मैसूर, कर्नाटक में स्थापित महिषासुर
की शिलाकृति
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महिषासुर ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जो सहज ही अपनी ओर लोगों
को खींच लेता है। उन्हीं के नाम पर मैसूर नाम पड़ा है। यद्यपि कि हिंदू मिथक
उन्हें दैत्य के रूप में चित्रित करते हैं, चामुंड़ी द्वारा उनकी
हत्या को जायज ठहराते हैं, लेकिन लोकगाथाएं इसके
बिल्कुल भिन्न कहानी कहती हैं। यहां तक कि बी. आर. आंबेडकर और ज्योति राव फूले
जैसे क्रांतिकारी चिन्तक भी महिषासुर को एक महान उदार द्रविडियन शासक के रूप में
देखते हैं, जिसने लुटेरे-हत्यारे आर्यों (सुरों) से अपने लोगों
की रक्षा की।
इतिहासकार विजय महेश कहते हैं कि ‘माही’ शब्द का अर्थ एक ऐसा व्यक्ति होता है, जो दुनिया में ‘शांति कायम करे। अधिकांश
देशो के राजाओं की तरह महिषासुर न केवल विद्वान और शक्तिशाली राजा थे, बल्कि उनके पास 177 बुद्धिमान सलाहकार थे। उनका राज्य प्राकृतिक संसाधनों से भरभूर था। उनके राज्य में होम या यज्ञ जैसे विध्वंसक धार्मिक
अनुष्ठानों
के लिए कोई जगह नहीं थी। कोई भी अपने भोजन, आनंद या धार्मिक अनुष्ठान के लिए मनमाने तरीके से
अंधाधुंध जानवरों को मार नहीं सकता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके राज्य में
किसी को भी निकम्मे तरीके से जीवन काटने की इजाजत नहीं थी। उनके राज्य में मनमाने
तरीके से कोई पेड़ नहीं काट सकता था। पेडों को काटने से रोकने के लिए उन्होंने
बहुत सारे लोगों को नियुक्त कर रखा था।
विजय दावा करते हैं कि महिषासुर के लोग धातु की ढलाई की तकनीक के विशेषज्ञ थे।
इसी तरह की राय एक अन्य इतिहासकार एम.एल. शेंदज प्रकट करती हैं, उनका कहना है कि “इतिहासकार विंसेन्ट ए
स्मिथ अपने इतिहास ग्रंथ में कहते हैं कि भारत में ताम्र-युग और प्राग ऐतिहासिक
कांस्य युग में औजारों का प्रयोग होता था। महिषासुर के समय में पूरे देश से लोग, उनके राज्य में हथियार
खरीदने आते थे। ये हथियार बहुत उच्च गुणवत्ता की धातुओं से बने होते थे। *लोककथाओं
के अनुसार महिषासुर विभिन्न वनस्पतियों और पेड़ों के औषधि गुणों को जानते थे और वे
व्यक्तिगत तौर पर इसका इस्तेमाल अपने लोगों की स्वास्थ्य के लिए करते थे।
क्यों और कैसे इतने अच्छे और शानदार राजा को खलनायक बना दिया गया?इस संदर्भ में सबल्टर्न संस्कृति के लेखक और शोधकर्ता
योगेश मास्टर कहते हैं कि “इस बात को समझने के लिए
सुरों और असुरों की संस्कृतियों के बीच के संघर्ष को समझना पडेगा”। वे कहते हैं कि “ जैसा कि हर कोई जानता है कि असुरों के महिषा राज्य में बहुत भारी संख्या में
भैंसे थीं। आर्यों की चामुंडी का संबंध उस संस्कृति से था, जिसका मूल धन गाएं थीं। जब इन दो संस्कृतियों में
संघर्ष हुआ, तो महिषासुर की पराजय हुई और उनके लोगों को इस
क्षेत्र से भगा दिया गया”।
कर्नाटक में न केवल महिषासुर का शासन था, बल्कि इस राज्य में अन्य
अनेक असुर शासक भी थे। इसकी व्याख्या करते हुए विजय कहते हैं कि “1926 में मैसूर विश्वविद्यालय ने इंडियन इकोनामिक
कांफ्रेंस के लिए एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, जिसमें कहा गया था कि कर्नाटक राज्य में असुर मुखिया लोगों के बहुत सारे
गढ़ थे। उदाहरण के लिए गुहासुर अपनी राजधानी हरिहर पर राज्य करते थे। हिडिम्बासुर
चित्रदुर्ग और उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन करते थे। बकासुर रामानगर के राजा
थे। यह तो सबको पता है कि महिषासुर मैसूर के राजा थे। यह सारे तथ्य यह बताते हैं
कि आर्यों के आगमन से पहले इस परे क्षेत्र पर देशज असुरों का राज था। आर्यों ने
उनके राज्य पर कब्जा कर लिया”।
आंबेडकर ने भी ब्राह्मणवादी मिथकों के इस चित्रण का पुरजोर खण्डन किया है कि
असुर दैत्य थे। आंबेडकर ने अपने एक निबंध में इस बात पर जोर देते हैं कि “महाभारत और रामायण में असुरों को इस प्रकार चित्रित
करना पूरी तरह गलत है कि वे मानव-समाज के सदस्य नहीं थे। असुर मानव समाज के ही
सदस्य थे”। आंबेडकर ब्राह्मणों का इस
बात के लिए उपहास उड़ाते हैं कि उन्होंने अपने देवताओं को दयनीय कायरों के एक समूह
के रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि हिंदुओं के सारे मिथक यही बताते हैं
कि असुरों की हत्या विष्णु या शिव द्वारा नहीं की गई है, बल्कि देवियों ने किया है। यदि दुर्गा (या कर्नाटक के
संदर्भ में चामुंडी) ने महिषासुर की हत्या की, तो काली ने नरकासुर को
मारा। जबकि शुंब और निशुंब असुर भाईयों की हत्या दुर्गा के हाथों हुई। वाणासुर को
कन्याकुमारी ने मारा। एक अन्य असुर रक्तबीज की हत्या देवी शक्ति ने की। आंबेडकर
तिरस्कार के साथ कहते हैं कि “ऐसा लगता है कि भगवान लोग
असुरों के हाथों से अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते थे, तो उन्होंने अपनी पत्नियों को, अपने आप को बचाने के लिए
भेज दिया”।
आखिर क्या कारण था कि सुरों (देवताओं) ने हमेशा अपनी महिलाओं को असुरों राजाओं
की हत्या करने के लिए भेजा।* इसके कारणों की व्याख्या करते हुए विजय बताते हैं कि “देवता यह अच्छी तरह जानते थे कि असुर राजा कभी भी
महिलाओं के खिलाफ अपने हथियार नहीं उठायेंगे। इनमें से अधिकांश महिलाओं ने असुर
राजाओं की हत्या कपटपूर्ण तरीके से की है। अपने शर्म को छिपाने के लिए भगवानों की
इन हत्यारी बीवियों के दस हाथों, अदभुत हथियारों इत्यादि
की कहानी गढ़ी गई। नाटक-नौटंकी के लिए अच्छी, लेकिन अंसभव सी लगने वाली
इन कहानियों, से हट कर हम इस सच्चाई को देख सकते हैं कि कैसे
ब्राह्मणवादी वर्ग ने देशज लोगों के इतिहास को तोड़ा मरोड़ा। इतिहास को इस प्रकार
तोड़ने मरोड़ने का उनका उद्देश्य अपने स्वार्थों
की पूर्ति करना था।
केवल बंगाल या झारखण्ड में ही नहीं, बल्कि मैसूर के आस-पास भी
कुछ ऐसे समुदाय रहते हैं, जो चामुंडी को उनके महान
उदार राजा की हत्या के लिए दोषी ठहराते हैं। उनमें से कुछ दशहरे के दौरान महिषासुर
की आत्मा के लिए प्रार्थना करते हैं।
पिछले दो वर्षों से असुर पूरे देश में आक्रोश का मुद्दा बन रहे हैं। यदि पश्चिम बंगाल के आदिवासी लोग असुर संस्कृति पर विचार-विमर्श के लिए विशाल बैठकें कर रहे हैं, तो देश के विभिन्न विश्विद्यालयों के कैम्पसों में असुर विषय-वस्तु के इर्द-गिर्द उत्सव आयोजित किए जा रहे हैं। बीते साल उस्मानिया विश्विद्यालय और काकाटिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने ‘नरकासुर दिवस’ मनाया था। चूंकि जेएनयू के छात्रों के महिषासुर उत्सव को मानव संसाधन मंत्री (तत्कालीन) ने इतनी देशव्यापी लोकप्रियता प्रदान कर दी थी कि, मैं उसके विस्तार में नहीं जा रही हूँ।
महिषासुर और अन्य असुरों के प्रति लोगों के बढ़ते आकर्षण की क्या व्याख्या की जाए? क्या केवल इतना कह करके पिंड छुडा लिया जाए कि, मिथक इतिहास नहीं होता, लोकगाथाएं भी हमारे अतीत का दस्तावेज नहीं हो सकती हैं। विजय इसकी सटीक व्याख्या करते हुए कहते हैं कि “मनुवादियों ने बहुजनों के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा। हमें इस इतिहास पर पड़े धूल-धक्कड़ को झाडंना पडेगा, पौराणिक झूठों का पर्दाफाश करना पड़ेगा और अपने लोगों तथा अपने बच्चों को सच्चाई बतानी पडेगी। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर चल कर हम अपने सच्चे इतिहास के दावेदार बन सकते हैं। महिषासुर और अन्य असुरों के प्रति लोगों का बढता आकर्षण बताता है कि वास्तव में यही काम हो रहा है।
पिछले दो वर्षों से असुर पूरे देश में आक्रोश का मुद्दा बन रहे हैं। यदि पश्चिम बंगाल के आदिवासी लोग असुर संस्कृति पर विचार-विमर्श के लिए विशाल बैठकें कर रहे हैं, तो देश के विभिन्न विश्विद्यालयों के कैम्पसों में असुर विषय-वस्तु के इर्द-गिर्द उत्सव आयोजित किए जा रहे हैं। बीते साल उस्मानिया विश्विद्यालय और काकाटिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने ‘नरकासुर दिवस’ मनाया था। चूंकि जेएनयू के छात्रों के महिषासुर उत्सव को मानव संसाधन मंत्री (तत्कालीन) ने इतनी देशव्यापी लोकप्रियता प्रदान कर दी थी कि, मैं उसके विस्तार में नहीं जा रही हूँ।
महिषासुर और अन्य असुरों के प्रति लोगों के बढ़ते आकर्षण की क्या व्याख्या की जाए? क्या केवल इतना कह करके पिंड छुडा लिया जाए कि, मिथक इतिहास नहीं होता, लोकगाथाएं भी हमारे अतीत का दस्तावेज नहीं हो सकती हैं। विजय इसकी सटीक व्याख्या करते हुए कहते हैं कि “मनुवादियों ने बहुजनों के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा। हमें इस इतिहास पर पड़े धूल-धक्कड़ को झाडंना पडेगा, पौराणिक झूठों का पर्दाफाश करना पड़ेगा और अपने लोगों तथा अपने बच्चों को सच्चाई बतानी पडेगी। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर चल कर हम अपने सच्चे इतिहास के दावेदार बन सकते हैं। महिषासुर और अन्य असुरों के प्रति लोगों का बढता आकर्षण बताता है कि वास्तव में यही काम हो रहा है।
(गौरी लंकेश ने यह रिपोर्ट
मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी थी, जो वेब पोर्टल बैंगलोर
मिरर में 29 फरवरी, 2016 को प्रकाशित हुई थी)
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