रविवार, 23 जनवरी 2022

गोंडियन सगाजनों का पेन पुरखा सेवा अर्जी अनुष्ठान/पूजा अनुष्ठान


यह फोटो सिवनी/ छिंदवाड़ा जिला मध्यप्रदेश के गोंड जनजातियों के किसी पूजा अनुष्ठान का है। इसे गोंड समाज महासभा, मध्यप्रदेश के कुटुंब एप से जुड़े तिरुमाल दीनाजी मरकाम, छिंदवाड़ा द्वारा दिनांक 17 जनवरी 2022 को प्रकाशित उनके वालपोस्ट से लिया गया है।

इसे देखकर समाज के मुखियाओं, सभी भूमकाओं और सगा समाज के अंतर्मन में सवाल उठना चाहिए कि क्या ऐसे क्लिष्ट, इतनी ज्यादा मात्रा में उपयोग की जाने वाली सामग्री, सामग्री को विधिपूर्ण और व्यवस्थित अर्पण करने में लगा अधिक समय और खर्च उचित है? साथ ही यह भी कि क्या इस तरह के आधुनिक पूजा अनुष्ठान की विधि प्रक्रियाएं और क्रियाकलाप उनके पुरखों के द्वारा की जाने वाली मूल पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठानों से मेल खाते हैं?

कुदरत और पेन पुरखे हमें सबकुछ दिए। आज कुदरत को और हमारे पुरखों को जो जरूरत वो हम बहुत कुछ दे सकते हैं। हमने अपने पुरखों कितना सम्मान दिया, क्या दिया, कितना दिया, कितना रुलाया, क्या खिलाया, क्या पिलाया, यह अलग बात है। किंतु अब वे पेन अवस्था में हैं। यह पेन अवस्था कुदरतीय अदृश्य महाऊर्जा/ महाशक्ति की अवस्था है। ऐसी अपार ऊर्जा से हम अपने जीवन की अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सुरक्षा पाने के लिए सम्मान और सादगीपूर्ण तरीके से की जाने वाली उनकी अर्जी बिनती की प्रक्रिया को ही अनुष्ठान या पेन पुरखा अनुष्ठान कह सकते हैं। 

मुझे भी आप लोगों की तरह सामाजिक धर्म संस्कृति के अस्तित्व और सुरक्षा पर चिंता होती है। पर एक बात अवश्य जान लें कि पुरखों की बनाई हुई संस्कृति आपका, समाज का अपना निजी है। यहाँ संस्कृति का आपका निजी होना आपके ऊपर निर्भर है कि उसे कैसे स्तेमाल करोगे। यदि आपने उसकी मूल अवधारणा को बिगाड़ दिया है, या उसके स्वरूप में काफी हद तक परिवर्तन कर दिया है, तो उसकी मौलिकता खत्म हो जाती है। जब उसकी मौलिकता खत्म हो जाती है, तो वह संक्रमण की अवस्था में चली जाकर नष्ट हो जाती है या किसी अन्य विधि के स्वरूप में सम्मिलित हो जाती है- जैसे हिन्दू विधि .... आदि।

यदि हम एक दो दशक पहले के अपने पेन पुरखाओं के सामान्य पूजा अनुष्ठानों को याद करें तो पाते हैं कि हमारे दादा दादी, पंडा पुजारी, भूमका, गायता कभी इतनी भारी भरकम सामग्री का उपयोग नहीं करते थे!

वे कम से कम सामग्री, संसाधन या सीमित संसाधनों से बिना किसी दिखावा किये, शालीन और शांत मंत्रोच्चार करके अनुष्ठान पूरा कर लेते थे। ऐसे सीमित संसाधनों के अनुष्ठान भी स्थाई शक्ति, सुरक्षा देने वाले, फलदाई व कुदरतीय अनुष्ठान के रूप में माने जाते थे। यही इसका मूल है।

आज समाज में इतने क्लिष्ट, अधिक खर्च, अधिक सामग्री और अधिक समय लगाकर सजावट से भरपूर दिखने वाले अनुष्ठान की जरूरत क्यों है?

क्या सामाजिक जनों को ऐसा नाहीं लगता कि वे इस तरह के अनुष्ठान करके ब्राम्हणों के अनुष्ठान विधि से अधिक कठिन बना रहे हैं? जब समाज ब्राम्हणी अनुष्ठानों का विरोधबकर रहा है, तब इस तरह के दिखावा करने की आवश्यकता क्यों??

यदि यही गोंडियन पद्धति के अनुष्ठान हैं तो जो हमारे एक पीढ़ी पहले के लोग जो सादगी से पेन पुरखा अनुष्ठान करते थे, क्या वे गलत अनुष्ठान करते थे? क्या वे गोंडियन अनुष्ठान नहीं थे??

आज आस्था, धर्म, संस्कृति की इतनी बेइज्जती करने की आवश्यकता नहीं हैं! जितनी शालीनता, कम सामग्रियों के साथ, कम समय में पूरा हो सके वही अनुष्ठान कुदरतीय और श्रेठ है। गोंडियन पेन पुरखा सेवा अनुष्ठानों को ब्राह्मणी अनुष्ठानों जैसा अपनाकर दिखावा करने का जामा न पहनाया जाय। हमारे पेन पुरखा अनुष्ठान दिखावा के लिए नहीं होते!!

इस कुदरत की हवा, पानी, मिट्टी, आग, आकाश की अनंत ऊर्जा में विलीन आपके पुरखों को याद करने के लिए किसी अनुष्ठान की नहीं, बल्कि आपके कुदरतीय आत्मिक भाव और सहज व विनम्र वाणी से उस ऊर्जा को अपनी ओर आकर्षित करने की आवश्यकता है। साधारण से साधारण परिस्थिति में कम से कम अनुष्ठान सामग्री के साथ उन्हें नम्र भाव से सम्मानपूर्वक अपनी अर्जी बिनती पहुंचाना होता है। इन्हें उसी सरल विधि में पूरा किये जाएं। विधि को क्लिष्ट या कठिन न बनाया जाए, ऐसा मेरा मानना है।

इसे देखकर मुझे यही लग रहा है कि हम अपने पुरखों की बनाई हुई धार्मिक अनुष्ठानों की मौलिकता खत्म करने में लगे हुए हैं! अनुष्ठानों को मनोरंजक और आकर्षक बनाने में समय का दुरुपयोग और सामग्रियों का व्ययभार बढ़ा रहे हैं! साथ ही भविष्य को एक ऐसे अनचाहे धार्मिक अंधकार की ओर हांक रहे हैं, जो पहले से गोंडियनों की धार्मिक राह में उनकी धार्मिक मौलिकता को लीलने के लिए आतुर बैठी है!!

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शनिवार, 15 जनवरी 2022

हमारे पेन पुरखे चमत्कार नहीं करते...

हमारे पेन पुरखे चमत्कार नहीं करते, बल्कि सांस्कारिक कार्यप्रक्रियाओं में कुदरत के साथ जीव और जीवन का संतुलन बनाते हैं।

अपने पूर्वजों का धन, धरा और धर्म की रक्षा हमारे शिवा कोई और नहीं कर सकता। इस धरा पर जितनी भी बाहर की सभ्यताएं आई, वे सभी ने खूब लूटा, जी भरके लूटा, लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ा! इनमें से एक सभ्यता आज भी इस धरा पर विद्यमान है, जो चमत्कारों पर विश्वास करता है! वह पत्थरों के मूर्तियों के लिए करोड़ों का घर (मंदिर) बनवाता है, उनको दूध पिलाता है, फल फूल और पौष्टिक भोजन खिलाता है, महंगे रत्न जटित वस्त्र पहनाता है, उनकी सेवा और सम्मान करता है, चिकित्सा कराता है, उन्हें स्वस्थ और खुश रखने के लिए कुदरत की बनाई हुई तमाम जीवन संसाधनों का उपयोग करता है! ये प्रक्रियाएं इंसानी प्रजाति के लिए करना उनके चरित्र और सांस्कारों का हिस्सा नहीं लगता!!

पर इन इंसानों ने जिस तरह हिन्दू ग्रंथों लिखा है और इस समय मिट्टी, पत्थर, घांस फूस, रंग रोगन से उनके विचित्र और 8-10 हाथ पैर, शिर के विकृत इंसानी स्वरूप में गढ़े जाने वाले भगवान- गणेश, दुर्गा, कृष्ण, सरस्वती, ब्रम्हा, विष्णु ...... इत्यादि सभी विभिन्न चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध हैं!!

यदि आप हिन्दू ग्रंथों को मानव सांस्कारिक, वैज्ञानिक और विवेकपूर्ण तरीके से पढ़ें/अध्ययन करें तो इनके जीवन व्यवहार में किसी तरह का दैवीय और जैवीय गुणों का सदैव अभाव महसूस कराता है! इनमें मानव सांस्कारिक गुणों की स्थापना का विषय तो कहीं नजर ही नहीं आता, शिवाय चमत्कार के!!

मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूँ क्योंकि गणेश अपनी माँ पार्वती के शरीर के मैल से पैदा हुए, इसे चमत्कार बताया गया! दुर्गा जो स्वर्ग के देवताओं की शारीरिक शोषण की शिकार मामूली सी नर्तकी थी, जो अचानक एक आदिम वंश के धन बल, जन बल, बाहुबल से सम्पन्न राजा महिसासुर की हत्या करके आर्यों की शक्तिशाली देवी और पूज्यनीय माता बन गयी! चमत्कार करने वाली बन गयी!!

कृष्ण को हमेशा से चमत्कारी पुरुष माना जाता है! ये महाभारत में भाई भाइयों को लड़ाकर अपने चमत्कार को स्थापित किया! इनके चमत्कार तब कहां गुम हो गए थे जब द्रोणाचार्य गुरु दक्षिणा के रूप में भील आदिमवंश के एक योद्धा, जो अर्जुन के मुकाबले धनुर्विद्या में ज्यादा पारंगत, धनुर्विद्या के ज्ञानी एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा के रूप में  मांगकर उसे कटवा दिया! जबकि द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाया ही नहीं था, तो गुरु दक्षिणा मांगने का औचित्य ही पैदा नहीं होता! इन्होंने हमेशा समाज से औचित्यहीन दक्षिणा लेकर, भीख मांगकर अपने आपको ज्ञानी समझते रहे!!

द्रोणाचार्य और उस समय के गुरुकुल केवल ब्राम्हण कुल के बच्चों को ही शिक्षा दिया करते थे! इनके अलावा किसी को भी पढ़ने, ज्ञानार्जन का अधिकार नहीं था! यह कोई कम बड़ी बात नहीं है! इनके इन्ही कारणों से आदिम समाज में युगों युगों तक शिक्षा की कमीं रही या बराबरी नहीं कर पाया! यह उस युग से अब तक का सबसे बड़ा कारण रहा है!!

सरस्वती विद्या की देवी के रूप में पुज्यनीय हैं! मैं अब तक यह समझ नहीं पाया कि इस विद्या की देवी का चमत्कार हमारे समाज पर क्यों नहीं हुआ! न ही इसने कोई आश्रम खोले, न ही कोई यूनिवर्सिटी खोली और इनके द्वारा किसी बच्चे को पढ़ाने का कोई पौराणिक प्रमाण भी नहीं है! फिर भी चमत्कार करने वाली विद्या की देवी है! सरस्वती ब्रम्हा की मानसपुत्री थी, वह उसकी पत्नी बन गई! विष्णु ने ऋषिपत्नी अहिल्या का शारीरिक शोषण की! चमत्कारी कृष्ण के हजारों महिला मित्र थे! नदी में नहाते हुए महिलाओं के अंतरंग कपड़े छुपाना, चुराना ये सब ग्रंथों में उल्लेख मिलना हर तरह से इनकी संस्कारहीनता की झलक हैं! इनकी इन्ही संस्कारहीनताओं पर पर्दा डालने का तरकीब ही चमत्कार हैं!!

इनके जन्म की कहानियां तो कुदरत और सारे जीव जगत को मानो शर्मशार करने वाले हैं! कोई अपने माता पिता के द्वारा फलों के खीर खाने से पैदा हो गए, कोई सूर्य का पुत्र है, कोई मुख से पैदा हुआ, कोई मछली से पैदा हुआ, कोई हवा का पुत्र है! जीव का इन तरीकों से जन्म लेने की प्रक्रिया अब तक कुदरतीय जीवन में कभी नहीं देखा गया! ये किसी जीव के द्वारा स्वयं के जैसा दूसरा जीव पैदा करने की शारीरिक प्रक्रियाओं, परिश्रमों तथा कुदरत और विज्ञान को धिक्कारने का अमानवीय व अनैतिक प्रमाण है!!

जीवन में चमत्कार का कोई अस्तित्व नहीं हैं। हमारे पुरखों, गुरुओं, समाज सेविकाओं नें मानवता को गढ़ने के लिए, कुदरतीय और सांस्कारिक अनुशासन को स्थापित करने के लिए असीम शोध और मेहनत की। आगे इनकी हर पीढियां अपने इस कार्य को करते करते जीवन कुर्बान कर दिए।

इसी का प्रतिफल है कि आज इन्ही सांस्कारों के माध्यम से 'मानुष' अब 'मनुष्य' बन सका। रिश्तों की नीतियां और संस्कार बन सके। हजारों साल पहले बनें ये संस्कार, रिश्तों के अनुशासन का जीवन में सदैव सरवोपरि स्थान रहेगा। इन रिस्तो और संस्कारों का सम्मान करने वाले चाहे वे ट्राइबल हो या नानट्राइबल सभी में मानवता बनी रहेगी।

ऐसी दूरदर्शी अनुशासनिक सांस्कारिक व्यवस्था किसी दीगर समाज के किसी भी पुरखों ने नहीं की। बल्कि दीगर समाज ने आपके पुरखों की सांस्कारिक व्यवस्था को ही अपनाया। वर्ना इनके सामाजिक इतिहास में ऐसे टुंडा, मुंडा, कुंडा और गोटूल जैसे सांस्कारों का इनके ग्रंथों में कोई दूसरा नाम भी नहीं दिखता! इन्होंने आपकी सांस्कारिक व्यवस्थाओं, प्रक्रियाओं को चुराई! आपके गोटूल का नाम बदल कर अपने वंश के बच्चों की शिक्षा स्थल का नाम गुरुकुल रखा! इन्होंने गोंडियनों के हर व्यवहार, संस्कार को अपनाया पर कभी गोंडियनों का सम्मान नहीं किया!!

इसका आशय यह है कि इन्होंने जिस पत्तल में खाना खाया उसी में छेद कर दिया! सब कुछ हमारे पुरखों का बनाया हुआ, पर इन्होंने कभी हमारे पुरखों का भी सम्मान नहीं किया, बल्कि फूहड़ता से उन्हें गालियां दी! उन्हें असुर, राक्षस, दैत्य, दानव, पशु इत्यादि की संज्ञा दी! उनके साथ अत्याचार किये, उन्हें गुलाम और दास बनाया, उनके जीवन चरित्र को विकृत रूप में सम्पूर्ण मानव समाज के सामने परोसा गया!!

इस बात को समाज समझे। हमारी नासमझी के कारण इस गोंडवाना धरा पर आए उत्पाती प्रजातियों के वंशों नें अब तक जिस पत्तल पर खाया उसी पत्तल पर छेद करने की व्यवस्था को बनाए रखा है, भले ही इसके स्वरूप अलग हों!!

स्वर्ग के देवियों, चमत्कारिक मातृशक्तियों, चमत्कार से भरे स्वर्ग के देवताओं को पूजा अर्चना करना, उनकी आरती उतारना, घंटी बजाना, अगरबत्ती जलाना ये सब गोंडियन कल्चर का हिस्सा नहीं है। ऐसे धार्मिक कल्चर को बंद करे आदिम समाज। ये सब स्वर्गवासी देवियों, देवताओं के द्वारा थोपा गया चमत्कार मानसिक गुलाम बनाए रखने का पाखंड है!!

आज मेरी शास्वत शिक्षा और ज्ञान ही है जो इन हिन्दू ग्रंथों पर सवाल खड़ा कर रहा है। इस बात का अंदेशा आर्यों को भी था कि यदि ब्राम्हणों के अलावा यहां के, इस धरा के मूलवंश पढ़ लिखकर समझदार बन जायेंगे, ज्ञानार्जन कर लेंगे, तो उनके चमत्कार को कोई नहीं मानेगा! इसलिए वे उन्हें शिक्षा से युगों युगों तक दूर रखा और उनकी अज्ञानता की कोरी बुद्धि में चमत्कार जैसे पाखंड को भरा जाता रहा!!

आज भी चमत्कार या अज्ञानता से भरे आस्था के प्रतीक इन देवी देवताओं की विकृत शरीर वाले फोटो आदिमवंशों के घरों में टंगे दिख जाएंगे! जिनके कारण समाज का जीवन युगों युगों से सत्यानाश होता रहा, उन्ही सत्यानाशियों की फोटो अपने घरों में सजाकर रखना उसी चमत्कारिक आस्था की महागुलामी में फंसे रहने का प्रतीक है!!

ऐसी चमत्कारिक आस्था की महागुलामी का त्याग करे आदिम वंश। उनके अपने पेन पुरखों को सम्मान तभी मिलेगा, जब आपके पुरखों से मिली शिक्षा, संस्कार, विधान अनुसार उनकी बनाई हुई रीति, नीति, परंपराओं का निर्वहन करोगे।

समाज में आज परंपराओं के नाम पर पेन पुरखा पूजाओं में कुछ ऐसे ही आर्य पद्धति के आडंबर देखने को मिल रहे हैं! पूजा पद्धति मानो एक तरह से जरूरत से अधिक खाद्य सामग्रियों के माध्यम से आस्था, परंपरा को सजाने और संवारने की प्रतियोगिता हो रही हो!!

कर्म की महत्ता, संस्कारों की सादगी, शास्वत कुदरत व कुदरत के जीवन संसाधनों और पुरखों का सम्मान जैसे गुणों, प्रक्रियाओं का जीवन व्यवहार में पाया जाना हमें इंसान बनाता है। इन्ही गुणों में ज्ञान है, विज्ञान है और यही असल आदिम जीवन संस्कारों, अलंकारों से सुसज्जित जीवन का परिधान है।

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शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

हम क्यों बन रहे हैं "आदिवासी"?

आज 26 नवम्बर है। आज का दिन इस देश और देश के नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण और यादगार है। आज ही के दिन 26 नवम्बर, 1949 को डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा 22 भाग, 396 अनुच्छेद और 12 अनुसूची के साथ 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में तैयार किये गए इस पवित्र भारतीय संविधान को पूर्ण स्वरूप देकर देश को सौंपा गया, स्वीकार किया गया। इसी दिन को देशवासियों द्वारा संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद 26 जनवरी, 1950 को इसे लागू किया गया। देश का संविधान/ लोकतंत्र/ गणतंत्र लागू होने की तिथि को 26 जनवरी अर्थात गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

आज संविधान दिवस के उपलक्ष्य में देश के इस लोकतंत्र/ गणतंत्र पर विश्वास रखने वालों के बीच एक दूसरे को बधाई संदेश भेजने का तांता लगा है। एक वक्त था जब जनजातीय समाज के लोग इसे बहुत कम या केवल शिक्षित लोग ही जानते थे। समाज में अशिक्षा और अजागरुकता का व्याप्त होना इसका सबसे प्रमुख कारण था। आज भी समाज के लोग भारतीय संविधान को कम ही सही, किन्तु पढ़ रहे हैं, जागरूक हो रहे हैं और अपने अधिकारों को जानकर समाज को प्रेरित करने का काम भी कर रहे हैं।

हमने अपने जीवन में समाज के कई ऐसे पढ़े-लिखे, वरिष्ठ शासकीय सेवक/ अधिकारी/ कर्मचारियों को भी देखा, जो संविधान, समाज और सामाजिक साहित्यों के प्रति कोई लगाव नहीं रखते थे। उनके पास संविधान या साहित्यों को पढ़ने और जानने की कोई रुचि नहीं थी, जिसके कारण वे साहित्य खरीदते थे न ही पढ़ते थे! ऐसी विडम्बनाएं भी सामाजिक अजागरुकता के कारण बनें। आज भी कमोबेश वही हालात है, किन्तु कई मोबाईल प्लेटफार्म के माध्यम से जागरूकता बढ़ रही है। यह अच्छा संकेत है

यह जागरूकता की ही निशानी है कि लोग संविधान को एक पवित्र ग्रंथ की संज्ञा दे रहे हैं। आज कई लोगों द्वारा सोसलमीडिया के प्लेटफार्मों में लिखा गया कि भारत का संविधान ही देश का सबसे पवित्र ग्रंथ है। इन शब्दों में समाज के लिए एक सुखद भविष्य और मजबूत राष्ट्र निर्माण के लिए बेहतर और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की स्थापना की उम्मीद है। भारतीय संविधान के अनुच्छेदों में उल्लेखित तथ्यों और तर्कों से प्रेरणा लेने, ग्रहण करने और कार्यरूप में क्रियान्वित कराने के लिए संघर्ष से ही सदियों से शोषित, पीडित भारतीय जनजातीय समाज का उद्धार संभव है। यही संविधान की मंशा है

संविधान दिवस के अवसर पर आज लोगों ने संविधान की पुस्तक पर फूल चढ़ाकर उसकी पूजा भी की। मैं समझता हूँ कि देश का संविधान पूजा करने की वस्तु नहीं है। हमारा संविधान श्रेष्ठ लोकतंत्र की स्थापना के लिए ज्ञान की पूँजी है, बौद्धिक ऊर्जा देने वाली ताकत और उज्जवल व सुखद भविष्य के लिए संघर्ष की प्रेरणा देने वाली सबसे बड़ी शक्ति है। इसके सामने सारे ग्रन्थ निर्मूल हैं।

इसी पवित्र ग्रन्थ में भारतीय आदिमजनों/ इस देश के मूलबीज/ मूलवंशों को "जनजाति" नाम दिया गया है। सदियों से विभिन्न समस्याओं से जूझने वाले इन जनजातीय लोगों के उद्धार के लिए इस पवित्र ग्रंथ में सबसे ज्यादा प्रावधान किए गए हैं। या यूं कहें कि भारतीय संविधान के अधिकतर अनुच्छेद/ प्रावधान इन जनजातियों के युक्तिसंगत विकास के कार्यों को दिशा देने के लिए ही स्थापित किये गए हैं। इन जनजातियों को एक अलग और स्पेशल/ विशेष केटेगरी में रखकर स्पेशल ट्रीटमेंट/ उपचार देने के लिए इनके लिए विशेष कानून का प्रावधान किया गया है। विशेष केटेगरी वाले क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र, विशेष केटेगरी वाले लोग अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ावर्ग के केटेगरी में रखे गए हैं। केटेगरी अनुसार उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं तमाम तरह के विपन्नताओं से उबारने के लिए स्पेशल ट्रीटमेंट के प्रावधान किए हैं- जैसे पांचवी अनुसूची, छठी अनुसूची, आरक्षण इत्यादि।

इन विशिष्ट वर्गों के लिए भारत के संविधान में दिए गए ये सारे प्रावधान केवल "अनुसूचित जाति/ जनजाति/ अन्य पिछड़ावर्ग" के नाम से शब्दशः  केटेगराईज करते हुए उन्हें विशेष पहचान, विशेष अधिकार और विशेष शक्ति प्रदान करती है। किन्तु आदिम समाज उस संविधान, जिसे आज पवित्र ग्रंथ मानता है, उस संविधान के द्वारा दी गई "जनजाति" नाम, नाम के साथ दी गई पहचान, पहचान से मिले अधिकार और शक्ति का स्वयं की पहचान "आदिवासी" लिखकर/ बोलकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने में लगा है!

गोंडवाना महादेश के उपमहाद्वीप/ भारत देश के आदिमवंशों/ आदिम जातियों/ मूलवंशों को महामानव, डॉ.बाबासाहब द्वारा देश के संविधान में उन्हें "जनजाति" नाम से संबोधित करते हुए इस शब्द को अपार शक्ति और अधिकार प्रदान की है। आज देखने और सुनने में आता है कि समाज का हर पढ़ा लिखा व्यक्ति, राजनीतिज्ञ, प्रशासन के लोग और सरकार भी, जो संविधान का पालन करने के लिए बाध्य है, वे भी देश के जनजाति समाज को संबोधित करने के लिए प्रायः "आदिवासी" शब्द का ही उपयोग करते हैं!  जनजाति समाज के लोग भी इस गैरों के दिए हुए "आदिवासी" शब्द के पिछलग्गू बन रहे हैं! आखिर ये "आदिवासी" शब्द को जनजातीय समाज के लोग क्यों पसंद करते हैं? ऐसा क्या है इस नाम में? कहां, कब और किसने समाज को यह नाम दिया? क्या यह नाम गोंडवाना वासियों के लिए सम्मानजनक और अस्मिताबोधक है? रिजर्व/ आरक्षित सीट से चुनाव जीतने वाले पढ़े लिखे और संविधान की सपथ लेने वाले सामाजिक राजनेता भी बेधड़क और बेतरतीब तरीके से जनजातीय लोगों को "आदिवासी/ वनवासी/ गिरिवासी" कहते नहीं थकते! ऐसी स्थिति में पूरे जनजातीय समाज को इस विषय में गंभीरतापूर्वक चिंतन करने की आवश्यकता है।

"आदिवासी" शब्द के विषय में नीचे लिखे तथ्यों पर कृपया चिंतन करें-

1. आदिवासी शब्द प्रथमतः गैर संवैधानिक है। जैसे बिना लायसेंस का ड्राइवर! इसलिए भारत का संविधान इस शब्द के माध्यम से आने वाले समय में हमारे अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएगी।

2. यह अस्मिताबोधक लगने के बजाय भीख में मिला हुआ गाली सूचक संम्बोधन का प्रतीक बना हुआ है। जिससे यह आदिम जनों के मूल ऐतिहासिक धरा, संस्कार और सम्मान को ठेस पहुंचाता है।

संम्बोधन में यह जरूर आसान है, किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। संविधान इस शब्द से संबोधन की इजाजत नहीं देती। इसलिए या तो संविधान से "जनजाति" शब्द के स्थान पर "आदिवासी" शब्द स्थापित कराना होगा, और ऐसा कराना आज की स्थिति/ परिस्थिति मे इतना आसान नहीं है। तभी इस शब्द से समाज को शक्ति, सम्मान और अधिकार मिलेगी। हालांकि संविधान सभा मे शामिल समाज के पुरखों ने, खासकर जायपाल सिंह मुंडा जी ने "आदिवासी" शब्द को संविधान मे स्थापित करने के लिए ज़ोर दिया था, किन्तु सर्वमान्य नहीं हो सका।  ऐसी स्थिति मे भविष्य में इस असंवैधानिक शब्द के माध्यम से समाज को भ्रमित और छल किया जा सकता है। यह भविष्य में इस देश के मूलवंशों/ गोंडवाना के गोंडियनों के संवैधानिक आधारभूत ढांचे का सेहत बिगाड़ सकता है और ऐतिहासिक अस्तित्व का नाश कर सकता है। जिनको यह लगता है कि जनजातीय समाज, गोंडवाना धरा के गोंडियन/ गोंड/ कोइतुर जैसे (अस्मिताबोधक, ऐतिहासिक व सांस्कारिक नाम) को "आदिवासी" नाम/ गैर संवैधानिक संबोधन से उनके अधिकार सुरक्षित रह जाएंगे, तो यह सबसे बड़ी भूल है।

इसके साथ ही गोंड जनजातियों के ऊपर उनके अस्तित्व का संकट छत्तीसगढ़ तथा अन्य सभी राज्यों में और गहरा रहा है। वह यह कि गोंडियनों की पहचान का असल गोत्रनाम न लिखना है, जैसे-ठाकुर, ध्रुव, सिदार, गोंड, राजगोंड आदि। ये उपनाम गोंडियनों के गोत्रनाम नहीं हैं। ये उपनाम/ टाइटल असल गोत्रनाम को इंगित नहीं करते। इतिहास के हमारे पुरखे इन नामों को संभवतः समाज में अपनी व्यक्तिगत पदवी/ योग्यता/उच्चता को दर्शाने के लिए लिखते थे। इससे आने वाले 10-20 सालों में उनकी अगली पीढियां अपने मूल गोत्रनाम से वंचित हो जाएंगे/भूल जाएंगे, यह भी आशंका बनी हुई है। इससे उनके मूल हिस्टोरिकल और कल्चरल सामाजिक गोत्र नाम विलुप हो जाएंगे। वहीं नाम के बाद गोत्र नाम लिखने से अगले जानकार लोगों के लिए लिखने/ बोलने/ बताने वाले का ऐतिहासिक कुल कुनबा, गढ़, बाना, देव् संख्या, संबंध, रिस्ता ट्रांस्पिरेन्ट स्वरूप में तुरंत क्लियर हो जाता है। इतना पारदर्शी और दूरदर्शी पारिवारिक/ सामाजिक रिस्ते की समझ से भरा सांस्कारिक जीवन दर्शन का सरल/ मौखिक/अलिखित पारंपरिक साहित्य किसी दूसरे आधुनिक समाज ने अब तक विकसित नहीं पाया है।

इसलिए पूर्व की लेखनी में भी समाज के लोगों को अपनी मंशा से समय समय पर संवैधानिक और कानून की शाब्दिक वर्जनाओं/ सीमाओं को यथाशक्ति जाहिर करते आ रहा हूँ कि "गोंड हिन्दू नहीं है"। यह गोंडवाना धरा के गोंड, गोंडियन कल्चर और शाब्दिक रूप से आदिमजनों के सामाजिक सभ्यता, सांस्कारिक पहचान केवल "गोंड" लिखने वाले समाज के लिए सुप्रीम कोर्ट का 1971 का निर्णय है। यह सुस्पष्ट निर्णय अपने आप को "आदिवासी" लिखने, बोलने, समझने और मानने वालों पर लागू नहीं होता है। इसका आशय यह है, कि जो गोंडवाना धरा के गोंड अपने आपको "आदिवासी" लिखते या समझते हैं, वे कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कानून की नजरों में हिंदुओं का स्थान धारण कर चुके हैं!!

इसी का परिणाम है कि आज धर्म के आधार पर जनजातियों के संवैधानिक अधिकार छिनने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। जल्द ही अब आदिवासियत की स्वीकार्यता के गंभीर दुष्परिणाम सामने आने वाले है। अभी भी वक्त है संभल जाओ और संविधान में नीहित जनजाति और गोंडियनों के ऐतिहासिक संस्कार भूमि/ जन्मभूमि/ धर्मभूमि/ कर्मभूमि से जुड़े पुरखौती नाम गोंडवाना के "गोंड" जैसे शब्द को सम्मान पूर्वक धारण करें, अन्यथा अस्तित्व मिट जाएगा। यह चेतावनी नहीं बल्कि कानून की नजर से भविष्य दृष्टाओं की सच्चाई है।

हमने यह भी देखा कि शासकीय सेवा में जो जनजाति/ गोंड समाज के लोग सेवा दे रहे है, और अपने आपको आदिवासी संबोधित करते हैं, लिखते हैं, उनमें से 99.9% लोगों की सेवापूस्तिका में अपना धर्म "हिन्दू" लिखा हुआ है! वे कभी अपने सर्विस दस्तावेज में सुधार करने की रुचि ही नहीं दिखाते! जबकि सुधारना/ सुधार करवाना उनके अधिकार क्षेत्र में है!!

इसका भी आशय यह है कि वे पढ़े लिखे लोग स्वयं अपने हाथों से अपने आगे की पीढ़ी को उसकी मूल पहचान, संस्कृति, धर्म-धरा और संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने का काम कर रहे है। ऐसा काम कानून की कुल्हाड़ी से अपने और समाज के बच्चों के भविष्य खुद के हाथों से नष्ट करने जैसा है।

यह सभी को पता है कि ब्रांहण/ सवर्ण सामाज, जनजाति समाज के साथ इतिहास से लेकर अब तक कई तरह के छल बल, कानूनी व शाब्दिक कूट रचना का खेल खेलता आया है, और यह अभी भी जारी है! यदि ऐसा नहीं होता तो पिछले 74 सालों के संवैधानिक निर्देशों की प्रगति से देश के हर पीढ़ित, शोषित व्यक्ति, परिवार, समाज को उनके हक, अधिकार और न्याय से दूर नहीं रहना पड़ता! इन छल बल के तरीकों को समझने के लिए शिक्षित होना पर्याप्त नहीं है। शिक्षित होकर देश का संविधान पढ़िये, धार्मिक ग्रंथ नहीं। शिक्षित होकर आप संविधान पढ़ोगे और सरकार से प्रश्न करोगे, इसलिए सदियों से आपके अच्छी शिक्षा के द्वार बंद रखे गए! आपने शिक्षा ली, तो दान मे अंगूठा काट लिया गया! आज भी इस देश में द्रोणाचार्यों की कमी नहीं हैं! आपकी योग्यता के हाथ इन्ही द्रोणाचार्यों के द्वारा काटा जाना निरंतर जारी है! यदि कुछ बदला है तो केवल इनके छल बल, अन्याय, अत्याचार के तौर तरीके बदले हैं! ऐसी दशा मे संविधान ही आपकी रक्षा कवच है, संविधान ही आपकी शक्ति। संविधान से ही न्याय के द्वार खुलेंगे। यह बात अभी के युवाओं को कम समझ आ रहा है, जिससे वे अपने आप को संवैधानिक नाम से अलग नाम "आदिवासी" लिखने, बोलने में गर्व महसूस कर रहे हैं! यह उचित नहीं है।

शायद कुछ लोग सोचते होंगे कि अपना धर्म "कोइतुर/ गोंडी/ सरना/प्राकृतिक/ ट्रायबल इत्यादि) लिखने से उनका सामुदायिक सम्मान छिन जाएगा। यह धारणा गलत है। कोइतुर/ गोंडी ..... लिखने से आपके मूल ऐतिहासिक धरा/ पुरखों की विरासत भूमि "गोंडवाना" का नाम, गोंडियन संस्कृति आपको गौरव और अस्मिता का बोध कराता है। गोंडवाना नाम की ऐतिहासिक धरा आपकी संस्कृति, धर्म, पुरखों के विरासत का सम्मान से जुड़ा हुआ है। जो गोंडवाना के ऐतिहासिक दर्शन/ साहित्यों को पढ़ा है, अपने मूल संस्वकारों से जुड़ा है, वही इस विरासती नाम के महत्व को समझ पाएंगे। पहले अपना इतिहास जानो, फिर मानो।
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शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

असली ताकतवर कौन ?

माँ की मुस्कान कुदरत की मुस्कान 
प्यारी सी मुस्कुराहट वो दवा है, जो हर परिस्थिति में संभलने और लड़ने की ताकत देती है। खिलखिलाती हंसी किसी भी इंसान के दिल का आईना होती है। कोई कितना खुश है या फिर दुःखी इसका अंदाज़ा उनकी मुस्कान से लगाया जा सकता है।

सुबह भोर का सूरज निकलने से पहले, घर से अपनी खेतों के लिए निकली ये एक आदिवासी महिला की तस्वीर है, जो पूरे दिन खेत में काम करने के बाद थकान को अपनी ऊर्जामयी मुस्कान से मात देती हुई, शाम को अपने घर की ओर वापस लौट रही है।

समाज में महिलाओं को हमेशा शारीरिक रूप से पुरुषों से कम आंका जाता रहा है, लेकिन इस तस्वीर में जो महिला है और उसकी मुस्कुराहट मुझे ऐसा नहीं सोचने के लिए विवश कर रही है और आप सभी से कुछ और ही कहलवाना चाह रही है।

 
माताओं की शक्ति अपार है
मुर्गे की बांग के साथ उठने के बाद से लेकर, सूरज उगने से पहले तक, पूरे परिवार के लिए खाना बनाना खिलाना, धोना मांजना, घर के सारे कामों को निपटा कर खेतों, जंगलों की ओर चल पड़ती हैं। पूरे दिन खेतों में काम करने के बाद वापस घर आकर, फिर से सारे कामों में लग जाती हैं, चाहे गोद में पलने वाला बच्चा हो या बच्ची, 
बिना भेदभाव उसे अपने आँचल मे लपेटकर बिना किसी थकान के, पूरे ऊर्जा के साथ, तब तक, जब तक घर परिवार और कुत्ते बिल्लियों तक को खाना खिलाकर सबको सुला न दें, चैन से बैठ नहीं सकती !! 


जनजातीय समाज के ग्रामीण ग्रामीण जनजीवन में लगभग पिछले 30-40 साल पहले के परिवेश मे महिलाओं, बेटियों, बहनों द्वारा खेत मे बैल चालित हल चलाना/खेती करना वर्जित माना जाता था! आज भी ऐसे बहुत से काम हैं, जो आदिमकाल से पुरुष वर्ग के लिए आरक्षित हैं! शिक्षा ने परिस्थिति और समय के साथ सोच को काफी बदला है और आज की बेटियाँ, माताएँ सदियों पुराने स्थापित उन पुरुषवर्गीय कार्यों मे हाथ बटा रही हैं। खेतों मे बैल चालित हल चलाना हो या अन्य प्रौद्योगिकी के कार्य। महिलाएं, बेटियाँ, बहुएँ इन सब पुरानी वर्जनाओं को तोड़कर परिस्थिति अनुरूप घर, परिवार, समाज और देश को सँवारने और आगे बढ़ाने के काम में ज़िम्मेदारी निभा रही हैं।

खेत में हल चलाती महिलाएं
इन सबके बावजूद एक महिला की शारीरिक ताकत पुरुषों से कम होती है, ऐसा क्यों कहा जाता है? वास्तव में शारीरिक ताकत के मायने क्या होते हैं? सिर्फ महिलाओं के साथ जोर जबदस्ती करने को ही पुरुषों की ताकत कहा जाता है? भार के हिसाब से किसी समान को ढोना, जिसमें पुरूष ज़्यादा समर्थ होते हैं, यही शारीरिक ताकत की असली परिभाषा है? जहां महिलाएं ज़्यादातर कमज़ोर पड़ जाती हैं। जब एक स्त्री रजस्वला के दर्द को सहन करते हुए भी पूरे परिवार का हंसते मुस्कुराते हुए बखूबी ध्यान रख सकती है, यहाँ तक कि, एक नए जीव को इस खूबसूरत दुनिया को दिखाने का भार अपने ऊपर ले सकती है, नौ महीने एक जान को अपने गर्भ में स्थान दे सकती है और उसके अस्तित्व के लिए पीड़ा सह सकती है तो उसे कैसे किसी पुरूष की ताकत से कम आँका जाता है ? इन सब को देखते और महसूस करते हुए हम कह सकते है कि महिला एक मर्द से कहीं ज्यादा शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व और मजबूत होती है। 

मेरी ये पोस्ट स्त्री-पुरूष विरोधी पोस्ट नहीं है, मेरा कहना है कि अब समय काफी बदल रहा है, कुछ हद तक बदल भी चुका है, लेकिन अभी भी गाँव घर में महिलाओं के कामों का बंटवारा किया जाता है! घर की साफ सफाई, किचन, बच्चे, बड़े-बूढ़ों की देखभाल समेत और भी कई छोटी बड़ी जिम्मेदारियाँ महिलाओं के हिस्से में बिना मांगे दे दी जाती है!

स्त्री भगवान द्वारा बनाई गयी अलग से कोई मशीन नहीं हैं। वो भी हम सबकी तरह इंसान हैं। महिलाओं को भी थकान होती है। उनकी भी इच्छा होती है कि कभी कभी, घर के सदस्यों द्वारा बनाया गया खाना खाने को मिले। उनका भी दिल करता है कि जिस तरह वे परिवार के बाकी सदस्यों का ख़्याल रखती हैं, कोई उनका भी ख़्याल रखें। घर द्वार, चूल्हा चौका, पानी बर्तन, लकड़ी फटा, बाल बच्चों, घर के बूढ़ों की सेवा, सत्कार और नौकरी इत्यादि के अलावा खुले आसमान में आज़ाद परिंदों की तरह खुली हवा में भी सांस लें और बाकी दुनिया को जिये।

अगर एक पुरूष अपनी पत्नी के पैर दबा दे, किचन में पत्नी के साथ हाथ बंटाये, चाय पानी पिला दे तो पुरुषत्व खत्म नहीं हो जाता, बल्कि स्त्री के दिल में उनके लिए और भी सम्मान बढ़ जाता है। बेटा-बेटी में फर्क न करें, बेटा हो या बेटी। घर बारी, पढ़ाई लिखाई सब कामों को बराबर सिखाने की कोशिश करनी चाहिए। हाँ, कहीं कहीं पर शायद ऐसा कर पाना आसान न हो, लेकिन अच्छी कोशिश भी एक कामयाबी के बराबर का हक माना जाता है। शहरों में ये बदलाव आराम से देखने को मिल जाता है, लेकिन गाँव घर में अभी ज़रूरत है सोच बदलने की। पुरूष, घर की महिलाओं के साथ उनके कामों में हाथ बंटाने की कोशिश कर सकते हैं। जितना हो सके ज़िम्मेदारी-कर्तव्य मिलबांट कर निभाएं। समय की मांग के हिसाब से अच्छे बदलाव करते हुए समाज को शिक्षित,आदर्श और बेहतर बनाने के लिए अपने घर से पहली शुरुआत करें। भावनात्मक रूप से साथ देकर स्त्री की ताकत बनें, साथ देने से चारों कंधों की मजबूती और भी बढ़ेगी।

एंजेला एनिमा तिर्की
26 नवंबर 2020

बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

आदिम वंशों मे “दियारी तिहार” की महत्ता

कुदरत ही हमारा 'साहित्य', 'संस्कार', और 'व्यवहार' है। ऐसा हमारे पुरखे बतलाते आए हैं। हमारे मानव बिरादरी के तीज तिहार/ त्योहार के बारे में बतलाने के लिए इस कुदरती 'साहित्य', 'संस्कार' और 'व्यवहार' के अलावा हमारे पास व्यक्तिगत रूप से कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है वह हमारे ऐतिहासिक बिरादरी/ पुरखों/ समाज के द्वारा इस कुदरत को पढ़कर ग्रहण किए हुए सांस्कारिक संरचना से व्यक्तित्व निर्माण तथा विकास के साथ बेलेंसिंग/ सम-समृद्धि का नैसर्गिक खजाना और उस खजाने से जीवन में संतोष प्राप्त करते हुए कुदरत के साथ समानान्तर जीवन जीने की खुशनुमा अनुभूति मात्र है।

समाज के बुजुर्ग आज भी कहते हैं कि उनके सारे जीवन संस्कारों का स्त्रोत कुदरत ही है। कुदरत के समस्त घटक- मिट्टी, पत्थर, जंगल, घास, लता, फूल, फल, नदी, पहाड़, पशु पक्षी और उनकी बोली भाषा, हवा, पानी, ऊर्जा, बादल, वर्षा, प्रकाश, छांव, रंग ...... इन सभी के गुणधर्म से हमारा कुदरतीय साहित्य संरचना का निर्माण और जीवन संस्कारबद्ध है। 

किसानों की हड्डीतोड़ मेहनत से उनके खेतों में लहलहाती फसल 
दियारी/ दिवारी/ दीपावली, यह गोंडवाना धरा का अतिप्राचीन त्योहार है। संभवतः जब मानव समाज इस धरा पर खेती करना प्रारंभ किया तब से यह मनाया जा रहा है। बारिस की खेती/ फसल पकने पर यह त्योहार देश के कोने कोने में उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह फसल पकने और कुदरत के खुशनुमा शरद ऋतु के आगमन के साथ ही आता है। खेतों एवं बाड़ियों मे बारिस की विभिन्न फसलें बोने/ लगाए जाने के बाद कम समय मे पकने वाली फसलें शरद ऋतु आने तक कटने लगती है या कट जाती हैं। इन्हीं सबसे पहले पके हुए अनाज से देश के किसान प्रथमतः कुदरत और अपने पुरखों को धन्यवाद स्वरूप अर्पण करने का त्योहार 'नया खानी, नवा खानी' मनाता है। 'नया खानी' का आशय कुदरत की उस सहानुभूति से है, जिसने मिट्टी मे मिलाए गए अनाज/ बीज के अंकुरण से लेकर पकने तक के लिए आवश्यक बारिस, ऊर्जा, उर्वरा प्रदान करते हुए कीट पतंग इत्यादि से कुदरत के द्वारा उसकी सुरक्षा की गई और अब इसे ग्रहण करने हेतु किसान, कुदरत और अपने पुरखों से अनुमति लिया है। किसान अपने मेहनत की कमाई के इस नए अनाज को 'नया खानी' के रूप मे कुदरत और अपने पुरखों को अर्पण करने के पश्चात ही अपने परिवार को इसे खाने की अनुमति देता है।

जब तक एक एक दाना आपकी थाली तक न पहुँच जाए
तब तक यह मेहनत सतत चलता रहता है  
दियारी मे बैलों/ गायों ... के साथ परिवार के लोग भी खाना खाते हैं 
कार्तिक महीने में शरद ऋतु के आते तक प्रायः धान की फसलें पूर्णतः पक कर तैयार हो जाती हैं। जब पूरा फसल पक कर तैयार हो जाता है तो किसानों मे जीवन समृद्धि की उम्मीदों के साथ खुशहाली जीवंत हो उठता है। इसी खुशी मे खेतों मे पकी नई फसल/ अनाज को घरों मे लाकर सुरक्षित संधारण करने के लिए अपने खलिहान, घरद्वार, कोठी-ढोली की साफ सफाई की जाती है। घर मे अनाज प्रवेश करने पर आनंदित, हर्षोल्लास से सम्मानपूर्वक चरण धोकर, दीप धूप जलाकर उसका स्वागत सत्कार किया जाता है। इस प्राप्त फसल के लिए कुदरत, पेन, पुरखे, खेती करने व जीविका के लिए सहयोगी, उपयोगी पशु- गाय, बैल, भेड़, बकरी .... को रंग, फूलहार पहनाकर, सजा धजाकर सभी का सम्मान, स्वागत, सेवा सत्कार किया जाता है। उनको धन्यवाद, आभार स्वरूप नए अनाज और नया साग का भोजन/ भोग कराना, मिष्ठान अर्पित कराने का प्रयोजन ही 'दियारी/ दीवारी/ दिवाली' है।

इसलिए हर बार हम कहते हैं कि दिवाली, यह विशुद्ध रूप से प्रकृति, प्रकृति पूजकों और प्रकृति के साथ समानान्तर जीवन जीने वालों का त्योहार है। प्रकृति के खुशनुमा व्यवहारिक परिवर्तन और लोक समृद्धि के स्वागत का त्यौहार है। प्रकृति के पूजकों के द्वारा जांगरतोड़ मेहनत से अपने खेतों में बोए गए फसल के पकने पर उल्लास प्रकट करने का त्यौहार है। इस फसल के लिए फसल प्रदाता कुदरत/ प्रकृति और फसल को उगाने में योगदान देने वाले सहयोगी जीवन साधन तथा पुरखों की वंदना, आराधना और उनका आभार प्रकट करने का त्यौहार है।

इस देश और दुनिया के मूलवंश इसी कुदरत और अपने पुरखों की कुदरतीय साहित्य की मूल सामाजिक, सांस्कारिक, परंपरा, प्रथा अनुसार अपने धार्मिक संस्कार और त्योहारों का कट्टरता से निर्वाह कर रहे हैं। इस देश में मनाए जाने वाले तीज त्योहारों की कुदरतीय मानव सांस्कारिक खूबसूरती के प्रकाश में ऐतिहासिक हत्यारों को देवी देवता बनाकर खड़ा किया जा रहा है ! यह एक गंभीर ऐतिहासिक साजिस के तहत किया जा रहा है ! खर्चीली चमक धमक भरी सांस्कृतिक आधुनिकता के आड़ में, हमारे ऐतिहासिक पुरखों के कत्ल करके हमें ही उन कातिलों का खुशी खुशी स्वागत करने पैगाम दिया जा रहा है ! इसमे वैदिक लेप (आवरण) चढ़ाया जाकर परग्रही पैरोकारों को अपने आदिम पुरखों की सामाजिक संस्कृति के रूप मे स्वीकार नही किया जा सकता।

देश में भादो महीने मे मनाया जाने वाला त्योहार, गणेश चतुर्थी के गणेश का जन्मोत्सव का स्वरूप वर्ष 1905 में पूणे (महाराष्ट्र) से शुरू हुआ। इस गणेश जन्मोत्सव के स्वरूप के जन्मदाता बालगंगाधर तिलक माने जाते हैं। ग्रन्थों का कहना है कि बुद्धि के दाता गणेश अपनी माता के मैल से अवतरित हुए ! क्या उस समय के लोग जीवन में कभी कभार ही नहाते थे, जो कि उनके शरीर मे नवजात बच्चे के वजन के बराबर मैल जम जाता था ? क्या उस समय लोग कहीं से, कुछ भी चीज से इंसान पैदा कर देते थे ? इंसानी शरीर में हाथी के सिर, चूहे की सवारी वाले गणेश के जन्म और जीवन चरित्र बड़ा मनोरंजक तथा हास्यास्पद है ! इस बुद्धि के दाता के जन्म और जीवन की कथा चमत्कारों से भरा पड़ा है। उनकी आरती/ स्तुति- "अंधन को आँख देत कोढ़िन को काया, बांझन को पुत्र देत निर्धन को माया", के शब्द कुदरत, इंसान, ज्ञान, विज्ञान सभी के अस्तित्व और आवश्यकता को नकारने व धिक्कारने मे लगे हुए है ! 

भादो के खत्म होते ही कुँवार पक्ष मे बंगाल के वेश्यालयों की मिट्टी से गढ़ी गई दुर्गा की स्थापना, आदिम महानायक महिषासुर के हत्या के प्रतीक माने जाते हैं ! इस दुर्गा नाम के आपके पुरखा हत्यारन, 10 हाथ वाले पुतले को गलियों मे बैठाकर 9 दिन तक मनाए जाने वाले जश्न को देखा होगा ! इसी क्रम मे फिर 10वें दिन राम के द्वारा लंकाकोट के प्रजारक्षक, रक्ष संस्कृति के जनक, महाराजा महात्मा रावण की हत्या, बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न भी देखा होगा ! क्या 8-10 हाथ पाँव वाले स्त्री, पुरुष और पशुओं का स्वर्ग से इस धरती पर अवतरण, केवल धरती के इन्सानों/ योद्धाओं की जालसाजी और बेरहमी से हत्या करने के लिए ही हुए ?

इन स्वर्गवासियों ने धरती के खुशनुमा वातावरण के हर पक्ष मे अवतरित होकर इतिहास के और किन किन देशज महापुरुषों/ योद्धाओं की हत्या की, क्यों और किस साजिस के तहत की गई, इनके कारण आज भी आपके सामाजिक, सांस्कृतिक इतिहास तथा लोक भाषा, लोकवाणी और लोकोक्तियों के गर्भ मे दफन हैं। आपको इतिहास के गर्भ में दफन उन कारणों को खोजना, जानना और आपके जनमानस को अवगत कराना आवश्यक है। जिससे आप अथवा आपका भविष्य ऐसे विकृत इतिहास को बदलकर अपने पुरखों का मूल इतिहास रच सकें। 

इस धरा के मूल आदिम वंशों की दिवाली, महात्मा रावण के हत्यारा राम के अयोध्या वापस आने पर दीपक जलाकर उनके स्वागत से संबंध नहीं रखता है। यह हत्या करने वाले हत्यारों के स्वागत का उत्सव नहीं है। यह स्वर्गवासियों के किसी भी चमत्कारिक शक्ति के धरती पर अवतरित वंशों के स्वागत का त्यौहार नहीं है। रामायण, गीता, कृष्ण के गोवर्धन पर्वत से सम्बंधित भी नहीं है। यह आपके अग्रजों ने भी सत्यापित किया है। ऐसे 8-10 हाथ पाँव वाले स्त्री, पुरुष या विकृत पशुदेह के रूप मे मैल से पैदा होने, वेश्यालयों की मिट्टी से पैदा होने वाले या खीर खाने से पैदा होने वाले जीव, चमत्कारी लोग, जो हमारी जन, धन, धरा, संस्कृति और धर्म के लिए किसी न किसी तरह विनाशकारी और घातक रहे हैं, ऐसी प्रथा, परम्परा, त्यौहार से इस धरा के मूलवंशों का कोई वास्ता नहीं हैं।

इसलिए मेरा स्पष्ट मानना है कि इस त्योहार को किसी अयोध्या के राम के पौरुष का विजयकर्म, पुन्य की अभिलाषा, मिथकता और ग्रंथों की दृष्टि से देखना व मनाना बंद करना होगा। कुदरत ने जीवों को श्रमजीवी बनाया और उनके जीवनरक्षक प्रणाली विकसित की। इसलिए इस सृष्टि पर जीवन कुदरत/ प्रकृति से मिला। भोजन प्रकृति से मिला, मिल रहा है और मिलता रहेगा। जीवन के समस्त संसाधन प्रकृति की ही देन है। इंसानों के ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी, संस्कृति और उनके समस्त साधन प्रकृति की ही देन हैं। सारे जीव और उनका जीवन प्रकृति की ही उपज हैं, तो मनुष्य को भ्रम क्यों हो रहा है कि सृष्टि को बनाने वाला कोई ब्रम्हा नाम का जीव है, जो ब्रम्ह्लोक में रहता है ! यदि वह जीव किसी ब्रम्ह्लोक का निवासी है तो उसका और उसके वंशों का इस धरती और हमारे कर्मों, तीज त्योहारों से क्या नाता ? जीवों के जीवन का रिश्ता नाता इस पुखराल (प्रकृति), धरती और उसके समस्त संसाधनों से है। हम प्रकृति के विवेकी जीवफल हैं, प्रकृतिभोगी हैं। इसलिए हमारा तीज त्यौहार और सारे जीवन कर्म प्रकृति से संबंध रखते हैं। किसी विष्णु के अंश, अयोध्या के राम या स्वर्ग के भगवानों से इस त्योहार का कोई संबंध नहीं है।

आदिम वंशों का हृदय प्रकृति की तरह विशाल है। इसलिए समाज मे सिद्दत से प्रकृति प्रेम कूट कूट कर भरा है। आदिम जनों का जीवन प्रकृति की तरह सरलता और वास्तविकता से भरा है। इसलिए त्यौहरों की वास्तविकता को जानिए। किसी भी त्यौहार में अपने आनंद और उल्लास के लिए प्रकृति और उसके समस्त उपयोगी जीवीय घटकों को किसी भी प्रकार से क्षति पहुंचाने से बचें। सृष्टि के जीवन संसाधनों की सुरक्षा करना हमारा सबसे बड़ा मानव नैतिक धर्म, जवाबदारी और दायित्व है। इस देश में किसी चमत्कारी दुनिया के लोग, आप और आपके पुरखों को चाहे जितना भी अनपढ़, नंगे, भूखे, अंधविश्वासी, अशिक्षितता फूहड़ता का ताज पहना दे, किन्तु दुनिया के वैज्ञानिक और उनका विज्ञान अंततः आदिम वंशों को ही इस धरा के सबसे योग्य रक्षा प्रणाली के जनक मानते हैं। हमें खुशी है, इसी तरह से जब आप अपने जीवन की अनंत कठिनाईयों, अपने ऐतिहासिक पूर्वजों की बेरहमी से हत्या, असुरक्षा, अन्याय, अत्याचार की धधकती ज्वाला को हृदय मे स्थान देते हुए इस धरती के सभी इंसान और जीवों की दुनिया की सुरक्षा की चिंता करते हैं।

आईए पुनः इस दिवाली त्योहार मे कुछ इस तरह के नीतियों/ तरीकों को अपनाकर हम सभी कुदरत, जीव, जन, धन और जीवन की सुरक्षा के लिए अपना योगदान दें :-

1) जीवों के जीवन और स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे खतरनाक बारूद के फटाके का धुंवा होता है। फटाका खरीदना और जलाना दोनों कुदरत और जीवन के लिए हानिकारक हैं। देश मे दिवाली के अवसर पर बेतरतीब तरीके से फोड़े जाने वाले फटाकों से वायुमंडल के प्राणवायु में जहरीली गैस का प्रभाव बढ़  जाता है। हवा में जहरीली गैस की मात्रा बढ़ने से घातक और जानलेवा बीमारियाँ पैदा होते हैं। इसकी खरीदी से धन की हानि तो होती ही है साथ ही सबसे बड़ा नुकसान हमारे प्राण वायु, जल, मिट्टी और पर्यावरण को होता है। बड़े फटाकों के फूटने से उठने वाला ध्वनि तरंग सुनने की क्षमता को खराब करता है या ख़त्म ही कर देता है। मधुमक्खी, पशु पक्षियों को भी आहत कर देता है। इससे समस्त पर्यावरण और जन को अनेक तरह से नुकसान के अलावा एक भी लाभ नहीं हैं। इसलिए फटाका खरीदना और जलाना बंद करें।

2) बच्चों में दीपावली त्यौहार के अवसर पर फटाका जलाने के लिए काफी उत्साह होता है। उनके उत्साह को बनाए रखने के लिए उन्हे खिलौनों से सुरक्षित फोड़े जा सकने वाले टिकिया/ फटाके दें। बच्चों को फटाका खरीदने और फोड़ने से होने वाले नुकसान के बारे से समझाएं और जागरूक करें। बच्चे हमारे भविष्य हैं। भविष्य के लिए ही प्रकृति का संरक्षण आवश्यक है। उन्हें किस्से कहानियों के रूप मे अपने समाज, पुरखों की संस्कृति के अनुसार उत्सवों की सारगर्भिता, सार्वभौमिकता के सम्बन्ध में बालमन से जरूर संवाद करें और उनकी कोरी बुद्धि मे संस्कारों का संवर्धन करें। इस छोटे से प्रयास से हम अपने समाज, अपने पूर्वजों की संस्कृति को अपने भविष्य के लिए भी सहेज पाएंगे।

3) प्रकृति हमारा धरोहर है। प्रकृति हमारे जीवन का संरक्षक है। प्रकृति हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। प्रकृति हमारे भोजन, जीवन और सुरक्षा के संसाधनों का स्त्रोत है। इसलिए इसे नुकसान पहुंचाना स्वयं के जीवन को क्षति पहुंचाना है।

4) व्यापार करना अच्छी बात है, किन्तु जिस व्यापार से प्रकृति, जीव, जीवन और कुदरत को तीव्र नुकसान पहुँचने का खतरा हो, उसका उत्पादन और उपयोग करना बांध करें। कुदरत और जन जीवन को नुकसान पहुंचाने वाले सामग्रियों का व्यवसाय कर धन कमाना सबसे खतरनाक व सबसे बड़ा पाप है।

5) धन के लालच में डूबे हुए लोग त्योहारों में अधिक से अधिक धन कमाने के लिए त्योहारी खाद्य पदार्थों, मिठाई इत्यादि चीजों मे हानिकारक रसायन, रंग, नकली दूध, नकली खोवा मिलाकर आकर्षक व स्वादिष्ट बनाते हैं और बेचते हैं। ऐसे खाद्य सामाग्री जहरीले हो सकते हैं। होटलों के आकर्षक दिखने वाले ऐसे त्योहारी खाद्यपदार्थों को खरीदने से बचें। जहां तक हो सके अपने अपने घरों मे बना हुआ मिष्ठान ग्रहण करें। आदिम जनों में ऐसे विधियों से धन कमाने की लालच नहीं है। वह परीश्रम से धन कमाने पर विश्वास रखता है। कठोर परीश्रम ही सफलता का माध्यम है। अपनी खून पसीने की गाढ़ी कमाई जन, जीवन और प्रकृति को क्षति पहुंचाने वाले चीजों की खरीदी पर खर्च न करें।

6) धन से धन भी कमाया जाता है। यदि आपके पास धन है, उससे कुछ खरीदना चाहते हैं तो दिवारी के मौके पर अपने बच्चे और परिवार के लिए LIC जीवन बीमा खरीदें। यह उनके भविष्य का सबसे बड़ा तोहफा और उनके जीवन के संरक्षण का साधन होगा। यदि आपके पास कुछ ज्यादा खर्च करने की क्षमता है तो समाज के किसी ऐसे अनाथ बच्चे के सुरक्षा, संरक्षण व अध्ययन के लिए उस राशि का बांड पत्र या LIC जीवन बीमा खरीद दें, जिससे कम से कम समाज के एक बच्चे की जीवन की नेक जिम्मेदारी का सदा सुखद आभाष होते रहेगा।

7) इस प्रकृति के कोई भी दिन और रात शुभ या अशुभ नहीं होते। प्रतिदिन इंसान और जीव जन्म लेते हैं और मरते हैं। पुष्य नक्षत्र, धन तेरस के शुभ अवसर के नाम से धन खर्च करने के लिए अधिक उत्साही न बनें। हमारे द्वारा खर्च किए जाने वाला धन जिसके पास जाता है, वही धन तेरस है। जिसके पास जाता है वह धनवान हो जाता है और हम खरीदने वाले कंगाल। यह हमारे अविवेकी और अनियंत्रित सोच का प्रतिफल है।

8) प्रतिवर्ष जब धरती पुत्रों/ किसानों के हड्डी तोड़ मेहनत, परीश्रम का फल खेत के लहलहाते फसल के रूप मे प्राप्त होते ही व्यापारियों के धन का प्रतिनिधित्व करने वाले  पुशयनक्षत्र, धन तेरस और शुभ मुहूर्त की बांछें खिल उठती है ! जितना आप अपने खेत मे पकी फसलों के लिए खुशी नहीं मनाते, उससे कई गुना ज्यादा पुशयनक्षत्र, धन तेरस के शुभ मुहूर्त पर व्यापारी वर्ग खुशी मनाता है। वह आपको इस मुहूर्त मे अधिक से अधिक धन खर्च करके अपना सामान खरीदने के लिए प्रेरित करता है। इन व्यापारियों के लोक लुभावन झांसे मे न आकर अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई सोच समझ कर अतिआवश्यक वस्तुओं पर ही खर्च करें।  

9) "धनतेरस" के शुभ मुहूर्त के चक्कर में न पड़ें। शुभ मुहूर्त का प्रचार प्रसार करना व्यापारी और धनवान लोगों का हमसे धन लूटने का तरीका है। जैसे ही हम धरती पूजकों, कृषकों के खेत का अनाज पकता है, वैसे ही पुष्य नक्षत्र, धनतेरस जैसे शुभ मुहूर्तों का शैलाब फूट पड़ता है ! ऐसे आकर्षक, चमत्कारी, शुभ मुहूर्त के भँवर (चक्र) कि ओर खींचने वाले शैलाब की विनाशकारी धारा से अपने मन और धन को नियंत्रण मे रखें। ये शुभ मुहूर्त आपके कमाई को लूटने की सोची समझी साजिस है। मनुष्य के लिए हर दिन और हर रात शुभ मुहूर्त से भरे होते हैं। कोई भी दिन और रात अशुभ नहीं होता।

10) अधिकतर देखने में आता है कि लोग दीपावली त्यौहारों में तास के पत्ते खेलते हैं। खेल में एक पक्ष हारता है और एक जीतता है। जीतने वाला उत्साही और हारने वाला कुपित होता है। यह परिस्थितियां व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक दुराव और आर्थिक नुकसानदेह कारण भी पैदा करता है। इसलिए ऐसे नुकसानदेह स्वरुप के खेलों से बचें। मनोरंजन के लिए अन्य स्वास्थ्यवर्धक खेल खेलें, किन्तु पैसे की हार जीत के लिए नहीं। यह कानूनन अपराध है।

11) जिस प्रकृति ने जीव, जीवन और जीवन जीने के संस्कारपूर्ण माध्यम तीज, त्यौहार तथा ज्ञान, विज्ञान व पराविज्ञान दिया, वह प्रकृतिसंगत मानव सामाजिक संस्कृति किसी भी प्रकार की नैतिक प्रगति के लिए बाधक नहीं हैं। यदि कोई बाधा उत्पन करता है तो वह है अपने सामाज व सांस्कारिक दृष्टिकोण के प्रति इच्छाशक्ति का अभाव, स्वविवेक। अपने पूर्वज, सामाज और संस्कृति के प्रति निष्ठा को मजबूत रखते हुए जीवन को संवारने का प्रयास करें। यही प्रकृति और प्रगति का नियम है।

12) जब तक मानव जीवन में संस्कारों का नियम, बंधन और महत्व है, तब तक ही हम मानवहैं। असांस्कारिकता पशुता की निशानी है। इसलिए अपने सामाजिक जीवन संस्कारों का आदर और सामान करते हुए प्रगति के पथ पर आगे बढिए।

13) इन सबसे ऊपर अपने माता पिता, दादा दादी, सास ससुर और परिवार की सेवा, सम्मान, सुरक्षा और बच्चों की शिक्षा आवश्यक है। अच्छी शिक्षा इस देश में बहुत महंगी है। शिक्षा से ही समाज की समृद्धि के रास्ते खुल सकते हैं। बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने से ही वे अपने जीवन मे अपेक्षित समृद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अतः दीपावली के कथित धन समृद्धि की देवी लक्ष्मी  की अराधना का संदेश देने के बजाय बच्चों को बेहतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरत करते हुए तन, मन, धन से सहयोग करें।
  
14) नशा, शरीर, बुद्धि, विवेक, ज्ञान और धन का नाश करता है। इसलिए नशा से दूर रहें और परिवार के साथ दिवारी तिहार का आनंद उठाएं।

इन्ही भावनाओं के साथ ही आप सभी को दियारी तिहार की मंगलकामनाएँ।



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