अपने संवैधानिक हक और अधिकारों के लिए तीर धनुष तानते शांतिप्रिय आदिवासी |
सरकारें राज्य और देश की प्रशासन व्यवस्था संभाल रहे हैं तथा पुलिस और न्यायवादी संस्थाएं शान्ति, सुरक्षा और न्याय दिलाने में व्यस्त हैं. देश और राज्यों के प्रशासन में टांग खिचाई, संसद और विधान सभा में गाली गलौच, मारपीट, तोड़ फोड़ के होते हुए भी शान्ति, सुरक्षा और न्याय व्यवस्था कायम हैं. सरकार के मुखियाओं के भाषणों के माध्यम से विकास और जीवन की मूलभूत योजनाएं और सुविधाएं जन जन, गाँव गाँव तक पहुँच रही है, किन्तु वास्तविकता की पुष्टि तो गाँवों में जाकर ही की जा सकती है.
इस देश के प्रगतिशील शहरों से दूर कस्बों, अंचलों में विभिन्न वर्ग समूहों के मानव समाज निवास करते हैं. उसी तरह दूरस्थ मैदानी वनों, पर्वतों, पहाड़ों में इस देश के लगभग सम्पूर्ण आदिवासी समाज की जनसंख्या निवास करती है. उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक परिवेश सशक्त किन्तु, शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्ध पेयजल आदि मूलभूत सुविधाओं से दूर हैं तथा आर्थिक परिस्थितियां अत्यंत कमजोर होने के बावजूद भी धैर्य के साथ, संतोष, शान्तिपूर्ण एवं प्रकृति संगत जीवन यापन कर रहे हैं.
स्वतंत्रता के सत्तर साल बाद विकास की रफ़्तार शहरों से गांवों, कस्बों, जंगलों, पहाड़ों की ओर बढ़ रही है. सुकून मिलता है यह सुनकर और जानकर कि सरकार अपने विकास के मिशन को लेकर जन जन तक पहुंचने का प्रयास कर रही है तथा पूरा प्रशासन तंत्र योजना व कार्यों को लेकर सरकार के साथ कदमताल कर रही है.
अभावों में जीने वालों के मन में "मन की बात" सुनकर आशा जगी है. अब वे गाँव की गली, टूटते घर, खेत की बंधियों (मेंड़) को श्रमदान से ठीक करने की मानसिकता छोड़ चुके हैं. वे सुन चुके हैं कि अब मुफ्त में मुख्यमंत्री, प्रधानमन्त्री ग्राम सड़क योजना से सड़क बनने वाले हैं. मुख्यमंत्री, प्रधानमन्त्री आवास योजना से उनका पक्की घर बनने वाला है. मेंड़ बंधान योजना से उनके खेत का मेंड़ सुधरना है. नल जल योजना से झिरिया के गंदले पानी से मुक्ति मिलेगी. खाद्यान्न योजना से मिलने वाले एक दो रूपये किलो चांवल, गेहूँ, चना, तेल और नमक से उनका पेट भर जाएगा. जंगल पहाड़ों के काँटों, कंकर पत्थरों से बचने के लिए चरणपादुका, पहनने के लिए लुगड़ा, पोल्का, ओढ़ने बिछाने के लिए चादर, कम्बल, बरसात के लिए छतरी, पढने जाने वाले बच्चों के लिए साइकल, कापी, पुस्तक, बस्ता, मोबाईल, लेपटॉप आदि. खेती के लिए मरहा बैला जोड़ी, दूध के लिए खरटी टाली गाय, इन सबका पांच साल के पांच साल जुगाड़ होते रहेंगे. क्या इसी तरह जंगल के साथ साथ जीवन साधनों का जुगाड़ होते रहेगा और वे विकास की धारा में जुड़ते रहेंगे ?
इन भोले भाले लोगों की सोच एकदम सटीक और सीधा है. अटल विश्वासी हैं. बाहरी परिस्थितियों से जूझे नहीं. धैर्य और संतोष इनका सबसे बड़ा जीवन का अस्त्र शस्त्र रहा. जल, जंगल और जमीन इनके जीवन के पुरखौती साधन रहे. अपने पुरखों की गौरवपूर्ण प्रकृति संगत संस्कृति के साथ, जीवन का अंधियारा उजियारा तलासते, संवारते और अंत में अपने इन्ही धर्म धरा की मिट्टी में विलीन हो जाते हैं.
शहरों से गांवों की ओर बढ़ता हुआ वर्तमान विकास रुपी सुनहरा दानव, आज उन्ही की छाती पर मूंग दल रहा है. इस विकासवादी स्वप्नों के चेहरे का स्वरुप देखकर उनके पैरों के नीचे का जमीन खिसकने लगा है. इस विकास रुपी चेहरे का स्वरुप इतना विकराल और जीवन विनाशक होगा, ऐसा उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था. आज पूरे देश में ही नहीं दुनिया के आधुनिक विकास रुपी चक्र की चक्की में इन भोले भाले लोगों का जीवन पिस रहा है. विकास के स्वप्नदृष्टा सरकारों से इस आदिम जीवन विनाशकारी चक्की को ऊर्जा मिल रही है. देश का विकास पथ उनके जीवन को रौंदते हुए आगे बढ़ रहा है. ज़माना और जमाने के लोग इस विकास के जीवन विनाशकारी स्वरुप को देखकर भी अनजान बन रहे हैं, तालियाँ बजा रहे हैं, खुश हैं ! अखबारों के काले, पीले, हरे, नीले रंगीन शब्द सरकार की दृष्टि और द्रष्टिकोण सिद्ध कर रहे हैं. ऐसी स्थितियों में हमारी अनपढ़, अल्पबुद्धि में भी अनेक सवाल उभरते हैं, कि इस मानव विनाशकारी विकास से मानव प्रजाति का ही दूसरा संपन्न वर्ग खुश क्यों है ? उनकी इस ख़ुशी का राज क्या है ? विकास के इस विनाशकारी तांडव को देखकर भी मौन क्यों हैं ?
इस देश में पढ़े लिखे, समाज शास्त्री, न्याय शास्त्री, संविधान की व्याख्या करने वाले बहुए हैं. अभी भी देश के आदिवासियों के लिए इन शास्त्रों के शब्द काले अक्षर भैंस बराबर हैं. इनके सामने कितना ही विकास का शास्त्रीय सुर से गायन किया जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता. संकल्प के लोहे पर दौड़ता विकास का एक्सप्रेस अपनी पटरी पर भैंसों की भीड़ देखकर रुकने वाला नहीं है. बिना ब्रेक वाला विकास का एक्सप्रेस रेल अंधी रफ्तार से ऊबड़ खाबड़ तबेलों की ओर बढ़ रही है. लोग हैं कि अपना उजड़ा हुआ तबेला भी छोड़ने को तैयार ही नहीं. कारण साफ़ है कि इन तबेलों में भी रूखी सूखी जिन्दगी के अरमान फल फूल रहे हैं. वही छिन जाएगा तो भटकती आत्मा बनके रह जाएंगे, जैसे आज तक देशी विकास के थपेड़े खाकर करोड़ों लोग. आत्माएं भटकते हैं, ऐसा हमने सूना है, किन्तु यहाँ तो ज़िंदा इंसान और लाशें दोनों भटक रहे हैं !!
क्यों भटक रहे हैं ? इसका समाधानकारक उत्तर तक पहुँचने के लिए आदिवासियों को अपने पुरखों के धरातल के इतिहास को झांकना जरूरी है. सामाजिक जीवन, स्वाभाव, संस्कृति, धर्म, जीवन दर्शन के आईने में भी झांकर देखना होगा. अपने पुरखों से मिला ज्ञान, गुलामी मानसिकता से हटकर, अपनी बुद्धि का विवेकपूर्ण स्तेमाल और तर्क करना होगा. स्वर्गवासियों के ग्रंथों की कथा से हटकर अपने धरातल की खोज करने का प्रयास करना होगा. तभी आदिवासी समाज इनके मीठे बोल के पीछे छिपे ऐतिहासिक कातिलाना रहस्यों को समझ पाने में समर्थ हो पाएंगे.
प्राचीन इतिहास में आर्यों और अनार्यों के बीच जितने भी संघर्ष हुए वे सब धन, धर्म और धरा पर अधिसत्ता के लिए ही थे. उनके वंशज अभी भी इनको प्राप्त करने के लिए शाम, दाम, दंड, भेद, छल और बल से किसी भी हद तक जा सकते हैं और जा ही रहे हैं. इतिहास गवाह है, यहाँ आर्यों का कोई जन, धन, धरती और धर्म नहीं था. इस धरा के माता बहनों से ही अपना वंश वृद्धि किए. प्राचीन काल से लेकर अब तक भी अनार्यों के प्रति आर्यों के मन की घृणा गई नहीं है. द्वेष और बदले की भावना अभी भी प्रबल है. वर्तमान में यदि अनार्यों के प्रति उनमें कोई बदलाव आया है तो केवल घृणा, लड़ाई और संघर्ष के तौर तरीकों पर. भगवान, धर्म और राजनीतिक मीठे बोल के पीछे छिपे कातीलाना चेहरे को पढना सीधे साधे लोगों की बस की बात नहीं होती है. आज धर्म और धन उनके पास है. धर्म की वृद्धि की लालसा अभी भी बनी हुई है. मंदिरों के भगवान और धर्म इनके सपनों के उड़ान भरने के माध्यम हैं. धन और धरती की लालसा उनके मन से कभी ख़त्म होने वाला नहीं है. आदिम जनों के जल, जंगल और जमीन में अकूत नैसर्गिक धन संपदा है. इसके लिए आज भी वे किसी भी हद तक जा सकते हैं और जा ही रहे हैं !!
वर्तमान परिवेश में विकासवाद का चेहरा वोट और नोट के राजनीतिक गठबंधन से धरातल पर उतरता है. इस विकासवाद के धरातल पर केवल उन्ही की वोट और नोट के सफ़ेद पोशी, परिवारवाद, समाजवाद, धर्मवाद और जातिवाद की पूरी श्रंखला खड़ी है. छल बल से भरे आदर सम्मान के दो मीठे बोल से प्रभावित अनार्यों के दो चार सिपाही, गिड़ते पड़ते दौड़ लगाकर, इन सफ़ेद नाकाब पाशों की श्रंखला में जाकर खड़े होने के लिए लालायित रहते हैं. उन्हें अनादर और अपमान के वही मीठे जहर पीने पड़ते हैं, जो उनके ऐतिहासिक पूर्वजों को पिलाया जाता रहा. इस ऐतिहासिक सामाजिक भेदभाव और असमानता को नजरअंदाज करना सबसे बड़ी भूल है. आज भी मूल जनों के जीवन की विकट परिस्थितियाँ सबके सामने है. यह विकट परिस्थितियाँ केवल और केवल उनकी ऐतिहासिक दुर्भावना का प्रतीक है. इस धरा के ही मूल जनों के प्रति सदियों से दुर्भावना का जहर भरने वाले नकली नाकाबपोश समाज के हत्यारों से सावधान रहकर, उस दुर्भावना के प्रति संघर्ष के लिए सामाजिक बल पैदा करने की जरूरत है. अपने आत्मसम्मान के प्रति समाज को जागृत करने की जरूरत है. आत्मसम्मान को बचाने के लिए उनकी श्रंखला में गिड़ते पड़ते, दौड़ लगाकर जाकर खड़े होने की आवश्यकता ही नहीं है.
देश और राज्यों के शासन में, सत्ता में, राजनीति में, धन में, धर्म में आर्यों का ही कब्ज़ा है. इसलिए प्रशासनिक संस्थाओं से निकलने वाले आधुनिक विकासवाद की हवा में भी आदिम जन विनाशक छल और बल का मीठा जहर घुला हुआ है. यह विकासवाद की नहीं विनाशवाद की हवा है.
स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा आज तक नहीं देखा गया कि आदिम जनों के विकासोन्मुखी सामाजिक, सांस्कारिक सरोकारों के अनुरूप उनके विकास की नीतियाँ बनाकर संचालित किया गया हो. जिन्हें विकास की जरूरत है, उन्हें ही विनाश के गर्त पर पहुंचाया जा रहा है. विकास के नाम पर क्रियान्वित होने वाले इन जन विनाशक परिस्थितियों को देश के हर आदिवासी राज्यों में देखा जा सकता है. वर्तमान में इन आदिवासी राज्यों में विकास के नाम पर क्रियान्वित किए जाने वाले कार्यों के स्वरुप और जिनके लिए विकास की अवधारणा रची जा रही है, उन्ही के विरोध के स्वरुप को देखकर एक अज्ञानी से अज्ञानी व्यक्ति भी इन विकास योजनाओं के पीछे छिपे भयंकर विनाशकारी चेहरे को पहचान सकता है.
केंद्र की सत्ता से विकासवाद की हवा तेजी से चलती है. राज्यों तक पहुँचती है और राज्य की सरकारें विकास की आधार रचना उद्योग लगाने के लिए सहमती ज्ञापन (MOU) पर हस्ताक्षर करते हैं. प्रचार प्रसार होता है और क्षेत्र की पचान बनने लगती है कि यहाँ उद्योग लगने वाला है. यहाँ के लोगों की नौकरी लगने वाली है. लोगों के आय के साधन बढ़ेंगे तो क्षेत्र के लोगों का विकास होगा. क्षेत्र के लोग गुब्बारे सा फूल जाते हैं. एक अनपढ़ से अनपढ़ और मजदूरी करने वाला व्यक्ति भी सोचता है कि उसे नियमित मजदूरी मिल जाएगा, जिससे वे परिवार का भलीभांति गुजारा कर सकेंगे. इससे ज्यादा वह सोच नहीं पाता, किन्तु जब उद्योग की स्थापना की बारी आती है तो पता चलता है कि यह उद्योग जिनके विकास के लिए लगना है उन्ही के जीवन के आधार जमीन को ही छीन लेती है. जीवन का गुजारा, विकास का सपने देखने वाले लोग ही अपने जमीन से सदा के लिए विस्थापित कर दिए जाते हैं. जमीन का सही मुवावजा भी नहीं मिल पाता है. लोग अपने ही जमीन और घर से बेघर होकर हमेशा हमेशा के लिए ठगे के ठगे रह जाते हैं. यह सरकारी और कारपोरेटिया परिवेश में आमजनों का लूट नहीं तो और क्या है ?
देश और राज्य सरकारों के द्वारा आदिवासियों के विकास के लिए पढ़ाए जाने वाले सिलेबस को समझने में देश के आदिवासी नाकाम रहे हैं. देश के आदिवासियों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास का सिलेबस संविधान में अंकित हैं. सरकारें अनुच्छेद 244(1) एवं (2) के तहत पांचवी एवं छटवी अनुसूची को लागू क्यों नहीं करना चाहती ? वर्तमान में 10 राज्यों अर्थात आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान और तेलंगाना पांचवी अनुसूची के राज्य हैं. इन्ही राज्यों में आदिवासियों के विकास की बदतर स्थिति है. उनको मिलने वाली संवैधानिक मूलभूत सुविधाएं जमीदोह पड़े हैं ! अशिक्षा, खराब पेयजल, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी आदि उनकी जिन्दगी निगलने आतुर है ! वहीँ विकास का दानव उनका जल, जंगल, जमीन निगल रहा है ! बचे खुचे नक्सलवाद के गरल गाल में समा रहे हैं. क्या ऐसे विकासवाद का विनाशकारी मुखौटा आदिवासी समाज के लिए ही पहन रखे हैं भारत के लोक नायक ?
आदिवादियों के हित में इन अनुसूचित राज्यों के एक भी राज्यपाल के द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों और गरिमा का उपयोग आज तक नहीं किया गया ! देश के अनुसूचित क्षेत्रों की ऐसी दुर्दशा के बाद भी महामहिम राज्यपालों की गरिमा को सम्मानपूर्वक चाटेंगे आदिवासी ? क्या सरकारें संविधान में दिए गए उनके अधिकारों से वंचित रखकर उनका विकास करना चाहती है ? क्या कारण है कि सरकारें उनको संवैधानिक हक़ और अधिकारों से परे रखकर उनके समक्ष अपना राजनैतिक मुखौटे में छिपे शैतानी दिल रखने का प्रयास करती है ?
राजनेताओं का एक चलन बना हुआ है. चुनाव जीतकर राजनेता पांच साल तक बेफिक्र, तनखा पाऊ, कमाऊ, ठाठ बाट, मार झोर, उठापटक, तोड़ फोड़, मुफ्त का भोजन, मुफ्त की गाडी, जनता के लिए पिछवाड़ा उघाड़ी की राजनीति चलती रहती है. अगला चुनाव सामने आता है, फिर नेताओं की तंद्रा टूटती है. गाँव गाँव जाकर वोटों की भीख मांगते फिरते है, अपने पाच शाल का एशोआराम एकत्रित करने के लिए ! फिर भोले भाले लोगों को अपने राजनीतिक चाल में फांसने के लिए उनके साथ नकली हमदर्दी बांटने का कार्य किया जाता है. क्या उनकी टूटी-फूटी झोपडी में जाकर उनसे हाथ मिलाना, उनके टूटे खाट में बैठना, उनके हाथ से बने चाय पीना, उनके रूखे-सूखे भोजन चखना, तेंदू, चार, भेलवा खाना, उनके साथ नाच-गान करना, ही आत्मीयता और विकास की सीढ़ी है ? क्या अब ऐसे आत्मीय सम्मान भी आदिवासियों को सरकार और उनके नुमाइंदों से सीखने की जरूरत है ? यदि नहीं तो उन अनपढ़, भोले भाले लोगों के बीच जाकर सरकारों और सरकारी नुमाइंदों का इस तरह से झूठी आत्मीयता दिखाने का नाटक क्यों ??
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