शुक्रवार, 22 जून 2012

गढ़ा मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती की ४४८वीं शहादत दिवस २४ जून, २०१२

(गोंडवाना की महान वीर वीरांगनाएं)

वीरांगना रानी दुर्गावती  (१५२४-१५६४)
भारत के इतिहासकारों के लिए गोंडवाना भू-भाग भारत के आदिवासी वीर सपूतों, महान नारियों की वीरगाथाओं का आलेखन इतिहास के पन्नों पर जरूर दुर्लभ हो सकता है. परन्तु गोंडवाना के आदिम जनजातीय ­­वंशज (गोंडवाना साम्राज्य) के अनेक योद्धाओं, राजा-महाराजाओं तथा कई वीर बालाओं से लोहा लेने वालों को उनकी अदम्य साहस और वीरता जरूर याद आई, जिन्होंने उनके सामने रणभूमि में घुटने टेके. आदिवासी समाज सौभाग्यशाली है, जिसने इतिहास में कई वीर योद्धाओं एवं वीर नारियों को जन्म दिया. जैसे- महारानी कमलावती, जाकुमारी हसला, रानी देवकुँवर, रानी तिलका, जयबेली रानी मोहपाल, रानी कमाल हीरो, रानी हिरई, रानी फूलकुंवर, रानी चमेली, वीरांगना सिंनगीदयी आदि. गोंडवाना की वीरांगनाएं वो माताएं है, जिनकी समृद्ध कर्मभूमि तथा  धर्मभूमि का नाम "गोंडवाना" रही है. इसी समृद्ध गोंडवाना भूमी की गर्भ से प्रतापी, विलक्षण, प्रतिभाशाली, संस्कारवान लोग और “भारत देश” पैदा हुआ.

लोग अपने पूर्वजो की वीरगाथाओं को अपने समुदाय तथा समाज के इतिहास से पाया है, किन्तु दुर्भाग्य है गोंडवाना के उन पूर्वजों का जिन्हे इतिहास ने भूला दिया. यह तो इतिहासकरों की पराकाष्ठा का मिसाल है कि ऐसे पूर्वज, जिन्होंने भारत ही नही, दुनिया के पांच भू-खंडो में सदियों सदि तक अपने कर्म और कर्तव्य से मानवजाति को स्थायित्वता प्रदान कीया, उन्हें उनकी धरा के इतिहास में ही गुमनाम बना दिया गया !! यदि युगान्तर में उनकी वीरता दिखाई भी गई तो दास-दस्यु, बंदर-भालू, दैत्य-दानव, राक्षस तथा बुराई के रूप में !! गोंडवाना के आदिकालीन पृष्ठभूमि में आदिवासियों के पूर्वजों के वंशज, गढ़मण्डला, जिसे गढ़ा मंडला भी कहा जाता है, की कर्मवती, धर्मवती, बलवती, रणवती, एवं रणगति प्राप्त करने वाली “वीरांगना रानी दुर्गावती” थी, जिनकी आगामी २४ जून को ४४८वीं पुन्यतिथि देश का आदिम मानव समाज प्रतिवर्ष की भांति मनाने जा रहा है.

विस्तृत गोंडवाना भू-भाग के प्रतापी राजाओं, रानियों के संबंध में कुछ-कुछ विदेशी इतिहासकारों ने अपनी दिलचस्पी दिखाई, जिससे उनके इतिहास की कुछ झाकियां देखी जा सकी. विदेशी इतिहासकारों को गोंडवाना के मानव समाज, उनकी संस्कृति, बोली-भाषा, संस्कृति, साहस, वीरता आदि के बारे में जितनी समझ आई और जानकारी हासिल हो सकी, उन्होंने बखूबी सहेजा, जिसके कारण आज भारतीय मूलनिवासी समाज को उनके ऐतिहासिक पदचाप के निशां मिल सके.

गोंडवाना भू-भाग के अतीत के पन्नों को देखें तो उनके प्रकृतिवादी, मानवतावादी, समाजवादी, संस्कारवादी, धर्मवादी एवं कर्मवादी कला-कौशल की ऐतिहासिक जीवन संरचना में अपार मानवता का खजाना भरा पड़ा है, जिन्हें अनेक तरह से धूमिल करने का प्रयास होता रहा है. जो अवशेष भूमिगत खड़े हैं वे सदियों बीत जाने के बाद आज भी सीना तान के उनकी असली गौरवशाली जीवनरेखा, प्रकृतिवादी, मानवतावादी, समाजवादी, संस्कारवादी, धर्मवादी, कर्मवादी, कला-कौशल की वास्तविक एवं मजबूत आधारशिला की जीवनशैली को बयाँ कर रहे हैं, जिनकी झलक आदिम जनजातियों के लोक साहित्य, लोकगीत, लोक परम्परा, लोकसंस्कृति में आज भी जीवंत हैं. राग-विराग, आनंद–उल्लास, आदर्श जीवन, सेवाभाव, दया, करुणा विरोचित अनेक रोमांचक घटनाएं, देशभक्ति, समाज रचना, नीति-नियम, समता, समानता, स्ववालबन, सहयोग के सैकडो उदाहरण के सागर में कोयावंशी मानव समुदाय जीता है. इतिहास अपनी जगह है. इतिहास रचनाकार भले अनदेखा करें, किन्तु इस भूमि की सैकडो स्मृतियाँ, महल-किले, तालाब, बावली, भूमिगत सुरंग, बागग-बगीचा, नदियों के घाट, स्नानागार के चिन्ह आज भी मैजूद है. रूप सौंदर्य की बोल, लोकभाषा में विरह, प्रेम अपनी मात्रभूमि पर शत्रुओं के हमले पर सैन्य संगठन की गाथा, मात्रभूमि और अपनी इज्जत आबरू की रक्षा, धन-संपत्ति की स्वाधीनता के लिये मर मिटने वाले नर-नारियों के त्याग, बलिदान अमर कीर्ति बन गई है.

स्वाधीनता और इज्जत, आबरू की रक्षा, प्राणों की आहुति करने वाले महान नर-नारियों ने जो आदर्श पेश किया है, ऐसा इतिहास में अन्यत्र कम ही देखने को मिलेगा. कोइतुर नारियों की सबसे बड़ा खजाना है, आबरू. नश्ल की शुद्धता के लिये अपनी धरती को प्राण रहते कभी नही सौपा. इसी गौरव और स्वाभिमान के लिए कोइतुर मानव विश्व में पसिद्ध है. अपने गढ़ में जीते हैं और अपने आस्तित्व को बचाकर रखे हैं.

कोईतुर मानव अपनी इज्जत की रक्षार्थ हमेशा सतर्क रही हैं. जैसे वन्य प्राणी शत्रु या शिकारी के आहट मात्र से अपनी आत्मरक्षा के उपाय सोचता है, वैसे ही कोइतुर नारियां अपने उपर खतरे का या शत्रु का आक्रमण होने के अंदेशा में एक ही आह्वान में बच्चे, प्रौढ़, बूढ़े, बुढियां, नर-नारी संयुक्त रूप से रक्षार्थ तैयार रहते हैं. अपनी बुद्धी, कौशल, युद्ध रचना, सैन्य संचालन, शिकारी युद्ध, गौरिल्ला युद्ध, टिड्डी युद्ध, भौंर माछी युद्ध, हांका युद्ध, तीर, भाला, फरसा, गुलेल, गुर्फेंद, पासमार हथियार, दूरमार हथियार, ककंड, पत्थर, मिर्चिपावडर पानी का घोल, जहर बुझे तीर, तर्कस सबके पास मौजूद रहता है.

बचपन से बच्चे स्त्री-पुरुष युद्ध विद्दया, सिकारी विद्दया, ऊबड़-खाबड, घाट-पहाड, में वन्य प्राणियों को दौड़ाकर पकड़ने जैसे कला में प्रवीण होते हैं. इन विशेषताओं और चातुर्य से शत्रुओं का दांत खट्टे करने की कला इन कोइतुर समाज में कूट-कूट कर भरी रहती है. आज भी कोयावंशियो के सीधे मुकाबले में जीत हासिल करना असंभव है. उन्हें छल या कपट से धोका देकर ही परास्त किया जा सकता है, सो उन्हें हर तरीके से जीवन से परास्त करने के लिए सदियों से उनके साथ छल-बल चल ही रहा है.

गोंडवाना में जन्मे महान वीरांगनाओ मे से यहाँ कुछ नारियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है. गोंडवाना उच्चतम भूमि की वीरांगनाओं में से राजकुमारी हसला (लांजीगढ़), रानी मैनावती (गढ़ा कटंगा), रानी पदमावती (गढ़ा), रानी देवकुँवर (देवगढ़), रानी हिरमोतिन आत्राम (चांदागढ़), रानी कमलावती-भूपाल (गिल्लौरगढ़), रानी सुन्दरी-गढ़ा मण्डला (नामनगर) तथा रानी दुर्गावती (गढाकटंगा). रानी दुर्गावती की जीवनी के साथ इन महान नारियों के सम्बन्ध में कुछ संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत किया जा रहा है :

राजकुमारी हसला (लांजीगढ़)

देवगढ़ राज्य के अंतर्गत एक रियासत लांजीगढ़ था. लांजी बहुत बड़ा प्राचीन राज्य था. अवशेषों से ज्ञात होता है कि कुंवारा भिवसन इसी राज्य को भू-भाग में फैलता था. भिवसन के कई हजार साल बाद लांजीगढ़ एक छोटी सी रियासत ही रह गई थी. लांजीगढ़ में कोटेश्वर राजा की वीर अभिमानी एक कन्या थी. सत्य, निष्ठा, जाति, धर्म, और अपने पिता की आज्ञा पालन करने विजातीय सफाई सेवक से विवाह करना स्वीकार तो किया लेकिन अपनी जातीय, धर्म की रक्षा भी की.

एकबार उनके पिता राजा कोटेश्वर मुसीबत में फसकर पायखाने के नांद में गिर गये थे. वहाँ से निकालने की शर्त पर मेहतर ने राजकुमारी हसला का हाथ माँगा था. मुक्ति के लिये उसका शर्त मानकर राजा कोटेश्वर ने अपनी सत्य वचन का पालन किया. पिता के सत्यवचन और अपनी आन-मान की रक्षा करने उनकी बेटी (राजकुमारी) मेहतर से विवाह करने को तैयार हो गई. साथ ही अभिशिप्त भी किया हसला कुवारी ने- कि मुझ सुंदर राजकुमारी का विवाह गैर जाति से करने से अब यहाँ १४ वर्षों तक किसी गोंड युवक युवती का विवाह नही होगा.

शर्त के अनुसार विवाह हुआ तथा शादी का डोला जाते-जाते जैसे तलबा में पहुंचा, राजकुमारी और कुमार आत्म हत्या कर लिये. आत्म ग्लानी से मेहतर ने भी तालाब में कूदकर अपनी जान दे दी. आज तालाब के मेंढ में राजकुमारी हसला की समाधि है. हर वर्ष माघ पूर्णिमा को मेला भरता है. पिता की आज्ञा और अपनी जाति स्वाभिमान के लिये हसला कुंवारी शहीद होकर अपने आंचल को धब्बा नहीं किया. वही लंजकाई देवी के नाम से जग में प्रसिद्ध हुआ.

रानी मैनावती मरावी (कटंगा)

गढा कटंगा के राजा दुर्जनमल, यदुराय के वंशज १९वीं पीढ़ी में राज्य करता था. उसका वीर योद्धा पुत्र राकुमार यशकर्ण हुआ, जो बहादुरी और युद्धकला में प्रवीण था. उसका विवाह राजकुमारी मैनावती से हुआ. दोनों की प्रेम कहानी जग प्रसिद्ध हुआ. जन-जन के ह्रदय में विराजमान राजा कर्ण-मैनावती की गाथा अमर हो गयी. उनके प्रेम के नाम से नगर, घाट, तालाब इत्यादि का निर्माण किए गए और जनता के सुख-दुख में भागीदार होकर अमन चैन से नृत्य-संगीत और लोक संस्कृति को बढ़ावा मिला. गांव-गांव, नगर-कस्बा में उनके व्दारा रचे, बनाये गीत जन-जन के कंठ से निकलती थी. कर्मा, शैला, झूमर, लहकी, रेला पाटा, सुवा, डमकच, हर्ष विशाद और गीतों से गोंडवाना में रसिक प्रिय राजा-रानी की जोड़ी अमर कीर्ति बन गई. जहां ठहरे राजा डेरा, जहां स्नान किये राजा-रानी घाट, ऐसे अनेकों स्थानों में इस दम्पत्ति की गाथा अमर है. इन्होंने गोंडवाना के नर-नारियों के बीच गीत-संगीत में अपनी अमर गाथा छोड़ गए :



कहाँ गए मोर राजा कर्ण चिरइया रोवथे,
नैंना गढ़ के रानी मैनावती, राजा कर्ण की रानी.
गीत संगीत में जग को दे गयी निशानी,
मैनावती कर्ण की अमर है यही निशानी.

गढ़ कटंगा के ३६ वर्षो के शासन काल में राजा कर्ण की रानी प्रेम, करुणा और दया की सागर मैनावती गोंडवाने में अमर कथा छोड गई.

रानी पदमावती मरावी (गढ़ा)

गढ़ा के संस्थापक राजा यदुराय के ४८वीं पीढ़ी में महाराजा संग्रामशाह गढ़ मण्डला के सम्राट हुए. उनकी कीर्ति और यश प्राप्त करने में महरानी पदमावती का बहुत बड़ा त्याग और बुद्धि कौशल था. रानी पदमावती राजा संग्रामशाह की पटरानी थी, जो ५२ गढ़ ५७ परगने जीतने में राजा संग्रामशाह को साथ दिया. गढ़ कटंगा में दरबारे आम, संग्राम सागर, घुडसाल, हाथीद्वार, रानीताल और बाजनामठ की सिद्धि रानी पदमावती कि बुद्धि चातुर्य से हुआ.

बताया जाता है कि राजा संग्रामशाह भैरव बाबा के अनन्य भक्त थे. राजा संग्राम शाह हर रोज प्रात: काल पक्षियों के जागने से पहले नर-मादा (नर्मदा) में जाकर स्नान करते थे तथा स्नान के बाद बाबा की पूजा एवं तपस्या के रूप में अपना सिर काटकर भैरव बाबा को अर्पित करते थे. उसी समय भैरव बाबा प्रकट होकर उनका सिर पुन: स्थापित कर देते थे. भैरव बाबा और राजा संग्रामशाह के बीच  इस तरह भक्त और भक्ति का समागम कब से चल रहा था, किसी को पता नहीं था, हर रोज स्नान के पश्चात बाबा के लिये उनकी तपस्या इसी प्रकार से होती थी. एक दिन एक अघोरी भी नर-मादा जी में उसी समय स्नान करने आया, किन्तु राजा को इसका भान नही हुआ. राजा हर रोज कि तरह अपना स्नान और तप का कार्य पूरा करता. हर रोज भैरव बाबा प्रकट होकर उसका सिर पुनर्स्थापित करते. अघोरी, राजा की इस घटना को देखने हर दिन राजा से नजर छुपाके नर्मदा जी में स्नान करने जाया करने लगा. प्रतिदिन भैरव बाबा और राजा के बीच शक्ति और भक्ति को देखकर अघोरी के मन में ग्लानी पैदा हो गया. वह सोचने लगा कि राजा की बली चढाकर वह भैरव का भक्त बन जायेगा तथा राजा के मरने के बाद वह राजा बनकर राजगद्दी पर बैठ जाएगा. एक दिन अघोरी की इस युक्ति का भैरव बाब ने राजा के ह्रदय में अंतरप्रवाह कर दिया, जिससे वे विचलित हो गये और रानी पदमावती को सारी घटना बता दिए. वे समझ नही पा रहे थे  कि एक अघोरी के मन में यह भावना जगी कैसे एवं भविष्य में होने वाली घटना से कैसे निपटें. अंतरमन की सूचना के अनुसार रानी की सूझ-बूझ से राजा स्नान के लिये नरमादा जी गये और अपना नितकर्म जरी रखा. रानी का भाई शक्तिसिहं छुपकर अघोरी के आने के इंतजार में था. राजा अपने सिर भैरव को अर्पित करने वाला था उसी समय जैसे ही अघोरी राजा का सिर काटने वाला था, वैसे ही शक्तिसिंह ने अघोरी का सिर तलवार से काटकर धड सहित खौलते तेल के कड़ाहा में गिरा दिया. अघोरी को रक्तबीज की शक्ति हासिल था. राजा को भौरव बाबा दर्शन देकर आशीर्वाद दिया और राजा की नित्य तपस्या का यहीं से अंत हो गया.

६८ वर्ष के राजा के राज-काज में पदमावती, राजा के अंगरक्षक की भांति साथ में रहती थी. उनकी कर्म क्रान्ति, मातृभूमी की समृद्धी, जन्समुदाय की सुख तथा समृद्धी के लिए त्याग और बलिदान से गोंडवाना राज्य में सोने का सिका चला. कोई भूखा न था, न ही कोई भीख माँगता था. रानी इतनी महान थी  जिसके प्रताप से १०,००० हाथी, स्वर्ण भण्डार और अनेक गढ़-किले बनवाए गए. राजा संग्रामशाह की सफलता की कुंजी रानी पदमावती ही थी.

राजकुमारी देवकुँवर उइके (देवगढ़)

राजकुमारी देवकुँवर खंडाते का विवाह उइके वंश में हुआ था. अफगानों ने आक्रमण कर देवकुँवर को विधवा बनाकर राज्य को हडप लिया. राजा हरिया अपने सैनिको के साथ हरियागढ़ में शहीद हो गये. रानी अपनी जान बचाकर जंगल में छिपी रहीं. वहीं जुड़वा रनसुर और धनसुर दो पुत्र हुए. उन्होंने दोनों पुत्रों को योद्धा बनाया. वे बाद में राजा हुये. वे अपनी राजमाता के नाम से देवगढ़ राजधानी बनाया. वही देवगढ़ उइके वंश का संस्थापक हुआ.

रानी देवकुँवर अपने गरीबी के दिन जंगल में कंदमूल, फल खाकर झोपडी में बिताई. वीर बालकों को जन्म देकर राज्य प्राप्त किया. उनकी नाती ने जब नई राजधानी बनाई तो अपनी आजी के नाम से देवगढ़ में किला, तालाब, महल, वर्धा नदी के किनारे रानी दहार और बाग-बगीचा बनाया. वीर माता अपना जीवन जंगल, पहाड़ में बिताकर प्रसिद्ध राजवंश की संस्थापिका हुई. देवगढ़ आज भी छिंदवाडा जिले में अपना ऐतिहासिक धरोहर समेटे हुए खड़ा है, जो रानी माँ देवकुँवर की स्मृतियों को ताजा करती है.

रानी हिरमोतीन आत्राम (चांदागढ़)

दक्षिण गोंडवाना के राज्य चांदागढ़ में खांडक्या बल्लारशाह राजा हुआ. बल्लारशाह की रानी हिरमोतीन हुईं. राजा कुष्ट रोग से पीड़ित था. इसका इलाज बहुत करने पर भी दूर नहीं हुआ, जिसके कारण वह हमेशा अस्वस्थ रहने लगा. एक समय बल्लारशाह उत्तर दिशा में अपने आदमियों सहित ईरई नदी और झरपट नदी के किनारे शिकार करने गया. मचान बनाकर वे शिकार के लिए बैठे हुए थे. उसी समय एक खरगोश को देखा. खरगोश सफेद था. शेर उसका पीछा कर रहा था. कुछ देर बाद खरगोश शेर के पीछे दौड़ता था. कभी शेर खरगोश को दौडाता था तो कभी खरगोश शेर को. इस प्रकार राजा ने अदभुत दृश्य देखा. आखिर जब शेर खरगोश को दौड़ाया, तो दौड़ते-दौड़ते खरगोश एक कुंड के पास जाकर गायब हो गया. शेर और खरगोश के खेल खत्म होने के पश्चात राजा मचान से उतरकर कुंड के पास आया और देखा तो कुंड का पानी दूधिया था. राजा उस कुंड में दूधिया पानी देखकर आश्चर्य में पड़ गया. बाद में राजा ने उस कुंड के दूधिया पानी से हाथ-पैर धोया. राजा ने थोड़ी देर पश्चात अपने शरीर में एक अदभुत आश्चर्य देखा कि उसके शरीर के कुष्ट गायब हो गए. रानी को यह अदभुत घटना राजा ने बताया. रानी ने उस स्थान में जाने की इक्छा की. राजा ने जाकर उस कुंड में पूर्ण स्नान किया तथा उस परीक्षेत्र के १४ मिल एरिया में किला बनवाने की नीव डाली. रानी हिरमोतीन कलि-कंकाली का देवालय बनवाया और कई लोकोपकार के कार्य करवाए. राजा को सलाह देकर महल लोकपुर में बनवाया. १५ वर्षो तक राज्य की बागडोर संभाली. चांदा का किला बनवाने का श्रेय रानी हिरमोतीन को है. आज भी चांदागढ़ का किला भारत में प्रसिद्ध है.

रानी कमलावती सलाम (भूपाल)

गिल्लोरगढ़ के राजा कृपालसिंह की अति सुन्दर कन्या का विवाह भूपाल के राजा भूपालशाह से हुआ था. भूपाल उर्फ निजामशाह सलाम गोत्रधारी था. राजा ने क्षेत्र में कई ताल-तलैए बनवाए तथा एक फर्लांग एरिया में बांध बनवाकर ३५ कोस तक भरान भरने वाले तालाब/ सागर बनवाया जो आज भी तालों में ताल भोपाल ताल या भोपाल सागर के नाम से अपनी प्रसिद्धि हासिल कर रही है. इसी ताल के मेंढ़ बंधान पर रानी कमलावती के लिए महल बनवाया गया.

रानी कमलावती इतनी सुन्दर थी कि उसकी सौंदर्य की कीर्ति देश-विदेश फैला गई थी. रानी जितनी सुन्दर थी, उतनी ही बुद्धि कौशल, युद्धकला और कृषि उद्द्योग में दक्ष थी. किसानो के लिये खेतों में पानी देने के लिये नहरें बनवाई. अफगान सरदार दोस्त मुहम्मद उसकी सुंदरता की झलक पाने भूपाल में चढ़ाई कर दिया. गोंड सैनिकों को हलाली नदी में कतल कर महल में रानी को कब्जा करने घुसा. रानी भूपाल का पतन समझकर कमलावती महल में आग लगवाकर तथा महल से छोटे तालाब में कूदकर जौहर कर ली. गोंडवाने की महिलाओं ने जान रहते दुश्मन को अपनी मिट्टी कभी छूने नही दिया. विश्व प्रशिद्ध भूपाल ताल के मेंढ़ पर बना कमलावती का महल आज भी कमला पार्क में दबा पड़ा है. 


रानी सुंदरी मरावी (गढ़ा मण्डला)

रानी सुंदरी भोज बल्लाडशाह, चांदागढ़ के राजा की बहिन थी. राजा ह्रदयशाह, गढ़ा मण्डला को ब्याही गई थी. वह अपने पति के समान संगीतकला में प्रवीण थी. एक बार राजा ह्रदयशाह दिल्ली दरबार के संगीत स्पर्धा में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लिया. तब बादशाह औरंगजेब की सहजादी ह्रदयशाह की संगीत से मोहित हो गई. राजा को इसका इनाम मिलने वाला था. वह इनाम के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर अपनी अब्बा की आज्ञा चाही. इनाम में (स्वयं शाहजादी चिम्मुनिया) मुझे सौपकर अपना कर्तव्य पालन कीजिए.

सौत मुगल शाहजादी के आने पर रानी सुंदरी अपना धीरज और संतुलन नही खोया. उनके लिये बेगममहल अलग बनवाकर उसकी इज्जत की. राजा वीणावादन में प्रवीन थे. सोने के सिक्के में उनकी मोहर है. रानी सुन्दरी गोंडवाना की प्रजा वात्सल्य थी. उन्होंने हीरे, जवाहरत, मणियो से “रौशन ए चिराग” बनवाया था. इसी की अनुकृति है क़ुतुब मीनार. रानी सुन्दरी अनेक युद्ध में राजा का मार्गदर्शन किया. संगीतकला और साहित्य का विकास किया. उनकी इच्छा से नामनगर के महल में बनवाई गई वंशावली बीजक इसका प्रमाण है. जैसा नाम वैसा काम इस वीर रानी की स्मृतियाँ ताजी है.

रानी दुर्गावती मरावी (गढ़ा मंडला) 

इतिहास साक्षी है कि गोंडवाना की भूमि वीर माताओ की बलिदानी तथा आदर्श नारियों की भूमि रही है. ऐसे ही एक महान साहस की प्रतिमूर्ति, स्वामिनी और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए कुर्बान होने वाली रानी दुर्गावती थी, जो साक्षात भवानी थी.

रानी दुर्गावती का जन्म वर्तमान मध्यप्रदेश में हुआ था, जिसे कभी गोंडवाना कहते थे. गोंडवाना में गोंड लोगों की ज्यादा बस्ती थी. और वही यहाँ के शासक होते थे. यहाँ के महोबा राज्य के चंदेलवंशीय राजा शालीवाहन के यहाँ सन १५२४ में रानी दुर्गावती का जन्म हुआ. कई विद्वानों में अभी भी तिथि पर मतभेद है. किन्तु गोंडी विद्वान १५२४ के अक्टूबर की ५ तारीख को मानते हैं. रानी दुर्गावती अपनी माता-पिता की इकलौती सन्तान थी. इसलिये इनके पिता राजा शालीवाहन ने इनका लालन-पालन एक राजकुमार की तरह किया था. बचपन से ही राजकुमारी दुर्गा अश्त्र-शस्त्रों के साथ खेलती थी. तलवारबाजी, धनुर्विधा तथा घुड़सवारी का इन्हें बड़ा शौक था. राजकुमारी दुर्गा अत्यंत सुंदर और गुणवती थी. शिकार करने में अदभुत पराक्रम दिखाती थी.

राजकुमारी दुर्गा, देवी माता की परम भक्त थी. शायद इसलिये उन्हें दुर्गा अवतार ही मानते थे. सोलह वर्ष की आयु में इनकी सुंदरता तथा पराक्रम की ख्याति चारो ओर फैलने लगी. महोबा की दक्षिण सीमा पर ही उनका गोंडवाना राज्य था. वहाँ के उदयमान गोंड राजवंश की प्रतापी शासक महाराजा संग्रामशाह के बड़े पुत्र राजकुमार दलपतशाह भी रूपवान, गुणवान और वीर पुरुष थे, जिनकी वीरता की बात राजकुमारी दुर्गावती भी सुन चुकी थी. राजकुमार दलपतशाह को मन ही मन चाहने भी लगी थी. राजा शालीवाहन को राजकुमारी दुर्गावती की शादी की चिंता होने लगी थी और वे उसकी शादी के लिये योग्य राजकुमार तलाशने में लगे थे. राजकुमार दलपतशाह भी राजकुमारी दुर्गावती की सुंदरता और वीरता से परिचित थी. एक दिन राजकुमारी दुर्गावती ने राजकुमार दलपतशाह के लिये एक गुप्त संदेश भिजवाया. योजना के अनुसार १५४२ के संवत पंचमी के दिन राजकुमारी दुर्गा कुलदेवी माता की पूजा करने के लिये गई. उसी समय राजकुमार दलपतशाह राजकुमारी दुर्गावती को अपने घोड़े में बिठाकर महोबा से सिंगोरगढ़ ले आए. इस तरह राजकुमारी दुर्गावती महाराजा संग्रामशाह की पुत्रवधू स्वीकारी गईं. चंदेलवंश और गोंड राज्यवंश एक-दूसरे के नजदीक आ गए, जिससे इनकी शक्ति और बढ़ गई. कालिंजर पर आक्रमण के समय दलपतशाह की चंदेलों को एक सहायता के कारण दिल्ली के सुल्तान शेरशाह सूरी को मुह की खानी पड़ी और जान भी गंवानी पड़ी.

महाराज संग्रामशाह की मृत्यु के उपरांत राजगद्दी पर दलपतशाह बैठा. १५४५ में उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. जिसका नाम वीरनारायण सिहं रखा गया. सुख पूर्वक दिन व्यतीत होने लगे. लगभग १५४९ ई. में दलपतशाह की मृत्यु हो गई. चूँकि राजकुमार वीरनारायण सिहं उस समय ४ वर्ष के थे इसलिये रानी ने बहुत धीरज से काम लिया तथा वीरनारायण सिंह को गद्दी में बिठाकर स्वयं संरक्षिका के रूप में शासन का बागडोर संभाल लिया. प्रशासन के संचालन में रानी के दो मंत्रियों, आधारसिंह कायस्थ और मानसिंह ठाकुर ने खूब सहायता की. सन १५४९ से १५६४ ई. तक पंद्रह साल गोंडवाना राज्य की जन समुदाय को सुख-समृद्धी, अमन-चैन और साहस से भरकर उन्होंने अपना राज-काज संचालित किया परन्तु शत्रुओं ने एक विदूषी महिला शाशिका के द्वारा समृद्धीपूर्ण एवं पारंगत राजसत्ता के संचालन को देखकर ग्लानि से धीरे-धीरे राज्य को घेरना आरम्भ कर दिया था. रानी की नारी सेना भी तैयार थी. एक दिन मंत्री, सामंतों को दरबार में बुलाया गया तथा प्रजा की भलाई की बात की गई और गोंडवाना राज्य की रक्षा के लिए सचेत किया तथा हथियारों के निर्माण कराया गया.

बंदूकें और छोटी तोपें गढवाई और गुप्तचरो का जाल फैला दिया गया. किसानो के हित में सिचाई, पीने का पानी तथा कुंए, बावली, तालाब, नहर, एवं धर्मशालाओं का निर्माण कराया गया. आधारताल तथा इनके अनेक प्रतीक मौजूद है. रानी धार्मिक तो थी ही, दानशील भी थी. उन्ही दिनों रानी दुर्गावती अपनी राजधानी सिंगोरगढ़ के स्थान पर चौरागढ़ को बनाया. सतपुड़ा पर्वत की श्रंखला पर सुरक्षात्मक दृष्टि से यहाँ महत्वपूर्ण दुर्ग था.

गोंडवाने पर अनेक शत्रुओं की नजर थी ही. शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद मालवा क्षेत्र में बाजबहादुर ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था. सन १५५६ ई. में उसने रानी दुर्गावती को कमजोर समझकर उस पर आक्रमण कर दिया. रानी सचेत थी ही. वह रणचंडी के सामान अपनी सेना लेकर कूद पड़ीं और करारा जवाब दिया तथा बाजबहादुर पस्त पड़ गया, उसे भागना पड़ा. रानी दुर्गावती ने दिखा दिया की रानी भी किसी से कम नहीं है. उसने दुनिया को नारीशक्ति का बोध कराया. इसके पहले भी रानी दुर्गावती को अफगानियों से सफलता प्राप्त हुई थी.

सन १५६४ ई. में मुगल सम्राट अकबर को एक विधवा रानी के द्वारा गोंडवाना की सुंदर राजकाज चलाते देख बड़ी इर्ष्या होने लगी. उसने मानिकपुर के सूबेदार आसफखां को बड़ी सेना लेकर गढ़ा मण्डला पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी और रानी दुर्गावती के पास एक सोने का पिंजडा भिजवाया, जिसका अर्थ था- सुंदर स्त्रियों को महल में रहना ही सोभा देता है न कि राजकाज करना. जवाब में रानी ने एक पीजन (रुई धुनने का यंत्र) भेज दिया, जिसका मतलब था- नवाबों का काम रुई धुनना है, न कि शासन करना. क्योंकि अकबर, बहना (रुई धुनने वाली) जाति के थे. इससे चिढ़कर आसफखां को गढ़ा मण्डला पर शीघ्र ही चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी.

जिस समय रानी के पास आक्रमण का समाचार पहुचा, रानी के सैनिकों में हड़बड़ाहट मच गई. अधिकांश सैनिक अपने परिवारों की सुरक्षा के लिये चले गए. यहाँ रानी के पास मात्र ५०० सैनिक रह गए थे. इस स्थिति में भी रानी ने धैर्य और साहस नहीं खोई. मंत्री आधरसिंह वस्तुस्तिथि की जानकारी रानी को दे दी थी. रानी, पुरुष सैनिक के वेष में “सरवन” नामक अपनी सफेद हांथी में शत्रुओं का मुकाबला करने के लिये अपने सैनिकों के साथ भवानी के समान टूट पड़ी. उसने मंत्री से कहा- अपमानजनक जीवन से रणभूमी की मृत्यु श्रेष्ठ है, डटे रहो. सुरक्षात्मक युद्ध के लिए रानी नरई नाला चली गई. वहाँ उनकी सेना में २०,००० अश्वरोही तथा १०,००० हाथी थे. पूरी सेना के साथ रानी, विरोधी सेना पर फिर टूट पड़ी.

मुगल और गोंडवाने की सेना में भयंकर युद्ध छिड़ा. रानी हाथी पर सवार धनुष-बाण, भाला, बरसा रही थी. अंततः रानी के पराक्रम, युद्धशैली, नेतृत्व शक्ति तथा सैन्यशक्ति के सामने मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा तथा आसफखां युद्ध क्षेत्र से पलायन कर गया. रानी दुर्गावती अपने सैनिकों सहित जीत की खुशी लेकर मंडला की और बढ़ने लगी. सूर्यास्त होने पर सैनिक विश्राम करने लगे. पराजित होकर मुगल सेनापति दिल्ली नही लौटा, बल्कि वहीं डेरा डालकर रानी और उसकी सेना को फ़साने की कोशिश में लग गया.

रानी की इच्छा थी कि थोड़ी विश्राम के बाद आगे बढ़ा जाए, किन्तु सैनिक पूर्ण विश्राम करना चाहते थे. अंत में यह विश्राम ही उनके लिए घातक शिद्ध हुआ. विश्राम के समय ही आसफखां सेना तथा तोपों के साथ रानी की सेना पर आक्रमण कर दिया. रानी के पास एक भी तोप नही थे. उनहोंने रानी की सेना को संभलने का मौक़ा ही नही दिया. रानी अपने हाथी पर सवार होकर स्वयं सेना का संचलन कर रही थी. लगातार भयंकर गोला-बारूद बरसाए जाने के कारण रानी के सैनिकों के पैर उखड़ने लगे. लाशों से युद्धभूमि पट गई. राजकुमार वीरनारायण सिंह भी बहादुरी से लड़ता हुआ घायल हो गया. रानी ने उसे चौरागढ़ भिजवा दिया. वहाँ वीरनारायण सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए.

रानी की नारी सेना बहादुरी से लड़ रही थीं. रानी सेना के अग्र में रहकर सैनिकों को प्रोत्साहित कर रही थी. इतने में एक तीर आकार उनके आँख में लगा. रानी ने उस तीर को निकाल कर फेंका पर उस तीर की नोक (आड़ी) आँख में ही रह गई. इतने में दूसरा तीर आकार उनके कंठ पर लगा. उसे भी रानी ने निकार कर फेंका, किन्तु प्रहार पर प्रहार हो रहे थे. रानी पीड़ा के कारण मूर्छित सी हो गई. सेना विचलित होने लगी और पराजय का आभास होने लगा. महावत चाह रहा था कि रानी को विरापद स्थान नदी के उस पार ले जाए, परन्तु रानी युद्धभूमि से पीठ दिखाकर भागना उचित नही समझा. तब उसने महावत से कटार छीन लिया और शत्रु के हाथ पड़ने से पहले कटार अपनी छाती में भोंपकर समर क्षेत्र में अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली. यह स्थान जबलपुर जिले के बरेला परगना में बरही गाँव से डेढ़ मील की दूरी पर है. वहाँ एक चबूतरा बना दिया गया है. यात्री वहाँ से गुजरते वक्त एक कंकड वहाँ पर श्रृद्धा के रूप में डाल देते हैं. जो रानी की वीरता का स्मारक है.

रानी दुर्गावती का स्वदेश प्रेम, उदारता, स्वाभिमान, बहुमुखी व्यक्तित्व, साहस और आत्मविश्वास सम्पूर्ण मानव जाति के लिए अनुकरणीय है. वह एक ऐसी ज्योति बन गई, जिसके प्रकाश में प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रकाशित होता रहेगा. रानी ने आत्मसमर्पण करने के स्थान पर अंतिम क्षण तक संघर्ष का अनुगमन किया. नारी होकर वह अपनी कीर्ती इस संसार में छोड़ गई. जब तक इस संसार में वीरता का सम्मान है, तब तक इस वीरांगना की याद में श्रृद्धासुमन अर्पित होती रहेंगी. रानी  की यशोगाथा के कारण मध्यप्रदेश शासन ने सन १९८३ में जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम “रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय” रखा.

इस तरह वीरांगना रानी दुर्गावती की अद्भुत वीरता, समाज सेवा, राष्ट्रभक्ति की विलक्षण प्रतिभा पूरे जनसमुदाय, मातृभूमि व देश को गौरवान्वित किया. ऐसे महान विभूतियों के वंशज अपनी ही धारा पर अत्यधिक शोषित, पीड़ित व आतंकित है. ऐसी स्थिति में उनकी ऐतिहासिक स्मृतियों से समाज को एक नई ऊर्जा मिलेगी.

इसी आशा और विश्वास के साथ प्रतिवर्ष २४ जून को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड तथा देश के सभी आदिवासी बहुतायत राज्यों में इस वीरांगना रानी की शहादत दिवस धूमधाम से मनाया जाता है तथा उन्हें श्रृद्धासुमन अर्पित किया जाता है और किया जाता रहेगा.


जागो आदिवासी वीर बालाओं, वीर पुरुषों, जागो ! और देश को बचालो.

रविवार, 17 जून 2012

आदिवासी सोनी सोरी नक्सलवादी या आदर्शवादी ?

श्रीमति सोनी सोरी पुलिस के गिरफ्त में
          छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी और लिंगाराम कोडोपी नामक दो आदिवासियों की गिरफ्तारी ने अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं. इन दोनों को सरकार माओवादी बताती है और इन पर आरोप लगाया गया है कि ये लोग औद्योगिक समूह एस्सार ग्रुप से पैसे लेकर माओवादियों की छापामार सेना तक पहुंचाने में लगे थे. २५ वर्षीय लिंगाराम कोडोपी का मामला एक डेढ़ साल पहले भी सामने आया था जब छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने यह एलान किया था कि लिंगाराम कोडोपी कई अपराधों में शामिल है और वह फरार है, सच्चाई यह थी कि लिंगाराम इन दिनों नई दिल्ली स्थित एक संस्थान में दाखिला लेकर पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहा था. विश्वरंजन के बयान के बाद उसने घबराकर छात्रावास छोड़ दिया और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश के पास आया. स्वामी अग्निवेश और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इस मुद्दे पर एक प्रेस कांफ्रेंस की जिसमे अपने साथ लिंगाराम को भी बैठाया और पत्रकारों को बताया कि विश्वरंजन जिसके खिलाफ झूठे आरोप लगा रहे हैं और फरार बता रहे हैं वह व्यक्ति दिल्ली में पढ़ाई कर रहा है. स्वामी अग्निवेश ने डीजीपी विश्वरंजन को चुनौती दी कि वह आएं और लिंगाराम को स्वामी अग्निवेश के घर से पकड़ कर ले जाएं. उस समय तो यह मामला दब गया, लेकिन ९ सितंबर २०११ को पुलिस ने उसे दंतेवाडा से गिरफ्तार कर लिया.


         ३६ वर्षीय आदिवासी महिला सोनी सोरी एक अध्यापिका हैं. उसके खिलाफ भी पुलिस की डायरी में ढेर सारे आरोप दर्ज थे और अपने बचाव के लिए गुहार लगाने के मकसद से वह दिल्ली आयी थी. तीन बच्चों की माँ सोनी सोरी को ४ अक्टूबर २०११ को दिल्ली पुलिस ने दक्षिण दिल्ली में गिरफ्तार किया और छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया. इन गिरफ्तारियों के बाद छत्तीसगढ़ पीयूसीएल के पूर्व अध्यक्ष राजेन्द्र सायल ने एक बयान में कहा कि इन दोनों की गिरफ्तारी ने पुलिस की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिया है. क्योंकि दंतेवाडा में पुलिस ज्यादती के खिलाफ ये लोग लगातार आवाज उठा रहे थे, जिसकी वजह से काफी समय से पुलिस इन्हें पकड़ने के लिए बेचैन थी.

लिंगाराम कोडोपी

         इनकी गिरफ्तारी से कुछ सप्ताह पूर्व अनेक अखबारों में यह समाचार प्रकाशित हुआ था कि बी.के.लाला नामक एस्सार ग्रुप का एक ठेकेदार ९ सितम्बर को दंतेवाडा के बाजार में उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया जब वह लिंगाराम कोडोपी नामक एक माओवादी को १५ लाख रूपये दे रहा था. उन ख़बरों में यह भी बताया गया था कि लाला और लिंगाराम को तो पकड़ लिया गया लेकिन इनकी एक तीसरी सहयोगी सोनी सोरी वहाँ से फरार हो गई. अपनी फरारी की हालत में ही सोनी सोरी अचानक एक दिन नई दिल्ली में ‘तहलका’ के कार्यालय पहुंची और इस अखबार के लोगों से अनुरोध किया कि वे सच्चाई को सामने लाएं. उसने यह भी कहा कि उसके शुभचिंतकों की राय है कि वह खुद को पुलिस को सौंप दे और मामले को अदालत में जाने दे, लेकिन उसका कहना था कि जब वह निर्दोष हैं तो अपने को पुलिस को क्यों सौंपे. ‘तहलका’ के अनुसार उसने कहा कि ‘मै पढ़ी लिखी हूँ और मुझे अपने अधिकारों की जानकारी है. अगर मैंने कुछ गलत किया होता तो मै खुशी-खुशी जेल जा सकती थी. उसने यह भी जानना चाहा कि क्या पुलिस को मुझे गिरफ्तार करने से पहले इस बात का प्रमाण नही देना चाहिए कि मैने कौन सा अपराध किया है ?’ इससे पहले जयपुर में पीयूसीएल की सचिव कविता श्रीवास्तव के घर पर पुलिस ने चापा मारा और सोनी सोरी को पकड़ने के लिए पूरे घर की तलाशी ली. मजे की बात है कि पुलिस ने घर वालों को जो सर्च वारंट दिखाया उस पर किसी अधिकारी की मुहर नही लगी थी.

         ‘तहलका’ में सोमा चौधरी ने लिखा : ‘सोनी की आँखों में बीच-बीच में आँसू निकल आते थे, लेकिन वह उन औरतों में नही थी जो अपनी बेचारगी का व्यापार करे. उसने बेहद खतरनाक स्थितियों में खुद को एक बीमार औरत बताकर बड़ी मुश्किल से उड़ीसा की सीमा पार की और दिल्ली पहुँच सकी. गावं में उसने ५ वर्ष, ८ वर्ष और १२ वर्ष के अपने तीन बच्चों को रिश्तेदारों के घर या होस्टल में छोड़ रखा है. उसके पति कथित माओवादी के रूप में जेल में बंद हैं. उसके पिता जगदलपुर के अस्पताल में भर्ती हैं और विडंबना यह है कि उसके पिता को माओवादियों ने यह कह कर अपना निशाना बनाया कि वह पुलिस को साथ दे रहे हैं. लिंगाराम कोडोपी उसका भतीजा है जो जेल में बंद है. खुद सोनी सोरी को माओवादी हिंसा के पांच मामलों में आरोपी बनाया गया है. जिस सरकारी स्कूल में वह पढाती है वहाँ हर रोज पुलिस का छापा पड़ता रहता है और अब वह बंद होने के कगार पर है. इस स्कूल में तकरीबन १०० बच्चे पढ़ाई करते थे, जिनमे से ४० ने उस दिन से ही स्कूल आना बंद कर दिया जब से सोनी सोरी को फरार घोषित किया गया है.’

         छत्तीसगढ़ पुलिस की चर्चा विनायक सेन के मामले में काफी हो चुकी है. ह्त्या के फर्जी आरोप में बंद कोपा कुंजम नामक एक अन्य आदिवासी युवक को जमानत लेने में ढाई साल से भी अधिक समय लग गया. वनवासी चेतना आश्रम के संचालक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के मामले से भी लोग परिचित हैं, जिनके आश्रम को पुलिस ने यह कहकर पूरी तरह ध्वस्त कर दिया कि वहाँ माओवादियों को पनाह मिलती है. हिमांशु कुमार को भी छत्तीसगढ़ छोड़ना पड़ा.

         ११ सितंबर को दिल्ली के लिए जब सोनी सोरी रवाना हुई तो जंगलों के रास्ते छिपते छिपाते उसे बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. जिस स्थान से फोन के नेटवर्क की सुविधा थी, उसने पत्रकार तुषार मित्तल को दिल्ली में फोन करके बताया कि ‘पुसिल उसकी ह्त्या करना चाहती है और पुलिस ने उस पर गोली भी चलाई है. उसने बताया कि वह ज़िंदा रहना चाहती है ताकि लोगों को छत्तीसगढ़ की सच्चाई बता सके.’ और दुनिया को सच्चाई बताने के लिए ही शायद वह दिल्ली तक पहुँच सकी. बताया जाता है कि लिंगाराम को पुलिस ने जिस दिन गिरफ्तार किया उससे एक दिन पहले यानी ८ सितंबर को किरंदुल थाने के एक कांस्टेबल ने सोनी से मुलाकात की और कहा कि वह लिंगाराम को इस बात के लिए राजी करे कि लाला को पकड़वाने में वह पुलिस के साथ सहयोग करे. दरअसल पुलिस चाहती थी कि लिंगाराम कोडोपी माओवादी बनकर ठेकेदार बी.के.लाला से कुछ पैसे ले और उसे पुलिस को सौंप दे. इस कांस्टेबल ने सोनी से वायदा किया कि अगर वह ऐसा करा सकी तो उसके खिलाफ लगे सरे आरोपों को खत्म कर दिया जाएगा. सोनी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. अगले दिन ९ सितंबर को पलनार में उसके पिता के घर से सादी वर्दी में पुलिस का एक दस्ता पहुँचा और उसने जबरन लिंगा को वहाँ से उठा लिया. सोनी ने सीआरपीएफ की ५१ वीं बटालियन के डिप्टी कमांडर मोहन प्रकाश को फोन करके जानना चाहा कि जो लोग आए थे वे क्या उनके आदमी थे ? मोहन प्रकाश ने इससे इनकार किया. इसके वाद सोनी और उसके भाई रामदेव किरंदुल थाने गए और थाना इंचार्ज उमेश राहुल से घटना के बारे में बताया. लेकिन उमेश राहुल ने भी किसी जानकारी से इनकार किया और कहा कि हो सकता है लिंगा को नक्सलवादियों ने गिरफ्तार किया हो. अगले दिन अखबारों में खबर छपी कि ठेकेदार बी.के.लाला से पैसे लेते हुए लिंगा कोडोपी को गिरफ्तार किया गया और ख़बरों में सोनी को फरार घोषित किया गया. इसके बाद सोनी ने फैसला किया कि उसे फ़ौरन छत्तीसगढ़ से बाहर चले जाना चाहिए.

        इस कहानी के साथ एक और कहानी जुड़ी हुई है जिसका संबंध उड़ीसा के बड़ा पादार पंचायत के सरपंच जयराम खोड़ा से है. खोड़ा के अनुसार १४ सितंबर को उड़ीसा की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और पूछताछ के लिए छत्तीसगढ़ की पुलिस को सौंप दिया. छत्तीसगढ़ की पुलिस ने उन्हें गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखा और आठ दिनों तक भीषण यातना दी. इसके बाद उन्हें दंतेवाड़ा के एस.पी. के सामने पेश किया गया और जबरन एक बयान पर दस्तखत कराए गए. १९ सितंबर तक गैरकानूनी हिरासत में रखे जाने के बाद खोड़ा को एक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और बाद में २१ सितंबर को रिहा कर दिया गया. जिस बयान पर खोड़ा से जबरन हस्ताक्षर कराया गया उसमे कहा गया है कि वह (खोड़ा) बी.के.लाला के साथ नक्सलवादियों के कमांडरों से मिलने और उन्हें पैसे देने गए थे. खोड़ा का कहना है कि बी.के.लाला के साथ उनका संबंध इतना ही है कि लाला ने उनके गांवों में १५-२० ट्यूबवेल लगवाए हैं और स्कूल की एक नई इमारत बनायी है. आखिर सोनी सोरी के खिलाफ पुलिस इस तरह क्यों पीछे पड़ी है ? यह जानने के लिए सोनी की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है.

        सोनी सोरी एक अच्छे खाते-पीते आदिवासी परिवार की सदस्य है जो राजनीतिक तौर पर सक्रिय है. सोनी के पिता मजरूर राम सोरी १५ वर्षों तक सरपंच के पद पर रहे और वे इलाके के प्रतिष्ठित लोगों में माने जाते हैं. सोनी के चाचा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं और विधायक रह चुके हैं. सोनी के बड़े भाई कांग्रेस में हैं. सोनी का भतीजा लिंगाराम कोडोपी एक प्रतिभाशाली युवक है जो पत्रकारिता की पढ़ाई करने दिल्ली गया हुआ था. खुद सोनी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक है. उसने हिमांशु कुमार के आश्रम में काफी कुछ सीखा और हिमांशु कुमार को अपना गुरु मानती है. माओवाद के नाम पर आदिवासियों के उत्पीड़न से सोनी उद्विग्न रहती थी और इसके खिलाफ आवाज उठाती थी. वह इस सच्चाई को समझती थी कि यहाँ की खानिज संपदा के दोहन के लिए कारपोरेट घराने इस इलाके को आदिवासियों से खाली कराना चाहती है और सरकार उनकी मदद कर रही है. सरकार, कारपोरेट घराने और पुलिस के इस नापाक गठजोड़ का पर्दाफास करने में वह लगी थी. दंतेवाड़ा जिला और खास तौर पर वह इलाका जिसमें लिंगा और सोनी सक्रिय थे मसलन पलनार, समेली, जबेली, गीदम आदि माओवादियों का गढ़ माना जाता है. यहाँ घने जंगल हैं और आए दिन पुलिस और नक्सलवादियों के बीच मुठभेड़ होते रहती है. सोनी और लिंगा ने ठेकेदारों द्वारा यहाँ के मजदूरों के शोषण के खलाफ आवाज उठाई और लगातार संघर्ष के जरिए आदिवासियों की न्यूनतम मजदूरी को ६० रूपये से बढ़ाकर १२० रूपये कराया. इन ठेकेदारों से अच्छी खासी रकम पुलिस अधिकारियों को मिलती थी जो मिलनी बंद हो गई थी. माओवाद से निपटने के नाम पर सहकार ने यहाँ से उन सभी तत्वों का सफाया अभियान चला दिया जो आदिवासियों के हक की लड़ाई में शामिल हैं. इन दोनों के सक्रिय होने से पूर्व आम तौर पर आदिवासियों की आवाज उठाने वाला कोई नही था. इससे पहले भी लगभग २ वर्ष पूर्व ३० अगस्त २००९ को लिंगा कोडोपी को पुलिस ने जबरन उसके घर से उठा लिया था और ४० दिनों तक गैर कानूनी ढंग से हिरासत में रखा था. जब भी कोई लिंगा के बारे में पता करने जाता पुलिस इनकार कर देती कि उसने गिरफ्तार किया है. अंत में हिमांशु कुमार ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालन में बंदी प्रत्याक्षीकरण याचिका दायर की और तब कहीं १० अक्टूबर को लिंगा को गैर कानूनी हिरासत से रिहाई मिल सकी. हिमांशु कुमार के साथ इस याचिका पर हस्ताक्षर करने वाले एक अन्य आदिवासी मासाराम को अगले दिन पुलिस ने पकड़ लिया और आरोप लगाया कि उसने एक नक्सलवादी की रिहाई में मदद की है. हिमांशु कुमार को फिर अदालत की शरण लेनी पडी और मासाराम की रिहाई हो सकी. छत्तीसगढ़ में इस तरह की घटनाएं एक आम बात हो गई है.

         दिल्ली में पत्रकारिता की शिक्षा पूरी करने के बाद लिंगा कोडोपी ने तय किया कि वह छत्तीसगढ़ वापस जाए और वहाँ के लोगों की बदहाली के बारे में नियमित तौर पर अखबारों को जानकारी दे. वह इसी इरादे से अपने इलाके में गया भी था. लेकिन पुलिस नहीं चाहती थी कि कोई ऐसा व्यक्ति जो आदिवासियों की समस्या से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ हो और जिसके पास इतनी सारी जानकारी हो वह कभी पत्रकारिता के जरिये पुलिस के कारनामों का खुलासा करे. एस्सार ग्रुप द्वारा पैसे देने के मामले में कुल चार लोग गिरफ्तार किए गए हैं, जिनमे एस्सार के जनरल मैनेजर भी शामिल है जो दंतेवाड़ा में तैनात थे. पुलिस हिरासत में सोनी सोरी को भीषण यातनाएं दी गई है और उसके गुप्तांगों में पुलिस ने पत्थर डाले जिनके बारे में अदालत में डाक्टरी रिपोर्ट भी पहुँच गई है. वह चलने-फिरने में असमर्थ है और इस बारे में पुलिस का कहना है कि अक्टूबर में हिरासत के दौरान वह फिसल कर गिर पड़ी जिसमे उसे चोट आ गई है.

         पुलिस और अदालत के व्यवहार पर बस्तर में आदिवासी बच्चों के लिए आश्रम संचालित कर रहे समाजसेवी (जिनका आश्रम अब ध्वस्त किया जा चुका है) हिमांशु कुमार ने न्यायधीश के नाम एक पत्र भेजा है जिसे प्रकाशित किया जा रहा है. ४० हजार वर्ग किलोमीटर में फैला बस्तर का यह क्षेत्र आज एक युद्धभूमि बन गया है जहां १९८० के दशक से ही आदिवासियों के लिए न तो कोई कानूनी अधिकार है और न मानव अधिकार. सोनी सोरी और लिंगाराम कोडोपी जैसे न जाने कितने आदिवासियों को गुमनामी की मौत मिली, लेकिन अब लगता है कि मौत भले ही मिले पर वे गुमनामी के अँधेरे में नही खोएंगे.



काश कि मैंने बस्तर ना देखा होता- हिमांशु कुमार


          काश कि मैंने बस्तर ना देखा होता, तो मै भी राष्ट्र की मुख्य धारा का एक विश्वसनीय नागरिक होता, फिर मै भी क्रिकेट की ये वाली, या वो वाली टीम के जीतने या हारने की राष्ट्रीय समस्या पर शर्तें लगाता हुआ, पूरी शाम ऐस से बिताता और चर्चा करता टी.वी. सीरियलों की सास बहू की शह और मात के गंभीर मुद्दे पर, शर्त लगाता अपनी पत्नि से कि देख लेना इस बार बहू ही जीतेगी, लेकिन बस्तर से लौटने के बाद मै अजीब और खतरनाक बातें करने लगा हूँ. मेरे रिश्तेदार मेरे पहुँचते ही आपस में इशारे करके बारी-बारी से उठकर चले जाते हैं, क्योंकि मेरे बातों में होते हैं आदिवासियों के जले हुए घर, अपमानित आदिवासी बच्चियां, ‘देश का विकास कर रही अच्छी सरकार’ के भयानक क्रूर कर्म, मेरी बातों में होते हैं करतम जोगा, सुखनाथ ओयामी, मदकम हिड़मे और पोंजेर गाँव में कुल्हाड़ी से काट दिए गए महुआ बीनते ६ आदिवासियों के खून से लथपथ शव, क्या कोई मुझे फिर से एक अच्छा नागरिक बना सकता है ? जो टी.वी, क्रिकेट और फिल्मों जैसी सभी बातें करें, असभ्य आदिवासियों, बराबरी, विकास के सामान बंटवारे जैसी बतें बिलकुल ना करे.

        हिमांशु कुमार का अपराध बस इतना है कि उसने सच का साथ दिया. मानवाधिकार की सेवा की. नक्सलवादी उन्मूलन के नाम पर निर्दोष आदिवासियों के ऊपर होते अनाचार का विरोध किया. लिंगाराम कोडोपी जैसे ऊर्जावान व आदिवासी का जज्बाती उभरते युवा नेतृत्व को मार्गदर्शन देना उनका एक बड़ा अपराध बन गया. बस्तर का सच यही है कि वहाँ सच बोलना और लिखना सबसे बड़ा अपराध है. आदिवासी समाज सेवा से सरोकार रखने वाला सच बोलने से डरता है वहीं दूसरी त तरफ लोकतंत्र का स्तंभ कहलाने वाला मीडिया पूर्ण सत्य लिखने हेतु नफ़ा नुकसान को ध्यान में रखता है. सोनी सोरी का प्रकरण इसका अच्छा उदाहरण है. छत्तीसगढ़ से प्रकाशित राष्ट्रीय अखबारों व न्यूज चैनलों ने सोनी सोरी के साथ हुए दुर्दांत अत्याचारों व राज्य व देश को कितना सच बताया या दिखाया, यह किसी से छिपा नहीं है. एक महिला के गुप्तांगों में पत्थर डालना अत्याचार की पराकाष्ठा को दर्शाता है, लेकिन यह खबर देश में आवाम तकनही पहुँच सकी. क्यों ? क्या इसीलिए की सोनी सोरी एक आदिवासी महिला है ?

गुप्तांगों में एस.पी. ने पत्थर भर डाले थे ! ‘न्यायाधीश के नाम 
गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का पत्र’

आपकी अदालत में गोम्पाड गाँव में सरकारी सुरक्षाबलों द्वारा तलवारों से काट डाले गए सोलह आदिवासियों का मुकदमा पिछले दो साल से घिसट रहा है. इस अदालत में उन आदिवासियों को लाते समय मुझे एक नक्सलवादी नेता ने चुनौती दी थी कि इन आदिवासियों की ह्त्या करने वाले पुलिस वालों को अगर तुम सजा दिलवा दोगे तो मैं बन्दूक छोड़ दूंगा. 


माननीय न्यायाधीश महोदय,
सर्वोच्च न्यायालय,
नई दिल्ली.

           यह पत्र मैं आपको सोनी सोरी नाम की आदिवासी लड़की के संबंध में लिख रहा हूँ, जिसके गुप्तांगों में दंतेवाड़ा के एस.पी. ने पत्थर भर दिए थे और जिसका मुकदमा आपकी अदालत में चल रहा है. उस लड़की की मेडिकल जांच आपके आदेश से कराई गई और डॉक्टरों ने उस आदिवासी लड़की के आरोपों को सही पाया और डॉक्टरी रिपोर्ट के साथ उस लड़की के गुप्तांगों से निकले हुए तीन पत्थर भी आपको भेज दिए हैं.

          कल दिनांक ०२/१२/२०११ को आपने वो पत्थर देखने के बाद भी उस आदिवासी लड़की को छत्तीसगढ़ के जेल में ही रखने का आदेश दिया और छत्तीसगढ़ सरकार को डेढ़ महीने का समय जवाब देने के लिए दिया है.

          जज साहब मेरी दो बेटियाँ हैं. अगर किसी ने मेरी बेटियों के साथ ये सब किया होता तो मै डेढ़ महीना तो क्या डेढ़ मिनट का भी मोहलत नहीं देता ! और जज साहब अगर यह लड़की आपकी अपनी बेटी होती तो क्या उसके गुप्तांगों में पत्थर डालने वालों को भी आप पैंतालीस दिनों का मोहलत देते ? और क्या उससे ये पूछते कि आपने मेरी बेटी के गुप्तांगों में पत्थर क्यों डाले ? पैंताली दिन के बाद आकर बता देना और तब तक तुम मेरी बेटी को अपने घर में बंद करके रख सकते हो ! पत्थर डालने वाले उस बदमास एस.पी. को पता है कि उसकी रक्षा करने के लिए आप यहाँ सुप्रीम कोर्ट में बैठे हुए हैं, इसीलिए वह बेफिक्र होकर खुलेआम इस तरह की हरकत करता है और आपके कल के आदेश ने इस बात को पुख्ता कर दिया है, कि इस तरह की हरकत करने वालों की रक्षा सुप्रीम कोर्ट लगातार उसी तरह करता रहेगा जिस तरह अंग्रेजों के समय में सरकारी पुलिसों की रक्षा के लिए करता रहा है.

          जज साबह, ये अदालत उस आदिवासी लड़की की रक्षा के लिए बनाई गई थी, उस बदमास एस.पी.के लिए नही. ये इस लोकतांत्रिक देश की सर्वोच्च न्यायालय है और इसका पहला काम देश के सबसे कमजोर लोगों की रक्षा सबसे पहले करने का है. आपको याद रखना पड़ेगा कि इस देश के सबसे कमजोर लोग महिलाएँ, आदिवासी, दलित, भूख से मरते हुए करोड़ो लोग हैं और इस अदालत को हर फैसला इन लोगों के हालात को बेहतर बनाने के लिए देना पड़ेगा. लेकिन आजादी के बाद से इन सभी लोगों को आपकी तरफ से उपेक्षा और इनकी दुर्गति के लिए जिम्मेदार लोगों को संरक्षण दिया गया है.

          मेरे पिता जी इस देश की आजादी के लिए लड़े थे. उन सभी के आजादी के दीवानों के क्या सपने थे ? उन लोगों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि आजादी मिलने के बाद एक दिन देश की सर्वोच्च न्यायालय एक आदिवासी बच्ची के बजाय उस पर अत्याचार करने वाले को संरक्षण प्रदान करेगी. हमें बचपन से बताया गया कि देश में लोकतंत्र है. इसका मतलब है करोड़ों आदिवासियों, करोड़ों दलितों, करोड़ों भूखों की तंत्र. लेकिन आपके सारे फैसले इन करोड़ों लोगों को बदहाली में धकेलने वाले लोगों के पक्ष में होते हैं. आपको जगतसिंहपुर, उड़ीसा में अपनी जमीन बचाने के लिए गर्म रेट पर लेटे हुए औरतें और बच्चे दिखाई नही देते ? उनके लिए आवाज उठाने वाले कार्यकर्ता अभय साहू को जमीन छीनने वाले कंपनी मालिकों के आदेश पर सरकार द्वारा गिरफ्तारी आपको दिखाई नही देती ?

          आपकी अदालत में गोम्पाड गाँव में सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा तलवारों से काट डाले गए. १६ आदिवासियों का मुकदमा पिछले २ सालों से घिसट रहा है. इस अदालत में उन आदिवासियों को लाते समय मुझे एक नक्सलवादी नेता ने चुनौती दी थी और कहा कि इन आदिवासियों की ह्त्या करने वाले पुलिस वालों को अगर तुम सजा दिलवा दोगे तो मै बन्दूक छोड़ दूँगा, लेकिन मै हार गया. इस अदालत में आने व सजा के तौर पर पुलिस ने उन आदिवासियों के परिवारों का अपहरण कर लिए और वे लोग आज भी पुलिस की अवैध हिरासत में हैं. आपने दोषियों को अब तक सजा न देकर इस देश की सरकार को नहीं जिताया, बल्की आपने मुझे चुनौती देने वाले उस नक्सलवादी को जिता दिया. अब मै किस मुह से उस नक्सलवाद के सामने इस देश के महान लोकतंत्र और निष्पक्ष न्याय तंत्र की डींगे हांक सकता हूँ ? और उसके बन्दूक उठाने को गलत ठहरा पाऊँगा ?

          अगर इस देश में तानाशाही होती तो हमें संतोष होता. हम उस तानाशाही के खिलाफ लड़ रहे होते, परन्तु हमसे कहा गया कि देश में लोकतंत्र है- परन्तु इस तंत्र की प्रत्येक संस्था विधायिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका मिलकर करोड़ों लोगों के विरुद्ध और कुछ धनुपशुओं के पक्ष में पूरी बेशर्मी के साथ कार्य कर रहे हैं. इसे हम लोक तंत्र नही, लोकतंत्र का ढोंग कहेंगे और अब हम इस लोकतंत्र के नाम पर इस ढोंगतंत्र को एक दिन के लिए भी बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं हैं. आज मै प्रण करता हूँ कि आज के बाद किसी गरीब का मुकदमा लेकर आपकी अदालत नही आऊंगा. अब मै जनता के बीच जाऊँगा और जनता को भड़काऊँगा कि वह इस ढोंगतंत्र पर हमला करके इसे नष्ट कर दें, ताकि सच्चे लोकतंत्र की ईमारत खड़ी करने के लिए स्थान बनाया जा सके.

          अगर आप इस लड़की को इसलिए न्याय नही दे पा रहे हैं कि सरकार नाराज हो जायेगी और उससे आपकी तरक्की रुक जाएगी ? तो ज़रा इतिहास पर नजर डालिए. इतिहास गलत फैसला लेने वाले न्यायाधीशों को कोई स्थान नहीं देता. सुकरात को सत्य बोलने की अपराध की सजा देने वाले न्यायाधीश का नाम कितने लोगों को याद है ? जीजस को चोरो के साथ शूली पर कीलों के साथ ठोंक देने वाले जज को कौन जनता है ? आपके इस अन्याय के बाद सोनी सोरी इतिहास में अमर हो जाएगी और इतिहास आपको अपनी किताब में आपका नाम लिखने के लिए एक छोटा सा कोना भी प्रदान नही करेगा. हाँ अगर आप संविधान की सच्ची भावना के अनुरूप इस कमजोर अकेली आदिवासी महिला को न्याय देते हैं तो सत्ताधीश भले ही आपको तरक्की न दें, लेकिन आप अपनी नजरों, अपने परिवार कि नजरों में और इस देश की नजरों में बहुत तरक्की पा जायेंगे.

          अगर आप इस पत्र को लिखने के बाद मुझे गिरफ्तार करते हैं, तो मुझे गिरफ्तार होने का भी दुःख नही होगा. क्योंकि उसके बाद मैं कम से कम अपनी दोनों बेटियों से आँख मिलाकर बात तो कर पाऊंगा और कह पाऊँगा कि मै सोनी सोरी दादी के साथ होने वाले अत्याचारों के समय डर के कारण चुप नही रहा और मैंने वही किया जो एक पिता को अपनी बेटी के अपमान के बाद करना चाहिए था.


‘श्रीमति सोनी ने जेल से लिखा खत’

          छतीसगढ़ की दंतेवाड़ा जेल में बंद स्कूल शिक्षिका सोनी सोरी ने सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को गुरुजी के संबोधन के साथ ३ दिसंबर २०११ को एक पत्र लिखा. पुलिस अदालत और जेल की स्थिति को बयान करने वाला सोनी सोरी का यह एक जीवंत दस्तावेज है-

पूज्यनीय गुरुजी,
सादर स्नेह प्रमाण.

          आप लोग कैसे हैं ? हमें आप लोगों की बहुत याद आती है. ये जीवन तो आप लोगों के प्रयास से ही है. आपके बारे में एनजीओ वाले हमसे पूछ-ताछ किए. पूरी बात तो खत में नही लिख सकती, पर कुछ बातें बता सकती हूँ. वह पूछने लगे कि आप कैसे जानती हैं उनको (हिमांशु कुमार को), तो मैंने कहा- वो मेरे गुरु हैं. फिर मैंने कहा कि उनके साथ छत्तीसगढ़ में रहते समय जो व्यवहार किया गया, वो गलत था. मैंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार हो या नेता या पुलिस, सबने उनके साथ गलत किया. एनजीओ वाले पूछने लगे कि ऐसा आपको क्यों लगता है ? मैंने कहा- जो गुरु हमें सच के साथ लड़ना और संघर्ष करना सिखाया हो, वो गलत कैसे हो सकते हैं. आज मै जो संघर्ष कर रही हूँ, ये उन्ही गुरु की शिक्षा है. वो छत्तीसगढ़ आएंगे. उन्हें आना ही होगा. क्योंकि आज मेरी अकेले की पीड़ा नही बल्कि इस जेल में लगभग ६० महिलाएँ तकलीफ में हैं. वे मेरे जैसे ही शिकार हैं, जिन्हें फर्जी केस में फसाया गया है. अब इन लोगों को भी उनकी जरूरत है. ऐसी अनेक बातों पर मेरा जेल में वाद-विवाद हुआ. मै जब से इस जेल में हूँ, लोग अपनी नई-नई तकलीफों से वाकीफ कराते हैं. उनकी बातों को सुनकर मैं आपको याद करती हूँ.  इन लोगों में एक विश्वास जगाने की कोशिश करती हूँ. जब आपसे मिलूंगी तो पूरी बातें बताउंगी. आप में से कोई हमसे मिलने आएगा, यह सोचकर इन्तजार में हूँ. अपनी तरफ से न्यायालय में वह सब कुछ बताने की कोशिश करती हूँ, जो मुझपर बीत रही है. फिर भी मेरी बातों को गंभीरता से न्यायालय जज नही ले रही है, ऐसा मुझे लगता है. आपतो यहाँ की स्थिति से हमसे ज्यादा वाकिफ हैं. श्रीमति योगिता वासनिक, जज मैडम से १४/११/२०११ तारीख की पेसी में वाद-विवाद हुआ. उस दौरान मेरे वकील दुबे सर भी नही थे. मैडम का कहना था कि- तुम्हे दिल्ली से गिरफ्तार करने के बाद जब तुम्हें मेरे न्यायालय में पेश किया गया था, तब तुम ठीक थी. मैंने कहा- मैडम मै उस समय ठीक थी. आपके न्यायालय में पेश करना था. फिर न्यायालय सोचती सजा देना या न देना. वो मुझे अपनी हिरासत में रखकर इतना बड़ा सजा देकर आपके न्यायालय में क्यों भेज दिया है ? आप क्या सजा दोगे ? गुरुजी,  मैडम कहने लगी- १०/१०/२०११ तारीख को जब कोर्ट में आपको लाए थे, तो उस दिन ये सब बातें आपने क्यों नहीं बताया ? मै तुरंत कार्यवाई करती. तब मैंने कहा- आपने अपने न्यायालय के अंदर मुझे क्यों नही बुलाया ? तो कहने लगी कि- हमें बताया गया की बाथरूम से गिर गई और उठ नही पा रही है. फिर भी मैडम आपको आदेश देना था कि मुझे न्यायालय में कैसे भी करके लाओ. आप ऐसा करती तो मै जरूर बताने की कोशिश करती. आपने तो हमें कोर्ट के बाहर रखकर जेल में डालने का निर्णय किया. फिर क्या मै कोर्ट के बाहर उन पुलिस वाले के सामने बयान देती ? जो कि मेरे हालत के जिम्मेदार थे. झंडा के बारे में भी बहस हुई, गुरुजी, १४/११/२०११ तारीख को तीन केस न्यायालय में पेश किए और इस पर बहस हुआ. मैडम कहने लगी कि- आपका और केस आया है. तब मैंने कहा- आप हमें बताने के बजाय पुलिस वालों से पूछिए कि ये लोग डेढ़ सालों से क्या कर रहे थे जो हमें अरेस्ट नही किया. मैडम कहने लगी- पूछने पर पुलिस का कहना है कि वह हमेशा फरार रहती थी. तब मैंने कहा- ऐसी बात थी तो आपके न्यायालय में भी पहले जानकारी दिए होंगे कि ये महिला फरार है, फिर मैडम आपने कार्यवाही क्यों नहीं किया. मेरे शिक्षा विभाग में न्यायालय से आपको नोटिश भेजना चाहिए था. हंसकर मैडम कहती है- तुम्हारी बात बिलकुल सही है. मैडम बोली- तुम्हारे केस के बारे में सोचती हूँ तो मै खुद उलझ जाती हूँ. कुछ समझ में नही आ रहा है, ऐसे-ऐसे केस ला रहे हैं, एक तरफ तुम डेट से ही वेतन भी ले रही हो और तुम्हारे फरार रहने की भी जानकारी पुलिस वाले ने न्यायालय को सूचित नही किया. गुरूजी, प्लीज कुछ कीजियेगा. मै अपने हालत से परेशान हूँ. मै बेगुनाह होने के बाद भी जेल में और मेरे साथ इतना कुछ करके वो लोग बाहर हैं. इससे अच्छा तो मर जाना उचित है. ये लोग जो कुछ भी हमारे साथ किए हैं, हर पल हर घंटा मेरे सामने रहता है. मै भूल नही सकती. अंकित गर्ग एस.पी. हमसे ही बोला है- न्यायालय नीयम क़ानून ये सब मेरे आफिस में ही निर्णय होता है.


                                                                                                                               श्रीमति सोनी सोरी
                                                                      २६/११/२०११
साभार "आदिवासी सत्ता"
जून २०१२




गुरुवार, 7 जून 2012

प्राकृति का वेद वेदों का वेद "अजप वेद"

     हमारे पूर्वजों ने हमें जीवन दिया, जीवन जीने का मार्ग बताया और हमारे वंशजों के लिए अर्थात भविष्य के मानव जीवन के सार्थक मूल्यों को संजोये रखने के लिए भी उन्होंने जीवन मन्त्र दिए, किन्तु समय के गर्त ने उन सांस्कारिक जीवन मूल्यों के मन्त्रों को निगल लिए.


     मानव के वैदिक जीवन और वर्तमान भौतिक जीवन में आज जमीन आसमान का फर्क हो गया है. मानव और विज्ञान इस तथ्य को जानने के लिए सक्षम हो गए हैं कि वह भूत के गर्त में जाकर तत्यों का पता लगा सके. किन्तु गोंडी विचारों, परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार विज्ञानवर्तमान युग की देन नहीं है. प्रकृति की उत्पत्ति और विज्ञान की उत्पत्ति समकालीन हैं. अर्थात रासायनिक क्रिया से प्रकृति का निर्माण हुआ. यह कहा जाए कि यदि रासायनिक क्रिया नही हुई होती तो प्रकृति की उत्पत्ति नहीं होती और प्रकृति का निर्माण नही हुआ होता. इस तथ्य को हमारे पूर्वज विज्ञानरूपी ज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व से ही जानते थे, तभी उन्होंने सर्वप्रथम विज्ञान की प्रक्रिया से संरचित प्रथम संरचना प्रकृतिको पूज्य माना. प्रकृति की संरचना के पश्चात जीवों की संरचना में मनुष्य स्वयं आता है. यह समझ आता है कि हमारे पूर्वज सृष्टि और प्राणियों की उत्पत्ति की वैज्ञानिक संरचना की महीनता को समझते थे, भले ही विज्ञान का ज्ञान न समझ पाए हों. इसीलिए उन्होंने जो दृश्य अपार दिखाई दिया उसे ही पूज्य मान लिया.


     प्राचीन गोंडी मान्यताओं में विज्ञान के समावेश का ज्ञान नही होते हुए भी वैज्ञानिक थी. यह तथ्य आज भी इस आध्यात्मिक तथ्यों से साबित होता है कि- गोंड संरचनात्मक शक्ति को ही बड़ादेवअर्थात सबसे बड़ा शक्ति मानता है. इस बड़ादेव की शक्ति में प्रथमतः केवल दो ही कारक तत्व शामिल हैं जो संरचना संरचित करती हैं. वह शक्तियाँ हैं- ऋण (-) और धन (+), चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण एवं प्रतिकर्षण, स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व, स्त्रीतत्व एवं पुरुषतत्व, दाता एवं ग्रहण करने वाला. इन तत्वों, शक्तियों (Powers) का समावेश पुकराल के समस्त दृश्य-अद्रश्य संरचना के लिए लागू होता है. इन अंश तत्वों के सम्मिलन की प्रक्रिया से तीसरे नए अंशतत्व का निर्माण अथवा विघटन की प्रक्रिया प्रकृति के चक्रण का मूल सिद्धांत है. इस प्रकृति चक्रण के सिद्धांत को आधुनिक विज्ञान ने भविष्य के लक्ष्य हेतु अपने जन्म के गर्त में जाकर साबित भी किया है. इस तरह संरचना निर्माण के तथ्यों का ज्ञान कराने वाला सर्वप्रथम प्राकृतिक विज्ञानहै. अर्थात प्रकृति का स्वरुप और प्राणियों की कोमल काया प्राकृतिक विज्ञान की देन है. प्राकृतिक विज्ञान के पैदा होने के बाद ही तरह-तरह के सहायक विज्ञानों में जन्म लिया, किन्तु मूल रूप में विज्ञान पूरे स्वरुप में प्राकृतिक विज्ञानही है.


     अब सवाल यह उठता है की इस ज्ञान की खोज कब और कहाँ से शुरू हुई ? वर्तमान में इसका सटीक जवाब विज्ञान के पास भी होना संभव नही है. किन्तु यह सत्य है कि आधुनिक विज्ञान को प्रकृति ने ही पाला-पोसा और रास्ता दिखाया है, किन्तु आज विज्ञान जन्म देने वाली कोख (प्रकृति) का ही चीरहरण करने में लगा है. या यूं कहा जाए की विज्ञान लालची मानव के हाथों की कठपुतली बन गया है. विज्ञान मानव के लिए जितने अच्छे आगे बढ़ने और विकास के रास्ते खोले, उससे कहीं ज्यादा मानव समाज और प्रकृति को विनाश के करीब पहुचा रहा है.


     साथ ही साथ यह सवाल भी उठता है कि जब विज्ञान की प्राप्त सुविधाएँ नही थी तब मनुष्य संभवतः ज्यादा सुखी था बनिस्बद विज्ञान की सुविधाएँ मिलने के. तब वह कौन सी चीज थी जो मानव को लंबी उम्र, संपन्न एवं सांस्कारिक परिवार और खुशहाल जीवन देता था ? यह वर्तमान और भविष्य के मानव के लिए विचारार्थ एक प्रश्न है, जिसका उत्तर खोजने और जानने के लिए आज किसी के पास समय ही नहीं बचा है. इसलिए निश्चित ही मानवीय संस्कार नष्ट हो रहे हैं और संस्कार के बिना मानव भी अमानव या पशु बन रहा है.


     मै समझता हूँ कि मानव के वर्तमान और भविष्य की अमानवीयता के लिए हम ही जिम्मेदार हैं, किन्तु सबसे ज्यादा वह मानव समाज है जो मूलनिवासियों के लिए अब तक कुंठित व्यवहार का तरह-तरह के अनाध्यात्मिकता, असांस्कारिकता तथा अमानवीयता आदि के कलुषित बीज अपने जेहन में हमेशा-हमेशा के लिए संजोकर रखा है. इसके पश्चात भी गोंडवाना के मूलनिवासी पूर्वजों द्वारा सदियों पूर्व बोया गया आध्यात्मिकता, सांस्कारिकता और मानवीयता का बोया गया बीज अब तक कायम है. वह बीज हैं प्राकृतिक वेद मन्त्र का.


      चारो वेदों को हम जानते है. इसके अलावा भी एक और वेद है, जिसे हम विवरणात्मक रूप में "प्राकृतिक वेद" कह सकते हैं. यह वेद प्रकृति का सबसे प्रथम वेद है. इस वेद के बाद ही कालान्तर में आर्यों के आगमन के बाद जो वेद लिखे गए वे वर्तमान में प्रचलित चारों वेद हैं. इस वेद को वेद्कारों के पूर्वजों ने वर्तमान चारों वेदों को लिखने के पूर्व उसका अध्ययन करने का प्रयास किया किन्तु, पूर्णतः समझने में नाकाम रहे. जितने समझ पाए वह उनके लिए पर्याप्त नहीं था. जितना समझ पाए उसी में से वर्तमान वेदों को लिखने का मार्ग प्रशस्त किया और उस वेद को हमेशा-हमेशा के लिए निर्वास या गर्त पर कहीं छिपा दिया गया. वे इसे पूरी तरह इसलिए नहीं पढ़ पाए, क्योंकि वह संभवतः द्रविडियन (गोंडी) लिपि में लिखा गया है. इस लिपी के स्त्रोत "सैंधव सभ्यता, मोहन जोदाडों की सभ्यता" के उत्खनन में पाए गए हैं. उन्हें आशंका थी की यदि यह प्राकृतिक वेद प्रचलन मे रहा तो उनके राजा ब्रम्हा, विष्णु, इंद्र जैसों को मानने वाला, सम्मान देने वाला इस पृथ्वी पर कोई नहीं रह जाएगा. उनका मंदिरी और भगवानों का सत्तात्मक आध्यात्म तथा उनका भरण पोषण का माध्यम खत्म हो जाएगा. इसलिए उन्होंने इस प्रथम वेद का प्रचार-प्रसार बंद कर दिया. इस वेद का नाम है "अजप वेद".


        “अजप वेद वेदों में एक नया नाम है. संभवतः इसके जिक्र न ही किसी संत समागम में होता है और न ही इसके कोई उदाहरण हैं. देश और विदेश के संत समागमों में वर्तमान वैदिक गाथाएँ सर से पैर तक बखाने जाते हैं, किन्तु वह वेद जो प्रकृति और मानवता को अक्षुण्य रखने के लिए लिखा गया, उसका इस मानव सांसारिक जमीन पर अस्तित्व बोध किंचित मात्र भी नही होता. इसका अनस्तित्व बोध भी अनार्यों और आर्यों के मध्य सदियों से चली आ रही धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कारिक असमानता और पक्षपातपूर्ण रवैये को पुष्ट करता है. वस्तुतः यह खोज का विषय है कि अब तक इसका जिक्र क्यों नहीं हुआ ?


     बताया जाता है कि यह वेद ८८ शम्भुओं के मध्यकाल में लिखी गई होगी. अर्थात मध्यकालीन संभू गौरा के समकालीन, जो गोंडी गणना में आर्यों के आगमन के हजारों वर्ष पूर्व का है. गोंडी साहित्यकारों से मेरी कुछ वर्ष पूर्व चर्चा हुई थी तो उन्हों इस बात की आशंका जताई थी की भारत के दक्षिण भाग अर्थात दक्षिण भारत में कही पर इस वेद को किसी मंदिर के तलघर में छिपाकर रखा गया है. ऐसा भी हो सकता है कि उनके वंशज इसे छुपाकर पीढ़ी के अंतराल के कारण भूल भी चुके हों. यह भी स्पस्ट नहीं है कि वह मंदिर, स्थान कहाँ हो सकती है या वर्तमान में यह मंदिर है या नही तथा यह भी स्पस्ट नहीं है कि यह वेद किसी कागज़ में लिखा गया है या किसी धातु के प्लेटों में. किन्तु यह माना जा रहा है कि इस पर प्राकृतिक एवं रासायनिक क्रियाओं का प्रभाव नगण्य रहेगा. हजारों सालों तक जमीन में गड़े रहने के बाद भी यह कायम रह सकता है. बताया जाता है कि इसे प्रकृति की तरह अटल विश्वासपूर्वक शांत मन एवं सौम्य भाव से साईलेंटली पढ़ा जाता था. इस वेद के शब्द्बंधों एवं मंत्रों का प्रवाह और प्रभाव बिजली की कौंध की तरह होता था. अर्थात तुरंत प्रभावकारी. यह आर्यों के हाथ कैसे लगी ? इसे अब तक कहाँ रखा गया है ? यह सब तथ्य भी धर्मावलंबियों के लिए गहन खोज का विषय है और जिम्मेदारी भी.


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