हमारे पूर्वजों ने हमें जीवन दिया, जीवन जीने का मार्ग बताया और
हमारे वंशजों के लिए अर्थात भविष्य के मानव जीवन के सार्थक मूल्यों को संजोये रखने
के लिए भी उन्होंने जीवन मन्त्र दिए, किन्तु समय के गर्त ने उन
सांस्कारिक जीवन मूल्यों के मन्त्रों को निगल लिए.
मानव के वैदिक जीवन और वर्तमान भौतिक जीवन में आज जमीन आसमान का फर्क हो गया
है. मानव और विज्ञान इस तथ्य को जानने के लिए सक्षम हो गए हैं कि वह भूत के गर्त
में जाकर तत्यों का पता लगा सके. किन्तु गोंडी विचारों, परम्पराओं और मान्यताओं के
अनुसार “विज्ञान” वर्तमान युग की देन नहीं है.
प्रकृति की उत्पत्ति और विज्ञान की उत्पत्ति समकालीन हैं. अर्थात रासायनिक क्रिया
से प्रकृति का निर्माण हुआ. यह कहा जाए कि यदि रासायनिक क्रिया नही हुई होती तो
प्रकृति की उत्पत्ति नहीं होती और प्रकृति का निर्माण नही हुआ होता. इस तथ्य को हमारे
पूर्वज “विज्ञान” रूपी ज्ञान की उत्पत्ति के
पूर्व से ही जानते थे, तभी उन्होंने सर्वप्रथम विज्ञान की प्रक्रिया से संरचित प्रथम संरचना “प्रकृति” को पूज्य माना. प्रकृति की
संरचना के पश्चात जीवों की संरचना में मनुष्य स्वयं आता है. यह समझ आता है कि
हमारे पूर्वज सृष्टि और प्राणियों की उत्पत्ति की वैज्ञानिक संरचना की महीनता को
समझते थे, भले ही विज्ञान का ज्ञान न समझ
पाए हों. इसीलिए उन्होंने जो दृश्य अपार दिखाई दिया उसे ही पूज्य मान लिया.
प्राचीन गोंडी मान्यताओं में विज्ञान के समावेश का ज्ञान नही होते हुए भी वैज्ञानिक
थी. यह तथ्य आज भी इस आध्यात्मिक तथ्यों से साबित होता है कि- गोंड संरचनात्मक
शक्ति को ही “बड़ादेव” अर्थात सबसे बड़ा शक्ति मानता है. इस बड़ादेव की शक्ति में प्रथमतः केवल दो ही
कारक तत्व शामिल हैं जो संरचना संरचित करती हैं. वह शक्तियाँ हैं- ऋण (-) और धन
(+), चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण एवं प्रतिकर्षण, स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व, स्त्रीतत्व एवं पुरुषतत्व, दाता एवं ग्रहण करने वाला. इन
तत्वों, शक्तियों (Powers)
का समावेश पुकराल के समस्त
दृश्य-अद्रश्य संरचना के लिए लागू होता है. इन अंश तत्वों के सम्मिलन की प्रक्रिया
से तीसरे नए अंशतत्व का निर्माण अथवा विघटन की प्रक्रिया प्रकृति के चक्रण का मूल
सिद्धांत है. इस प्रकृति चक्रण के सिद्धांत को आधुनिक विज्ञान ने भविष्य के लक्ष्य
हेतु अपने जन्म के गर्त में जाकर साबित भी किया है. इस तरह संरचना निर्माण के
तथ्यों का ज्ञान कराने वाला सर्वप्रथम “प्राकृतिक विज्ञान” है. अर्थात प्रकृति का स्वरुप
और प्राणियों की कोमल काया प्राकृतिक विज्ञान की देन है. प्राकृतिक विज्ञान के
पैदा होने के बाद ही तरह-तरह के सहायक विज्ञानों में जन्म लिया, किन्तु मूल रूप में विज्ञान
पूरे स्वरुप में “प्राकृतिक विज्ञान” ही है.
अब सवाल यह उठता है की इस ज्ञान की खोज कब और कहाँ से शुरू हुई ? वर्तमान में इसका सटीक जवाब
विज्ञान के पास भी होना संभव नही है. किन्तु यह सत्य है कि आधुनिक विज्ञान को
प्रकृति ने ही पाला-पोसा और रास्ता दिखाया है, किन्तु आज विज्ञान जन्म देने
वाली कोख (प्रकृति) का ही चीरहरण करने में लगा है. या यूं कहा जाए की विज्ञान
लालची मानव के हाथों की कठपुतली बन गया है. विज्ञान मानव के लिए जितने अच्छे आगे
बढ़ने और विकास के रास्ते खोले, उससे कहीं ज्यादा मानव समाज और
प्रकृति को विनाश के करीब पहुचा रहा है.
साथ ही साथ यह सवाल भी उठता है कि जब विज्ञान की प्राप्त सुविधाएँ नही थी तब
मनुष्य संभवतः ज्यादा सुखी था बनिस्बद विज्ञान की सुविधाएँ मिलने के. तब वह कौन सी
चीज थी जो मानव को लंबी उम्र, संपन्न एवं सांस्कारिक परिवार
और खुशहाल जीवन देता था ? यह वर्तमान और भविष्य के मानव के लिए विचारार्थ एक प्रश्न है, जिसका उत्तर खोजने और जानने के
लिए आज किसी के पास समय ही नहीं बचा है. इसलिए निश्चित ही मानवीय संस्कार नष्ट हो
रहे हैं और संस्कार के बिना मानव भी अमानव या पशु बन रहा है.
मै समझता हूँ कि मानव के वर्तमान और भविष्य की अमानवीयता के लिए हम ही
जिम्मेदार हैं, किन्तु सबसे ज्यादा वह मानव समाज है जो मूलनिवासियों के लिए अब तक कुंठित
व्यवहार का तरह-तरह के अनाध्यात्मिकता, असांस्कारिकता तथा अमानवीयता
आदि के कलुषित बीज अपने जेहन में हमेशा-हमेशा के लिए संजोकर रखा है. इसके पश्चात
भी गोंडवाना के मूलनिवासी पूर्वजों द्वारा सदियों पूर्व बोया गया आध्यात्मिकता, सांस्कारिकता और मानवीयता का
बोया गया बीज अब तक कायम है. वह बीज हैं प्राकृतिक वेद मन्त्र का.
चारो वेदों को हम जानते है. इसके अलावा भी एक और वेद है, जिसे हम विवरणात्मक रूप में
"प्राकृतिक वेद" कह सकते हैं. यह वेद प्रकृति का सबसे प्रथम वेद है. इस
वेद के बाद ही कालान्तर में आर्यों के आगमन के बाद जो वेद लिखे गए वे वर्तमान में
प्रचलित चारों वेद हैं. इस वेद को वेद्कारों के पूर्वजों ने वर्तमान चारों वेदों
को लिखने के पूर्व उसका अध्ययन करने का प्रयास किया किन्तु, पूर्णतः समझने में नाकाम रहे.
जितने समझ पाए वह उनके लिए पर्याप्त नहीं था. जितना समझ पाए उसी में से वर्तमान
वेदों को लिखने का मार्ग प्रशस्त किया और उस वेद को हमेशा-हमेशा के लिए निर्वास या
गर्त पर कहीं छिपा दिया गया. वे इसे पूरी तरह इसलिए नहीं पढ़ पाए, क्योंकि वह संभवतः द्रविडियन
(गोंडी) लिपि में लिखा गया है. इस लिपी के स्त्रोत "सैंधव सभ्यता, मोहन जोदाडों की सभ्यता"
के उत्खनन में पाए गए हैं. उन्हें आशंका थी की यदि यह प्राकृतिक वेद प्रचलन मे रहा
तो उनके राजा ब्रम्हा, विष्णु, इंद्र जैसों को मानने वाला, सम्मान देने वाला इस पृथ्वी पर
कोई नहीं रह जाएगा. उनका मंदिरी और भगवानों का सत्तात्मक आध्यात्म तथा उनका भरण
पोषण का माध्यम खत्म हो जाएगा. इसलिए उन्होंने इस प्रथम वेद का प्रचार-प्रसार बंद
कर दिया. इस वेद का नाम है "अजप वेद".
“अजप वेद” वेदों में एक नया नाम है. संभवतः इसके जिक्र न ही किसी संत समागम में होता है
और न ही इसके कोई उदाहरण हैं. देश और विदेश के संत समागमों में वर्तमान वैदिक
गाथाएँ सर से पैर तक बखाने जाते हैं, किन्तु वह वेद जो प्रकृति और
मानवता को अक्षुण्य रखने के लिए लिखा गया, उसका इस मानव सांसारिक जमीन पर
अस्तित्व बोध किंचित मात्र भी नही होता. इसका अनस्तित्व बोध भी अनार्यों और आर्यों
के मध्य सदियों से चली आ रही धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कारिक असमानता और
पक्षपातपूर्ण रवैये को पुष्ट करता है. वस्तुतः यह खोज का विषय है कि अब तक इसका
जिक्र क्यों नहीं हुआ ?
बताया जाता है कि यह वेद ८८ शम्भुओं के मध्यकाल में लिखी गई होगी. अर्थात
मध्यकालीन संभू गौरा के समकालीन, जो गोंडी गणना में आर्यों के
आगमन के हजारों वर्ष पूर्व का है. गोंडी साहित्यकारों से मेरी कुछ वर्ष पूर्व
चर्चा हुई थी तो उन्हों इस बात की आशंका जताई थी की भारत के दक्षिण भाग अर्थात
दक्षिण भारत में कही पर इस वेद को किसी मंदिर के तलघर में छिपाकर रखा गया है. ऐसा
भी हो सकता है कि उनके वंशज इसे छुपाकर पीढ़ी के अंतराल के कारण भूल भी चुके हों.
यह भी स्पस्ट नहीं है कि वह मंदिर, स्थान कहाँ हो सकती है या
वर्तमान में यह मंदिर है या नही तथा यह भी स्पस्ट नहीं है कि यह वेद किसी कागज़
में लिखा गया है या किसी धातु के प्लेटों में. किन्तु यह माना जा रहा है कि इस पर
प्राकृतिक एवं रासायनिक क्रियाओं का प्रभाव नगण्य रहेगा. हजारों सालों तक जमीन में
गड़े रहने के बाद भी यह कायम रह सकता है. बताया जाता है कि इसे प्रकृति की तरह अटल
विश्वासपूर्वक शांत मन एवं सौम्य भाव से साईलेंटली पढ़ा जाता था. इस वेद के
शब्द्बंधों एवं मंत्रों का प्रवाह और प्रभाव बिजली की कौंध की तरह होता था. अर्थात
तुरंत प्रभावकारी. यह आर्यों के हाथ कैसे लगी ? इसे अब तक कहाँ रखा गया है ? यह सब तथ्य भी धर्मावलंबियों के
लिए गहन खोज का विषय है और जिम्मेदारी भी.
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