तथ्य को दबाकर तथा नया इतिहास गढ़कर प्रचारित किया. इस बाबत लोक भाषा में कोई उल्लेख या साहित्य उपलब्ध नहीं है.


गोंडवाना दर्शन 

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