माँ की मुस्कान कुदरत की मुस्कान |
सुबह भोर का सूरज निकलने से पहले, घर से अपनी खेतों के लिए निकली ये एक आदिवासी महिला की तस्वीर है, जो पूरे दिन खेत में काम करने के बाद थकान को अपनी ऊर्जामयी मुस्कान से मात देती हुई, शाम को अपने घर की ओर वापस लौट रही है।
समाज में महिलाओं को हमेशा शारीरिक रूप से पुरुषों से कम आंका जाता रहा है, लेकिन इस तस्वीर में जो महिला है और उसकी मुस्कुराहट मुझे ऐसा नहीं सोचने के लिए विवश कर रही है और आप सभी से कुछ और ही कहलवाना चाह रही है।
माताओं की शक्ति अपार है |
जनजातीय समाज के ग्रामीण ग्रामीण जनजीवन में लगभग पिछले 30-40 साल पहले के परिवेश मे महिलाओं, बेटियों, बहनों द्वारा खेत मे बैल चालित हल चलाना/खेती करना वर्जित माना जाता था! आज भी ऐसे बहुत से काम हैं, जो आदिमकाल से पुरुष वर्ग के लिए आरक्षित हैं! शिक्षा ने परिस्थिति और समय के साथ सोच को काफी बदला है और आज की बेटियाँ, माताएँ सदियों पुराने स्थापित उन पुरुषवर्गीय कार्यों मे हाथ बटा रही हैं। खेतों मे बैल चालित हल चलाना हो या अन्य प्रौद्योगिकी के कार्य। महिलाएं, बेटियाँ, बहुएँ इन सब पुरानी वर्जनाओं को तोड़कर परिस्थिति अनुरूप घर, परिवार, समाज और देश को सँवारने और आगे बढ़ाने के काम में ज़िम्मेदारी निभा रही हैं।
खेत में हल चलाती महिलाएं |
मेरी ये पोस्ट स्त्री-पुरूष विरोधी पोस्ट नहीं है, मेरा कहना है कि अब समय काफी बदल रहा है, कुछ हद तक बदल भी चुका है, लेकिन अभी भी गाँव घर में महिलाओं के कामों का बंटवारा किया जाता है! घर की साफ सफाई, किचन, बच्चे, बड़े-बूढ़ों की देखभाल समेत और भी कई छोटी बड़ी जिम्मेदारियाँ महिलाओं के हिस्से में बिना मांगे दे दी जाती है!
स्त्री भगवान द्वारा बनाई गयी अलग से कोई मशीन नहीं हैं। वो भी हम सबकी तरह इंसान हैं। महिलाओं को भी थकान होती है। उनकी भी इच्छा होती है कि कभी कभी, घर के सदस्यों द्वारा बनाया गया खाना खाने को मिले। उनका भी दिल करता है कि जिस तरह वे परिवार के बाकी सदस्यों का ख़्याल रखती हैं, कोई उनका भी ख़्याल रखें। घर द्वार, चूल्हा चौका, पानी बर्तन, लकड़ी फटा, बाल बच्चों, घर के बूढ़ों की सेवा, सत्कार और नौकरी इत्यादि के अलावा खुले आसमान में आज़ाद परिंदों की तरह खुली हवा में भी सांस लें और बाकी दुनिया को जिये।
अगर एक पुरूष अपनी पत्नी के पैर दबा दे, किचन में पत्नी के साथ हाथ बंटाये, चाय पानी पिला दे तो पुरुषत्व खत्म नहीं हो जाता, बल्कि स्त्री के दिल में उनके लिए और भी सम्मान बढ़ जाता है। बेटा-बेटी में फर्क न करें, बेटा हो या बेटी। घर बारी, पढ़ाई लिखाई सब कामों को बराबर सिखाने की कोशिश करनी चाहिए। हाँ, कहीं कहीं पर शायद ऐसा कर पाना आसान न हो, लेकिन अच्छी कोशिश भी एक कामयाबी के बराबर का हक माना जाता है। शहरों में ये बदलाव आराम से देखने को मिल जाता है, लेकिन गाँव घर में अभी ज़रूरत है सोच बदलने की। पुरूष, घर की महिलाओं के साथ उनके कामों में हाथ बंटाने की कोशिश कर सकते हैं। जितना हो सके ज़िम्मेदारी-कर्तव्य मिलबांट कर निभाएं। समय की मांग के हिसाब से अच्छे बदलाव करते हुए समाज को शिक्षित,आदर्श और बेहतर बनाने के लिए अपने घर से पहली शुरुआत करें। भावनात्मक रूप से साथ देकर स्त्री की ताकत बनें, साथ देने से चारों कंधों की मजबूती और भी बढ़ेगी।
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