श्री मोहन भागवत, आर.एस.एस. के राष्ट्रीय संचालक द्वारा अहमदाबाद में स्वयं सेवकों को संबोधित करते हुए- "जवानी जाने से पहले भारत हिन्दू राष्ट्र" |
हमारा देश "भारत" किसी धर्म या जाति से प्रेरित नहीं है, जिसे अंग्रेजी में "इंडिया" कहा गया. अधिकतर नेताओं को इस भारत देश को "हिन्दुस्तान" कहते हुए सुना है. भारतीय नेता भी भारत को हिन्दुओं का स्थान "हिन्दुस्तान" बनाने के लिए तुले हुए हैं. हिन्दुस्तान दो शब्दों से मिलकर बना है. हिन्दू + स्थान = हिन्दुस्तान. "हिन्दू" फ़ारसी शब्द है, जिसका अर्थ "गुलाम" होता है. इसका तात्पर्य यह हुआ कि "हिन्दुस्तान" गुलामों का देश है. खेद का विषय यह है कि इस देश पर राज करने वाले नेता तथा तथाकथित संस्थाएं आर.एस.एस. आदि भी अंग्रेजों के बाद की गुलामी को स्वीकार कर लिए हैं तथा अभी तक मुक्त नहीं हो पाए हैं. देश में आर.एस.एस. के राष्ट्रीय संचालक, श्री मोहन भागवत अपने राष्ट्रीय मंचों पर यह कहते थक नहीं रहे हैं कि "जवानी जाने से पहले भारत हिन्दू राष्ट्र, हिन्दुस्तान को बना देंगे हिन्दू राष्ट्र". दलित आदिवासियों की घर वापसी. इसका क्या आशय है ? जो आये दिन भारतीय मीडिया में छपते रहते हैं. दलित आदिवासी तो सदियों से अपने घरों, अपने ही जल जंगल जमीन में बसे हैं, फिर उनकी कैसी घर वापसी ? घर वापसी के नाम पर धर्मांतरण मूल उद्देश्य को परिलक्षित करता है. यह तमाम भारतवासियों के समझ से परे नहीं हैं.
आर.एस.एस. के राष्ट्रीय संचालक, श्री मोहन भागवत के शब्दों में कितनी सच्चाई है, वह उनके वक्तव्यों में नीहित है. किन्तु प्रश्न यह है कि क्या वे गुलाम है ? यदि वे गुलाम हैं तो किसके ? हमारा देश "भारत" है. भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति भारतीय हैं. भारत की मिट्टी में जन्म लेकर, भारत की मिट्टी में खेलकर, भारत के किसानों का अनाज खाकर, भारत राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र (गुलामों का देश) घोषित करना अनुचित है. आर.एस.एस. से शक्ति (Power) प्राप्त करने वाले पार्टियों को इस विषय में गहन चिन्तन करने की आवश्यकता है.
भारत देश में विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय जीवित हैं. इसलिए भारत सर्वधर्म सम्प्रदाय वाला देश है. भारत देश किसी भी तर्क में हिन्दुस्तान या हिन्दुओं (गुलामों) का देश नहीं हो सकता. श्री मोहन भागवत, उनका परिवार और सहयोगी भी भारत देश की धरती में हवा पानी, अनाज ग्रहण कर जीवित हैं. उन्हें केवल भारत के हिन्दुओं (गुलामों) के पक्ष में बखान करना शोभा नहीं देता. उन्हें किसी भी रूप में यह अधिकार नहीं है कि वे भारत के सर्वधर्मी लोगों को हिन्दुओं (गुलामों) की माला में पिरोयें. वे हिन्दू के अर्थ में खुद को गुलाम घोषित कर लें, उसके बाद दुनिया को बताते फिरें कि सब लोग हिन्दुस्तान की गुलामी स्वीकार करें.
आजाद भारत देश में किसी किसी भी धर्मावलम्बी को गुलामी कतई स्वीकार नहीं है. आजादी की लड़ाई सबसे पहले आदिवासी वीर क्रांतिकारियों ने १८५७ के पूर्व से ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़े थे. इन आदिवासी क्रांतिकारियों का इतिहास में अंकन नगण्य हैं. आज जो लोग हिन्दू के अर्थ में अपने आप को गुलाम घोषित कर रहे हैं, उन्ही की चतुराई से आदिवासियों का इतिहास खाली पड़ा है. शहीद वीर नारायण सिंह, वीर शहीद बिरसा मुण्डा, शहीद शंकर शाह, शीद कुंवर रघुनाथ शाह, शहीद गुंडाधूर, शहीद बाबुराव शेडमाके, शहीद तांत्या भामा, शहीद सिद्धू कान्हू जैसे सैकड़ों आदिवासी वीरों की शहादत का इतिहास इन चतूरवर्णों ने लिखा ही नहीं. समाज के साहित्यकारों द्वारा अब पूर्वजों की ऐतिहासिक वीरगाथाओं को लिखकर सहेजा जा रहा है. गढा मंडला मध्यप्रदेश के शहीद शंकर शाह, शहीद रघुनाथ शाह को अंग्रेजों ने दिनांक १८ सितंबर १८५७ को तोप के मुहाने पर बांधकर, तोप से गोले दागे तथा मांश के बिखरे लोथड़ों को उठाने के लिए उनकी पत्नि, परिजनों को आदेश दिया. अंग्रेजों द्वारा छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद, शहीद वीरनारायण सिंह को भी देशद्रोही करार देकर रायपुर, छत्तीसगढ़ के मुख्य चौराहा, जय स्तंभ चौक में दिनांक १० दिसंबर, १८५७ को तोप के मुहाने पर बांधकर तोप चलाये तथा दी गई. लोगों में दहशत बनाए रखने के लिए उनके क्षत विक्षत शरीर को ९ दिन तक फांसी पर लटके रहने दिया. ९ दिन पश्चात दिनांक १९ दिसंबर १८५७ को उनका क्षत विक्षत पार्थिव शरीर परिजनों को सौंपा गया. १८५७ की क्रान्ति में जितनी क्रूर हत्याएं आदिवासी महानायकों की की गई, उतनी क्रूरता देश के किसी अन्य महानायकों के साथ नही की गई.
इन्ही के राज में इस देश के मूल निवासियों, दलितों, आदिवासियों को शूद्रों की संज्ञा मिली. भारत देश के असली देशवाशियों को इन हिन्दुओं (गुलामों) ने जातिवाद के नामपर नीच और घृणित जानकारी फैलाकर उनके पढ़ने लिखने का अधिकार छीन लिए. वे बिना पढ़े गुरु नहीं बन सके. यदि वे अपनी मेहनत और लगन से बिना गुरु के पढकर सर्वोच्चता प्राप्त किये तो उनके अंगूठे काट दिए गए. हिन्दुओं के गुरु, गुरु द्रोणाचार्य के द्वारा गुरु दक्षिणा के रूप में एकलव्य के अंगूठा काटे जाने के करतूत के लिए, हिन्दुओं का धर्म ग्रन्थ गवाह हैं. गुरु द्रोणाचार्य का यह कृत्य गुरु के नाम पर कालिख पोत दिया. फिर भी देश में खेल पुरस्कार, तिरस्कार के पात्र द्रोणाचार्य के नाम से दिया जा रहा है. इसे बंद किया जाना चाहिए तथा किसी दूसरे महानायक के नाम से दिया जाना चाहिए. इनके जितने भी धर्म ग्रन्थ हैं, वे सभी भेद भावों से परिपूर्ण हैं. गुलामी की स्वीकार्यता वाले अपने धर्मग्रंथों का उपदेश देकर, देश के असली रहवासियों को विभिन्न जाति, वर्गों में बांटकर सदियों तक उन्हें गुलाम बनाए रखा. याने गुलामों का गुलाम. यहाँ तक उन्हें जमीन पर थूंकने का भी अधिकार नही दिया. थूंकने के लिए उनके गले में मटके और पदचाप को मिटाने के लिए कमर के पिछवाड़े में झाड़ू बांधा गया. इन गुलाम मानवों ने इस देश के असली मानव को मानव नहीं समझा.
हिन्दुओं ने भारत के धार्मिक इतिहास में अपने ३३ करोड़ देवी देवता खोज डाले. इन हिन्दुओं (गुलामों) को अब किससे डर है ? क्या ३३ करोड़ देवी देवता इनकी रक्षा नहीं कर सकते ? क्या इस देश के मुश्लिम, सिक्ख, इशाई, जैन, बुद्धिष्ठों से डर है ? आदिवासियों से तो इन्हें थोड़ा भी डर नहीं है. लेकिन यही सच है, कि जिससे डर नहीं लगता, उसी का डर होता है. हिन्दुओं को अब डर सताने लगा है, इसलिए इन्हें चीख चीख कर भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की जरूरत पड़ रही है. इसका तात्पर्य यही है कि भारत देश को अंग्रेजों ने गुलाम नही बनाया था, बल्कि हिन्दुओं ने अंग्रेजों के माध्यम से देश को गुलाम बनाए रखा. अंग्रेजों ने इस देश के मूलवंशों को उनका अधिकार दिलाने का प्रयास किया, जिससे सवर्णों की सदियों से चलाई जा रही मनुस्मृति की व्यवस्था चौपट होने लगी थी. सबसे बड़ा आघात इनके जीवन जीने की दिनचर्या पड़ा. चिंतित होकर अपनी दिनचर्या को ठीक करने के लिए अपने हिन्दू ग्रंथों को आधार बनाया गया, जो पाखंडों और भेदभाव से भरा पड़ा है. हिन्दू ग्रंथों में नीहित धार्मिक संस्कारों को जबरदस्ती सभी भारत वासियों पर थोपने का प्रयास जारी है. गीता को राष्ट्रीय धर्मग्रन्थ घोषित करने की इनकी तमन्ना पूरी नही हुई. लगता है इसी का डर इन्हें सता रहा है.
यदि गीता को धर्मग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है, तो देश के अन्य धर्मावलम्बियों और उनके धर्मग्रंथों का क्या होगा ? क्या भारत देश में केवल हिन्दू धर्मग्रन्थ ही सर्वश्रेष्ठ है ? ऐसे अनेक सवाल पैदा हो रहे हैं, जो देश की एकता और अखंडता को छिन्न भिन्न कर सकते हैं. देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए किसी धर्म या संप्रदाय विशेष के धर्मग्रन्थ को सर्वश्रेष्ठ घोषित करना, निरा मूर्खता होगी. देश के विकास के लिए देश का प्रत्येक व्यक्ति जिम्मेदार है. देश के किसी एक धर्म को श्रेष्ठता का तमगा पहनाया जाना किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकता.
इस देश में ऐसे भी लोग हैं, जिनका कोई भी लिखित धर्म या धर्मग्रन्थ नहीं है. वो हैं इस देश के लगभग १० करोड़ आदिवासी, जो इस देश में विदेशी सवर्णों से ज्यादा है. ये सवर्ण "आर्य" कहलाते थे. आर्य अर्थात इस देश में बाहर से आये हुए लोग. जब इन्हें विदेशी होने का डर सताने लगा, तो ये "आर्य" शब्द से परहेज करने लगे. पंडित, ब्राम्हण, हिन्दू कहलाने लगे. पहले इन्हें हिन्दू कहलाने में आपत्ति थी. बाद में स्वीकार कर लिया गया. ब्राम्हण और अंग्रेज इस देश में दोनों विदेशी रहे. फर्क बस इतना है कि ब्राम्हण इस देश में पहले आये और धर्म तथा देश के सम्पूर्ण मानव को जाति, धर्म, वर्णों में बाटकर अपना हित साधन करते रहे. अंग्रेजों ने इस देश में आकर ब्राम्हणी व्यवस्था को साफ़ करने का प्रयास करते रहे. इससे देश में ब्राम्हणों के आधिपत्य पर पानी फिरने लगा. तब ब्राम्हणों ने देश से अंग्रेजों को भगाने का मन बनाने लगे. देश में सुनियोजित आजादी की लड़ाई हुई. देश १५ अगस्त,१९४७ को स्वतंत्र हुआ. उसके पश्चात देश फिर ब्राम्हणों के हाथ में आ गया. फिर से भारत देश हिन्दुओं (गुलामो) का गुलाम हो गया.
गुलामों से गुलामों की मुक्ति के लिए विश्व के महामानव डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने मुक्ति मार्ग के तौर पर भारत के मूल निवासियों को भारतीय लोकतांत्रिक ग्रन्थ "भारतीय संविधान" में पहली बार बराबरी का हक दिया. सार्वजनिक तालाबों में पानी पीने का अधिकार, काला मंदिर में दलितों के प्रवेश का अधिकार, अंग्रेज सरकार के सामने दलित आदिवासियों के लिए वयस्क मताधिकार का अधिकार आदि. सन १९३२ में ब्रिटिश सरकार ने बाबा साहब द्वारा प्रस्तुत दलित आदिवासियों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की घोषणा कर दी थी. गांधी ने मूल भारत वासियों को दिए जाने वाले अधिकारों के खिलाफ अनशन किये, जिसके कारण बाबा साहब अम्बेडकर को पूना पैक्ट में नीहित अधिकारों पर समझौता करना पड़ा. गांधी को देश का राष्ट्र पिता, महात्मा संबोधित किया जाता है. यदि वे राष्ट्र पिता, महात्मा होते तो आजादी के बाद मूल भारत वासियों को उनके उत्थान के लिए दिए जाने वाले अधिकारों के खिलाफ अनशन नही करते.
इस देश के मूल निवासी आदिवासियों ने कभी अपने धर्म की व्याख्या नही की. उनका कोई धार्मिक ग्रन्थ लिखा ही नहीं है. यदि उनका कोई अलिखित धर्म है तो वह केवल "प्रकृति धर्म" है. प्रकृति धर्म का उल्लेख किसी भी मानव के लिए संभव नहीं है. इसलिए आदिवासियों ने प्रकृति के गुणधर्म को संस्कारों के रूप में धारण किया. उनके सांस्कारिक नियम धर्म प्रकृति के अनुगामी रहा है और रहेगा. उन्हें किसी मानव रचित धर्मग्रन्थ ने सांस्कारिक सीख नही दिया, बल्कि संसार के लोगों को संस्कार की सीख दी. आदिवासियों ने हमेशा प्रकृति को अपना जीवन समर्पित करते आया है. प्रकृति में ही सृद्धा और अपने जीवन दर्शन को ढूंडा है, संस्कारों को खोजा है और उसे पाया. उसने जाना कि यदि मनुष्य को प्रकृति के साथ जीना है, तो उसे प्रकृति संगत गुणधर्म को अपनाना पडेगा. समस्त जीवों का संरक्षण और संवर्धन की व्यापकता प्रकृति में नीहित है. प्रकृति किसी भी जीव या निर्जीव के साथ भेदभाव नही करती. इसलिए यह सीख आदिवासियों को जन्मजात मिली है. इसलिए आदिवासी, धर्म के नाम पर मानव से मानव को लड़ाने का कुचक्र नही चलाता, किन्तु विधर्मियों के चक्रव्यू में फंसा हुआ है. धर्मों के माया जाल ने उन्हें लालच दिया और अपने स्वार्थ के लिए वे धर्म ग्रहण किये और करते जा रहे है. यह धर्मांतरण नहीं, धर्म के नाम पर मानवता की ह्त्या है. धर्म के नाम पर धर्म की ह्त्या है. भारत में निवास करने वाले हिन्दुओं को आदिवासियों से धर्म की परिभाषा सीखने की जरूरत है.
नवीन धर्म ग्रहण करने वाले दलित आदिवासी मूलनिवासी यह भी जान लें कि आप हिन्दू धर्म ग्रहण कर गुलाम बनना स्वीकार करेंगे ? हिन्दू धर्म ग्रहण कर लेने से क्या आपको ब्राम्हणों का अधिकार मिल जाएगा ? ब्राम्हणों को मंदिरों में जो अधिकार हैं, वह अधिकार मिल जाएगा ? क्या आप लोग मंदिरों में चढ़ावा के नाम पर पड़े अकूत धन संपत्ति का हकदार हो सकोगे ? क्या आप लोग उनकी बहन बेटियों से शादी विवाह करने का अधिकार प्राप्त कर उनके समकक्ष बैठ सकोगे ? हरगिज नही. हिन्दू कभी मानव को मानवता नहीं, बल्कि केवल धर्म धारण करने का उपदेश देते हैं. जो ब्राम्हण स्वयं मुख से पैदा हुआ है, जिसने क्षत्रियों को भुजा से पैदा किया, जिसने वैश्यों को पेट से और शूद्रों को पैर से पैदा किया, वह भला क्या जाने माँ का कोख क्या होता है. जो स्त्री को भोग की वस्तु समझता है, वह क्या जाने भारत माँ का दर्द क्या है. जो मनुष्य माँ की कोख से पैदा ही नहीं हुआ, वह कभी अपनी संतानों को माँ, बहन की रक्षा का सबक दे ही नहीं सकता. इसलिए इस देश में हमारी माँ, बहन, बहु, बेटियों की इनसे रक्षा नहीं हो सकती. इनके विधान में माँ, बहन, बहु, बेटी नाम की कोई मनुष्य नहीं हैं. इनके लिए ये केवल भोग की वस्तु हैं. बड़े बड़े मंदिरों, मठों, धामों में इनके भोग के साधन देवदासियां अभी भी मौजूद हैं, जो मानवता के खिलाफ है.
आदिवासियों को यह कहने की जरूरत नहीं हैं कि वे आदिवासी है. आदिवासी ही इस धरा का पहला निवासी है, जो आज का आदिवासी है. भौगोलिक स्थिति में आदिवासियों का निवास स्थान भूमंडल का आधे से ज्यादा हिस्सा था, जिसे गोंडवाना कहा जाता था. इसके अंतर्गत भारत तथा समीपवर्ती देश आस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका, एंटार्कटिका, दक्षिण आफ्रिका और मेडागास्कर आते थे. भारत, इस वृहद गोंडवाना भूखंड का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है. इस छोटे से हिस्से में कभी विभिन्न आदिवासी समुदायों के ईशा पूर्व और बाद के कई वर्षों तक लगातार शासन करने के उल्लेख उनके मौखिक किस्से, कहानियों, गीतों और उनके साहित्यों में मिलते हैं.
गोंडवाना को गंडोदीप के नाम से भी जाना जाता है. हिन्दू ग्रंथों में भी इसका उल्लेख जम्बूदीप, भरतखंड के नाम से उल्लेख मिलता है. इन्होने इसे कैसे शामिल किया पता नहीं. इस गंडोदीप में आदिवासी समूह का राजा महादेव को माना गया है, जिसे देवों के देव महादेव कहा गया है. महादेव उनकी योग्यता के अनुसार एक उपाधि है. इन्हें गोंडी में अरुंरूं शंभू और कालान्तर में हर हर महादेव कहा जाने लगा. गोंडी में अरुंरूं शंभू अर्थात गिनती के अस्सी आठ या ८८ शम्भूओं की गाथा का स्वरुप है. इन ८८ शम्भूओं (महादेवों) की गाथा गोंडवाना के भूभाग भारत में निवास करने वाले आदिवासियों के मौखिक किस्से, कहानियों, गीतों और उनके साहित्यों में मिलते हैं. इन ८८ शम्भूओं की गाथा की लगभग १०,००० वर्ष की कालावधि बताई गई है, जो ईशा पूर्व लगभग ५,००० वर्ष तक रही. इन १०,००० वर्षों की कालावधि में प्रथम जोड़ी शंभू-मूला हैं, मध्य की जोड़ी शंभू-गवरा एवं अंत की जोड़ी शंभू-पार्वती हैं. इस तरह शंभू-मूला से शंभू-पार्वती तक ८८ शम्भूओं की गाथा का प्रचालन नीहित है. प्रमुखतः शंभू-मूला, शंभू-गोंदा, शंभू-सय्या, शंभू-रमला, शंभू-बीरो, शंभू-रय्या, शंभू-अनेदी, शंभू-ठम्मा, शंभू-गवरा, शंभू-बेला, शंभू-तुलसा, शंभू-आमा, शंभू-गिरजा, शंभू-सति आदि तथा अंत में शंभू-पार्वती की जोड़ी का उल्लेख मिलता है.
शंभू अर्थात महादेवों की अंतिम जोड़ी शंभू-पार्वती के कार्यकाल के पहले गोंडवाना की धरती पर ब्रम्हा, विष्णु, इन्द्र आदि नाम के मानवों (आर्य ब्राम्हणों) का यूरेशिया (मध्य यूरोप एवं एशिया) के वोल्गा नदी से ईशा के लगभग ५,००० वर्ष पूर्व पशु चराते हुए आगमन हुआ. इनके साथ स्त्रियाँ नही थी. इसका मतलब यह है कि ये संस्कारी नही थे. गोंडवाना की धरती पर प्रथम शंभू शंभू-मूला के समय से ही मानव संस्कारों की स्थापना की जा चुकी थी. गोंडवाना की समृद्धी, संस्कार इन लोगों के लिए नया और विचित्र था. गोंडवाना की समृद्धि, संस्कार और स्त्रियाँ इन्हें आकर्षित करने लगे, किन्तु गोंडवाना की समृद्धि और संस्कृति मुनासिब नहीं हुआ. उनमे ऐसे लक्षण नहीं थे कि वे गोंडवाना की प्रकृति मूल की संस्कृति को धारण कर सकें. गोंडवाना के शंभू महादेव ने इन्हें आक्रमणकारी मानते हुए अपने मानव समूह से पृथक ही रहने दिया. यह बहुत बड़ी भूल थी कि महादेव, गोंडवाना के राजा ने इन्हें अपने राज्य में पनाह दिया. गौर रंग, ऊंची नाक, आकर्षक शरीर के आर्यों ने गोंडवाना के स्त्रियों को आकर्षित करने में सफल रहे. छल कपट तो इनमे पहले से ही था. गोंडवाना के स्त्रियों से ही इनका वंश नश्ल आगे बढ़ा. फिर भी इन्हें संतोष नही हुआ. कालचक्र के साथ इन्हें गोंडवाना में अपना अस्तित्व बनाए रखने का संकट पैदा होने लगा. सीधे तौर पर तो महादेव से लड़ाई में उन्हें सफलता नहीं मिलती. इसलिए इन्होने अपनी संतानों में से सुन्दर स्त्रियों को महादेव के पास रिझाने भेजने लगे. फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिली. अंत में पार्वती पर दाँव खेला गया. पार्वती महादेव को मोहित करने के बजाय खुद मोहित हो गई. उनका विवाह धूमधाम से हुआ. पार्वती अब महादेव की जीवनसंगिनी बन चुकी थी. अब पार्वती के पूर्वजों को जीने रहने के लिए स्थान दे दिया गया. इस निवास स्थल का उन्होंने आर्यावृत नाम रखा.
आर्य (ब्राम्हण) ग्रंथों में शंभू-पार्वती की जोड़ी से ही आगे का उल्लेख मिलता है. इसके पूर्व के गोंडवाना के ८७ शम्भूओं (राजाओं) का उल्लेख नही मिलता. अपने धर्मग्रंथों में इस जोड़ी को शंकर पार्वती के नाम से उल्लेख किया है. पार्वती से ब्याह रचाने के बाद महादेव वर्ण "शंकर" हो गए. इस तरह आर्य अब अपने बहु बेटियों को गोंडवाना के लोगों के पास भेजकर भेदी बनाने लगे, जिससे राजा शंभू पार्वती तथा राज्य का पूरा भेद उनके बहु बेटियों के माध्यम से उन्हें मिलने लगा. राज्य में असंतोष बढ़ने लगा. अस्तित्व का संघर्ष बढ़ने लगा. लड़ाईयां अब संघर्ष का रूप धारण करने लगे. सिंधू घाटी की सभ्यता का विनाश इन्ही संघर्षो की देन है. इसे ही अपने धर्मग्रंथों में देवों और असुरों का संग्राम "देवासुर संग्राम" के नाम से उल्लेख किया है.
हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों में देवों और असुरों का संग्राम "देवासुर संग्राम" से स्पष्ट हो जाता है कि देव और असुर कौन है ? इनके बीच लाधाईयाँ क्यों होती रहीं ? उन्हें राक्षस, दानव, दैत्य, पशु आदि से ही क्यों लड़ाईयां लड़नी पड़ी ? इन्होने ब्राम्हणों का क्या बिगाड़ा ? ब्राम्हणी ग्रंथों में उल्लिखित राक्षस, दानव, दैत्य, पशु आदि कोई और नहीं है, ये सब इस देश के मूलनिवासी जन हैं, जिन्हें खलचरित्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है. इसमें दुर्भावना स्पष्ट झलकता है. दुनिया को धर्म का पाठ पढ़ा पढ़ा कर धर्म संकट पैदा कर रहे हैं. पाप पुण्य, स्वर्ग नर्क की भयावहता से देश के लोगों की मानसिकता बिगाड़ रहे हैं. आज भी इनकी प्रवृति और मानसिकता नहीं बदली है. मानव से मानव के साथ दुर्व्यवहार के केवल तौर तरीके बदले हैं.
---००---
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें