शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

श्री अजय मंडावी (काष्ठकला में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त)

श्री अजय मंडावी


श्री अजय मंडावी, पिता स्व. श्री आर.पी. मंडावी, उम्र 48 वर्ष, निवासी उदय नगर कांकेर (छत्तीसगढ़) विगत 30 वर्षों से उड़न आर्ट (काष्ठकला) का कार्य कर रहे हैं |  वर्तमान में जिला जेल कांकेर में कैदियों को काष्ठ कला का प्रशिक्षण प्रदान कर रहे हैं |  गोंड समाज के सपूत श्री मंडावी की काष्ठकला विश्व में ख्याति प्राप्त हैं |  काष्ठ की बारीक से बारीक स्वच्छ एवं सुंदर कलाकारी उनकी विशेषग्यता और योग्यता को दर्शाता है, जो उनके जीवंत एल्बम में दिखाई दे रहा है |  श्री मंडावी द्वारा काष्ठकला के माध्यम से बाइबिल का लेखन किया गया है |  काष्ठ के बारीक अक्षरों के माध्यम से दुनिया के अनेक राष्ट्रों के राष्ट्रगीत, राष्ट्र गान आदि का अंकन श्री मंडावी द्वारा किया जा चुका है |   श्री मंडावी के हुनर का इस एल्बम के माध्यम से अवलोकन कर सकते हैं |  आर्थिक अभाव के बावजूद इन्होने अपनी कलाकारी को विश्व के शिखर तक पहुंचा दिया है | किन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि श्री मंडावी आदिवासी उनका आदिवासी होना राज्य, और देश में ख्याति के लिए अभिशाप है !  इसलिए उनकी कलाकृति का परचम, ख्याति से बहुत कम लोग अवगत हैं | यदि ऐसे कलाकार की कला कृति विश्व स्तर का होने के बावजूद भी छत्तीसगढ़ राज्य और देश में उनकी पहचान नहीं हो पा रही है |  यह अत्यंत खेदजनक है |  

इनकी कलाकृति पर राज्य सरकार ने वर्ष 2006 में स्टेट अवार्ड प्रदान किया है |  महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय सम्मान "पद्मश्री" से सम्मानित किया गया है |  श्री मंडावी की विशेषग्यता "लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड 2007 में दर्ज है |  भाई अजय मंडावी को काष्ठकला में अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञता के लिए हमारी और समाज की ओर से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं |

इसके अलावा श्री मंडावी अनेक प्रशिक्षकीय और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं, जिन्हें आगे अपडेट किया जाएगा.



























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मिशन 2018 दिल्ली चलो



 आदिवासियों के लिए बने वनाधिकार कानून और ग्राम सभा की ताकत को लगभग ख़त्म किया मोदी सरकार ने |
-नेशनल जयस नई दिल्ली 

जल जंगल और ज़मीन पर दावा करेने वाले जंगल क्षेत्रो में रहने वाले देश के आदिवासियों के उलटे दिन शुरू | राज्यसभा में पास हुआ कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल जो की वनाधिकार अधिनियम के बिलकुल विपरीत | 
-नेशनल जयस

आज देश के बड़े भू-भाग पर जंगल क्षेत्र मौजूद हैं, जिनमें आदिवासियों की जनसंख्या का सबसे ज्यादा हिस्सा निवास करता है | आदिवासी अपने जीवनयापन के लिए खेती और वनसंपदा पर पूरी तरह निर्भर रहता है | उसे वनाधिकार कानून 2006 के रूप में संवैधानिक अधिकार मिला हुआ था, लेकिन दुर्भाग्य देश के 15 करोड़ आदिवासियों के 47 गुलाम आदिवासी सांसदों, जो अपने ही सामाज के अस्तित्व की रक्षा करने के लिए कानून बनाने के पहल करने के बजाय आदिवासियों के अस्तित्व को ख़त्म करने वाले कानून बनवा रहे हैं |

आज राज्यसभा में मोदी सरकार ने एक ऐसा कानून बनवा लिया जो आदिवासियों को अपने जल, जंगल और ज़मीन के लिए मिले अधिकारों को लगभग ख़त्म कर देगा और जो आदिवासी समुदाय विरोध करने का प्रयास करेंगे उन्हें नक्सलवाद के नाम पर मिटा दिया जाएगा | यही आने वाले समय में आदिवासीओ के भविष्य का कड़वा सच है |

आज देश में अलग अलग छोटे बड़े 700 से अधिक आदिवासी समुदाय हैं | आदिवासियों की सूचि में वृद्धि का क्रम जारी है | जिनकी कुल जनसंख्या लगभग 15 करोड़ है, जो अपने अपने क्षेत्रों से चुनकर 47 आदिवासी सांसदों को आदिवासी समाज की आवाज उठाकर आदिवासियों के अस्तित्व की रक्षा के लिए भेजे हैं | लेकिन दुर्भाग्य देश के आदिवासियों का है कि रक्षक ही भक्षक बन गए हैं तथा आदिवासियों के ही अस्तित्व को मिटाने वाले कानून बनवा रहे हैं | देश के कोई भी आदिवासी संगठन दबाव बनाने या इसके खिलाफ न्याय संगत कुछ करने के लिए खड़े वाला नहीं दिख रहा है !

आज गुरूवार को 28 जुलाई 2016 को कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल पास हुआ, जो विधेयक वन अधिकार अधिनियम "फारेस्ट राईट एक्ट" (FRA) के एकदम उलटा है | 

वन अधिकार अधिनियम जिसे अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) कानून भी कहा जाता है | अनुसूचित जनजातियों और वनों में रहने वाले दूसरे वनवासियो को वनभूमि पर खेती करने, छोटे मोटे वन उत्पादों का इस्तेमाल करने और जंगल में मवेशियों को चराने का हक़ देता था | इसमें ग्राम सभाओं की बड़ी भूमिका है कि किस वन सम्पदा पर किसका अधिकार होगा, यह ग्रामसभा तय करेगी | यहाँ तक कि अगर जंगल की ज़मीन का स्तेमाल किसी परियोजना के लिए किया जाता है तो इसके लिए पहले ग्रामसभा की सहमति लेनी पड़ती थी | इस कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल (कैम्पा) में ग्राम सभाओं की भूमिका का कोई जिक्र नहीं किया है और न ही कहीं इस बात का उल्लेख है कि कैम्पा की 42000 करोड़ का उपयोग आदिवासियों और परंपरागत वननिवासियो के कल्याण के लिए किया जाएगा | 

विधेयक कहता है की कैम्पा में जमा धन इस्तेमाल के लिए वन विभागों के जरिये किया जाएगा, लेकिन जंगल पर जिन आदिवासियों का परंपरागत अधिकार है, उनके प्रतिनिधित्व और उत्तरदायित्व का बारे विधेयक मौन है | चर्चा तो यह भी है कि पर्यावरण मंत्रालय एफ.आर.ए. के कुछ प्रावधानों को ख़त्म करने के बारे में भी सोच रहा है | मकसद ग्राम सभाओं की भूमिका कम करना या ख़त्म करना है | इसके लिए उसने जनजातीय मंत्रालय पर दबाव भी बनाया है | जबकि सुप्रीम कोर्ट उड़ीसा के नियामगिरी पर्वत मामले में स्पस्ट रूप से कह चुकी है कि ग्राम सभा की सहमति के बिना कोई भी परियोजना नहीं लगाईं जा सकती है | यहाँ वेदांता के साथ मिलकर सरकार बाक्ससाइट खनन का प्रोजेक्ट चला रही थी, जिससे डोंगरिया कोंध के आदिवासी नाराज थे | लेकिन अब सरकार ने आदिवासी सांसदों को विश्वास में लेकर कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल पास करा लिया है, जिससे देश में आदिवासियों के अस्तित्व को ख़त्म करने की बीजेपी सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है |

कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल वही बिल है, जिसमे कहा गया है कि इस धन का 90 प्रतिशत हिस्सा राज्यो को दिया जाएगा ताकि वे वनरोपण कार्यक्रम चला सके | कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन यानी क्षतिपूर्ति वानिकी अस्सी के दशक की अवधारणा है |

जब भी आदिवासियों का विनाश करना होता है, तो विकास के नाम पर जंगल की ज़मीन पर विकास की कोई परियोजना शुरू की जाती है, जिसके लिए पड़े पैमाने पर जंगलो को काटा जता है | आदिवासियों को जंगलो से उजाड़ा जाता है | आदिवासियों का जमीन छीनकर विस्थापित कर दिया जाता है | इसे सरकारी भाषा में गैर वानिकी उद्देश्य के लिए वन भूमि का डायवर्जन कहा जता है | ऐसे मामलो में 1980 का वन संरक्षण अधिनियम कहता है, कि वन भूमि के जितने हिस्से को किसी और काम में लगाया जाता है, उसके बराबर हिस्से पर पेड़ लगाए जाना चाहिए | पेड़ लगाए जाने का काम हर कोई नहीं कर सकता है | इसलिए यह सरकार के हिस्से में आता है | जंगल रातों रात नहीं लगाए जा सकते है न ही उनसे तुरंत लाभ हासिल किया जा सकता है | इसलिए कानून कहता है कि डायवर्टेड ज़मीन की नेट प्रेजेंट वैल्यू निकाल कर वन भूमि को डायवर्ट करने वाली कंपनी से उसे वसूला जाएगा | यह जंगल काटने का मुआवजा है |

पिछले 10 सालों में इस मुआवजे के नाम पर 42000 करोड़ रूपये जमा हो चुके हैं | यह राशि हर साल 6 हजार करोड़ रूपये के हिसाब से बढ़ रही है और कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन मैनेजमेंट प्लानिग अथॉरिटी (कैम्पा) में जमा होती जा रही है, जिस पर पहला हक़ देश के आदिवासियों का होना चाहिए | यह पैसा आदिवासियों के विकास पर उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक स्तथि को बेहतर बनाने में इस्तेमाल होनी चाहिए, लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि ऐसा कहीं हो रहा है न ही होने वाला है | आदिवासियों के जंगल काटकर हासिल हुए पैसों को हड़पने के लिए बीजेपी सरकार ने बिल पास करा लिया है और देश के 47 आदिवासी सांसद और 574 आदिवासी विधायक सब अपनी अपनी राजनितिक पार्टियों की गुलामी करने में ही रह गए | लेकिन नेशनल जयस मिशन 2018 के माध्यम से आदिवासियों के साथ गद्दारी करने वाले सभी जनप्रतिनिधियों को उखाड़ कर फेक देगा |

वर्ष 2004 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कैम्पा का गठन किया गया था | इससे पहले विभिन्न राज्य की सरकारें विकास परियोजनाओं के मुआवजे के नाम पर हजारो करोड़ रूपये जमा कर चुकी थी, लेकिन उनके पास इस धन को इस्तेमाल करने की कोई व्यवस्था नहीं थी | सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह धन कैम्पा को हस्तांतरित किया गया, लेकिन दिक्कत यह थी कि इस अकूत सम्पति का इस्तेमाल कैसे करे ? इसके लिए मोदी सरकार ने आदिवासी विनाशकारी कानून बनाया है, जिसका आज तक ना तो किसी आदिवासी सांसद ने विरोध किया न ही किसी आदिवासी विधायक ने | देश के किसी आदिवासी संगठन ने भी विरोध नहीं किया, लेकिन नेशनल जयस देश की सरकार से आदिवासियों के जंगल काटने पर इकट्ठे हुए इस 42000 करोड़ रूपये का स्तेमाल सिर्फ आदिवासियों के विकास पर खर्च करने की मांग करेगा और अगर सरकार नहीं मानेगी तो देश के 15 करोड़ आदिवासीओ में से 1 करोड़ आदिवासी, मिशन 2018 के लिए दिल्ली की ओर कूच करेंगे और संसद का घेराव कर आदिवासियों के अधिकार उन्हें दिलाने व उनके संरक्षण के लिए कड़े कानून बनाने के लिए बाध्य करेगा |

नेशनल जयस देश के प्रत्येक आदिवासी समुदाय से अपील करता है, आप सभी मिशन 2018 से जुड़ें और आदिवासियों के आन, बान, शान उनके जल, जंगल, जमीन की रक्षा, संविधान की रक्षा और बिरसा मुंडा के सपने आबुआ दिशुम आबुआ राज को साकार करने के लिए "मिशन 2018 दिल्ली चलो" से जुड़ें |

डॉ हिरा अलावा जयस 
नेशनल जयस संरक्ष नई दिल्ली 
जय आदिवासी युवा शक्ति 

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

आस्था, सुख शान्ति और विकास का यह कैसा बयार !!

क्या यही है आजादी के 70 सालों से बह रही सरकार की विकास रूपी "आस्था" का गंगा ! यह लाल किले से नहीं गाँव के धरातल से दिखेगा | इसके लिए जो भी सरकार के जिम्मेदार हाथ, पाँव और आँखें हैं, वे केवल कोष लुटेरे हैं |

आधुनिक मनुष्य आस्था के मायने बदल रहा है आस्था अब उत्सव में परिवर्तित हो रहा है आस्था की सांसें अब धीरे धीरे उखड़ने लगी है | आस्था, उत्सव रुपी भीड़ में तब्दील हो रही है | इस उत्सव रुपी भीड़ की तलाश को क्या नाम दें आस्था” ?

आदिवासियों में आस्था की अलग ही परिभाषा रही है | वे कभी आस्था को उत्सव का नाम नहीं देते | आस्था उनके जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है | नए जीवन की उत्पत्ति, उत्पत्तिकर्ता से जुड़ा हुआ है | उत्पत्तिकर्ता उनकी आस्था का स्वरुप है | समस्त जीव-निर्जीव, ठोस-द्रव्य सृष्टि के जीवानदायिनी पंचतत्वों (मिट्टी, जल, वायु, अग्नी, आकाश) के संयोग से ही उत्पन्न हुए हैं | सभी जीव-निर्जीव, ठोस-द्रव्य का अस्तित्व इन्ही पंचतत्वों पर निर्भर है प्राणवायु का संचार, शारीरिक स्वास्थ्य, भोजन, ज्ञान, जीवन दर्शन सृष्टि पर ही आश्रित हैं | उनका सृष्टि दर्शन ही उनकी आस्था है उनके जीवन की समस्त आवश्यकताएं और पूर्ति के साधन इस जगत में प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हैं | प्रकृति ही जीवन है | जीवन है तो आस्था है | जीवन के बगैर आस्था का कोई स्वरुप नहीं है | हम जीवन को प्रकृति में सहेजकर "आस्था" को स्वर्गवासी देवी देवताओं के ऊपर नहीं टांग सकते |  यह प्रकृति और मानवता के खिलाफ है | सभी प्रकार के ज्ञान और प्रतिभा प्राप्त करने के साधन और विनाशकारी साधन भी सृष्टि के कोष में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं | फिर आस्था जैसी चीज सृष्टि के कोष से अलग होकर "स्वर्ग" में कैसे स्थापित हो सकती है ?

आदिवासियों के लिए सृष्टि के सभी स्वरुप (पञ्च तत्व) आस्था के प्रतीक प्रथम पूज्य हैं | इनकी पूजा के लिए उन्हें किसी विशिष्ठ स्थान, वस्तु या स्वरूप गढ़ने की आवश्यकता नहीं होती | वे मानते हैं की सृष्टि का स्वरुप अनंत एवं चिरायु है | उसे किसी भी स्वरुप में गढ़ा नहीं जा सकता | वह मानता है की प्रकृति की जीवनदायिनी ईश्वरीय गुण उसके समीप और सारे संसार में व्याप्त हैं | उन्हें किसी विशेष स्थान या स्वरुप में ढूंढना व्यर्थ है | इसलिए आदिवासियों का पूजा स्थान कोई विशेष तरह का स्थान नहीं होता | घर के किसी छोटे से कमरे में या घर के बाहर पृथक छोटी सी झोपड़ीनुमा मकान उनका पूजा स्थान होता है | पूजा स्थान छुई (सफ़ेद मिट्टी) से पुता हुआ होता है या छुई से पुता हुआ छोटा सा चबूतरा | पूजा स्थान पर किसी विशेष मानव स्वरुप की मूर्ती नहीं रखी जाती | जो स्वयं खाद्य रूप में ग्रहण करता है वही वस्तुएं, जीवनदायिनी और जन्म देने वाले गुणियों (पुरखों/पूर्वजों) को अर्पित करता है | इसके अलावा उनके जीवन के कार्यों में विशेष स्थान रखने वाले औजार, पशु, अस्त्र शस्त्र की पूजा विशेष मौसम एवं कार्य आधारित त्योहारों में की जाती है |

आदिवासियों को जंगली जानवरों, सरीसर्पों का कदाचित डर नहीं होता | केवल सृष्टि के प्रकोप का डर ज्यादा होता है | प्राकृतिक प्रकोप उनके लिए प्रकृति स्वरूपा बड़ादेव, ईश्वर का प्रकोप होता है | इसलिए ग्राम बसाने के पूर्व ग्राम की दिशा, वनों की दिशा और दशा, वायु की बहने की दिशा, कृषि भूमि, चारागाह, भूजल का पारीक्षण कर ग्राम बसाया जाता था | ग्राम के अन्दर और बाहर प्राकृतिक रूप से विकसित किसी पेड़, चटान, पत्थर, नदी, तालाब आदि का चिन्हांकन कर ग्राम रक्षक, प्रकृति संरक्षक देवी देवताओं की स्थापना की जाती थी | आज भी ग्राम समूह के द्वारा किसी विशेष मानवीय स्वरुप की किन्ही देवी देवताओं की पूजा नहीं की जाती है | प्रति वर्ष ग्राम रक्षक देवी देवताओं के रूप में उन्ही की पूजा कर जीवन में आने वाले प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए प्रार्थना की जाती है | अब आधुनिक इंसान से सबसे ज्यादा ख़तरा है | आधुनिक मानव समाज में अब यह प्राकृतिक आस्था रूपी भावना ख़त्म होकर "धन लक्ष्मी" पर आस्था केन्द्रित हो गई है |

आदिवासी अपने किसी भी विधान से सृष्टि को क्षति पहुंचाना नहीं चाहता, क्योंकि वह सृष्टि को ईश्वर मानता है | वह जानता है कि सृष्टि के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है | जीवन के लिए सृष्टि से जो साधन हमें मिले हैं, वो सभी के लिए समान है | वह लकड़ी के आवश्यक औजारों की पूर्ती के लिए किसी पेड़ को काटने के पहले उसकी पूजा करता है और कामना करता है कि धरती माता इसकी पूर्ती करे और उसका कार्य सफल हो | किसी कार्य के लिए मिट्टी खोदने के पूर्व उस मिट्टी की पूजा की जाती है कि उसके कार्य से उसकी मनोकामना पूर्ण हो | किसी कार्य के लिए पत्थर को उठाने से पहले उसकी पूजा की जाती है, कि पत्थर के द्वारा किये जाने वाले निर्माण कार्य में उसे सफलता मिले | किसी कार्य के लिए पौधे को उखाड़ने से पहले उसकी पूजा की जाती है, कि उसके औषधीय गुण रोगी को शीघ्र लाभ दिलाए | प्रकृति के किसी भी उपयोगी सामग्री को जन उपयोग हेतु ले जाने से पहले प्रकृति, धरती, वन, जल, थल, नभ, वायु, अग्नि आदि जिससे सम्बंधित हो, की सुमरन कर अवगत कराता है कि ...... के लिए आवश्यकता है | वस्तु को ले जाने बाबत प्रकृति से अनुमति लेता है, उसकी शीघ्र पूर्ती के लिए प्रकृति शक्तियों सी प्रार्थना करता है और उपयोग के लिए ले जाता है | आदिम जनों द्वारा अपनाई जानी वाली यह प्रक्रिया प्रकृति के प्रति समर्पित आस्था का प्रतीक है | जिस प्रकृति सी उन्हें भोजन, जीने के साधन, जीवन और सुरक्षा मिलता है, वही उनके लिए ईश्वर है |

आधुनिक मानव समुदाय ज्ञान, प्रतिभा के साथ साथ आस्था और ईश्वर के अनेक विकल्प विकसित कर लिए हैं | देश में आस्था प्रकट करने की होड़ मची है | मंदिर, मश्जिद, चर्च, गुरुद्वारे में क्या आस्था प्रकट करने की जगह कम पड़ गई है, जो कि अब गली, कूचे, चौराहों में भी छः छः सात सात दिनों तक बाजे गाजे ढोल ढमाके के साथ फूट फूट कर आस्थावानों की आस्था प्रकट होती है ? यह किसी की आस्था पर सवाल नहीं है, किन्तु आस्था प्रकट करने वालों के तौर तरीकों पर एक सवाल है | हर परिवार के घर में मंदिर के स्वरुप में ईश्वर की पूजा का स्थान है | घर के बाहर शहर के विभिन्न गलियों, चौराहों में विभिन्न आस्था के मंदिर हैं | देश में पहले से ही धर्म आधारित आस्था प्रकट करने के लिए अनेक स्थाई भव्य मंदिर, मश्जिद, चर्च और गुरुद्वारे बन चुके हैं | अभी भी अनेक पहाड़ों, जंगलों को उजाड़कर मंदिर बनवाने का क्रम जारी है | दूसरी ओर जितनी मानवीय धर्म और आस्था का प्रचार प्रसार बढ़ रहा है, उतनी ही अमानवीयता बढ़ रही है | मानव पर मानव की क्रूरता बढ़ रही है | मानव का मानव पर अत्याचार बढ़ रहा है | मानव का मानव पर अनेक जुल्म और लूटमार बढ़ रहा है धर्म ज्ञानीसाधू संत, महात्माप्रवचन वाचकों का पूरा कुनबा, इन सबको रोकने के लिए दिशा निर्धारित कर मार्गदर्शन करने का कार्य कर रहे हैं |

धर्म ज्ञानी, साधू महात्मा, प्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ को त्यागकर ईश्वर के प्रति आस्था की सलाह देते हैं | क्या इन्होने अपने जीवन में इन सब का त्याग किया है ? क्या इन्हें ईश्वर के प्रति आस्था है ? इस देश के धर्म ज्ञानी, साधू महात्मा, प्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ से कितने परे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है | मानवीय धर्म और आस्था का पाठ पढ़ाने वाले ही लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ एवं अमानवीयता के दलदल में आकंठ डूबे हुए हैं | आस्था के नाम पर दान दक्षिणा लेकर भव्य मंदिर, मठ इनके पनाहगाह हैं | बड़े बड़े दानवीर, जो कभी किसी मरते हुए को चुल्लू भर पानी तक नहीं पिला सकने वाले लोग इन मंदिरों में सोना चांदी रुपया पैसा चढ़कर अपने स्वार्थ का आशीर्वाद खरीदते हैं | इस तरह अब आस्था का मंदिर धन देने और लेने की प्रतियोगिता में परिवर्तित हो गई है धर्म ज्ञानीसाधू संत, महात्माप्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ पूर्ती हेतु प्रतियोगी बन गए हैं | शिक्षित, विभिन्न पदों से सुसज्जित इन महाप्रभुओं को, दुनिया को धर्म का ज्ञान बांटने से पहले जंगलों में रहने वाले आदिवासियों से सीख लेनी चाहिए |

हर मनुष्य बुद्धिमान हैं | प्रकृति से किसी को ज्यादा या किसी को कम बुद्धि नहीं मिलती | प्रकृति किसी के साथ भेदभाव नहीं करती, किन्तु विकसित बुद्धि व ज्ञान में भेदभाव का बीज पनपने लगता है | ज्ञानवान हमेशा प्रयोगवादी होता है | अपने ज्ञान का प्रयोग स्वार्थपूरित आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए करने लगता है | जितना अधिक धन, संपत्ति और साधन उसके पास होता है, उससे ज्यादा प्राप्त करने की आकांक्षाएं प्रबल होती है | आकांक्षाएं इतनी प्रबल हो जाती है कि जीवन में कभी पूरी हो ही नहीं सकती | धनवान लोगों की यही मनोदशा होती हैं | धनवानों की इसी मनोदशा के कारण धनवान और अधिक धनवान तथा गरीब और अति गरीब होते जा रहे हैं | अनपढ़ों से अधिक पढ़े लिखों और उच्च शिक्षितों, धनवानों, चोला धारियों का किसी न किसी तरह समूचे देश की प्रकृति और प्रकृति के साथ साथ अभावग्रस्त, न्यूनतम जीवन निर्वाही साधनों के साथ संतोषपूर्ण जीवन जीने वाले जनमानस को लूटने वाला गिरोह खड़ा हो गया है !

पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय | सपूत और कपूत दोनों के लिए धन का संचय करना व्यर्थ है | धन प्राप्ति एवं सुखी जीवन की अपेक्षा हर किसी को होती है, किन्तु विचार, साधन और श्रम भिन्न होते हैं | जिस विचार, साधन और श्रम द्वारा प्रतिदिन की आवश्यकताओं की पूर्ती से आत्मशान्ति का अनुभव मिले वहीं सुख और शान्ति की बयार बहती है | यह बयार चमचमाते मेट्रो शहरों, शहरों में नहीं, जंगल के अन्दर सदियों से बसे अभावग्रस्त गांवों में बहती है | देश के ऐसे अभावग्रस्त लाखो गांव और वहां के आस्थावान लोग, सरकार की ओर से बहाई जाने वाली विकास रूपी "आस्था" का 70 सालों से बाट जोह रहे हैं |



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सोमवार, 22 अगस्त 2016

आदिवासियों के लिए बधाई के दो मीठे बोल भी नहीं !!

"विश्व आदिवासी दिवस" को सुनने उपस्थित आदिवासी जन सैलाब
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व में शान्ति स्थापना के साथ साथ विश्व के देशों में पारस्परिक मैत्रीपूर्ण समन्वय बनाना, एक दूसरे के अधिकार एवं स्वतंत्रता को सम्मान के साथ बढ़ावा देना, विश्व से गरीबी उन्मूलन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के विकास के उद्देश्य से 24 अक्टूबर 1945 में "संयुक्त राष्ट्र संघ" का गठन किया गया, जिसमे अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, भारत सहित वर्तमान में 193 देश सदस्य हैं अपने गठन के 50 वर्ष बाद "संयुक्त राष्ट्र संघ" ने यह महसूस किया है कि 21वीं सदी मे भी विश्व के विभिन्न देशों में निवासरत जनजातीय (आदिवासी) समाज अपनी उपेक्षा, गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा का अभाव, बेरोजगारी एवं बंधुआ मजदूर जैसे समस्याओं से ग्रसित हैं | जनजातीय समाज के उक्त समस्याओं के निराकरण हेतु विश्व के ध्यानाकर्षण के लिए वर्ष 1994 में "संयुक्त राष्ट्र संघ" के महासभा द्वारा प्रतिवर्ष 9 अगस्त को "INTERNATIONAL DAY OF THE WORLD'S INDIGENOUS PEOP "विश्व आदिवासी दिवस" मनाने का फैसला लिया गया तत्पश्चात पूरे विश्व यथा अमेरिकी महाद्वीप, अफ्रीकी महाद्वीप तथा एशिया महाद्वीप के आदिवासी बाहुल्य देशों में 9 अगस्त को "विश्व आदिवासी दिवस"  बड़े जोर शोर से मनाया जाता है, जिसमे भारत भी प्रमुखता से शामिल मिल है |

संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nation Organisation) UNO द्वारा 21वीं में तेजी से विकास करते विकासवादी मानव और दूसरी ओर इस विकासवादी परिवेश में भी विश्व के आदिवासियों के गिरते जीवन स्तर पर चिंता व्यक्त किया गया दुनिया के आदिवासियों की संस्कृतिमान्यताएं और पारंपरिक जीवन मूल्य, प्रकृति (Nature) से संलग्न हैं और लगभग एक जैसी हैं | यह आधुनिक विकासवाद के लिए एक जटिल समस्या है अतः उनकी संस्कृतिक मान्यताएं और पारंपरिक जीवन मूल्यों को संरक्षित करते हुए, उनके विकास हेतु 46 अनुच्छेद का क़ानून बनाया गया यह क़ानून विश्व के सभी देशों में जहां आदिवासी हैं, समान रूप से लागू करने हेतु बंधनकारी हैं इनमें भारत भी प्रमुखता से शामिल है दुनिया के आदिवासियों के संरक्षण हेतु UNO द्वारा बनाए गए 46 अनुच्छेद के क़ानून की विस्तृत जानकारी पृथक से "संयुक्त राष्ट्र (United Nation) महासभा द्वारा विश्व के आदिवासियों के हित संरक्षण हेतु प्रदत्त अधिकार" शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है, जिसका अध्ययन किया जा सकता है |

दुनिया में पहली बार UNO द्वारा विश्व स्तर पर आदिवासियों की संस्कृतिमान्यताएं और पारंपरिक जीवन मूल्यों का संरक्षण करते हुएविशेष क़ानून बनाकर उनके हक़ और अधिकारों की रक्षा की गई हैताकि दुनिया के आदिवासी भी अपने देश और विश्व की विकास की मुख्य धारा में शामिल हो सकें |

इस क़ानून के माध्यम से आदिवासी देशों का प्रशासन अपने अपने देश के आदिवासियों के विकास के रास्ते तय करने व जन जन में जागृति का संदेश देने हेतु UNO ने 9 अगस्त 1994 से "विश्व आदिवासी दिवस" मनाने की घोषणा की UNO की घोषणा अनुसार वर्ष 1994 से पूरे विश्व के आदिवासी 9 अगस्त के दिन "विश्व आदिवासी दिवस" को उत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं | वर्ष 1945 से भारत UNO का सदस्य है, किन्तु विश्व आदिवासी दिवस मनाने या जन जाग्रति हेतु प्रचार प्रसार करने के लिए 22 वर्षों तक मौन रहा है भारत को 22 वर्षों तक इस क़ानून की जानकारी नहीं थीयह कहना गलत होगा देश के किस सचिवालय में विलुप्त हो गया, कहाँ गया संयुक्त राष्ट्र संघ का कानून जरूर जमीन खा गई या आसमान के देवता निगल गए !  भारत सरकार ने इस वैश्विक क़ानून को अब तक लागू नहीं की और न ही विश्व आदिवासी दिवस मनाने के लिए दिलचस्पी दिखाई !  फिर भी इस देश के क्रांतिकारी आदिवासी नेताओं के पहल, लगन और मेहनत के कारण भारत के आदिवासी राज्यों, क्षेत्रों में "विश्व आदिवासी दिवस" मनाना लगभग इसी दशक से शुरू हुआ | इसी क्रम में देश के आदिवासियों द्वारा मंगलवार 9 अगस्त, 2016 को भी UNO द्वारा घोषित विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया अब धीरे धीरे यह जागृति देश के प्रत्येक राज्यजिलातहसील,  ब्लाक और ग्राम स्तर पर भी पहुँच रहा है |

इस देश के प्रमुखों ने यह परंपरा कायम की है कि देश के राष्ट्रीय पर्व, किसी भी धर्म के तीज त्यौहार, उत्सव के लिए जन समुदाय को बधाई और शुभकामनाएं व्यक्त किया जाता है | इसके तहत सभी राष्ट्रीय पर्व, वर्ग विशेष धर्मों के तीज त्यौहार, उत्सव मनाए जाने पर जन समुदाय में सुख, शान्ति और समृद्धि की कामनाओं सहित देश के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, राज्यों के राज्यपाल और मुख्य मंत्रियों द्वारा बधाई और शुभकामनाएं हमेशा प्रेषित की जाती रही है |

देश में विभिन्न धर्मानुयायी हैंकिन्तु  देश के आदिवासियों का कोई धर्म नहीं है | हिन्दू धर्म को जबरदस्ती आदिवासियों के ऊपर लादा गया है | केवल हिन्दुओं की जनसख्या बढाने के लिए, देवत्व के धार्मिक नियंत्रण में रखकर जन्म जन्मान्तर तक अपनी सेवा और भरण पोषण कराने के लिए, जूते चप्पलों की तरह सुरक्षा का इस्तेमाल और आघात करने के लिए |  समय समय पर किसी न किसी तरह की कुटिलता से उन्हें अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के लिए मजबूर कर दिया जाता है | यह ब्राम्हण हिन्दुओं की चतुराई और कुटिल दक्षता का प्रमाण है | दूसरी ओर आदिवासी और हिन्दुओं के सांस्कृतिक मान्यताओं और जीवन दर्शन में जमीन आसमान का फर्क है | आदिवासी न वह हिन्दू है न मुसलमान, न सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध है | वह केवल इस देश का जमीनदार, प्रकृति का मालक, प्रकृति का पूजक, प्रकृति का पालक आदिवासी है, जो केवल प्रकृति और पूर्वज दर्शन के सांस्कृतिक मान्यताओं में "पेन" और "वेन" को मानता है |

अब तक यह देखने में आया है कि आदिवासियों के तीज त्यौहारउत्सवों को छोड़कर सभी धर्मानुयायियों के तीज त्यौहारउत्सव के आते ही देश और राज्यों के प्रमुखों की ओर से शुभकामनाएं प्रेषित करने की होड़ सी लग जाती है | बधाई और शुभकामनाएं प्रेषित करने की सचित्र भाव भंगीमाएं छापने के लिए इस देश की प्रिंट मीडिया में उत्साह की मानो लहर दौड़ जाती है | दूर संचार, टी.व्ही.चेनल एंकर सांस भर भर कर राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और राज्यों के राज्यपाल व मुख्यमंत्रियों के द्वारा भेजे गए बधाई और शुभकामना संदेश का बढ़ चढ़कर प्रसारण करते हैं प्रसारण सुनकरअखबार पढ़कर लोगों को ख़ुशी होती है, सुकून मिलता है कि उनके पर्व पर देश के राष्ट्रपतिप्रधान मंत्री और राज्य के राज्यपाल और मुख्य मंत्री ने शुभकामनाएं व्यक्त किए झूठा ही सहीकिन्तु प्रमुखों के इस सम्मान के दो बोल से, समाज के लोगों का भी सम्मान पा जाते हैं | किन्तु आदिवासियों के कार्यक्रमों, उत्सवोंवीरगाथाओं, स्वतंत्रता सेनानियों की पुण्यतिथियों की जानकारी या खबर छापने या प्रसारण के लिए देश के सारे अखबार के पन्नों और इलेक्ट्रानिक मीडिया को सांप सूंघ जाता है ! इसके क्या मायने हैं ?

इस धरती के मूल जनों के साथ जातिवादनश्लवादवर्णवाद, धर्मवाद का भेदभाव आज का ही नहीं ऐतिहासिक है | देश के सारे तंत्र के लिए स्वर्गवासी नस्लों के जमात ही योग्यता के वाहक बने हुए हैं | उनकी योग्यता की पहचान आदिवासियों को भी है | किन्तु समझ फर्क यह है कि आदिवासी प्रकृति की तरह सरल और सच्चे हैं समुद्र की तरह अथाह धैर्यवान, गंभीर और अटल हैं जिन्हें अयोग्यता के आईने में देखा जाता है | वे पेड़ों की तरह सीधे हैं इसलिए उन्हें काटने वाले, लूटने वाले लुटेरों की प्रतियोगी निगाहें हमेशा उन्ही पर बनी होती हैं |

विश्व के आदिवासी हजारों सालों से तरह तरह के प्राकृतिक और प्राकृतिक से भी अधिक भयावह प्रत्यायोजित विध्वंश झेलने का आदि हो चुके हैं आने वाले प्राकृतिक और प्रत्यायोजित विध्वंश के स्वर सुनने और मुकाबला करने की उनकी पुरखौती आदत बन चुकी है इसी प्रत्यायोजित विध्वंश की निःशब्द कटु गूँज देश के आदिवासियों के कान ही नहीं दिल और दिमाग तक पहुँच चुका है ऐसी विशेषज्ञता केवल भारत भूमि के ही नहीं दुनिया के आदिवासियों में है |

अनंत काल से समृद्ध गोंडवाना की पावन सांस्कारिक मध्य  भूमि इंडिया (भारत) आदिवासियों की रही है और अब भी है उन्होंने गोंडवाना की इस पुनेमी धरती पर कुकुरमुत्ती की तरह उगाए जाने वाले धार्मिक विकासवादी परिवेश के लोगों को पनाह दिया आदिवासियों के इस पावन पुनेम धरा को धार्मिक विकासवाद की स्वार्थी दीमकों ने कुतर कुतर कर धर्मों का भिमोरा (पुत्ती) खड़ा किए इन धार्मिक विकासवादी भिमोरों और विज्ञान के नींव निर्माण के पूर्व से ही दुनिया के लिए रहस्यपूर्ण किन्तु पुरखों से हस्तांतरित प्रकृति के पुनेमी आधार (समतासमानता, समरसता, समृद्धि और संतुलन) को धारण कर निःस्वार्थसंतुलित व संतोषी जीवन जीने वाला केवल आदिवासी है आदिवासियों की इस महान जीवन दर्शन से विज्ञान और विद्वान् सभी परिचित हैंकिन्तु इनकी अच्छाईयां व्यक्त करना स्वार्थियों को स्वयं के गले का फांस महसूस होता है !

गोंडवाना काल से आज तक आधुनिक विकासवादी, स्वार्थी, प्रकृति विनाशकारी, धार्मिक और मानवता विध्वंशक वैज्ञानिकता से परे रहकर आदिवासियों ने जमाने के लोगों को अपनी धरती पर पनाह दिया मालक आदिवासियों की धरती पर लोगोंउनके धर्मराजनीति और प्रशासन ने भी पनाह पाया |  पनाह पाकर राजनीति व प्रशासन के शीर्ष पर पदासीन देश के प्रथम नागरिक और प्रशासक महामहिम राष्ट्रपतिमाननीय प्रधान मंत्रीराज्यपाल और मुख्य मंत्री के मुख से "विश्व आदिवासी दिवस" के उपलक्ष्य में देश के आदिवासियों के लिए अब तक शुभकामना स्वरुप संदेश के दो मीठे बोल भी नहीं निकले !  यह किस तरह का भेद भाव है ?

यह निश्चित ही आदिवासियों के साथ अनंतकाल से चली आ रही अस्तित्व और धार्मिक अस्तित्व या स्वार्थी राजनीति की जमीन की हो सकती है, जो फेरी वालों के पूर्वजों द्वारा प्रशासनिक पटल पर राजनीतिक रंगहीन श्याही से लिखा जाकर "मन की बात" अब भी निःशब्द व्यक्त किया जा रहा हैइसे पढने की जरूरत है !   आदिवासियों को जन्म जन्मान्तर से प्रकृति की मौन भाषा पढने की महारत हासिल है उसी तरह राष्ट्रपतिप्रधान मंत्री और राज्यपाल व मुख्य मंत्रियों की मौन भाषा को भी समझते हैं सदियों से चली आ रही आदिवासियों के भविष्य के लिए अस्तित्व का यह विध्वंशक निःशब्द स्वर है इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है |

यह आश्चर्य उन लोगों के लिए है जो संदेश के धरातल पर "शुभकामना" में छिपे विकसित विचार और भाई चारा के मायने समझते हैं अब आदिवासी भी समझने लगे हैं कि उनके साथ कब, क्यों और कैसे भाई चारा स्थापित किए जाते हैं | ज़माना यह जानता है कि गरीब के चीथड़े लूटने वाले ही विकास का आसमान चूमते हैं उन आसमान चूमने वाले विशेष जाति वर्ग के लोगों के लिए ही राष्ट्रपतिप्रधानमंत्री और मुख्य मंत्रियों की शुभकामनाएं हैं चीथड़े का विकास करके संतोष रहने वाले आदिवासियों को शुभकामनाओं की क्या जरूरत ?

जब भी देश के आदिवासियों से सम्बंधित कोई पर्वतीज त्यौहारउत्सव आता हैतो सभी के नजर फिर जाते हैं !  भारत सरकार और राज्यों के प्रमुख अपना रुख और मुह दोनों मोड़ लेते हैंमानो आदिवासियों के तीज त्यौहारउत्सव सरकार के मुह पर तमाचा मारने आ रहे हों !  देश के आदिवासी इन प्रमुखों के शरीर का लहू कौन मांग रहे हैंशुभकामना के दो मीठे बोल की उम्मीद ही तो करते हैं |  आदिवासियों के लिए यह उम्मीद भी निराशाजनक ही होती है | इससे यह साबित होता है कि देश और राज्यों के प्रशासकों के मन में आदिवासियों के प्रतिउनकी भावनाओं के प्रतिउनके संस्कारों के प्रतिउनके उत्सवों के प्रति जबरदस्त कड़वाहट भरी हुई है | यह देश के आदिवासियों के प्रति दबी हुई आंतरिक दुर्भावना का प्रतीक है या अवश्य आने वाली किसी और खतरे के पूर्व की खामोशी |

यही कारण है कि देश ही नहीं पूरी दुनिया के प्रशासन और राजनीति में, धर्म और संस्कृति में देश के विकास के आड़ मेंहर तरीके से लालच और स्वार्थ पूर्ती के लिए हमेशा सीधे साधे आदिवासियों को ही बलि का बकरा बनाया जाता है | एक तरह से आदिवासी चारागाह बन चुका है | किन्तु आदिवासी है की ख़त्म ही नहीं होता | जानवरों के चरने के बाद भी उजार (घांस) की तरह फिर पनप जाता है इसका कारण है कि उनका जड़ प्रकृति से जुड़ा हुआ सांस्कृतिक, धीर गंभीर व सच्चामानवीय नैतिक विश्वास है जो उन्हें पुनः पनपने के लिए सबल बनाता है उन्हें पशु, दैत्य, दानव, राक्षस, उपद्रवी कह कह कर मार काट, जीवन का संघार करने वाले स्वर्गवासी, त्रीलोकी, त्रिदेवों, स्वर्गाधिपति, देवी देवताओं का कुनबा ख़त्म होकर अस्तित्व मिट गया, किन्तु पशु, दैत्य, दानव, राक्षस, उपद्रवी कहलाने वाले आदिवासी अभी भी इसी धरा पर सत्यवादीसरल आचरण के साथ जीवित हैं इस धरती पर वंशवृद्धि करने वाले स्वर्गारोहियों के वंशजों को इससे भी संतोष नहीं हुआ तो अब उनका पुतला बना बना कर अंगार फूंक रहे हैं | मन की घृणा की आग दब नहीं सकती कहीं न कहीं प्रज्ज्वलित हो ही जाती है | इन्होने मन की इस जलन रूपी ज्वलन को  तीज त्योहारों के साथ जोड़ लिया और आदिवासियों को हिंदुत्व का झुनझुना पकड़ाकर संस्कारों के माध्यम से उनके ही पैरों पर कुल्हाड़ी मरवा रहे हैं ! बिना पेंदी के धार्मिक नाव में सवार हुए आदिवासी इस तथ्य को कब समझेंगे ?

प्रकृति शक्ति से पूरित आदिवासियों के धैर्य, सरल और सबल मानवीय नैतिक विश्वास की ताकत का अंदाजा दुनिया को नहीं हुआ था | अब हो रहा है | प्रकृति के ज्ञान, विज्ञान को भी हो गया है | इसलिए भारत को छोड़कर दुनिया के वैज्ञानिक प्रकृति को बचाने के लिए आदिवासी संस्कारों को अपनाकर जीवन जीने का आवाहन कर रहे हैं | ऐसे प्रकृति प्रेमी और जीवन संरक्षकों के प्रति यह कैसी कुंठा है ?

देश के राष्ट्रपतिप्रधान मंत्री और राज्यों के राज्यपाल व मुख्य मंत्री आदिवासियों के प्रति ऐसे ही अनेक प्रकार की कुंठाओं से ग्रषित हैं | स्वप्न सुन्दरी विकास की स्वर्ण थाली में सजाकर वर्ग विशेष, स्वार्थी, कारपोरेटियों को परोसे जाने वाले लजीज "मेक इन इण्डिया" रूपी दाल भात में देश के आदिवासी मूसरचंद बन रहे हैं | स्कूल भवन बिना, झाड़ के नीचे, बिना शिक्षक के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले, बैल चराकर जरल प्रमोशन से पास होने वाले बच्चों को मेक इंडिया के खयाली सपने दिखाए जा रहे हैं गरीब आदिवासियों के जल, जल, जमीन, संस्कृति छीनकर एक रूपए किलो चांवल, चरण पादुका, छतरी, लुगड़ा, पोल्का बाटकर विकास की और घर वापसी, गायत्री, रामायण की मण्डली बना बना कर धर्म की गंगा बहाई जा रही है बंदूक की नोक पर उनके मूलवास उजाड़कर, मूल संस्कृति से दिग्भ्रमित कर पुतलों से "पुरखौती मुक्तांगन" सजाई जा रही है ! दो प्रकार के फिरंगियों के हाथों हजारों वर्षों तक लुटी हुई देश के बंजर भूमि और आदिवासियों की सूखी छाती मेंस्वार्थी कारपोरेटिया भेड़ियों के माध्यम से "एल.पी.जी., सेज, मेक इन इंडिया" की आग जलाई जा रही है, जहां विकास के नाम पर विकसित समाज को अपने अपने स्तर से स्वार्थी हाथ सेंकने के लिए सरकार खुली छूट दे रखी है ! विकास के धरातल के नीचे अशिक्षा और अयोग्यता के कालिख मलवे में दबे आदिवासियों का यहां क्या काम ! आजादी के 70 सालों से वंचितों को तमाम बुनियादी सुविधाएं देने के सपने दिखाने वाले देश और राज्यों की सरकारें संविधान के चेहरे पर ही कालिख पोतने में लगे हैं !

देश के प्रमुखों के द्वारा विभिन्न धार्मिक जमातों के सारे पर्वों, देवी देवताओं के जन्मदिन, पुण्यतिथि, तीज त्यौहार, उत्सव, गणेश पंचमी, दुर्गाष्टमी, राम जन्माष्टमी, राम नवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, देव उठनी, रक्षाबंधन, दशहरा, होली, दिवाली, योग दिवस, महिला दिवस, शिक्षक दिवस, माता दिवस, पिता दिवस, बालिका दिवस, बालक दिवस, गोमाता दिवस, गोरक्षा दिवस, पर्यावरण दिवस, देश और दुनिया के तमाम दिवसों पर साल के 365 दिन शुभकामना देने में ही बीतते हैं किन्तु 1994 से 2016 के दरम्यानी 22 सालों तक देश के किसी राष्ट्रपतिप्रधान मंत्री और राज्यों के राज्यपाल व मुख्य मंत्री के मुख पर "विश्व आदिवासी दिवस" का नाम तक नहीं आया !  समूचे साल में आदिवासियों की जागृति के लिए एक उत्सव आया तो प्रमुखों के मुह से शुभकामना के मीठे बोल बोलने वाले जुबान सूख गए !  इसका अर्थ यह है कि मन ही मन आदिवासियों से घृणा करते हैं इसी का परिणाम है कि "विश्व आदिवासी दिवस" पर या अन्य आदिवासी उत्सवों के लिए देश के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, राज्यों के राज्यपाल और मुख्य मंत्रियों के मुख से बधाई और शुभकामनाओं के दो मीठे बोल भी नहीं निकलते ! यह देश के आदिवासियों के प्रति एक गंभीर विषाद है |

इस देश में निवास करने वाले जैनमुस्लिमसिक्ख,  इसाई आदि प्रत्येक धर्म के धर्मावलम्बियों की जनसंख्या आदिवासियों की जनसंख्या के आधे से भी कम है किन्तु उनके प्रत्येक धार्मिक तीज त्योहारोंउत्सवों आदि में देश की ओर से बधाई और शुभकामनाएं प्रसारित की जाती है यह भारत देश के 15 करोड़ आदिवासियों का दुर्भाग्य नहीं है कि उनका कोई धर्म नहीं हैकिन्तु दुर्भाग्य इसलिए है कि आदिवासी, धर्मों और धर्मानुयायियों के लिए चारागाह बन गए हैं सरकार और कारपोरेट के अमीर दलालों के विकास की रफ़्तार के लिए आदिवासी अड़ंगे बन रहे हैं उनके स्वार्थी विकास और लालच के उड़ान में बाधक बन रहे हैं शहरों में अब स्वार्थी विकास के कारपोरेटिया पाँव, लालच और लूट के हवाई पंख पसारने न आसमाँ बची, एक इंच जमीन न संपदा बचा अब स्वार्थी विकास रूपी सपनों के उड़ान जंगलों की ओर रुख कर चुके हैं उनके रास्ते में आने वाले, भू सम्पदा, जल, जंगल और जमीन पर सदियों से काबिज अंगूठे छाप आदिवासियों को रौंदने के किए लालायित हैं इसलिए आदिवासियों को येन केन प्रकारेन उनके जीवन संपदा जल, जंगल, जमीन, हक़ और अधिकारों से सदैव वंचित करना, हमेशा से दीगर विकसित समाज, कारपोरेट घरानों के लुटेरे और सरकारों, चोर चोर मौसेरे भाईयों की सोची समझी स्वार्थी रणनीति रही है जिसकी घृणा विकसित समाज, कारपोरेट और इनके गुलाम, देश की सरकार तथा सरकार के मुख्य कारिंदों के दिल से ऊपर आकर अब आँखों और कार्यप्रणाली में भी छलक रही है किन्तु सदियों से प्राकृतिक विपत्तियोंगोली तथा गोला खाकर, अत्याचार और शोषण सहकर आदिवासियों के लाश ने भी प्रकृति और समुद्र की तरह अपना धैर्य अब तक कायम रखा है आगे प्रकृति और आदिवासी ही जाने, किन्तु अब लाशों का भी धैर्य छलकने लगा है बयार चलने लगी है खामोशी तोड़कर समुद्र में हिलोरें उठने लगे हैं सुनामी तो आना ही है |

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