गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

"गुरु" कोल "लाको बोदरा" जी की जयंती

संकलन- बोदरा घनश्याम 

गुरु कोल "लाको बोदरा" जी के जयंती के शुभ अवसर पर आप सभी को जोहार.


गुरु कोल लाको बोदरा का जन्म कोल्हान, पश्चिम सिंहभूम, झारखंड के खूंटपानी प्रखंड के पासेया गाँव में सन १९ सितंबर १९१९ ई. को हुआ था.


लाको बोदरा के पिता का नाम लेबेया बोदरा और माता का नाम जानो कुई था. लाको बोदरा ने प्राथमिक शिक्षा की पढ़ाई सरकारी प्रायमरी स्कूल बडचोम हातु से किया था. प्रायमरी शिक्षा पूरा करने के बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए पुरुईयाँ मिडिल स्कूल में दाखिला लिया. आठवीं कक्षा की परीक्षा पास करने के बाद लाको बोदरा अपने मामा के पास चक्रधरपुर रहने चले गए जहां से वे हाई स्कूल की शिक्षा नौवी कक्षा तक ग्रामर स्कूल, चक्रधरपुर से पूरा किया. फिर लाको बोदरा अपनी आगे की पढ़ाई के लिए चक्रधरपुर से चाईबासा में दाखिला लिया जहां से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. उच्च शिक्षा के लिए जयपाल सिंह की मदद से उन्होंनें जालंधर सिटी कॉलेज जालंधर (पंजाब) में दाखिला लिया, जहां से उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा विज्ञान में पूरा किया और वहीँ से होम्योपैथिक चिकित्सा की डिग्री भी प्राप्त की.


जालंधर (पंजाब) से वापस आने के बाद रेलवे में एक लिपिक के रूप में भरती हुये. उनका पहला तैनाती स्थान डांगुवापूसी में किया गया. लाको बोदरा ने रेलवे में नौकरी करते हुये "वारंगचिति" लिपि का अविष्कार किया.
 "वारंगचिति" लिपि के विकास के लिए उन्होंने महाती बांडरा के सहयोग से जोड़ापोखर, झींकपानी में आदि समाज दूप्हब हदा की स्थापना किया. लाको बोदरा द्वारा गठित किया गया इस सात सदस्यीय समिति की बैठकों का आयोजन झींकपानी सीमेंट कारखाने की कालोनी के एक मकान में किया करता था. वहीं से आस-पास बसे गाँव के लोगों को  "वारंगचिति" लिपि शिखाने की शुरुवात किया. लाको बोदरा विद्यार्थियों को "वारंगचिति" लिपि की शिक्षा देने के साथ-साथ धर्म विज्ञान का उपदेश भी देते थे. जोड़ापिखर में एक आवासीय सह-शिक्षा विद्यालय का निर्माण किया गया. इसके बाद "वारंगचिति" लिपि सिखाने वालों की संख्या में काफी इजाफा हुआ. आदि समाज (दूप्हब हदा) के द्वारा जोड़ापार, झींकपानी के साथ-साथ खूंटपानी प्रखंड (गुडासाई मनोहरपुर) टुंटाकटा मझगाँव, जमशेदपुर, डांगुवापूसी, दाईगोड़ा, घाटशिला, सुकिंदा (उड़ीसा) तथा कई जगहों पर "वारंगचिति" लिपि प्रशिक्षण का केंद्र खोला गया.    


उस समय लाको बोदरा भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविता की इन पंक्तियों से काफी प्रभावित हुये-
निज भाषा उन्नति आहै, सब उन्नति को मूल|
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय की भूल||

इसके बाद लाको बोदरा ने संकल्प ले लिया था कि वह हो भाषा, साहित्य, समाज और संस्कृति को समृद्ध बनाने का काम शुरू करेंगे. विश्व में हो समाज, भाषा, साहित्य और संस्कृति को पहचान दिलाने में लाको बोदरा का बहुमूल्य योगदान है. लाको बोदरा ने कई पुस्तकों एवं साहित्यों की रचना की. लाको बोदरा द्वारा रचित मुख्य पुस्तकों में से एला ओल इतू उटा, षड़ाषूड़ा सांगेन, ब्ह बूरू-बोडंगा बूरु, षार होरा, पोम्पो, रघुवंश तथा एनी पुस्तकें हैं जो अभी विद्यालय और विश्वविद्यालयों के पाठ्क्रमों में शामिल किया गए हैं.


साहित्य समाज का दर्पण होता है. हो समाज अपने इस दर्पण से अनभिज्ञ था. सर्वप्रथम लाको बोदरा ने ही हो समाज के लोगों को इस दर्पण से रू-बा-रू कराया. इसका श्रेय लाको बोदरा को ही जाता है. लाको बोदरा एक असाधारण व्यक्तित्व वाले ओत गुरु थे. ओत गुरु पंगूरू कोल लाको बोदरा को हो भाषा की लिपि की खोज एवं उसे समाज में स्थापित करने के लिए  "वारंगचिति" लिपि गुरु की उपाधी भी दिया गया हो समाज के अलावा सम्पूर्ण मानव जीवन में वे एक आदर्श व्यक्ति हैं. उनकी वाणियों में एक अद्भुत कोमल मिठास का रस था. वे कर्मठ परीश्रमी और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे. 


आप अंत तस हो समुदाय की समाज, संस्कृति, भाषा साहित्य और लिपि को पहचान दिलाने के साथ साथ हो समाज में पनपी बुराईयों तथा कुरीतियों को जड़ से समाप्त करने के लिए संघर्ष करते हुये २९ जून १९८६ को हमारे बीच में से विदा हो गए. इसके साथ ही हमें आपकी सशक्त नेतृत्व की जरूरत की कमी हमेशा महसूस होती रहेगी.
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