गणेश
पूजा श्री बाल गंगाधर तिलक ने सन १९०५ में पूना, महाराष्ट्र से शुरू किया
था। श्री बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीय हित में सामुदायिक एकता के महत्व
को प्रदर्शित करने के लिए गणेश पूजा का महत्व बताया था। वह निश्चित ही देश
की आजादी के लिए समयानुकूल सामुदायिक एकता को प्रदर्शित करने का माध्यम
था। यह
उत्सव आज शहर से फैलकर गाँव गाँव तक पहुच रहा है. वहीँ ग्रामीण आदिवासी
समाज में इस उत्सव की पूर्ण स्वीकारोक्ति अब भी नहीं मिलती। इसका आशय यह
बिलकुल नहीं है कि उन्होने देश कि स्वतन्त्रता मे साथ नहीं दिए या उनमें
राष्ट्रीयता, देशभक्ति कि कोई कमी रही, बल्कि बाल गंगाधर तिलक और महात्मा
गांधी के स्वतन्त्रता आंदोलन के पहले इस देश के आदिवासी/ जनजातियों ने ही
स्वतन्त्रता आंदोलन की नीव रखी थी। जीतने क्रांतिकारी गांधी के समय के
स्वतन्त्रता आंदोलन मे शहीद हुए उससे कई गुना ज्यादा इस देश में
स्वतन्त्रता आंदोलन की नीव रखने आदिवासी/ जनजाति वीरों ने अपनी आहुति दी।
तब न ही गांधी जी का आंदोलन खड़ा हुआ था और न ही बाल गंगाधर तिलक का।
आज गणेश स्थापना के मायने बिलकुल भिन्न हैं। हम इस माध्यम से
परिवार, समुदाय की एकता को भी प्रदर्शित नहीं कर पा रहे हैं। कहाँ गया वह
सामूहिक हित, राष्ट्रीयता, देश हित और जन हित की भावना ? किस सामाजिक और
सांस्कारिक जीवन की ओर बढ़ रहे हैं हम ? किस सांस्कारिक जीवन को अपना रहा
है मानव समाज ? हम किस तरह के सांस्कारिक बीज बो रहे हैं अपनी आने वाली
पीढ़ी और समाज की धरती पर ? यह मेरे समझ से परे है।
गणेश एवं दुर्गा उत्सव की सार्थकता -
आज से शहरों में गणेश उत्सव के नाम से शोरगुल शुरू हो गया।
हैसियत के आधार पर गणेश की मूर्तियों की बोली लग रही है। पचास-सौ से लेकर
हजारों में। यह उत्सव घर, परिवार, मोहल्ले और समुदाय की हैसियत को
प्रदर्शित करने का माध्यम भी बन गया है। जितनी बड़ी मूर्ती उतनी बड़ी
हैसियत के साथ यह उत्सव शुरू होता है। नौ दिन तक बच्चे, जवान और बूढों में
भी इस उत्सव का परवान चढ़ा होता है। कई पढ़ने वाले बच्चे स्कूल से भी
छुट्टी ले लेते हैं। बहुत अच्छा लगता है यह देखकर कि सभी लोग मिल-जुल कर
इस कार्य में अपनी भागीदारी निभाते हैं। स्थापना के समय से अंत तक हवन
पूजन, कीर्तन, नाच, गम्मत, प्रतियोगिता आदि इस उत्सव में शामिल हो जाते
हैं। अधिक खुशियाँ मनाने के लिए हैसियत के अनुसार आर्केस्ट्रा, फ़िल्मी
अभिनेताओं के कार्यक्रम को आमंत्रित कर लिया जाता है। अंतिम दिन के हवन
में अनेक खाद्य पदार्थों का मिश्रण आग के हवाले कर देते हैं। जो अन्न
मानव/ प्राणियों के जीवन का मुख्य आधार है, उसे आग में जलाकर
गणपति/मूर्तियों से आशीर्वाद प्राप्त/प्राप्ति मान लेते हैं।
उसी प्रकार गणेश उत्सव के पश्चात दुर्गा उत्सव का समय आता है।
यह उत्सव मातृका पूजा के रूप में पूरे देश में परवान के साथ मनाया जाता है।
बड़े-बड़े कृत्रिम भवन और आकर्षक पंडाल, झाकियां, उसपर कृत्रिम पैंट और
रासायनो का रंगरोगन बहुत ही भाता है। लोग आकर्षित होते है। इस आकर्षण को श्रृद्धा और मानवीय संस्कार मान लेते है। इसका भी ९ दिनों पश्चात वही हश्र किया जाता है, जो गणेश उत्सव का होता है।
पूरे देश में लाखो टनों के हिसाब से मूर्तियों, झाकियों का कचड़ा जलाशयों
में डालकर प्रकृति की इकोसिस्टम/जीवन चक्रण को खराब करने का मानव निर्मित
कुटिल खेल किया जाता है। क्या ऐसे उत्सवों के स्वरुप को हम अपनी संस्कृति का परिवेश मान सकते हैं ?
गणेश/दुर्गा उत्सवों का लाभ -
हिंदू वैदिक ग्रंथों में गणेश को बुद्धि का दाता/देवता माना गया
है और इसी भावना से समस्त हिंदू समुदाय मिट्टी के बने कृत्रिम गणेश की
मूर्ती की स्थापना कर ९ दिन तक इसकी सेवा धूप-दीप जलाकर तथा आरती उतारकर
करता है।
आरती में इसकी महिमा का बखान इतना कि "अन्धन को आँख देत, कोढ़िन को काया,
बाँझन को पुत्र देत, निर्धन को माया" और बहुत से बखान इसमें मिलते हैं.
अतिसंयोक्ति की भी सीमा होती है, परन्तु इसकी कोई सीमा नहीं है। इन उत्सवों के प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष लाभ का किस तरह आकलन किया जाए, यह मेरे समझ से परे है। यदि हम इसे मानव सांस्कारिक लाभ की दृष्टि से भी देखे तो भी वास्तविक तथ्य नजर नहीं आता।
क्या तिलक के द्वारा १९०५ में प्रथम गणेश स्थापना के पूर्व इंसानों में
बुद्धि नहीं थी ? क्या लोगों में वेदों, पुराणों को लिखने के पूर्व बुद्धि
नहीं थी ? क्या विज्ञान के आविष्कार के समय मनुष्य में बुद्धि नहीं थी ?
फिर आज यहाँ इसे बुद्धि के देवता कहकर मजाक क्यों बना रहे है ? इस मजाक में
कहीं न कहीं किसी न किसी व्यक्ति या समुदाय का हितलाभ तो जरूर होगा तभी तो
देश में गणेश उत्सव और दुर्गा उत्सव उल्लास भरा और हंगामेदार होता है।
प्रत्यक्ष लाभ-
इन उत्सवों के पूर्व से ही मूर्तियों का निर्माण शुरू हो जाता है. ये मूर्तियां आर्डर पर या बिना आर्डर के भी बनाए जाते है। इससे कुछ मूर्तिकारों को वर्ष में एक या दो बार आर्थिक लाभ होता है। पंडाल लगाने वाले का पंडाल ९ दिन के लिए किराए पर लग जाता है। इसके पश्चात स्थापना के सामग्रियों का दौर चलता है। इसमें सबसे ज्यादा व्यवसाईयो को १० दिन तक विभिन्न पूजा सामग्रीयों के विक्रय से आर्थिक लाभ होता है। पूजक और पंडिताई करने वाले लोगों को भी बैठे-बैठे दान मिलते रहता है। आम जनता इस अवसर पर श्रृद्धा के नाम से सर्वाधिक आर्थिक हानि शिकार होते रहता है।
उसे कुछ भी नहीं मिल पाता. इसलिए आम जनता इसी कहावत से चरितार्थ होते हैं -
"चीता का मुह रीता का रीता" अर्थात जो मेहनत से रूपये पैसे कमाता है, वह
एक सप्ताह तक अपनी मेहनत की कमाई को इन्ही उत्सवों में दान, दक्षिणा,
चढ़ावा, भोग देकर फिर से खाली हो जाता है। उन्हें इस अन्ध श्रृद्धा से क्या लाभ होता है, मुझे पता नहीं।
मानव सांस्कारिक लाभ -
इस परिवेश/व्यवस्था के द्वारा सुदृण मानव समाज ने अपने संस्कारों
को गली कूचों में निकाल कर रख दिया नजर आता है. इन उत्सवों तक घर के
संस्कार गली में ही नजर आते हैं। आज का बदलता परिवेश निश्चित ही इसका गवाह है। माता पिता की सेवा संस्कार गणेश उत्सव के संस्कारों से फीका पड़ जाता है।
जिसने पैदा किया, टट्टी पेशाब धोया, पाला पोसा, चलना सिखाया, जीवन का
दर्शन कराया, वही मानव आज अपने मूल ईस्वरीय संस्कार स्वरुप ज़िंदा माता
पिता की सेवा को छोड़कर मूर्ती पूजा में लगा है। इस कटु सत्य के शिवा इन उत्सवों की गहराई में मुझे कोई सांस्कारिक लाभ नजर नहीं आता है।
इन कृत्रिम उत्सवों की हानियाँ -
नौ दिन पश्चात इन सभी छोटे एवं भारी भरकम मूर्तियों को नदी या पवित्र जलाशयों के हवाले कर देते हैं।
इनको बनाने में लगी सामग्रियां लकड़ी, मिट्टी और रंग रोगन के लिए उपयोग
में लाये जाने वाले पैंट, हानिकारक रासायनिक पदार्थ सभी जल में डाल देते
हैं और यह मान लेते हैं कि हमने अगले आने वाले साल तक के लिए गणपति/माता जी
से आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। मूर्ती विसर्जन के नाम से प्रशासनिक अमले को भी इसमें झोक दिया जा रहा है। बड़े-बड़े मशीनों और क्रेनों का इस्तेमाल मूर्तियों को नदी और जलाशयों में विसर्जन करने के लिए लगाया जा रह है।
पवित्र विसर्जन के नाम से लाखो टन कचड़ा नदी, जलाशयों में डाल देते हैं,
परन्तु जलाशयों में कचड़ा, रासायनिक पैंट आदि डालते समय हम यह नहीं सोचते
कि इसका जलचरों पर और मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा. प्रतिवर्ष इन
मूर्तियों के लाखो टन कचड़े और पैंट के जरह से मछलियाँ और अन्य जलचर,
वनस्पति आदि नष्ट हो रहे हैं। पानी जहरीला हो रहा है और पानी जहरीला होने के कारण पीने के लिए उपुक्त नहीं रहा।
कचडों से जलाशय पटने के कारण जलाशयों की जल धारण क्षमता कम हो गए हैं या
पूरे पट चुके है, जिसके कारण जमीन का मीठे जल का स्तर नीचे जाना और आसानी
से मीठे जल की उपलब्धता नहीं होने से इसे प्राप्त करने के लिए होड़ मची
रहती है।
नलों में कतार लगी रहती है. इसे प्राप्त करने के लिए लाठी-भोंगे,
चाक़ू-तलवारों का चलना आम बात हो गई हैं, कईयों की जानें जा चुकी है। दूसरी ओर हवन-पूजन के समय अंधाधुंध जलाए जाने वाली अन्न सामग्री, लकड़ी आदि का धुआँ जीवनदाईनी वायु का प्रदूषण भी बढ़ाता है। लाऊडस्पीकर को तेज आवाज में बजाया जाना मोहल्ले की निशानी बन जाती है। इससे ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता है, जिससे शहरों में पढ़ने वाले बच्चे, बीमार व्यक्ति आदि अत्यधिक प्रभावित होते हैं। क्या यही है ईश्वर के प्रति मानव समाज की वास्तविक श्रृद्धा और संस्कृति के अर्थ का प्रदर्शन ?
आदिम संस्कृति एवं सार्थकता -
आदिम समाज की संस्कृति में मूर्ती पूजा का रिवाज नहीं है. आदिम
समाज की संस्कृति प्रकृति संरक्षण पर विश्वास रखता है और यह मानता है कि
प्रकृति संरक्षित है तो मानव जीवन संरक्षित है। इसी समय भादो अमावस्या के पश्चात या कुंवार उजियारी से उसके जीवन के प्रकृतिगत सांस्कारिक कार्य शुरू होते हैं। अपने सांस्कारिक संरचना के आधार पर समस्त आदिवासी समाज में "नया खाने" का रिवाज है। इस नया खाई में किसानो के द्वारा बोये गए पहली फसल के अनाज और नए साग-सब्जी का प्रथम भोग अपने पूर्वजों को देता है। उसके बाद वह स्वयं ग्रहण करता है।
इस प्रकृतिगत जीवन सांस्कारिक पूजा में अपने कुल गोत्रज जीव, वनस्पति,
पञ्च तत्व (धरती, हवा, पानी, अग्नि, आकाश), सभी ग्रह-नक्षत्र, दशो दिशाओं,
वन संपदा, खनिज सम्पदा आदि को घर पर देव स्थान और घर से बाहर जीवों के रहने
के स्थान या स्वयं के खेत में किसी झाड़ के नीचे स्थान की स्वच्छ जल से
लिपाई कर दीपक जलाकर, बंदन लगाकर और साल झाड़ से प्राप्त गोंद (राल) का
छेने के अंगार में होम देकर सभी प्रकृतिगत देव स्वरूपों का सुमिरन करते हुए
नए फसल/खाद्य सामग्रियों का भोग चढाता है।
इसके पश्चात घर के अंदर पूर्वज स्थान/देव स्थान में यही प्रक्रिया दोहराते
हैं, किन्तु यहाँ अपने कुल, कुनबा, पुरखा का सुमिरन कर भोग चढाया जाता है।
आदिम समाज की पूजा पद्धति में किसी भी अन्न या खाद्य सामग्री को जलाकर भोग
देने का विधान नहीं है और न ही शंख फूकने व पोंगा बजा-बजा कर आवाज करने की
जरूरत।
नया खाई के अलावा प्रत्येक प्रमुख कार्यों (जैसे-धान का बीज खेत
में डालना, रोपा लगाना, रोपा लगाकर खत्म करना, धान काटना, धान की मिसाई
करना, मिसाई खत्म करना, धान को कोठी में डालना, बोवाई के लिए धान बीज कोठी
से निकालना, त्यौहार मनाना आदि) की शुरुवात और किसी कार्य के अंत में भी
इसी प्रक्रिया को कार्य के तथ्यों/विषयवस्तुओं की मानवीय जीवन में महत्ता
और उपयोगिता के आधार पर उनकी पूजा-अर्चना/सुनिरन की जाती है।
सभी धार्मिक कार्यों के लिए सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह होता है कि परिवार की
स्त्रीशक्ति के रजोवृति के समय देव, घर, परिवार की कोई भी पूजा/उपासना का
कार्य नहीं किया जाता।
इसके अलावा ग्रामीण पारिवेश में ग्राम देवताओं- ग्राम निवासियों
तथा ग्राम की रक्षा करने वाली ग्राम माता खेरमाई, ग्राम की रक्षा करने वाला
ग्राम प्रमुख ठाकुर देव, ग्राम के पशुधन, फसलों की सुरक्षा करने वाला खीला
मुठ्वा, ग्राम के शरहद में रहकर ग्राम में व्याधियो को घुसने से रोकने
वाला देव नारसेन देव आदि की पूजा प्रत्येक वर्ष खेती का कार्य शुरू होने के पहले कर लिया जाता है।
रोग, व्याधि की ईलाज के लिए प्रकृति की गोद में पाए जाने वाले वानस्पतिक
औषधि, जड़ी-बूटियों, दवादार पौधों, पत्थरो, मिट्टी, पत्तों, जीव-निर्जीव,
ठोस-तरल पदार्थों, तत्वों आदि तथा ग्रामीण जीवन पद्धति में प्रचलित आंतरिक
विद्या (तंत्र-मंत्र) शक्ति एवं प्राप्ति के स्थलों (पाट-पीढ़ा) आदि की
पूजा अगस्त अमावश्या में किये जाने की महत्ता आदिम ग्राम जीवन के परिवेश
में मिलती है।
मानव जीवन के सभी आवश्यक संस्कार, सभी आवाश्यक वस्तुएं, खाद्य
पदार्थ, औषधियां, प्राकृतिक विद्या/ईश्वर आदि इसी पुकराल
(प्रकृति-श्रृष्टि) में विद्यमान हैं। इसलिए आदिम समाज किसी अन्य ईश्वर या भगवान को नहीं ढूँढता। वह ईश्वर स्वरुप माता पिता, पूर्वजों के अलावा प्रकृति की ही किसी न किसी रूप में पूजा करता है। इसीलिए वह प्रकृति का पुजारी कहलाता है। सम्पूर्ण आदिवासी समाज के किसी भी पूजा विधान में मूर्ती पूजा की महत्ता नहीं मिलती। यही प्रकृति पूजा का सास्वत सत्य है।
एक विशिष्ट प्रकार के स्वार्थी और जहरीली मंशा रखने वाले मानव प्रजातियों द्वारा इस देश की कुदरती ज्ञान, संस्कार, आस्था वाले मानव समाज और उनकी उपजाऊ विवेक मे जो कृत्रिम आस्था के जहरीले बीज बोये जा रहे हैं, वे सब संस्कार, एकता, मानवता, भाईचारा, ईश्वरत्व पैदा करने के लिए नहीं, बल्कि कुदरत, शिक्षा, विज्ञान, इन्सानों की बुद्धि और विवेक को बांझ बनाए रखने के लिए सोच समझकर ये सब उपक्रम शुरू किए गए हैं !!
एक विशिष्ट प्रकार के स्वार्थी और जहरीली मंशा रखने वाले मानव प्रजातियों द्वारा इस देश की कुदरती ज्ञान, संस्कार, आस्था वाले मानव समाज और उनकी उपजाऊ विवेक मे जो कृत्रिम आस्था के जहरीले बीज बोये जा रहे हैं, वे सब संस्कार, एकता, मानवता, भाईचारा, ईश्वरत्व पैदा करने के लिए नहीं, बल्कि कुदरत, शिक्षा, विज्ञान, इन्सानों की बुद्धि और विवेक को बांझ बनाए रखने के लिए सोच समझकर ये सब उपक्रम शुरू किए गए हैं !!
*****
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें