रविवार, 17 जून 2012

आदिवासी सोनी सोरी नक्सलवादी या आदर्शवादी ?

श्रीमति सोनी सोरी पुलिस के गिरफ्त में
          छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी और लिंगाराम कोडोपी नामक दो आदिवासियों की गिरफ्तारी ने अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं. इन दोनों को सरकार माओवादी बताती है और इन पर आरोप लगाया गया है कि ये लोग औद्योगिक समूह एस्सार ग्रुप से पैसे लेकर माओवादियों की छापामार सेना तक पहुंचाने में लगे थे. २५ वर्षीय लिंगाराम कोडोपी का मामला एक डेढ़ साल पहले भी सामने आया था जब छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने यह एलान किया था कि लिंगाराम कोडोपी कई अपराधों में शामिल है और वह फरार है, सच्चाई यह थी कि लिंगाराम इन दिनों नई दिल्ली स्थित एक संस्थान में दाखिला लेकर पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहा था. विश्वरंजन के बयान के बाद उसने घबराकर छात्रावास छोड़ दिया और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश के पास आया. स्वामी अग्निवेश और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इस मुद्दे पर एक प्रेस कांफ्रेंस की जिसमे अपने साथ लिंगाराम को भी बैठाया और पत्रकारों को बताया कि विश्वरंजन जिसके खिलाफ झूठे आरोप लगा रहे हैं और फरार बता रहे हैं वह व्यक्ति दिल्ली में पढ़ाई कर रहा है. स्वामी अग्निवेश ने डीजीपी विश्वरंजन को चुनौती दी कि वह आएं और लिंगाराम को स्वामी अग्निवेश के घर से पकड़ कर ले जाएं. उस समय तो यह मामला दब गया, लेकिन ९ सितंबर २०११ को पुलिस ने उसे दंतेवाडा से गिरफ्तार कर लिया.


         ३६ वर्षीय आदिवासी महिला सोनी सोरी एक अध्यापिका हैं. उसके खिलाफ भी पुलिस की डायरी में ढेर सारे आरोप दर्ज थे और अपने बचाव के लिए गुहार लगाने के मकसद से वह दिल्ली आयी थी. तीन बच्चों की माँ सोनी सोरी को ४ अक्टूबर २०११ को दिल्ली पुलिस ने दक्षिण दिल्ली में गिरफ्तार किया और छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया. इन गिरफ्तारियों के बाद छत्तीसगढ़ पीयूसीएल के पूर्व अध्यक्ष राजेन्द्र सायल ने एक बयान में कहा कि इन दोनों की गिरफ्तारी ने पुलिस की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिया है. क्योंकि दंतेवाडा में पुलिस ज्यादती के खिलाफ ये लोग लगातार आवाज उठा रहे थे, जिसकी वजह से काफी समय से पुलिस इन्हें पकड़ने के लिए बेचैन थी.

लिंगाराम कोडोपी

         इनकी गिरफ्तारी से कुछ सप्ताह पूर्व अनेक अखबारों में यह समाचार प्रकाशित हुआ था कि बी.के.लाला नामक एस्सार ग्रुप का एक ठेकेदार ९ सितम्बर को दंतेवाडा के बाजार में उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया जब वह लिंगाराम कोडोपी नामक एक माओवादी को १५ लाख रूपये दे रहा था. उन ख़बरों में यह भी बताया गया था कि लाला और लिंगाराम को तो पकड़ लिया गया लेकिन इनकी एक तीसरी सहयोगी सोनी सोरी वहाँ से फरार हो गई. अपनी फरारी की हालत में ही सोनी सोरी अचानक एक दिन नई दिल्ली में ‘तहलका’ के कार्यालय पहुंची और इस अखबार के लोगों से अनुरोध किया कि वे सच्चाई को सामने लाएं. उसने यह भी कहा कि उसके शुभचिंतकों की राय है कि वह खुद को पुलिस को सौंप दे और मामले को अदालत में जाने दे, लेकिन उसका कहना था कि जब वह निर्दोष हैं तो अपने को पुलिस को क्यों सौंपे. ‘तहलका’ के अनुसार उसने कहा कि ‘मै पढ़ी लिखी हूँ और मुझे अपने अधिकारों की जानकारी है. अगर मैंने कुछ गलत किया होता तो मै खुशी-खुशी जेल जा सकती थी. उसने यह भी जानना चाहा कि क्या पुलिस को मुझे गिरफ्तार करने से पहले इस बात का प्रमाण नही देना चाहिए कि मैने कौन सा अपराध किया है ?’ इससे पहले जयपुर में पीयूसीएल की सचिव कविता श्रीवास्तव के घर पर पुलिस ने चापा मारा और सोनी सोरी को पकड़ने के लिए पूरे घर की तलाशी ली. मजे की बात है कि पुलिस ने घर वालों को जो सर्च वारंट दिखाया उस पर किसी अधिकारी की मुहर नही लगी थी.

         ‘तहलका’ में सोमा चौधरी ने लिखा : ‘सोनी की आँखों में बीच-बीच में आँसू निकल आते थे, लेकिन वह उन औरतों में नही थी जो अपनी बेचारगी का व्यापार करे. उसने बेहद खतरनाक स्थितियों में खुद को एक बीमार औरत बताकर बड़ी मुश्किल से उड़ीसा की सीमा पार की और दिल्ली पहुँच सकी. गावं में उसने ५ वर्ष, ८ वर्ष और १२ वर्ष के अपने तीन बच्चों को रिश्तेदारों के घर या होस्टल में छोड़ रखा है. उसके पति कथित माओवादी के रूप में जेल में बंद हैं. उसके पिता जगदलपुर के अस्पताल में भर्ती हैं और विडंबना यह है कि उसके पिता को माओवादियों ने यह कह कर अपना निशाना बनाया कि वह पुलिस को साथ दे रहे हैं. लिंगाराम कोडोपी उसका भतीजा है जो जेल में बंद है. खुद सोनी सोरी को माओवादी हिंसा के पांच मामलों में आरोपी बनाया गया है. जिस सरकारी स्कूल में वह पढाती है वहाँ हर रोज पुलिस का छापा पड़ता रहता है और अब वह बंद होने के कगार पर है. इस स्कूल में तकरीबन १०० बच्चे पढ़ाई करते थे, जिनमे से ४० ने उस दिन से ही स्कूल आना बंद कर दिया जब से सोनी सोरी को फरार घोषित किया गया है.’

         छत्तीसगढ़ पुलिस की चर्चा विनायक सेन के मामले में काफी हो चुकी है. ह्त्या के फर्जी आरोप में बंद कोपा कुंजम नामक एक अन्य आदिवासी युवक को जमानत लेने में ढाई साल से भी अधिक समय लग गया. वनवासी चेतना आश्रम के संचालक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के मामले से भी लोग परिचित हैं, जिनके आश्रम को पुलिस ने यह कहकर पूरी तरह ध्वस्त कर दिया कि वहाँ माओवादियों को पनाह मिलती है. हिमांशु कुमार को भी छत्तीसगढ़ छोड़ना पड़ा.

         ११ सितंबर को दिल्ली के लिए जब सोनी सोरी रवाना हुई तो जंगलों के रास्ते छिपते छिपाते उसे बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. जिस स्थान से फोन के नेटवर्क की सुविधा थी, उसने पत्रकार तुषार मित्तल को दिल्ली में फोन करके बताया कि ‘पुसिल उसकी ह्त्या करना चाहती है और पुलिस ने उस पर गोली भी चलाई है. उसने बताया कि वह ज़िंदा रहना चाहती है ताकि लोगों को छत्तीसगढ़ की सच्चाई बता सके.’ और दुनिया को सच्चाई बताने के लिए ही शायद वह दिल्ली तक पहुँच सकी. बताया जाता है कि लिंगाराम को पुलिस ने जिस दिन गिरफ्तार किया उससे एक दिन पहले यानी ८ सितंबर को किरंदुल थाने के एक कांस्टेबल ने सोनी से मुलाकात की और कहा कि वह लिंगाराम को इस बात के लिए राजी करे कि लाला को पकड़वाने में वह पुलिस के साथ सहयोग करे. दरअसल पुलिस चाहती थी कि लिंगाराम कोडोपी माओवादी बनकर ठेकेदार बी.के.लाला से कुछ पैसे ले और उसे पुलिस को सौंप दे. इस कांस्टेबल ने सोनी से वायदा किया कि अगर वह ऐसा करा सकी तो उसके खिलाफ लगे सरे आरोपों को खत्म कर दिया जाएगा. सोनी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. अगले दिन ९ सितंबर को पलनार में उसके पिता के घर से सादी वर्दी में पुलिस का एक दस्ता पहुँचा और उसने जबरन लिंगा को वहाँ से उठा लिया. सोनी ने सीआरपीएफ की ५१ वीं बटालियन के डिप्टी कमांडर मोहन प्रकाश को फोन करके जानना चाहा कि जो लोग आए थे वे क्या उनके आदमी थे ? मोहन प्रकाश ने इससे इनकार किया. इसके वाद सोनी और उसके भाई रामदेव किरंदुल थाने गए और थाना इंचार्ज उमेश राहुल से घटना के बारे में बताया. लेकिन उमेश राहुल ने भी किसी जानकारी से इनकार किया और कहा कि हो सकता है लिंगा को नक्सलवादियों ने गिरफ्तार किया हो. अगले दिन अखबारों में खबर छपी कि ठेकेदार बी.के.लाला से पैसे लेते हुए लिंगा कोडोपी को गिरफ्तार किया गया और ख़बरों में सोनी को फरार घोषित किया गया. इसके बाद सोनी ने फैसला किया कि उसे फ़ौरन छत्तीसगढ़ से बाहर चले जाना चाहिए.

        इस कहानी के साथ एक और कहानी जुड़ी हुई है जिसका संबंध उड़ीसा के बड़ा पादार पंचायत के सरपंच जयराम खोड़ा से है. खोड़ा के अनुसार १४ सितंबर को उड़ीसा की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और पूछताछ के लिए छत्तीसगढ़ की पुलिस को सौंप दिया. छत्तीसगढ़ की पुलिस ने उन्हें गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखा और आठ दिनों तक भीषण यातना दी. इसके बाद उन्हें दंतेवाड़ा के एस.पी. के सामने पेश किया गया और जबरन एक बयान पर दस्तखत कराए गए. १९ सितंबर तक गैरकानूनी हिरासत में रखे जाने के बाद खोड़ा को एक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और बाद में २१ सितंबर को रिहा कर दिया गया. जिस बयान पर खोड़ा से जबरन हस्ताक्षर कराया गया उसमे कहा गया है कि वह (खोड़ा) बी.के.लाला के साथ नक्सलवादियों के कमांडरों से मिलने और उन्हें पैसे देने गए थे. खोड़ा का कहना है कि बी.के.लाला के साथ उनका संबंध इतना ही है कि लाला ने उनके गांवों में १५-२० ट्यूबवेल लगवाए हैं और स्कूल की एक नई इमारत बनायी है. आखिर सोनी सोरी के खिलाफ पुलिस इस तरह क्यों पीछे पड़ी है ? यह जानने के लिए सोनी की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है.

        सोनी सोरी एक अच्छे खाते-पीते आदिवासी परिवार की सदस्य है जो राजनीतिक तौर पर सक्रिय है. सोनी के पिता मजरूर राम सोरी १५ वर्षों तक सरपंच के पद पर रहे और वे इलाके के प्रतिष्ठित लोगों में माने जाते हैं. सोनी के चाचा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं और विधायक रह चुके हैं. सोनी के बड़े भाई कांग्रेस में हैं. सोनी का भतीजा लिंगाराम कोडोपी एक प्रतिभाशाली युवक है जो पत्रकारिता की पढ़ाई करने दिल्ली गया हुआ था. खुद सोनी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक है. उसने हिमांशु कुमार के आश्रम में काफी कुछ सीखा और हिमांशु कुमार को अपना गुरु मानती है. माओवाद के नाम पर आदिवासियों के उत्पीड़न से सोनी उद्विग्न रहती थी और इसके खिलाफ आवाज उठाती थी. वह इस सच्चाई को समझती थी कि यहाँ की खानिज संपदा के दोहन के लिए कारपोरेट घराने इस इलाके को आदिवासियों से खाली कराना चाहती है और सरकार उनकी मदद कर रही है. सरकार, कारपोरेट घराने और पुलिस के इस नापाक गठजोड़ का पर्दाफास करने में वह लगी थी. दंतेवाड़ा जिला और खास तौर पर वह इलाका जिसमें लिंगा और सोनी सक्रिय थे मसलन पलनार, समेली, जबेली, गीदम आदि माओवादियों का गढ़ माना जाता है. यहाँ घने जंगल हैं और आए दिन पुलिस और नक्सलवादियों के बीच मुठभेड़ होते रहती है. सोनी और लिंगा ने ठेकेदारों द्वारा यहाँ के मजदूरों के शोषण के खलाफ आवाज उठाई और लगातार संघर्ष के जरिए आदिवासियों की न्यूनतम मजदूरी को ६० रूपये से बढ़ाकर १२० रूपये कराया. इन ठेकेदारों से अच्छी खासी रकम पुलिस अधिकारियों को मिलती थी जो मिलनी बंद हो गई थी. माओवाद से निपटने के नाम पर सहकार ने यहाँ से उन सभी तत्वों का सफाया अभियान चला दिया जो आदिवासियों के हक की लड़ाई में शामिल हैं. इन दोनों के सक्रिय होने से पूर्व आम तौर पर आदिवासियों की आवाज उठाने वाला कोई नही था. इससे पहले भी लगभग २ वर्ष पूर्व ३० अगस्त २००९ को लिंगा कोडोपी को पुलिस ने जबरन उसके घर से उठा लिया था और ४० दिनों तक गैर कानूनी ढंग से हिरासत में रखा था. जब भी कोई लिंगा के बारे में पता करने जाता पुलिस इनकार कर देती कि उसने गिरफ्तार किया है. अंत में हिमांशु कुमार ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालन में बंदी प्रत्याक्षीकरण याचिका दायर की और तब कहीं १० अक्टूबर को लिंगा को गैर कानूनी हिरासत से रिहाई मिल सकी. हिमांशु कुमार के साथ इस याचिका पर हस्ताक्षर करने वाले एक अन्य आदिवासी मासाराम को अगले दिन पुलिस ने पकड़ लिया और आरोप लगाया कि उसने एक नक्सलवादी की रिहाई में मदद की है. हिमांशु कुमार को फिर अदालत की शरण लेनी पडी और मासाराम की रिहाई हो सकी. छत्तीसगढ़ में इस तरह की घटनाएं एक आम बात हो गई है.

         दिल्ली में पत्रकारिता की शिक्षा पूरी करने के बाद लिंगा कोडोपी ने तय किया कि वह छत्तीसगढ़ वापस जाए और वहाँ के लोगों की बदहाली के बारे में नियमित तौर पर अखबारों को जानकारी दे. वह इसी इरादे से अपने इलाके में गया भी था. लेकिन पुलिस नहीं चाहती थी कि कोई ऐसा व्यक्ति जो आदिवासियों की समस्या से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ हो और जिसके पास इतनी सारी जानकारी हो वह कभी पत्रकारिता के जरिये पुलिस के कारनामों का खुलासा करे. एस्सार ग्रुप द्वारा पैसे देने के मामले में कुल चार लोग गिरफ्तार किए गए हैं, जिनमे एस्सार के जनरल मैनेजर भी शामिल है जो दंतेवाड़ा में तैनात थे. पुलिस हिरासत में सोनी सोरी को भीषण यातनाएं दी गई है और उसके गुप्तांगों में पुलिस ने पत्थर डाले जिनके बारे में अदालत में डाक्टरी रिपोर्ट भी पहुँच गई है. वह चलने-फिरने में असमर्थ है और इस बारे में पुलिस का कहना है कि अक्टूबर में हिरासत के दौरान वह फिसल कर गिर पड़ी जिसमे उसे चोट आ गई है.

         पुलिस और अदालत के व्यवहार पर बस्तर में आदिवासी बच्चों के लिए आश्रम संचालित कर रहे समाजसेवी (जिनका आश्रम अब ध्वस्त किया जा चुका है) हिमांशु कुमार ने न्यायधीश के नाम एक पत्र भेजा है जिसे प्रकाशित किया जा रहा है. ४० हजार वर्ग किलोमीटर में फैला बस्तर का यह क्षेत्र आज एक युद्धभूमि बन गया है जहां १९८० के दशक से ही आदिवासियों के लिए न तो कोई कानूनी अधिकार है और न मानव अधिकार. सोनी सोरी और लिंगाराम कोडोपी जैसे न जाने कितने आदिवासियों को गुमनामी की मौत मिली, लेकिन अब लगता है कि मौत भले ही मिले पर वे गुमनामी के अँधेरे में नही खोएंगे.



काश कि मैंने बस्तर ना देखा होता- हिमांशु कुमार


          काश कि मैंने बस्तर ना देखा होता, तो मै भी राष्ट्र की मुख्य धारा का एक विश्वसनीय नागरिक होता, फिर मै भी क्रिकेट की ये वाली, या वो वाली टीम के जीतने या हारने की राष्ट्रीय समस्या पर शर्तें लगाता हुआ, पूरी शाम ऐस से बिताता और चर्चा करता टी.वी. सीरियलों की सास बहू की शह और मात के गंभीर मुद्दे पर, शर्त लगाता अपनी पत्नि से कि देख लेना इस बार बहू ही जीतेगी, लेकिन बस्तर से लौटने के बाद मै अजीब और खतरनाक बातें करने लगा हूँ. मेरे रिश्तेदार मेरे पहुँचते ही आपस में इशारे करके बारी-बारी से उठकर चले जाते हैं, क्योंकि मेरे बातों में होते हैं आदिवासियों के जले हुए घर, अपमानित आदिवासी बच्चियां, ‘देश का विकास कर रही अच्छी सरकार’ के भयानक क्रूर कर्म, मेरी बातों में होते हैं करतम जोगा, सुखनाथ ओयामी, मदकम हिड़मे और पोंजेर गाँव में कुल्हाड़ी से काट दिए गए महुआ बीनते ६ आदिवासियों के खून से लथपथ शव, क्या कोई मुझे फिर से एक अच्छा नागरिक बना सकता है ? जो टी.वी, क्रिकेट और फिल्मों जैसी सभी बातें करें, असभ्य आदिवासियों, बराबरी, विकास के सामान बंटवारे जैसी बतें बिलकुल ना करे.

        हिमांशु कुमार का अपराध बस इतना है कि उसने सच का साथ दिया. मानवाधिकार की सेवा की. नक्सलवादी उन्मूलन के नाम पर निर्दोष आदिवासियों के ऊपर होते अनाचार का विरोध किया. लिंगाराम कोडोपी जैसे ऊर्जावान व आदिवासी का जज्बाती उभरते युवा नेतृत्व को मार्गदर्शन देना उनका एक बड़ा अपराध बन गया. बस्तर का सच यही है कि वहाँ सच बोलना और लिखना सबसे बड़ा अपराध है. आदिवासी समाज सेवा से सरोकार रखने वाला सच बोलने से डरता है वहीं दूसरी त तरफ लोकतंत्र का स्तंभ कहलाने वाला मीडिया पूर्ण सत्य लिखने हेतु नफ़ा नुकसान को ध्यान में रखता है. सोनी सोरी का प्रकरण इसका अच्छा उदाहरण है. छत्तीसगढ़ से प्रकाशित राष्ट्रीय अखबारों व न्यूज चैनलों ने सोनी सोरी के साथ हुए दुर्दांत अत्याचारों व राज्य व देश को कितना सच बताया या दिखाया, यह किसी से छिपा नहीं है. एक महिला के गुप्तांगों में पत्थर डालना अत्याचार की पराकाष्ठा को दर्शाता है, लेकिन यह खबर देश में आवाम तकनही पहुँच सकी. क्यों ? क्या इसीलिए की सोनी सोरी एक आदिवासी महिला है ?

गुप्तांगों में एस.पी. ने पत्थर भर डाले थे ! ‘न्यायाधीश के नाम 
गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का पत्र’

आपकी अदालत में गोम्पाड गाँव में सरकारी सुरक्षाबलों द्वारा तलवारों से काट डाले गए सोलह आदिवासियों का मुकदमा पिछले दो साल से घिसट रहा है. इस अदालत में उन आदिवासियों को लाते समय मुझे एक नक्सलवादी नेता ने चुनौती दी थी कि इन आदिवासियों की ह्त्या करने वाले पुलिस वालों को अगर तुम सजा दिलवा दोगे तो मैं बन्दूक छोड़ दूंगा. 


माननीय न्यायाधीश महोदय,
सर्वोच्च न्यायालय,
नई दिल्ली.

           यह पत्र मैं आपको सोनी सोरी नाम की आदिवासी लड़की के संबंध में लिख रहा हूँ, जिसके गुप्तांगों में दंतेवाड़ा के एस.पी. ने पत्थर भर दिए थे और जिसका मुकदमा आपकी अदालत में चल रहा है. उस लड़की की मेडिकल जांच आपके आदेश से कराई गई और डॉक्टरों ने उस आदिवासी लड़की के आरोपों को सही पाया और डॉक्टरी रिपोर्ट के साथ उस लड़की के गुप्तांगों से निकले हुए तीन पत्थर भी आपको भेज दिए हैं.

          कल दिनांक ०२/१२/२०११ को आपने वो पत्थर देखने के बाद भी उस आदिवासी लड़की को छत्तीसगढ़ के जेल में ही रखने का आदेश दिया और छत्तीसगढ़ सरकार को डेढ़ महीने का समय जवाब देने के लिए दिया है.

          जज साहब मेरी दो बेटियाँ हैं. अगर किसी ने मेरी बेटियों के साथ ये सब किया होता तो मै डेढ़ महीना तो क्या डेढ़ मिनट का भी मोहलत नहीं देता ! और जज साहब अगर यह लड़की आपकी अपनी बेटी होती तो क्या उसके गुप्तांगों में पत्थर डालने वालों को भी आप पैंतालीस दिनों का मोहलत देते ? और क्या उससे ये पूछते कि आपने मेरी बेटी के गुप्तांगों में पत्थर क्यों डाले ? पैंताली दिन के बाद आकर बता देना और तब तक तुम मेरी बेटी को अपने घर में बंद करके रख सकते हो ! पत्थर डालने वाले उस बदमास एस.पी. को पता है कि उसकी रक्षा करने के लिए आप यहाँ सुप्रीम कोर्ट में बैठे हुए हैं, इसीलिए वह बेफिक्र होकर खुलेआम इस तरह की हरकत करता है और आपके कल के आदेश ने इस बात को पुख्ता कर दिया है, कि इस तरह की हरकत करने वालों की रक्षा सुप्रीम कोर्ट लगातार उसी तरह करता रहेगा जिस तरह अंग्रेजों के समय में सरकारी पुलिसों की रक्षा के लिए करता रहा है.

          जज साबह, ये अदालत उस आदिवासी लड़की की रक्षा के लिए बनाई गई थी, उस बदमास एस.पी.के लिए नही. ये इस लोकतांत्रिक देश की सर्वोच्च न्यायालय है और इसका पहला काम देश के सबसे कमजोर लोगों की रक्षा सबसे पहले करने का है. आपको याद रखना पड़ेगा कि इस देश के सबसे कमजोर लोग महिलाएँ, आदिवासी, दलित, भूख से मरते हुए करोड़ो लोग हैं और इस अदालत को हर फैसला इन लोगों के हालात को बेहतर बनाने के लिए देना पड़ेगा. लेकिन आजादी के बाद से इन सभी लोगों को आपकी तरफ से उपेक्षा और इनकी दुर्गति के लिए जिम्मेदार लोगों को संरक्षण दिया गया है.

          मेरे पिता जी इस देश की आजादी के लिए लड़े थे. उन सभी के आजादी के दीवानों के क्या सपने थे ? उन लोगों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि आजादी मिलने के बाद एक दिन देश की सर्वोच्च न्यायालय एक आदिवासी बच्ची के बजाय उस पर अत्याचार करने वाले को संरक्षण प्रदान करेगी. हमें बचपन से बताया गया कि देश में लोकतंत्र है. इसका मतलब है करोड़ों आदिवासियों, करोड़ों दलितों, करोड़ों भूखों की तंत्र. लेकिन आपके सारे फैसले इन करोड़ों लोगों को बदहाली में धकेलने वाले लोगों के पक्ष में होते हैं. आपको जगतसिंहपुर, उड़ीसा में अपनी जमीन बचाने के लिए गर्म रेट पर लेटे हुए औरतें और बच्चे दिखाई नही देते ? उनके लिए आवाज उठाने वाले कार्यकर्ता अभय साहू को जमीन छीनने वाले कंपनी मालिकों के आदेश पर सरकार द्वारा गिरफ्तारी आपको दिखाई नही देती ?

          आपकी अदालत में गोम्पाड गाँव में सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा तलवारों से काट डाले गए. १६ आदिवासियों का मुकदमा पिछले २ सालों से घिसट रहा है. इस अदालत में उन आदिवासियों को लाते समय मुझे एक नक्सलवादी नेता ने चुनौती दी थी और कहा कि इन आदिवासियों की ह्त्या करने वाले पुलिस वालों को अगर तुम सजा दिलवा दोगे तो मै बन्दूक छोड़ दूँगा, लेकिन मै हार गया. इस अदालत में आने व सजा के तौर पर पुलिस ने उन आदिवासियों के परिवारों का अपहरण कर लिए और वे लोग आज भी पुलिस की अवैध हिरासत में हैं. आपने दोषियों को अब तक सजा न देकर इस देश की सरकार को नहीं जिताया, बल्की आपने मुझे चुनौती देने वाले उस नक्सलवादी को जिता दिया. अब मै किस मुह से उस नक्सलवाद के सामने इस देश के महान लोकतंत्र और निष्पक्ष न्याय तंत्र की डींगे हांक सकता हूँ ? और उसके बन्दूक उठाने को गलत ठहरा पाऊँगा ?

          अगर इस देश में तानाशाही होती तो हमें संतोष होता. हम उस तानाशाही के खिलाफ लड़ रहे होते, परन्तु हमसे कहा गया कि देश में लोकतंत्र है- परन्तु इस तंत्र की प्रत्येक संस्था विधायिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका मिलकर करोड़ों लोगों के विरुद्ध और कुछ धनुपशुओं के पक्ष में पूरी बेशर्मी के साथ कार्य कर रहे हैं. इसे हम लोक तंत्र नही, लोकतंत्र का ढोंग कहेंगे और अब हम इस लोकतंत्र के नाम पर इस ढोंगतंत्र को एक दिन के लिए भी बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं हैं. आज मै प्रण करता हूँ कि आज के बाद किसी गरीब का मुकदमा लेकर आपकी अदालत नही आऊंगा. अब मै जनता के बीच जाऊँगा और जनता को भड़काऊँगा कि वह इस ढोंगतंत्र पर हमला करके इसे नष्ट कर दें, ताकि सच्चे लोकतंत्र की ईमारत खड़ी करने के लिए स्थान बनाया जा सके.

          अगर आप इस लड़की को इसलिए न्याय नही दे पा रहे हैं कि सरकार नाराज हो जायेगी और उससे आपकी तरक्की रुक जाएगी ? तो ज़रा इतिहास पर नजर डालिए. इतिहास गलत फैसला लेने वाले न्यायाधीशों को कोई स्थान नहीं देता. सुकरात को सत्य बोलने की अपराध की सजा देने वाले न्यायाधीश का नाम कितने लोगों को याद है ? जीजस को चोरो के साथ शूली पर कीलों के साथ ठोंक देने वाले जज को कौन जनता है ? आपके इस अन्याय के बाद सोनी सोरी इतिहास में अमर हो जाएगी और इतिहास आपको अपनी किताब में आपका नाम लिखने के लिए एक छोटा सा कोना भी प्रदान नही करेगा. हाँ अगर आप संविधान की सच्ची भावना के अनुरूप इस कमजोर अकेली आदिवासी महिला को न्याय देते हैं तो सत्ताधीश भले ही आपको तरक्की न दें, लेकिन आप अपनी नजरों, अपने परिवार कि नजरों में और इस देश की नजरों में बहुत तरक्की पा जायेंगे.

          अगर आप इस पत्र को लिखने के बाद मुझे गिरफ्तार करते हैं, तो मुझे गिरफ्तार होने का भी दुःख नही होगा. क्योंकि उसके बाद मैं कम से कम अपनी दोनों बेटियों से आँख मिलाकर बात तो कर पाऊंगा और कह पाऊँगा कि मै सोनी सोरी दादी के साथ होने वाले अत्याचारों के समय डर के कारण चुप नही रहा और मैंने वही किया जो एक पिता को अपनी बेटी के अपमान के बाद करना चाहिए था.


‘श्रीमति सोनी ने जेल से लिखा खत’

          छतीसगढ़ की दंतेवाड़ा जेल में बंद स्कूल शिक्षिका सोनी सोरी ने सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को गुरुजी के संबोधन के साथ ३ दिसंबर २०११ को एक पत्र लिखा. पुलिस अदालत और जेल की स्थिति को बयान करने वाला सोनी सोरी का यह एक जीवंत दस्तावेज है-

पूज्यनीय गुरुजी,
सादर स्नेह प्रमाण.

          आप लोग कैसे हैं ? हमें आप लोगों की बहुत याद आती है. ये जीवन तो आप लोगों के प्रयास से ही है. आपके बारे में एनजीओ वाले हमसे पूछ-ताछ किए. पूरी बात तो खत में नही लिख सकती, पर कुछ बातें बता सकती हूँ. वह पूछने लगे कि आप कैसे जानती हैं उनको (हिमांशु कुमार को), तो मैंने कहा- वो मेरे गुरु हैं. फिर मैंने कहा कि उनके साथ छत्तीसगढ़ में रहते समय जो व्यवहार किया गया, वो गलत था. मैंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार हो या नेता या पुलिस, सबने उनके साथ गलत किया. एनजीओ वाले पूछने लगे कि ऐसा आपको क्यों लगता है ? मैंने कहा- जो गुरु हमें सच के साथ लड़ना और संघर्ष करना सिखाया हो, वो गलत कैसे हो सकते हैं. आज मै जो संघर्ष कर रही हूँ, ये उन्ही गुरु की शिक्षा है. वो छत्तीसगढ़ आएंगे. उन्हें आना ही होगा. क्योंकि आज मेरी अकेले की पीड़ा नही बल्कि इस जेल में लगभग ६० महिलाएँ तकलीफ में हैं. वे मेरे जैसे ही शिकार हैं, जिन्हें फर्जी केस में फसाया गया है. अब इन लोगों को भी उनकी जरूरत है. ऐसी अनेक बातों पर मेरा जेल में वाद-विवाद हुआ. मै जब से इस जेल में हूँ, लोग अपनी नई-नई तकलीफों से वाकीफ कराते हैं. उनकी बातों को सुनकर मैं आपको याद करती हूँ.  इन लोगों में एक विश्वास जगाने की कोशिश करती हूँ. जब आपसे मिलूंगी तो पूरी बातें बताउंगी. आप में से कोई हमसे मिलने आएगा, यह सोचकर इन्तजार में हूँ. अपनी तरफ से न्यायालय में वह सब कुछ बताने की कोशिश करती हूँ, जो मुझपर बीत रही है. फिर भी मेरी बातों को गंभीरता से न्यायालय जज नही ले रही है, ऐसा मुझे लगता है. आपतो यहाँ की स्थिति से हमसे ज्यादा वाकिफ हैं. श्रीमति योगिता वासनिक, जज मैडम से १४/११/२०११ तारीख की पेसी में वाद-विवाद हुआ. उस दौरान मेरे वकील दुबे सर भी नही थे. मैडम का कहना था कि- तुम्हे दिल्ली से गिरफ्तार करने के बाद जब तुम्हें मेरे न्यायालय में पेश किया गया था, तब तुम ठीक थी. मैंने कहा- मैडम मै उस समय ठीक थी. आपके न्यायालय में पेश करना था. फिर न्यायालय सोचती सजा देना या न देना. वो मुझे अपनी हिरासत में रखकर इतना बड़ा सजा देकर आपके न्यायालय में क्यों भेज दिया है ? आप क्या सजा दोगे ? गुरुजी,  मैडम कहने लगी- १०/१०/२०११ तारीख को जब कोर्ट में आपको लाए थे, तो उस दिन ये सब बातें आपने क्यों नहीं बताया ? मै तुरंत कार्यवाई करती. तब मैंने कहा- आपने अपने न्यायालय के अंदर मुझे क्यों नही बुलाया ? तो कहने लगी कि- हमें बताया गया की बाथरूम से गिर गई और उठ नही पा रही है. फिर भी मैडम आपको आदेश देना था कि मुझे न्यायालय में कैसे भी करके लाओ. आप ऐसा करती तो मै जरूर बताने की कोशिश करती. आपने तो हमें कोर्ट के बाहर रखकर जेल में डालने का निर्णय किया. फिर क्या मै कोर्ट के बाहर उन पुलिस वाले के सामने बयान देती ? जो कि मेरे हालत के जिम्मेदार थे. झंडा के बारे में भी बहस हुई, गुरुजी, १४/११/२०११ तारीख को तीन केस न्यायालय में पेश किए और इस पर बहस हुआ. मैडम कहने लगी कि- आपका और केस आया है. तब मैंने कहा- आप हमें बताने के बजाय पुलिस वालों से पूछिए कि ये लोग डेढ़ सालों से क्या कर रहे थे जो हमें अरेस्ट नही किया. मैडम कहने लगी- पूछने पर पुलिस का कहना है कि वह हमेशा फरार रहती थी. तब मैंने कहा- ऐसी बात थी तो आपके न्यायालय में भी पहले जानकारी दिए होंगे कि ये महिला फरार है, फिर मैडम आपने कार्यवाही क्यों नहीं किया. मेरे शिक्षा विभाग में न्यायालय से आपको नोटिश भेजना चाहिए था. हंसकर मैडम कहती है- तुम्हारी बात बिलकुल सही है. मैडम बोली- तुम्हारे केस के बारे में सोचती हूँ तो मै खुद उलझ जाती हूँ. कुछ समझ में नही आ रहा है, ऐसे-ऐसे केस ला रहे हैं, एक तरफ तुम डेट से ही वेतन भी ले रही हो और तुम्हारे फरार रहने की भी जानकारी पुलिस वाले ने न्यायालय को सूचित नही किया. गुरूजी, प्लीज कुछ कीजियेगा. मै अपने हालत से परेशान हूँ. मै बेगुनाह होने के बाद भी जेल में और मेरे साथ इतना कुछ करके वो लोग बाहर हैं. इससे अच्छा तो मर जाना उचित है. ये लोग जो कुछ भी हमारे साथ किए हैं, हर पल हर घंटा मेरे सामने रहता है. मै भूल नही सकती. अंकित गर्ग एस.पी. हमसे ही बोला है- न्यायालय नीयम क़ानून ये सब मेरे आफिस में ही निर्णय होता है.


                                                                                                                               श्रीमति सोनी सोरी
                                                                      २६/११/२०११
साभार "आदिवासी सत्ता"
जून २०१२




1 टिप्पणी:

  1. jai budhadev, jai sewa
    bastar ki smasya badi gambhir hai , yaha aisa ho raha hai ki apradhi bhag jata hai, anjane me nirdosh log fans jaate hain. aaj kal ke neta ki baat chhod hi dijiye, wastav me logo me naitikta nahi rah gayi hai, isiliye dushkarma karte hai. naksali adiwsiyo ke haq ke liye lad rahe hain aisa kahkar unka durupyog kar rahe hain, aandolan hona bhi jaruri hai, taki unka haq bhi mile, par ye haq kaise milega, wahi britsh kalin kanoon aaj bhi hai, jamin adhigrahan niyam ka aaj itna durupyog ho raha hai, sab bade logo ki santh ganth hai. isliye Vyawsth pariwartan jaruri hai, isliye ram dev ji ka mai samarthan karta hun.
    Mujghe dukh hota hai, jab aap log unhi angrejo maikale aur maxmullar ki likhi bato ko sach maante hain.........

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