कई महान विद्वानों से सुना है।
दुनिया की संस्कृति में सर्वोपरी है, भारत की संस्कृति।
हमने इस धरती की संस्कृति में अपना सूरत गढ़ा है।
क्या आपने कभी देखा है ! क्या है भारत के संस्कृति ?
क्या ज्ञानवान और धनवानों की पुस्तैनी जागीर है !
क्या देश के नेताओं और अभिनेताओं का जमीर है !
क्या फिल्मी पर्दे की रंगीन नंग-धड़ंग तस्वीर है !
क्या घोटालों, हवालों की कालिख लगी तकदीर है !
क्या दगाबाजी, चोरी, डकैती, लूटमार, उठाईगीर है !
क्या आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद का जंजीर है !
क्या अंधी, गूंगी, बहरी, कपटी राजनीतिक वजीर है !
क्या आपने कभी देखा है ! क्या है भारत की संस्कृति ?
क्या आँख में पट्टी बंधी न्याय की देवी का सभागार है !
क्या दहेज़ रुपी दानव के दलालों का खुला बाजार है !
क्या इंसानियत को मिटाने का राजनीतिक हथियार है !
क्या दुःख, दरिद्रता की बंजर भूमि पर उगा खरपतवार है !
क्या गरीबी, भुखमरी और लाचारी से मची हाहाकार है !
क्या प्राकृतिक आपदा, विपदा के अँधेरे का चित्कार है !
क्या अपहरणकर्ता, तस्करों के कारनामों का पुरुष्कार है !
क्या अपने कभी देखा है ! क्या है भारत की संस्कृति ?
क्या ये शहरी गन्दी नाली की उपजी हुई पैदावार है !
क्या महानगरों की जिश्मफरोसी का गर्म बाजार है !
क्या चौराहों में खुले मदिरालय, बार का दरबार है !
क्या पानठेलों में सुलग रही जुल्म, जहर का सिगार है !
क्या आधुनिक पापमंच का प्रसिद्ध अधनंगा किरदार है !
क्या वैज्ञानिक अश्लील शिक्षा का सैक्स नेट संचार है !
क्या भारतीय संविधान, विधि-विधान का गुनाहगार है !
क्या आपने कभी देखा है ! क्या है भारत की संस्कृति ?
"सुपर गोंडवाना" की प्राकृतिक समृद्धि 'संस्कृति' का आधार है।
आदिम मानव, जल, जंगल, जमीन एवं संस्कृति का वारिसदार है।
सिन्धु और हड़प्पा की मूल द्रविड़ सभ्यता का सृजनहार है।
अप्राकृतिक, काल्पनिक आस्था पर वास्तविक आस्था का प्रहार है।
प्रकृति और प्राणियों के प्रेम से निकली स्वछन्द पुकार है।
वसुंधरा की गोद में बिखरी सुनहरी प्राकृतिक श्रृंगार है।
प्राकृतिक संवेदनाओं की बहती बयार ही मानवीय संस्कार है।
वह गाँव के कछार पर उगी हुई, छुईमुई सी मुरझाती है।
पुष्प, लता, जल, जंगल, झरने, पहाड़ों के संग मुस्कुराती है।
सेमल पर गूंजते भौंरे, तितलियों के संग गुनगुनाती है।
लहलहाती खेत के मेढ़ पर बैठ ख़ुशी के गीत गाती है।
गलियारों में गाय की बछड़ों की तरह स्वछन्द मछराती है।
पनिहारिनों की ठिठोली से ताल-पनघट खिलखिलाती है।
गाँव की सुबह सुनहरी धुप में मिट्टी की खुसबू आती है।
किसान अपने दिनभर के परिश्रम की थकान मिटाता है।
किंगरी, मांदर की सुर-ताल पर पूरा चौपाल झूमकर गाता है।
रीना, सुआ, दादरा, करमा का करताल खनक जाता है।
ढोलक की थाप पर सर्पदंस नाशक गीत गाया जाता है।
शक्ति के श्रृंगार पर अंतस का सदभाव जगाया जाता है।
वानस्पतिक औषधि के सेवा धर्म का हमने खोला खाता है।
बरसों से लेकर आज भी उसी परिवेश से हमारा नाता है।
जब चलती है संस्कारों की बयार, बड़, पीपल, अमराई से।
गांव के मेढ़ो, बूढ़ादेव, ठाकुरदेव, खीलामुठवा, खेरमाई से।
फूट पड़ती है स्वरलहरी, मानस अंतस की गहराई से।
उतर आते हैं सारे रिश्ते-नाते, पहाड़ पर्वतों की तराई से।
चरवाहे की बांसुरी धुन, सुन आते गाय-बछुरा वनराई से।
विनती है माता रायतार जंगो, कलि कंकालिन दाई से।
बचाए रखना संस्कारिक गर्भ को, पाखंडियों की चतुराई से।
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दुनिया की संस्कृति में सर्वोपरी है, भारत की संस्कृति।
हमने इस धरती की संस्कृति में अपना सूरत गढ़ा है।
क्या आपने कभी देखा है ! क्या है भारत के संस्कृति ?
क्या ज्ञानवान और धनवानों की पुस्तैनी जागीर है !
क्या देश के नेताओं और अभिनेताओं का जमीर है !
क्या फिल्मी पर्दे की रंगीन नंग-धड़ंग तस्वीर है !
क्या घोटालों, हवालों की कालिख लगी तकदीर है !
क्या दगाबाजी, चोरी, डकैती, लूटमार, उठाईगीर है !
क्या आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद का जंजीर है !
क्या अंधी, गूंगी, बहरी, कपटी राजनीतिक वजीर है !
क्या आपने कभी देखा है ! क्या है भारत की संस्कृति ?
क्या आँख में पट्टी बंधी न्याय की देवी का सभागार है !
क्या दहेज़ रुपी दानव के दलालों का खुला बाजार है !
क्या इंसानियत को मिटाने का राजनीतिक हथियार है !
क्या दुःख, दरिद्रता की बंजर भूमि पर उगा खरपतवार है !
क्या गरीबी, भुखमरी और लाचारी से मची हाहाकार है !
क्या प्राकृतिक आपदा, विपदा के अँधेरे का चित्कार है !
क्या अपहरणकर्ता, तस्करों के कारनामों का पुरुष्कार है !
क्या अपने कभी देखा है ! क्या है भारत की संस्कृति ?
क्या ये शहरी गन्दी नाली की उपजी हुई पैदावार है !
क्या महानगरों की जिश्मफरोसी का गर्म बाजार है !
क्या चौराहों में खुले मदिरालय, बार का दरबार है !
क्या पानठेलों में सुलग रही जुल्म, जहर का सिगार है !
क्या आधुनिक पापमंच का प्रसिद्ध अधनंगा किरदार है !
क्या वैज्ञानिक अश्लील शिक्षा का सैक्स नेट संचार है !
क्या भारतीय संविधान, विधि-विधान का गुनाहगार है !
क्या आपने कभी देखा है ! क्या है भारत की संस्कृति ?
"सुपर गोंडवाना" की प्राकृतिक समृद्धि 'संस्कृति' का आधार है।
आदिम मानव, जल, जंगल, जमीन एवं संस्कृति का वारिसदार है।
सिन्धु और हड़प्पा की मूल द्रविड़ सभ्यता का सृजनहार है।
अप्राकृतिक, काल्पनिक आस्था पर वास्तविक आस्था का प्रहार है।
प्रकृति और प्राणियों के प्रेम से निकली स्वछन्द पुकार है।
वसुंधरा की गोद में बिखरी सुनहरी प्राकृतिक श्रृंगार है।
प्राकृतिक संवेदनाओं की बहती बयार ही मानवीय संस्कार है।
वह गाँव के कछार पर उगी हुई, छुईमुई सी मुरझाती है।
पुष्प, लता, जल, जंगल, झरने, पहाड़ों के संग मुस्कुराती है।
सेमल पर गूंजते भौंरे, तितलियों के संग गुनगुनाती है।
लहलहाती खेत के मेढ़ पर बैठ ख़ुशी के गीत गाती है।
गलियारों में गाय की बछड़ों की तरह स्वछन्द मछराती है।
पनिहारिनों की ठिठोली से ताल-पनघट खिलखिलाती है।
गाँव की सुबह सुनहरी धुप में मिट्टी की खुसबू आती है।
किसान अपने दिनभर के परिश्रम की थकान मिटाता है।
किंगरी, मांदर की सुर-ताल पर पूरा चौपाल झूमकर गाता है।
रीना, सुआ, दादरा, करमा का करताल खनक जाता है।
ढोलक की थाप पर सर्पदंस नाशक गीत गाया जाता है।
शक्ति के श्रृंगार पर अंतस का सदभाव जगाया जाता है।
वानस्पतिक औषधि के सेवा धर्म का हमने खोला खाता है।
बरसों से लेकर आज भी उसी परिवेश से हमारा नाता है।
जब चलती है संस्कारों की बयार, बड़, पीपल, अमराई से।
गांव के मेढ़ो, बूढ़ादेव, ठाकुरदेव, खीलामुठवा, खेरमाई से।
फूट पड़ती है स्वरलहरी, मानस अंतस की गहराई से।
उतर आते हैं सारे रिश्ते-नाते, पहाड़ पर्वतों की तराई से।
चरवाहे की बांसुरी धुन, सुन आते गाय-बछुरा वनराई से।
विनती है माता रायतार जंगो, कलि कंकालिन दाई से।
बचाए रखना संस्कारिक गर्भ को, पाखंडियों की चतुराई से।
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