(गोंडवाना की महान वीर वीरांगनाएं)
वीरांगना रानी दुर्गावती (१५२४-१५६४) |
भारत के इतिहासकारों के लिए गोंडवाना भू-भाग भारत के
आदिवासी वीर सपूतों, महान नारियों की वीरगाथाओं का आलेखन इतिहास के पन्नों पर जरूर
दुर्लभ हो सकता है. परन्तु गोंडवाना के आदिम जनजातीय वंशज (गोंडवाना साम्राज्य)
के अनेक योद्धाओं, राजा-महाराजाओं तथा कई वीर बालाओं से लोहा लेने वालों को उनकी
अदम्य साहस और वीरता जरूर याद आई, जिन्होंने उनके सामने रणभूमि में घुटने टेके. आदिवासी
समाज सौभाग्यशाली है, जिसने इतिहास में कई वीर योद्धाओं एवं वीर नारियों को जन्म
दिया. जैसे- महारानी कमलावती, जाकुमारी हसला, रानी देवकुँवर, रानी तिलका, जयबेली
रानी मोहपाल, रानी कमाल हीरो, रानी हिरई, रानी फूलकुंवर, रानी चमेली, वीरांगना
सिंनगीदयी आदि. गोंडवाना की वीरांगनाएं वो माताएं है, जिनकी समृद्ध कर्मभूमि तथा धर्मभूमि का नाम "गोंडवाना" रही है. इसी समृद्ध गोंडवाना भूमी की गर्भ से प्रतापी, विलक्षण, प्रतिभाशाली, संस्कारवान लोग और “भारत देश” पैदा हुआ.
लोग अपने पूर्वजो की वीरगाथाओं को अपने समुदाय तथा समाज
के इतिहास से पाया है, किन्तु दुर्भाग्य है गोंडवाना के उन पूर्वजों का जिन्हे
इतिहास ने भूला दिया. यह तो इतिहासकरों की पराकाष्ठा का मिसाल है कि ऐसे पूर्वज,
जिन्होंने भारत ही नही, दुनिया के पांच भू-खंडो में सदियों सदि तक अपने कर्म और
कर्तव्य से मानवजाति को स्थायित्वता प्रदान कीया, उन्हें उनकी धरा के इतिहास में
ही गुमनाम बना दिया गया !! यदि युगान्तर में उनकी वीरता दिखाई भी गई तो दास-दस्यु, बंदर-भालू,
दैत्य-दानव, राक्षस तथा बुराई के रूप में !! गोंडवाना के आदिकालीन पृष्ठभूमि में
आदिवासियों के पूर्वजों के वंशज, गढ़मण्डला, जिसे गढ़ा मंडला भी कहा जाता है, की
कर्मवती, धर्मवती, बलवती, रणवती, एवं रणगति प्राप्त करने वाली “वीरांगना रानी
दुर्गावती” थी, जिनकी आगामी २४ जून को ४४८वीं पुन्यतिथि देश का आदिम मानव समाज प्रतिवर्ष की भांति मनाने जा रहा है.
विस्तृत गोंडवाना भू-भाग के प्रतापी राजाओं, रानियों
के संबंध में कुछ-कुछ विदेशी इतिहासकारों ने अपनी दिलचस्पी दिखाई, जिससे उनके
इतिहास की कुछ झाकियां देखी जा सकी. विदेशी इतिहासकारों को गोंडवाना के मानव समाज, उनकी संस्कृति, बोली-भाषा, संस्कृति, साहस, वीरता आदि के बारे में
जितनी समझ आई और जानकारी हासिल हो सकी, उन्होंने बखूबी सहेजा, जिसके कारण आज
भारतीय मूलनिवासी समाज को उनके ऐतिहासिक पदचाप के निशां मिल सके.
गोंडवाना भू-भाग के अतीत के पन्नों को देखें तो उनके
प्रकृतिवादी, मानवतावादी, समाजवादी, संस्कारवादी, धर्मवादी एवं कर्मवादी कला-कौशल
की ऐतिहासिक जीवन संरचना में अपार मानवता का खजाना भरा पड़ा है, जिन्हें अनेक तरह से धूमिल
करने का प्रयास होता रहा है. जो अवशेष भूमिगत खड़े हैं वे सदियों बीत जाने के बाद आज
भी सीना तान के उनकी असली गौरवशाली जीवनरेखा, प्रकृतिवादी, मानवतावादी, समाजवादी,
संस्कारवादी, धर्मवादी, कर्मवादी, कला-कौशल की वास्तविक एवं मजबूत आधारशिला की जीवनशैली को बयाँ कर रहे
हैं, जिनकी झलक आदिम जनजातियों के लोक साहित्य, लोकगीत, लोक परम्परा, लोकसंस्कृति
में आज भी जीवंत हैं. राग-विराग, आनंद–उल्लास, आदर्श जीवन, सेवाभाव, दया, करुणा
विरोचित अनेक रोमांचक घटनाएं, देशभक्ति, समाज रचना, नीति-नियम, समता, समानता,
स्ववालबन, सहयोग के सैकडो उदाहरण के सागर में कोयावंशी मानव समुदाय जीता है.
इतिहास अपनी जगह है. इतिहास रचनाकार भले अनदेखा करें, किन्तु इस भूमि की सैकडो स्मृतियाँ,
महल-किले, तालाब, बावली, भूमिगत सुरंग, बागग-बगीचा, नदियों के घाट, स्नानागार के
चिन्ह आज भी मैजूद है. रूप सौंदर्य की बोल, लोकभाषा में विरह, प्रेम अपनी
मात्रभूमि पर शत्रुओं के हमले पर सैन्य संगठन की गाथा, मात्रभूमि और अपनी इज्जत
आबरू की रक्षा, धन-संपत्ति की स्वाधीनता के लिये मर मिटने वाले नर-नारियों के
त्याग, बलिदान अमर कीर्ति बन गई है.
स्वाधीनता और इज्जत, आबरू की रक्षा, प्राणों की आहुति
करने वाले महान नर-नारियों ने जो आदर्श पेश किया है, ऐसा इतिहास में अन्यत्र कम ही
देखने को मिलेगा. कोइतुर नारियों की सबसे बड़ा खजाना है, आबरू. नश्ल की शुद्धता के
लिये अपनी धरती को प्राण रहते कभी नही सौपा. इसी गौरव और स्वाभिमान के लिए कोइतुर
मानव विश्व में पसिद्ध है. अपने गढ़ में जीते हैं और अपने आस्तित्व को बचाकर रखे हैं.
कोईतुर मानव अपनी इज्जत की रक्षार्थ हमेशा सतर्क रही
हैं. जैसे वन्य प्राणी शत्रु या शिकारी के आहट मात्र से अपनी आत्मरक्षा के उपाय
सोचता है, वैसे ही कोइतुर नारियां अपने उपर खतरे का या शत्रु का आक्रमण होने के
अंदेशा में एक ही आह्वान में बच्चे, प्रौढ़, बूढ़े, बुढियां, नर-नारी संयुक्त रूप से
रक्षार्थ तैयार रहते हैं. अपनी बुद्धी, कौशल, युद्ध रचना, सैन्य संचालन, शिकारी
युद्ध, गौरिल्ला युद्ध, टिड्डी युद्ध, भौंर माछी युद्ध, हांका युद्ध, तीर, भाला,
फरसा, गुलेल, गुर्फेंद, पासमार हथियार, दूरमार हथियार, ककंड, पत्थर, मिर्चिपावडर
पानी का घोल, जहर बुझे तीर, तर्कस सबके पास मौजूद रहता है.
बचपन से बच्चे स्त्री-पुरुष युद्ध विद्दया, सिकारी विद्दया,
ऊबड़-खाबड, घाट-पहाड, में वन्य प्राणियों को दौड़ाकर पकड़ने जैसे कला में प्रवीण होते
हैं. इन विशेषताओं और चातुर्य से शत्रुओं का दांत खट्टे करने की कला इन कोइतुर
समाज में कूट-कूट कर भरी रहती है. आज भी कोयावंशियो के सीधे मुकाबले में जीत हासिल
करना असंभव है. उन्हें छल या कपट से धोका देकर ही परास्त किया जा सकता है, सो
उन्हें हर तरीके से जीवन से परास्त करने के लिए सदियों से उनके साथ छल-बल चल ही
रहा है.
गोंडवाना में जन्मे महान वीरांगनाओ मे से यहाँ कुछ
नारियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है. गोंडवाना उच्चतम भूमि की
वीरांगनाओं में से राजकुमारी हसला (लांजीगढ़), रानी मैनावती (गढ़ा कटंगा), रानी
पदमावती (गढ़ा), रानी देवकुँवर (देवगढ़), रानी हिरमोतिन आत्राम (चांदागढ़), रानी
कमलावती-भूपाल (गिल्लौरगढ़), रानी सुन्दरी-गढ़ा मण्डला (नामनगर) तथा रानी दुर्गावती
(गढाकटंगा). रानी दुर्गावती की जीवनी के साथ इन महान नारियों के सम्बन्ध में कुछ संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत किया जा रहा है :
राजकुमारी हसला (लांजीगढ़)
देवगढ़ राज्य के अंतर्गत एक रियासत लांजीगढ़ था. लांजी
बहुत बड़ा प्राचीन राज्य था. अवशेषों से ज्ञात होता है कि कुंवारा भिवसन इसी राज्य
को भू-भाग में फैलता था. भिवसन के कई हजार साल बाद लांजीगढ़ एक छोटी सी रियासत ही
रह गई थी. लांजीगढ़ में कोटेश्वर राजा की वीर अभिमानी एक कन्या थी. सत्य, निष्ठा,
जाति, धर्म, और अपने पिता की आज्ञा पालन करने विजातीय सफाई सेवक से विवाह करना
स्वीकार तो किया लेकिन अपनी जातीय, धर्म की रक्षा भी की.
एकबार उनके पिता राजा कोटेश्वर मुसीबत में फसकर पायखाने
के नांद में गिर गये थे. वहाँ से निकालने की शर्त पर मेहतर ने राजकुमारी हसला का
हाथ माँगा था. मुक्ति के लिये उसका शर्त मानकर राजा कोटेश्वर ने अपनी सत्य वचन का
पालन किया. पिता के सत्यवचन और अपनी आन-मान की रक्षा करने उनकी बेटी (राजकुमारी) मेहतर
से विवाह करने को तैयार हो गई. साथ ही अभिशिप्त भी किया हसला कुवारी ने- कि मुझ
सुंदर राजकुमारी का विवाह गैर जाति से करने से अब यहाँ १४ वर्षों तक किसी गोंड
युवक युवती का विवाह नही होगा.
शर्त के अनुसार विवाह हुआ तथा शादी का डोला जाते-जाते
जैसे तलबा में पहुंचा, राजकुमारी और कुमार आत्म हत्या कर लिये. आत्म ग्लानी से
मेहतर ने भी तालाब में कूदकर अपनी जान दे दी. आज तालाब के मेंढ में राजकुमारी हसला
की समाधि है. हर वर्ष माघ पूर्णिमा को मेला भरता है. पिता की आज्ञा और अपनी जाति
स्वाभिमान के लिये हसला कुंवारी शहीद होकर अपने आंचल को धब्बा नहीं किया. वही
लंजकाई देवी के नाम से जग में प्रसिद्ध हुआ.
रानी मैनावती मरावी (कटंगा)
गढा कटंगा के राजा दुर्जनमल, यदुराय के वंशज १९वीं
पीढ़ी में राज्य करता था. उसका वीर योद्धा पुत्र राकुमार यशकर्ण हुआ, जो बहादुरी और
युद्धकला में प्रवीण था. उसका विवाह राजकुमारी मैनावती से हुआ. दोनों की प्रेम
कहानी जग प्रसिद्ध हुआ. जन-जन के ह्रदय में विराजमान राजा कर्ण-मैनावती की गाथा
अमर हो गयी. उनके प्रेम के नाम से नगर, घाट, तालाब इत्यादि का निर्माण किए गए और
जनता के सुख-दुख में भागीदार होकर अमन चैन से नृत्य-संगीत और लोक संस्कृति को
बढ़ावा मिला. गांव-गांव, नगर-कस्बा में उनके व्दारा रचे, बनाये गीत जन-जन के कंठ से
निकलती थी. कर्मा, शैला, झूमर, लहकी, रेला पाटा, सुवा, डमकच, हर्ष विशाद और गीतों
से गोंडवाना में रसिक प्रिय राजा-रानी की जोड़ी अमर कीर्ति बन गई. जहां ठहरे राजा
डेरा, जहां स्नान किये राजा-रानी घाट, ऐसे अनेकों स्थानों में इस दम्पत्ति की गाथा
अमर है. इन्होंने गोंडवाना के नर-नारियों के बीच गीत-संगीत में अपनी अमर गाथा छोड़ गए :
कहाँ गए मोर राजा
कर्ण चिरइया रोवथे,
नैंना गढ़ के रानी
मैनावती, राजा कर्ण की रानी.
गीत संगीत में जग को
दे गयी निशानी,
मैनावती कर्ण की अमर है यही निशानी.
गढ़ कटंगा के ३६ वर्षो के शासन काल में राजा कर्ण की
रानी प्रेम, करुणा और दया की सागर मैनावती गोंडवाने में अमर कथा छोड गई.
रानी पदमावती मरावी (गढ़ा)
गढ़ा के संस्थापक राजा यदुराय के ४८वीं पीढ़ी में
महाराजा संग्रामशाह गढ़ मण्डला के सम्राट हुए. उनकी कीर्ति और यश प्राप्त करने में
महरानी पदमावती का बहुत बड़ा त्याग और बुद्धि कौशल था. रानी पदमावती राजा
संग्रामशाह की पटरानी थी, जो ५२ गढ़ ५७ परगने जीतने में राजा संग्रामशाह को साथ
दिया. गढ़ कटंगा में दरबारे आम, संग्राम सागर, घुडसाल, हाथीद्वार, रानीताल और
बाजनामठ की सिद्धि रानी पदमावती कि बुद्धि चातुर्य से हुआ.
बताया जाता है कि राजा संग्रामशाह भैरव बाबा के अनन्य
भक्त थे. राजा संग्राम शाह हर रोज प्रात: काल पक्षियों के जागने से पहले नर-मादा
(नर्मदा) में जाकर स्नान करते थे तथा स्नान के बाद बाबा की पूजा एवं तपस्या के रूप
में अपना सिर काटकर भैरव बाबा को अर्पित करते थे. उसी समय भैरव बाबा प्रकट होकर
उनका सिर पुन: स्थापित कर देते थे. भैरव बाबा और राजा संग्रामशाह के बीच इस तरह
भक्त और भक्ति का समागम कब से चल रहा था, किसी को पता नहीं था, हर रोज स्नान के
पश्चात बाबा के लिये उनकी तपस्या इसी प्रकार से होती थी. एक दिन एक अघोरी भी
नर-मादा जी में उसी समय स्नान करने आया, किन्तु राजा को इसका भान नही हुआ. राजा
हर रोज कि तरह अपना स्नान और तप का कार्य पूरा करता. हर रोज भैरव बाबा प्रकट होकर
उसका सिर पुनर्स्थापित करते. अघोरी, राजा की इस घटना को देखने हर दिन राजा से नजर छुपाके नर्मदा जी में स्नान करने
जाया करने लगा. प्रतिदिन भैरव बाबा और राजा के बीच शक्ति और भक्ति को देखकर
अघोरी के मन में ग्लानी पैदा हो गया. वह सोचने लगा कि राजा की बली चढाकर वह भैरव
का भक्त बन जायेगा तथा राजा के मरने के बाद वह राजा बनकर राजगद्दी पर बैठ जाएगा.
एक दिन अघोरी की इस युक्ति का भैरव बाब ने राजा के ह्रदय में अंतरप्रवाह कर दिया,
जिससे वे विचलित हो गये और रानी पदमावती को सारी घटना बता दिए. वे समझ नही पा रहे
थे कि एक अघोरी के मन में यह भावना जगी कैसे एवं भविष्य में होने वाली घटना से
कैसे निपटें. अंतरमन की सूचना के अनुसार रानी की सूझ-बूझ से राजा स्नान के लिये
नरमादा जी गये और अपना नितकर्म जरी रखा. रानी का भाई शक्तिसिहं छुपकर अघोरी के आने
के इंतजार में था. राजा अपने सिर भैरव को अर्पित करने वाला था उसी समय जैसे ही अघोरी
राजा का सिर काटने वाला था, वैसे ही शक्तिसिंह ने अघोरी का सिर तलवार से काटकर धड
सहित खौलते तेल के कड़ाहा में गिरा दिया. अघोरी को रक्तबीज की शक्ति हासिल था. राजा
को भौरव बाबा दर्शन देकर आशीर्वाद दिया और राजा की नित्य तपस्या का यहीं से अंत हो
गया.
६८ वर्ष के राजा के राज-काज में पदमावती, राजा के
अंगरक्षक की भांति साथ में रहती थी. उनकी कर्म क्रान्ति, मातृभूमी की समृद्धी, जन्समुदाय की सुख तथा समृद्धी के लिए त्याग और बलिदान से गोंडवाना राज्य में सोने का सिका चला. कोई भूखा न था, न ही कोई भीख माँगता था. रानी इतनी महान थी जिसके प्रताप से १०,००० हाथी, स्वर्ण भण्डार और अनेक गढ़-किले बनवाए गए. राजा संग्रामशाह की सफलता की कुंजी रानी पदमावती ही थी.
राजकुमारी देवकुँवर उइके (देवगढ़)
राजकुमारी देवकुँवर खंडाते का विवाह उइके वंश में हुआ
था. अफगानों ने आक्रमण कर देवकुँवर को विधवा बनाकर राज्य को हडप लिया. राजा हरिया अपने
सैनिको के साथ हरियागढ़ में शहीद हो गये. रानी अपनी जान बचाकर जंगल में छिपी रहीं.
वहीं जुड़वा रनसुर और धनसुर दो पुत्र हुए. उन्होंने दोनों पुत्रों को योद्धा बनाया.
वे बाद में राजा हुये. वे अपनी राजमाता के नाम से देवगढ़ राजधानी बनाया. वही देवगढ़
उइके वंश का संस्थापक हुआ.
रानी देवकुँवर अपने गरीबी के दिन जंगल में कंदमूल, फल
खाकर झोपडी में बिताई. वीर बालकों को जन्म देकर राज्य प्राप्त किया. उनकी नाती ने
जब नई राजधानी बनाई तो अपनी आजी के नाम से देवगढ़ में किला, तालाब, महल, वर्धा नदी
के किनारे रानी दहार और बाग-बगीचा बनाया. वीर माता अपना जीवन जंगल, पहाड़ में
बिताकर प्रसिद्ध राजवंश की संस्थापिका हुई. देवगढ़ आज भी छिंदवाडा जिले में अपना
ऐतिहासिक धरोहर समेटे हुए खड़ा है, जो रानी माँ देवकुँवर की स्मृतियों को ताजा करती
है.
रानी हिरमोतीन आत्राम (चांदागढ़)
दक्षिण गोंडवाना के राज्य चांदागढ़ में खांडक्या
बल्लारशाह राजा हुआ. बल्लारशाह की रानी हिरमोतीन हुईं. राजा कुष्ट रोग से पीड़ित था. इसका
इलाज बहुत करने पर भी दूर नहीं हुआ, जिसके कारण वह हमेशा अस्वस्थ रहने लगा. एक समय
बल्लारशाह उत्तर दिशा में अपने आदमियों सहित ईरई नदी और झरपट नदी के किनारे शिकार
करने गया. मचान बनाकर वे शिकार के लिए बैठे हुए थे. उसी समय एक खरगोश को देखा. खरगोश
सफेद था. शेर उसका पीछा कर रहा था. कुछ देर बाद खरगोश शेर के पीछे दौड़ता था. कभी शेर खरगोश को दौडाता था तो कभी खरगोश शेर को. इस
प्रकार राजा ने अदभुत दृश्य देखा. आखिर जब शेर खरगोश को दौड़ाया, तो दौड़ते-दौड़ते खरगोश
एक कुंड के पास जाकर गायब हो गया. शेर और खरगोश के खेल खत्म होने के पश्चात राजा
मचान से उतरकर कुंड के पास आया और देखा तो कुंड का पानी दूधिया था. राजा उस कुंड
में दूधिया पानी देखकर आश्चर्य में पड़ गया. बाद में राजा ने उस कुंड के दूधिया
पानी से हाथ-पैर धोया. राजा ने थोड़ी देर पश्चात अपने शरीर में एक अदभुत आश्चर्य
देखा कि उसके शरीर के कुष्ट गायब हो गए. रानी को यह अदभुत घटना राजा ने बताया. रानी
ने उस स्थान में जाने की इक्छा की. राजा ने जाकर उस कुंड में पूर्ण स्नान किया तथा उस परीक्षेत्र
के १४ मिल एरिया में किला बनवाने की नीव डाली. रानी हिरमोतीन कलि-कंकाली का देवालय
बनवाया और कई लोकोपकार के कार्य करवाए. राजा को सलाह देकर महल लोकपुर में बनवाया.
१५ वर्षो तक राज्य की बागडोर संभाली. चांदा का किला बनवाने का श्रेय रानी हिरमोतीन
को है. आज भी चांदागढ़ का किला भारत में प्रसिद्ध है.
रानी कमलावती सलाम (भूपाल)
गिल्लोरगढ़ के राजा कृपालसिंह की अति सुन्दर कन्या का
विवाह भूपाल के राजा भूपालशाह से हुआ था. भूपाल उर्फ निजामशाह सलाम गोत्रधारी था.
राजा ने क्षेत्र में कई ताल-तलैए बनवाए तथा एक फर्लांग एरिया में बांध बनवाकर ३५
कोस तक भरान भरने वाले तालाब/ सागर बनवाया जो आज भी तालों में ताल भोपाल ताल या
भोपाल सागर के नाम से अपनी प्रसिद्धि हासिल कर रही है. इसी ताल के मेंढ़ बंधान पर
रानी कमलावती के लिए महल बनवाया गया.
रानी कमलावती इतनी सुन्दर थी कि उसकी सौंदर्य की
कीर्ति देश-विदेश फैला गई थी. रानी जितनी सुन्दर थी, उतनी ही बुद्धि कौशल,
युद्धकला और कृषि उद्द्योग में दक्ष थी. किसानो के लिये खेतों में पानी देने के
लिये नहरें बनवाई. अफगान सरदार दोस्त मुहम्मद उसकी सुंदरता की झलक पाने भूपाल में
चढ़ाई कर दिया. गोंड सैनिकों को हलाली नदी में कतल कर महल में रानी को कब्जा करने
घुसा. रानी भूपाल का पतन समझकर कमलावती महल में आग लगवाकर तथा महल से छोटे तालाब में कूदकर जौहर कर ली. गोंडवाने की महिलाओं ने जान रहते दुश्मन को अपनी मिट्टी कभी छूने नही दिया. विश्व प्रशिद्ध भूपाल ताल के मेंढ़ पर बना कमलावती का महल आज भी कमला पार्क में दबा पड़ा है.
रानी सुंदरी मरावी (गढ़ा मण्डला)
रानी सुंदरी भोज बल्लाडशाह, चांदागढ़ के राजा की बहिन
थी. राजा ह्रदयशाह, गढ़ा मण्डला को ब्याही गई थी. वह अपने पति के समान संगीतकला में
प्रवीण थी. एक बार राजा ह्रदयशाह दिल्ली दरबार के संगीत स्पर्धा में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त
कर लिया. तब बादशाह औरंगजेब की सहजादी ह्रदयशाह की संगीत से मोहित हो गई. राजा को
इसका इनाम मिलने वाला था. वह इनाम के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर अपनी अब्बा की
आज्ञा चाही. इनाम में (स्वयं शाहजादी चिम्मुनिया) मुझे सौपकर अपना कर्तव्य पालन
कीजिए.
सौत मुगल शाहजादी के आने पर रानी सुंदरी अपना धीरज और
संतुलन नही खोया. उनके लिये बेगममहल अलग बनवाकर उसकी इज्जत की. राजा वीणावादन में
प्रवीन थे. सोने के सिक्के में उनकी मोहर है. रानी सुन्दरी गोंडवाना की प्रजा
वात्सल्य थी. उन्होंने हीरे, जवाहरत, मणियो से “रौशन ए चिराग” बनवाया था. इसी की अनुकृति है क़ुतुब मीनार. रानी सुन्दरी अनेक युद्ध
में राजा का मार्गदर्शन किया. संगीतकला और साहित्य का विकास किया. उनकी इच्छा से
नामनगर के महल में बनवाई गई वंशावली बीजक इसका प्रमाण है. जैसा नाम वैसा काम इस
वीर रानी की स्मृतियाँ ताजी है.
रानी दुर्गावती मरावी (गढ़ा मंडला)
इतिहास साक्षी है कि गोंडवाना की भूमि वीर माताओ की
बलिदानी तथा आदर्श नारियों की भूमि रही है. ऐसे ही एक महान साहस की प्रतिमूर्ति,
स्वामिनी और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए कुर्बान होने वाली रानी दुर्गावती थी, जो साक्षात
भवानी थी.
रानी दुर्गावती का जन्म वर्तमान मध्यप्रदेश में हुआ
था, जिसे कभी गोंडवाना कहते थे. गोंडवाना में गोंड लोगों की ज्यादा बस्ती थी. और
वही यहाँ के शासक होते थे. यहाँ के महोबा राज्य के चंदेलवंशीय राजा शालीवाहन के
यहाँ सन १५२४ में रानी दुर्गावती का जन्म हुआ. कई विद्वानों में अभी भी तिथि पर
मतभेद है. किन्तु गोंडी विद्वान १५२४ के अक्टूबर की ५ तारीख को मानते हैं. रानी
दुर्गावती अपनी माता-पिता की इकलौती सन्तान थी. इसलिये इनके पिता राजा शालीवाहन ने
इनका लालन-पालन एक राजकुमार की तरह किया था. बचपन से ही राजकुमारी दुर्गा
अश्त्र-शस्त्रों के साथ खेलती थी. तलवारबाजी, धनुर्विधा तथा घुड़सवारी का इन्हें बड़ा
शौक था. राजकुमारी दुर्गा अत्यंत सुंदर और गुणवती थी. शिकार करने में अदभुत
पराक्रम दिखाती थी.
राजकुमारी दुर्गा, देवी माता की परम भक्त थी. शायद
इसलिये उन्हें दुर्गा अवतार ही मानते थे. सोलह वर्ष की आयु में इनकी सुंदरता तथा
पराक्रम की ख्याति चारो ओर फैलने लगी. महोबा की दक्षिण सीमा पर ही उनका गोंडवाना राज्य
था. वहाँ के उदयमान गोंड राजवंश की प्रतापी शासक महाराजा संग्रामशाह के बड़े पुत्र
राजकुमार दलपतशाह भी रूपवान, गुणवान और वीर पुरुष थे, जिनकी वीरता की बात राजकुमारी
दुर्गावती भी सुन चुकी थी. राजकुमार दलपतशाह को मन ही मन चाहने भी लगी थी. राजा शालीवाहन
को राजकुमारी दुर्गावती की शादी की चिंता होने लगी थी और वे उसकी शादी के लिये
योग्य राजकुमार तलाशने में लगे थे. राजकुमार दलपतशाह भी राजकुमारी दुर्गावती की
सुंदरता और वीरता से परिचित थी. एक दिन राजकुमारी दुर्गावती ने राजकुमार दलपतशाह
के लिये एक गुप्त संदेश भिजवाया. योजना के अनुसार १५४२ के संवत पंचमी के दिन
राजकुमारी दुर्गा कुलदेवी माता की पूजा करने के लिये गई. उसी समय राजकुमार दलपतशाह
राजकुमारी दुर्गावती को अपने घोड़े में बिठाकर महोबा से सिंगोरगढ़ ले आए. इस तरह
राजकुमारी दुर्गावती महाराजा संग्रामशाह की पुत्रवधू स्वीकारी गईं. चंदेलवंश और
गोंड राज्यवंश एक-दूसरे के नजदीक आ गए, जिससे इनकी शक्ति और बढ़ गई. कालिंजर पर
आक्रमण के समय दलपतशाह की चंदेलों को एक सहायता के कारण दिल्ली के सुल्तान शेरशाह
सूरी को मुह की खानी पड़ी और जान भी गंवानी पड़ी.
महाराज संग्रामशाह की मृत्यु के उपरांत राजगद्दी पर
दलपतशाह बैठा. १५४५ में उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. जिसका नाम वीरनारायण
सिहं रखा गया. सुख पूर्वक दिन व्यतीत होने लगे. लगभग १५४९ ई. में दलपतशाह की मृत्यु
हो गई. चूँकि राजकुमार वीरनारायण सिहं उस समय ४ वर्ष के थे इसलिये रानी ने बहुत
धीरज से काम लिया तथा वीरनारायण सिंह को गद्दी में बिठाकर स्वयं संरक्षिका के रूप
में शासन का बागडोर संभाल लिया. प्रशासन के संचालन में रानी के दो मंत्रियों,
आधारसिंह कायस्थ और मानसिंह ठाकुर ने खूब सहायता की. सन १५४९ से १५६४ ई. तक पंद्रह
साल गोंडवाना राज्य की जन समुदाय को सुख-समृद्धी, अमन-चैन और साहस से भरकर उन्होंने अपना राज-काज संचालित किया परन्तु शत्रुओं ने एक विदूषी महिला शाशिका के द्वारा समृद्धीपूर्ण एवं पारंगत राजसत्ता के संचालन को देखकर ग्लानि से धीरे-धीरे राज्य को घेरना आरम्भ कर दिया था. रानी की नारी सेना भी तैयार थी. एक दिन मंत्री, सामंतों को दरबार में बुलाया गया तथा प्रजा की भलाई की बात की गई और गोंडवाना राज्य की रक्षा के लिए सचेत किया तथा हथियारों के निर्माण कराया गया.
बंदूकें और छोटी तोपें गढवाई और गुप्तचरो का जाल फैला
दिया गया. किसानो के हित में सिचाई, पीने का पानी तथा कुंए, बावली, तालाब, नहर, एवं
धर्मशालाओं का निर्माण कराया गया. आधारताल तथा इनके अनेक प्रतीक मौजूद है. रानी
धार्मिक तो थी ही, दानशील भी थी. उन्ही दिनों रानी दुर्गावती अपनी राजधानी
सिंगोरगढ़ के स्थान पर चौरागढ़ को बनाया. सतपुड़ा पर्वत की श्रंखला पर सुरक्षात्मक दृष्टि
से यहाँ महत्वपूर्ण दुर्ग था.
गोंडवाने पर अनेक शत्रुओं की नजर थी ही. शेरशाह सूरी
की मृत्यु के बाद मालवा क्षेत्र में बाजबहादुर ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर
लिया था. सन १५५६ ई. में उसने रानी दुर्गावती को कमजोर समझकर उस पर आक्रमण कर
दिया. रानी सचेत थी ही. वह रणचंडी के सामान अपनी सेना लेकर कूद पड़ीं और करारा जवाब
दिया तथा बाजबहादुर पस्त पड़ गया, उसे भागना पड़ा. रानी दुर्गावती ने दिखा दिया की
रानी भी किसी से कम नहीं है. उसने दुनिया को नारीशक्ति का बोध कराया. इसके पहले भी
रानी दुर्गावती को अफगानियों से सफलता प्राप्त हुई थी.
सन १५६४ ई. में मुगल सम्राट अकबर को एक विधवा रानी के
द्वारा गोंडवाना की सुंदर राजकाज चलाते देख बड़ी इर्ष्या होने लगी. उसने मानिकपुर
के सूबेदार आसफखां को बड़ी सेना लेकर गढ़ा मण्डला पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी और रानी
दुर्गावती के पास एक सोने का पिंजडा भिजवाया, जिसका अर्थ था- सुंदर स्त्रियों को
महल में रहना ही सोभा देता है न कि राजकाज करना. जवाब में रानी ने एक पीजन (रुई
धुनने का यंत्र) भेज दिया, जिसका मतलब था- नवाबों का काम रुई धुनना है, न कि शासन
करना. क्योंकि अकबर, बहना (रुई धुनने वाली) जाति के थे. इससे चिढ़कर आसफखां को गढ़ा
मण्डला पर शीघ्र ही चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी.
जिस समय रानी के पास आक्रमण का समाचार पहुचा, रानी के
सैनिकों में हड़बड़ाहट मच गई. अधिकांश सैनिक अपने परिवारों की सुरक्षा के लिये चले
गए. यहाँ रानी के पास मात्र ५०० सैनिक रह गए थे. इस स्थिति में भी रानी ने धैर्य
और साहस नहीं खोई. मंत्री आधरसिंह वस्तुस्तिथि की जानकारी रानी को दे दी थी. रानी, पुरुष सैनिक के वेष में “सरवन” नामक अपनी सफेद हांथी में शत्रुओं का मुकाबला करने
के लिये अपने सैनिकों के साथ भवानी के समान टूट पड़ी. उसने मंत्री से कहा- अपमानजनक
जीवन से रणभूमी की मृत्यु श्रेष्ठ है, डटे रहो. सुरक्षात्मक युद्ध के लिए रानी नरई
नाला चली गई. वहाँ उनकी सेना में २०,००० अश्वरोही तथा १०,००० हाथी थे. पूरी सेना के
साथ रानी, विरोधी सेना पर फिर टूट पड़ी.
मुगल और गोंडवाने की सेना में भयंकर युद्ध छिड़ा. रानी
हाथी पर सवार धनुष-बाण, भाला, बरसा रही थी. अंततः रानी के पराक्रम, युद्धशैली,
नेतृत्व शक्ति तथा सैन्यशक्ति के सामने मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा तथा आसफखां युद्ध
क्षेत्र से पलायन कर गया. रानी दुर्गावती अपने सैनिकों सहित जीत की खुशी लेकर
मंडला की और बढ़ने लगी. सूर्यास्त होने पर सैनिक विश्राम करने लगे. पराजित होकर
मुगल सेनापति दिल्ली नही लौटा, बल्कि वहीं डेरा डालकर रानी और उसकी सेना को फ़साने
की कोशिश में लग गया.
रानी की इच्छा थी कि थोड़ी विश्राम के बाद आगे बढ़ा
जाए, किन्तु सैनिक पूर्ण विश्राम करना चाहते थे. अंत में यह विश्राम ही उनके लिए
घातक शिद्ध हुआ. विश्राम के समय ही आसफखां सेना तथा तोपों के साथ रानी की सेना पर
आक्रमण कर दिया. रानी के पास एक भी तोप नही थे. उनहोंने रानी की सेना को संभलने का
मौक़ा ही नही दिया. रानी अपने हाथी पर सवार होकर स्वयं सेना का संचलन कर रही थी.
लगातार भयंकर गोला-बारूद बरसाए जाने के कारण रानी के सैनिकों के पैर उखड़ने लगे.
लाशों से युद्धभूमि पट गई. राजकुमार वीरनारायण सिंह भी बहादुरी से लड़ता हुआ घायल
हो गया. रानी ने उसे चौरागढ़ भिजवा दिया. वहाँ वीरनारायण सिंह वीरगति को प्राप्त हो
गए.
रानी की नारी सेना बहादुरी से लड़ रही थीं. रानी सेना
के अग्र में रहकर सैनिकों को प्रोत्साहित कर रही थी. इतने में एक तीर आकार उनके
आँख में लगा. रानी ने उस तीर को निकाल कर फेंका पर उस तीर की नोक (आड़ी) आँख में ही
रह गई. इतने में दूसरा तीर आकार उनके कंठ पर लगा. उसे भी रानी ने निकार कर फेंका,
किन्तु प्रहार पर प्रहार हो रहे थे. रानी पीड़ा के कारण मूर्छित सी हो गई. सेना
विचलित होने लगी और पराजय का आभास होने लगा. महावत चाह रहा था कि रानी को विरापद
स्थान नदी के उस पार ले जाए, परन्तु रानी युद्धभूमि से पीठ दिखाकर भागना उचित नही
समझा. तब उसने महावत से कटार छीन लिया और शत्रु के हाथ पड़ने से पहले कटार अपनी
छाती में भोंपकर समर क्षेत्र में अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली. यह स्थान जबलपुर जिले के
बरेला परगना में बरही गाँव से डेढ़ मील की दूरी पर है. वहाँ एक चबूतरा बना दिया गया
है. यात्री वहाँ से गुजरते वक्त एक कंकड वहाँ पर श्रृद्धा के रूप में डाल देते
हैं. जो रानी की वीरता का स्मारक है.
रानी दुर्गावती का स्वदेश प्रेम, उदारता, स्वाभिमान,
बहुमुखी व्यक्तित्व, साहस और आत्मविश्वास सम्पूर्ण मानव जाति के लिए अनुकरणीय है.
वह एक ऐसी ज्योति बन गई, जिसके प्रकाश में प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व
प्रकाशित होता रहेगा. रानी ने आत्मसमर्पण करने के स्थान पर अंतिम क्षण तक संघर्ष
का अनुगमन किया. नारी होकर वह अपनी कीर्ती इस संसार में छोड़ गई. जब तक इस संसार
में वीरता का सम्मान है, तब तक इस वीरांगना की याद में श्रृद्धासुमन अर्पित होती
रहेंगी. रानी की यशोगाथा के कारण मध्यप्रदेश शासन ने सन १९८३ में जबलपुर
विश्वविद्यालय का नाम “रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय” रखा.
इस तरह वीरांगना रानी दुर्गावती की अद्भुत वीरता,
समाज सेवा, राष्ट्रभक्ति की विलक्षण प्रतिभा पूरे जनसमुदाय, मातृभूमि व देश को
गौरवान्वित किया. ऐसे महान विभूतियों के वंशज अपनी ही धारा पर अत्यधिक शोषित,
पीड़ित व आतंकित है. ऐसी स्थिति में उनकी ऐतिहासिक स्मृतियों से समाज को एक नई
ऊर्जा मिलेगी.
इसी आशा और विश्वास के साथ प्रतिवर्ष २४ जून को
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड तथा देश के सभी आदिवासी बहुतायत राज्यों
में इस वीरांगना रानी की शहादत दिवस धूमधाम से मनाया जाता है तथा उन्हें श्रृद्धासुमन
अर्पित किया जाता है और किया जाता रहेगा.
जागो आदिवासी वीर बालाओं, वीर पुरुषों, जागो ! और देश को बचालो.