शनिवार, 8 मार्च 2014

अल्पसंख्यक शासक और बहुसंख्यक गुलाम

भारतीय जातिगत रणनीति की अपनी विशेषताएं अनेक हैं, फिर भी जो जाति सामाजिक स्तर पर संख्या में कम है वह पूरे भारतीय समाज कों अनैतिक रूप से गुमराह कर उस पर राज करती चली आ रही है. नई नई समस्याओं में अन्य समाजों कों उलझाकर वह स्वयं ही इस देश का हुक्मरान होता चला आ रहा है.


इसके विपरीत जो सामाजिक स्तर पर संख्या में अधिक हैं, वे आज देश के गुलाम हैं. आजादी के पहले इन मूलनिवासियों का आंदोलन का अपना एक मजबूत असर हुआ करता था. आजादी के बाद अब मूलनिवासियों के आंदोलन क्यों असरदार नहीं होते ? यह एक विचार करने वाली बात है.


आजाद भारत में गुलाम मूलनिवासियों की ऐसी स्थिति का जिम्मेदार कौन है ? जो भारत का असली मूलनिवासी समाज है वही बद से बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर है. क्योंकि दुश्मन बड़ा होसियार है, वह मैदानी लड़ाई में विश्वास नहीं रखता, वह तो केवल अपनी छल बुद्धि का इस्तेमाल करता है. मैदानी जंग में उतरने की तो हमारा दुश्मन भूलकर भी यह भूल नही कर सकता, क्योंकि उसे मालूम है कि उसका समाज संख्या में कम है. मैदानी जंग में उतरने पर उसकी समाज की संख्या और कम हो जायेगी. हमारा दुश्मन हमसे ज्यादा होशियार है. उसमे वृहद मूलनिवासी समाज कों विभिन्न जाति/ जनजाति में बाटकर आपस में मिलने नहीं दिया है. अर्थात हममें एकता नहीं बनने दिया है.


इसका नतीजा यह हुआ कि हम अपने वृहद स्वरुप से हटकर छोटे-छोटे समुदायों में बटकर बिखरते चले गए. हम मूलनिवासी ऐसे बिखरे कि हमें एक दूसरों से कोई मतलब नहीं रहा और इसका फायदा हमारा दुश्मन बड़े मजे से उठाता चला आ रहा है. मूलनिवासियों कों आजाद भारत में पुनः अपनी आजादी के लिए आंदोलन करना होगा, लेकिन इस आंदोलन का स्वरुप वृहद मूलनिवासी समाज का होना आवश्यक है. छोटे-छोटे बिखरे समुदाय का एक एक कर संघर्ष करना मूलनिवासियों के उज्जवल भविष्य के हक में नहीं है.


अतः समस्त मूलनिवासियों का एक होना जरूरी है. इतिहास गवाह है कि दुनिया के आंदोलन से इतिहास में आज तक कोई जाति/समुदाय पूरी तरह एक नहीं हुई है न ही कोई आंदोलन पूर्णतः शत प्रतिशत सफल होता है. इसलिए निर्धारित लक्ष्य कों रखकर मूलनिवासियों कों एक होना होगा. पूर्णतः न सही ३५%-४०% में ही दुश्मन चारों खाने चित्त नजर आएगा.
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