मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

आदिवासी जनसत्याग्रह और देश की मीडिया का मौन वृत्त

देश की मीडिया को फुर्सत ही नहीं है आदिवासियों की  समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने के लिए ! इसलिए दिल्ली सरकार से पूछने आदिवासी पैदल चलकर खुद पहुँच रहे हैं कि हमारा कसूर क्या है ? क्या हम देश के नागरिक नहीं हैं ? जंगल, जल, जमीन, घर, द्वार छीनकर हमारा शोषण किया जा रहा है, फिर भी तुम मौन हो क्यों ? क्या तुम भी शामिल हो इस प्रपंच में ?


५०,००० से ज्यादा जनसत्याग्रही
आदिवासी दिल्ली कूच 
          जल, जंगल, जमीन से जुड़े आदिवासी समुदाय के सम्मुख अस्तित्व का संकट उन्हें मजबूर करता है कि वे अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़े. पिछले समय एक सनसनीखेज खबर रांची से आई. रांची रेलवे स्टेशन पर १००० आदिवासी युवक युवति और बच्चे रोजगार की तलाश में उत्तर पूर्वी राज्यों की ओर कूच करते हुए पकड़े गए. आखिर प्रश्न उठता है कि क्यों हजारों की संख्या में आदिवासी अपना गाँव, घर, द्वार छोड़कर भाग रहे हैं, जिन्हें हम पलायन कहकर पुकारते हैं. मै अक्सर इतिहास के पन्नों पर इस प्रश्न का उत्तर ढूंडा करता हूँ कि क्या कारण था कि झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा के हजारों हजार आदिवासी  एक साथ, कहीं पूरा परिवार तो कहीं पूरा गाँव असम या भूटान के चाय बागानों में जाकर बस गया. यही नहीं जिस अंडमान मिकोबार द्वीप समूह में भारतीयों को देशद्रोह जैसे भयंकर अपराधों के दंड स्वरुप काला पानी की सजा के रूप में प्रताड़ित करके निर्वासित जीवन गुजारने की सजा मिलती थी, वहाँ भी आदिवासी युवक युवति ख़ुशी-ख़ुशी जाकर बस   गए. उन्हें अब भी यह टापू, अपने देश की तरह सुन्दर और प्यारा लगता है. कारण ढूँढना कोई कठिन नही है, क्योंकि देश की आजादी के बाद विकास के विभिन्न योजनाओं के बावजूद आदिवासी समाज आज भी पलायन को मजबूर है. राजधानी दिल्ली गवाह है कि क्यों डेढ़ लाख से ज्यादा आदिवासी युवक युवतियां राजधानी के पोस इलाकों में घरेलु कामगार के रूप में जीविका अर्जित करने को मजबूर हैं.

          जिनका एक मात्र मूलधन जल, जंगल और जमीन ही लुट गया हो, वे भला पलायन न करें तो क्या करें ? मगर हम कब तक पलायन करते रहेंगे और कहाँ तक पलायन करंगे ? शायद इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए ग्वालियर से ५०,००० से ज्यादा आदिवासियों का दल सत्याग्रह के रूप में दिल्ली पहुंचकर दिल्ली की सरकार के समक्ष वह प्रश्न पूछना चाहता है कि हमारा कसूर क्या है ? गांधीवादी राजगोपाल पीवी के नेतृत्व में दिल्ली की ओर कूच कर रहे आदिवासियों की मांग है कि उनकी जल, जंगल और जमीन न छीनी जाए. संविधान बनाने वालों ने आदिवासियों की सुरक्षा हेतु पांचवी और छटवी अनुसूची का प्रावधान रखा, मगर संविधान के प्रावधानों का अनुपालन करने के लिए कोई सरकारी तंत्र कार्यशील नहीं दिखता.

          अपने अधिकारों की मांग के लिए आदिवासी सत्याग्रहियों का दल दिल्ली की ओर निरंतर बढ़ रहा है. दिन में तेज धुप की तपिस के साथ रात्री में आसमान के नीचे सोने की मजबूरी के बावजूद पदयात्रियों के इरादे बुलंद हैं. पदयात्री अपने पांवों के छाले की परवाह किये बगैर दिल्ली की ओर मुस्तैदी से बढ़ते चले आ रहे हैं. दिल्ली के राष्ट्रीय राजमार्ग पर हजारों की संख्या में कतार में पूरी तरह अनुशासित सत्याग्रहियों का १५ किलोमीटर लंबा जुलूस हर किसी को अभिभूत करता है. लोगों की आँख थक जाती है, पर उसके सामने से गुजर रहे जुलूस का अंत नहीं होता. रास्ते में इन आदिवासियों के विराट जुलूस को देखकर लोग उनके स्वागत में उमड़ पड़ते हैं. जहां वे पड़ाव डालते हैं, वही देखते ही देखते पूरा शहर बस जाता है. लोग पीने का पानी और भोजन का इंतजाम करते हैं. पचासों अलग अलग चूल्हे बन जाते हैं और हर एक सत्याग्रही के पास एक झोला और एक झंडा है, साथ ही एक एक प्लास्टिक सीट है, जिसे रात में सोते समय बिछा लेते हैं और धुप तथा बरसात में छाता बना लेते हैं. हर एक पड़ाव पर सभा और सांस्कृतिक कार्यक्रम द्वारा जोस और उत्साह बढ़ाई जाती है और जल, जमीन, जंगल पर अधिकार के लिए एकता मजबूत की जाती है. केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उन्हें समझा बुझाकर  वापस भेजने की कोशिश की जो बेकार साबित हुआ. आखिर ये वापस जाएँ तो कहाँ जाएँ, उनके घर और खेत तो पहले ही छीन चुके हैं. उनके पास पहचान, सुरक्षा और सम्मान नाम की कोई चीज नहीं रही. आजादी के ६६ साल बीत जाने के बावजूद उन्हें न्याय और सम्मान मिलना तो दूर अब उनके जीने के बुनियादि साधन भी छीन चुके हैं. इन पदयात्री आदिवासियों में काफी बड़ा हिस्सा उन आदिवासियों का है, जिनके इलाके मावोवादियों के चपेट में हैं, जहां उन्हें रात को मावोवादी धमकाते हैं तो दिन में राज्य की पुलिस प्रताड़ित करती है. सलवाजुडूम हो या ग्रीन हंट, आदिवासी अपने लाचार हालत में बदलाव के लिए गांधीवादी सत्याग्रह में कूद पड़े हैं.

          सत्याग्रहियों का काफिला जहां जहां से गुजर रहा है, वहाँ से हजारों लोग काफिला में जुड़ते जा रहे हैं. काफिले में बिहार से १५,००० दलित भी शामिल हैं, जो पिछले कई सालों से छत के लिए दस डिसमिल तो दूर मात्र ३ डिसमिल जमीन की मांग के लिए नीतीश सरकार के पास गुहार लगाते हुए निराश हो चुके हैं.

          कहना नहीं होगा कि भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी वर्तमान व्यवस्था में जहां एक ओर प्राकृतिक संपदा कोयला और लौह अयस्क के लुटेरों की नंगई की परतें एक एक तह खुलती जा रही है, वहीँ भूमिपुत्र आदिवासियों को किस कदर अन्यायपूर्वक अपनी मूल भूमि से खदेड़ा जा रहा है. इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए सत्याग्रही दिल्ली के दरबार में गुहार लगाने को आ रहे हैं.

          वाह री कारपोरेट मीडिया, प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रानिक मीडिया ज़रा बिगबोस या क्रिकेट से फुर्सत निकाल के देश के इन वंचित और पीड़ित आदिवासियों की ओर एक नजर देखिये. प्राकृतिक भू संपदा से जुड़े आदिवासी समुदाय न्याय के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं. इन्हें न्याय दिलाईए.


साभार दलित आदिवासी दुनिया
(सम्पादकीय)


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