ईसाई समाज शिक्षित समाज रहा है। इसलिए वह कोई भी कार्य रणनीति के बिना नहीं करता। बड़ी सोच एवं अनुभव के आधार पर ईसाईयों ने अपनी प्रचार नीति अपनाई है। ईसाईयों के धर्मांतरण करने की प्रक्रिया तीन चरणों में होती है-
प्रथम चरण- संस्कृतिकरण (Inculturation)
द्वितीय चरण- विस्तार (Expansion)
तृतीय चरण- प्रभुत्व (Domination)
अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है- Inculturation अर्थात संस्कृतिकरण। इस शब्द का प्रयोग ईसाई समाज में अनेक शताब्दियों से होता आया है। सदियों पहले ईसाई पादरियों ने ईसाईयत को बढ़ावा देने के लिए 'संस्कृतिकरण' रूपी योजना का प्रयोग करना आरम्भ किया था। इसे हम साधारण भाषा में आगे समझने का प्रयास करते हैं-
1. प्रथम चरण में एक बाग़ में पहले एक बरगद का छोटा पौधा लगाया जाता है। वह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता हुआ किसी प्रकार से अपना पोषण और रक्षा कर वृद्धि करने का प्रयास करता है। उस समय वह छोटा होने के कारण अन्य पौधों के मध्य अलग सलग सा नहीं दिखता।
2. अगले चरण में वह पौधा एक छोटा वृक्ष बन जाता है। अब वह न केवल अन्य पौधों से अधिक मजबूत दिखता है, अपितु अपने हक से अपना स्थान घेरने की क्षमता भी अर्जित कर लेता है। वह अन्य पौधों की अपेक्षा अधिक खाद, सूर्य का प्रकाश, पानी ग्रहण करते हुए वर्ष-प्रतिवर्ष उसके पेड़ व जड़ स्थान घेरने की प्रतियोगिता में भाग लेकर विजय पाने की चेष्टा करता हुआ प्रतीत होता है।
3. अंतिम चरण में वह एक विशाल वृक्ष बन जाता है। उसकी शाखाओं के छाँव के नीचे आने वाले सभी पौधे धूप, पानी, खाद जैसे संसाधनों की कमी के चलते या तो उबर नही पाते अथवा मर जाते हैं। उसका वहाँ एक क्षत्र राज कायम हो जाता है। अब वह उस बाग़ का बेताज बादशाह होता है।
ईसाई समाज में भी धर्मांतरण इन्ही तीन चरणों में होता है। एक गैर ईसाई समाज, देश में इसका बीजारोपण संस्कृतिकरण से ही शुरू किया जाता है।ईसाई मत की मान्यताएं, प्रतीक, सिद्धांत, पूजाविधि आदि को छुपाकर उसके स्थान पर स्थानीय धर्म की मान्यताओं को ग्रहण करने जैसा स्वरुप धारण किया जाता है। इस देश में दिखे उदाहरणों से इसे समझने का प्रयास करते हैं-
1. वेशभूषा परिवर्तन- ईसाई पादरी पंजाब क्षेत्र में सिक्ख वेशभूषा में पगड़ी बांधकर, गले में क्रोस लटका कर प्रचार करते हैं। हिंदी भाषी क्षेत्र में हिन्दू साधू का रूप धारण कर, गले में रूद्राक्ष माला में क्रोस डालकर प्रचार करते हैं। दक्षिण भाषी क्षेत्र में दक्षिण भारत जैसे परिधान पहनकर प्रचार करते हैं।
2. प्रार्थना के स्वरुप में परिवर्तन- पहले ॐ क्रिस्ताय नमः, ॐ माता मरियमाय नमः जैसे मनगढ़ंत मन्त्रों का अविष्कार किया जाता है। फिर प्रार्थनागीत आदि लिखे जाते हैं, जिनमे संस्कृत, हिंदी, अथवा स्थानीय भाषा का उपयोग कर ईसामसीह की स्तुति की जाती है। जिसे गाने पर एक धार्मिक विधि लगे।
3. त्यौहार विधि में परिवर्तन- स्थानीय त्यौहार के सामान ईसाई त्योहारों जैसे- गुड फ्राइडे, क्रिसमस आदि का स्वरुप बदल दिया जाता है। जिससे वह स्थानीय त्योहारों के सामान दिखे। कोई गैर ईसाई इन त्योहारों में शामिल हो तो उन्हें अपनापन न लगे।
4. चर्च की संरचना में परिवर्तन- पंजाब में अगर चर्च बनाया जाता है तो गुरुद्वारा जैसा दिखे, हिंदी भाषी क्षेत्र में किसी हिन्दू मंदिर के समान दिखे, दक्षिण भारत में किसी दक्षिण भारतीय शैली में दिखे। चर्च के बाहरी रूप को देखकर हर कोई यह समझे कि यह कोई स्थानीय मंदिर है, ऐसा प्रयास किया जाता है।
5. साहित्य निर्माण- क्रिस्चियन योग, ईसाई ध्यान पद्धति, ईसाई पूजा विधि, ईसाई संस्कार आदि साहित्य के शीर्षकों को प्रथम चरण में प्रकाशित करता है। यह स्थानीय मान्यताओं के साथ अपने आपको मिलाने का प्रयास करता है। अगले चरण ने चर्च स्थानीय भाषा में दया, करुणा, एकता, समानता, ईसा मसीह के चमत्कार, प्रार्थना का फल, दीन दुखियों की सेवा करने वाला साहित्य प्रकाशित करता है। इस चरण का प्रयास अपनी मान्यताओं को पिछले दरवाजे से स्वीकृत करवाने की चेष्टा करता है। यीशु मसीह को किसी हिन्दू देवता एवं मरियम को किसी हिन्दू देवी के रूप में चित्रित करना चर्च के लिए आम बात है। भोले भाले लोगों को भ्रमित करने की यह कला चर्च के संचालकों से अच्छा कोई नहीं जानता।
इस चरण में गैर ईसाई क्षेत्रों में बाकायदा मासिक वेतन के आधार पर पादरियों की नियुक्ति की जाती है। उनका काम दीन दुखियों की सेवा करना, बीमारों के लिए प्रार्थना करना, चंगाई सभा करना, रविवार को प्रार्थना सभा में शामिल होने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करना होता है। इस समय बेहद मीठी भाषा में ईसा मसीह के लिए भेड़ों को एकत्र करना एकमात्र लक्ष्य होता है। यह कार्य स्थानीय लोगों के माध्यम से घुलमिलकर किया जाता है, जिससे आपको उनके ऊपर शक न हो। जितने अधिक धर्म परिवर्तन का लक्ष्य पूर्ण होता है, उतना अधिक अनुदान ऊपर से मिलता है। यह कार्य शांतिपूर्वक, चुपचाप बिना शोर मचाए किया जाता है। इस प्रकार से प्रथम चरण में स्थानीय संस्कृति के समान अपने को ढालना होता है। इसलिए इसे संस्कृतिकरण कहते हैं। हमारे देश में दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, गुजरात, जम्मू कश्मीर, बंगाल आदि राज्य इस चरण के अंतर्गत आते हैं। जहां पर चर्च बिना शोर मचाए विशेष रूप से गरीब बस्तियों में विशेष रूप से आदिवासियों, दलितों को आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को प्रलोभन आदि देकर उनका धर्म परिवर्तन करने में लगा हुआ है।
द्वितीय चरण में विस्तार होता है। छोटा चर्च अब बड़ा स्वरुप लेने लगता है।उसका विस्तार हो जाता है। अब वह छुप छुप कर नही अपितु आत्मविश्वास से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है।
1. स्थानीय सभा के स्वरुप में परिवर्तन- अब वह हर रविवार को आम सभा में लाउडस्पीकर लगाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। अनेक लोग सालाना ईसाई बनने लगते हैं। अब उसके पादरी ईसाई मत क्यों श्रेष्ठ है और स्थानीय देवी देवता क्यों श्रेष्ठ नहीं हैं, यह बताई जाती है. ऐसी बातें चर्च के दीवारों के भीतर खुलेआम बिना रुकावट के बोलने लगते हैं। ऐसे स्थिति में न केवल पादरी बल्कि उनके अनुयायियों में भी आत्मविश्वास बढ़ जाता है। अपितु वे धीरे धीरे आक्रामक भी होने लगते हैं। कुछ अंतराल में बड़ी बड़ी चंगाई सभाओं का आयोजन चर्च करता है। पूरे शहर में पोस्टर लगाए जाते हैं। स्थानीय टेलीविजन पर उसका विज्ञापन भी दिया जाता है। दूर दूर से ईसाईयों को बुलाया जाता है। विदेशी मिशनरी भी अनेक बार अपनी गोरी चमड़ी का प्रभाव दिखाने के लिए आते हैं।
2. चर्च के साथ मिशनरी स्कूल/कालेज का खुलना- अब चर्च के साथ ईसाई मिशनरी स्कूल खुल जाता है। उस स्कूल में आदिवासियों, दलितों, हिन्दुओं के बच्चे मोटी मोटी फीस देकर अंग्रेज बनने आते हैं। उन बच्चों को रोज अंग्रेजी में बाइबिल की प्रार्थना करवाई जाती है। ईसा मसीह के चमत्कार की कहानियाँ सुनाई जाती है। देश में ईसाई समाज की गतिविधियों के लिए दान कहकर धन एकत्र किया जाता है। जो आदिवासी, दलित, हिन्दू बच्चे सबसे अधिक धन अपने माँ बाप से खोस कर लाते हैं, उन्हें और अधिक प्रेरित किया जाता है। जो नहीं लाता उसे नजरअंदाज अथवा तिरस्कृत किया जाता है। कुल मिलाकर अब इन ईसाई कान्वेंट स्कूल से निकले बच्चे या तो नास्तिक अथवा ईसाई अथवा हिन्दू अथवा आदिवासी, सरना धर्म की मान्यताओं से घृणा करने वाले अवश्य बन जाते हैं। इसे 'आपका जूता आप ही के सर' बोलें तो अतिसंयोक्ति नहीं होगी।
3. बिजनेस मॉडल- चर्च अब धर्म परिवर्तित आदिवासियों, दलितों, हिन्दुओं को अपने यहाँ रोजगार देने लगता है। चर्च शिक्षा, स्वास्थ्य, अनाथालय, वृद्धाश्रम, एन.जी.ओ. आदि के माध्यम से समाज सेवा के नाम पर विभिन्न उपक्रम आरम्भ करता है। चपरासी, वाहन चालक से लेकर अध्यापक नर्स, अस्पताल कर्मचारी, डॉक्टर, पादरी, प्रचारक की नौकरियों में उनकी नियुक्ति होती है। कुल मिलाकर यहाँ एक बिजनेस मॉडल के जैसा खेल होता है। धर्म परिवर्तित व्यक्ति को यहाँ इस प्रकार से चर्च पर निर्भर कर दिया जाता है कि अब वह न चाहते हुए भी उसे चर्च की नौकरी करनी पड़ती है। चर्च की नौकरी नहीं करेगा तो वह भूखे मरेगा, जिससे परिवर्तित धर्म से वापस जाने के लिए सोच भी न सके। यह मॉडल विश्व में अनेक स्थानों पर आजमाया जा चुका है।
4. बाइबिल कॉलेज- चर्च अपने यहाँ पर धर्म परिवर्तित ईसाईयों के बच्चों को चर्च द्वारा स्थापित धार्मिक शिक्षा (Theology) देने वाले विद्यालयों में भर्ती करवाने के लिए प्रेरित करता है। यह उद्देश्य दूसरी पीढ़ी को उनके पूर्वजों की जड़ों से पूरी तरह से अलग करना होता है। इन विद्यालयों में वे बच्चे पढ़ने जाते हैं, जिनके माता पिता में सरना धर्म के संस्कार होते हैं। उनके बच्चे एक सच्चे ईसाई के समान सोचें और बरतें। सरना देवी देवताओं और मान्यताओं पर कठोर प्रहार करे और ईसाई मत का सदा गुणगान करे। ऐसे उनकी मानसिक अवस्था को तैयार किया जाता है। इन Theology कॉलेजों से निकले बच्चे ईसाईयत का प्रचार प्रसार रात दिन करते हैं।
5. पारिवारिक कलह- ईसाई चर्च इस कला में माहिर हैं कि जिस परिवार का कोई सदस्य ईसाई बन जाता है तथा अन्य सदस्य सरना आदिवासी बने रहते हैं, वह घर झगड़ों का घर बन जाता है। शुरू में वह ईसाई सदस्य अन्य सभी सदस्यों को ईसाई बनने का दबाव बनाता है। घर के कार्यों में सहयोग करने से मना करना, सरना परम्परा के त्योहारों का विरोध करना, पैतृक पूजा में शामिल न होना, पत्नी और बच्चों को ईसाई न बनने पर संसाधनों से वंचित करना और यहाँ तक कि अपने माता पिता को ईसाई न बनने के विरोध में सुख सुविधा जैसे- भोजन, कपडे, चिकित्सा सुविधा दिलवाना बंद करना आदि के कई उदाहरण हैं।
एक मित्र का अनुभव सांझा कर रहा हूँ, जो वर्ष 2003 का है। मैं (मित्र) कोयंबटूर, तमिलनाडू में एम.बी.बी.एस. का छात्र था। मेरे समक्ष एक परिवार जो ईसाईयों के पेंटाकोस्टल सम्प्रदाय से था, जो मरीज का इलाज करवाने लाया था। इस ईसाई सम्प्रदाय में दवा के स्थान पर रोगी का ईसा मसीह की प्रार्थना से चंगा होने को अधिक मान्यता दी जाती है। उस परिवार का मुखिया अन्य सदस्यों के न चाहते हुए भी अस्पताल से एक गंभीर रोगी की छुट्टी करवाकर चंगाई प्रार्थना करवाने के लिए चर्च ले गया। रोगी का क्या हुआ होगा, सभी समझ सकते हैं। जो ईसाई यह लेख पढ़ रहे हैं, वे कृपया आत्मचिंतन करें। क्या परिवारों को उजाड़ना यीशु मसीह का कार्य है ?
इस दूसरे चरण में तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पंजाब आदि राज्य आते हैं। इन राज्यों में सरकारें चर्च के गतिविधियों की अनदेखी करती हैं, क्योंकि वे चर्च के कार्यों में फ़ालतू हस्तक्षेप करने से बचती हैं। सरकार के नाक के नीचे यह सब होता है मगर वह कुंभकरणी नींद में सोती रहती है।
तीसरे चरण में चर्च एक विशाल बरगद बन जाता है। इस चरण को "प्रभुत्व" का चरण कह सकते हैं। इस चरण में ईसाई मत का गैर ईसाईयों के प्रति वास्तविक सोच के दर्शन होते हैं। चर्च के इस चरण में जायज और नाजायज के कोई अंतर नही रहता। वह उसका साम दाम दंड भेद से अपने उद्देश्य को लागू कराने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता है-
1. हिंसा का प्रयोग- हिंसा पूर्व में उड़ीसा में ईसाई धर्म परिवर्तन का विरोध करने वाले स्वामी लक्षमणानन्द जी की हत्या करना भी इसी नीति के अंदर आता है। उत्तर पूर्वी राज्य त्रिपुरा में रियांग जनजाति बस्ती थी। उस जनजाति ने ईसाई बनने से इंकार कर दिया। उनके गांवों पर आतंकवादियों द्वारा हमला किया गया। उन्हें हर प्रकार से आतंकित किया गया, ताकि वे ईसाई बन जाएं। मगर रियांग स्वाभिमानी थे। वे अपने पूर्वजों की धरती छोड़कर आसाम में आकर अप्रवासी के समान रहने लगे, मगर धर्म परिवर्तन करने से इंकार कर दिया। खेद है कि कोई भी मानवाधिकार संगठन ईसाईयों के इस अत्याचार की सार्वजनिक मंच से कभी निंदा नहीं की।
2. सरकार पर दबाव- अपनी संख्या बढ़ने पर ईसाई समाज एकमुश्त वोटबैंक बन जाता है। चुनाव के दौर में राजनीतिक पार्टियों के नेता ईसाई बिशप के चक्कर लगाते हैं। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो मिजोरम में भारतीय संविधान के स्थान पर बाइबिल के अनुसार राज्य चलाने की सहमति प्रदान की थी। पंजाब जैसे राज्य में सरकार द्वारा धर्म परिवर्तित ईसाईयों के एक प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। मदर टेरेसा दलित दलित ईसाईयों के आरक्षण के समर्थन में दिल्ली में धरने पर बैठ चुकी है। फिर भी कमाल है धर्म परिवर्तन करने के पश्चात भी दलित दलित ही रहते हैं ! केरल और उत्तर पूर्व में राजनीतिक पार्टियों के टिकट वितरण में ईसाई बाहूल्य इलाकों में चर्च की भूमिका सार्वजनिक है। गोवा जैसे राज्य में कैथोलिक चर्च के समक्ष बीजेपी जैसी पार्टियां भी बीफ जैसे मुद्दों पर चुप्पी धारण कर लेती है।
तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता द्वारा पहले धर्म परिवर्तन के विरोध में कानून बनाने, फिर ईसाई चर्च के दबाव में हटाने की कहानी अभी ज्यादा दिन पुरानी बात नहीं है। नियोगी कमेटी द्वारा प्रलोभन देकर जनजातियों/आदिवासियों को इसाई बनाने के विरोध में सरकार को जागरूक करने का कार्य किया गया था। उस रिपोर्ट पर सभी सरकारें बिना किसी कार्यवाही के चुप रहना अधिक श्रेयस्कर समझती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देशाई के कार्यकाल में धर्म परिवर्तन के विरोध में एक विधेयक पेश होना था। उस विधेयक के विरोध में मदर टेरेसा ने हमारे देश के प्रधानमंत्री को यह धमकी दी थी कि अगर इसाई संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाया गया, तो वे अपने सभी सेवा कार्य स्थगित कर देंगे। इस पर देसाई जी ने प्रतिउत्तर दिया कि इसका अर्थ तो यह हुआ कि ईसाई समाज सेवा की आड़ में धर्मांतरण करने का अधिक इच्छुक है। सेवा तो केवल बहाना मात्र है। खेद है कि मोरारजी देसाई की सरकार जल्दी ही गिर गई और यह विधेयक पास नहीं हुआ। इस प्रकार से ईसाई चर्च अनेक प्रकार से सरकार पर दबाव बनाते हैं।
3. गैर इसाईयों के घरों में प्र्भुत्व के लिए संघर्ष- ईसाई समाज से संबन्धित नौजवान लड़के-लड़कियों को ईसाईयत के प्रति समर्पण भाव बचपन से सिखाया जाता है। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होने के कारण उनका आपस में वार्तालाप चर्च के परिसर में, यूथ प्रोग्राम में, बाइबिल के कक्षाओं में, गर्मियों के कैंप में, गिटार/संगीत सिखाने की कक्षाओं में आरंभ हो जाता है। इस कारण से अनेक युवक युवती बहुधा आपस मे विवाह भी कर लेते हैं। इस अंतर धार्मिक विवाह को कुछ लोग सेक्युलर समाज का अभिनव प्रयोग चाहे कहना चाहे, मगर इस संबंध का एक अन्य पहलु भी है। वह है प्र्भुत्व। इसाई युवती अगर आदिवासी युवक से विवाह करती है तो इसाई रीति-रिवाजों, चर्च जाने, बाइबिल आदि पढ़ने का त्याग कभी नहीं करती। उस विवाह से उत्पन्न हुई संतान को भी यही संस्कार देने का पूरा प्रयत्न करती है। वहीं अगर ईसाई युवक किसी आदिवासी लड़की से विवाह करता है, तो वह अपनी धार्मिक मान्यताओं को उस पर लागू करने के लिए पूरा जोर लगाता है। जबकि गैर ईसाई युवक-युवतियाँ अपनी धार्मिक मान्यताओं को लेकर न प्रबल होते और न ही कट्टर होते हैं। इस प्रभुत्व की लड़ाई में गैर ईसाई सदस्य बहुधा आत्मसमर्पण कर देते हैं। अन्यथा उनका घर कुरुछेत्र न बन जाये। धीरे-धीरे वे खुद इसाई बनने की ओर चल पड़ते हैं। ईसाई समाज के लड़के-लड़कियां आदिवासी समाज के प्रबुद्ध वर्ग जैसे- डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, बहुराष्ट्रीय कंपनी मे कार्यरत युवक-युवतियों से ऐसा संबंध अधिकतर बनाते हैं। इस प्रक्रिया के दूरगामी परिणाम पर बहुत कम लोगों की दृष्टि जाती है। कम शब्दो में कहें तो आदिवासी समाज की आर्थिक, सामाजिक, नैतिक प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे उसी के विरूद्ध कार्य करने लगती है। पाठक स्वयं विचार करे। यह कितना चिंतनीय विषय है।
4. व्यापार नीति- बहुत कम लोग जानते हैं कि संसार के प्रमुख ईसाई देशों के चर्च व्यापार मे भारी भरकम धन का निवेश करते हैं। चर्च आफ़ इंग्लैंड ने बहुत बड़ी धनराशि इंग्लैंड की बहुराष्ट्रीय कंपनीयों में लगाई हुई है। यह विशुद्ध व्यापार है। यह एक प्रकार का चर्च और व्यापारियों का गठजोड़ है। इन कंपीनियों से हुए लाभ को चर्च/ईसाई धर्मनांतरण के कार्यों में व्यय करता है। जबकि व्यापारी वर्ग के लिए चर्च धर्मांतरित नए उपभोक्ता तैयार करता है। एक उदाहरण लीजिए- चर्च के प्रभाव से एक आदिवासी, दलित, हिन्दू धोती-कुर्ता छोड़कर पैंट-शर्ट-कोट-टाई पहनने लगता है। व्यापारी कंपनी यह सब उत्पाद बनाती है। चर्च नए उपभोक्ता तैयार करता है। उसे बेचकर मिले लाभ को दोनों मिलकर प्रयोग करते हैं। यह प्रयोग अनेक शताब्दियों से संसार के अनेक देशों में होता आया है। प्रभुत्व के इस चरण में अनेक छोटे देशों की आर्थिक व्यवस्था प्रत्यक्ष रूप में इस प्रकार से बहुराष्ट्रीय कंपनियों और परोक्ष रूप से चर्च के हाथों में आ चुकी हैं। यह प्रक्रिया हमारे देश में भी शुरू हो चुकी है। इसका एकमात्र समाधान स्वदेशी उत्पादों का अधिक से अधिक प्रयोग है।
5. सांस्कृतिक अतिक्रमण- विस्तार चरण में चर्च सांस्कृतिक अतिक्रमण करने से भी पीछे नहीं हटता। वह उस देश की सभी प्राचीन संस्कृतियों को समूल से नष्ट करने का संकल्प लेकर यह कार्य करता है। आपको कुछ उदाहरण देकर समझाते हैं- झारखंड, उड़ीसा, बिहार, बंगाल में करम महोत्सव में करम डाल के साथ या करम डाल के जगह पर "क्रॉस" लगाकर करम पूजा करना, यीसु से संबन्धित गीत भी होता है। केरल मे कथकली नृत्य के माध्यम से रामायण के प्रसंगों का नाटक रूपी नृत्य किया जाता था। ईसाई चर्च ने कथकली को अपना लिया, मगर रामायण के स्थान पर ईसा मसीह के जीवन को प्रदर्शित किया जाने लगा। तमिलनाडू में भरतनाट्यम नृत्य के माध्यम से नटराज/शिव की पूजा करने का प्रचलन है। चर्च ने भरतनाट्यम के मध्यम से माता मरियम को सम्मान देना आरंभ कर दिया। हिन्दू त्योहारों जैसे- होली, दीपावली को प्रदूषण बताया और 14 फरवरी जैसे फूहड़ दिन को प्रेम का प्रतीक बताकर मानसिक प्रदूषण फैलाया। हर ईसाई स्कूल में 25 दिसंबर को सांता के लाल कपड़े पहन कर केक काटा जाने लगा। देखा देखी सभी हिन्दुओं द्वारा संचालित विद्यालय भी ऐसा ही करने लगे। किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वे लोग किसका अंधानुसरण कर रहे हैं। इसे ही तो सांस्कृतिक अतिक्रमण कहते हैं।
तृतीय चरण मे हमारे देश के केरल, उत्तर पूर्वी राज्य नागालैंड, गोवा आदि आते हैं, जहाँ की सरकार तक ईसाई चर्च की कृपा के बिना नहीं चल सकती। असली आदिवासी तो यहाँ खत्म ही हो चुके हैं। समीप जाकर देखेने से ही आपको पूरी तरह मालूम चल जायगा। अगर तीसरा प्रभुत्व का चरण भारत के अन्य राज्यों में भी आरंभ हो गया तो भविष्य मे क्या होगा? यह यक्ष प्रश्न पाठकों के लिए है। आदिवासी समाज को अपनी रक्षा एवं बिछुड़ चुके अपने भाइयों को वापिस लाने के लिए दूरगामी वृहद नीति बनाने की अत्यंत आवश्यकता है। अन्यथा बहुत देर न हो जाये !!
दीपक हंसदा (झारखंड)
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