शनिवार, 12 मई 2012

कन्या भ्रूण ह्त्या समाज का अभिशाप- टी.वी.शो "सत्यमेव जयते" पर प्रतिक्रिया.

मै सबसे पहले तो आमीर खान जी तथा "सत्यमेव जयते" की पूरी टीम को धन्यवाद देना चाहूँगा कि आपने देश और दुनिया के मानव संस्कारों को निगल रही इस "कन्या भ्रूण ह्त्या" जैसे अभिशाप के खिलाप इस टी.वी.शो के माध्यम से आवाज उठाया.

मै आमीर खान जी से यह सवाल पूछना चाहता हूँ की आज का समाज पढ़ा लिखा, संपन्न, सुखी होकर अब चाँद पर जाने को बेताब है, तो क्या पढ़ा लिखा, सम्पन्न, सुखी होना ही संस्कारित मानव सभ्यता की निशानी है ?

आमीर खान जी, सच मानिए तो मुझे एक्टर और क्रिकेटरों पर कोई दिलचस्पी नहीं है. किन्तु जब मै आपको इस अभियान में देखा तो बहुत बड़ी खुशी मिली और मेरा आपके प्रति आदर्श और सम्मान बढ़ा.

मै यह भी बताना चाहूँगा कि मै एक गोंड आदिवासी समाज से संबद्ध हूँ. मेरा ग्रह ग्राम जैरासी, तहसील बैहर, जिला बालाघाट, मध्यप्रदेश के अंतर्गत आता है. बैहर तहसील पूर्ण अनुसूचित  तहसील है जहां लगभग 85 प्रतिशत गोंड, बैगा और अन्य आदिवासी समुदाय निवास करते हैं. मै वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य मंत्रालय में अपनी सेवा दे रहा हूँ. मेरी केवल दो बेटियाँ हैं. दोनों राष्ट्रीय थागता, ताईक्वांडो (मार्शल आर्ट) के कांस्य एवं सिल्वर विजेता हैं तथा बी.ई.और मेडिकल की पढ़ाई भी कर रही हैं. मेरे लिए दोनों बेटियाँ बेटों से एक अंश भी कम नहीं, बल्कि ज्यादा सहयोगी हैं. मुझे अपने बेटियों पर गर्व है. मुझे अपने माता-पिता, पुरखों से ऐसी किसी भी परिस्थितियों का सामना करना नहीं पड़ा, जो आज लड़कियों के पैदा होने के खिलाफ हो रहा है.

आदिवासी जीवन के किसी भी संस्कार में प्राकृतिक समन्वय की भावना सदियों से मिलती आ रही है. यह समन्वय उनकी सभ्यता, संस्कृति और समुदाईक कर्तव्यों में भी झलकता है. वे अपने क्षेत्रों में पिछड़े और अशिक्षित जरूर है किन्तु यह घिनोनी हरकत उनके सामुदाईक संस्कारिक भावनाओं से अभी आफी दूर है. आदिवासी संस्कारों में लड़कियों का पैदा होना पवित्र माना जाता है. बिना कन्या के कोई भी सांस्कारिक कार्य पवित्र नहीं माना जाता. शायद इन्ही संस्कारों के कारण ही आदिवासी ऐसे घृणित कार्यों से बचा है. आदिवासियों में संस्कारों पर आस्था प्रबल है. इसी संस्कार के कारण महिलाएँ संस्कारों को जन्म देती हैं, लड़का या लड़की को नहीं.

आज देश देश की जनगणना में लड़कियों के जो भी आंकड़े आ रहे हों, वे आंकड़े शहरी परिवेष के नहीं हैं. इन समन्वित आंकड़ों में ग्रामीण क्षेत्रों की 75 से 80 प्रतिशत तक आंकड़े ग्रामीण बालिका संख्या की है. मेरे गाँव में   100 लड़कों के बीच लगभग 140 लड़कियाँ हैं. आदिवासी समाज में लड़के और लड़कियों की यह स्थिति समाज को विभिन्न कुरीतियों और अपराधों से मुक्त रखा है. दहेज और खर्चीली शादी की प्रतियोगिताएँ समाज में नहीं है. बल्कि वधु पक्ष को वर पक्ष के द्वारा रिवाज देना पड़ता है. पिछली जनगणना में जिले में  पुरुषों और महिलाओं की स्थिति 100 : 95 थी. हर आदिवासी क्षेत्रो में बालिकाओं के आंकड़े आगे ही रही है. इस तरह शहरी और ग्रामीण के समन्वित आंकड़ों में अंतर स्पष्ट करता है की "कन्या भ्रूण ह्त्या" जैसी घिनौनी हरकतें पढ़े-लिखे, शिक्षित शहरी मानव समाज में ही व्यापक है.

शहरी मानव समाज की इस घिनौनी अपराध की आग में अब ग्रामीण बालिकाएं भी झुलस रही है,  क्योंकि बालिकाओं की उपलब्धता, पूर्ती का क्षेत्र केवल आदिवासी/ग्रामीण क्षेत्र ही रह गए हैं. जिसके कारण सामूहिक  बलात्कार की आपराधिक घटनाएं शहरों में तो होते ही हैं, किन्तु अब शहर का यह अपराध गाँवों में भी प्रवेश कर चुकी है. यह स्थिति अत्यंत अमानवीय और दुखद है.

परिवार में पैदा होने वाले बालक-बालिकाओं के प्रति माता-पिता के द्वारा समान सहृदयी प्रबल भावना की जरूरत है, जो हर माता-पिता के मन मै पैदा होनी चाहिए. भ्रूण ह्त्या की सोच माता-पिता द्वारा किए जाने वाले अपराध को जन्म देता है. इस अपराध को अंजाम देने वाले अपराधी डॉक्टरों की गिनती बाद में आती है, जो पैसे के लालच में अपने ईश्वरीय पेशे की जमीर को भी बेच डालते हैं. ऐसे पेशेवर डॉक्टरों को उम्रकैद की सजा तो होनी ही चाहिए और ऐसे माता-पिता, परिवार को भी जो बालक-बालिका में भेद पैदा करते है तथा कन्या भ्रूण ह्त्या के लिए प्रोत्साहित या दबाव देते हैं. 


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