शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

मानसिक परिवर्तन से ही स्वाभिमान की जागृति

ऋग्वेद में एक व्यक्ति, एक स्थान में कहता है कि मै मन्त्रों की रचना करता हूँ | मेरे पिता चिकित्सक हैं | मेरी माता गेंहूँ आटा पीसने का कार्य करती है | इससे यह स्पष्ट होता है कि जातिगत भेद-भाव स्वार्थवश कथित विशिष्ट वर्ग के द्वारा थोपी गई है | विश्व प्रशिद्ध इतिहासकार पेंका का मत है कि आर्यों ने यूरेशिया (मध्य यूरोप एवं एशिया) के वोल्गा नदी के कछार से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जम्बूद्वीप (शंभू द्वीप, गोंडवाना लैंड), रेवाखंड में प्रवेश किया | तब सम्पूर्ण भारत गोंडवाना लैंड कहलाता था | वृहद गोंडवाना लैंड में दक्षिणी गोलार्ध- आस्ट्रेलिया, अफ्रिका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका, जावा, सुमात्रा द्वीप समूह जुड़ा था | यह भूगोल वेत्ताओं ने स्पष्टतः स्वीकार लिया है, क्योंकि यहाँ जो यूकेलिप्टस के वृक्ष पाए जाते हैं, जिसे नीलगिरी भी कहते हैं, आस्ट्रेलिया से भारत लाया गया था, ऐसी मान्यता थी जो कि अब निर्मूल सिद्ध हो चुकी है, वस्तुतः मध्यप्रदेश में नदियों के कछारों में पाए गए जीवाश्म यूकेलिप्टस के ही हैं और सम्पूर्ण भारत में इन महा भूखंडों के प्राणी, वनस्पति के जीवाश्म पाए जाते हैं, वे एक सामान हैं |

यूरेशिया में प्रवासियों ने इस संस्कृति के सभ्य धरती पर किस प्रकार प्रवेश किया, किस तरह यहाँ के निवासियों को उंच-नीच का भेदभाव डालकर, दस्तावेज और ग्रन्थ लिखकर वर्चस्व कायम किया | इनके विवेकपूर्ण अध्ययन और विश्लेषण से इन तथ्यों को ज्ञात किया जा सकता है | उनके द्वारा रचित इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यहाँ पर ही अपना रक्त संबंध और नश्ल भी मिलाने में कामयाब हो गए | आर्य और अनार्य जैसी भिन्न प्रकृति के संस्कृतियों से हिंदू संस्कृति के वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया | वही ग्रन्थ वर्ण व्यवस्था और आर्यों के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सत्ता कायम करने का अनुकूल अस्त्र बने | आर्यों द्वारा निर्मित धर्म के प्रचार स्तंभ, मंदिर, धाम, पीठ की स्थापना कर इस धरती के मूलनिवासियों को स्वीकार कराने का राज्य आश्रय तथा सत्ता प्रमुख को अपने बस में कर इस धरती के मूलनिवासियों को स्वीकार कराने का राज्य आश्रय तथा सत्ता प्रमुख को अपने बस में कर सम्पूर्ण समाज को अपने कब्जे में किया गया |

यूरेशिया में प्रवासियों ने इस संस्कृति के सभ्य धरती पर किस प्रकार प्रवेश किया, किस तरह यहाँ के मूल निवासियों को उंच-नीच का भेदभाव डालकर दस्तावेज और ग्रन्थ लिखकर वर्चस्व कायम किया | इनके विवेकपूर्ण अध्ययन और विश्लेषण से इन तथ्यों को ज्ञात किया जा सकता है | इनके द्वारा रचित इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यहाँ पर ही छल से अपना रक्त संबंध और नश्ल भी मिलाने में कामयाब हो गए | आर्य और अनार्य जैसी भिन्न प्रकृति के संस्कृतियों से हिन्दू संस्कृति के वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया | वही ग्रन्थ वर्ण व्यवस्था और आर्यों के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सत्ता कायम करने का अनुकूल अस्त्र बने | आर्यों द्वारा निर्मित धर्म के प्रचार स्तंभ मंदिर, धाम, पीठ की स्थापना कर इस धरती के मूल निवासियों को स्वीकार कराने का राज्य आश्रय तथा सत्ता प्रमुख को अपने बस में कर संपूर्ण समाज को अपने कब्जे में किया गया |

उन ग्रंथों में अपने ही वर्ग के हित साधन तथा उनकी ही भलाई हो, पूजा हो, इसलिए यह इतनी सफाई से छल, बल, ईर्ष्या, कपट के भेद भाव से यहाँ लोगों को असभ्य या संस्कारहीन का दर्जा देकर उन परिस्थितियों का निर्माण किया गया, जिससे यहाँ के मूल निवासी अपना सबकुछ भूलकर मोहवश उनका अनुशरण करते हैं | सैकड़ों वर्ष पूर्व इस धरा के गोंड आदिवासी मूल निवासी दैत्य, दानव, राक्षस, भूत, पिशाच और निशाचर कहलाते थे | इनके धर्मग्रन्थों में वर्णित विलेख आज भी सबूत के तौर पर मौजूद हैं | प्राचीन काल से अब तक इनके धर्मग्रंथों के ये शब्द आदिम जनों के साथ मात्र द्वेष और घृणा के द्योतक हैं |

क्या आपने कभी इस विषय पर चिंतन किया है कि हमें आदिवासी क्यों कहा गया है ? यह मूल वंशियों का देश गोंडवाना कहलाता था | यहाँ पर निवास करने वालों को गोंड कहा जाता था, किन्तु हम उस "गोंड" और उसके "गोंडवाना" धरा के गौरव को भुला दिया है | आर्यों के तिलिस्मी वर्ण व्यवस्था, ढ़ाचा का खाल ओढ़कर, संपन्न व्यक्ति दानी बन गए, दानियों के सुरक्षा में लगे क्षत्रीय, मध्यम वर्ग व्यवसायी और शेष शूद्र | आर्थिक रूप से कमजोर को शूद्र की श्रेणी में समझने लगे | यहाँ के मूल निवासी गोंड लोग वर्ण व्यवस्था से अलग हैं | उनकी संस्कृति, परंपराएं, प्रथाएं, धर्म, भाषा आर्यों से भिन्न हैं | इसके बावजूद यह सच है कि कोई जाति पूछता है उसे यूँ ही टाल देते हैं अथवा संकोचवश अपनी जाति या समुदाय का नाम बताने में सकुचाते हैं | वर्ण व्यवस्था के उंच नीच का ज्ञान बोध हो जाने के कारण समुदाय  का नाम बताने में अपराध बोध का चादर ओढ़कर ठाकुर या सामान्य प्रचलित सरनेम (उपनाम) का आड़ लेकर कितने उपाय ढूँढने का उपक्रम करते हैं | हमें अपना मूल उपत्पत्तिक समुदाय का नाम, गोत्रनाम बताने में संकोच क्यों ? कोई गलत कार्य तो कर नहीं रहे हैं ! यह हमारी सबसे बड़ी भूल है | हमें गर्व से अपना नाम, गोत्र नाम और अपने मूल उत्पत्तिक समुदाय का नाम गौरवान्वित होकर बताना चाहिए, जैसे जैसे आर्य लोग बताते हैं | इस देश में अपना प्रथम हक़ बनता है कि हम अपनी माँ की गोद में हैं, अपने घर, अपने जमीन पर हैं | हम आर्यों की तरह अप्रवासी अथवा शरणार्थी तो कदापि हैं नहीं |

आत्मविश्वास और अपने सच्चाई के आदर्श हमारे रगों में हैं | हमारी आत्मशक्ति में इस धरती का रक्त प्रवाहित होता है | फिर भी हम सच्चाई और इमानदारी की संस्कार को झुठलाने वाले नाकामयाब उद्देश्य का सहारा लेते हैं | अपने विशिष्ट गुण और भोलेपन की खास पहचान को झुठलाने का प्रयास करते हैं | वर्तमान में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं |

सच्चाई से आदिवासी इतना लबरेज है कि यदि ह्त्या का अपराध भी किया तो हथियार सहित थाने के सामने जा खड़ा होता है और जैसा किया वैसा पुलिस को बता देता है | बस्तर की एक घटना इसी प्रकार है | एक आदिवासी ने विवाद बढ़ने पर एक व्यक्ति को कोल्हाडी से जान से मार डाला | जब थाने को सूचना मिली तो थानेदार तीन सिपाहियों सहित उस आदिवासी के घर पहुच गया | थानेदार पियक्कड़ था | उसने आदिवासी के घर पहुँचते ही दारू की मांग की | थानेदार, सिपाही और आदिवासी मिलकर खूब दारु पिए | थानेदार इतना पी गया कि खड़े होना मुश्किल | शाम होने को चली थी | थाना भी पहुंचना था | ऐसी स्थिति में सिपाहियों ने और उस आदिवासी ने थानेदार को खाट में लिटाकर थाना पहुंचाए | थानेदार को जब तक होस नही आया तब तक वह आदिवासी थाने में ही कुल्हाड़ी को लेकर बैठा रहा | यही है सच्चाई और इमानदारी की जड़ता | किए हैं तो किए हैं, नहीं किए हैं तो नहीं किए हैं | वचन से पत्थर की लकीर होते हैं | जमीन फटे या आसमान गिरे | दुनिया की कोई ताकत उनके सत्य वचन को झुठला नहीं सकती | ऐसा उदाहरण किसी मानव समाज में देखने को कदापि नहीं मिलेगा | ऐसे आदर्श के होते हुए ही आदिवासी दूसरों का शिकार बन रहा है | आर्यों के कुटिल चाल में फंसकर जन्म से मृत्यु तक शोषण के चक्र में बंध गया है | मानव समाज में, राज्य सत्ता में, धर्म में, सामाजिक, सांकृतिक, आर्थिक विकास की योजनाएं बनती है मूलनिवासियों के लिए, किन्तु सुख भोगते हैं आर्य लोग !!


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बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

गोत्र की हत्या, समाज की ह्त्या है

हर पढ़ा लिखा व्यक्ति अपने सामाजिक, सांस्कृतिक जानकारी के लिए ग्रन्थ मांगता है | हमारे पुरखों ने कोई किताब नहीं पढ़ी | फिर भी प्रकृति, मानवशास्त्रीय, सामाजिक एवं सांस्कारिक दर्शन के ज्ञानी रहे और हैं | वे प्रकृति के साथ पारंपरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दर्शन को जोड़ने वाले मानवतावाद के जनक हैं | हम दो अक्षरी किताबी ज्ञान पढ़कर शब्दों और किताबों के गुलाम हो जाते हैं | सत्य है कि ज्ञान किताबों से मिलता है, किन्तु अपने दर्शन, ज्ञान और विवेक से इनकी सेहत को समझना इतना मुश्किल नहीं है | व्यक्ति के लिए आवश्यक है तो वह है अपने सामाजिक दर्शन, ज्ञान और विवेक का बौद्धिक रूप से इस्तेमाल करना | प्रकृति ही सत्य है | इसकी सत्यता के गुणों की परख आदिवासियों को है, किन्तु पढ़े लिखे आदिवासी चमत्कारिक शब्दों के अँधेरे में गुम हो रहे है | हमारे पूर्वजों ने अक्षर ज्ञान और किताबों के अँधेरे में रहकर भी पुकराल (सृष्टि/प्रकृति) को पढ़ा |  मौसम को पढ़ा, समय की गति को पढ़ा, सूरज, तारे, ग्रह नक्षत्र, हवा की रुख को पढ़ा | मिट्टी को पढ़ा, पहाड़ पर्वत, पेड़ों, नदियों, झरनों को पढ़ा | पशु पक्षियों के साथ बात की | उन्ही से प्रकृति का जीवन ज्ञान लिया | उन्ही से खाने पीने और सुरक्षित जीवन जीने की जानकारी हासिल की | आज भी वे उन्ही के साथ बात करते हैं, उन्हें समझते हैं | हमने यह ज्ञान उनसे क्यों नहीं सीखा ? हमने आधुनिक दो अक्षर पढ़कर अपने पुरखों के विरासत, ज्ञान, परम्परा, संस्कृति, दर्शन को लात मारा और उन्हें अनपढ़, गंवार कहकर दुत्कारा | अभी भी दुत्कार की भावना हमारे ह्रदय के किसी कोने में समाई हुई है | इसी का प्रतिफल है कि हमें ग्रन्थ ढूंडने और पढने की लालसा बढ़ रही है | जब गोंड आदिवासियों के पुरखे ही नहीं पढ़े तो ग्रन्थ कौन लिखता ? उनके लिए तो सारा सृष्टि/ प्रकृति ही मानवता का विराट ग्रन्थ रहा और है | आधुनिक मानव समाज के द्वारा अनपढ़ और गंवार कहे जाने वाले आदिवासियों का ज्ञान दुर्लभ, सत्य और मानवता की कसौटी पर कसा हुआ है |

आदिम समाज की धरती से जुडी जीवन व्यावहारिकता ने ज्ञान और विज्ञान को जन्म दिया | इसकी पहचान पढ़े लिखे आदिवासी समाज को होनी चाहिए | इन तथ्यों को खोजना इतना मुश्किल नहीं हैं | यदि अपने आपको गोंडवाना के गोंड आदिवासी मानते हैं, तो यह निश्चित हो जाता है कि गोंड आदिवासी ही इस धरा के प्रथम आदिम मानव वंश हैं | दुनिया के सभी मानव शास्त्री, नृतत्व शास्त्री इस तथ्य को स्वीकार चुके हैं | दुनिया को संस्कार, मानवता, सत्य ज्ञान और विज्ञान के सूत्र देने वाले मानव समाज के वंशज आज कल्पना के ग्रंथों से आस्था के पंख लगाकर आसमान में उड़ान भरने को तैयार है ! इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है ? आज ग्रंथों के अक्षरों में आस्था का जो परिवेश है वह आदिवासियों का कदापि नहीं है, बल्कि कल्पना से पूरित, प्रकृति और मानवता के विनाश का प्रतीक है | आज जो भी आदिवासी ग्रंथों (गोंडी गीता, गोंडी आरती, गोंडी रामायण, गोंडी महाभारत आदि) की रचना हो रही है, वह दूसरों की थूंकी हुई प्रतिकृति का प्रतीक है, नक़ल है | हमारे पुरखों ने ऐसी नक़ल नहीं की | पढ़े लिखे आदिवासी, नकलची आदिवासी कबसे बनने लगे ?

गोंड आदिवासी समाज के बहुत से लोग अपने नाम के बाद गोंड, ठाकुर, सिदार, ध्रुव, राज, प्रधान आदि लिखते हैं | छत्तीसगढ़ में ध्रुव गोंड, अमात्य गोंड, सरगुजिहा गोंड, बिलासपुरिहा गोंड, रतनपुरिहा गोंड, बस्तरिहा गोंड आदि, इन सब का अलग अलग सामाजिक अस्तित्व बन गया है | यह पाया जा रहा है की इन सामाजिक समूहों के लोग एक दूसरे के समूह में शादी विवाह का सांस्कारिक व्यवहार करने में कतराते हैं | यह एक प्रकार से सामाजिक विकार है | गोंड अपनी असली सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना, रिश्ते नातेदारी, सगा पारी की पारदर्शी व्यवस्था को जानने में असमर्थ पाते हैं, इसलिए यह विकार उत्पन्न हो रहा है | यह असमर्थता अपने नाम के बाद गोंड, राजगोंड, ठाकुर, सिदार, ध्रुव, राज, प्रधान लिखने के कारण आई है | यदि स्पष्ट रूप से नाम के बाद अपना गोत्र लिखा जाता है तो गोत्र के आधार पर रिश्तों की पारदर्शिता को पढने में सहूलियत होती है | सम विषम देव संख्या भी गोत्र जानकर ही जाना जा सकता है | गोत्र लिखने की ही परंपरा ख़त्म हो रही है, इसलिए समाज का दर्शन और पारदर्शिता भी ख़त्म हो रही है | इस व्यवस्था को सुधारना चाहिए | इसकी आस आज की युवा पीढ़ी पर है |

गोंड केवल गोंड है | ईशा पूर्व शंभू काल की प्राचीन गोंडवाना धरा पर लगभग 15,000 से 5000 ( लगभग 10,000 वर्ष)  तक समृद्ध गणतंत्र की स्थापना कर संचालन करने वाले पूर्वजों के वंश, ईशा पश्चात 1700 सालों तक गोंडवाना गणतंत्र के राजवंशी नश्ल आज जनतंत्र के संचालन में फेल क्यों हो रहे हैं ? यह एक जटिल प्रश्न है | इसका विस्तृत विश्लेषण यहाँ संभव नहीं है | ईशापूर्व गोंडवाना की धरा पर आर्यों के घुसपैठ करने के बाद गोंडवाना के गणतंत्र को कमजोर करने का कुचक्र शुरू हुआ | उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, प्राकृतिक और आर्थिक रूप से समृद्ध गणतांत्रिक व्यवस्था को छल और बल से विखंडित कर कमजोर करने की कूट रचना की गई और वे कामयाब हुए | तब से आज तक गोंड आदिवासी समाज इस कूट रचित छल, बल का शिकार होते आया है और आज भी हो रहा है | इसका मूल कारण है सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, प्राकृतिक और आर्थिक रूप से समृद्ध गणतांत्रिक व्यवस्था से भ्रमित होना | सत्य, निष्ठा, विश्वास और सरलता उनके लहू में बसा है | तमाम छल, बल के माध्यम से उन पर अनेक तरह से अत्याचार किए गए किन्तु उनके प्रकृति संगत सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक स्वरुप आज भी समाज में कायम है | यही स्वयं पर विश्वास और कट्टरता का मूल आधार है | आधुनिक ज्ञान, बुद्धि और विवेक से समृद्ध समाज का व्यक्ति ही अपनी मूल व्यवस्थाओं से सबसे ज्यादा भ्रमित हो रहा है | यह समाज के अस्तित्व के लिए अत्यंत घातक और विनाशकारी है |

जो गोंड आदिवासी अपनी उत्पत्ति का प्रतीक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सगा पारी व्यवस्था का वृहद पारदर्शी स्वरुप को नहीं जानते या नहीं समझते वे लोग ही "गोत्र" के स्थान पर गोंड, राजगोंड, ठाकुर, सिदार, ध्रुव, राज, प्रधान आदि लिखते हैं | गोत्र लिखने में शर्म  क्यों ? ठाकुर लिख लेने से अपनी मानसिकता से शूद्रता की श्रेणी नहीं निकलेगी | ठाकुर लिखने से क्षत्रीयता का सम्मान नहीं आएगा, किन्तु ठाकुर के स्थान पर अपना असली गोत्र लिखने पर आपका और समाज का स्वाभिमान और सम्मान बढ़ता है | सम्मान और स्वाभिमान की परिभाषा को समझो और समझाओ, अन्यथा अपने जमीन से ही विलुप्त हो जाओगे | यदि ठाकुर लिखते हो तो कौन से ठाकुर ? वर्ण व्यवस्था वाले ठाकुर ? क्षत्रिय, ब्राम्हण, बनिया में शामिल ठाकुर ? तलवार वाला ठाकुर या छुरा वाला नाई ठाकुर या कौन से ठाकुर ? समाज के लोगों को केवल गोत्र बता देने, लिख देने से ही उस गोंड आदिवासी के कुल, पेन व्यवस्था, सामाजिक सगा पारी, रिश्ते नातेदारी का ज्ञान हो जाता है,चाहे वह दुनिया के किसी भी क्षेत्र में रहने वाला गोंड हो | 

गोत्र व्यवस्था गोंड आदिवासियों के वंश, परंपरा, कुल, टोटम (कुल के मूल गण चिन्ह) व्यवस्था को प्रदर्शित करता है | ऐसी व्यापक पारिवारिक, सामाजिक, संस्कृति से सुसज्जित पारदर्शी व दूरदर्शी व्यवस्था दुनिया के किसी ऐतिहासिक ग्रन्थ, किताब में नहीं है, जो गोंड आदिवासियों के मौखिक ज्ञान में हैं | यह पूर्ण वैज्ञानिक और मानव वंशगत सांस्कारिक व्यवस्थाओं से परिपूर्ण है | नियमानुसार विवाह संस्कारों में विषम गोत्रीय (रक्त संबंधों में भिन्नता), विषम मूल पेन संख्या के कुल से संबंध स्थापित करना, आने वाले नश्ल के लिए सटीक एवं वैज्ञानिक रूप से रोग प्रतिरोधक उपाय है | आज मानव समाज में यह व्यवस्था ख़त्म हो रही है, इसलिए इसलिए अस्पतालों के जंगल खड़े हो रहे हैं | गोंड आदिवासी लोग भी अज्ञानतावश संगत रक्त संबंधी सगोत्रीय समूहों से विवाह संबंध स्थापित करने लगे हैं | अपने समाज, सगा संबंधी, रिश्ते नाते और संस्कृति की दूरदर्शी पहचान गोत्र ही है | गोत्र न लिखकर अपने प्रथम महामानव, मानव वंश सृजक शंभू मादाव (शंभू महादेव) और प्रथम मानव गुरु रुपोलंग पहांदी पारी कुपार लिंगो की दी हुई प्रकृति व विज्ञान सम्मत सांस्कारिक व्यवस्था का क़त्ल कर रहे हैं | इसलिए गोंड आदिवासी अपनी खुद की समृद्ध सांस्कारिक धरती पर विलुप्त हो रहा है |

यदि यही हाल रहा तो गोंड आदिवासियों के आने वाले नश्ल को इन व्यवस्थाओं से अनभिग्य बनने से कोई नहीं रोक सकता | उन्हें अपने पूर्वजों के इस महानतम विरासती व्यवस्था से वंचित करने का श्रेय आप और हम पर होगा | गोत्र के स्थान पर गोंड, ठाकुर, सिदार, ध्रुव, राज, प्रधान आदि लिखकर हमने अपने असली गोत्र, पारी व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, सांस्कृतिक व्यवस्था, रिश्ते नाते की पारदर्शिता की ह्त्या कर कर रहे हैं ! यही घर, परिवार, समाज और पुरखों की दी हुई विरासती संस्कारों की ह्त्या होगी | इसलिए ऐसा करके सम्पूर्ण गोंड आदिवासी समाज और उनकी मूल व्यवस्थाओं का क़त्ल करने वाला कातिल मत बनो | आदिवासियों की विलुप्ति का यह भी एक कारण है | 

नाम के बाद राज गोंड, ठाकुर, सिदार, राज, प्रधान आदि लिखने की परम्परा कुछ गोंड आदिवासी राजवंशों, जमीदारों, मालगुजारों ने शुरू किया था, जो ब्राम्हणों की बनाई वर्णवादी व्यवस्था, उच्चता और निम्नता को प्रदर्शित करने का प्रतीक है | राजवंश इससे प्रभावित थे | यह उच्चवर्ण प्राप्ति की लोलुपता और मानसिक लालच का प्रतीक है | समाज में उच्चता और निम्नता का बीज बोने का प्रतीक है | यह मानवता में भेद भाव पैदा करने का एक भयानक मानसिक संक्रामक रोग है, जो बुद्दी, विवेक और मानवता को चर जाता है | प्रकृति ने उच्चता और निम्नता की भावना पैदा नहीं की | यह नीति गोंड आदिवासी समाज का द्योतक भी नहीं है | प्रकृति समता, समानता, समरसता, सद्भावना और समृद्धि तथा धन और धर्म सूत्र का मूल स्त्रोत है | इस धरा के मूल आदिम समाज ने इसी प्रकृति की स्त्रोत से इन सूत्रों को प्राप्त किया | आदिवासी इन सब सूत्रों का जनक है | इसलिए आदिवासी प्रकृति पूजक कहलाते हैं | जीओ और जीने दो उनका सिद्धांत है | आधुनिक मानव समाज के प्रगति सूत्र में केवल लूटो और लूटने दो की मानसिकता प्रबल है | चाहे जन, जमीन, धन और धर्म ही क्यों न हो ! 

जो सायद गोंडवाना नाम की समृद्ध एवं विराट धरती का इतिहास नहीं जानते या भूल चुके हैं या गोंड शब्द से जिन्हें किसी कारण से आपत्ति हो सकती है, ऐसे वर्तमान मानसिक परिवर्तित परिवेश के गोंडों का कुछ समूह आदिवासी कहलाना पसंद करते हैं | समाज संरचना की दृष्टि से जन्मभूमि, उत्पत्ति स्थान, निवास स्थान, भौगोलिक संरचना एक मुख्य स्तंभ है, जो "आदिवासी" कहने से समाज की प्राचीन ऐतिहासिक सामाजिक संरचना की पूर्णता परिलक्षित नहीं होती है | यदि अपने आपको आदिवासी कहते हो तो अपना ऐतिहासिक जमीन बताओ, आपके पूर्वज और वंश कौन सी धरती पर पैदा हुए ? जो आदिवासी अपने आपको "गोंडवाना" धरती के वंशज मानने से कतरा रहे हैं, उनकी मानसिकता को हम अच्छी तरह समझने की योग्यता रखते हैं | "आदिवासी" शब्द गैरों की घ्रणित मानसिकता की उपज है, फिर भी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अभिन्नता बनाए रखने के लिए गोंड आदिवासी व्यक्त करना आवश्यक हो जाता है | हम इस अलगाव के हिमायती कदापि नहीं हैं | 

जीवन सुधार की प्रक्रिया है | यदि कही अव्यवस्थित है तो सुधारा जाए | यदि बाप दादाओं ने गोत्र नहीं लिखा तो अब पढ़ा लिखा उनका वंश अपना गोत्र लिखे | इससे समाज का प्रकृतिसंगत संस्कारों, रिश्ते नातों की पारदर्शी व्यवस्था स्पष्ट परिलक्षित होता है | प्रकृति और विज्ञान से सम्बद्ध पारदर्शी मानव सांस्कारिक व्यवस्था दुनिया के किसी समाज में नहीं है | इसलिए आदिवासियों के लिए यह गर्व का विषय है कि उनके पूर्वजों ने आधुनिक शब्द ज्ञान से परे रहकर भी प्रकृति को पढ़ा और भविष्य के नैतिक मूल्यों को बांधे सहेजे रखने के लिए विज्ञान सम्मत संस्कारों का निःशब्द ज्ञान रुपी ग्रन्थ का निर्माण और परिमार्जन किया | एक ऐसा निःशब्द ग्रन्थ जो विश्व के किसी समोन्नत ज्ञानकोष में भी नहीं है |

गोंड आदिवासी अपने संस्कार, व्यवहार, परिवेश को पीढ़ियों तक लिखेंगे तो भी नहीं लिख पाएंगे | गोंड आदिवासियों के संस्कार प्रकृति की वैधानिक उपज है | प्रकृति के विधान का अब तक कोई लेखा जोखा नहीं है | प्रकृति का लेखा जोखा किसी शब्द या पुस्तक के बंधन में नहीं हैं | यह प्रकृति की व्यवहार की तरह समाज का मौखिक व मूल व्यवहार है | फिर भी कलमबद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है | प्रकृति के व्यवहार के समानांतर स्थापित गोंड, गोंडी और गोंडवाना के संस्कार दर्शन को लिखना इतना आसान नहीं है | अब तक स्व. डॉ. मोतिरावण कंगाली, महाराष्ट्रा द्वारा गोंड, गोंडी और गोंडवाना के दुर्लब दर्शन का सटीक आईना दिखाने का प्रयास किया गया है, जो गोंड आदिवासी सामज के विचार में अब तक श्रेष्ठतम माना जा रहा है | कई लेखक स्वर्ग वासियों के स्वार्थ नीहित धार्मिक खेल की पोल खोलने के लिए उतारू हैं | इसके अलावा समाज के अनेक विचारक, शोधक और लेखक भी सामाजिक संरचना के गूढ़ ज्ञान को समझने और समझाने के लिए अथक प्रयासरत हैं | इन सबका मानना है कि आदिम समाज का प्राचीन शब्द 'गोंड' (गण व्यवस्था के जनक, मानव समूह), 'गोंडी' (गण व्यवस्था के जनक, मानव समूहों की भाषा, प्रकृति की भाषा, द्रविण समुदाय की भाषा) और 'गोंडवाना' (प्राचीन भूभाग,गण व्यवस्था के जनक, मानव समूहों की भाषा, प्रकृति की भाषा, द्रविण समुदाय की भाषा बोले जाने वालों का निवास स्थान) का विश्लेषण किए बगैर, किसी गोंड आदिवासी, गैर आदिवासी समाज शास्त्री, मानव शास्त्री, लेखक, शोधक, विचारक के लिए आदिवासियों के दर्शन को जानना और अंकित करना कठिन ही नहीं नामुमकिन है |

दुनिया में विख्यात इस धरा के शिक्षा, दर्शन केंद्र नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला आदि प्राचीन देशीय विश्वविद्यालयों के पुस्तकगारों को आर्यों द्वारा जलाकर नष्ट कर दिया गया | गोंडवाना प्रशासकों के ऐतिहासिक शासन प्रणाली की पुस्तकें इन्ही प्राचीन पुस्तकगारों में संरक्षित थे | इसलिए आर्यों के द्वारा गोंडवाना की प्राचीन इतिहास की गाथा को इतिहास में ही दफ़न कर दी गई | इसी में गोंडवाना की इतिहास, प्रशासन व्यवस्था, धार्मिक, सांस्कृतिक व्यवस्था तथा उनकी ऐतिहासिक गौरव गाथा को समूल तरीके से समूल मिटा दिया गया, ताकि आर्य नशल नए शिरे से अपने स्वर्गवासी देवताओं की धार्मिक अधिसत्ता को स्थापित कर सकें | वही हुआ | आज भी आदिवासी अपने सामाजिक, सांस्कारिक, गणतंत्र के विनाशकारी स्वर्गवासियों के ग्रंथों में अपना अस्तित्व ढूँढ रहे हैं ! हम पूर्णतः कभी निकल पाएंगे इन स्वर्गवासियों के चमत्कारी, छलिया, माया के विनाशकारी मोह से  ?  

गोंड आदिवासियों की सांस्कारिक गाथा सीधे प्रकृति से जुड़े होने के कारण इसे पूर्णतः तोड़ने में आधुनिक मानव समाज के पसीने छूट रहे हैं | गोंड आदिवासी सांस्कारिक रूप से किसी कुतर्कीय व काल्पनिक संस्कारों का वाहक नहीं है, बल्कि प्रकृति की सांस्कारिक सत्यता का वाहक है | इसलिए समाज के पुस्तकों को बाजार में खोजना बहुत ही कठिन परीश्रम का काम है | अपने विवेक और बुद्धि से यह समझ लीजिए की इनके चमत्कारिक ग्रंथों में जिनका उल्लेख नहीं है वही आदिम जनों का दर्शन है | गोंड आदिवासियों के मूल आधार बीज की ऐतिहासिक गाथाएं सामान्य बाजारों में कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं, क्योकि यह बाजार भी आदिवासियों का है ही नहीं | यह तो बाजारुओं का बाजार है |

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शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

श्री अजय मंडावी (काष्ठकला में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त)

श्री अजय मंडावी


श्री अजय मंडावी, पिता स्व. श्री आर.पी. मंडावी, उम्र 48 वर्ष, निवासी उदय नगर कांकेर (छत्तीसगढ़) विगत 30 वर्षों से उड़न आर्ट (काष्ठकला) का कार्य कर रहे हैं |  वर्तमान में जिला जेल कांकेर में कैदियों को काष्ठ कला का प्रशिक्षण प्रदान कर रहे हैं |  गोंड समाज के सपूत श्री मंडावी की काष्ठकला विश्व में ख्याति प्राप्त हैं |  काष्ठ की बारीक से बारीक स्वच्छ एवं सुंदर कलाकारी उनकी विशेषग्यता और योग्यता को दर्शाता है, जो उनके जीवंत एल्बम में दिखाई दे रहा है |  श्री मंडावी द्वारा काष्ठकला के माध्यम से बाइबिल का लेखन किया गया है |  काष्ठ के बारीक अक्षरों के माध्यम से दुनिया के अनेक राष्ट्रों के राष्ट्रगीत, राष्ट्र गान आदि का अंकन श्री मंडावी द्वारा किया जा चुका है |   श्री मंडावी के हुनर का इस एल्बम के माध्यम से अवलोकन कर सकते हैं |  आर्थिक अभाव के बावजूद इन्होने अपनी कलाकारी को विश्व के शिखर तक पहुंचा दिया है | किन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि श्री मंडावी आदिवासी उनका आदिवासी होना राज्य, और देश में ख्याति के लिए अभिशाप है !  इसलिए उनकी कलाकृति का परचम, ख्याति से बहुत कम लोग अवगत हैं | यदि ऐसे कलाकार की कला कृति विश्व स्तर का होने के बावजूद भी छत्तीसगढ़ राज्य और देश में उनकी पहचान नहीं हो पा रही है |  यह अत्यंत खेदजनक है |  

इनकी कलाकृति पर राज्य सरकार ने वर्ष 2006 में स्टेट अवार्ड प्रदान किया है |  महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय सम्मान "पद्मश्री" से सम्मानित किया गया है |  श्री मंडावी की विशेषग्यता "लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड 2007 में दर्ज है |  भाई अजय मंडावी को काष्ठकला में अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञता के लिए हमारी और समाज की ओर से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं |

इसके अलावा श्री मंडावी अनेक प्रशिक्षकीय और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं, जिन्हें आगे अपडेट किया जाएगा.



























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मिशन 2018 दिल्ली चलो



 आदिवासियों के लिए बने वनाधिकार कानून और ग्राम सभा की ताकत को लगभग ख़त्म किया मोदी सरकार ने |
-नेशनल जयस नई दिल्ली 

जल जंगल और ज़मीन पर दावा करेने वाले जंगल क्षेत्रो में रहने वाले देश के आदिवासियों के उलटे दिन शुरू | राज्यसभा में पास हुआ कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल जो की वनाधिकार अधिनियम के बिलकुल विपरीत | 
-नेशनल जयस

आज देश के बड़े भू-भाग पर जंगल क्षेत्र मौजूद हैं, जिनमें आदिवासियों की जनसंख्या का सबसे ज्यादा हिस्सा निवास करता है | आदिवासी अपने जीवनयापन के लिए खेती और वनसंपदा पर पूरी तरह निर्भर रहता है | उसे वनाधिकार कानून 2006 के रूप में संवैधानिक अधिकार मिला हुआ था, लेकिन दुर्भाग्य देश के 15 करोड़ आदिवासियों के 47 गुलाम आदिवासी सांसदों, जो अपने ही सामाज के अस्तित्व की रक्षा करने के लिए कानून बनाने के पहल करने के बजाय आदिवासियों के अस्तित्व को ख़त्म करने वाले कानून बनवा रहे हैं |

आज राज्यसभा में मोदी सरकार ने एक ऐसा कानून बनवा लिया जो आदिवासियों को अपने जल, जंगल और ज़मीन के लिए मिले अधिकारों को लगभग ख़त्म कर देगा और जो आदिवासी समुदाय विरोध करने का प्रयास करेंगे उन्हें नक्सलवाद के नाम पर मिटा दिया जाएगा | यही आने वाले समय में आदिवासीओ के भविष्य का कड़वा सच है |

आज देश में अलग अलग छोटे बड़े 700 से अधिक आदिवासी समुदाय हैं | आदिवासियों की सूचि में वृद्धि का क्रम जारी है | जिनकी कुल जनसंख्या लगभग 15 करोड़ है, जो अपने अपने क्षेत्रों से चुनकर 47 आदिवासी सांसदों को आदिवासी समाज की आवाज उठाकर आदिवासियों के अस्तित्व की रक्षा के लिए भेजे हैं | लेकिन दुर्भाग्य देश के आदिवासियों का है कि रक्षक ही भक्षक बन गए हैं तथा आदिवासियों के ही अस्तित्व को मिटाने वाले कानून बनवा रहे हैं | देश के कोई भी आदिवासी संगठन दबाव बनाने या इसके खिलाफ न्याय संगत कुछ करने के लिए खड़े वाला नहीं दिख रहा है !

आज गुरूवार को 28 जुलाई 2016 को कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल पास हुआ, जो विधेयक वन अधिकार अधिनियम "फारेस्ट राईट एक्ट" (FRA) के एकदम उलटा है | 

वन अधिकार अधिनियम जिसे अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) कानून भी कहा जाता है | अनुसूचित जनजातियों और वनों में रहने वाले दूसरे वनवासियो को वनभूमि पर खेती करने, छोटे मोटे वन उत्पादों का इस्तेमाल करने और जंगल में मवेशियों को चराने का हक़ देता था | इसमें ग्राम सभाओं की बड़ी भूमिका है कि किस वन सम्पदा पर किसका अधिकार होगा, यह ग्रामसभा तय करेगी | यहाँ तक कि अगर जंगल की ज़मीन का स्तेमाल किसी परियोजना के लिए किया जाता है तो इसके लिए पहले ग्रामसभा की सहमति लेनी पड़ती थी | इस कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल (कैम्पा) में ग्राम सभाओं की भूमिका का कोई जिक्र नहीं किया है और न ही कहीं इस बात का उल्लेख है कि कैम्पा की 42000 करोड़ का उपयोग आदिवासियों और परंपरागत वननिवासियो के कल्याण के लिए किया जाएगा | 

विधेयक कहता है की कैम्पा में जमा धन इस्तेमाल के लिए वन विभागों के जरिये किया जाएगा, लेकिन जंगल पर जिन आदिवासियों का परंपरागत अधिकार है, उनके प्रतिनिधित्व और उत्तरदायित्व का बारे विधेयक मौन है | चर्चा तो यह भी है कि पर्यावरण मंत्रालय एफ.आर.ए. के कुछ प्रावधानों को ख़त्म करने के बारे में भी सोच रहा है | मकसद ग्राम सभाओं की भूमिका कम करना या ख़त्म करना है | इसके लिए उसने जनजातीय मंत्रालय पर दबाव भी बनाया है | जबकि सुप्रीम कोर्ट उड़ीसा के नियामगिरी पर्वत मामले में स्पस्ट रूप से कह चुकी है कि ग्राम सभा की सहमति के बिना कोई भी परियोजना नहीं लगाईं जा सकती है | यहाँ वेदांता के साथ मिलकर सरकार बाक्ससाइट खनन का प्रोजेक्ट चला रही थी, जिससे डोंगरिया कोंध के आदिवासी नाराज थे | लेकिन अब सरकार ने आदिवासी सांसदों को विश्वास में लेकर कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल पास करा लिया है, जिससे देश में आदिवासियों के अस्तित्व को ख़त्म करने की बीजेपी सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है |

कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन फण्ड बिल वही बिल है, जिसमे कहा गया है कि इस धन का 90 प्रतिशत हिस्सा राज्यो को दिया जाएगा ताकि वे वनरोपण कार्यक्रम चला सके | कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन यानी क्षतिपूर्ति वानिकी अस्सी के दशक की अवधारणा है |

जब भी आदिवासियों का विनाश करना होता है, तो विकास के नाम पर जंगल की ज़मीन पर विकास की कोई परियोजना शुरू की जाती है, जिसके लिए पड़े पैमाने पर जंगलो को काटा जता है | आदिवासियों को जंगलो से उजाड़ा जाता है | आदिवासियों का जमीन छीनकर विस्थापित कर दिया जाता है | इसे सरकारी भाषा में गैर वानिकी उद्देश्य के लिए वन भूमि का डायवर्जन कहा जता है | ऐसे मामलो में 1980 का वन संरक्षण अधिनियम कहता है, कि वन भूमि के जितने हिस्से को किसी और काम में लगाया जाता है, उसके बराबर हिस्से पर पेड़ लगाए जाना चाहिए | पेड़ लगाए जाने का काम हर कोई नहीं कर सकता है | इसलिए यह सरकार के हिस्से में आता है | जंगल रातों रात नहीं लगाए जा सकते है न ही उनसे तुरंत लाभ हासिल किया जा सकता है | इसलिए कानून कहता है कि डायवर्टेड ज़मीन की नेट प्रेजेंट वैल्यू निकाल कर वन भूमि को डायवर्ट करने वाली कंपनी से उसे वसूला जाएगा | यह जंगल काटने का मुआवजा है |

पिछले 10 सालों में इस मुआवजे के नाम पर 42000 करोड़ रूपये जमा हो चुके हैं | यह राशि हर साल 6 हजार करोड़ रूपये के हिसाब से बढ़ रही है और कंपन्सेटरी अफॉरेशटशन मैनेजमेंट प्लानिग अथॉरिटी (कैम्पा) में जमा होती जा रही है, जिस पर पहला हक़ देश के आदिवासियों का होना चाहिए | यह पैसा आदिवासियों के विकास पर उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक स्तथि को बेहतर बनाने में इस्तेमाल होनी चाहिए, लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि ऐसा कहीं हो रहा है न ही होने वाला है | आदिवासियों के जंगल काटकर हासिल हुए पैसों को हड़पने के लिए बीजेपी सरकार ने बिल पास करा लिया है और देश के 47 आदिवासी सांसद और 574 आदिवासी विधायक सब अपनी अपनी राजनितिक पार्टियों की गुलामी करने में ही रह गए | लेकिन नेशनल जयस मिशन 2018 के माध्यम से आदिवासियों के साथ गद्दारी करने वाले सभी जनप्रतिनिधियों को उखाड़ कर फेक देगा |

वर्ष 2004 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कैम्पा का गठन किया गया था | इससे पहले विभिन्न राज्य की सरकारें विकास परियोजनाओं के मुआवजे के नाम पर हजारो करोड़ रूपये जमा कर चुकी थी, लेकिन उनके पास इस धन को इस्तेमाल करने की कोई व्यवस्था नहीं थी | सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह धन कैम्पा को हस्तांतरित किया गया, लेकिन दिक्कत यह थी कि इस अकूत सम्पति का इस्तेमाल कैसे करे ? इसके लिए मोदी सरकार ने आदिवासी विनाशकारी कानून बनाया है, जिसका आज तक ना तो किसी आदिवासी सांसद ने विरोध किया न ही किसी आदिवासी विधायक ने | देश के किसी आदिवासी संगठन ने भी विरोध नहीं किया, लेकिन नेशनल जयस देश की सरकार से आदिवासियों के जंगल काटने पर इकट्ठे हुए इस 42000 करोड़ रूपये का स्तेमाल सिर्फ आदिवासियों के विकास पर खर्च करने की मांग करेगा और अगर सरकार नहीं मानेगी तो देश के 15 करोड़ आदिवासीओ में से 1 करोड़ आदिवासी, मिशन 2018 के लिए दिल्ली की ओर कूच करेंगे और संसद का घेराव कर आदिवासियों के अधिकार उन्हें दिलाने व उनके संरक्षण के लिए कड़े कानून बनाने के लिए बाध्य करेगा |

नेशनल जयस देश के प्रत्येक आदिवासी समुदाय से अपील करता है, आप सभी मिशन 2018 से जुड़ें और आदिवासियों के आन, बान, शान उनके जल, जंगल, जमीन की रक्षा, संविधान की रक्षा और बिरसा मुंडा के सपने आबुआ दिशुम आबुआ राज को साकार करने के लिए "मिशन 2018 दिल्ली चलो" से जुड़ें |

डॉ हिरा अलावा जयस 
नेशनल जयस संरक्ष नई दिल्ली 
जय आदिवासी युवा शक्ति 

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

आस्था, सुख शान्ति और विकास का यह कैसा बयार !!

क्या यही है आजादी के 70 सालों से बह रही सरकार की विकास रूपी "आस्था" का गंगा ! यह लाल किले से नहीं गाँव के धरातल से दिखेगा | इसके लिए जो भी सरकार के जिम्मेदार हाथ, पाँव और आँखें हैं, वे केवल कोष लुटेरे हैं |

आधुनिक मनुष्य आस्था के मायने बदल रहा है आस्था अब उत्सव में परिवर्तित हो रहा है आस्था की सांसें अब धीरे धीरे उखड़ने लगी है | आस्था, उत्सव रुपी भीड़ में तब्दील हो रही है | इस उत्सव रुपी भीड़ की तलाश को क्या नाम दें आस्था” ?

आदिवासियों में आस्था की अलग ही परिभाषा रही है | वे कभी आस्था को उत्सव का नाम नहीं देते | आस्था उनके जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है | नए जीवन की उत्पत्ति, उत्पत्तिकर्ता से जुड़ा हुआ है | उत्पत्तिकर्ता उनकी आस्था का स्वरुप है | समस्त जीव-निर्जीव, ठोस-द्रव्य सृष्टि के जीवानदायिनी पंचतत्वों (मिट्टी, जल, वायु, अग्नी, आकाश) के संयोग से ही उत्पन्न हुए हैं | सभी जीव-निर्जीव, ठोस-द्रव्य का अस्तित्व इन्ही पंचतत्वों पर निर्भर है प्राणवायु का संचार, शारीरिक स्वास्थ्य, भोजन, ज्ञान, जीवन दर्शन सृष्टि पर ही आश्रित हैं | उनका सृष्टि दर्शन ही उनकी आस्था है उनके जीवन की समस्त आवश्यकताएं और पूर्ति के साधन इस जगत में प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हैं | प्रकृति ही जीवन है | जीवन है तो आस्था है | जीवन के बगैर आस्था का कोई स्वरुप नहीं है | हम जीवन को प्रकृति में सहेजकर "आस्था" को स्वर्गवासी देवी देवताओं के ऊपर नहीं टांग सकते |  यह प्रकृति और मानवता के खिलाफ है | सभी प्रकार के ज्ञान और प्रतिभा प्राप्त करने के साधन और विनाशकारी साधन भी सृष्टि के कोष में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं | फिर आस्था जैसी चीज सृष्टि के कोष से अलग होकर "स्वर्ग" में कैसे स्थापित हो सकती है ?

आदिवासियों के लिए सृष्टि के सभी स्वरुप (पञ्च तत्व) आस्था के प्रतीक प्रथम पूज्य हैं | इनकी पूजा के लिए उन्हें किसी विशिष्ठ स्थान, वस्तु या स्वरूप गढ़ने की आवश्यकता नहीं होती | वे मानते हैं की सृष्टि का स्वरुप अनंत एवं चिरायु है | उसे किसी भी स्वरुप में गढ़ा नहीं जा सकता | वह मानता है की प्रकृति की जीवनदायिनी ईश्वरीय गुण उसके समीप और सारे संसार में व्याप्त हैं | उन्हें किसी विशेष स्थान या स्वरुप में ढूंढना व्यर्थ है | इसलिए आदिवासियों का पूजा स्थान कोई विशेष तरह का स्थान नहीं होता | घर के किसी छोटे से कमरे में या घर के बाहर पृथक छोटी सी झोपड़ीनुमा मकान उनका पूजा स्थान होता है | पूजा स्थान छुई (सफ़ेद मिट्टी) से पुता हुआ होता है या छुई से पुता हुआ छोटा सा चबूतरा | पूजा स्थान पर किसी विशेष मानव स्वरुप की मूर्ती नहीं रखी जाती | जो स्वयं खाद्य रूप में ग्रहण करता है वही वस्तुएं, जीवनदायिनी और जन्म देने वाले गुणियों (पुरखों/पूर्वजों) को अर्पित करता है | इसके अलावा उनके जीवन के कार्यों में विशेष स्थान रखने वाले औजार, पशु, अस्त्र शस्त्र की पूजा विशेष मौसम एवं कार्य आधारित त्योहारों में की जाती है |

आदिवासियों को जंगली जानवरों, सरीसर्पों का कदाचित डर नहीं होता | केवल सृष्टि के प्रकोप का डर ज्यादा होता है | प्राकृतिक प्रकोप उनके लिए प्रकृति स्वरूपा बड़ादेव, ईश्वर का प्रकोप होता है | इसलिए ग्राम बसाने के पूर्व ग्राम की दिशा, वनों की दिशा और दशा, वायु की बहने की दिशा, कृषि भूमि, चारागाह, भूजल का पारीक्षण कर ग्राम बसाया जाता था | ग्राम के अन्दर और बाहर प्राकृतिक रूप से विकसित किसी पेड़, चटान, पत्थर, नदी, तालाब आदि का चिन्हांकन कर ग्राम रक्षक, प्रकृति संरक्षक देवी देवताओं की स्थापना की जाती थी | आज भी ग्राम समूह के द्वारा किसी विशेष मानवीय स्वरुप की किन्ही देवी देवताओं की पूजा नहीं की जाती है | प्रति वर्ष ग्राम रक्षक देवी देवताओं के रूप में उन्ही की पूजा कर जीवन में आने वाले प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए प्रार्थना की जाती है | अब आधुनिक इंसान से सबसे ज्यादा ख़तरा है | आधुनिक मानव समाज में अब यह प्राकृतिक आस्था रूपी भावना ख़त्म होकर "धन लक्ष्मी" पर आस्था केन्द्रित हो गई है |

आदिवासी अपने किसी भी विधान से सृष्टि को क्षति पहुंचाना नहीं चाहता, क्योंकि वह सृष्टि को ईश्वर मानता है | वह जानता है कि सृष्टि के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है | जीवन के लिए सृष्टि से जो साधन हमें मिले हैं, वो सभी के लिए समान है | वह लकड़ी के आवश्यक औजारों की पूर्ती के लिए किसी पेड़ को काटने के पहले उसकी पूजा करता है और कामना करता है कि धरती माता इसकी पूर्ती करे और उसका कार्य सफल हो | किसी कार्य के लिए मिट्टी खोदने के पूर्व उस मिट्टी की पूजा की जाती है कि उसके कार्य से उसकी मनोकामना पूर्ण हो | किसी कार्य के लिए पत्थर को उठाने से पहले उसकी पूजा की जाती है, कि पत्थर के द्वारा किये जाने वाले निर्माण कार्य में उसे सफलता मिले | किसी कार्य के लिए पौधे को उखाड़ने से पहले उसकी पूजा की जाती है, कि उसके औषधीय गुण रोगी को शीघ्र लाभ दिलाए | प्रकृति के किसी भी उपयोगी सामग्री को जन उपयोग हेतु ले जाने से पहले प्रकृति, धरती, वन, जल, थल, नभ, वायु, अग्नि आदि जिससे सम्बंधित हो, की सुमरन कर अवगत कराता है कि ...... के लिए आवश्यकता है | वस्तु को ले जाने बाबत प्रकृति से अनुमति लेता है, उसकी शीघ्र पूर्ती के लिए प्रकृति शक्तियों सी प्रार्थना करता है और उपयोग के लिए ले जाता है | आदिम जनों द्वारा अपनाई जानी वाली यह प्रक्रिया प्रकृति के प्रति समर्पित आस्था का प्रतीक है | जिस प्रकृति सी उन्हें भोजन, जीने के साधन, जीवन और सुरक्षा मिलता है, वही उनके लिए ईश्वर है |

आधुनिक मानव समुदाय ज्ञान, प्रतिभा के साथ साथ आस्था और ईश्वर के अनेक विकल्प विकसित कर लिए हैं | देश में आस्था प्रकट करने की होड़ मची है | मंदिर, मश्जिद, चर्च, गुरुद्वारे में क्या आस्था प्रकट करने की जगह कम पड़ गई है, जो कि अब गली, कूचे, चौराहों में भी छः छः सात सात दिनों तक बाजे गाजे ढोल ढमाके के साथ फूट फूट कर आस्थावानों की आस्था प्रकट होती है ? यह किसी की आस्था पर सवाल नहीं है, किन्तु आस्था प्रकट करने वालों के तौर तरीकों पर एक सवाल है | हर परिवार के घर में मंदिर के स्वरुप में ईश्वर की पूजा का स्थान है | घर के बाहर शहर के विभिन्न गलियों, चौराहों में विभिन्न आस्था के मंदिर हैं | देश में पहले से ही धर्म आधारित आस्था प्रकट करने के लिए अनेक स्थाई भव्य मंदिर, मश्जिद, चर्च और गुरुद्वारे बन चुके हैं | अभी भी अनेक पहाड़ों, जंगलों को उजाड़कर मंदिर बनवाने का क्रम जारी है | दूसरी ओर जितनी मानवीय धर्म और आस्था का प्रचार प्रसार बढ़ रहा है, उतनी ही अमानवीयता बढ़ रही है | मानव पर मानव की क्रूरता बढ़ रही है | मानव का मानव पर अत्याचार बढ़ रहा है | मानव का मानव पर अनेक जुल्म और लूटमार बढ़ रहा है धर्म ज्ञानीसाधू संत, महात्माप्रवचन वाचकों का पूरा कुनबा, इन सबको रोकने के लिए दिशा निर्धारित कर मार्गदर्शन करने का कार्य कर रहे हैं |

धर्म ज्ञानी, साधू महात्मा, प्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ को त्यागकर ईश्वर के प्रति आस्था की सलाह देते हैं | क्या इन्होने अपने जीवन में इन सब का त्याग किया है ? क्या इन्हें ईश्वर के प्रति आस्था है ? इस देश के धर्म ज्ञानी, साधू महात्मा, प्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ से कितने परे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है | मानवीय धर्म और आस्था का पाठ पढ़ाने वाले ही लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ एवं अमानवीयता के दलदल में आकंठ डूबे हुए हैं | आस्था के नाम पर दान दक्षिणा लेकर भव्य मंदिर, मठ इनके पनाहगाह हैं | बड़े बड़े दानवीर, जो कभी किसी मरते हुए को चुल्लू भर पानी तक नहीं पिला सकने वाले लोग इन मंदिरों में सोना चांदी रुपया पैसा चढ़कर अपने स्वार्थ का आशीर्वाद खरीदते हैं | इस तरह अब आस्था का मंदिर धन देने और लेने की प्रतियोगिता में परिवर्तित हो गई है धर्म ज्ञानीसाधू संत, महात्माप्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ पूर्ती हेतु प्रतियोगी बन गए हैं | शिक्षित, विभिन्न पदों से सुसज्जित इन महाप्रभुओं को, दुनिया को धर्म का ज्ञान बांटने से पहले जंगलों में रहने वाले आदिवासियों से सीख लेनी चाहिए |

हर मनुष्य बुद्धिमान हैं | प्रकृति से किसी को ज्यादा या किसी को कम बुद्धि नहीं मिलती | प्रकृति किसी के साथ भेदभाव नहीं करती, किन्तु विकसित बुद्धि व ज्ञान में भेदभाव का बीज पनपने लगता है | ज्ञानवान हमेशा प्रयोगवादी होता है | अपने ज्ञान का प्रयोग स्वार्थपूरित आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए करने लगता है | जितना अधिक धन, संपत्ति और साधन उसके पास होता है, उससे ज्यादा प्राप्त करने की आकांक्षाएं प्रबल होती है | आकांक्षाएं इतनी प्रबल हो जाती है कि जीवन में कभी पूरी हो ही नहीं सकती | धनवान लोगों की यही मनोदशा होती हैं | धनवानों की इसी मनोदशा के कारण धनवान और अधिक धनवान तथा गरीब और अति गरीब होते जा रहे हैं | अनपढ़ों से अधिक पढ़े लिखों और उच्च शिक्षितों, धनवानों, चोला धारियों का किसी न किसी तरह समूचे देश की प्रकृति और प्रकृति के साथ साथ अभावग्रस्त, न्यूनतम जीवन निर्वाही साधनों के साथ संतोषपूर्ण जीवन जीने वाले जनमानस को लूटने वाला गिरोह खड़ा हो गया है !

पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय | सपूत और कपूत दोनों के लिए धन का संचय करना व्यर्थ है | धन प्राप्ति एवं सुखी जीवन की अपेक्षा हर किसी को होती है, किन्तु विचार, साधन और श्रम भिन्न होते हैं | जिस विचार, साधन और श्रम द्वारा प्रतिदिन की आवश्यकताओं की पूर्ती से आत्मशान्ति का अनुभव मिले वहीं सुख और शान्ति की बयार बहती है | यह बयार चमचमाते मेट्रो शहरों, शहरों में नहीं, जंगल के अन्दर सदियों से बसे अभावग्रस्त गांवों में बहती है | देश के ऐसे अभावग्रस्त लाखो गांव और वहां के आस्थावान लोग, सरकार की ओर से बहाई जाने वाली विकास रूपी "आस्था" का 70 सालों से बाट जोह रहे हैं |



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