शनिवार, 16 मार्च 2013

शिवमगवरा (शिवंगा)

          शिवमगवरा अर्थात शिवंगा याने होली का त्यौहार सम्पूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है. इस त्यौहार को मनाने के पीछे गोंड समाज का जो तत्वज्ञान है, वह अन्य समाज के लोगों के तत्वज्ञान से बिल्कुल निराला है. यह त्यौहार फागुन माह में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. कोया वंशीय गोंड समाज के लोग इस त्यौहार को अपने-अपने गांवों में सभी मिलकर मनाते हैं. गांव के सडकें पन्द्रह दिन पूर्व से ही हर दिन शाम को "गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया. किस कुंड मानता, निर मिटके किया !! ऐसा गीत गाते हुए घर-घर से लकड़ियाँ जमा करके गांव के बाहर पूर्व दिशा में जहाँ होली जलाई जाती है; ले जाकर जमा करते हैं. जो ढीग होता है उसे 'शिव-गवरा जो हार जो ! बणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! बिणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! ऐसे नारे लगाकर प्रदक्षिणा (परिक्रमा) डालते हैं. इस तरह लकड़ियाँ जमा करने के बाद पूर्णिमा के दिन की संध्या को गांव का भूमक सभी ग्रामवासियों के साथ सार्वजनिक आरती लेकर जाता है. वहां पर एक-दो फिट का गड्ढा खोदकर उसमे कुछ पैसे और लोहे का चुरा डालकर एक ऊँची लकड़ी खड़ी करते हैं. उसे सेंदुर, गुलाल कूं, कूं और चावल डालकर पूजा करते हैं. उस ऊँची लकड़ी के चारों ओर शेष सभी लकड़ियों को खड़ी करते हैं. बाद में चकमक की चिंगारी से उसे जलाया जाता है उस जलते लकड़ियों की होली में एक गुथे हुए आटे की गवारा की मूर्ति बनाकर डालते हैं. फिर सभी लोग "शिवमगवरा ! शिवमगवरा ! शिवमगवरा ! ऐसे जोर जोर से चिल्लाते हुए जलते होली का पांच चक्कर मारते हैं. ठीक उसी वक्त एक मनुष्य शिवाजी का वेशधारी त्रिशूल लेकर वहां आता है. और जलते होली को पांच चक्कर लगता है बाद में एक जलती लकड़ी को लेकर जलने वाली अन्य लकड़ियों के उपर क्रोधित होकर वार करता है बाद में सभी लोग "शिवगवरा जो हार जो ! बिणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! बिणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! ऐसे नारे लगाकर सात परिक्रमा करते हैं. उसके बाद रात भर शिवगवरा संबंधित गीतों की ताल पर नृत्य गान करके जागरण करते हैं.


          दूसरे दिन वे अपने अपने घर लौरते हैं फिर नहा धो कर वे फिर वहां जाकर गाय के गोबर के सूखे हुए गोबरियों को जलाकर उसकी राख अपने मस्तक पर लगाकर उसकी पूजा करते हैं. सभी गांववासी गोबरियों की राख अपने-अपने घर लाकर घर के सभी सदस्यों के मस्तक पर लगातें हैं. फिर बाद में गुलाल और पलास के फूलों से बनाया गया रंग एक दुसरे पर डालकर रंग खेलते हैं. इस तरह यह त्यौहार मनाया जाता है.

          शिवमगवरा अर्थात शिवंगा यह त्यौहार मनाने के पीछे गोंड समाज के लोगों का जो तत्वज्ञान है, वह अन्य समाज के लोगों के तत्वज्ञान से भिन्न है. शिवमगवरा यह गोंडी शब्द शिव+वोम+गवरा इन तीन शब्दों की मेल से बना है. शिव याने शम्भू अर्थात शंकर वोम याने ले जा और गवरा याने पार्वती को. ऐसा शब्द अभीप्रेत हैं. शिवमगवरा इस शब्द का अपभ्रंश रूप शिवंगा यह शब्द आज इस त्यौहार के लिए प्रचलित है. अब हमारे सामने यह सवाल उठता है कि शिवमगवरा ! शिवमगवरा !शिवमगवरा ! ऐसे नारे लगाते हुए गोंड समाज के लोग होली क्यों जलाते हैं. इस संबंध में जो लोक गाथा गोंड समाज में प्रचलित है, वह निम्न प्रकार है.

          गवरा यह दक्ष राजा की कन्या थी. दक्ष प्राचीन काल में एक आर्य राजा और अनार्य में जब अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध शुरू हुआ. अनार्य याने आज के गोंड समाज के पूर्वजों ने जो शिव शम्भू के उपासक थे आर्यों का शिरच्छेद करना आरम्भ कर दिया. वे बहुत ही शक्तिशाली और योद्धा थे. कोय वंशीयों का राजा शम्भू जोग और तंद्री विधा में इतना प्रबल था कि जब तक वह अपनी योग साधना में लीन रहता था तब तक जनता को कोई हरा नहीं पाता था, मार नहीं सकता था. इस बात की जानकारी गुप्तचरों व्दारा जब आर्य राजाओं को मिली, तब उन्होंने अपनी रूपवती कन्याओं को शिवाजी की योग साधना भंग करने के लिए, उसे अपनी मायाजाल में फसाने के लिए भेज दिया. दक्ष राजा की कन्या गवरा यह उन्हीं में से एक थी. परन्तु आर्य राजाओं को तब बहुत जबरदस्त धक्का बैठा जब गवरा शम्भू को अपनी मायाजाल में फसा नहीं पायी, बल्कि वह  स्वंय शिवोपासक बन गयी, जिससे दक्ष राजा को बहुत धक्का लगा. उसने अपने दिल में बदला लेने की ठान ली.

          एक दिन दक्ष राजा अपने घर में महायज्ञ का कार्यक्रम आयोजित किया. जिसमे सभी आर्य राजाओं को बुलाया गया. साथ ही शिवजी को निमंत्रण न देते हुए अपनी कन्या को निमंत्रण दिया. जो शिवजी के लिए अपमान की बात थी. इसलिए उन्होंने पार्वती के साथ जाने से इंकार कर दिया. गवरा अपने पिताजी के घर यज्ञ में भाग लेने के लिए गयी तब उसका सभी आर्य राजाओं के सामने बहुत अपमान किया गया. गवरा जी ने जब उनका विरोध किया तो कहतें हैं- उसके पिताजी ने उसे यज्ञ कुंड में धकेल दिया. यह खबर शिवजी के सेवकों को जो गवारा के साथ यहाँ आये थे, लगी तो वे शिवाजी की शिवमगवरा ! शिवमगवरा !शिवमगवरा ! ऐसा जोर-जोर से चिल्लाते हुए दौड़ पड़े. जब शिवजी को इस बात की खबर मिली तब वे क्रोधित होकर दौड़े चले आये. परन्तु तब तक गवरा जी जलकर राख हो चुकी थी. शिवजी को रहा नहीं गया. उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से आर्य राजाओं के उपर अपनी चिंगारियों को बरसाकर भगा दिया और दक्ष राजा की राजमहल को जला डाला.

          इस तरह दक्ष राजा ने गवरा जी को यज्ञ कुंड में धकेल दिया. वह जलकर राख हो गयी. परन्तु शिवजी ने उसके राजमहल की होली जला दी. उस वक्त वहां राजा जो शिवजी के सेवक थे. उन्होंने "शिवमगवरा जो हार जो ! बिणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! बिणोंज्याल फ़ो दाय फ़ो अर्थात शिव-गवरा का जयकार हो ब्रहमा का सत्यानास हो ! विष्णु का सत्यानास हो ! ऐसे नारे बाजी की थी. इसी घटना को लेकर आज भी गोंड समाज के लोग होली जलातें हैं. अर्थात हर वर्ष दक्ष राजा की महल को जलाते हैं. उसके लिए वे पन्द्रह दिन पहले से ही गवरा के नाम से लकड़ियाँ जमा करते हैं. लकड़ियाँ जमा करते वक्त जो गीत गाया जाता है. वह निम्न प्रकार से है :-

          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          किस कूंडा मानता, निर मिटके किया !!
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          द्च्छीराज मायलोता, निर मिटके किया !!
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          बरमा स्कसाता, निर मिटके किया !!
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          बिसो नारयाना, निर मिटके किया !! 
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          किसकुंढा मानता, निर मिटके किया !!
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          शिवगवरा मायता, जो हार जो किया !!

          उपरोक्त गीत का जो सार है, वह याने गवरा के नाम से एक लकड़ी दो जिसमे यज्ञ को भंग करने की शक्ति हो, दक्ष राजा की महल को जलाने की क्षमता हो, बरमा बिसो नारया को मार भगाने की शक्ति हो और शिव-गवरा का जय जय कार करने की शक्ति हो.

          इसी तरह होली जलाते वक्त "शिवमगवरा, शिवमगवरा" ऐसे जो नारे लगाये जाते हैं उसका अर्थ है शिव ले जावो गवरा जी को. ऐसा है. क्योंकि जब दक्ष राजा जी के यहाँ गवरा जी का अपमान किया जा रहा था. तब उसके समर्थक शिवजी के ओर "शिवम गवरा सिवम गवरा" ऐसा चिल्लाते हुए दौड़ पड़े थे. होली जलाने के बाद जो "शिवम गवरा जो हार जो ! बणोंज्याल फ़ो दाय फ़ो ! बिणोंज्याल फ़ो दाय फ़ो !" अर्थात शिव गवरा का जय जयकार हो. ब्रहमा का सत्यानास हो विष्णु का सत्यानास हो. ऐसे नारे लगाते जाते हैं. क्योंकि उन्ही के कारण गवरा जी की हत्या की गयी थी. होली के अन्दर जो गवरा जी की मूर्ति डाली जाती है वह इस बात की घोतक है. कि गवरा जी को जबरदस्ती यज्ञकुंड में डाल दिया गया था. या धकेल दीया गया था. गोबरियों को जलाकर राख को मस्तक में लगाने का जो रिवाज है. वह इस बात का घोतक है कि गवरा जी की राख मस्तक में लगाकर वे अपने दुश्मनों को मार भगाने का प्रण करते हैं. होली जलाने के बाद जो त्रिशूलधारी मनुष्य वहां आकर जलते हुए लकड़ियों पर त्रिशुल से वार करता है. वह शिवजी की क्रोधित रूप का साक्षात् दर्शन है जो गवरा जी  के जल जाने के बाद आकर दक्ष राजा के राज महल का होली जलाते हैं. इस तरह होली का त्यौहार मनाने के पीछे गोंड समाज के लोगों का जो तत्वज्ञान है, वह अन्य धार्मिक लोगों से भिन्न है.

          दूसरे दिन रंग गुलाल खेल कर खुशियां इसलिए मनाते हैं कि उस दिन उन्होंने अपने दुश्मनों की राज महलों की होली जला कर उन्हें अपने राज्य के बाहर मार भगाने का कार्य किया था.                         

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें