शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

आदिवासी कुल का महाबली रावण की पूजा

        भारत व दक्षिण गोलार्ध में अनार्य संस्कृति के अधिष्ठाता महान ज्ञानी रावण की पूजा होती है- मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाड़ू, कर्नाटक, केरल, श्रीलंका, मिनिकाय व्दीप, लक्ष्यव्दीप, अंडमान निकोबार, आफ्रिका, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, दक्षिण अमेरिका, और ब्रम्हदेश, थाईलेंड आदि देशों में महान दार्शनिक धर्मवेता वैज्ञानिक तंत्र-मंत्र के प्रकांड ज्ञाता अनार्य संस्कृति के प्रवर्तक गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो के अन्यन भक्त विश्व विजेता महाबली रावण की पूजा बड़े उत्साह और श्रद्धा से करते हैं.
        
        मध्यप्रदेश के राजपूत नगर से कोई ७० कि.मी दूर भाटखेड़ी नमक गांव पूरे देश में रावण मेघनाथ के गांव के नाम से जाना जाता है. इस गांव में रावण और मेघनाथ की दो विशालकाय मूर्तियाँ हैं. जिनकी पूजा की जाती है.


        गाँव वालों को रावण और मेघनाथ की मूर्तियों की स्थापना की पूरी जानकारी तो नहीं लेकिन वे कहते हैं कि हमारे बाप दादा बताते थे कि त्रेता युग में अवंतिका क्षेत्र से पुरी में संगम स्थान पर जाने के पश्चात रावण और मेघनाथ का यहाँ पड़ाव रहा है, तभी से यहाँ के लोगों ने रावण और मेघनाथ की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा शुरू की. आज से छह दशक पूर्व कारीगरों को बुलाकर गांव वालों ने पैसा इकट्टा कर सीमेंट कांक्रेट की दो मूर्तियाँ बनवा दी.


        गाँव के बुजुर्ग रामलाल यादव, दयाराम, बद्रीलाल ने गोंडवाना दर्शन के  सम्पादक को बातचीत के दौरान जानकारी दी कि रामायण ग्रंथों में कुछ इसका उल्लेख है. सात आठ सौ की आबादी वाले गाँव में घर-घर में इनका जीवन बदल दिया है.


        आगरा-बंबई राजमार्ग से गुजरने वाले राहगीरों के मन में इन विशाल मूर्तियों को देखकर एक जिज्ञासा होती है. कि आखिर ये किसकी है. देश-विदेश के पर्यटकों को यह स्थान बहुत अच्छा लगता है. वे यहाँ रुककर विभिन्न मुद्राओं में इन मूर्तियों के साथ फोटो खीचकर संतुष्ट होते है. यह क्रम आज भी जारी है. लोग यहाँ मन्नतें भी मांगने लगे हैं. जिसकी मनोकामना पूरी हो जाती है. वे यहाँ आकर नारियल चढ़ाकर अगरबत्ती जलाकर इन मूर्तियों को प्रसन्न करते हैं और संतोष का अनुभव करतें हैं.


        विशालकाय मूर्तियों की ऊंचाई आठ फिट और चौड़ाई चार फिट है. अन्जाने में बस, ट्रक, कार, आदि वाहनों से गुजरने वाले यात्री इन्हें देखकर चकित हो जाते हैं. कुछ पैसे फेकते हैं तो कोई हाथ जोड़कर नमन करते हैं.


        इन मूर्तियों से कुछ दूरी पर उज्जैन-गुना रेल्वे लाइन है. रेलयात्री भी इनको देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं. कुछ दूरी पर प्रचीन बावड़ी तथा समाधि स्थल का प्रतीक स्वरूप एक चबूतरा बना हुआ है. गाँव वालों को इनके संबंध में भी कोई जानकारी नहीं है.


        दशहरा यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. रावण और मेघनाथ के लिए दो अलग-अलग रथ सजाकर जुलुस निकाला जाता है और सम्मान के साथ विसर्जन किया जाता है.


        रायपुर के शैलेन्द्र नगर में भी लगभग १२ फीट की महाबली रावन की मूर्ती बनाई गई है. शैलेंद्र नगर वासियों ने बताया की वे लोग १९८२ में रावन की मूर्ती सीमेंट और कांक्रीट से बनवाया है और स्थापित किया. मूर्ती के पास में रहने वाले एक बुजुर्ग बताते हैं कि लोग इस आदिवासी कुल के रावन को बुराई के प्रतीक में मानते हैं और हर वर्ष दशहरा के दिन इस महाबली का दहन करते हैं, किन्तु हमारे पूर्वजों नें इसकी पूजा करने के लिए इसे बनवाया है. हमारे पूर्वज इस महाबली की पूजा कबसे करते आ रहे हैं हमें नहीं मालूम, किन्तु उन्हें देखकर हम भी इनकी पूजा करते हैं. सच्चे मन से इनकी पूजा करने से जीवन फलित होता है, ऐसा हमारे पूर्वज कहते हैं. इसलिए हम भी इनकी पूजा करते हैं, सम्मान करते हैं. हम भी महाबली रावन के आशीर्वाद से फलित होते रहे हैं. इन्हें हम नहीं जलाते. इन्हें जलाने वाले उत्सवों और त्योहारों में हम शामिल भी नहीं होते.


        लोगों ने इसे बुराई के प्रतीक में क्यों माना हमें पता नहीं है, किन्तु लोग अपने मन की बुराई को मन से निकालने के बजाय इस देवता का दहन करते हैं. यह बात हमें समझ में नहीं आता कि लोग अपनी बुराई को जलाने के बजाय इसकी मूर्ती बनाकर क्यों उसे जलाते हैं ? जलाना है तो अपने अन्दर की बुराई को जलाएं.


        शैलेन्द्र नगर वासी दशहरा के दिन महाबली रावन की धूमधाम से पूजा करते हैं और मोहल्ले भर प्रसाद बांटकर अपनी मनोकामना फलित करने हेतु खुशियाँ मनाते हैं.

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

देश में जनजातियों का उभरता आक्रोश

        देश के बुद्धिजीवी मनीषियों नें शासन व्यवस्था और प्रजातंत्र को अक्षुण कायम रखने के लिए सभी धर्म, सभी जाति, सभी वर्ग के हितों का ख्याल व मौलिक अधिकारों का आदर करते हुए मूल्यवान संविधान बनाया, लेकिन संविधान अभी भी देश में लागू नहीं है. उसकी जगह मनुस्मृति की नीतियां कार्य कर रही है. जिसमें भेदभाव तथा शीर्ष स्थानों में एक ही कुलीन अभिजात्य वर्ग का आधिपत्य कायम है. आजादी के ६५ वर्ष बीतने के बाद भी देश में संवैधानिक प्रक्रिया में यह अंतर आक्रोश और विद्रोह को प्रेरणा देता है. मूलनिवासी वर्ग जिनकी आबादी कुल आबादी का तीसरा हिस्सा है, आजाद भारत में गरीबी, गुलामी के लिए अभिशिप्त है. आजाद भारत में जंगल, जल और जमीन का अधिकार मूलनिवासियों के हाथ से निकलता जा रहा है. वहीं कल कारखाने बांध और औद्योगीकर से इन बेजुबानों एवं सहनशील लोगों को उपेक्षा, घृणा और तिरस्कार के शिवाय क्या मिला ? विकास तो उन्हीं अभिजात्य वर्ग का हुआ जो ब्रितानियों के बाद सत्ता में आए.


        सच्ची इतिहास को देखें तो स्वाधीनता की लड़ाई में  सबसे अधिक योगदान जल, जमीन और जंगल की रक्षा करने में मूलनिवासियों नें हजारों लाखों कुर्बानियां दी. लेकिन इन जंगल, जल और भूमि की रक्षा करने वालों के पास सर छुपाने झोपड़ी भी नहीं हैं. जीने के लिए रोजगार भी नशीब नहीं है. राजनीतिज्ञ लोग आज उन्हें मात्र वोट बैंक से अधिक कुछ भी नहीं बनाया.


        आरक्षण से तो मात्र चतुर्थ श्रेणी को भी पूरा नहीं किया जा सका और आगे की श्रेणीयों का कहना व्यर्थ है. विकास के नाम पर सैकड़ों योजनाएं बने, जिनका वास्तविक क्रियान्वय फाइलों तक सिमित रह गए. संस्कृति, भाषा और सामाजिक घटकों को अक्षुण बनाएं रखने का ढोल पिटकर देश के नेता संवेदनशील और अहसान बटोरने का केवल परिचय देते हैं.


        देश के पठारों उच्चसम भूमि (जगल पहाड़) में आदि अनंतकाल से बसने वाले अपनी प्रकृति, परंपरा, प्रथाएँ, भाषा और संस्कृति की युगों से अलग सगल भिन्न पहचान बनाए रखे हैं, जो अपनी मूल सामाजिक संरचना का ढांचा है. प्रकृति के अधिक नजदीक रहने के कारण प्रकृति, प्रवृति और शोषण अत्याचार का विरोध एकाएक करने में संयमित है. किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि अन्याय सहने के लिए ही यह समाज पैदा हुआ हो. जुल्म, सहन शक्ति से परे होने पर व्यवस्था के विरोध करने में पीछे नहीं रहेंगें. इसका परिणाम आज भेदभाव रखने वाले और कुलीन वर्ग के नीतियों के विरूद्ध अपनी अस्मिता और गौरव को कायम रखने झारखंड, गोरखा लैंड, नागालैंड के गोंडवानालैण्ड लिए मूलनिवासी आवाज बुलंद कर रहे है. ये आन्दोलन गैर क़ानूनी नहीं है. यदि सबको समानता का हक है तो फिर ऐसा भेद भाव क्यों ? अपनी अपनी भाषा का प्रान्त बनाए. अपने समाज को उच्च स्थानों में धर्म भाषा को बढ़ावा देकर देश में दो तिहाई लोगो के साथ उनकी भाषा धर्म, संस्कृति की उपेक्षा क्यों ? योजनाओं और विकास का लाभ कुलीन वर्गों को उद्योग व्यापार में केवल उन्ही का अधिकार क्यों ? इन सब का प्रतिकार करने के लिए जन मानस का आक्रोश आंदोलन के रूप में दिनों दिन सामने आता जा रहा है.


        अपने हक, अपने सांस्कृतिक धरातल, सामाजिक संरचना को जीवित रखने के लिए संघर्ष के लिए तैयार होना गैर क़ानूनी नहीं है. एक वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए देश का बजट लगा दे और दूसरा मुह ताकता रहे ? यह कैसा प्रजातंत्र हैं ? यह सवाल खड़ा होता है ! अपना भला स्वतः के व्दारा होता है, अपनी आँखों से नींद आती है. यह आम बात है. अपना समाज, अपना विकास, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक प्रगति कि उपेक्षा करने एवं दिखावा  प्रदर्शित करने राजनीतिक रूप में छलने वालों के प्रति सचेत होकर चेतना का उबाल पैदा हो जाए और पृथक पहचान के लिए संगठित आंदोलन का उग्र रूप दिखाई दे तो ईसमे आश्चर्य क्या है ?  
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मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

आदिवासी जनसत्याग्रह और देश की मीडिया का मौन वृत्त

देश की मीडिया को फुर्सत ही नहीं है आदिवासियों की  समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने के लिए ! इसलिए दिल्ली सरकार से पूछने आदिवासी पैदल चलकर खुद पहुँच रहे हैं कि हमारा कसूर क्या है ? क्या हम देश के नागरिक नहीं हैं ? जंगल, जल, जमीन, घर, द्वार छीनकर हमारा शोषण किया जा रहा है, फिर भी तुम मौन हो क्यों ? क्या तुम भी शामिल हो इस प्रपंच में ?


५०,००० से ज्यादा जनसत्याग्रही
आदिवासी दिल्ली कूच 
          जल, जंगल, जमीन से जुड़े आदिवासी समुदाय के सम्मुख अस्तित्व का संकट उन्हें मजबूर करता है कि वे अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़े. पिछले समय एक सनसनीखेज खबर रांची से आई. रांची रेलवे स्टेशन पर १००० आदिवासी युवक युवति और बच्चे रोजगार की तलाश में उत्तर पूर्वी राज्यों की ओर कूच करते हुए पकड़े गए. आखिर प्रश्न उठता है कि क्यों हजारों की संख्या में आदिवासी अपना गाँव, घर, द्वार छोड़कर भाग रहे हैं, जिन्हें हम पलायन कहकर पुकारते हैं. मै अक्सर इतिहास के पन्नों पर इस प्रश्न का उत्तर ढूंडा करता हूँ कि क्या कारण था कि झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा के हजारों हजार आदिवासी  एक साथ, कहीं पूरा परिवार तो कहीं पूरा गाँव असम या भूटान के चाय बागानों में जाकर बस गया. यही नहीं जिस अंडमान मिकोबार द्वीप समूह में भारतीयों को देशद्रोह जैसे भयंकर अपराधों के दंड स्वरुप काला पानी की सजा के रूप में प्रताड़ित करके निर्वासित जीवन गुजारने की सजा मिलती थी, वहाँ भी आदिवासी युवक युवति ख़ुशी-ख़ुशी जाकर बस   गए. उन्हें अब भी यह टापू, अपने देश की तरह सुन्दर और प्यारा लगता है. कारण ढूँढना कोई कठिन नही है, क्योंकि देश की आजादी के बाद विकास के विभिन्न योजनाओं के बावजूद आदिवासी समाज आज भी पलायन को मजबूर है. राजधानी दिल्ली गवाह है कि क्यों डेढ़ लाख से ज्यादा आदिवासी युवक युवतियां राजधानी के पोस इलाकों में घरेलु कामगार के रूप में जीविका अर्जित करने को मजबूर हैं.

          जिनका एक मात्र मूलधन जल, जंगल और जमीन ही लुट गया हो, वे भला पलायन न करें तो क्या करें ? मगर हम कब तक पलायन करते रहेंगे और कहाँ तक पलायन करंगे ? शायद इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए ग्वालियर से ५०,००० से ज्यादा आदिवासियों का दल सत्याग्रह के रूप में दिल्ली पहुंचकर दिल्ली की सरकार के समक्ष वह प्रश्न पूछना चाहता है कि हमारा कसूर क्या है ? गांधीवादी राजगोपाल पीवी के नेतृत्व में दिल्ली की ओर कूच कर रहे आदिवासियों की मांग है कि उनकी जल, जंगल और जमीन न छीनी जाए. संविधान बनाने वालों ने आदिवासियों की सुरक्षा हेतु पांचवी और छटवी अनुसूची का प्रावधान रखा, मगर संविधान के प्रावधानों का अनुपालन करने के लिए कोई सरकारी तंत्र कार्यशील नहीं दिखता.

          अपने अधिकारों की मांग के लिए आदिवासी सत्याग्रहियों का दल दिल्ली की ओर निरंतर बढ़ रहा है. दिन में तेज धुप की तपिस के साथ रात्री में आसमान के नीचे सोने की मजबूरी के बावजूद पदयात्रियों के इरादे बुलंद हैं. पदयात्री अपने पांवों के छाले की परवाह किये बगैर दिल्ली की ओर मुस्तैदी से बढ़ते चले आ रहे हैं. दिल्ली के राष्ट्रीय राजमार्ग पर हजारों की संख्या में कतार में पूरी तरह अनुशासित सत्याग्रहियों का १५ किलोमीटर लंबा जुलूस हर किसी को अभिभूत करता है. लोगों की आँख थक जाती है, पर उसके सामने से गुजर रहे जुलूस का अंत नहीं होता. रास्ते में इन आदिवासियों के विराट जुलूस को देखकर लोग उनके स्वागत में उमड़ पड़ते हैं. जहां वे पड़ाव डालते हैं, वही देखते ही देखते पूरा शहर बस जाता है. लोग पीने का पानी और भोजन का इंतजाम करते हैं. पचासों अलग अलग चूल्हे बन जाते हैं और हर एक सत्याग्रही के पास एक झोला और एक झंडा है, साथ ही एक एक प्लास्टिक सीट है, जिसे रात में सोते समय बिछा लेते हैं और धुप तथा बरसात में छाता बना लेते हैं. हर एक पड़ाव पर सभा और सांस्कृतिक कार्यक्रम द्वारा जोस और उत्साह बढ़ाई जाती है और जल, जमीन, जंगल पर अधिकार के लिए एकता मजबूत की जाती है. केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उन्हें समझा बुझाकर  वापस भेजने की कोशिश की जो बेकार साबित हुआ. आखिर ये वापस जाएँ तो कहाँ जाएँ, उनके घर और खेत तो पहले ही छीन चुके हैं. उनके पास पहचान, सुरक्षा और सम्मान नाम की कोई चीज नहीं रही. आजादी के ६६ साल बीत जाने के बावजूद उन्हें न्याय और सम्मान मिलना तो दूर अब उनके जीने के बुनियादि साधन भी छीन चुके हैं. इन पदयात्री आदिवासियों में काफी बड़ा हिस्सा उन आदिवासियों का है, जिनके इलाके मावोवादियों के चपेट में हैं, जहां उन्हें रात को मावोवादी धमकाते हैं तो दिन में राज्य की पुलिस प्रताड़ित करती है. सलवाजुडूम हो या ग्रीन हंट, आदिवासी अपने लाचार हालत में बदलाव के लिए गांधीवादी सत्याग्रह में कूद पड़े हैं.

          सत्याग्रहियों का काफिला जहां जहां से गुजर रहा है, वहाँ से हजारों लोग काफिला में जुड़ते जा रहे हैं. काफिले में बिहार से १५,००० दलित भी शामिल हैं, जो पिछले कई सालों से छत के लिए दस डिसमिल तो दूर मात्र ३ डिसमिल जमीन की मांग के लिए नीतीश सरकार के पास गुहार लगाते हुए निराश हो चुके हैं.

          कहना नहीं होगा कि भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी वर्तमान व्यवस्था में जहां एक ओर प्राकृतिक संपदा कोयला और लौह अयस्क के लुटेरों की नंगई की परतें एक एक तह खुलती जा रही है, वहीँ भूमिपुत्र आदिवासियों को किस कदर अन्यायपूर्वक अपनी मूल भूमि से खदेड़ा जा रहा है. इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए सत्याग्रही दिल्ली के दरबार में गुहार लगाने को आ रहे हैं.

          वाह री कारपोरेट मीडिया, प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रानिक मीडिया ज़रा बिगबोस या क्रिकेट से फुर्सत निकाल के देश के इन वंचित और पीड़ित आदिवासियों की ओर एक नजर देखिये. प्राकृतिक भू संपदा से जुड़े आदिवासी समुदाय न्याय के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं. इन्हें न्याय दिलाईए.


साभार दलित आदिवासी दुनिया
(सम्पादकीय)


रविवार, 7 अक्तूबर 2012

बाणासुर की राजधानी दंडकारण्य

वर्तमान ऐतिहासिक ग्रंथों में देव, दैत्य, असुर, राक्षस जैसे मानव जातियों का सामाजिक जीवन का उल्लेख कहीं नही मिलता न उनकी भाषा-बोली, संस्कार, रीति-नीति ! वे देव, दैत्य, असुर, राक्षस हैं कौन ? इस पर न भारत के और न विश्व के इतिहासकार अपनी लेखनी से सिद्ध कर सके. भारतीय साहित्य जिनमे गीत, कहानी आदि रचनाओं को वर्णनात्मक शैली में प्रचारित किया, इससे ज्ञात होता है कि आर्यों के कोयवाराष्ट्र में पदार्पण के बाद उनके बारे में प्रथम पचार करते हुए 'अगस्त' नामक आर्य पुरुष भारत के उत्तर से दक्षिण को गया. जब विंध्याचल और सतपुड़ा की ऊँचाई हिमालय से भी ऊंची थी. कहने का तात्पर्य हिमालय को तो पार कर लिया गया लेकिन विंध्याचल और सतपुड़ा, बीच में नरमादा (नार गोदा-नर्मदा नदी) को पार करना लोहे के चना चबाने के बराबर था. इन पर्वत मालाओं में अनार्य राजाओं का प्रशासन था. अमरकंटक (लंका) में विश्व का महान वैज्ञानिक, तत्ववेत्ता, योद्धा रावण का राज्य था. पश्चिम जम्बूदीप, मेलघाट, पश्चिमी घाट के सम्मुख पम्पापुर में महान योद्धा, अतुलित शक्ति का आध्येता बाली का आधिपत्य था. उसे जीत सकना अपने को मिटाना ही था. पूर्वी समुद्र तट तक दंडकारण्य में बाणासुर का एक छत्र राज्य था.  दक्षिण भूभाग सिंहल द्वीप समूह तक समुद्र में भी रावण का अग्रज अहिरावण का साम्राज्य था.


यह थी हिमालय से भी शक्ति संपन्न राज्य में प्रविष्ट करना. सीमा क्षेत्र सिंधु तट खैबर और बोलन दर्रा, सिंधुकुश पर्वत को पार कर सिंधु क्षेत्र में वर्षों तक युद्ध होता रहा. वही युद्ध देवासुर संग्राम के नाम से आर्य गर्न्थों में वर्णन दृष्टांत आर्य ग्रंथों में दिया गया है. संस्कृत की रचना इस पृष्ठभूमि में आर्यों के ज्ञानी गायक, रचनाकार और प्रचारक हुए जो सिंधु पर सैकड़ों वर्षों तक कोयवाराष्ट्र को विजित कर प्रवेश करने की योजना बनाते रहे. योजना को क्रियान्वित करने वाला 'अगस्त' आर्य धर्म प्रचारक योद्धा के रूप में अपने कई अंगरक्षक साधू के रूप में सिंधु तट से गंगा तट, फिर नर्मदा तट और महानदी, इन्द्रावती, फिर गोदावरी तट तक पहुचा. गोदावरी नदी जो 'गोइंदारी' के नाम से विख्यात था. इस नदी के आगे 'अगस्त' की यात्रा समाप्त हो गई. अगस्त इस नदी में डूबकर मर गया. उसके साथी भी नदी में नाव डूबने से जल में समा गए. 


वेन्यांचल और येरुंगुट्टाकोर में योगी राज शंभूसेक अनार्य देव शक्ति का संरक्षक था. उसके अनुयायी अपनी मातृशक्ति और पितृशक्ति को आराध्य मानकर अन्य प्रकृतिसम्मत शक्तियों को देवी-देवताओं के रूप में प्रस्थापित करते थे. इन शक्तियों के आधार पर बाह्य आक्रमण और आंतरिक सुख समृद्धि के लिए सतत प्रयास करते रहते थे.


दंडकारण्य में भूपति विश्व वैज्ञानिक रावण का सहोदर असुर राज, योद्धा बाणासुर राज्य करता था. उसका दंडकारण्य भूभाग इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्रतट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्द्क कोया परिक्षेत्र था. वर्तमान बस्तर की बारसूर- इन्द्रावती नदी के तट पर समृद्ध नगर की नीव बाणासुर ने डाली और ग्राम देवी कोयतर माँ की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की. बाणासुर के द्वारा स्थापित देवी (दान्त तोना) गोंडी शब्द को कालान्तर में आर्यों के संस्कृति गीत में दंतेवाड़िन का सीधा अर्थ दांत से कर दिया गया.


इन शक्ति पीठों को ही ध्वस्त करना आर्य धर्म प्रचारकों का कार्य था. जो नगर बसे वहाँ आर्यो का कब्जा हुआ और उस स्थान में ऐसे शिल्प कला का प्रदर्शन करना हुआ जिससे उनके पुरखों की चित्रावली और उनके योद्धा पुरुषों के वर्णन अंकित किये गए. बारसूर राजधानी अनेक राजवंशों की राजधानी थी. ईशा पूर्व २००० वर्ष पूर्व तक असुर योद्धाओं की, नलवंश ४०० से ५०० ई. तक, गंगवंश ८५० ई. से १०२३ ई. और नागवंश महाभारत काल से छिट-पुट शक्ति संपन्न करने में सक्रीय रहे. छिंदक नागवंश ने अपने वंश की शक्ति १०२३ से १३१४ ई. तक अपने पुरखों की शक्ति को संपन्न किया. यह वही वंश है जो कौरव-पांडव के वंश को समाप्त कर दिया था. नागवंश को आर्य ग्रंथ सर्प की जाति मानती है. किन्तु यह अनार्य जाति नाग है, जिसका वंश सब जगह मिलेंगे.


कोईतोर मानवाल अपने मूल पुरुष और शक्ति स्त्रोत संपोषण पशु पक्षी और वनस्पति को मानता है. नागवंश अपना मूल पुरुष नाग जीवधारी से विकसित हुआ और उसे ही अपना देव के रूप में मानता है. नलवंश नेवला को अपना मूल पुरुष मानता है. इसलिए नल और नाग में कभी दोस्ती नहीं हो सकती. वे एक दूसरे से सदा के दुश्मन हैं. गंगवंश- कश्यप, नेताम कछुआ को अपना आध्य पुरुष मानता है. मरकाम लोग सांड को अपना मूल पुरुष के रूप में मानते हैं. बारसूर में नलवंश, गंगवंश, नागवंश, पोलवंश तथा पुलस्त्य वंश का भी आधिपत्य था.


महिसासुर संथाल योद्धा था. पूर्वांचल में पर्वत मालाओं में प्रवेश करना कठिन था. उस महान योद्धा महिषासुर में अनेक भैंसों के बराबर अपार शक्ति थी. उसे जीत पाना आर्यों को कठिन तो था ही तो उन्होंने रात्री के समय आर्य कन्याओं को श्रृंगारित और बना ठनाकर महिषासुर के पास भेजते थे. स्त्रियों को देख पहले तो महिषासुर को आश्चर्य होता था कि मै एक योद्धा और ये स्त्रियाँ, वह भी कमनीय इनसे युद्ध कैसा ? उनके पास जासूसी के लिए आई आर्य कन्या आर्यों के द्वारा दी गई मद्द (नशीली पेय) को पिलाकर अपने साथ रमण करने की इच्छा व्यक्त करती थी. जब पुरुष कामातुर हो जावे और स्त्री रजामंदी से उसे तृप्त करने की उत्सुकता जतावे  तब वह पुरुष, योद्धा प्रवीण होने पर भी स्त्री के सामने नतमस्तक हो जाता है. वैसे ही परिस्थिति में आर्य कन्या दुर्गा द्वारा महिषासुर की ह्त्या हुई, जिसका चित्रण जगह-जगह पत्थरों में, मूर्तियों में उकेरा जाता है और अतिसंयोक्तिपूर्ण प्रचार किया जाता है.


बारसूर में जो पत्थरों की मूर्तियाँ हैं वे १४वी १५वी सदी में आर्य शिल्पकारों द्वारा निर्मित किये गए हैं. छिंदक, दंतेवाड़ा और बस्तर के अनेक स्थलों में इसी समकक्ष के काल में आर्य धर्म प्रचार कड़ी तैयार किये. दंतेवाड़ा के आगे ५००० वर्ष से भी अधिक पुराना मरघट (मुर्दावाली) है. कोंदा मेंदल (बैलाडीला) के नीचे तराई में कश्यप गोत्र का गोंगो ठाना है. कोंदा मेंदल में नंदोरी पहाड़ है, जहां मरकाम गोत्र का सांड उस परिक्षेत्र में पहले पाया जाता था. वहीँ से शंभूसेक ने बाल गौरी को प्राप्त किया था. 


बारसूर वर्तमान बस्तर जिले में गीदम-बीजापुर रोड के उत्तर दिशा में प्राचीन भव्य नगर था. इन्द्रावती नदी के तट पर अनेक भग्नावेश प्राचीन ईशा पूर्व अनार्य राजा बाणासुर की स्थापित राजधानी है. वहीँ अंधकार युग के बाद नलवंश, नागवंश, पोलवंश फिर कौवेवंश की राजधानी का इतिहास तो प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य कारों द्वारा वर्णन किया गया है. किन्तु जब कोइतोर मानव समाज के सामाजिक अध्ययन और उनकी संस्कृति, धर्म, पूजा-अर्चना की अध्ययन करते हैं तो आर्य कथानक सर्वथा झूठे और मनगढ़ंत लगते हैं. दंतेवाड़ा का मड़ई-मेला वास्तव में आर्यों के धर्मानुसार नहीं है. वह तो कोयापुनेम के अधिष्ठाता आदि धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो की ग्राम व्यवस्था के अनुकूल कोयतर माँ की बेटी माता माय खेरमाता मावली (मावा दायी) की पूजा होती है. दक्षिण बस्तर के सभी ग्राम के देवी माता इस मुख्य ठाना में आकर सेवा भेंट करती हैं. उनके सेवक उनका झंडा पालो और आंगा (अंग) को लेकर दंतेवाड़ा में फाल्गुन माह के मड़ई में आते हैं. मेला पखवाड़ा तक रहता है, लेकिन पूजा अर्चना एक दिन होता है. मड़ई में नित्य रात्री को जीवन के शिक्षणों, शिकार आनंद का प्रदर्शन, नृत्य-गीत वाद्य से होता है. यह पर्व बारसूर में प्रथम की जाती थी लेकिन राज्य व्यवस्था परिवर्तन होने पर नदियों के संगम में होने लगा. इस प्रथा परम्परा को आर्यों नें अपने अनुकूल मंदिर, मूर्ती और दंतेवाड़िन की कथा प्रचारित कर शक्तिपीठ को अपने अनुकूल किये. बारसूर में मावली माता (माता माय) की स्थापना लिंगो के सगा भूमकाओं द्वारा हुआ था.  योद्धा बाणासुर ने दंडकारण्य में राज्य स्थापित किया तो माता माय की सर्वप्रथम स्थापना किया, जो माता मावली के रूप में विख्यात हुई. वही १५वी सदी में कौवे वंश ने दंतेवाड़िन का नामकरण वास्तविक तथ्य को दबाकर तथा नया इतिहास गढ़कर प्रचारित किया. इस बाबत लोक भाषा में कोई उल्लेख या साहित्य उपलब्ध नहीं है.


गोंडवाना दर्शन 

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

लॉरेसिया एवं गोंडवाना लैंड


गोण्डवाना (पूर्वनाम 'गोंडवाना लैंड') प्राचीन वृहत महाद्वीप (अंग्रेजी;  Super Continent) पैंजिया का दक्षिणी भाग था। उत्तरी भाग को लौरेशिया कहा जाता है। गोंडवाना लैंड का नाम एडुअरड सुएस नें भारत के गोंडवाना क्षेत्र के नाम पर रखा था। गोंडवाना भूभाग आज के समस्त दक्षिणी गोलार्ध के अलावा भारतीय उप महाद्वीप और अरब प्रायद्वीप जो वर्तमान में उत्तरी गोलार्ध में है का उद्गम स्थल है।

गोंडवाना नाम नर्मदा नदि के दक्षिण स्थित प्राचीन गोंड राज्य से व्युत्पन्न है, जहाँ से गोंडवाना काल की शिलाओं का पहले पहल विज्ञानजगत्‌ को बोध हुआ था। इनका निक्षेपण पुराकल्प के अंतिम काल से अर्थात अंतिम कार्बन युग (Carboniferous) से आरंभ होकर मध्यकल्प के अधिकांश समय तक, अर्थात्‌ जुरैसिक (Jurassic) युग के अंत तक, चलता रहा। एक पूर्वकालीन विशाल दक्षिणी प्रायद्वीप के निम्न स्थलों अथवा विभंजित द्रोणियों में जो संभवत: मंद गति से निमजित हो रही थीं, नदी द्वारा निक्षिप्त अवसादों से इन शिलाओं का निर्माण हुआ। गोंडवाना काल में मुख्यत: मृत्तिका, शेलशिला (Shell), बलुआ पत्थर (sandstone), कंकरला मिश्रपिंडाश्म (conglomerate), सकोणाश्म (braccia) इत्यादि शिलाओं का निक्षेपण हुआ। स्वच्छ जल में निर्मित होने के कारण इन शिलाओं में स्वच्छ जलीय एवं स्थलीय जीवों तथा वनस्पतियों के जीवाश्म का बाहुल्य और महासागरीय जीवों एवं वनस्पतियों के जीवाश्म का अभाव है।

परिचय

इस महान्‌ स्थलखंड को भूगर्भवेत्ताओं ने 'गोंडवाना प्रदेश' की संज्ञा दी। कुछ विद्वानों का मत है कि यह प्रदेश एक विशाल भूखंड न होकर अनेक भूभागों का समूह था जो सँकरे भूसंयोजकों अथवा स्थलसेतुओं द्वारा एक दूसरे से संबद्ध थे। इसके अंतर्गत भारत तथा समीपवर्ती देश आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका, अंटार्कटिका, दक्षिणी अफ्रिका और मेडागास्कर आते थे। इस काल की शिलाओं, जीव जंतुओं, वनस्पतियों, जलवायु इत्यादि के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पूर्वकालीन गोंडवाना प्रदेश के उपर्युक्त अंतर्गत भागों पर इन दशाओं में आश्चर्यजनक समानताएँ थीं। इस प्रकार यह पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाता है कि पूर्वकालीन गोंडवाना प्रदेश के अंतर्गत भाग गोंडवाना काल में एक दूसरे से पूर्णतया अथवा भूसंयोजकों द्वारा संबद्ध थे, अन्यथा जीवों और वनस्पतियों का एक भाग से दूसरे भाग में परिगमन असंभव था। इसी काल में, उत्तरी गोलार्ध में, उत्तरी अमरीका, यूरोप तथा एशिया महाद्वीप भी एक दूसरे से संबद्ध थे और एक अन्य विशाल भूखंड का निर्माण कर रहे थे जिसे लारेशिया कहते हैं। लौरेशिया तथा गोंडवाना प्रदेश के मध्य टीथिस नामक एक संकरा सागर था। इन दोनों स्थलखंडों को मिलाकर 'पैंजिया' कहा गया है।

गोंडवाना प्रदेश का विखंडन मध्यकाल के अंत में अथवा तृतीयक कल्प के आरंभ में हुआ। इस काल में एक विशाल ज्वालामुखी उद्गार भी हुआ जो संभवत: इस विखंडन की क्रिया से संबंधित या इसी का पूर्वसंकेत था। यह परिवर्तन संभवत: अंतर्गत भूखंडों के तटस्थ भागों अथव स्थलसेतुओं के निमज्जन से या इन भूभागों के एक दूसरे से दूर खिसक जाने से संपन्न हुआ। इसी के साथ साथ बंगाल की खाड़ी, अरब सागर, दक्षिण अटलांटिक सागर इत्यादि का जन्म हुआ।


यह ऊपर बताया जा चुका है कि एक समय में, एक दूसरे से संबद्ध होने के कारण भारत, दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया इत्यादि की पुराभौगोलिक दशाओं में समानताएँ पाई जाती हैं। इस काल की भौगोलिक दशाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्रारंभ में, अर्थात्‌ अंतिम कार्बन युग में, गोंडवाना प्रदेश की जलवायु हिमानीय (Glacial) थी जिसकी पुष्टि इस युग के बोल्डर तहों (Boldar Beds) की उपस्थिति से होती है जो सभी अंतर्गत भागों पर मिलते हैं। भारत की तालचीर, दक्षिणी अफ्रीका की ड्वाईका, दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया की मुरी तथा दक्षिणी अमरीका की रियो टुबारो समुदायों की शिलाएँ इन्हीं बोल्डर तहों पर स्थित हैं। इस काल में ग्लासैपटेरिस (Glossopteris) एवं गंगमौपटेरिस वनस्पतियों की प्रचुरता थी तथा उभयचर जीवों का भूतल पर प्रथम बार आगमन हुआ था। तत्पश्चात्‌ पर्मिएन कार्बन युग में मोटे कोयला स्तर मिलते हैं जो उष्ण एवं नम जलवायु के द्योतक हैं क्योंकि प्रचुर वनस्पति की उपज के लिये, जिसके द्वारा कालांतर में कोयले का निर्माण होता है, इसी प्रकार की जलवायु की आवश्यकता होती है। ये कोयला-स्तर इस काल में निर्मित भारत की दामुदा समुदाय, दक्षिणी अफ्रीका की इक्का तथा दक्षिणपूर्व आस्ट्रेलिया की मेटलैंड उपसमुदायों की शिलाओं में मिलते हैं। इस काल में ग्लासौपटेरिस वनस्पति एवं उभयचर जीवों का पूर्ण विकास हो गया था परंतु गंगमौपटेरिस वनस्पति का ह्रास हो रहा था।

तदुपरांत मध्य गोंडवाना काल के आंरभ में अथवा आंरभिक ट्राइऐसिक (Triassic) युग में जलवायु में पुन: शीतलता आ गई, जैसा इस काल की शिलाओं के अध्ययन से स्पष्ट विदित होता है। इन शिलाओं में उपस्थित फेल्सपार के कणों में विघटन होकर विच्छेदन (disintegration) हुआ है। विच्छेदन क्रिया मुख्यत: शीतल जलवायुवाले प्रदेशों में तथा विघटन क्रिया समान्य (उष्ण एवं नम) जलवायु के प्रदेशों में अधिक महत्वपूर्ण है। इस काल की शिलाएँ भारत के पंचत्‌ समुदाय, दक्षिणी अफ्रीका के व्यूफर्ट तथा दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया के हाक्सबरी उपसमुदायों के अंतर्गत मिलती हैं। इसके पश्चात्‌ अंतिम ट्राइएसिक युग में जलवाय उष्ण एवं शुष्क हो गई। इसकी पुष्टि इस काल के लाल वर्ण के बालुकाश्म से होती है जिसमें लौहयुक्त पदार्थों का बाहुल्य तथा वानस्पतिक पदार्थों का पूर्णतया अभाव मरुस्थलीय जलवायु का द्योतक है। भारत में महादेव समुदाय की शिलाएँ इसी काल में निक्षिप्त हुई थीं। मध्य गोंडवाना काल की मुख्य वनस्पति थिनफैल्डिया-टिलोफाईलम (Thinnfeldia Telophylum) है जिसने पूर्वकालीन ग्लासेपटेरिस वनस्पति का स्थान ले लिया था। जीवों में सरीसृपों (reptiles) का पृथ्वी पर सर्वप्रथम आगमन इसी काल में हुआ था कि उभयचरों एवं मीनों का भी बाहुल्य था। इन सब जीवों के जीवाश्म इस काल की निक्षिप्त शिलाओं में मिलते हैं।

गोंडवाना काल के अंतिम भाग में, अर्थात्‌ जुरैसिक युग में, जलवायु में पुन: सामान्यता आ गई थी। इस काल की शिलाओं में वानस्पतिक पदार्थ मिलते हैं; परंतु कोयले का निर्माण महत्वपूर्ण नहीं हुआ था। मुख्य वनस्पतियाँ साईकेड, कानीफर एवं फर्न हैं तथा मुख्य जीव स्टेशिया एवं मीन हैं। गोंडवाना काल का अंत अथवा गोंडवाना प्रदेश का विखंडन संभवत: एक भीषण ज्वालामुखी उद्गार से हुआ, जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस काल में भारतवर्ष राजमहल उपसमूह तथा दक्षिणी अफ्रिका में स्टार्मबर्ग समुदाय की शिलाओं का निक्षेपण हुआ था।


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रविवार, 23 सितंबर 2012

गोंडी धर्म, संस्कृति, साहित्य पर पराश्रय


          यह सर्व विदित है कि किसी भी मानव समूह की जीवन पद्धति, संस्कृति, साहित्य का उत्थान या यथावत सम्मान तभी कायम रह सकता है जब उस देश की राजसत्ता उसे सहयोग और संरक्षण प्रदान करे और उसका संवर्धन करे. इस देश में आर्य, हूड, यवन, अफगानी, मुसलमान और क्रिस्चन आये. उन्होंने अपने अपने शासनकाल में अपनी धर्म, भाषा, संस्कृति, साहित्य का प्रचार-प्रसार और संवर्धन किया.

          इन गैर मुल्क के लोग इस देश के मूल निवासियों की सत्ता, धर्म, संस्कृति और साहित्य को तो रौंदा ही साथ ही इस देश के निवासियों के ऊपर आर्य, इस्लाम, क्रिश्चन धर्म को थोप दिया. आर्य और अंग्रेज यवन तो किसी तरह अपने अपने पितृ देश लौट गए किन्तु इस देश में औलाद छोड़ गए. आर्य दुनिया में कई धर्म मानते हैं. किसी भी मुल्क में जा बसते हैं. लेकिन इस कोयवा राष्ट्र के जमीन से जुड़े कोईतुरियन अपने कोयापूनेम गोंडी धर्म को अनादि काल से अपने सीमित दायरा में रखे हैं.

          इस जन समूह में अनादिकाल में गोंडी धर्म के संस्थापक पहांदी पारी कुपार लिंगो द्वारा जीवन के नीति नियमों का प्रतिस्थापन किया गया था. वह आज भी जीवित है. इस गोंडी धर्म के बारह गुरु, धर्म प्रचारक लिंगो के बाद हुए. तब अनादि राजा शंभूशेक ने धर्मपाल की हैसियत से सम्पूर्ण कोयवा राष्ट्र में प्रचार किया था. उसके बाद अनेक प्रतापी राजाओं ने ईशा के कई हजार वर्ष पूर्व से और ईशा के बाद मुगलों के आगमन तक गोंडी धर्म, संस्कृति, साहित्य और कला का संरक्षण किया.

          महाराजा संग्रामशाह के शासन काल तक गोंडी भाषा, गोंडी साहित्य कला एवं संस्कृति फलते फूलते रही. विश्व में अनेक राष्ट्रों और देश में एकतंत्र शासन व्यवस्था में परिवर्तन होने लगा और औद्योगिक क्रान्ति में अनेक वैज्ञानिक अविष्कार ने नया रूप धारण किया.

          भारत अंग्रेजों से आजाद हुआ. जो इस धरती पर सबसे बाद में आये थे वे भारत को अनेक जाति, अनेक भाषा, अनेक धर्म को राज व्यवस्था के अंतर्गत एक बनाने का ढोंग किया. अंग्रेजी भाषा, ईसामशी को मनवाने के लिए अपना शाहित्य प्रचार किया. इस पर प्रवासी मंगोलियन, आर्यन, यूनानी भी अपने को जागृत करने का साधन सरंजाम करने लगे. भारत आजाद हुआ और धर्म निरपेक्ष की कहानी गढ़ी गई. इस देश में हर धर्म को मान्यता दी जावेगी कहा गया. लेकिन आजादी के बाद जो हिस्सेदारी मिलना चाहिए था वह सभी धर्म, संस्कृति, साहित्य को हकदारी मिली. उनके नाम से संविधान में उनकी भाषा को उनके राज्य के नाम, धर्म के नाम और संस्कृति को मान्यता दी गई. लेकिन इस देश के पुरातन काल से निवास करने वाले करोड़ो जन समूह के हितों का तिरस्कार, उपेक्षा, घृणा और अनादर कर उपरोक्त धर्मों का गुलाम घोषित किया गया.

          करोड़ो मूलनिवासी आजाद भारत में गुलाम हैं- भाषा से, धर्म से, संस्कृति से, साहित्य से, राजसत्ता में हकदारी से. इस समूह का गौरवशाली इतिहास, स्मृतिचिन्ह से वंचित किया गया. पुरातन वीर बालाओं, योद्धाओं और उनकी संस्कृति का विकृत चित्रण कर घृणा के बीज बोते रहे और बोते हैं.

          इसीलिए अपने अस्तित्व और सम्मान के लिए धर्म, संस्कृति और साहित्य के निर्माण हेतु राजाश्रय के आकांक्षी हैं. इस देश की संविधान का आदर करते हुए प्रत्येक मानवजाति को प्रलोभन, धोखा-धड़ी, वर्णशंकर धर्मी न बनाया जाय. इस समूह के लोग प्रकृति में आँख खोलते हैं, प्रकृति में जीवन यापन कर प्रकृति के गोद में ही आँख बंद कर लेते हैं. हम प्रकृति प्रदत्त शक्तियों को धर्म संस्कृति, साहित्य के रूप में देखना पसंद करते हैं. अतः हम अपने हकदारी की लड़ाई में भागीदार बनें. यही हमारा जीवन, यही हमारा धर्म, यही हमारी संस्कृति और यही हमारा साहित्य है. इसे पराश्रित न होने दें. इसका संरक्षण करें.

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

सिंन्धु सभ्यता का उदभव


सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता वर्तमान पकिस्तान में स्थित शहर से लगभग २०० कि.मी. दक्षिण पश्चिम में राबी एवं सतलज नदियों के बीच में है. सिंधु नदी के पाकिस्तान देश में अरब सागर में गिरने के लगभग ४५० कि.मी. पहले नदी के किनारे मोहन जोदड़ो नामक स्थान है, जिसकी खोज जान मार्शल के निर्देशन में श्री राखलदास बनर्जी ने सन १९२२ ई. में किया. पुरातत्विक खोजों की वरीयता क्रम में हडप्पा संस्कृति कहा जाता है, पर व्यवहार में यह सिंन्धु सभ्यता कहलाने लगी. अनेकों वर्षों तक यह शोध का विषय रहा कि सिंन्धु सभ्यता के जनक कौन थे, वे स्थानीय थे व बाहरी थे. स्थानीय अर्थात द्रविणों के पूर्व से रहने वाले या जो कि बाद में द्रविण कहलाये तथा बाहरी का आशय दजला फरात नदियों के मुहाने में स्थित मेसापोटामियां की सभ्यता या अफगानिस्तान व बलूचिस्तान के लोग जो कि हिब्रु भाषा बोलतें थे, जो द्रविण भाषा से मिलती जुलती थी.

डॉ. व्हीलर कहतें हैं कि सिंन्धु सभ्यता के लोग भवन निर्माण कार्य में कच्ची ईटों का प्रयोग करते थे तथा भवन निर्माण में लकड़ी के छतों से (नशेनी, मंचान) का उपयोग करते थे. इस कार्य में मेसोपोटामियां के भवन निर्माता सिद्धहस्त थे. डी.एच गार्डन कहते हैं- मेसापोटामिया से लोग सिंधु घाटी में जलमार्ग से आये अपने साथ कम से कम सामान लाये जिसे यहाँ जोड़-जोड़कर काम लायक बनाये ताकि हड़प्पा की कृषि भूमि पर कब्जा करके कृषि का विकास किया. सांकलिया कहते हैं- तंदूरी चूल्हों को कालीबंगा के उत्खनन स्थल पर मिलना  ईरान तथा दक्षिण एशिया के प्रभाव दर्शातें हैं. डॉ. व्हीलर महोदय तो सिंधु सभ्यता के चबूतरों और मेसापोटामियां जिगुरेत के टीलों को एक ही प्रकार के राजतंत्र की प्रेरणा से निर्मित होने की संभावना मानते हैं. सिंधु सभ्यता में नगर का नियोजन एवं सार्वजनिक स्वछता की व्यवस्था को मेसापोटामियां ही नहीं वरन विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में श्रेष्ठ पाया गया है. यदि मेसापोटामियां के लोग समुद्री मार्ग से आकर भवन निर्माण का कार्य करते तो काम चलाऊ ही बनाते, इसके अलावा महत्वपूर्ण यह कि मेसापोटामियां सभ्यता में चबूतरों पर मंदिर निर्माण के अवशेष मिलते हैं. जबकि सिंधु सभ्यता में मंदिर मिर्माण के एक भी अवशेष प्राप्त नहीं हैं. दोनों सभ्यताओं की विधि में अन्तर है. यदि व्हीलर महोदय मानतें हैं कि सिंधु सभ्यता के विकास में मेसापोटामियां सभ्यता का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. किन्तु अलकानंद घोस कहते हैं कि भरत के ही लोगों ने सिंधु सभ्यता का विकास किया. डॉ. सांकलिया का विचार है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल तत्व की जानकारी हेतु सिंध प्रान्त पाकिस्तान के जकोबाबाद से २२ किलोंमीटर दूर जुड़ेईजोदड़ो की खुदाई एवं बलूचिस्तान के अबरकोट की खुदाई से रहस्य उजागर हो सकते है. बलूचिस्तान के मेहारगढ़ में खुदाई से सिंधु सभ्यता के मूल तत्व प्राप्त नहीं हुये तथा मेहारगढ़ से ७ कि.मी. दूर नौशादों में भी विकसित सिन्धु सभ्यता के चरण नहीं मिले. केश सलाईम खां पाकिस्तान से १० कि.मी. दूर गुमला एवं २३ किमी. दूर रहमान ढेरी में खुदाई से भी कुछ विशेष प्राप्ति नहीं हुई. फेयर सर्विस कहतें हैं कि सिन्धु के पूर्व की सभ्यता के अवशेष जो उपरोक्त स्थालों पर मिले उनमे मेसापोटामियां सभ्यता, ईरानी सभ्यता के स्वरूप देखने को मिले हैं. प्रो. एस. इंगनाथ राव के अनुसार राजस्थान के सीरी एवं लोथल में खुदाई से जो साक्ष्य मिले हैं उनके अनुसार स्थानीय संस्कृतियों व्दारा धीरे-धीरे क्रमशः सिन्धु सभ्यता को विकसित कर दिया गया. मार्क केन्योर के अनुसार सभ्यता का विकास चार कारणों के दीर्घकाल में हुआ. प्रथम काल में गेंहू का प्रचुर उत्पादन, द्वितीय काल में इन्हें सहेजकर रहने हेतु मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तन बनाये गये. तृतीय काल में मुद्रा बाँट एवं व्यपार की विकसित सभ्यता सामने आयी और अंत में सिंधु सभ्यता का विघटन काल आया. जिसे क्रमशः ६५०० ई.पू. से १६०० ई.पू. तक के काल में विभाजित किये हैं. विभिन्न स्थलों की खुदाई से हडप्पा सभ्यता के पूर्व की सभ्यता होना बताया है. जिनका क्रमिक विकास हुआ है, जिनमे नगर नियोजन, देश विमुख भवन, योजना आवास, सुरक्षा दिवार, गढ़ी, कच्ची पक्की ईट का प्रयोग, अन्नागार, मृदभाण्ड तथा मनकें आदि व्यपार-व्यसाय बढ़ने से बाँट का प्रयोग गिनती, लेखन कला, सामान के बंडलों पर मुद्रा लगाने के लिए मुदाओं का विकास, नगर नियोजन, विशालभवन, नारियों के लिये सुन्दर आभूषण आदि विकसित सिंधु सभ्यता की विशेषताएँ हैं. मार्क केन्योर का स्पष्ट मत है कि सिंधु सभ्यता उसी स्थल पर सदियों तक स्थित ग्रामो के विकसित रूप थे. भारत के मानचित्र को तथा उसके भागौलिक बनावट को ध्यान से देखने से ज्ञात होता है कि हडप्पा सभ्यता का उदभव एकाएक नहीं हुआ है. मानचित्र के अनुसार जो हडप्पा सभ्यता है वह वर्तमान मुबई से उत्तर की ओर लाहौर (पाकिस्तान) के मध्य भाग तथा समुद्री तट मुंबई से कंराची (पाकिस्तान) के मध्य विस्तृत नदी घाटियों के मैदानी प्रदेश में स्थित है. हडप्पा एवं मोहन जोदड़ो दो अलग-अलग स्थल है, जहाँ से सिंधु सभ्यता के मुहरें (सील) खुदाई में पाये गये हैं. हडप्पा नामक स्थान रावी नदी के दक्षिण किनारे पर रावी एवं सतलज नदी के मध्य स्थित है, जबकि मोहन जोदड़ो नामक स्थान सिंधु नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है. सिंधु नदी जब अरब सागर में गिरती वहाँ से मोहन जोदड़ो की दूरी ४५० कि.मी. और हडप्पा की दूरी लगभग ११५० कि.मी. है. हडप्पा और मोहन जोदड़ो में ७० कि.मी. दूरी है. सिंधु सभ्यता ई. पु. ६५०० से १५०० तक कुल ५००० ई.पू. वर्षों क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढते हुये गये हैं. मनुष्य शिकारी अवस्था से कृषक अवस्था की ओर क्रमशः बढता गया है. कंदराओं एवं गुफाओं से निकल शिकारी जीवन को छोड़ते हुये कृषि कार्य एवं पशुपालन कार्य हेतु नदी के मैदानी क्षेत्र में बढता गया है. उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि सिंधु सभ्यता के पूर्ण ५०० वर्ष ई.पू. ५००० वर्ष से पहले भी सभ्यता रही है. ये लोग गुफाओं एवं कंदराओं में रहते थे. गुफा मानव जंगलों में एवं पहाड़ों में शिकारी जीवन जीते थे. नर्मदा नदी तो अति प्राचीन है. नर्मदा एवं तापती नदियों का बहाव पश्चिम की ओर है. उन नदी घाटियों में आमूरकोट (अमरकंटक) को मानव का उत्पत्ति स्थल कहा जाता है. कोया संस्कृति में आमूरकोट नर्मदा नदी के उदगम स्थल में सर्वप्रथम नर व मादा का जन्म हुआ. नर-मादा से नदी का नाम नर्मदा प्रचलित हुआ है. इस प्रकार नर्मदा घाटी की जो आदिम सभ्यता थी, यहाँ से ही लोग उत्तर की ओर क्रमशः बढ़ते गये है. सिंधु नदी एवं इसकी सहायक नदियों के कछारी उपजाऊ प्रदेश में गेहूं अनाज, दलहन फसलों की उत्कृष्ट कृषि करने लगे. कृषि उत्पादन की मांग सुदूर उत्तर पश्चिम के प्रदेश में जो कि भौगोलिक दृष्टिकोण से पठारी एवं कम उपजाऊ थे, वहाँ से अनाज, पशु पक्षियों की मांग उठने लगी तब नदियों के नौकायन से व्यापार अन्य देश से किया जाता रहा. अनाजों के भरपूर उत्पादन, उनके भंडारण उनकी सुरक्षा की व्यवस्था आदि का क्रमिक विकास हुआ. वही हडप्पा सभ्यता कहलायी. हडप्पा सभ्यता में प्राप्त मुहरों (सीलों) का उद्वाचन गोंड़ी भाषा के रूप में किया जा चुका है. अत: हडप्पा सभ्यता के जनक कोयावंशी कोयतुर (गोंड) ही प्रमाणित होता है.

भूमि के निसर्पण (सरकने) के सिद्धांत के अनुसार भूमि का बहुत बड़ा टुकड़ा टूटकर अलग हुआ और उत्तर पूर्व की ओर सरकता गया. इस विसर्पण से टेथिस सागर का जल सागर तट को छोडकर मैदानी भाग में आता गया. इससे महाजल प्लावन (कलडूब) की विभीषिका उत्पन्न हुई. यह उत्तर पूर्व की ओर कोयामुरी व्दीप में सरकने से टेथिस सागर उथला होता गया. सागर में स्थित कीचड़ व दलदल वाला भाग दबाव से उपर उठाया गया, जो कि हिमालय पर्वत श्रंखला पश्चिम से पूर्व एवं दक्षिण से पूर्व की ओर बनता गया. थेटिस सागर समाप्त हो गया. वहाँ हिमालय श्रंखला बन गई. कालांतर में सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रम्हपुत्र एवं अन्य सहायक नदियों ने जन्म लिया. किन्तु नर्मदा एवं ताप्ती पर्वत बहती रही है. कोयामुरी भूखण्ड आफ्रिका के पूर्वी तट जंजीबार तट से जुड़ा था. वहाँ ये नदियाँ करोड़ो वर्ष पूर्व विक्टोरिया झील में समाहित होती थी तथा अमूरकोट से प्रथम नर-मादा की उत्पत्ति के प्रमाण स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन मानव खोपड़ी झील के आसपास ही पाये गए हैं.

अत्यंत प्राचीन काल करोड़ो वर्ष पहले अमूरकोट स्थल से चलकर विश्व के चारो ओर फैले हैं, जो कि विश्व विभिन्न प्राचीन जातियों के डी.एन.ए. टेस्ट से प्रमाणित हुआ कि विश्व में मानव जातियों का विस्तार इसी अमूरकोट स्थल एवं आफ्रिका में विक्टोरिया झील प्रदेश स्थल से होना प्रमाणित है. अत: अमूरकोट कोइतुरों के दाई-दादा का जन्म स्थल है.

जब कोयामूरी व्दीप आफ्रिका जंजीबार तट से जुड़ा था तब नर्मदा ताप्ती नदी का प्रदेश भूमध्य रेखा के पास था. यहाँ भू-मध्य रेखीय जलवायु थी. करोड़ो वर्षों तक यहाँ अत्यधिक वर्षा होती थी. सघन एवं ऊचे-ऊचें वृक्ष थे. घनघोर जंगल थे. इन जंगलों में विशालकाय शाकाहारी डायनासोर निवास करते थे. करोड़ों वर्ष पूर्व भूमि का विसपर्ण (सरकाव) शुरू हुआ तथा कोयामुरी व्दीप का सरकाव शुरू हुआ और अब नर्मदा ताप्ती का प्रदेश २२/१.२ अंश उत्तर पूर्व की ओर सरक गया. तब आमूरकोट कर्करेखा पर स्थित हो गया. इसी अमूरकोट स्थल के जबलपुर शहर की पहाड़ियों में डायनासोर के अनेक अंडे भू-गर्भवेताओं व्दारा माँह जनवरी २००७ में खोज निकाले गये हैं. अंडों का जीवाश्म मिलना प्रमाणित हुआ कि अमूरकोट की सभ्यता कोयतुर सभ्यता है जो कालांतर में हडप्प सभ्यता बन गया.

सिंधु हड़प्पा सभ्यता का विस्तार

सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता में भवन निर्माण योजना, नालियों के निर्माण, स्नानागार का निर्माण ईटों, मिट्टी के बड़े-बड़े घड़े, आयुधों, आभूषणों, मुद्राओं एवं मापतौल के वस्तुओं में लगभग एकरूपता पाई जाती है. गुजरात में उपरोक्त वस्तुओं में समानता पाये जाते हुये भी कुछ नये सामग्रियाँ प्राप्त हुये हैं. १९२१ ई. तक मिश्र नदी, नील नदी की प्रभुता एवं दक्षता उपरोक्त नदियों की समानता से मेसापोमिया को विश्व की उत्कृष्ट नगरीय सभ्यता में गिना जाता था, किन्तु. १९२१ में हडप्पा की खोज राय बहादुर दयाराम साहनी ने एवं १९२२ में मोहन जोदड़ो का राखलदास बनर्जी ने खोज की. इससे तीसरी शताब्दी के महान सभ्यताओं की खोज हुई. सौराष्ट्र के रैगपुर में भी इसी सभ्यता की कड़ी पाई गयी तथा राजस्थान और बहावलपुर में भी नगरीय सभ्यता के उत्खनिज सामग्रियां प्राप्त हुई.

आजादी के बाद १९४७ में लोथल, रोपड़, कालीबंगा, वर्णावलीकक, धौलाकीटा में भी उत्खनन से नगरीय सभ्यताओं के अवशेष मिले. उधर पाकिस्तान में सिंध प्रांत में कोटदीजी, गामनवाला, गावेरीवाला में भी सिंधु सभ्यता के स्थलों की सामग्री मिली.

भारतीय प्रायव्दीप के सुदूर उत्तर में पंजाब प्रांत के रोपड़ को ही उत्तरीसीमा कहा जाता था. खोजों से गुमला सरायखोला नामक पाकिस्तान के स्थल उत्तरी सीमा मानी हैं. नर्मदा घाटी में मेधम, हरेलोद एवं गवभाव तथा तापती नदी के निचली घाटी में मालवण (जिला सूरत) समुद्र सीमा से लगा हुआ है. दक्षिण में महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के संगम पर दाइमाबाद इस सभ्यता की उत्तरी सीमा जम्मू में स्थित मांण्डा तथा जमुना नदी की सहायक नदी हिण्डन नदी के किनारे आलमगीरपुर (जिला मेरठ, उत्तरप्रदेश) इसकी पूर्वी सीमा है. यह सभ्यता पश्चिम में मकरान के समुद्री तट करांची से लगभग पचासी कि.मी. पश्चिम में स्थित सुत्कागेंडोर तक विस्तृत है.

पश्चिम में सुत्कागेंडोर से पूर्व में आलमगीर तक लगभग १८०० कि.मी. है और उत्तर में जम्मू में माण्डा से लेकर दक्षिण में दाइमाबाद तक लगभग १४०० कि.मि. है. इस विस्तृत भू-भाग में विशाल नगर (यथा हड़प्पा सभ्यता मोहन जोदड़ो) कुछ कहके यथा रोपण तथा कुछ ग्राम यथा आलमगीरपुर लोथल समुद्री व्यापार का केन्द्र रहा होगा जबकि मकरान के समुद्रतटवर्ती सुत्कागेंडोर, सोत्काकोह और बालकोट ने बंदरगाहों में पश्चिमी एशिया के साथ होने वाले व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी. हाल ही में तुर्कमेनिया क्षेत्र उत्खनन से स्पष्ट हो गया है कि सिंधु सभ्यता का मध्य एशिया के साथ भी सम्पर्क था. इस तरह सिंधु सभ्यता का विस्तार प्राचीन मेसापोटामिया, मिश्र तथा फारस के प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र में कहीं अधिक था. यदि सभ्यता के विस्तार क्षेत्र को संस्कृति ही नहीं माने जाएँ तो रोमन साम्राज्य से पहले विश्व में शायद ही इतना विशाल राज्य कहीं रहा हो.

पुराविदों ने इस सभ्यता के कुछ नाम सुझायें हैं तथा सिंधु सभ्यता के कुछ नाम सुझायें हैं या सिंधु सभ्यता, भारतीय सभ्यता, वृहत्तर सिंधु सभ्यता, सरस्वती सभ्यता, सिंधु सरस्वती पुरातत्व की परम्परा के अनुसार सभ्यता का नामकरण उसके प्रथम ज्ञात स्थल के नाम पर किया जाना चाहिये. इसलिये इसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी अभिहित किया जाता है.

नर्मदा ताप्ती एवं गोदावरी नदियों के कछार में चांवल की कृषि करते हुये, क्रमशः उत्तर की ओर गेहूं उत्पादन के लायक वातावरण वाले क्षेत्र तथा कपास उत्पादन वाले क्षेत्र एवं गुजरात सौराष्ट्र एवं पंजाब सिद्ध की ओर सभ्यता विकसित हुई. चूँकि गोदावरी घाटी के गोंडियन लोग चावल का उपयोग मुख्य भोजन के रूप में करते रहे. इसलिये वस्त्र के लिये सौराष्ट्र को चुना. गेहूँ सिंधु घाटी में उपजाने लगे और अधिक मात्रा में उत्पादन होने से इसका भण्डारण भी करते रहे. अब चूँकि मध्य एशिया के लोंगों का मुख्य भोजन गेहूं तथा अन्य वस्तुओं का लोथल, मकरान, बालाकोट बंदरगाहों से समुद्र मार्ग से व्यापार करने लगे. मध्य एशिया में कड़ाके की ठंड से अनाज उत्पादन नगण्य होने लगा. गेहूं की रोटी की खुसबू आर्यों को सिंधु घाटी की ओर बढ़ने के लिये एवं इसे प्राप्त करने के लिये मजबूर कर दिया. व्यापार एवं उन्नति, वैभवशाली नगर के सीधे लोग, मेहमानों की आवगमन की प्राचीन व्यवस्था ने सभ्यता को समूल नष्ट करने का मार्ग प्रशस्त किया. किन्तु अब कुछ लुटाकर साहित्य, संस्कृति को स्वाहा होता देखकर अदम्य साहस का परिचय देते हुये हमारी माताओं ने हमे पुनः स्थापित किया. हमे अपने छाती का दूध पिलाया. यही दूध गोंडवाना संस्कृति का सबसे बड़ा गोंडवाना का कर्जा है. इसे ही चुकाने के लिये हम मामा-फुफूँ में शादी-ब्याह स्थापित करने, दूध का कर्ज उतारते हैं. माताओं ने जो हमारी पालन-पोषण, सेवा की है, इसलिये उनको इस सेवा की हम जय जयकार करते हैं. जय सेवा कहते हैं.

हड़प्पा सभ्यता के सुदूर दक्षिण में गोदावरी तट पर पूरा स्थल दाईमाबाद है, जो की वस्तुतः दाऊमाँबाद है. यह अपभ्रंश होकर प्रचलित है. दाऊ याने पिता, माँ याने माता, बाद याने स्थल अर्थात माँ-बाप का स्थल. हमारे पुरखा लोगों का स्थल. हमारे लिंगों जंगों का यही स्थान है. हम कोयावंशी हैं. कोयतुर हैं. माँ की कोख से उत्पन्न हुये हैं. हम अपने दाई के वीर हैं. दाईनोरवीर हैं. जो अब अपभ्रंश होकर द्रविड़ हो गया.

सुदूर उत्तर में जम्मू के पास माण्डा नामक स्थान है, जिसको गोंडी में आशय हिंसक पशुओं की गुफा होता है. मुमला का आशय नीलकंठपक्षी होता है तथा अवरकोट का आशय हल के निचे चीपा के रूप में लकड़ी का गढ़. इसका भावार्थ- गुफाओं में निवास करने वाले कोयावंशियों ने शिकारी व्यवस्था को छोड़कर कृषि कार्य किया और विपुल उत्पन्न प्राप्त किया, जो की नीलकंठ पक्षी की तरह बेजोड़ है. पूर्वी भाग में ‘आलमगीरपुर’ है, जो की हिन्डन नदी के पास है. इसका आशय- यहाँ पर पहाड़ी इलाके में आलू की खेती अच्छी होती है.  पश्चिम भाग में ‘मकरान’ नामक स्थान है. इसका आशय- यहाँ के उथले सागर तट एवं नदियों में छोटी एवं बड़ी मछलियाँ प्राप्त होती रही है.

क्या हड़प्पा संस्कृति गोंड़वाना संस्कृति है ?

संस्कृति का आशय सभाकृति अच्छे कार्य से हैं. वे कौन-कौन से अच्छे कार्य हैं अथवा कार्यकलाप है, जिनसे कोई सभ्यता उत्कृष्टता की सीढ़ी को प्राप्त करता है, ऐसे अनेक पहलुओं पर विश्लेषण आवश्यक है. इनसे यह प्रिपादित होगा कि क्या हड़प्पा संस्कृति या हड़प्पा सिंधु सभ्यता गोंडवाना संस्कृति के समान हैं ?

अब तक प्रचीन पुरातत्वविदों के अध्ययन से मोटे तौर पर जो सिंधु/हड़प्पा लिपियाँ प्राप्त हैं, उनसे सभी ने सही निष्कर्ष निकला है, कि यह दक्षिण पूर्व की लिपि है, किसी ने भी यह साहस नहीं दिखाया कि इस लिपि को गोंडी में उद्वाचित किया जाता है. इस दिशा में डॉ. मोतीरावण कंगाली की कृति-‘सैधवी लिपि की गोंडी में उद्वाचन’ एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ है. अब हड़प्पा की लिपि को गोंडी में उद्वाचित कर पढ़ा जा सकता है. तब निःसंदेह द्रविण पूर्व की भाषा, गोंडी है, जो कि आज भी प्रचलन में है. अत: हड़प्पा संस्कृति गोंडी-संस्कृति ही कही जावेगी.

नगर विन्यास एवं स्थापत्य

हड़प्पा सभ्यता के नगर विश्व के प्राचीनतम सुनियोजित नगर हैं. अधिकांश नगर सुरक्षा दीवारों से चारों ओर घिरे हुये थे, ऊचें स्थान को जिसे गढ़ी कहते हैं, गोंडी में आज भी प्रचलित भाषा में टिकरापारा कहा जाता है तथा इसके निचले नगर को खाल्हेपारा से संबोधित किया जाता है.

नगर तथा नगर में घर/कमरे निर्माण में वायु प्रकाश, नाली, सड़क की सुविधा को ध्यान में रखा गया है. सडकें १० मीटर चौड़ी मिली है. नगर/घर में स्नानागार महत्वपूर्ण है. तदनुसार गंदे पानी की निकासी के लिये नालियां बनी हैं. मकान में अनाज रखने की कोठियां बनी है. गंदे पानी के नालियों से बहने की व्यवस्था सिंधु सभ्यता में अत्यंत सुन्दर ढंग से किया गया है. ऐसा उदाहरण विश्व में इस सभ्यता के बाद शताब्दियों तक नहीं मिलतें है. लोग साफ सफाई पसंद के थे. हड़प्पा में अन्न भंडारण की कोठियां तथा अनाज को कूटने एवं पीसने की व्यवस्था रही है. आज भी गोंड समुदाय के लोग सामूहिक रूप से अनाज लूटने के लिये घर में विषेश प्रकार “ढेंकी” का उपयोग करते हैं. पीसने के लिये “जाता” का उपयोग करते हैं “मुसल” एवं “बाहना” का उपयोग व्यक्तिगत/अकेले व्यक्ति के व्दारा अनाज कूटने के लिये अभी भी किया जाता है. किन्तु मशीन युग में अब यह प्रथा समाप्त हो रही है. मोहन जोदड़ो में सार्वजनिक विशाल स्नानागार जो कि लगभग ५५,३३,२३३ मीटर के माप के हैं. ऐसा जलाशय गोंडवाना में चन्द्रपुर, सिंगौरगढ़, देवगढ़, नामनगर (मोतीमहल) आदि में आज भी स्थित है. नौशेरों चहुदड़ों में ईंट पकाने की बड़ी-बड़ी भट्टियां मिली है. लोथल में बंदरगाह, अन्नागर, जहाजों में सामान लादने की गोदियां मिली हैं. धौलावीरा में अनेक कुएं एवं विशाल जलाशय बने हैं जैसा कि- रायपुर का बुढातालाब, भोपाल सागर और आधारताल. गोंडवाना में धार्मिक अनुष्ठान एवं पेयजल व्यवस्था हेतु कुएं तालाब बनाने की परंपरा थी. धौलावीरा, सुरकोटला एवं अलीबंगा में राजा, मुखिया, पुजारी, अधिकारी रहा करते थे, जैसा कि धौलावीरा के लेख जो कि दस शब्दों के उद्वाचन से प्रतीक होता है. इसके भवन सुरक्षित एवं संरक्षित बनाये गये हैं. वणावी में व्यपारी वर्ग के लिये विशेष मकान, व्यापार, व्यवसाय की व्यवस्था करने वाले अधिकारी के माकन भी बने है.

पाषाण मूर्तियाँ

मोहन जोदड़ो में जो पाषण मूर्तियाँ मिली है, उन्हें लेखकों ने पुरोहित/पुजारी कहा है. वस्तुतः वे कोइतुर राजा हैं, जिसके चेहरे चौड़े, होठ मोटे, नाम चपटा, आँखे, खुली हुयी भाषा है. दाहिने बांह में एवं माथे में सिक्का/सील बंधा है, जो कि अलंकरण सामाग्री नहीं हैं. इसके पद प्रतिष्ठा के अनुकूल यह पट्टी सिक्का नुमा बंधा हैं. गोलतीर पत्तियों वाली छाप की किनारी का शाल ओढ़े हैं, जो बाएं कंधे को ढंका हुआ है. चेहरे का भाव किसी प्रश्न के उत्तर देने की प्रत्याशा में गंभीरता से प्रश्न को सुन, समझ रहा है तथा किसी प्रश्न का उत्तर देने हेतु या आदेश निर्देश हेतु तत्पर सा है.

हड़प्पा में जो बिना सिर की मूर्ति प्राप्त हुई है वह उपर की गले से उपर पुरुष आकृति एवं गले से निचे स्त्री आकृति की है. संभावना व्यक्त की गई है कि यह शिव एवं शक्ति की सम्मीलित प्रतिमा है. गोंडवाना की जंगो-लिंगों या शंभुशेक की शिव-पार्वती की सम्मिलित अवस्था की मूर्ति है. शंभुशेक इतने शक्तिशाली थे कि वे अपने को अर्द्धनारीश्वर के रूप में नटराज नृत्य करते हुये प्रकट कर सकते थे. यह पितृशक्ति एवं मातृशक्ति का सम्मिलित रूप ही है.

कास्य मूर्तियाँ

मोहनजोदड़ो से कांस्य धातु से निर्मित नग्न स्त्री की आकृति प्राप्त हुई है. जिसका दाहिना हाथ कमर पर अवलंबित है तथा इसमें दो चूड़ी कलाई में एवं दो कोहनी के उपर भुजा पर अलंकृत है. बायां हाथ बाएं घुटने में टिका है. हाथ में कोई पात्र है. पात्र का उपयोग संभवतः नृत्य के उपरांत इनाम या भेटराशी प्राप्त करने हेतु किया जाता होगा. एक हाथ में कोहनी से ऊपर सम्पूर्ण भुजा में चूड़ीयां पहनी है. गले में तीन गुटियाँ वाला कंठहार है. केश पीछे कि ओर गोलाई में बांधकर रखा गया है. माथा चौड़ा, नाम चपटी, होट मोटे आँखे आधी खुली हुयी है. चेहरे पर मुस्कान भाव नहीं हैं. पुराविद मार्शल कहतें हैं- यह किसी आदिवासी युवती का चित्रांकन है.

मिट्टी की मूर्तियाँ

यहां प्राप्त मिट्टी की मूर्तियाँ अलंकृत हैं. घुटने से ऊपर तक पहनावा है. कमर में कमरबंध अलंकृत है. यह पहनावा सुदूर बस्तर के माडिया स्त्रियों की तरह का है. छोटे बच्चों की मूर्तियाँ भी अलगढ़ रूप में मिली है. यह दर्शाने का प्रयास किया है कि माटी कि कोख से बच्चों की उत्पत्ति हुयी है. उन्हें माता ही संरक्षक के रूप में पालती पोसती है, मातृदेवी है. इनके साथ पशु पक्षियों की आकृतियाँ भी प्राप्त हुई है.

मुद्रायें मुद्रा छापे

हड़प्पा एवं मोहन जोदड़ो से जो मुद्रायें एवं शील प्राप्त हुयी है और उनमे जो लिपि लिखी है साथ में चित्र भी दर्शाया गया है. उसके साथ ही गोंड़ी उद्वाचन से यह स्पष्ट हो गया है कि हड़प्पा संस्कृति गोंडवाना संस्कृति है. इसमें शांम शंभु, शंभुशेक, मातृदेवी, फिरकियाँ, पारी कुपार लिंगों की चित्रलिपि अत्यंत महत्वपूर्ण है.

मनकें

पत्थरों को काटकर तराशकर चाहुदड़ों में मनकें बनाये जातें थे. एवं व्यपार किया जाता था. आज भी आदिवासी बहुल ग्रामीण अंचलों में छोटे बच्चों को मनके पहनाये जाते हैं कहीं-कहीं माड़ीया महिलाएं भी मनकें पहनती हैं. अब यह समाप्त प्राय हो गया है.

मृदभांड़

अब तो हम स्टील धातू के बर्तनों का उपयोग करने लगे हैं, किन्तु आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने, पानी भरने में किया जाता था. उन्हें चित्रित भी किया जाता था. कई प्रकार के मिट्टी के बर्तन हड़प्पा सभ्यता में प्राप्त हुये हैं.

औजार

उपयोग के लिये धातु, पत्थर के औजार एवं उपकरण, मिट्टी के उपकरण, हाथी दांत के उपकरण की यह अवस्था आज भी कोयतुर समाज में है.

 वर्तमान ग्रामीण क्षेत्रों में आज परंपरागत ढंग के औजार, कारीगरी, मिस्त्री, बढ़ई, सोनार, सुतार, सोनझरा, जनजातियों के उपकरण, शिकारी जनजाति के उपकरण, बंसोड कंडरा समाज के उपकरण, मछुवारे समाज के उपकरण पाये जाते हैं. हड़प्पा की यह व्यवस्था आज भी कोइतुर समाज में प्रचलन में है.

जाति निर्धारण

मोहन जोदड़ो से प्राप्त कंकालों के परीक्षण में चार प्रकार की जातियां निर्धारित की गई है-
१)                  आध आस्ट्रेलायड- नाटे कद, खोपड़ी सकरी व लंबी, नाक चौड़ी, चपटी ठुड्डी बाहर की ओर निकली हुई, रंग काला, बाल काले घुंघराले. उक्त सभी गुण जनजातियों में पाये जातें हैं, श्रीलंका, की बेड्डा जनजाति इसी वर्ग में आतें हैं.

२)                  भूमध्य सागरीय- खोपड़ियां कुछ लंबी, नाक छोटी व नुकीलीपूर्ण है.

३)                  मंगोलजाति – कोई बाहरी व्यक्ति सैनिक थे.

४)                  अल्पाइन जाति – इनमे से आधे आस्ट्रेलायड व हड़प्पा सभ्यता के जनक थे. दक्षिण भारत में इस प्रकार की जनजातियां आज भी निवासरत है. वर्गभेद में नगर के गढ़ी में शासक वर्ग तथा निचले सागर में सामान्य जन रहते थे.

राजनैतिक सत्ता

मोहन जोदड़ो, हड़प्पा एवं धौलावीरा सभ्यता के प्रमुख नगर एवं राजधानियाँ रही है धौलावीरा से प्राप्त दस अक्षरों के लेख से स्पष्ट होता है कि वो राजधानियों का शासक/राजा का यह नगर है. इतिहासकार कुषाण वंश का नामकरण क्योंकर किये हैं, छठवी शताब्दी के पूर्व सोलह जनपद का पाया जाना, कुषाणवंश की दो राजधानी पेशावर एवं मथुरा, मौर्यवंश के सम्पूर्ण भारत में प्रमुख सम्राट अशोक का बैल व शेर की आकृति वाले पत्थर की चिन्ह यह सभी बातें स्पष्ट करती है कि इतिहास विशेषकर प्राचीन भारत के इतिहास लेखन में हड़प्पा संस्कृति को जोड़कर नहीं देखा गया है. बाहरी आक्रमण से हडप्पा के लोग भागकर कहाँ गये ? विश्व की एक मात्र नगरीय सभ्यता कहाँ विलुप्त हो गई ? इसी बात को इतिहासकार नहीं बता पाये है. जबकि कुषाण का पुत्र सांढ़, सोलह्त्र नौ, अठारह जनपद, अठारह भाइयों का गढ़ सम्राट अशोक चिन्ह का बैल, मौर्य का मुरा (पह्यों की धुरी) या पहिये की धुरी पर आश्रित सोलह नाग आरे, यह सभी शब्द हड़प्पा के पशुपति की ओर इशारा करते हैं, हड़प्पा संस्कृति है. इसे इतिहासकारों ने स्वेच्छा से जानबूझकर सत्तासीन लोगों के विरोध की वजह से बदल दिया गया है, परिवर्तित कर दिया गया है. यह क्यों बदला गया है ? यह शोध का विषय है.

धार्मिक विश्वास और अनुष्ठान

गोंडवाना संस्कृति में मंदिर नहीं होता है. हडप्पा संस्कृति में भी देवालय,  मंदिर नहीं पाये गये हैंसल्ले गागरां के पुजारी बड़ादेव, मातृदेव के उपासक हडप्पा सभ्यता के लोग संभवतः चैत्र नवरात्र एवं अक्षय तृतीय जैसे पावन पर्व पर सूर्योदय से पूर्व एक साथ सम्पूर्ण नगरवासी स्नान कर सकें, ऐसे स्नानाकर बनाये गये थे.

हडप्पा सभ्यता के लोग वृक्ष पूजा करते थे. पशु पूजा पशु बली देते थे गोंडवाना में साजा वृक्ष में बड़ादेव की स्थापना व पूजा की जाती है.

आर्थिक जीवन

हडप्पा सभ्यता के लोग कृषि कार्य करते थे. पशुपालन करते थे. मछली पालन बदख, मयूर का पालन करते थे. मुख्य रूप से अनाज कपास, कपड़े सूत का व्यापार करते थे. महिलाएं आभूषणों लगे में मनके की माला पहिनते थे, जैसे की आज भी बैगा जनजाति की महिलाएं पहनती है. आमोद-प्रमोद के साधन में पासे का खेल, गोलियों का खेल खेला जाता था. मनोरजन हेतु मांदर, ढोल, बजाकर नृत्य गायन किया जाता था. आज भी बस्तर के सुदूर अंचलों में मांदर एवं ढोल की थाप पर नृत्य किये जाते हैं. आज भी हम गौरा-पार्वती के विवाह को मनाते हैं. गौरा शिव की सवारी बैल एवं गौरी की सवारी कछुआ बनाकर गोंडवाना संस्कृति में धारण किये हुये हैं.

शव वित्सर्जन

मोहन जोदड़ो में शवों को जलाये जाने का बोध नहीं होता है. किन्तु हडप्पा में गोंडवाना के रीतिरिवाज अनुरूप शव का सिर उत्तर की ओर व पैर दक्षिण की ओर रखकर पीठ के बल लिटाया जाता था तथा सिर एक तरफ पूर्व की ओर मुड़ा हुआ होता था. इसके अतिरिक्त एक क्रम से शवों को क्रमशः दफनाया गया पाया गया. संभवतः यह किसी गोत्र विषेश के लोगों का कब्र हो. शवों के सिर के पास ही मिट्टी के पात्र पैर की तरफ दिया या दीपक रखे पाए गये हैं. बर्तनों के खाद्य सामग्री, मृतक के दैनिक उपयोग की वस्तुएं, चूड़ी, अंगूठी मनकेहार आभूषण मिले हैं. शवों को जलाने की प्रथा आर्य लोगों की मुख्यतः है, ऐसा लगता है. आर्य जन यहाँ आकर बस गये व्यपार आदि मोहनजोदड़ो से करने लगे.

सभ्यता का अंत: सभ्यता का संस्कृति के उदभव एवं पतन ठीक-ठीक कारण ज्ञात करना अत्यंत कठिन है. अनेक कारण हो सकतें हैं. यथा प्रकाशनिक शिथिलता, व्यापार की अवनति, नैतिक पतन, वनों की कटाई, जलवायु में परिवर्तन, नदियों का मार्ग बदलना, भीषण बाढ़, जलतल का ऊपर उठना, समुद्र तटीय भूमि का ऊपर उठना, बाहरी आक्रमण आदि. आर्य. लोग एशिया माइना के अजखेन नामक स्थान में निवास करते थे. ऋग्वेद की रचना व्दितीय शताब्दी के मध्य हुयी. वीलर के अनुसार- सिंधु सभ्यता के विनाश के लिये आर्ये को उत्तरदायी मानते हैं. पतन लम्बे समय तक क्रमशः और विनाशक था. हडप्पा की पहचान ऋग्वेद के हरियूपिया नगर के मान्य की जाती है.
अंत में वे प्रमुख कारण या सार जिससे हडप्पा संस्कृति को गोंडवाना संस्कृति कह सकतें हैं-

·       १. वे लोग देवी देवता की पूजा करते थे.

२. वे लोग माता शक्ति के पुजारी थे.

३. वे लोग शिवपशुपतिनाथ (बड़ादेव) के उपासक थे.

४. वे लोग सल्ले गागरां की पूजा करते थे, शिवलिंग पूजा करते थे.

५. वे लोग विषेश आसन लगाकर पूजाकार्य में बैठते थे. योगसन जानते थे.

६. वे लोग पूजा के पूर्व माता सेवा के लिये सामूहिक स्नान किया करते थे.

७. वे लोग विभिन्न देव, देवी शक्ति के लिये अलग-अलग ध्वज/झंडे का उपयोग करते थे.

८. वे लोग पृथ्वी के दायें से बायें घूमने एवं सिंधुलिपि दायें से बायें की प्रथा के प्रतीक हेतु “फिरकी चक्र” चिन्ह दाहिने से बायें ओर घूमता हुआ, उपयोग पूजा स्थल पर करतें थे.

९. वे लोग बिदरी प्रथा, ब्याह करने कि पूजा रात में, बिना वस्त्र धारण करते थे जैसा की बैगा समाज में आज भी प्रचलित है.

१०. वे लोग पशुओं का सम्मान करते थे. सांडिया सृश्य आदर करते थे.

११. वे लोग पूजा कार्य अनुष्ठान में पशुबलि एवं कहीं-कहीं, कभी-कभी युद्ध में नरबलि भी देते थे.

१२. वे लोग वृक्षों की पूजा करते थे. यथा साजा वृक्ष में बुढादेव की स्थापना, सेमर वृक्ष में पारी कुपार लिंगों की स्थापना.

१३. वे लोग ताबीज को रक्षा कवच के रूप में धारण करते थे.

१४. वे लोग शक्ति की पूजा करते थे. नवरात्रि आदि में अग्निकुण्ड बनाकर अस्कनी पूजा करते थे.

१५. वे लोग बाघों के पुजारी थे. तीन बाघों को एक-एक करके चित्रण किये. सारनाथ सम्राट ने अपना राज्य चिन्ह बनाया. अशोक चक्र का बाघ छैदैया “जगत” का पशुओं के रूप में इष्टदेव होता है. अत: नाम भी बाघदेव, बघधरा गोंडवाना में रखा जाता है.

१६. वे लोग अपने घर की छत को नुकीला बनाते थे तथा घर के बीच में आंगन और चारो तरफ, मकान बनाते थे. गोंडवाना की यही परंपरा है.

१७. वे लोग गढ़ी के चारो ओर ऊंची दीवारों से घेरकर बनाते थे. जैसा कि सिंग्रामपुर का      दलपतशाह के सिंगोरगढ़ का किला.

१८. वे लोग सामूहिक स्नानागार बनाते थे. जैसे चन्द्रपुर तथा गोंडवाना के राजधानी में बने स्नानागार.

१९ वे लोग परिवहन के लिये बैलगाड़ी का प्रयोग करते थे.

२०. वे लोग हाथी पालते थे. रानी दुर्गावती की सफेद हाथी “सरवन” मुगल गोंडवाना युद्ध का का एक कारण बना था.

२१. वे लोग बांह पर चूड़ी पहनते थे. राजस्थान के मीना जनजातियों में प्रचलित है.

२२. वे लोग बच्चों को मनके, कौड़ी, आदि पहनाते थे. आज भी गोंडवाना में पहनाया जाता है.

२३. वहाँ की स्त्रियां घुटने तक का कपड़ा लपेटकर, साड़ी, कपड़ा पहनती थी. अधोभाग खुला होता था, आज भी बस्तर में प्रचलित है.

२४. वे लोग केश सज्जा हेतु ककई, ककवा (कंघी) का उपयोग करते थे. आज भी ककई, ककवा (कंघी) प्रचलित है.

२५. वे लोग घड़ों पर चित्रकारी करते, आज भी गौरा पूजा में कलस को चित्रकारी से सजाते हैं.

२६. वे लोग शवों को दफनाते थे. सिर उत्तर एवं पैर दक्षिण में. गोंडवाना रीतिरिवाज अनुसार सिर को थोड़ा सा पूर्व की ओर घुमाकर दफनाते हैं.

२७. वे लोग केश विन्यास में बालों का खोपा बनाते थे, जो कि आज भी बस्तर एवं उड़ीसा में प्रचलित है.
२८. वे लोग कमर में करधनी पहनते थे. आज भी करधनी का रिवाज है.
२९. वे लोग देव पुजारी को सिरमौर से सजाते थे. आज भी सुदूर बस्तर में नर्तक दल के नायक गौर के सींग से सिंगमौर बनाकर पहनते हैं.
३०. वे लोग नृत्य करते समय मांदर का उपयोग करते थे. यह वाद्य यंत्र आज भी झारखंड, मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़ के बस्तर आदि विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित है.
३१. वे लोग मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते थे. आज भी खाना बनाने, रोटी बनाने, झकने के बर्तन-तवा, तलई, परई, गघरी, गंगार, कुडेरा, हांड़ी प्रचलित है.
३२. वे लोग शवों को दफनाते समय उसके साथ हंडी में भरकर खाद सामग्री एवं जरूरत की चीजें रखते थे. आज भी रखते हैं.
३३. वे लोग अपने कान में छेद कराते थे. पुरष लुरकी या स्त्रियां खिनवा (कर्णफूल) पहनती थी.
३४. वे लोग सेमल से वृक्ष के देवता की पूजा करते थे. इस अवसर पर नृत्य भी करते थे सर्व सगा समाज मानते थे. उनके सभी अपने ध्वज होते थे, जिन्हें हम सप्तरंगी ध्वज कहते हैं.



साभार अभिनंदन ग्रन्थ