मंगलवार, 1 मई 2012

किताबों की सिलेबस में उलझी है जिंदगी और जिंदगी का भविष्य



           किताबों का वास्तविक ज्ञान भविष्य की जिंदगी का सुखद एवं सुद्रढ़ आईना है. इस आईने के रा-मटेरियल का निर्धारण/चयन अर्थात सिलेबस तथा इसे बनाए जाने का तरीका/निर्माण की तकनीकी कुंठित मानसिकता से गढ़ी गई हो तो उसमे भावी भविष्य की स्पष्ट छवि कैसे देखी जा सकती है ? पाठ्यक्रम की सिलेबस लिखने वालों ने अपने आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक, सांस्कृतिक एवं स्वयं की सामाजिक रूप से भविष्य की सुद्रढ़ता के अनुरूप सिलेबस लिखा. सिलेबस और पाठ्यक्रम लिखने वालों की हरकतों पर नजर रखने वालों की नजर भी उनकी रही. सिलेबस और पाठ्यक्रम का परीक्षण करने वाली समीति भी उनके ही लोगों की. छापने वाले लोग भी उन्ही के और पढाने वाले लोग भी. हम तो अब तक केवल आँख बंद करके विश्वास करने वाले, बिना मुह खोले हाथ उठाकर बोलने वाले, दूसरों की सुनाई बातों को सुनने वाले, दूसरों के बताए रास्ते पर चलने वाले बने रहे. यह सब सरल और सहज गुण सदियों से हम पर लदे रहे केवल "अशिक्षा, अज्ञानता और अनभिज्ञता" के कारण. आज हम शिक्षित तो हो रहे हैं, किन्तु समाज की पुरातन गौरव बिखेरने वाले स्वर, लिखने वाले कलम के पदचिन्ह, सतकों से चली आ रही अंधी सिलेबस की आंधी और तूफ़ान से धीरे-धीरे मिटता जा रहा है. वह पदचिन्ह आदिम समाज के गौरवमयी सामाजिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का है, जिसकी आने वाली पीढ़ी को महती आवश्यकता है. हमारे पुरखों ने कहा है- उन्ही का सामाजिक भविष्य सुद्रढ़ हो सकता है, जो समाज अपना इतिहास जानता हो. आज भी हमारा इतिहास तो है, किन्तु लिखने वालों ने अपने तरीके से लिखा और अपना आईना दिखाया. हमें अपना इतिहास लिखने की जरूरत है. अपना इतिहास कोई उधार का व्यक्ति नहीं लिख सकता. वह आदिम सामाजिक  इतिहास के मार्ग को गुमराह ही करेगा, जैसा अब तक करते आया.

          मै इस बात को समझने का प्रयास कर रहा हूँ कि किताबों की सिलेबस से हटकर लोगों की पढ़ने की आदत क्यों नहीं रही तथा सिलेबस और पाठ्यक्रम लिखने वाले तथाकथित दूसरे लोग ही क्यों रहे हैं ? वे तथाकथित लोग जानते हैं कि देश के लोगो को जिस रास्ते पर ले जाना हो तो सबसे पहले अपनी योजना को पाठ्यक्रम को सिलेबस के अनुरूप तैयार करो और पीढ़ियों तक योजनापूर्ण अपनी भावनाओं/बातों को युवा पीढ़ी के मष्तिष्क में डालो. ताकि वो सिलेबस से हटकर अपने और अपने समाज के बारे से कुछ न समझ सके. अपनी सोची समझी नीति के तहत तथाकथित रचनाकार अपनी सोच को अंजाम देते रहे हैं. यदि हमें अपनी सोच को अंजाम देना है तो अपनी पुस्तक/ग्रंथ/इतिहास लिखनी होगी. यदि अपनी आदिम ग्रंथ (प्रकृति संस्कारित) लिखा जाये तो कागज रुपी धरती का स्थान शायद कम पड़ जाएगा और दुनिया के सभी आध्यात्मिक ग्रंथों से बड़ा तथा प्रकृति की संस्कृति स्वरुप में अमृत गुणकारी सिद्ध होगा. भावनाएं भी और निष्ठाएं भी सभी प्राणियों के लिए श्रेष्ठ होगा. ऐसे श्रेष्ठतम इतिहास के लिए पहले हमें सिल्लेबस लिखना होगा. फिर इतिहास की नीव डालनी होगी.

           हमारा इतिहास शंकर-पार्वती, ब्रम्हा-विष्णु, इन्द्र से शुरू नहीं होता, बल्कि प्रकृति की उत्पत्ति से ही शुरू होता है. प्रकृति को ब्रम्हा ने नहीं बनाया, बल्कि प्रकृति में ब्रम्हा पैदा हुआ. इस धरती के राजा प्रथम शंभू, शंभू महादाव (८८ सम्भू महादेवों में से प्रथम) शंभू-मूला दाई से सांस्कारिक शुरुवात माना गया है, जो ईशा के जन्म के २०,०००-१०,००० वर्ष पूर्व का है. गोंडवाना ग्रंथों में इन ८८ शंभू महादेवों का कार्यकाल १०,००० वर्ष का बताया गया है. अब तक जितने भी आध्यात्मिस ग्रंथों में चर्चा, बखान हुई है वह आर्यों के आगमन के बाद का है. यह आगमन तिथि लगभग ईशा पूर्व ५०००-३००० वर्ष के अंत का है जिसका उल्लेख गोंडी पाटा (गोंडी गीतों), रेलों, रेना, सुआ, दादरा आदि गोंडी पाटाओं में मिलते हैं. गोंडवाना भू-भाग के अंतिम ८८वें राजा संभू पार्वती के अंतिम काल में ही (गोंडी ग्रंथों के अनुसार) आर्यों का गोंडवाना भू-भाग में आगमन हुआ. आगमन के समय उनके साथ स्त्रियाँ नहीं थी. स्त्रियाँ साथ में नहीं होने के कारण उनमें सामाजिक एवं सांस्कारिक भावना का अभाव था. वे गोंडवाना के माताओं से ही अपने वंश विस्तार किए. ग्रंथों की कथाओं में वर्णित ब्रम्हा, विष्णु, इन्द्र आदि देवताओं का उल्लेख यहीं से शुरू होता है. जबकी गोंडवाना भू-भाग में इनकी उत्पत्ति के पहले ८७ शंभू महादेवों की लगभग १०००० वर्ष का कार्यकाल बीत चुका था. इसीलिए वर्तमान ग्रंथों का इतिहास अधूरा है, जो छूट गया है वह गोंडवाना का इतिहास है. प्रकृति और मानवता का इतिहास है. प्रकृति और प्राणियों में स्वछन्द प्रेम और भाईचारे का इतिहास है. आर्यों ने धीरे-धीरे गोंडवाना में अपना वंश विस्तार करते हुए अपने अस्तित्व दर्शाने के लिए गोंडवाना की संस्कृति, परम्पराओं के स्वरुप को अनेक तरह से विकृत करना आरंभ कर दिया, जैसा कि उनके व्यवहार में था, जिससे गोंडवाना वासियों के लिए बहुत बड़ा सामुदायिक/सामाजिक संकट उत्पन्न हो गया. दोनों ओर से अस्तित्व के संघर्ष का शंखनाद भी यही से हुआ. आगे चलकर यह संघर्ष रौद्र रूप धारण कर लिया.

          कथाकारों द्वारा वर्णित देव और असुरों (आर्यों और गोंडवाना के मूलनिवासियों/आदिवासियों) के संग्राम को अपने आध्यात्मिक ग्रंथों में देवासुर संग्राम कहा गया है. आर्य स्वयं को देव तथा यहाँ के मूलनिवासियों/आदिवासियों को असुर के रूप में शब्दांकन शुरू किया. इस संबोधन के प्रति उनका मकसद क्या रहा होगा पता नहीं ? किन्तु यह प्रतीत होता है कि यह केवल बुराई या कटुता को ही प्रदर्शित करता रहा होगा. आगे चलकर यह उनके प्रत्येक आध्यात्मिक ग्रंथों में बुराई और कटुता का सबब ही बना. सिलेबस और शब्दांकन की यही है चतुराई. मै यह नहीं मानता की ग्रंथो में दिए सारे अवतरण गलत हैं किन्तु अतिसंयोक्ति एवं अति से भी अछूते नहीं हैं. इन आध्यात्म शास्त्रों के सिलेबस ने इन्सान के दिमाग को आस्था के रूप में मानसिक गुलाम और पंगु बना दिया है. जिसके कारण वीर आदिवासी समाज अपने वास्तविक इतिहास की अनभिज्ञता के कारण सोची समझी सिलेबस की आध्यात्मिकता के सामने घुटने टेक रहे हैं, वे केवल पढ़े लिखे शिक्षित लोग हैं. शायद वे सिलेबस में यह नहीं ढूँढ पाए कि प्राचीन आध्यात्मिक रचनाकार आर्यों के गोंडवाना भू-भाग में प्रवेश के पश्चात की आदिमजातियों और आर्यों के साथ हुए महासंग्रामों को अतिसंयोक्तिपूर्ण शब्दजाल, सिलेबस में बांधा गया है, जिसे वास्तविकता से परे, किन्तु रोचक और लोक-लुभावन कैसे बनाया गया.

          रामायण, महाभारत, गीता, वेद, पुराण सभी आर्यों के आगमन के बाद ईशा पूर्व ५०००-३००० के बीच संभू-पार्वती के काल के ही चित्रण मिलते हैं. किन्तु ईशा पूर्व २००००-१०००० वर्ष के (८७ शम्भुओं) के गाथाओं के कथांकन, चित्रण कहाँ गए, जिन्होंने इस गोंडवाना भू-भाग अर्थात आधे से ज्यादा भू-भाग में मानव जीवन सांस्कारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक योग और गाथाओं का परचम लहराया ?  वे भी कथाकारों की मानसिकता, सिलेबस, उच्चता और निम्नता के जाल में फंसा दिए गए. आर्यों ने स्वयं को इन ग्रंथों में उच्चता और वीरता के रूप में ही प्रदर्शित किया. आर्यों के आगमन के पूर्व का गोंडवाना का इतिहास कहाँ गया ? मेरा यह सबसे बड़ा प्रश्न है, कथाकारों, इतिहासकारों और बुद्धीजीवियों के लिए. यह इतिहास नहीं लिखा गया तो क्यों नहीं लिखा गया ? क्या प्राचीन कथाकारों को यह इतिहास लिखने के लिए परहेज था या सामर्थ्य नही था ? या आर्यों में उस समय कोई ऐसा कथाकार पैदा नहीं हुआ, जो उसे लिख सके या वे जानना या लिखना नहीं चाहते थे ? आज ऐसे कई दुर्लभ प्रश्न मेरे मन में पैदा होते है. क्योंकि मै सिलेबस से हटकर भी पढता हूँ. आध्यात्मिक सिलेबस में आदिम समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, जीवन गाथाओं पर अपना अस्तित्व तलाशने का प्रयास करता हूँ. इस जमीन पर अपने स्थायित्व, अस्तित्व, हक और अधिकार का उत्तर ढूँढता हूँ. यह मेरा अपना सिलेबस है. अपना सिलेबस खुद बनाना पडेगा, लिखना पडेगा. खुद के स्थायित्व और अस्तित्व को कोई बैरागी नहीं बता सकता और न ही प्रमाण दे सकता है. किन्तु देश का दुर्भाग्य है कि चलते फिरते करोडपति लुटेरे बाबाओं, आध्यात्मिको, राजनीतिज्ञों के चंगुल में लोगों की मानसिकता गुलाम हो चुकी है. अपने दिलो दिमाग में इतिहास के समाज को मानवता के रूप में समायोजन करने वाली भाषा ढूँढता हूँ, इतिहास के मिटते हुए पदचिन्हों में अपना ऐतिहासिक अस्तित्व ढूँढता हूँ, किन्तु केवल मिटी हुई निशां ही मिलती है. यही एक पुख्ता सुबूत है कि इसे किसी ने मिटाने का भरसक प्रयास है.

          शायद आप लोगों को पता होगा कि छत्तीसगढ़ में बी.ए. प्रथम समाज शास्त्र की पुस्तक में गोंडी संस्कृति के बारे में अभद्र तरीके से टिप्पणी किया गया था कि - गोंड आदिवासी गोमांस खाते हैं तथा जानवरों की तरह पानी पीते हैं. इसी तरह और भी अभद्र टिप्पणी की गई थी. यह अभद्र टिप्पणी देश में उन लोगों के लिए की गई थी, जिनकी बदौलत देश सोने की चिड़िया कहलाती थी, देश के गोंड राजवंश में सोने के सिक्के चलते थे. कहाँ गई वह सोने की चिड़िया ? कहाँ गए वे सोने के सिक्के ? निश्चित ही देश के दलालों के घर में कैद होकर तड़प रही है. आदिवासी दूर दराज पहाड़ों पर बसने के कारण वह शिक्षा से वंचित होती रही किन्तु मानसिक रूप से और शारीरिक रूप से निर्बल नहीं. वह आर्थिक रूप से कमजोर है किन्तु भूखा नहीं रहा और न ही वह भूख के कारण कभी आत्महत्या किया और न ही भीख मांगे. भूख के कारण मरने वाले इतने कमजोर दिल आदिवासी इतिहास में नहीं रहे. जंगल की आत्मनिर्भरता के कारण वह अपने आप को शांत, सुखी और संपन्न मानता रहा, किन्तु जंगल के खत्म होने के कारण अपनी पीढ़ी के भविष्य के लिए भयभीत और हतोत्साहित जरूर है.

        अनादिकाल से आज तक  आदिम जातियों के प्रति कुंठित मानसिकता भरी सिलेबस और किताबें लिखकर युवा पीढ़ी को भ्रमित किया जा रहा है. उनके चरित्र का आज भी अवास्तविक चित्रं किया जा रहा है और स्वयं के अवास्तविक को वास्तविक. वर्तमान आध्यात्मिक ग्रंथों (रामायण, महाभारत, वेद, पुराण आदि) में वर्णित चारित्रिक चित्रण क्या सही है ? इसका उत्तर मुझे अब तक नहीं मिल पाया. जब भी ज्ञान, आध्यात्म और संस्कारों की बात की जाती है, तब सभी इन्ही ग्रंथों के पात्रों के जीवन संस्कृति की ही चर्चा करते हैं. क्या ये ग्रंथ हमारे लिए उदाहरण के पात्र हैं ? क्या ये ग्रंथ उस समय लिखे गए, जब ये घटनाएं हो रही थी ? क्या उस समय संस्कृत और हिन्दी के इतने अच्छे ग्रंथकार पैदा हो चुके थे ? यदि आर्य ग्रंथकार पैदा हो चुके थे, तो क्या गोंडवाना भू-भाग जहां आर्यों के आगमन के हजारों वर्ष पहले से ही मानव सभ्यता और संस्कृति फल-फूल चुकी थी, वहाँ कोई आध्यात्निक/दार्शनिक पैदा नहीं हुआ ? ऐसा नहीं हो सकता. मात्र शब्दों के भावनात्मक ग्रंथ पिरो लेने से वास्तविकता नहीं बदलत सकती, बल्की अवास्तविकता को वास्तविकता में बदलने का प्रयास भर किया जा सकता है. काफी हद तक वे इसमें सफलता भी पाए हैं.

          आज के अध्ययन और अध्यापन की जटिलता प्राचीन अध्ययन का खुलासा कर रहा है. इस खुलासे में आज प्राचीनतम कहे जाने वाले ग्रंथो की वास्तविकता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं. समय के साथ साथ प्रत्येक संस्करणों के सब्दांकन में भी सुधार की प्रक्रिया देखी जाती रही है. उसे अपनी भावना के अनुरूप ढाला जाता रहा है. किसी भी ग्रंथ में गोंडवाना गणों की सभ्यता, आध्यात्मिकता, सांस्कारिकता, व्यावहारिकता का समरूप चित्रानकर, शब्दांकन और अर्थांकन कहीं भी नहीं मिलता चाहे वह कोई भी ग्रंथ हो. यदि उनमे बुराईयाँ भी हैं तो उसे ग्रंथ की पवित्रता समझकर आगे पूर्णविराम जगा देते हैं. मुझे इन ग्रांथों की धार्मिक पवित्रता और आदिम प्राकृतिक आध्यात्म की सत्यता के बीच में निश्चित ही संदेह उत्पन्न होता है. मै संदेह का उत्तर तलाशने में लगा हूँ, चाहे कोई तलाशे या न तलाशे.

          प्राकृतिक आदिम सांस्कारिक जीवन का आध्यात्म, संस्कारों की शक्ति एवं सत्यता की खोज मेरा सिलेबस है. मेरे सपनों का ग्रंथ "सृष्टी और जीवन का सत्य" है.  
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