सोमवार, 30 जुलाई 2012

भूख से बड़ा भगवान ?

राजा इंद्र ने अनेक भीषण दुष्कर्म किए, लेकिन जगत के पालनहार कहे जाने वाले विष्णु ने इंद्र को दण्डित नही किया. फिर भला राजा बली, महाराजा बाली और लंकापति रावण को दण्डित करने का औचित्य क्या था ? मारे गए सभी महाबली शिव के भक्त थे तथा इनमे से कोई भी दुष्ट या बलात्कारी नही था. इंद्र को जीवित रखकर शिव भक्तों को छल कपट से मारना कहाँ का न्याय है ?

          तीनों लोकों में निवास करने वाले तैंतीस करोड़ देवी देवताओं वाला भारत, अपनी आध्यात्मिक, धार्मिक व सांस्कृतिक विशेषताओं के लिए सम्पूर्ण विश्व में विख्यात है. दुनिया के किसी भी देश और वहाँ रहने वाली मानव जातियों के पास, इतने भगवान व उनके इतने अवतार नही हैं. पृथ्वी में जितनी भी मानव सभ्यताएं तथा देश, विश्व मानचित्र में विद्दमान हैं, उन पर भगवान की इतनी कृपा और दया कभी नही हुई, जितनी भारत भूमि पर हुई. भारतीय पौराणिक गाथाओं के अनुसार सृष्टि में अत्यधिक पाप कर्म से मानव जाति को मुक्त कराने एवं मानव कल्याण हेतु जगत के पालनहार कहे जाने वाले भगवान विष्णु पृथ्वी पर अवतार लेते रहे हैं. दुनिया की किसी भी कोने में निरंतर ईश्वरीय अवतार होने का कोई लिखित-अलिखित दस्तावेज, ग्रन्थ या धार्मिक प्रमाण आज मौजूद नहीं हैं, भारत को छोड़कर. दुनिया के सबसे बड़े धर्म ईसाईयत (ईसाई) में, प्रभू ईसामसीह को परमेश्वर का पुत्र माना गया. यहूदियों में संभवतया ईसा मसीह, परमेश्वर के पहले दूत या पुत्र कहे जा सकते हैं. दुनिया के दूसरे बड़े धर्म इस्लाम में, हजरत महोम्मद साहब को अल्लाह या खुदा का दूत-पैगम्बर स्वीकारा गया है. दोनों ने अपने महान उपदेशों व कार्यों से तत्कालीन मानव जाति को अधर्म से धर्म का मार्ग दिखाकर एक नए पंथ को जन्म दिया.


          कालान्तर में दोनों अनुयायी ईसाई और मुसलमान कहलाए. ईसा मसीह और महोम्मद पैगम्बर को पृथ्वी में आये दो हजार बारह वर्ष पूरे हो चुके हैं. इनका धरती में पुनरागमन अभी तक नही हुआ. वैसे बाइबिल और कुरान में यह स्पस्ट चेतावनी दी गई है कि, मनुष्य अपने आचार-विचार व व्यवहार को उनके बताए गए सिद्धांतों के अनुरूप रखे, अन्यथा परम पिता परमेश्वर/खुदा अपने नेक बन्दों को बचाने के लिए, पृथ्वी में पुनः अपना दूत भेजेगा. मनुष्य को जिस प्रकार हवा, पानी, प्रकाश और भोजन की अनिवार्य आवश्यकता है, ठीक उसी तरह मानव जाति को अनेकानेक कारणों से, धर्म की भी आवश्यकता है. फिर चाहे कोई भी हो. काल परिस्थितियों के अनुरूप मनुष्य द्वारा स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है.


          वर्तमान विश्व के मानचित्र में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है, जहां ईश्वर को दूत भेजने की अपेक्षा स्वयं आना पड़ा है. वह भी एक बार से काम नही चला. भारत में भगवान को ५२ बार आना पड़ा. इससे एक बात स्पस्ट होती है कि, दुनिया के सभी मानवों में भारत के लोग सबसे बड़े अधर्मी और पापी थे. या फिर यहाँ पर मानव अपने तपोबल या योगबल से महामानव बने तथा अपने योगबल और तपोबल से प्राप्त शक्तियों का दुरूपयोग करने के कारण, उस महामानव को दण्डित करने के लिए भगवान अवतरित हुए. ऐसा ५२ बार हुआ, अतः भारत में भगवान को बार-बार आना पड़ा. भारत की पौराणिक कथाओं में जिन राक्षसों या असुरों का वध करने के लिए, भगवान विष्णु को बार-बार धरती में आने का कष्ट उठाना पड़ा, वे सभी राक्षस, भगवान शिव के उपासक और शिवशक्ति से संपन्न थे. अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से इंद्रियों को पराजित कर, शिव उपासकों नें महाबल प्राप्त किया था, लेकिन उन्हें दुष्ट, अज्ञानी, अहंकारी और धर्म विरोधी करार देकर, छल-कपट से मार दिया गया. यह पौराणिक कथाएं कई सौ हजार साल पुरानी बताई जाती है.


          अंग्रेज जब भारत आये, उस समय देश में ९०% लोग अनपढ़ और अज्ञानी थे. शिक्षा और ज्ञान अर्जन का अधिकार १०% विशेष वर्गों तक सीमित था. पढ़े-लिखे, विद्वान धर्माचार्यों ने जो भी बताया, देश की अशिक्षित जनता उसे आँख मूंदकर स्वीकार्य करती रही. देश में पहली बार ९०% पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को शिक्षित बनाने का कार्य अंग्रेजों ने प्रारंभ किया. गुलाम भारतियों के लिए स्कूल खोले गए. अंग्रेजों ने शिक्षा के साथ-साथ, हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों व धार्मिक पाखंडों को समाप्त करने के लिए उपाय किए. सती प्रथा और बाल विवाह समाप्त कर विधवा विवाह को कानूनी संरक्षण दिया. भारत में स्त्री शिक्षा निषेध थी. अंग्रेजों ने महिलाओं की शिक्षा के द्वार खोल, ९०% भारतीयों को शिक्षित बनाने का महानतम कार्य प्रारंभ किया. आजादी के आते तक बड़ी सख्या में लोग पढ़ने-लिखने लगे तथा आजादी के बाद देश में संविधान द्वारा स्थापित, जनता का जनता द्वारा शासन स्थापित हो गया. ६५ वर्ष की आजाद उम्र तक एस.टी., एस.सी., और ओ.बी.सी. वर्ग ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सांशिक ही सही, लेकिन उल्लेखनीय सफलताएं अर्जित की. वैसे आज भी भारत दुनिया का सबसे बड़ा अशिक्षित देश है.


          अब बुद्धी और ज्ञान से प्रकाशित यह मानव मस्तिष्क पौराणिक कथाओं के अनुसार अपने पूर्वजों के नरसंहार की गाथाओं को सुनकर उद्द्वेलित हो रहा है. जब तक वह अनपढ़ था, तब तक वह ठीक था. क्योंकि बिना ज्ञान के मनुष्य पशुतुल्य होता है. ज्ञान आने से विवेक जागृत होता है. पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के ज्ञानचक्षु खुलने से अत्यंत गंभीर प्रश्न आकार ले रहे हैं कि, राजा इंद्र ने अनेकानेक भीषण दुष्कर्म किए, लेकिन जगत के पालनहार कहे जाने वाले श्री विष्णु ने इंद्र देव को दण्डित नही किया. फिर भला राजा बली, महाराजा बाली और लंकापति रावण को दण्डित करने का औचित्य क्या था ? मारे गए सभी महाबली भगवान शिव के भक्त थे तथा इनमे से कोई भी दुष्ट या बलात्कारी नही थे. अतः इंद्र को जीवित रखकर शिवभक्तों को छल-कपट से मारना इन कहाँ का न्याय है ?


          मुगलों और अंग्रेजों की १००० साल गुलामी के बाद, भारत का राजपाट, संविधान के अनुसार स्थापित होने तथा वर्ण, जाति और धर्म में सभी को समानता व स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त होने के उपरान्त, जनता के द्वारा चुनी गई सरकारों को, केन्द्र तथा राज्यों में सत्ता संचालन का अधिकार मिला. भारत के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में सुमार छत्तीसगढ़ियों को भी १२ साल पहले, छतीसगढ़ के रूप में नया राज्य मिल गया. राज्य बनने के पहले तक छतीसगढ़, अपनी सादगी, ईमानदारिता, दरिद्रता और अशिक्षा के लिए देश के टॉप टेन में शामिल था और है. आदिवासी बाहुल्यता व आदिम संस्कृति से रचा बसा छत्तीसगढ़, राज्य बनने के बाद गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, शोषण और अत्याचार के टॉप टेन से बाहर तो नही निकल पाया, किन्तु नक्सलवाद, नकलवाद और सलवाजुडूम की आग में भी, नंबर वन अवश्य हो गया.


          श्री विष्णु के हाथों मारे गए महाबलियों को, आदिम व असभ्य बताया गया. अर्थात वर्तमान आदिम जन जातियां उन्ही की वंशज मानी जायेंगी. छत्तीसगढ़ की सारी फ़िजां में आदिम जातियों की गंध राजनांदगाँव से दंतेवाड़ा होते हुए जशपुर तक प्रयक्ष रूप से महसूस की जा सकती है. आदिम जातियों की महक पहले भी स्वीकार नही की गई तथा आज भी बर्दास्त करने लोग तैयार नही हैं. आक्रांत आर्यों के छल-कपट से परास्त आदिम जातियां, अपने स्वाभिमान के साथ जंगलों, पहाड़ों और कंदराओं में छुप गईं और सैकड़ों साल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते-करते, पुनः ज्ञानार्जन के माध्यम से अपने लूटे हुए, कुचले हुए, मान-सम्मान और अधिकारों को प्राप्त करना चाहती है, तो सत्ता में बैठे लोग, उसके संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखने के लिए, नित नए-नए उपक्रमों द्वारा उसका विकासपथ अवरुद्ध कर देने के लिए जी-जान से लगे हुए हैं.


          राज्य निर्माण के १२ वर्ष पूर्ण होने के उपरान्त भी, आदिवासी विकास की कोई मौलिक अधोसंरचना परिलक्षित नही हो रही है. अज्ञानता, अजागारुक्ता, कुपोषण, भूख, अंधविश्वासों, कुरीतियों और सबसे बड़ा वाद नक्सलवाद से जकड़ा आदिवासी समाज, आज भी शासकीय संरक्षण का मोहताज है. सरकारी नक्सलवाद के खिलाफ, चारु मजुमदार का नक्सलवाद, आदिवासी क्षेत्रों में स्थापित हो गया. सलवाजुडूम का सुरर्शन तीन प्रकार से आदिवासियों का ही गर्दन काटता रहा है. एक नक्सलियों की, दूसरी पुलिस अधिकारियों, कर्मचारियों की तथा तीसरी सलवा जुडूम में भाग लेने वाले और न लेने वाले लोगों की. इस सुदर्शन से काटने वाली तीनों गर्दन आदिवासियों की ही हैं. जिस राज्य में क़ानून का राज्य स्थापित करने हेतु, सशस्त्र संघर्ष चल रहा हो, प्रतिदिन बम ब्लास्ट, विस्फोट, गोलीबारी, हत्याएं, बलात्कार, अपहरण, आगजनी और पलायन हो रहा हो, प्रतिमाह करोड़ो रूपये, शान्ति व्यवस्था बहाल करने पर व्यय किए जा रहें हों, उस राज्य में प्रतिदिन साधु-संतों, महात्माओं व प्रवचनकर्ताओं की बेमौसम बाढ़, यज्ञ, हवन और अनुष्ठान से, किस समस्या का निवारण किया जा रहा है ? छतीसगढ़ की धरती से अचानक देश के इन महात्माओं का तीव्र प्रेम और अनुराग, २ करोड़ छत्तीसगढ़ियों की कौन सी भूख का ईलाज किया गया ? शारीरिक भूख और आध्यात्मिक भूख में बड़ा अंतर होता है. पुरोहितों, पंडितों व धर्मशास्त्रों का कार्य मनुष्य की आध्यात्मिक भूख को तृप्त करना होता है. आध्यात्मिक शान्ति के ठेकेदारों का शारीरिक भूख से कभी आमना सामना नही हुआ. अतः वे भूख से ऐंठती आंतों की चीख सुन नहीं पाते और न ही महसूस कर पाते हैं. धरती की किसी भी कोने में भक्ति से भूख पर विजय पाप्त नही हुई और हो भी नही सकती. विश्व की सबसे बड़ी क्रांतियां भूखजनित हुईं. भूख आधारित क्रांतियों ने राजा के ईश्वरीय अवतार को परास्त कर, सर्वप्रथम शारीरिक भूख से निजात पाई. पेट की आंतों की तृप्ति के बिना, ज्ञान का प्रकाश कभी विकसित हुआ है और न कभी हो सकता है.

          छत्तीसगढ़ एक आदिवासी बाहुल्य राज्य है. इस राज्य में सबसे अधिक भूखा और नंगा कोई व्यक्ति है तो वह केवल आदिवासी ही है. राज्य में सबसे अधिक भयभीत और प्रताड़ित भी सिर्फ आदिवासी है. राज्य का सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति भी आदिवासी है. जिस राज्य की बहुत बड़ी संख्या, शासन के सहयोग से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हो, उस राज्य में अधिक धार्मिक उत्सवों, मेलों, कुम्भों, प्रवचनों और उपदेशों की क्या आवश्यकता है ? शहीद वीर नारायाण सिंह जिसे राज्य का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी घोषित किया गया है, उनके मजार में पिछले कई वर्षों से दिया जलाने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री और मंत्रियों के पास समय नही है, लेकिन राजिम स्नान कर पूरा मंत्रीमंडल छत्तीसगढ़ के समस्त मागरिकों के कष्टों का निवारण कर रहा है ! नक्सलवाद से मरने वालों में छत्तीसगढ़, देश में नंबर एक पर है. आदिवासियों के ऊपर होने वाले शारीरिक उत्पीडन में राज्य का तीसरा स्थान है. कृषि भूमि पर उद्द्योग स्थापित करने, एम.ओ.यूं. हस्ताक्षर करने में राज्य सर्वप्रथम स्थान पर है. राजिम कुम्भ में करोड़ो रुपयों से भी अधिक का प्रतिवर्ष स्नान हो रहा है. संत कबीर कहते थे- "भूखे भजन न होए गोपाला". छत्तीसगढ़ भूखे, गरीब और अशिक्षित लोगों का प्रदेश है. इस राज्य को मंदिरों, मठों की नहीं, विद्यालयों की आवशयकता है. अंग्रेजी माध्यमों की पब्लिक स्कूलों से, गांवों के विकलांग सरकारी स्कूलों की शिक्षा से पल्लवित  छत्तीसगढ़ियों के बच्चे क्या प्रतियोगिता करेंगे ? छत और शिक्षक विहीन पाठशालाएं, जिसे हम शिक्षा का मंदिर कहते हैं, इनके जीर्णोद्धार में राज्य का सर्वाधिक धन क्यों खर्च नही होता ? छत्तीसगढ़ को साधू बाबाओं की नही, शिक्षकों की जरूरत है. राज्य को कथाकारों की नही, व्याख्याताओं की जरूरत है. छत्तीसगढ़ के लोग वैसे भी देश में पुण्यात्मा के लिए विख्यात हैं, अतः महात्माओं की सत्संग की आवश्यकता उन राज्यों को ज्यादा है, जहां दुष्टात्मा बहुसंख्यक में हैं.



कमल आजाद


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शनिवार, 21 जुलाई 2012

आदि महामानव पहांदी पारी कुपार लिंगो का ''गोटूल'' तत्वज्ञान

          हमने पूर्व में "कोया पुनेम (गोंडी धर्म) सदमार्ग" पढ़ा है. इस कोया पुनेम तत्वज्ञान में (१) सगा (विभिन्न गोत्रज धारक समाज), (२) गोटूल (संस्कृति, शिक्षा केन्द्र), (३) पेनकड़ा (देव स्थल, ठाना), (४) पुनेम (धर्म) तथा (५) मुठवा (धर्म गुरु, गुरु मुखिया) यह पांच वंदनीय एवं पूज्यनीय धर्म तत्व हैं. इनमे से किसी एक की कमी से कोया पुनेम अपूर्ण ही रह जाता है. आदि महामानव पहांदी मुठवा पारी कुपार लिंगों ने अपने साक्षीकृत निर्मल सिद्ध बौद्धिक ज्ञान से सम्पूर्ण कोया वंशीय मानव समाज को सगायुक्त सामाजिक जीवन का मार्ग बताया. सगायुक्त सामाजिक जीवन के लिए उचित एवं अनुकूल व्यक्तित्व, नव वंश में निर्माण करने के उद्देश्य से पारी कुपार लिंगों ने "गोटूल" नामक शिक्षण संस्था की स्थापना की. गोटूल, यह संयुक्त गोंडी शब्द गो+टूल इन दो शब्दों के मेल से बना हुआ है. "गो" याने 'गोंगो' अर्थात दुःख एवं क्लेश निवारक शक्ति, जिसे विद्या कहा जाता है. "टूल" याने ठीया, स्थान,स्थल. इस तरह गोटूल का मतलब गोंगोठाना (विद्या स्थल, ज्ञान स्थल) होता है. प्राचीन काल में गोंडवाना के प्रत्येक ग्राम में जहां गोंड वहा गोटूल संस्था विद्दमान थी. फिर चाहे वह मूलनिवासियों में से किसी भी समुदाय के क्यों ना हो. गोटूल संस्था को विभिन्न प्रदेशों में विभीन संज्ञाओं से जाना जाता है. जैसे- भूंईंया गोंड इसे 'धंगर बस्सा' (धंगर याने विद्या, बस्सा याने स्थल), मुड़िया गोंड इसे 'गिती प्रोरा' (गिती याने ज्ञान, प्रोरा याने घर), और उराँव गोंड इसे 'दूम कुरिया' (दूम याने विद्या, कुरिया याने पढ़ाई का स्थान, घर) आदि. इस तरह गोटूल नामक शिक्षा संस्था की स्थापना कर उसमे छोटे बाल-बच्चों, उम्र के ३ से लेकर १८ वर्ष तक के लिए उचित शिक्षा प्रदान करने का कार्य पारी कुपार लिंगों ने शुरू किया. इस पर से पारी कुपार लिंगो के कोया पुनेम तत्वज्ञान में बौद्धिक ज्ञान विकास को कितना अग्रक्रम में दिया गया है, इस बात की जानकारी हमें प्राप्त होती है.

          गोंडवाना दर्शन में उल्लेख मिलता है कि माता रायतार जंगो के अनाथ आश्रम में माता रायतार जंगो और माता कली कंकाली के आश्रय, छत्रछाया में पल एवं बढ़ रहे मंडून्द (तैंतीस) कोट बच्चों को स्वभाव परिवर्तन, सुधार के लिए महादेव की आज्ञा से कोयली कचारगढ़ गुफा में बंद कर दिया गया था. गुफे के द्वार को एक बहुत बड़े चट्टान से बंद कर दिया गया था. यह चट्टान महादेव की संगीतमय मंत्र से पूरित था. इसे खोलने का उपाय केवल महादेव ही जानते थे. गुफे के शीर्ष में होल नुमा संकरा छिद्र था और आज भी है, जो पहाड़ में शीर्ष पर खुलता है. गुफे के अंदर से उन बच्चों का इस छिद्र के द्वार से निकल पाना संभव नही था. इसी छिद्र से उन बच्चों को माताओं के द्वारा भोजन पहुचाया जाता था. वर्षों तक बच्चे गुफा में ही बंद रहे. बच्चों के बिना माताओं (माता रायतार जंगो और माता कली कंकाली) का हाल बेहाल होने लगा. उनहोंने बच्चों को मुक्त करने के लिए महादेव से कई बार निवेदन किए, किन्तु महादेव ने उन्हें मुक्त करने में असमर्थता जताया. उधर बच्चों के बिना माता रायतार जंगो तथा माता कली कंकाली का मातृत्व ह्रदय और शरीर जीर्ण-क्षीण होने लगा था. माताओं की इस अवस्था को देखकर महादेव को दया भाव जागृत हुआ और वे उन बच्चों को गुफा से मुक्त किए जाने का मार्ग बताया. इसे कोई महान संगीतज्ञ ही खोल सकता है, जो दसों भुवनों और प्रकृति के चर-आचार, जीव-निर्जीव, तरल-ठोस सभी तत्वों की आवाज का ज्ञाता हो, संगीत विज्ञानी हो तथा उन आवाजो का लय बजा सकता हो या पूरी सृष्टि की लय जिसका संगीत हो. यह सुनकर माताओं के लिए दूसरी संकट खडी हो गई. महादेव ने ध्यान से आँखें खोलते हुए कहा- वह महामानव, संगीतज्ञ इस संसार में आ चुका है. केवल वही इस गुफा के द्वार का चट्टान अपनी संगीत विद्या की शक्ति से हटा सकता है.


कचारगढ़ के बड़ा गुफा का अग्र भाग जहां  मंडून्द कोट
बच्चो को महादेव की आज्ञा से बंद किया गया था. इस
गुफा में हजारों व्यक्तियों के एक साथ बैठेने के लायक
पर्याप्त स्थान है. यहाँ पर स्वच्छ जल कुंड भी है, जो
कभी भी नही सूखता.
 
गुफा के अंदर जल कुंड के ऊपर ही आसमान पर खुलने
वाला यह होल/छिद्र है जहां से 
बच्चों के लिए भोजन
छोड़ा जाता था.
          माताएं महादेव के बताए मार्ग अनुसार उसे ढूँढने निकल पड़ीं और 'हीरासूका पाटालीर' के रूप में उसे पाया. महादेव की आज्ञा से हीरासूका पाटालीर ने अपने संगीत साधना से महादेव के द्वारा गुफा के द्वार पर बंद की गई मंत्र साधित चट्टान को हटा दिया. चट्टान के हटने और लुड़कने से उसमे दबकर हीरासूका पाटालीर की मृत्यु हो गई. उस संगीत विज्ञानी का यहीं अंत हो गया. बच्चे गुफा से मुक्त हो गए. अब महादेव और माताओं को बच्चों की भविष्य की चिंता सताने लगी. सभी मंडून्द कोट बच्चे केवल मांस के लोथड़े भर थे, उन्हें किसी भी तरह का सांसारिक व सांस्कारिक ज्ञान नही था. महादेव को मालूम था कि पेंकमेढ़ी सतपुड़ा पर्वत माला पर एक महान दार्शनिक, प्रकृति विज्ञानी पहांदी पारी कुपार लिंगो उनकी आज्ञा से गहन प्राकृतिक ज्ञान, धर्म की शोध-खोज, ध्यान, योग में जुटा हुआ है. वह ज्ञानी पुरुष ही इन बच्चों को जीवन ज्ञान से प्रकाशित कर सकता है. महादेव स्वयं उनकी खोज में निकल गए. सुबह-सुबह ही महादेव पहंदी पारी कुपार लिंगो के साधना स्थल, उस पर्वत पर स्थित विशालकाय पेड़ के नीचे पहुच गए. इस एकांत निर्जन स्थान पर लिंगो लगभग ७ वर्षों से गहन आध्यात्मिक शोध में जुटे हुए थे. वे उस समय भी ध्यानमग्न थे. महादेव उनकी तंद्रा तोडनी चाही. उनकी तंद्रा टूटी किन्तु वे महादेव को देखकर भी उनके शरीर में हल-चल, जरा भी विचलन नही हुआ. महादेव उनके मन में उत्पन हल-चल को समझ रहे थे. पहंदी पारी कुपार लिंगो को उसी समय अंतर्ज्ञान की प्राप्ती हुई थी. अंतर्ज्ञान की प्राप्ति होते ही उसे अंतर्ज्ञान से एक स्त्री के ऊपर बिजली गिरने से उसकी मौत का समाचार उसे मिल चुका था. एक स्त्री की मौत का ज्ञान दर्शन होना उसे आश्चर्य कर दिया था, कि यह दृश्य उसे कैसे दिखाई दिया ! जिसके कारण वे महादेव की आवाज को ग्रहण और सुन नही पाए. महादेव उनकी मनःस्थिति को जान गए थे. महादेव ने लिंगो से कहा- जो तुमने अंतर्ज्ञान में दिखाई दिया, वह सत्य है पारी कुपार ! अब तुम्हे अंतर्ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है. एका एक महादेव का वचन सुनते ही लिंगो की तंद्रा टूटी और वे महादेव को समक्ष में देखकर विचलित होकर खड़े हो गए. वह महादेव से जानना चाहा कि ऐसा क्यों हुआ और वह स्त्री कौन थी. महादेव ने कहा कि यह तुम अब सब कुछ जानने लगे हो, मेरे द्वारा अब यह बताने की आवश्यकता नही है. महादेव ने उन्हें उनके पास आने का कारण बताया और पारी कुपार लिंगो को अपने साथ ले गए.

          पहंदी पारी कुपार लिंगो को जो दृश्य उनके अंतर्ज्ञान में दिखाई दिया था, वह विकट दृश्य माता कली कंकाली की मृत्यु का समाचार था. बताया जाता है कि माता अपने आश्रम के पास के विशालकाय बरगद के नीचे काम कर रही थी. अचानक आसमान पर बिजली कौंधी और उस बरगद के झाड़ पर आसमानी बिजली गिरी. इस आसमानी बिजली से कली कंकाली माता की मृत्यु हो गई. इस समय लोहगढ़, कचारगढ़ के उस स्थान पर बरगद पेड़ का कोई नामोनिशान नही है, किन्तु वहीँ पर कली कंकाली माता की मढ़िया हमारे पूर्वजों नें स्थापित कर दिया है. इस मढ़िया में समाज के भूमका-पुजारियों द्वारा सतत कोया मुनेमी रीति रिवाज से पूजा अर्चना की जाती है तथा माता जी के दर्शन के लिए देश के ओर-छोर से श्रद्धालु हर दिन मढ़िया में जाते रहते हैं. प्रतिवर्ष इस स्थान पर माघ पूर्णीमा में विशाल मेला भरता है. यह मेला पूर्णिमा के ४ दिन पहले से शुरू होकर पूर्णिमा के दिन समाप्त हो जाता है. देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं और गढ़ माता की मढ़िया, कली कंकाली मई की मढ़िया, जंगो माई, लिंगो कुटी, बड़ादेव गुफा, बड़ा गुफा (जहां मंडून्द कोट बच्चो को बंद किया गया था) आदि का दर्शन कर कोया पुनेम का बीज मंत्र लेकर चले जाते हैं.

          मंडून्द कोट बच्चों को कोयली कचारगढ़ गुफा से मुक्त कर उन्हें उचित शिक्षा प्रदान करने के लिए कुपार लिंगो ने सर्वप्रथम 'गोटूल' नामक शिक्षा केन्द्र की स्थापना एकांतमय, शांतिपूर्ण वातावरण से शुरू की. पारी कुपार लिंगो ने उन मंडून्द कोट बच्चों का मानसिक, शारीरिक विकास किया. उन्हें सगा सामाजिक एवं धार्मिक शिक्षा दी. तत्पश्चात उन्ही के माध्यम से सम्पूर्ण कोयावंशीय मानव समुदाय में गोटूल संस्थाओं का निर्माण कराया गया. पारी कुपार लिंगो के मतानुसार छोटे बच्चो पर जन्म से ही माता-पिता के संस्कार आ जाते हैं. अच्छे-बुरे लोगों की संगत का प्रभाव उनपर होता है. हम जहां कहीं, जिस जगह में रहते हैं, उस पर्यावरण से हमारा जीवन प्रभावित होता है. यदि निवास स्थान के पास झगड़ा-फसाद करने वाले लोग रहते हैं, तो उसी वातावरण में लोगों के विचार व्यवहार प्रभावित होते हैं. अंत में उसी के मुताबिक वह अपना व्यवहार करता है. ऐसे अंधकारमय वातावरण में रहकर मनुष्य को "सुयमोद वेरची तिरेप" अर्थात सद्ज्ञान प्रकाश किरण का दर्शन नही हो पाता. मानव जीवन की मौलिकता इस अज्ञानता के पर्यावरण में फंस जाने से लुप्त हो जाती है. मनुष्य अपने वास्तविक रूप एवं स्वहित को देखने में असमर्थ हो जाता है. उसकी वैचारिक एवं बौद्धिक शक्ति कमजोर हो जाती है.

          पारी कुपार लिंगो ने इसीलिए अपने सगा शिष्यों के माध्यम से सम्पूर्ण कोयावंशीय मानव समाज की "नार उंडे गोटूल" अर्थात ग्राम एवं गोटूल संस्थाओं की स्थापना किस स्थल पर और कैसे पर्यावरण में करना चाहिए, इस बारे में अपने बौद्धिक ज्ञान प्रकाश के बल से निम्न "नार गोटूल" मंत्र दिया है, जिसे "मूठ लिंगो मंतेर" कहा जाता है और जिसका प्रपठन शुभ मंगल बेला के अवसर पर वर-वधुओं को आशीर्वाद देते वक्त सगा भूमका द्वारा किया जाता है :-

"बेगा चिड़ीचाप कमेकान अलोट,
फव्व वड़ीकुसारता ठीया आयात |
ताल्कानूंग दाय पुटसीनकून बेगा,
मान मति छन्नो आया पर्रीन्ता |
अदे ठीया ते नार उचिहतोना,
उंडे सगा बिडार गोटूल दोहताना |

          अर्थात जहां एकांतमय, शांतिपूर्ण वातावरण हो, जो अपने वास्तविक सुख संपदा के लिए उचित एवं अनुकूल हो, जहां अपने वैचारिक शक्ति को प्रेरणा मिलती हो, ऐसे शांतिपूर्ण वातावरण में ग्राम बसाना चाहिए एवं गोटूल संस्था की प्रतिस्थापना करनी चाहिए. गोंड समाज में आज जहां-जहां भी गोटूल संस्थाएं विद्दमान हैं वे सभी एकांतमय शांत वातावरण में ग्रामों के मध्य ही प्रतिस्थापित हैं तथा उनमे जो बच्चे रहते हैं वे ग्रामवासियों के सामाजिक जीवन में जो बुराईयां होती हैं, उनसे परे रहते हैं. गोटूल प्रमुखों का कर्तव्य क्या होता है, इस बारे में जानकारी हमें "कंकाली सुमरी मंतेर" से प्राप्त होती है, जिसका प्रपठन गोटूल माता कली कंकाली की पूजा करते वक्त सगा भूमका अर्थात गोटूल प्रमुख द्वारा किया जाता है :-

"कयक साहचो आसरो सिम कंकाली आयनी,
कोड़ाते बिया छव्वानूंग नीवा कलीया दाईनी |
मतिय, मेंदोल, मोद्दूर, पुनेमता मुन्सार किम,
सगा बिड़ारता पुयनेंग सुयताकत्ता सर्री सिम |"


          उक्त "कली कंकाली सुमरी मंतेर" में  कली कंकालीन माता से यह प्रार्थना की जाती है कि हे कली कंकाली माता ! हाथ बढ़ाकर हमें आशीर्वाद दीजिए, हम तुम्हारे बालक हैं, हमें अपनी गोद में लीजिए. हमारा मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास कार्य में मदद कीजिए तथा हमें सगा धर्म, सगा नीति एवं सत्य मार्ग दिखाईए. इस पर से यह सिद्ध होता है कि उम्र के ३ वर्ष से लेकर अठारह वर्ष तक सगा समाज के जो बच्चे गोटूल में रहते हैं, वहाँ उनका मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास करने का कार्य किया जाता है. साथ ही उन्हें सगा सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों का परिपाठ भी पढ़ाया जाता है. जिससे वे सगा समाज के उचित एवं होनहार घटक बन सकें.


          मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह एक मांस का लोथड़ा मात्र होता है. उसे "मति उंडे मोद्दूर" अर्थात मन एवं बुद्धी जैसी क्षमता जन्म से ही प्राप्त होती है. उसका मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक विकास गोटूल संस्था में ही किया जा सकता है, ऐसा पारी कुपार लिंगो ने कोया पुनेमी सार्टुका में बताया है :-

"लोंदा लेका उंदी रवान्ठू मता,
मानवाना जीवा पुटसी वायाता |
मति, मद्दूर, कमोक धमूक चोलाता,
मुन्सार सगा गोटूलते ने आयाता |
परोल मूंद सावरीनोर कान्डाना,
सगा गोटूल वाटसी सियाना |


          उपरोक्त सार्टूका के द्वारा आज भी गोंड समाज जब नवजात शिशुओं का नामकरण विधि का कार्यक्रम होता है, तब उनके माता-पिताओं को 'सगा भूमके' (ग्राम माता) की ओर से ऐसा उपदेश दिया जाता है, कि "तुम्हारा बच्चा एक मांस का गोला है, उसकी परवरिश के लिए एवं उचित शिक्षा के लिए उसे ३ वर्ष के बाद गोटूल में भेजना न भूलिए."


          इस पर से यह सिद्ध होता है कि बच्चा ३ वर्ष के हो जाने पर वह गोटूल का सदस्य बन जाता है, जहां उसके व्यक्तित्व का विकास किया जाता है. प्राचीन काल में जब प्रत्येक ग्राम में गोटूल संस्थाएं विद्दमान थीं, तब उनमे मनुष्य का मानसिक विकास साध्य करने के लिए उसके आचार-विचार, भावना, चरित्र आदि उज्जवल करने का कार्य गोटूल में किया जाता था. उसका बौद्धिक विकास करने के लिए, इच्छा शक्ति, अनुकरण शक्ति, तर्कशक्ति आदि गुणग्राह्य क्षमताओं का विकास किया जाता था. अतिरिक्त इसके उसका शारीरिक विकास साध्य करने के लिए खेलकूद, तीरकमान, मल्ल, मुस्टी, लाठी-काटी आदि विधाओं का प्रशिक्षण दिया जाता था. इस प्रकार मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक विकास के साथ साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों का परिपाठ सभी बच्चों को पढ़ाकर उनका व्यक्तित्व निर्माण किया जाता था. सगा समाज के बच्चे बड़े होकर स्वावलंबी जीवन जी सके, इसलिए उन्हें उत्पादन व्यवसायों का ज्ञान भी पढ़ाया जाता था.


          इस तरह कोया पुनेम मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगो की शिक्षा के मुताबिक गोटूलों में बालकों को उचित शिक्षा दी जाती थी. सगा समाज के ईष्ट एवं आदर्श तथा श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के बारे में भी जानकारी दी जाती थी. संक्षिप्त में गोटूल की शिक्षा से मनुष्य सुशील, सभ्य, संयमपूर्ण बनता था. गोटूल के सहजीवन से वह कोया पुनेम तत्व ज्ञान का अंतिम लक्ष्य "जय सेवा" मंत्र का अधिष्ठाता बन जाता था. उसके दिलो दिमाग में सेवा भाव जागृत होकर वह सर्व कल्याणवादी बन जाता था.


          उपरोक्त विवरण से गोटूल संस्था की प्रतिस्थापना, जिससे कि वे कोया पुनेम गुरु पारी कुपार लिंगो न केवल बौद्धिक ज्ञान के अधिष्ठाता थे, बल्कि एक महान शिक्षातज्ञ, मानसतज्ञ एवं यथार्थवादी भी थे. पारी कुपार लिंगो द्वारा बताए गए मार्गों के अनुसार ही आज का मानव समाज शिक्षा संस्थाओं की प्रतिस्थापना की है. प्राचीन काल में आर्य समाज के अंदर केवल आश्रम व्यवस्था थी तथा उसमे राजा, महाराजा एवं ब्राम्हणों के ही बच्चों को शिक्षा की जाती थी. शेष वर्णों के लिए कोई जगह नही थी. उसी तरह स्त्री शिक्षा पर उनके द्वारा पूर्ण रूपेण प्रतिबंध लगाया गया था. मूलनिवासी इसके विपरीत आदिकाल से समाज में जो गोटूल संस्थाएं थी, उनमे लड़के-लड़कियों सहित सभी के बच्चों को प्रवेश दिया जाता था. इस तरह पारी कुपार लिंगो का तत्वज्ञान  कितने उच्चतम मूल्यों का परिपूर्ण एवं सर्वकल्याणवादी है, यह सभी पाठकों के समझ में आ जाएगा. 


          आज के जमाने में गोटूल संस्थाओं की जो हालत दिखाई देती है, वह प्राचीन काल में कदापि ऐसी नही थी. विदेशियों के आक्रमणों से गोंडों की सामाजिक व्यवस्था तहस नहस हो गई. उन्हें मजबूरी में जंगल पहाड़ों में जाकर बसना पड़ा. उनकी आर्थिक ढांचा बिगड़ गई. जहां पेट भरना भी मुश्किल हो, वहाँ गोटूल जैसे शिक्षा केन्द्र चलाना कहाँ से संभव होगा ! इसलिए आज उसकी नीव ही खत्म हो चुकी है. इसके बावजूद भी यदि गोंड समाज को उन्नति साध्य करनी है, तो जहां गोंड है वहाँ आधुनिक गोटूलों की स्थापना करना निहायत जरूरी है. जहां आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ अपनी भाषा, संस्कृति, दर्शन (धर्म) आदि की जानकारी अपने बच्चों को देकर समाज की खोई हुई अस्मिता जागृत करने का कार्य हो, जिससे उन्हें स्वाभिमान से जीने की राह मिल सकती है.


गोंडवाना दर्शन
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मंगलवार, 17 जुलाई 2012

कोया पुनेम (गोंडी धर्म) सदमार्ग

          हमारे कोया वंशीय गोंड सगा समाज में कोया पुने़म से संबंधित जो कथासार एवं किवदंतियाँ मुहजबानी प्रचलित है, उस आधार पर कोया पुनेम की संस्थापना कब और कौन से युग में की गई हैं, इसका हम मोटे तौर पर अनुमान लगा सकते है. कोया पुनेम कथासारों से इस पुनेम की संस्थापना पारी कुपार लिंगो ने शंभूशेक युग में की है, ऐसी हमे जानकारी मिलती है. शंभूशेक का युग इस देश में आर्यों के आगमन के पूर्व का युग माना जाता है. अवश्य ही आज से करीब दस-बारह हजार वर्ष पूर्व काल में जब इस भू-भाग में हमारे पूर्वज “कोया मन्वाल” समाज के लोगों का राज्य था. तब ही कोया पुनेम की संस्थापना की गई है. “कोया मन्वाल” गोंडी शब्द का अर्थ गुफा एवं कंदरा निवासी होता है. ‘कोया’ का मतलब गुफा तथा मन्वाल याने निवासी होता है. उसी तरह ‘कोया पुनेम’ का अर्थ कोया धर्म होता है, जिसे गोंडी या गोंगों धर्म भी कहा जाता है. पुनेम शब्द पुय+नेम इन दो शब्दों के मेल से बना है. ‘पुयम’ याने सत्य और ‘नेम’ याने मार्ग होता है, जिस पर से कोया ‘कोया मन्वाल पुनेम’ याने गुफा या कंदरा निवासियों का सदमार्ग ऐसी गोंडी भाषा में शब्द प्रयोग किया जाता है. माय राय्तार जंगो, कली कंकाली के आश्रम के मंडून्द कोट बच्चों को कोयली कचार कोया (गुफा) से मुक्त कर कुपार लिंगों ने उन्हें अपने शिष्य बनाया तथा सतधर्म की दीक्षा दी. लिंगों के उन कोया मन्वाल शिष्यों ने जिस पुनेन (सतमार्ग) का प्रचार और प्रसार किया उसे उन्हीं के नाम पर “कोया पुनेम” कहा जाता है, क्योकि गोंड सगा समाज लोग उन्हीं की उपासना सगा मूठ देवताओं के रूप में करते हैं.

          प्राचीन काल में कुपार लिंगों कोया पुंगार (मानव पुत्र) हमारे समाज में पैदा हुआ और कोया वंशीय गोंड सगा समाज का प्रणेता एवं कोया पुनेम का संस्थापक बना. उसका सविस्तार जीवन चरित्र तथा उसके द्वारा प्रस्थापित किए गए कोया पुनेम और सगा सामाजिक तत्वज्ञान की जानकारी आज हमारे समाज में व्याप्त है, किन्तु किसी भी भाषा में आज तक इस विषय पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया है. प्रचीन काल में जब गोंडी भाषा गोंडवाना की राजभाषा थी तब किसी के द्वारा लिखा गया भी हो तो आज उसका नामोनिशान नहीं है. उस अदितीय महापुरुष की चरित्र कथा, उसके द्वारा प्रस्थापित किए गए कोया पुनेमी नीति, सिद्धांत एवं सगायुक्त सामाजिक तत्वज्ञान की जानकारी आज भी हमारे समाज में मुहजबानी प्रचलित है, फिर भी उस ओर हमारे समाज के लोग असीम उदासीनता दर्शाते हैं, यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है. सगा समाजिक तथा धार्मिक तत्वज्ञान इतना उच्च कोटि के मूल्यों से परिपूर्ण है कि हमारे इस कोया वंशीय मानव समाज पर आर्यों के आक्रमण से लेकर आज तक कितने ही धर्मियों का आक्रमण हुआ, राजसत्ता छीन ली गई तथा समाजिक व्यवस्था तहस-नहस हो गई, फिर भी हमारे समाज में धार्मिक विचार धाराओं पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ. कल भी हमारा समाज फड़ापेन का उपासक था, आज भी है और भविष्य मे भी रहेगा.

          हमारा समाज जय सेवा मंत्र का परिपालनकर्ता था, आज भी करता है और भविष्य में भी रहेगा. इन सभी बातों की ओर ध्यान देने पर हम गोंड समाज के लोगों का कुपार लिंगों के बारे में स्वाभिमान जागृत होना स्वाभाविक बात है. क्योंकि वह हमारे समाज में पैदा हुआ तथा वही  हमारे लिए सतधर्म का मार्ग बनाया. उसके द्वारा प्रतिस्थापित की गई सगा सामाजिक व्यवस्था हमारी प्रगत सभ्यता की विशालकाय वृक्ष है. इसलिय उसका चरित्र एवं कोया पुनेम तत्वज्ञान और सगा सामाजिक दर्शन का अर्थ समझ लेने की जिज्ञासा हमारे मन में पैदा होनी चाहिए. हमारा कोया पुनेम तत्वज्ञान उच्चतम मूल्यों से परिपूर्ण होकर भी आज हमें उसका ज्ञान नहीं होना बहुत ही आश्चर्यजनक बात है. कुपार लिंगों जैसा महान यौगिक तथा बौद्धिक ज्ञानी पुरुष इस कोया वंशीय गोंड समाज का पुनेम मुठवा (धर्म गुरु) होकर भी उसकी कुछ भी जानकारी हम स्वयं को गोंड कहने वाले लोगों को नहीं होना और उसे प्राप्त करने कि जिज्ञासा हमारे दिल में जागृत नहीं होना बहुत ही शर्मनाक बात है. हमारे समाज के लोगों के दिल में हमारी प्राचीन गाथा, पुनेम, इतिहास और संस्कृति के संबंध में बेगजब वास्तव्य कर रही है. इसलिए हमारी सही योग्यता से हम अनभिग्य हो गए हैं. हमारे प्राचीनतम अच्छे मूल्यों के बारे में हमारे दिल में स्वाभिमान जागृत होने  पर हमें हमारी वर्तमान हालत पर थोड़ी शर्म आएगी तथा उसमे सुधार करने की इच्छा हममे जागृत हुए बिना नहीं रहेगी.

          गोंड समाज में प्रचलित पुनेमी कथासरों से कुपार लिंगों का कोया पुनेम दर्शन की जानकारी हमे मिलती है. पारी कुपार लिंगों के अनुयायियों की संख्या सर्वप्रथम  मंडून्द कोट (तैंतीस) थी. उस वक्त कुयवा राज्य में चार सम्भाग थे. वे चार संभाग याने उम्मोगुट्टा कोर, येर्रुंगुट्टा कोर, सयामालगुट्टा कोर और अफोकगुट्टा कोर थे. इन चार संभागो में चार वंशो के कोया सगा समाज के लोग निवास करते थे, छोटे-छोटे गणराज्य थे. कोया पुनेमी मूठ लिंगों मंत्रों में पूर्वाकोट. मुर्वाकोट, हर्वाकोट, नर्वाकोट, वर्वाकोट, पतालकोट, सिर्वाकोट, नगारकोट, चाईबाकोट, संभलकोट, चंदियाकोट, अदिलकोट, लंकाकोट, समदूरकोट, सीयालकोट, सुमालकोट, सुडामकोट आदि गणराज्यो का नाम स्मरण किया जाता है. उसी तरह उमोली, सिंधाली, बिंदरा, रमरमा, भीमगढ़, आऊंटबंटा, नीलकोढ़ा, सयूममेढ़ी, यूल्लीमट्टा, पेडूममट्टा, आदि पर्वतों का और युम्मा, गुनगा, सूलजा, नरगोदा, सूरगोदा, पंचगोदा, वेनगोदा, पेनगोदा, मायगोदा, कोयगोदा, रायगोदा, मिनगोदा आदि नदियों का नाम स्मरण किया जाता है. उपरोक्त सभी गणराज्य, पर्वतमालाएं और नदियाँ आज किस परीक्षेत्र में हैं और कौन से नामो से जाने जाते हैं, यह एक अनुसंधान और शोध का विषय है. उपरोक्त सभी परीक्षेत्रों में कोया पुनेम का पचार प्रसार का कार्य किया गया था, इस बात की पुष्टि मिलती है, जो हमारे लिए स्वाभिमान की बात है.

          अब उस अद्वितीय कोया पुनेम गुरु कुपार लिंगों ने इस भूतल पर जन्म लेकर कौन-कौन से कार्य किया, इस पर गौर किया गया तो निम्न बातें हमारे सामने आ जाती है :-

१-        प्राचीन कुयवा राज्यों में प्रजा तिर्या छोटे-छोटे गणराज्यों में निवास करते थे, वे आपस मे अपने-अपने गण विस्तार के लिए हरदम एक दूसरे के साथ लड़ाई तथा संघर्ष किया करते थे. उन्हें सगा सामाजिक व्यवस्था में विभाजित कर एक दूसरे में पारी संबंध प्रस्थापित करने का मार्ग बताया, जिससे उनमे आपसी संघर्ष मिटकर शांतिपूर्ण वातावरण प्रस्थापित हुआ.

२-        उसने अपने बौद्धिक ज्ञान प्रकाश से प्रकृति की सही रूप को पहचाना प्रकृति की जो श्रेष्ठतम शक्ति है, उसे उसने परसापेन (सर्वोच्च शक्ति) नाम से संबोधित किया जिसके सल्लां और गांगरा ये दो पूना-उना परस्पर विरोधी हैं और जिनकी क्रिया प्रकिया से ही जीव जगत का निर्माण होता है और प्रकृति चक्र चलता है. इस प्रकृति को किसी ने बनाया नहीं. वह पहले भी थी, आज भी है, और भविष्य में भी रहेगी. उसमे केवल परिवर्तन होता रहता है और होता रहेगा.

३-        प्राकृतिक काल चक्र में स्वयं को समायोजित कर स्वयं का अस्तित्व बनाए रखने सबल और बुद्धिमान नवसत्व मानव समाज में निर्माण होना अति आवश्यक है. यह जानकर उसने अपने बौद्धिक ज्ञान के बल पर सम-विषय गुणसंस्कारो के अनुसार सगा सामाजिक संरचना निर्माण की ओर सम-विषम गोत्र, सम-विषम कुल चिन्ह और सम-विषम सगाओं में भी पारी (वैवाहिक) संबंध प्रस्थापित करने का मार्ग बताया. जो विषय की सबसे श्रेष्ठ और उच्च कोटि के मूल्यों से परिपूर्ण सामाजिक संरचना है.

४.        कोया पुनेम का अंतिम लक्ष्य सगा जन कल्याण साध्य करना है. उसके लिए उसने जय सेवा मंत्र का मार्ग बताया है. जय सेवा याने सेवा का भाव जयजयकार करना अर्थात एक दूसरे की सेवा करके सगा कल्याण साध्य करना. उसके लिए उसने मूंदमुन्सूल सर्री (त्रैगुण मार्ग) बताया है, जो हमारे बौद्धिक मानसिक और शारीरिक कर्म इन्द्रियों से संबंधित है.

५-        मनुष्य इस प्रकृति का ही अंग है. अत: प्रकृति की सेवा उसे हर वक्त प्राप्त होती रहे, इसलिये प्रकृतिक संतुलन बनाए रखना अनिवार्य होता है. उसके लिए प्रकृतिक सत्वो का कोई पालनकर्ता होना चाहिए. कोया वंशीय गोंड सगा समाज में जो ७५० कुल गोत्र है, उन प्रत्येक गोत्र के लिए एक पशु, एक पक्षी तथा एक वनस्पति कुल चिन्हों के रूप में निश्चित कर दिया है. प्रत्येक कुल गोत्र धारक का कुल चिन्ह है, वह उनकी रक्षा करता है और अतिरिक्त प्राकृतिक सत्व हैं, उनका भक्षण या संहार करता है. इस तरह ७५० कुल गोत्र धारण कोया वंशीय गोंड समाज के लोग एक साथ २२५० प्रकृतिक सत्वों का एक ओर सुरक्षा भी करते हैं, दूसरी ओर संहार भी. जिससे  प्राकृतिक संतुलन बना रहता है और उन्हें प्रकृति की सेवा निरंतर प्राप्त होती है.

६-        सम्पूर्ण कोया वंशीय समाज को सगायुक्त समाजिक संरचना में विभाजित कर उस संरचना के लिए पोषक हो ऐसे व्यक्तित्व नववंश के निर्माण करने वाले गोटूल नामक शिक्षा संस्थान की प्रतिस्थापना प्रत्येक ग्राम में की गई, जहां सगा समाज के छोटे बाल बच्चों को तीन से लेकर अठारह वर्षो तक उचित शिक्षा प्रदान करने का कार्य किया जाता था, परन्तु आज दुर्भाग्यवश गोटूल शिक्षा संस्था का नामोनिशान मिट गया है और जहाँ कहीं भी प्रचलित है उसमे विद्रुपता आ चुकी है.

७-        सगा समाज के लोगों को एक जगह आकर सद्विचार एवं प्रेरणा लेने के लिए उसने पेनकड़ा नामक सर्वसामाजिक गोंगोस्थल की प्रतिस्थापना की. आज भी गोंड समाज के लोग सामूहिक रूप से पेनकड़ा में जाकर सद्विचार लेते हैं.

८-        प्राकृतिक न्याय तत्व पर आधारित मुंजोक अर्थात अहिंसा तत्वज्ञान का सिद्धांत भी पारी कुपार लिंगो ने गोंड समाज को बताया है. मानमतितून नोयसिहवा, जोक्के जीवातून पिसीहवा जीवा सियेतून हले माहवा, जीवा ओयतून हले ताहवा. पारी कुपार लिंगों का यह कोया पुनेमी मुंजोक सिद्धांत एक अनोखा सिद्धांत है.

९-        उसी प्रकार सत्य मार्ग पर चलने के लिए सगापूय सर्री, सगा पारी सर्री, सगा सेवा सर्री, सगा मोद सर्री आदि पुनेम विचार उसने सगा समाज को दी है और यही वजह है कि कोया वंशीय गोंड सगा समाज के लोगों में सतप्रतिशत ईमानदारी दिखाई देती है.

          उपरोक्त सभी बातें अकेले लिंगों ने ही नहीं की, बल्कि उसके जो मंडून्द कोट शिष्य थे, उन्होंने इस कार्य में मदद किया. कोया वंशीय गोंड समाज के लोग उन्हें अपने सगा देवताओं के रूप में मानते है. इस प्रकार जिसने त्रिकलाबाधित कोया पुनेमी निति सिद्धांत एवं सगा सामाजिक संरचना की प्रतिस्थापना की वह कुपार लिंगों कितना महान बौद्धिक ज्ञानी, योग सिद्ध पुरुष, श्रेष्ठ नरत्ववेत्ता, शिक्षा वेत्ता तथा भौतिक जगत का ज्ञाता था, यह बात पाठकों के ध्यान में आए बिना नहीं रहेगी.

          इस तरह अदितीय महामानव का महत्व हमारे कोया वंशीय गोंड सगा समाज में यह महान जीवरत्न पैदा होकर भी उसके बोधामृत से आज हम लोगों ने परे रहा. यह एक आश्चर्य की बात है. तो आइए हम सब एक साथ मिलकर यह प्रण करें कि हमारे समाज में प्रचलित लिंगों तत्वज्ञान के सभी पहलूओं का अध्ययन करें उसे लिखित रूप देकर समाज के लोगों का स्वाभिमान जागृत करें तथा उन्हें एक नए ढंग से जीने की राह दिखाएं. जिसकी एक निश्चित सामाजिक सगंठन है, सामाजिक संरचना है. गोंडवाना सामाजिक व्यवस्था में मात्र गोंड समुदाय का ही नहीं अपितु द्रविड मूल के अनेक समुदायों का सांस्कृतिक संगठन एक सा है.

          युगविशेष की सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कार्य विभाजन के आधार पर व्यवस्था का निर्माण हुआ. यही व्यवस्था जिसका जो काम था उसी काम के अनुसार समुदाय का रूप और पहचान बन गया. इस व्यवस्था से आवश्यकताओं की पूर्ति होने लगी. जमीन से लोहा तत्व को निकाल कर, उसे पिघला कर उपयोगी लोहा का रूप देने वालों को अगरिया या अगरिहा, लोहा से कृषि एवं अन्य जीवनोपयोगी व्यावहारिक सामग्री, औजार बनाने वाले को या काम करने वालों को लोहार, मरे पशुओ के चर्म का जीवनोपयोगी वस्तु बनाने वाले चर्मकार, पशु संरक्षण एवं संवर्द्धन करने वालो को गायकी, राऊत या अहीर, नदी तालाब जल में रहने वाले जोवों को पकड़ कर दूसरे के उपभोग हेतु प्रदान करने वालों को केंवट और ढीमर, वनोपज तथा जड़ी-बूटी के जानकार को बैगा या भूमिया कहते है. जमीन के अन्दर खुदाई करने वालो को कोल, जंगल में पशु, पक्षी पकड़ने वाले शिकारी या बहेलिया, सेवा करने वाले जातियों में शुभ अवसर या मनोरंजन के लिए बाजा बजाने, नृत्य गीत गाकर अपनी प्रतिभा को बनाए रखने वाले बजगरिया या ढोलिया, बांस की जीवनोपयोगी सामग्री बनाने वाले कंडरा, महार, नगारची, गांड़ा, चिकवा आदि कहलाए. ये सभी मानव समुदाय प्रकृति मूल की व्यवस्था से आज भी अपना जीवन यापन कर रहे है, किन्तु सृष्टि एवं मानव व्यवस्था परिवर्तन ने इनके कार्मिक एवं व्यावहारिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया है.

          मूल रूप से सभी का व्यवसाय धरती से अन्न पैदा कर स्वयं का तथा इस मानव जाति के लिए भोजन प्राप्त करने का कार्य था. सामाजिक व्यवस्थाओं के नियमित संचालन के लिए प्रकृति प्रदत्त शक्तियों की मान्यताओं के साथ उनसे होने वाले लाभ की दृष्टि से श्रद्धा उत्पन्न होने पर पूजा अर्चना होने लगी.

          अग्नि से हमें प्रकाश मिला, वायु से स्वास बनी, जल हमें जीवन देता है. धरती में स्वयं जीव जगत पैदा हुआ. वनस्पति हमें शीतल शुद्ध आक्सीजन, वायु मिलता है. शक्ति सामर्थ्य जातियों में गण प्रमुख जो अपने कबीले और गांव की सुरक्षा, सामाजिक व्यवस्था का परिपालन कराने वाले समुदायों में गोंड (कोयतूर) आगे था. इस समुदाय में जो जहां निवास किया, स्थानीय क्षेत्रीय परिवेष का असर इसके रहन-सहन, अचार-विचार, व्यवहार में समावेश हो गया. दूरस्थ और अंचलों में बिखरे होने पर एक दूसरे के सामीय्य न हो सका तथा समय और काल परिवर्तनों, बाहर से आने वाली आर्य संस्कृति की छाप हमारी सामाजिक व्यवस्था में भी पड़ने लगी. बाह्य संस्कृति का समावेश होते ही प्रभुसत्ता संपन्न लोगों को पहले धराशाही होना पड़ा. मजदूर किसान और सामान्य तौर पर मध्यम स्तर के इस प्रभाव से दूर रहे. जिनमे आर्य संस्कार पड़ा वे अपनी रीति-निति, रोटी-बेटी का व्यवहार भी बदल डाला. मूल रूप में गोंड वंश एक है. कृषि व्यवसाय और सैनिक के स्तर से लोग सामान्य तथा जो मुखिया और समकक्ष सामंत लोगों को आगंतुकों ने उपसर्ग लगाकर, जिसके पास कुछ अधिकार था, उसे “राज” शब्द से संबोधित किया गया और उन्हें राजगोंड की संज्ञा दे दी गई. पूजा में से कुछ रीति-नीति, कर्म-कांड को व्यवस्थित ढंग से वंश की जानकारी यशोगान का बखान तथा पूजा पाठ में हिस्सा लेकर संचालन कराने वाले को परधान गोंड कहा गया. जड़ी-बूटी, मन्त्र-तंत्र तथा जड़ चेतन को समाज हित में उपयोग करने के कार्य में भूमकाल बैगा. गांव में शादी विवाह, ठाकुर देव, खीला मुठवा, धरती देवों का पूजन वही भूमकाल बैगा ही करता है. इसके अलावा अनेक समुदाय हैं जो अपने सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप गोंडवाना समाज में हैं.

          वर्तमान स्थिति में गोंडवाना सामाजिक व्यवस्था अपने मूल सामाजिक संरचना के अनुकूल तो है, किन्तु विकास की जो परिवर्तन प्रक्रिया है, उसमें शहरों का विकास, अंचलों का क्षीण होना, गांव से पलायन होने से उनकी धार्मिक आस्थाओं का टूटना, समूह में रहने की सहकारिता की भावना में कमी के कारण पारिवारिक विघटन की संभावनाएं अधिक हैं. जो नई संस्कृति पनप रही है उसमे उनकी भिन्न जीवन पद्धति व स्वच्छता के अनुकूल का अभाव दिख रहा है. जिस सामाजिक व्यवस्था ने प्रकृति व सृष्टि के संतुलन को बनाए रखा. मानव जातियों द्वारा विज्ञान के नाम पर जो परिवर्तन किए जा रहे है, वे जड़ चेतना के संतुलन को विनष्ट करने में लगे हैं. जो विज्ञान आज से कई हजार साल विकसित हुई उससे आज की तुलना में जमीन आसमान का अंतर आ गया है. कौन सा विज्ञान था जिसमे वर्षा, अग्नि, वायु को समय पर गिरा सकना, एक पल में हजारों किलो मीटर के दृश्य को बता देना, पानी निकाल देना उस युग की ज्ञान की सीमा है, जिसमे प्रकृति का, धरती का विज्ञान से विनाश नही था, बल्कि सृष्टि एवं जीव कल्याण उस जीवन पद्धिति में था. अभी भी गोंडवाना जीवन पद्धति संसार की अनेक मानव समुदायों में पाई जाती है.

          दक्षिण गोलार्द्ध में निवास करने वाले अधिकांशतः कठिन कार्य और शरीर श्रम पर निर्वाह करने के कारण श्याम वर्ण हैं. जिनकी बनावट आर्य (स्वेत) नश्ल से भिन्न हैं. अस्वेत लोग अपनी आस्था प्रकृति को माना. ईश्वर या भगवान में निराकार रूप को मानते हैं.


गोंडवाना दर्शन 
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रविवार, 15 जुलाई 2012

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अभिव्यक्ति 

          देश में आदिवासियों की दुर्दशा तथा दुख, कष्ट, अन्याय, अत्याचार सहना उनकी नीयति नही है, बल्कि यह दूसरों के द्वारा किए जा रहे शारीरिक, मानसिक, संवैधानिक, राजनीतिक एवं अमानवीय अत्याचारों को चुप-चाप सहन करने का दुष्परिणाम है. हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान में दलित आदिवासियों के उत्थान के लिए सबसे अधिक नीयम और क़ानून प्रतिपादित किए हैं. मेरे सामने एक ही सवाल आता है कि क्या हमारे लोग, क्या हमारा समाज देश की सवतंत्रता के ६५ वर्षों के बाद भी अक्षर-ज्ञान पढ़ने के लिए सक्षम हो पाए ? यदि देश के आदिवासी अक्षर-ज्ञान पढ़ने के लिए अब तक सक्षम नहीं हो सके तो यह समाज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो है ही, किन्तु देश के लिए यह सबसे बड़ा कलंक भी है. उनके इस अन्धकारमय जीवन के लिए समाज तो जिम्मेदार है ही और साथ ही साथ देश का प्रशासन भी.

        पिछड़ापन और विकास दोनों समाज की शिक्षा और जागृति पर निर्भर करते हैं. मानवीय जीवन की आवश्यकता- रोटी, कपड़ा, मकान तथा शिक्षा के लिए साधन, मेहनत से ही जुटाई जा सकती है, किन्तु जगृत रहने के लिए जरूरी नही कि वह शिक्षित ही हो. जीवन के समुन्नत मार्ग को तलाशने के लिए शिक्षा के साथ-साथ जागृत एवं चिंतनशील बनना आवश्यक है. लक्ष्य तक पहुँचने के लिए एक ही रास्ता है- लगनपूर्ण मेहनत, परीश्रम. बगैर परीश्रम के हम किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति नही कर सकते. चाहे वह लक्ष्य समाज के लोगों को जागृत करने के लिए ही क्यों न हो. शिक्षित व्यक्ति की चिंतनशीलता उसके मार्ग के अंधेरेपन को दूर करता है. इसलिए जीवन में शिक्षा सर्वोपरी है.

          कुछ दशक पहले तक समाज में सामाजिक उन्नति, सांस्कृतिक उन्नति, आर्थिक उन्नति, शैक्षणिक उन्नति आदि के लिए सामूहिक चिंतन का माध्यम केवल सभा-सम्मलेन ही हुआ करते थे. यह इसके लिए सशक्त माध्यम था और है भी. किन्तु अब इस आधुनिक, विकासवादी एवं तकनीकी युग में समाज की चिंता और चिंतन प्रसार की दौड़ में शामिल होकर समाज के बुद्धीजीवी, चिंतनशील एवं विद्वतजनों ने साहित्य तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से समाज के लोगों को उनके हक और अधिकारों के प्रति सचेत तथा जागरूक बनाने के लिए बीड़ा उठाया है. समाज को यह चिंतन ग्रहण करना निश्चित ही जीवित रहने के लिए प्राण वायु ग्रहण करने के बराबर सिद्ध होगा.

          भूत, वर्तमान एवं आधुनिक प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया ने आधुनिक भारत के विकास के चिंतन में एक अहम भूमिका निभाया है, जिसके कारण इन्हें देश ही नही दुनिया में विकास की भूमिका बाँधने वाले चौथे स्तंभ के रूप में जाना जाता है. इस भूमिका में साफ़ तौर पर देखा जाता रहा है कि पिछड़ेपन की अंतिम पंक्ति में खड़ा होकर देश में अपनी ईमानदारी, भागीदारी और अधिकारिता का झंडा लेकर विकास की बाट  जोह रहे समुदायों के पिछड़ेपन के कारण, उनके साथ होने वाले अन्याय, अत्याचार, बलात्कार और विवशता पर बखेड़ा तो अवश्य खड़ा करते हैं, किन्तु इन विकृतियों के स्थाई समाधान तथा उनके विकास के लिए देश हित में स्वस्थ मानव अधिकारात्मक एवं संवैधानिक चिंतन का अभाव पाया जाता है.

          देश की मीडिया फिल्मी सितारों के घर, बाथरूम, बिस्तर तथा उनके गर्भ में पल रहे बच्चे की भविष्य के लिए चिंतन के शिखर तक पहुँच जाती है, किन्तु देश और दुनिया में मूलनिवासियों पर हो रहे अन्याय और अत्याचार के अमानवीय एवं अनछुए पहलुओं को हल करने के लिए संवैधानिक विचार क्रान्ति पर बहस क्यों नहीं करती ? मूलनिवासियों के लिए संविधान में दिए गए प्रावधानों को समर्पित रूप से देश के लिए क्रियान्वित कराए जाने हेतु जोर क्यों नही देती ? मीडिया को देश के विद्वानों ने जिन अर्थों में देखा और समझा, वह वर्तमान परिवेष में बिलकुल भी नही दिखाई देता, क्यों ? क्या मीडिया फिल्मी सितारों, सरकारों और बाजारों की बात छापने के लिए ही पैदा हुआ है ? ऐसा लगता है कि अब सही मायने में इन लोगों का पालतू बन गया है. इन लोग जब कहेंगे भौंको, तो भौंकेंगे. जिस राग में भौंकने को कहेंगे, तो वे आँख मूँद कर भौंकेंगे. उन्हें यह भी मालूम होते हुए भी, कि यह इस मौसम का राग नही है, फिर भी भौंके जायेंगे. लोगों के ऊपर थोपने का प्रयास करेंगे कि यह वही है. यदि देश की मीडिया का यही राग है, तो जन-गण-मन का सुर तो बिगडेगा ही न ! कहाँ है जन-गण-मन ....? कहाँ है समता और समानता ? कैसे आएगी देश में समता और समानता ? किस कोने में रख दिए गए हैं संविधान के चीथड़े पन्ने और क्यों रख दिए गए हैं ? हमें पता है मीडिया यह पूछकर देश द्रोहियों की श्रेणी में खड़े नहीं होना चाहती. क्या यही खूबियाँ हैं देश के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले वर्तमान मीडिया की ?

        यह केवल और केवल मीडिया का ही दोष नही है. मीडिया पर काम करने वाले लोगों के अपने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक विकास आदि के दर्पण और दर्शन हैं, जिनमे वे अपने भविष्य की छवि देखते और दिखाते हैं. चाहे कितना ही सार्वजनिक और निष्पक्षता की बात करते हों, किन्तु उनके हित साधन की आकृति या गणित उनमे जरूर समावेश होते हैं. निश्चित ही वे अपनी मीडिया में अपनी हित की बातें भी करेंगे.

           मीडिया के सम्बन्ध में जब मै अपने आप से सवाल पूछता हूँ तो स्वयं निरुत्तर भी हो जाता हूँ. मै अब तक यह नहीं समझ पाया कि देश की स्वतंत्रता में और उसके पहले से दलितों, आदिवासियों की सक्रीय भूमिका रही है, किन्तु आज तक ऐसी किसी मीडिया का मिर्माण नहीं कर पाए जो समाज की बातों को निष्पक्ष रखा जा सके ! उनकी सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, संवैधानिक तथा मानवमूल्य आधारित बातों को देश की वर्तमान छवि के साथ जोड़कर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से अपनी स्थिति व परिस्थितियों का आईना दिखा सके ! देश के १० करोड़ से अधिक आबादी वाले आदिवासी आज दूसरों की मीडिया का मुह ताकते नजर आ रहा है. देश में एक से सेक धुरंधर आदिवासी राजनीतिज्ञों की भीड़ है. देश की भावी पीढ़ी के लिए स्वप्नदृष्टा हैं, धनवान हैं, अधिकारी हैं, कर्मचारी है, किन्तु उनके द्वारा सामाजिक मीडिया का यह मुख्य स्तंभ खड़ा करने की पहलू अब तक अनछुआ ही रह गया, क्यों ?

           सामाजिक व्यवस्था मिर्माण के लिए जिन सामग्रियों में हमारी भागीदारी आसानी से हो सकती थी, उन पर हमनें कभी गहनता से विचार नहीं किया. या यह भी नही रहा कि हमारे पास समाज की मीडिया का कोई अंश हमारे घरों के दरवाजे न खटखटाए हों, किन्तु वे सदैव हमारी अकर्मण्यता की भेंट चढ़ते रहे. हम लोगों ने अपने समाज, अपने धर्म, अपनी अनमोल संस्कृति, सामाजिक व्यवहार को दुत्कारते रहे. हमारी जमीन, हमारी गली में दूसरों नें हमें देखकर रेंगना सीखा, चलना सीखा, दौड़ते गए, फिर हम इतने पीछे क्यों रह गए ? इस बात का यह सबूत है कि हम अपनी ही दृष्टि और विचारों के शिकार हुए. इसके लिए हमारी सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परम्पराएं कदापि जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि ये सभी मानव जीवन के मूल तत्व हैं, जिनसे समाज को युगों-युगों से ऊर्जा मिलते आ रही है. इन्ही के कारण आदिवासी भी है तथा उनकी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई भी.

          अब आदिवासियों की अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई में हमारी खुद की मीडिया "दलित आदिवासी दुनिया" का देश की राजधानी में आगाज हो चुका है. अभी भी वह ११ वर्ष का बालक ही है, किन्तु उनकी प्रखर वाणी और तेज दृष्टि देश के प्रत्येक कोने में पहुंचकर सभी का दिल टटोल रहा है, झिंझोड़ रहा है तथा देश को और देश के लोगों को उनका असली चेहरा दिखा भी रहा है. इसकी आवाज की पहचान और परख हमें होना चाहिए. इसी तरह अब अनेक सामाजिक मासिक पत्र-पत्रिकाएं देश के प्रदेशों में हमारी आवाज बुलंद करने, हमें जगाने इस ओर अग्रसर हैं, जो अपने उम्र की रजत जयंति भी मना चुके हैं. जैसे- छत्तीसगढ़ की मासिक पत्रिका "गोंडवाना दर्शन" (१९८३ से निरंतर प्रकाशित), राजस्थान की "अरावली उद्घोष" (१९८४ से निरंतर प्रकाशित) तथा छत्तीसगढ़ की प्रचंड एवं विचार क्रान्ति का जयघोष करने वाली मासिक पत्रिका "आदिवासी सत्ता" (२००४ से निरंत प्रकाशित) प्रकाशित हो रहे हैं. हमने इन पत्रिकाओं और उनके संपादकों के विदारक  ह्रदय को झाँक कर कभी नही देखा ! यदि हम उनकी विदारक वाणी समझ गए होते तो आज हमारी यह दशा सायद होती. आज भी वे हमारी भ्रामरी दंद्रा तोड़ने के लिए कराह कर भी आवाज दे रही हैं, जरूरत है उनकी आवाज सुनने की. ये पत्रिकाएं समाज को सामाजिक, सांकृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक एवं मानवीय दृष्टिकोण की जागृति तथा मूलनिवासियों की गुलामी की निद्रा से जागने और जगाने, समाज को आगे बढ़ने और बढ़ाने तथा विचार क्रान्ति परोसने के लिए अपनी भूमिका बखूबी निभा रहे है. उनका देश के समाज को इस आशय की ओर हमेशा इंगित करना रहा है कि हम अपने जल, जंगल, जमीन, अपनी अस्मिता, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए एकता के सूत्र में खड़े हों तथा उसी ताकत से हम अपनी मीडिया को खड़ा करने की ताकत दें. मीडिया हमारी बौद्धिक जागृति के लिए ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत है. हमारी मीडिया हमारी और आने वाली पीढ़ी की बहुत बड़ी ताकत होगी. यही हमारे सन्देश वाहक पंख होंगे. हमारी मीडिया हमारा सबसे बड़ा हथियार होगा. हमारा अपना स्वप्नदृष्टा होगा. अपनों से प्यार करना सीखें. अपनों की बात सुनें. दुःख-दर्द बाँटें. अपना अधिकार जानें और अपने हक के लिए जागृत हों. भावी पीढ़ी को इसकी महति जरूरत है. वह इसे आत्मसात करे और अपनी भावी जीवन की लड़ाई और विजय हासिल करने के लिए इसे अस्त्र-शस्त्र के रूप में ग्रहण करे, तभी आदिवासी जीवन का उद्धार हो सकता है.

          समाज के पढ़े-लिखे लोगों का सोचने का तरीका अलग ही देखने और सुनने को मिलता है. समाज के ऐसे अनेक अफसरों को देखा है, जिनकी रूचि लेशमात्र भी समाज की ओर नही है और न ही वे समाज के बारे से जानना चाहते. समाज की पत्र पत्रिकाएं पढ़ने में भी उनकी रूचि नहीं दिखाई देती. कई लोग भारी व्यस्तता का बहाना बनाकर दैनिक अखबार भी पढ़ने से वंचित रह जाते हैं. ऐसे कई लोगों को हमने बिना मूल्य चुकाए उनके हाथों में पढ़ने के लिए समाज की पत्र-पत्रिकाएं पकडाते रहे, किन्तु वे उन्हें कभी खोले न ही पढ़े. ऐसे भी अनेक आफिसर हैं जो अपना गोत्र मान लिखने या बताने से कतराते हैं. दूसरों के सामने समाज की बातें करने से डरते हैं. बात करने से पहले बगलें झांकते हैं, कि कोई सुन तो नही लेगा या कोई जान तो नही लेगा कि मै आदिवासी हूँ ! धिक्कार है ऐसे लोगों को, जो समाज के हिस्से से आफिसर बनकर, समाज का खाकर, अपना आफिसरी थोंद बढ़ाकर धरती का बोझ बढ़ाते है और अपनी घटिया सोच से समाज की गरिमा को ही गन्दा करते हैं. समाज के नाम से थोड़ा बहुत चन्दा देने के पर उन्हें ऐसा लगता है कि वे समाज के लिए जीवन का सारा वैभव लुटा दिया हो. समाज के लिए कोई चन्दा मांगने वाला उन्हें भिखारी नजर आने लगता है. यदि दे भी दिया तो उनके साथ भिखारी जैसे व्यवहार भी किया जाता है. दूसरी ओर पान ठेले में सौ-दो सौ का पान खाकर थूक देना और बारों में दारू पीकर हजारों लुटा देना अपनी शान में इजाफे का प्रतीक समझते हैं. ऐसे लोगों के लिए मेरा एक सवाल है कि, क्या वे समाज की माताओं की कोख से, समाज की धरती पर पैदा नहीं हुए, जो अपने समाज की सामग्री और समाज के हित के लिए किए जाने वाले कार्य से घृणा करते हैं ? उन्हें समाज के नाम पर या समाज की सामग्री या समाज के लोगों को अपने सामने देखकर या पाकर खुद को स्तरहीन महसूस करते हैं. यह उनकी किस उच्च स्तर की निशानी है पता नही ?
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सोमवार, 2 जुलाई 2012

सरकारी एजेंडा आदिवासियों का सफाया

आज हम विकास और प्रगति के दो चेहरे देख रहे हैं. छत्तीसगढ़ उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का नतीजा है जहां एक चेहरा भारत के बहुत तेजी से हो रहे विकसित राज्य के रूप में दिखाया जाता है और दूसरा चेहरा गैरकानूनी गिरफ्तारियों, यातनाओं, बलात्कारों और हत्याओं के रूप में दिखाई देता है. सरकार इस दूसरे  चेहरे को ढक कर रखना चाहती है. माओवादी हिंसा पर जमकर शोर शराबा होता है, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में यह ख़बरें सुर्ख़ियों के साथ प्रसारित की जाती है. सुरक्षा बलों पर माओवादी हमले को आम ग्रामीण आदिवासी बदले की कार्यवाही मानता है. आदिवासी अंचलों में माओवादी भी यही प्रचार करते हैं. क्या एक उभरती हुई महाशक्ति का यही असली चेहरा है, जहां मानव अधिकारों और मानवीय गरिमा का कोई स्थान न हो बस आर्थिक विकास की दौड़ ही सबसे ज्यादा मायने रखती हो ?

कितनी लाशें और बिछेंगी बस्तर में ????...
          भारत का सुरक्षा बजट प्रतिवर्ष बढ़ता रहता है. यहाँ तक कि आर्थिक संकट का भी इस पर कोई असर नहीं पड़ता. भारत सरकार अपनी धनराशि का अधिकाँश हिस्सा अपनी जनता की सुरक्षा पर खर्च करती है. इसके अलावा आंतरिक सुरक्षा संबंधी खतरे से निपटने के लिए सरकार के पास विशेष बजट का भी प्रावधान है और अनेक राज्य सरकारें भी उस पैसे को सुरक्षा पर खर्च करती हैं, जो उन्हें आदिवासियों से संबंधित योजनाओं के लिए प्राप्त होती है. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकार या सरकारें उस पैसे का इस्तेमाल आदिवासियों को मारने के लिए कर रही हैं, जिसे उनके कल्याण और विकास के लिए खर्च करने की अपेक्षा की जाती है. अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि सुरक्षा से संबंधित खतरे से निपटने की प्रक्रिया में निर्दोष आदिवासियों को शिकार बनाया जाता है. तेजी से विकास कर रहा छत्तीसगढ़ राज्य इस मामले में जीता जागता उदाहरण है, जहां अर्द्धसैनिक बलों, स्थानीय पुलिस और कोया कमांडो (आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को लेकर निर्मित सरकारी संगठन) के हाथों भारी संख्या में आदिवासियों को शिकार बनाया  गया है और हिंसक वारदातें करने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही करने के बजाय राज्य उनकी अमानवीय हरकतों को न्यायोचित ठहराता है और उनका बचाव करता है.

ताड़मेटला में जले हुए आदिवासियों के घर 
          हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ के कोया कमांडोज, सेन्ट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स और कोबरा बटालियंस ने मिलकर दंतेवाडा जिले के तीमापुरम, मोरपल्ली और ताड़मेटला गांवों के ३०० मकानों को ११ मार्च से १६ मार्च २०११ के बीच जला दिया था और ५ आदिवासी महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाया गया. सुरक्षा बालों ने आरोप लगाया कि ये माओवादियों के गाँव हैं. सुरक्षा बलों में २०० कोया कमांडो, १५० कोबरा के सैनिक और ५० सीआरपीएफ़ के जवान शामिल थे. इनका मानना था कि मोरपल्ली गाँव में हथियार बनाने की माओवादियों की एक फेक्ट्री है जिसकी जानकारी उन्हें खुफिया सूत्रों से मिली थी. उन्हें यह भी पता चला था कि इन इलाकों में १०० माओवादी हैं. बहरहाल, सुरक्षा बलों को न तो कोई फेक्ट्री मिली और न कोई माओवादी. पुलिस  ने यह भी स्वीकार किया कि इन कार्रवाईयों के दौरान जो लोग मारे गए वे माओवादी नही थे. क्या हमारे कारपोरेट गृह मंत्री पी.चिदंबरम हमें बताएँगे कि यह किस तरह का नक्सल विरोधी अभियान है, जिसमे निर्दोष अदिवासियों की ह्त्या हुई, महिलाओं का बलात्कार किया गया और तमाम लोगों के घर, कपड़े तथा अनाज सुरक्षा बालों द्वारा जला दिए गए ?

आदिवासियों के जले हुए आशियाने, मोरपल्ली 
          बेशक हमें गृह मंत्रालय से इस बात का जवाब चाहिए कि लोगों को मारने और उनके घरों को जलाने तथा महिलाओं के साथ बलात्कार करने की अर्द्धसैनिक बलों और स्थानीय पुलिस को छूट देने वाले उच्च पुलिस अधिकारीयों को क्यों जवाबदेह नहीं बनाया गया और न उन्हें दण्डित किया गया ? गृह मंत्रालय इस मामले पर खामोश क्यों है ? क्या गृह मंत्रालय न्याय के लिए ग्रामवासियों की चीख सुनेगी ? मोरपल्ली गांव की माधवी हुंगे के अनुसार उसके ३० वर्षीय पति मदवी चुल्ला पुलिस की छापामारी के समय एक इमली के पेड़ पर चढ़कर इमली तोड़ रहे थे. सुरक्षा बलों ने उनपर गोली चलाई. माधवी ने अनुरोध किया कि वे ऐसा न करें, लेकिन जवाब में उन्होंने इस पर भी हमला किया. किसी तरह वह वहाँ से बच निकली, लेकिन उसके पति मारे गए और उनका शव पेड़ पर ही लटकता रहा. इसी प्रकार ४५ वर्षीय आमला तेंदू पत्ते तोड़ रही थी, जब सुरक्षा कर्मी पहुंचे और उन्होंने कहा कि वह माओवादियों की जासूस है. उन्होंने आमला को जमीन पर पटक दिया, उसके कपड़े फाड़ दिए और उसके दो बेटियों के सामने उससे बलात्कार किए. इसी प्रकार एक और मामले में पुलिस कर्मियों ने माधवी गंगा, उसके बेटे बीमा और उसकी बेटी हुरे को पकड़कर चिंतलनार पुलिस स्टेशन ले गए. पुलिस ने २० वर्षीय हुर्रे को एक अलग कोठरी में रखा, उसे नंगा कर दिया और उसके साथ रात भर बलात्कार की कार्यवाही होती रही. नक्सल विरोधी अभियान के क्रम में पुलिस ने मोरपल्ली गांव में ३७, तिमापुरम में ५० और ताड़मेटला में २०० मकानों तथा इन मकानों में रखे सामानों को जला दिया. सवाल यह है कि अब ये लोग इस वर्ष क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे और कहाँ जाकर रहेंगे ? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या इस देश में उन्हें नागरिकता का अधिकार है या नहीं ?


आदिवासियों के घर एवं उपयोगी
सामग्री सहित जले हुए अनाज
          यह सारा कांड इसलिए किया गया क्योंकि यहाँ के गांव वालों ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर सरकार द्वारा संचालित शिविरों में जाकर रहने से इंकार किया था. पुलिस के अनुसार चूंकि इन गांव वालों नें इन शिविरों में जाकर रहने से इनकार किया, इसलिए ये लोग माओवादियों से अलग नहीं हैं. पुलिस का भी यही कहना है कि अगर वे सरकार का साथ दे रहे होते तो वे जरूर शिविरों में जाते, लेकिन वे हमारी इसलिए नहीं सुन रहे थे क्योंकि या तो वे माओवादी हैं या उनके समर्थक. छत्तीसगढ़ में आदिवासियों तथा अन्य स्थानीय लोगों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करने का क्या इससे औचित्य मिल जाता है ? इस मामले पर काफी हंगामा होने के बाद दंतेवाड़ा के कलेक्टर आर.प्रसान्ना ने जांच का एलान किया और कोंटा के तहसीलदार के नेतृत्व में जांच सदस्यों की एक टीम बनाई.


       आदिवासियों के खिलाफ यहाँ के पुलिस अधिकारी और बड़े नौकरशाह बेहद संदिग्ध भूमिका  निभा रहे हैं. छत्तीसगढ़ के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने यह कहते हुए कि चूंकि स्थानीय पुलिस सभी आरोपों से इनकार कर रही है, इसलिए किसी जांच की जरूरत नही है. सवाल यह है कि क्या कोई अपराधी अपराध करने के बाद उसे स्वीकार करेंगे ? दंतेवाड़ा के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक एस.आर.पी.कल्लूरी ने तो इसे माओवादी प्रचार कहकर पूरी तरह खारिज ही कर दिया था. मजे की बात तो यह है कि एक तरफ तो जिला प्रशासन ताड़मेटला गांव को दाल, चांवल, खाने का तेल, कपड़े और इंधन आदि भेज रहा था और दूसरी तरफ यह भी कह रहा है कि वहाँ कोई पुलिस कार्रवाई नही हुई. बस्तर के कमिश्नर और दंतेवाड़ा के कलेक्टर को इलाके में राहत सामग्री बांटने से पुलिस ने रोक दिया. कलेक्टर प्रसन्ना का कहना रहा कि घटना के बारे में किसी ने शिकायत दर्ज नही कराई, इसलिए वह कोई कदम नही उठा सकते. क्या उन सुरक्षा कर्मियों के खिलाफ कोई भी गांव वाला शिकायत दर्ज कराएगा, जिन्हें वरिष्ठ पुलिस अधिकारीयों द्वारा भेजा गया हो ? इलाके में राहत सामग्री लेकर जा रहे एक एस.डी.ओ. को अपनी गाड़ी वापस लानी पड़ी, क्योंकि उनपर कोया कमांडो, कोबरा सैनिकों और स्पेशल पुलिस आफिसर के लोगों ने हमला कर दिया था.


बेघरबार आदिवासी
          सरकार लगातार झूठ बोल रही है. अक्टूबर २०१० में राज्य सरकार ने सुप्रीमकोर्ट को जानकारी दी थी कि छत्तीसगढ़ में सलवाजुडूम का कोई अस्तित्व नहीं है. सच्चाई इसके एकदम उलटी थी. सलवाजुडूम का नाम बदलकर कोया कमांडो बटालियन और स्पेशल पुलिस आफिसर कर दिया गया है और भारत सरकार के 'सुरक्षा संबंधी खर्चे' के मद से इनपर पैसे व्यय कर रही है. छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधिकारीयों ने इन सैनिकों को इसलिए तैनात किया है ताकि सरकार की बात न सुनने वालों से गांव को खाली कराया जाए. सुरक्षा बलों को यही समझाया गया है कि जो लोग गांवों में टिके हुए हैं वे या तो माओवादी हैं या इनके समर्थक हैं.

          ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा चिंता की बात राज्य द्वारा लोगों के विचारों और अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है. इनका आज छत्तीसगढ़ में कोई अस्तित्व नही है. इन इलाकों में यह कह कर किसी को घुसने नहीं दिया जाता कि इलाका बहुत असुरक्षित है. दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक का आदेश है कि कोई भी बाहरी व्यक्ति गांवों में न घुसे. नतीजतन न कोई पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता अथवा मानवाधिकार कार्यकर्ता अगर गांवों में घुसने की कोशिश करते हैं तो उनपर हमला होता है या पुलिस पकड़ कर ले जाती है.

          एक तरफ तो पुलिस बाहरी लोगों को दंतेवाड़ा में सुरक्षा कारणों से रोकती है जिसके फलस्वरूप स्वामी अग्निवेश, नंदिनी सुंदर तथा अन्य लोगों पर हमले हुए और उन्हें पकड़ लिया गया, हिमांशु कुमार के आश्रम को ध्वस्त कर दिया गया और उन्हें राज्य छोड़कर बाहर जाना पड़ा. दूसरी तरफ टाटा, एस्सार, जिंदल, भूषण जैसे कारपोरेट घरानों के प्रतिनिधियों का इलाके में स्वागत किया जाता है और उन्हें हर तरह की सुरक्षा दी जाती है. आज तक हमने नही सुना कि किसी कोबरा, कोया अथवा एसपीओ ने उनपर हमला किया हो. क्या वे बाहरी लोग नही हैं ? क्या उनकी सुरक्षा के लिए ख़तरा नही हैं ? आखिर क्यों सारा ख़तरा पत्रकारों, मानवाधिकारवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ही है ? दर असल छत्तीसगढ़ में वे सभी लोग बाहरी हैं जो सरकार द्वारा किए जा रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन का और आदिवासियों पर ढाए जा रहे अत्याचार का पर्दाफास करते हैं. दर असल तथाकथित नक्सल विरोधी अभियान इन कारपोरेट घरानों के लिए वहाँ की जमीन सुनिश्चित करने के लिए ही चलाया जा रहा है.

          आज हम विकास और प्रगति के दो चेहरे देख रहे हैं. छत्तीसगढ़ उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का नतीजा है जहां एक चेहरा भारत के बहुत तेजी से हो रहे विकसित राज्य के रूप में दिखाई देता है और दूसरा चेहरा गैर कानूनी गिरफ्तारियों, यातनाओं, बलात्कारों और हत्याओं के रूप में दिखाई देता है. सरकार इस दूसरे चेहरे को ढक कर रखना चाहती है. माओवादी हिंसा पर जमकर शोर शराबा होता है, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में यह ख़बरें सुर्ख़ियों के साथ प्रसारित की जाती है. आदिवासी अंचलों में माओवादी भी यही प्रचार करते हैं. क्या एक उभरती हुई महाशक्ति का यही असली चेहरा है, जहां मानव अधिकारों और मानवीय गरिमा का कोई स्थान न हो, बस आर्थिक विकास की दौड़ ही सबसे ज्यादा मायने रखती हो ?

साभार आदिवासी सत्ता 

आदिवासी सत्ता (मीडिया) को शक्तिशाली बनाना होगा-संपादक, "आदिवासी सत्ता"

श्री के.आर.शाह
संपादक, आदिवासी सत्ता 

               अभिव्यक्ति का अभाव और रौशनी में भी अन्धकार के एहसास में जीते हुए समाज की अनसुनी आवाज को नई पहचान देने फरवरी २००५ को हिन्दी मासिक "आदिवासी सत्ता" का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया. एक ऐसा समाज जो शिक्षा के क्षेत्र में आज भी सबसे अंतिम पंक्ति का सदस्य है, वहाँ वैचारिक क्रान्ति द्वारा आदिवासी सत्ता की पाठशाला खोलना रेगिस्तान में जलप्रपात तलाशने जैसा ही है. अरबी में कहावत है "हिम्मत-ऐ-मर्दे, मदद-ए-खुदा" और ऐसे ही साहस भरे दृढ़ संकल्प से हमने आदिवासी समाज में कुछ कर गुजरने का माद्दा रखने वाले कर्मठ, समाज सेवी साथियों के साथ मिलकर आदिवासी सत्ता के सफल प्रकाशन को ०६ वर्ष में पहुँचा दिया.

            हम सब जानते हैं कि प्रत्येक क्षेत्र में आदिवासियों को दबाने, सताने व मिटाने का षड्यंत्र बदस्तूर जारी है. मंत्री, विधायक, सांसद, प्रशासनिक अधिकारी, शासकीय कर्मचारी से लेकर आम आदिवासी कैसे प्रताडित होता है, यह किसी से छिपा नही है. इन परिस्थितियों में "आदिवासी सत्ता" की मुखर आवाज और विचार क्रान्ति कैसे अछूती रह सकती है ? "आदिवासी सत्ता" आज अदृश्य हमलों का शिकार है. हमारा समाज बेहद असंगठित और बड़ी संख्या में अशिक्षित व अजागरुक होने के कारण कमजोर व शक्तिविहीन है. "आदिवासी सत्ता मीडिया" समाज की एक नन्ही सी आवाज है. इसे मजबूत और शक्तिशाली आवाज बनाने के लिए सभी समर्थ आदिवासियों को तन-मन-धन से सहयोग करना होगा. मीडिया की ऊर्जा विज्ञापन है. मीडिया सामाजिक है, अतः विज्ञापन भी समाज को ही देना होगा, तभी "आदिवासी सत्ता" शक्तिसंपन्न होगा. कमजोर व्यक्ति दबा दिया जाता है और मरहा (मरियल) आवाजें अनसुनी हो जाती है.

               जनवरी २०१२ को "आदिवासी सत्ता" ने पांच वर्ष पूर्ण कर लिए. यह पांच वर्षीय सफलता हमारे और समस्त आदिवासी समाज के लिए गर्व का विषय है. हम अपेक्षा करते हैं, कि निम्न विज्ञापन दरों के अनुसार अपना शुभकामना सन्देश देकर तथा दिए विवरण अनुसार वार्षिक, पंचवर्षीय, दस वर्षीय एवं आजीवन सदस्य बनकर "आदिवासी सत्ता" को शक्ति व ऊर्जा प्रदान करें.


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रविवार, 1 जुलाई 2012

पंचायत-उपबंध (अनुसूचित क्षेत्र पर विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा क़ानून)

* संविधान आदेश क्रमांक १९२, दिनांक २०.२.२००३ द्वारा महामहिम राष्ट्रपति ने छत्तीसगढ़ राज्य में अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया है.

* छत्तीसगढ़ राज्य में कुल १४६ विकासखंड हैं, जिसमें ८४ आदिवासी विकासखंड हैं.

* राज्य का कुल क्षेत्रफल १,३५,३३३ वर्ग किलोमीटर में से ८१,८८१.८८ वर्ग किलोमीटर अर्थात ६०.५८ प्रतिशत में अनुसूचित जनजाति क्षेत्र है.

* छत्तीसगढ़ की कुल आबादी जनगणना २००१ के अनुसार २,०८,३३,८०३ में से आदिम जनजाति की जनसंख्या ६६,१६,५९६ हैं.

* भारतीय संविधान में अनुच्छेद १४(४) के अंतर्गत १३(४), १४(६), १५(४), १६(४), १६(४ए), ४६(२४३डी), २४४-१, २४४-२, २७५-१, ३३०, ३३२, ३३५, ३३८ए, ३३९(१), ३४२, १७(३)(४), ३२(२)- को अवश्य पढ़ें एवं संविधान के उपरोक्त प्रावधानों का पालन कराने में रागरुक रहें.

पंचायत-उपबंध (अनुसूचित क्षेत्र पर विस्तार) अधिनियम, १९९६


(अधिनियम क्रमांक ४० सन १९९६)

भारत गणराज्य के सैंतालीसवें वर्ष में संसद द्वारा निम्नांकित रूप में यह अधिनियमित हो :-

धारा-१.   इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम १९९६ है.

धारा-२.   इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो- “अनुसूचित क्षेत्रों” से ऐसे अनुसूचित क्षेत्र अभिप्रेत है जो संविधान के अनुच्छेद २४४ के खंड (१) में नीहित है.

धारा-३.   पंचायतो से संबोधित संविधान के भाग ९ के उपबंधों का, ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए जिनका उपबंध धारा ४ में किया गया है, अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार किया जाता है.

धारा-४.   संविधान के भाग ९ में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का विधान-मंडल, उक्त भाग के अधीन ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा, जो निम्नलिखित विशिष्टियों में से किसी से असंगत हो, अर्थात :-

(क)     पंचायतों पर कोई राज्य विधान जो बनाया जाए रूढ़िजन्य, विधि, सामाजिक और धार्मिक पद्धतियों और सामुदायिक संपदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप होगा,

(ख)     ग्राम साधारणतया आवास या आवासों के समूह अथवा छोटा गाँव या छोटे गावों के समूह से मिलकर बनेगा, जिसमे समुदाय समाविष्ट हो और परंपराओं तथा रूढ़ियों के अनुसार अपने कार्यकलापों का प्रबंध करता हो,

(ग)     प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम सभा होगी जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगी, जिनके नामों का समावेश ग्राम स्तर पर पंचायत के लिए निर्वाचक नामावलियों में किया गया है,

(घ)     प्रत्येक ग्राम सभा, जनसाधारण की परंपराओं और रूढ़ियों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदिक संपदाओं और विवाद निपटान के रूढ़िक ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने में सक्षम होगी.

(³)     प्रत्येक ग्राम सभा –


(i)      सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए योजनओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं का अनुमोदन, इसके पूर्व कि ग्राम स्तर पर पंचायत द्वारा ऐसी योजना, कार्यक्रम और परियोजना कार्यान्वयन के लिए ली जाती है, करेगी,

(ii)      गरीबी उन्मूलन और अन्य कार्यक्रमों के अधीन हिताधिकारियों के रूप में व्यक्तियों की पहचान या चयन के लिए उतरदायी होंगी,

(च)     ग्राम स्तर पर प्रत्येक पंचायत से यह अपेक्षा की जाएगी कि वह ग्रामसभा से, खण्ड (ड.) में निर्दिष्ट योजनओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं के लिए उक्त पंचायत द्वारा निधियों के उपयोग का प्रमाण प्राप्त करें,

(छ)     प्रत्येक पंचायत पर अनुसूचित क्षेत्रों में स्थानों का आरक्षण, उस पंचायत में उन समुदायों की जनसंख्या के अनुपात में होगा, जिनके लिए संविधान के भाग ९ के अधीन आरक्षण दिया जाना चाहा गया है :

परन्तु अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण, स्थानों की कुल संख्या के आधे से कम नहीं होगा, परन्तु अनुसूचित जनजातियों के अध्यक्षों के सभी स्थान, सभी स्तरों पर अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होगें.

(ज)     राज्य सरकार ऐसी अनुसूचित जनजातियों के व्यक्तियों का जिनका मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत में या जिला स्तर पर पंचायत में प्रतिनिधित्व नहीं है, नाम निर्देशन कर सकेगी :

परन्तु ऐसी नाम निर्देशन उस पंचायत में निर्वाचित किए जाने वाले कुल सदस्यों के दसवें भाग से अधिक नहीं होगा.

(झ)     ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों के विकास परियोजनाओं के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अर्जन करने से पूर्व और अनुसूचित क्षेत्रों में ऐसी परियोजनाओं द्वारा प्रभारित व्यक्तियों को पुनर्व्यस्थापित या पुनर्वास करने से पूर्व परामर्श किया जाएगा, अनुसूचित क्षेत्रों में परियोजनाओं की वास्तविक योजना और उनका कार्यान्वयन उच्च स्तर पर समन्वित किया जाएगा,

(यँ)      अनुसूचित क्षेत्रों में लघु जल निकायों की योजना और प्रबंध समुचित स्तर पर पंचायतों को सौंपा जाएगा.

(ट)      ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों की सिफारिशों को अनुसूचित क्षेत्रों में गौण खनिजों के लिए प्रर्वेक्षण अनुज्ञप्ति या खनन पट्टा प्रदान करने के पूर्व आज्ञापक बनाया जाएगा.

(ठ)     नीलामी द्वारा गौण खनिजों के समुपयोजन के लिए रियायत देने के लिए ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों की पूर्व सिफारिश को आज्ञापक बनाया जाएगा,

(ड)      अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों को ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करने के दौरान, जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप में कृत्य सुनिश्चित करेगा कि समुचित स्तर पर पंचायतों और ग्राम सभा को विनिर्दिष्ट रूप में निम्नलिखित प्रदान किया जाए-

(i)      मद्धनिषेध प्रवर्तित करने या किसी मादक द्रव्य के विक्रय और उपभोग को विनियमित या निर्बंधित करने की शक्ति,

(ii)      गौण वन उपज का स्वामित्व,

(iii)     अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि के अन्य संक्रामण के निवारण की और किसी अनुसूचित जनजाति की किसी विधि-विरुद्धतया अन्य संक्रमित भूमि को प्रत्यावर्तित करने के लिए उपयुक्त कार्यवाई करने की शक्ति,

(iv)     ग्राम बाजारों को, चाहे वे किसी भी नाम से ज्ञात हों, प्रबंध करने की शक्ति,

(v)      अनुसूचित जनजातियों को धन उधार देने पर नियंत्रण करने की शक्ति,

(vi)     सभी सामाजिक सेक्टरों में संस्थाओं और कार्यकर्ताओं पर नियंत्रण करने की शक्ति,

(vii)     स्थानीय योजनाओं और ऐसी योजनाओं के लिए जिनमें जनजातीय उपयोजनाएं हैं, स्त्रोतों पर नियंत्रण रखने की शक्ति,

(ढ)      ऐसे राज्य विधानों में, जो पंचायतों को ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करें, जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप में कृत्य करने के लिए समर्थ बनाने के लिए आवश्यक हों, यह सुनिश्चित करने के लिए रक्षोपाय अंतर्विष्ट होंगे, कि उच्चतर स्तर पर पंचायतें, निम्न स्तर पर किसी पंचायत को या ग्राम सभा की शक्तियां और प्राधिकार हाथ में न लें,

(ण)     राज्य विधान मंडल अनुसूचित क्षेत्रों में जिला स्तरों पर पंचायतों में प्रशासनिक व्यवस्थाओं की परिकल्पना करने की छटी अनुसूची के पैटर्न का अनुरक्षण करने का प्रयास करेगा.

धारा-५.   इस अधिनियम द्वारा किए गए अपवादों और रूपांतरणों सहित संविधान के भाग ९ में किसी बात के होते हुए भी, उस तारीख के ठीक पूर्व, जिसको राष्ट्रपति की अनुमति इस अधिनियम को प्राप्त होती है, अनुसूचित क्षेत्रों में प्रवृत्त पंचायतों की अनुमति इस अधिनियम को प्राप्त होती है, अनुसूचित क्षेत्रों में प्रवृत्त पंचायतों से संबंधित किसी विधि का कोई उपबंध, जो ऐसे अपवादों और उपांतरणों सहित भाग ९ के उपबंधों से असंगत है, तब तक प्रवृत्त बना रहेगा जब तक उसे किसी सक्षम विधान मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा संशोधित या निरसित नहीं कर दिया जाता या उस तारीख से जिसको राष्ट्रपति की अनुमति इस अधिनियम को प्राप्त होती है, एक वर्ष समाप्त नही हो जाता. परन्तु ऐसी तारीख के ठीक पूर्व विद्दमान सभी पंचायतें अपनी अवधि के होने तक बनी रहेगी जब तक कि उन्हें उससे पहले उस राज्य की विधान सभा द्वारा या किसी ऐसे राज्य की दशा में जिसमे विधान परिषद है, उस राज्य के विधान मंडल के प्रत्येक सदन द्वारा उस आशय के पारित किसी संकल्प द्वारा विघटित नही कर दिया जाता.
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