इसे देखकर समाज के मुखियाओं, सभी भूमकाओं और सगा समाज के अंतर्मन में सवाल उठना चाहिए कि क्या ऐसे क्लिष्ट, इतनी ज्यादा मात्रा में उपयोग की जाने वाली सामग्री, सामग्री को विधिपूर्ण और व्यवस्थित अर्पण करने में लगा अधिक समय और खर्च उचित है? साथ ही यह भी कि क्या इस तरह के आधुनिक पूजा अनुष्ठान की विधि प्रक्रियाएं और क्रियाकलाप उनके पुरखों के द्वारा की जाने वाली मूल पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठानों से मेल खाते हैं?
कुदरत और पेन पुरखे हमें सबकुछ दिए। आज कुदरत को और हमारे पुरखों को जो जरूरत वो हम बहुत कुछ दे सकते हैं। हमने अपने पुरखों कितना सम्मान दिया, क्या दिया, कितना दिया, कितना रुलाया, क्या खिलाया, क्या पिलाया, यह अलग बात है। किंतु अब वे पेन अवस्था में हैं। यह पेन अवस्था कुदरतीय अदृश्य महाऊर्जा/ महाशक्ति की अवस्था है। ऐसी अपार ऊर्जा से हम अपने जीवन की अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सुरक्षा पाने के लिए सम्मान और सादगीपूर्ण तरीके से की जाने वाली उनकी अर्जी बिनती की प्रक्रिया को ही अनुष्ठान या पेन पुरखा अनुष्ठान कह सकते हैं।
मुझे भी आप लोगों की तरह सामाजिक धर्म संस्कृति के अस्तित्व और सुरक्षा पर चिंता होती है। पर एक बात अवश्य जान लें कि पुरखों की बनाई हुई संस्कृति आपका, समाज का अपना निजी है। यहाँ संस्कृति का आपका निजी होना आपके ऊपर निर्भर है कि उसे कैसे स्तेमाल करोगे। यदि आपने उसकी मूल अवधारणा को बिगाड़ दिया है, या उसके स्वरूप में काफी हद तक परिवर्तन कर दिया है, तो उसकी मौलिकता खत्म हो जाती है। जब उसकी मौलिकता खत्म हो जाती है, तो वह संक्रमण की अवस्था में चली जाकर नष्ट हो जाती है या किसी अन्य विधि के स्वरूप में सम्मिलित हो जाती है- जैसे हिन्दू विधि .... आदि।
यदि हम एक दो दशक पहले के अपने पेन पुरखाओं के सामान्य पूजा अनुष्ठानों को याद करें तो पाते हैं कि हमारे दादा दादी, पंडा पुजारी, भूमका, गायता कभी इतनी भारी भरकम सामग्री का उपयोग नहीं करते थे!
वे कम से कम सामग्री, संसाधन या सीमित संसाधनों से बिना किसी दिखावा किये, शालीन और शांत मंत्रोच्चार करके अनुष्ठान पूरा कर लेते थे। ऐसे सीमित संसाधनों के अनुष्ठान भी स्थाई शक्ति, सुरक्षा देने वाले, फलदाई व कुदरतीय अनुष्ठान के रूप में माने जाते थे। यही इसका मूल है।
आज समाज में इतने क्लिष्ट, अधिक खर्च, अधिक सामग्री और अधिक समय लगाकर सजावट से भरपूर दिखने वाले अनुष्ठान की जरूरत क्यों है?
क्या सामाजिक जनों को ऐसा नाहीं लगता कि वे इस तरह के अनुष्ठान करके ब्राम्हणों के अनुष्ठान विधि से अधिक कठिन बना रहे हैं? जब समाज ब्राम्हणी अनुष्ठानों का विरोधबकर रहा है, तब इस तरह के दिखावा करने की आवश्यकता क्यों??
यदि यही गोंडियन पद्धति के अनुष्ठान हैं तो जो हमारे एक पीढ़ी पहले के लोग जो सादगी से पेन पुरखा अनुष्ठान करते थे, क्या वे गलत अनुष्ठान करते थे? क्या वे गोंडियन अनुष्ठान नहीं थे??
आज आस्था, धर्म, संस्कृति की इतनी बेइज्जती करने की आवश्यकता नहीं हैं! जितनी शालीनता, कम सामग्रियों के साथ, कम समय में पूरा हो सके वही अनुष्ठान कुदरतीय और श्रेठ है। गोंडियन पेन पुरखा सेवा अनुष्ठानों को ब्राह्मणी अनुष्ठानों जैसा अपनाकर दिखावा करने का जामा न पहनाया जाय। हमारे पेन पुरखा अनुष्ठान दिखावा के लिए नहीं होते!!
इस कुदरत की हवा, पानी, मिट्टी, आग, आकाश की अनंत ऊर्जा में विलीन आपके पुरखों को याद करने के लिए किसी अनुष्ठान की नहीं, बल्कि आपके कुदरतीय आत्मिक भाव और सहज व विनम्र वाणी से उस ऊर्जा को अपनी ओर आकर्षित करने की आवश्यकता है। साधारण से साधारण परिस्थिति में कम से कम अनुष्ठान सामग्री के साथ उन्हें नम्र भाव से सम्मानपूर्वक अपनी अर्जी बिनती पहुंचाना होता है। इन्हें उसी सरल विधि में पूरा किये जाएं। विधि को क्लिष्ट या कठिन न बनाया जाए, ऐसा मेरा मानना है।
इसे देखकर मुझे यही लग रहा है कि हम अपने पुरखों की बनाई हुई धार्मिक अनुष्ठानों की मौलिकता खत्म करने में लगे हुए हैं! अनुष्ठानों को मनोरंजक और आकर्षक बनाने में समय का दुरुपयोग और सामग्रियों का व्ययभार बढ़ा रहे हैं! साथ ही भविष्य को एक ऐसे अनचाहे धार्मिक अंधकार की ओर हांक रहे हैं, जो पहले से गोंडियनों की धार्मिक राह में उनकी धार्मिक मौलिकता को लीलने के लिए आतुर बैठी है!!
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