शनिवार, 21 जुलाई 2012

आदि महामानव पहांदी पारी कुपार लिंगो का ''गोटूल'' तत्वज्ञान

          हमने पूर्व में "कोया पुनेम (गोंडी धर्म) सदमार्ग" पढ़ा है. इस कोया पुनेम तत्वज्ञान में (१) सगा (विभिन्न गोत्रज धारक समाज), (२) गोटूल (संस्कृति, शिक्षा केन्द्र), (३) पेनकड़ा (देव स्थल, ठाना), (४) पुनेम (धर्म) तथा (५) मुठवा (धर्म गुरु, गुरु मुखिया) यह पांच वंदनीय एवं पूज्यनीय धर्म तत्व हैं. इनमे से किसी एक की कमी से कोया पुनेम अपूर्ण ही रह जाता है. आदि महामानव पहांदी मुठवा पारी कुपार लिंगों ने अपने साक्षीकृत निर्मल सिद्ध बौद्धिक ज्ञान से सम्पूर्ण कोया वंशीय मानव समाज को सगायुक्त सामाजिक जीवन का मार्ग बताया. सगायुक्त सामाजिक जीवन के लिए उचित एवं अनुकूल व्यक्तित्व, नव वंश में निर्माण करने के उद्देश्य से पारी कुपार लिंगों ने "गोटूल" नामक शिक्षण संस्था की स्थापना की. गोटूल, यह संयुक्त गोंडी शब्द गो+टूल इन दो शब्दों के मेल से बना हुआ है. "गो" याने 'गोंगो' अर्थात दुःख एवं क्लेश निवारक शक्ति, जिसे विद्या कहा जाता है. "टूल" याने ठीया, स्थान,स्थल. इस तरह गोटूल का मतलब गोंगोठाना (विद्या स्थल, ज्ञान स्थल) होता है. प्राचीन काल में गोंडवाना के प्रत्येक ग्राम में जहां गोंड वहा गोटूल संस्था विद्दमान थी. फिर चाहे वह मूलनिवासियों में से किसी भी समुदाय के क्यों ना हो. गोटूल संस्था को विभिन्न प्रदेशों में विभीन संज्ञाओं से जाना जाता है. जैसे- भूंईंया गोंड इसे 'धंगर बस्सा' (धंगर याने विद्या, बस्सा याने स्थल), मुड़िया गोंड इसे 'गिती प्रोरा' (गिती याने ज्ञान, प्रोरा याने घर), और उराँव गोंड इसे 'दूम कुरिया' (दूम याने विद्या, कुरिया याने पढ़ाई का स्थान, घर) आदि. इस तरह गोटूल नामक शिक्षा संस्था की स्थापना कर उसमे छोटे बाल-बच्चों, उम्र के ३ से लेकर १८ वर्ष तक के लिए उचित शिक्षा प्रदान करने का कार्य पारी कुपार लिंगों ने शुरू किया. इस पर से पारी कुपार लिंगो के कोया पुनेम तत्वज्ञान में बौद्धिक ज्ञान विकास को कितना अग्रक्रम में दिया गया है, इस बात की जानकारी हमें प्राप्त होती है.

          गोंडवाना दर्शन में उल्लेख मिलता है कि माता रायतार जंगो के अनाथ आश्रम में माता रायतार जंगो और माता कली कंकाली के आश्रय, छत्रछाया में पल एवं बढ़ रहे मंडून्द (तैंतीस) कोट बच्चों को स्वभाव परिवर्तन, सुधार के लिए महादेव की आज्ञा से कोयली कचारगढ़ गुफा में बंद कर दिया गया था. गुफे के द्वार को एक बहुत बड़े चट्टान से बंद कर दिया गया था. यह चट्टान महादेव की संगीतमय मंत्र से पूरित था. इसे खोलने का उपाय केवल महादेव ही जानते थे. गुफे के शीर्ष में होल नुमा संकरा छिद्र था और आज भी है, जो पहाड़ में शीर्ष पर खुलता है. गुफे के अंदर से उन बच्चों का इस छिद्र के द्वार से निकल पाना संभव नही था. इसी छिद्र से उन बच्चों को माताओं के द्वारा भोजन पहुचाया जाता था. वर्षों तक बच्चे गुफा में ही बंद रहे. बच्चों के बिना माताओं (माता रायतार जंगो और माता कली कंकाली) का हाल बेहाल होने लगा. उनहोंने बच्चों को मुक्त करने के लिए महादेव से कई बार निवेदन किए, किन्तु महादेव ने उन्हें मुक्त करने में असमर्थता जताया. उधर बच्चों के बिना माता रायतार जंगो तथा माता कली कंकाली का मातृत्व ह्रदय और शरीर जीर्ण-क्षीण होने लगा था. माताओं की इस अवस्था को देखकर महादेव को दया भाव जागृत हुआ और वे उन बच्चों को गुफा से मुक्त किए जाने का मार्ग बताया. इसे कोई महान संगीतज्ञ ही खोल सकता है, जो दसों भुवनों और प्रकृति के चर-आचार, जीव-निर्जीव, तरल-ठोस सभी तत्वों की आवाज का ज्ञाता हो, संगीत विज्ञानी हो तथा उन आवाजो का लय बजा सकता हो या पूरी सृष्टि की लय जिसका संगीत हो. यह सुनकर माताओं के लिए दूसरी संकट खडी हो गई. महादेव ने ध्यान से आँखें खोलते हुए कहा- वह महामानव, संगीतज्ञ इस संसार में आ चुका है. केवल वही इस गुफा के द्वार का चट्टान अपनी संगीत विद्या की शक्ति से हटा सकता है.


कचारगढ़ के बड़ा गुफा का अग्र भाग जहां  मंडून्द कोट
बच्चो को महादेव की आज्ञा से बंद किया गया था. इस
गुफा में हजारों व्यक्तियों के एक साथ बैठेने के लायक
पर्याप्त स्थान है. यहाँ पर स्वच्छ जल कुंड भी है, जो
कभी भी नही सूखता.
 
गुफा के अंदर जल कुंड के ऊपर ही आसमान पर खुलने
वाला यह होल/छिद्र है जहां से 
बच्चों के लिए भोजन
छोड़ा जाता था.
          माताएं महादेव के बताए मार्ग अनुसार उसे ढूँढने निकल पड़ीं और 'हीरासूका पाटालीर' के रूप में उसे पाया. महादेव की आज्ञा से हीरासूका पाटालीर ने अपने संगीत साधना से महादेव के द्वारा गुफा के द्वार पर बंद की गई मंत्र साधित चट्टान को हटा दिया. चट्टान के हटने और लुड़कने से उसमे दबकर हीरासूका पाटालीर की मृत्यु हो गई. उस संगीत विज्ञानी का यहीं अंत हो गया. बच्चे गुफा से मुक्त हो गए. अब महादेव और माताओं को बच्चों की भविष्य की चिंता सताने लगी. सभी मंडून्द कोट बच्चे केवल मांस के लोथड़े भर थे, उन्हें किसी भी तरह का सांसारिक व सांस्कारिक ज्ञान नही था. महादेव को मालूम था कि पेंकमेढ़ी सतपुड़ा पर्वत माला पर एक महान दार्शनिक, प्रकृति विज्ञानी पहांदी पारी कुपार लिंगो उनकी आज्ञा से गहन प्राकृतिक ज्ञान, धर्म की शोध-खोज, ध्यान, योग में जुटा हुआ है. वह ज्ञानी पुरुष ही इन बच्चों को जीवन ज्ञान से प्रकाशित कर सकता है. महादेव स्वयं उनकी खोज में निकल गए. सुबह-सुबह ही महादेव पहंदी पारी कुपार लिंगो के साधना स्थल, उस पर्वत पर स्थित विशालकाय पेड़ के नीचे पहुच गए. इस एकांत निर्जन स्थान पर लिंगो लगभग ७ वर्षों से गहन आध्यात्मिक शोध में जुटे हुए थे. वे उस समय भी ध्यानमग्न थे. महादेव उनकी तंद्रा तोडनी चाही. उनकी तंद्रा टूटी किन्तु वे महादेव को देखकर भी उनके शरीर में हल-चल, जरा भी विचलन नही हुआ. महादेव उनके मन में उत्पन हल-चल को समझ रहे थे. पहंदी पारी कुपार लिंगो को उसी समय अंतर्ज्ञान की प्राप्ती हुई थी. अंतर्ज्ञान की प्राप्ति होते ही उसे अंतर्ज्ञान से एक स्त्री के ऊपर बिजली गिरने से उसकी मौत का समाचार उसे मिल चुका था. एक स्त्री की मौत का ज्ञान दर्शन होना उसे आश्चर्य कर दिया था, कि यह दृश्य उसे कैसे दिखाई दिया ! जिसके कारण वे महादेव की आवाज को ग्रहण और सुन नही पाए. महादेव उनकी मनःस्थिति को जान गए थे. महादेव ने लिंगो से कहा- जो तुमने अंतर्ज्ञान में दिखाई दिया, वह सत्य है पारी कुपार ! अब तुम्हे अंतर्ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है. एका एक महादेव का वचन सुनते ही लिंगो की तंद्रा टूटी और वे महादेव को समक्ष में देखकर विचलित होकर खड़े हो गए. वह महादेव से जानना चाहा कि ऐसा क्यों हुआ और वह स्त्री कौन थी. महादेव ने कहा कि यह तुम अब सब कुछ जानने लगे हो, मेरे द्वारा अब यह बताने की आवश्यकता नही है. महादेव ने उन्हें उनके पास आने का कारण बताया और पारी कुपार लिंगो को अपने साथ ले गए.

          पहंदी पारी कुपार लिंगो को जो दृश्य उनके अंतर्ज्ञान में दिखाई दिया था, वह विकट दृश्य माता कली कंकाली की मृत्यु का समाचार था. बताया जाता है कि माता अपने आश्रम के पास के विशालकाय बरगद के नीचे काम कर रही थी. अचानक आसमान पर बिजली कौंधी और उस बरगद के झाड़ पर आसमानी बिजली गिरी. इस आसमानी बिजली से कली कंकाली माता की मृत्यु हो गई. इस समय लोहगढ़, कचारगढ़ के उस स्थान पर बरगद पेड़ का कोई नामोनिशान नही है, किन्तु वहीँ पर कली कंकाली माता की मढ़िया हमारे पूर्वजों नें स्थापित कर दिया है. इस मढ़िया में समाज के भूमका-पुजारियों द्वारा सतत कोया मुनेमी रीति रिवाज से पूजा अर्चना की जाती है तथा माता जी के दर्शन के लिए देश के ओर-छोर से श्रद्धालु हर दिन मढ़िया में जाते रहते हैं. प्रतिवर्ष इस स्थान पर माघ पूर्णीमा में विशाल मेला भरता है. यह मेला पूर्णिमा के ४ दिन पहले से शुरू होकर पूर्णिमा के दिन समाप्त हो जाता है. देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं और गढ़ माता की मढ़िया, कली कंकाली मई की मढ़िया, जंगो माई, लिंगो कुटी, बड़ादेव गुफा, बड़ा गुफा (जहां मंडून्द कोट बच्चो को बंद किया गया था) आदि का दर्शन कर कोया पुनेम का बीज मंत्र लेकर चले जाते हैं.

          मंडून्द कोट बच्चों को कोयली कचारगढ़ गुफा से मुक्त कर उन्हें उचित शिक्षा प्रदान करने के लिए कुपार लिंगो ने सर्वप्रथम 'गोटूल' नामक शिक्षा केन्द्र की स्थापना एकांतमय, शांतिपूर्ण वातावरण से शुरू की. पारी कुपार लिंगो ने उन मंडून्द कोट बच्चों का मानसिक, शारीरिक विकास किया. उन्हें सगा सामाजिक एवं धार्मिक शिक्षा दी. तत्पश्चात उन्ही के माध्यम से सम्पूर्ण कोयावंशीय मानव समुदाय में गोटूल संस्थाओं का निर्माण कराया गया. पारी कुपार लिंगो के मतानुसार छोटे बच्चो पर जन्म से ही माता-पिता के संस्कार आ जाते हैं. अच्छे-बुरे लोगों की संगत का प्रभाव उनपर होता है. हम जहां कहीं, जिस जगह में रहते हैं, उस पर्यावरण से हमारा जीवन प्रभावित होता है. यदि निवास स्थान के पास झगड़ा-फसाद करने वाले लोग रहते हैं, तो उसी वातावरण में लोगों के विचार व्यवहार प्रभावित होते हैं. अंत में उसी के मुताबिक वह अपना व्यवहार करता है. ऐसे अंधकारमय वातावरण में रहकर मनुष्य को "सुयमोद वेरची तिरेप" अर्थात सद्ज्ञान प्रकाश किरण का दर्शन नही हो पाता. मानव जीवन की मौलिकता इस अज्ञानता के पर्यावरण में फंस जाने से लुप्त हो जाती है. मनुष्य अपने वास्तविक रूप एवं स्वहित को देखने में असमर्थ हो जाता है. उसकी वैचारिक एवं बौद्धिक शक्ति कमजोर हो जाती है.

          पारी कुपार लिंगो ने इसीलिए अपने सगा शिष्यों के माध्यम से सम्पूर्ण कोयावंशीय मानव समाज की "नार उंडे गोटूल" अर्थात ग्राम एवं गोटूल संस्थाओं की स्थापना किस स्थल पर और कैसे पर्यावरण में करना चाहिए, इस बारे में अपने बौद्धिक ज्ञान प्रकाश के बल से निम्न "नार गोटूल" मंत्र दिया है, जिसे "मूठ लिंगो मंतेर" कहा जाता है और जिसका प्रपठन शुभ मंगल बेला के अवसर पर वर-वधुओं को आशीर्वाद देते वक्त सगा भूमका द्वारा किया जाता है :-

"बेगा चिड़ीचाप कमेकान अलोट,
फव्व वड़ीकुसारता ठीया आयात |
ताल्कानूंग दाय पुटसीनकून बेगा,
मान मति छन्नो आया पर्रीन्ता |
अदे ठीया ते नार उचिहतोना,
उंडे सगा बिडार गोटूल दोहताना |

          अर्थात जहां एकांतमय, शांतिपूर्ण वातावरण हो, जो अपने वास्तविक सुख संपदा के लिए उचित एवं अनुकूल हो, जहां अपने वैचारिक शक्ति को प्रेरणा मिलती हो, ऐसे शांतिपूर्ण वातावरण में ग्राम बसाना चाहिए एवं गोटूल संस्था की प्रतिस्थापना करनी चाहिए. गोंड समाज में आज जहां-जहां भी गोटूल संस्थाएं विद्दमान हैं वे सभी एकांतमय शांत वातावरण में ग्रामों के मध्य ही प्रतिस्थापित हैं तथा उनमे जो बच्चे रहते हैं वे ग्रामवासियों के सामाजिक जीवन में जो बुराईयां होती हैं, उनसे परे रहते हैं. गोटूल प्रमुखों का कर्तव्य क्या होता है, इस बारे में जानकारी हमें "कंकाली सुमरी मंतेर" से प्राप्त होती है, जिसका प्रपठन गोटूल माता कली कंकाली की पूजा करते वक्त सगा भूमका अर्थात गोटूल प्रमुख द्वारा किया जाता है :-

"कयक साहचो आसरो सिम कंकाली आयनी,
कोड़ाते बिया छव्वानूंग नीवा कलीया दाईनी |
मतिय, मेंदोल, मोद्दूर, पुनेमता मुन्सार किम,
सगा बिड़ारता पुयनेंग सुयताकत्ता सर्री सिम |"


          उक्त "कली कंकाली सुमरी मंतेर" में  कली कंकालीन माता से यह प्रार्थना की जाती है कि हे कली कंकाली माता ! हाथ बढ़ाकर हमें आशीर्वाद दीजिए, हम तुम्हारे बालक हैं, हमें अपनी गोद में लीजिए. हमारा मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास कार्य में मदद कीजिए तथा हमें सगा धर्म, सगा नीति एवं सत्य मार्ग दिखाईए. इस पर से यह सिद्ध होता है कि उम्र के ३ वर्ष से लेकर अठारह वर्ष तक सगा समाज के जो बच्चे गोटूल में रहते हैं, वहाँ उनका मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास करने का कार्य किया जाता है. साथ ही उन्हें सगा सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों का परिपाठ भी पढ़ाया जाता है. जिससे वे सगा समाज के उचित एवं होनहार घटक बन सकें.


          मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह एक मांस का लोथड़ा मात्र होता है. उसे "मति उंडे मोद्दूर" अर्थात मन एवं बुद्धी जैसी क्षमता जन्म से ही प्राप्त होती है. उसका मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक विकास गोटूल संस्था में ही किया जा सकता है, ऐसा पारी कुपार लिंगो ने कोया पुनेमी सार्टुका में बताया है :-

"लोंदा लेका उंदी रवान्ठू मता,
मानवाना जीवा पुटसी वायाता |
मति, मद्दूर, कमोक धमूक चोलाता,
मुन्सार सगा गोटूलते ने आयाता |
परोल मूंद सावरीनोर कान्डाना,
सगा गोटूल वाटसी सियाना |


          उपरोक्त सार्टूका के द्वारा आज भी गोंड समाज जब नवजात शिशुओं का नामकरण विधि का कार्यक्रम होता है, तब उनके माता-पिताओं को 'सगा भूमके' (ग्राम माता) की ओर से ऐसा उपदेश दिया जाता है, कि "तुम्हारा बच्चा एक मांस का गोला है, उसकी परवरिश के लिए एवं उचित शिक्षा के लिए उसे ३ वर्ष के बाद गोटूल में भेजना न भूलिए."


          इस पर से यह सिद्ध होता है कि बच्चा ३ वर्ष के हो जाने पर वह गोटूल का सदस्य बन जाता है, जहां उसके व्यक्तित्व का विकास किया जाता है. प्राचीन काल में जब प्रत्येक ग्राम में गोटूल संस्थाएं विद्दमान थीं, तब उनमे मनुष्य का मानसिक विकास साध्य करने के लिए उसके आचार-विचार, भावना, चरित्र आदि उज्जवल करने का कार्य गोटूल में किया जाता था. उसका बौद्धिक विकास करने के लिए, इच्छा शक्ति, अनुकरण शक्ति, तर्कशक्ति आदि गुणग्राह्य क्षमताओं का विकास किया जाता था. अतिरिक्त इसके उसका शारीरिक विकास साध्य करने के लिए खेलकूद, तीरकमान, मल्ल, मुस्टी, लाठी-काटी आदि विधाओं का प्रशिक्षण दिया जाता था. इस प्रकार मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक विकास के साथ साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों का परिपाठ सभी बच्चों को पढ़ाकर उनका व्यक्तित्व निर्माण किया जाता था. सगा समाज के बच्चे बड़े होकर स्वावलंबी जीवन जी सके, इसलिए उन्हें उत्पादन व्यवसायों का ज्ञान भी पढ़ाया जाता था.


          इस तरह कोया पुनेम मुठवा पहांदी पारी कुपार लिंगो की शिक्षा के मुताबिक गोटूलों में बालकों को उचित शिक्षा दी जाती थी. सगा समाज के ईष्ट एवं आदर्श तथा श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के बारे में भी जानकारी दी जाती थी. संक्षिप्त में गोटूल की शिक्षा से मनुष्य सुशील, सभ्य, संयमपूर्ण बनता था. गोटूल के सहजीवन से वह कोया पुनेम तत्व ज्ञान का अंतिम लक्ष्य "जय सेवा" मंत्र का अधिष्ठाता बन जाता था. उसके दिलो दिमाग में सेवा भाव जागृत होकर वह सर्व कल्याणवादी बन जाता था.


          उपरोक्त विवरण से गोटूल संस्था की प्रतिस्थापना, जिससे कि वे कोया पुनेम गुरु पारी कुपार लिंगो न केवल बौद्धिक ज्ञान के अधिष्ठाता थे, बल्कि एक महान शिक्षातज्ञ, मानसतज्ञ एवं यथार्थवादी भी थे. पारी कुपार लिंगो द्वारा बताए गए मार्गों के अनुसार ही आज का मानव समाज शिक्षा संस्थाओं की प्रतिस्थापना की है. प्राचीन काल में आर्य समाज के अंदर केवल आश्रम व्यवस्था थी तथा उसमे राजा, महाराजा एवं ब्राम्हणों के ही बच्चों को शिक्षा की जाती थी. शेष वर्णों के लिए कोई जगह नही थी. उसी तरह स्त्री शिक्षा पर उनके द्वारा पूर्ण रूपेण प्रतिबंध लगाया गया था. मूलनिवासी इसके विपरीत आदिकाल से समाज में जो गोटूल संस्थाएं थी, उनमे लड़के-लड़कियों सहित सभी के बच्चों को प्रवेश दिया जाता था. इस तरह पारी कुपार लिंगो का तत्वज्ञान  कितने उच्चतम मूल्यों का परिपूर्ण एवं सर्वकल्याणवादी है, यह सभी पाठकों के समझ में आ जाएगा. 


          आज के जमाने में गोटूल संस्थाओं की जो हालत दिखाई देती है, वह प्राचीन काल में कदापि ऐसी नही थी. विदेशियों के आक्रमणों से गोंडों की सामाजिक व्यवस्था तहस नहस हो गई. उन्हें मजबूरी में जंगल पहाड़ों में जाकर बसना पड़ा. उनकी आर्थिक ढांचा बिगड़ गई. जहां पेट भरना भी मुश्किल हो, वहाँ गोटूल जैसे शिक्षा केन्द्र चलाना कहाँ से संभव होगा ! इसलिए आज उसकी नीव ही खत्म हो चुकी है. इसके बावजूद भी यदि गोंड समाज को उन्नति साध्य करनी है, तो जहां गोंड है वहाँ आधुनिक गोटूलों की स्थापना करना निहायत जरूरी है. जहां आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ अपनी भाषा, संस्कृति, दर्शन (धर्म) आदि की जानकारी अपने बच्चों को देकर समाज की खोई हुई अस्मिता जागृत करने का कार्य हो, जिससे उन्हें स्वाभिमान से जीने की राह मिल सकती है.


गोंडवाना दर्शन
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29 टिप्‍पणियां:

  1. maine iske bare me padha hai, mujhe ek baat bataiye.... maine jahan tak padha hai...1. parsapen 2. sagapen aur kahi maine padha ki naarkepal ye tin dew hain gondwana me. ye badadev kaun hai bhai.........

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    1. क्या आप आदिवासी हो ? यदि आप आदिवासी हो तो अपने नाम के साथ गोत्रनाम भी लिखो. गोत्रनाम आदिवासियों की पहचान है. केवल गोत्रनाम मात्र से आदिवासियों में रिलेशनशिप भी स्थापित किया जा सकता है. इतना पारदर्शी व्यवस्था आदिवासी समाज के अलावा दुनिया के किसी भी समाज की सामाजिक व्यवस्था में नहीं है. आप कह रहे हैं कि बड़ादेव कौन है ! "बड़ादेव" प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति है, प्रकृति की रचना इसी शक्ति से हुई है. जो सर्व व्यापी है, सर्व शक्तिमान है, जिनका कोई स्वरुप नहीं है. वह केवल शक्ति है. जो जल में, थल में, वायु में, अग्नि में, कण कण में, रक्त में, रज में, प्राणियों में ब्रम्हांड में, सृष्टि में सभी में सर्वत्र में व्याप्त है. उसके अस्तित्व के बिना ब्रम्हांड के ग्रहों में गति नहीं आ सकती. ब्रम्हांड, सृष्टि, चर अचर सभी को गति देने वाले उस शक्ति को "बढ़ादेव" गोंडी में "परसापेन" बोलते हैं. यह बड़ादेव की शक्ति स्त्रित्व (स्त्रितत्व- ऋण तत्व और पुरुषत्व (पुरुष तत्व- धन तत्व) का प्रतीक है. या इसे हम विज्ञान की भाषा में चुम्बक का धन और ऋण शक्ति मान सकते है. जिस तरह स्त्री और पुरुष के संबंधो/योग के बिना संतान पैदा नहीं हो सकती. उसी तरह सृष्टि में इन तत्वों के बगैर कोई भी रचना नहीं हो सकती. इसी धन और ऋण शक्ति के कारण ब्रम्हांड और सृष्टि का निर्माण हुआ है और इसी शक्ति के कारण ब्रम्हांड और सृष्टि का संचलन भी होता है. इन्ही दो शक्तियों के कारण दिन और रात, ग्रहों की स्थापन और गति का संचलन हुआ. इन दो शक्तियों/तत्वों के मेल के बिना किसी तीसरे तत्व का अंश निर्माण की प्रक्रिया संभव ही नहीं है. इसलिये इसे सृष्टि मिर्माणक शक्ति, सर्वोच्च शक्ति, सबसे बड़ा शक्ति अर्थात "बड़ादेव" कहते हैं. बड़ादेव से बड़ा इस सृष्टि में और कोई सहक्ति नहीं है. यह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी है. सर्वमान्य है. यदि और जानना होगा तो ब्लॉग में और भी लेख हैं "आदिवासी (जनजातीय) संस्कृति धर्म दर्शन" इसमें भी काफी कुछ जानकारी इस संबंध में है. पढोगे तो जानोगे.

      रहा सवाल सगापेन का यह समाज का सगादेव है. सगादेव समाज का सबसे सहयोगी देव है. यह देव मानव समाज के सर्व व्यापक देव है. हार गोत्रज इस देव को मानता है. इसकी व्यावहारिकता का प्रतीक है शादी के संस्कार के रूप में देखा जाता है. शादी के जितने संस्कार हैं वह सगादेव के लिये ही होते हैं. बिना सगा के परिवार और समाज का निर्माण नहीं हो सकता. इसलिये परिपार बनाने के लिये हम सगा (रिश्तेदारी जोड़ने) का काम करते हैं और किसी परिवार से लड़की या लड़के को दामाद या बहु बनाते हैं, या पत्नि बनाते हैं. इस रिश्तेदारी को जोड़ने का उद्देश्यपूर स्वरुप या जोड़ने वाली शक्ति को हम "सगापेन" कहते हैं. इस प्रक्रिया से परिवार बनाया जाता है. शादी होने के बाद बच्चे पैदा होते हैं. मैंने पहले ही कहा है कि स्त्री तत्व और पुरुष तत्व के बिना कोई भी अंश निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं होती. इसीलिए हम कहते हैं कि बच्चे ईश्वर की दें है, निशंदेह.

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    1. मेरे गुरु मेरे माता पिता हैं. मेरे माता पिता मेरे सबकुछ हैं. बाद के मेरे गुरु मेरे दोस्त और मेरे परिवार तथा समाज है.

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  3. aapne gotul bataya hai ki yaha padhayi hota tha. yahi to hindu padhdhati me gurukul hai. rajiv dixit ji ke bhasan mesuna hai ki angrejo ne jab sarvekshan karwaye the to pure bharat me jitne ganw the utne hi gurukul hone ki baat kahi thi.

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  4. आपने कभी आदिवासियों का इतिहास पढ़ा है ? पढोगे तो जानोगे. आदिम जनजातियों के ज्ञान केंद्र, संस्कार केन्द्र का नाम गोटूल है. आप लोग अब तक केवल ब्राम्हणों के बनाए हुये सिलेबस और ग्रंथों के अलावा कुछ नहीं पढ़ा है. आदिवासियों के ग्रंथों को पढोगे तो जीवन में कभी कमजोर और असांस्कारिक साबित नहीं होवोगे. ब्राम्हण (आर्य लोग) गोंडवाना में नही आये थे, उसके हजारों साल पहले से गोटूल नामक ज्ञान और संस्कार केन्द्र गोंडवाना में प्रचलित था. इसी गोटूल में जन्म संस्कार, शिक्षा संस्कार, विवाह संस्कार और मृत्यु संस्कार का प्रतिपादन किया गया. इन संकारों के प्रतिपादन के लिये शंभू महादेव (ग्रंथों ग्रंथों में उल्लिखित-शंकर) ने अपने प्रिय शिष्य रूपोलंग पहांदी पारिकुपार लिंगों को सौंपा, जिससे उसने इसे अंतिम रूप प्रदान किया. आर्यों ने गोंडवाना के ज्ञान और शिक्षा केन्द्रों को विकृत रूप में अपने किताबों में लिखा है. इसे उन्होंने अय्यासी का केन्द्र बताया है, क्योकि उन्हें प्राचीनकाल से ही आदिवासियों से घृणा रही है. उन्होंने पक्षपात तरीके से वर्ण वयस्था बनाया और उसका प्रतिपादन किया. वर्ण व्यवस्था में उनहोंने खुद को सर्वोच्च साबित करने के लिये ब्रामण को मुह या सिर से पैदा होने वाला, क्षत्रीय को भुजा से पैदा होने वाला, वैश्य को पेट से पैदा होने वाला और शूद्र को पैर से पैदा होने वाला बताया. इस वर्ण व्यवस्था अनुसार वे शूद्र को सबसे नीच वर्ण प्रतिपादित किया और हर तरीके से उसका शोषण करने के अलावा कुछ नहीं किया. आदिम सांस्कारिक व्यवस्था इस तरह के भेदभाव प्रदान नहीं करता. आदिवासी प्रकृति व सृष्टि की व्यवस्था को मानता है. वह आर्यो के इस कुतर्क वर्ण व्यवस्था को नहीं मानता. यदि कोई संगत जीव मुह से पैदा हो, भुजा से पैदा हो, पेट और पैर से पैदा हो सकता है, तो जीवों में "लिंग" या "योनि" की आवश्यकता ही नहीं है. आज भी उनके वंशज अनेक तरीके से आदिवासियों से घृणा करते है, पक्षपात करते है. अब तक आदिवासियों के पिछड़े होने का यही मूल कारण रहा है. आज भी वे लोग गोंडवाना की गोटूल व्यवस्था को मान रहे है, किन्तु इस गोटूल व्यवस्था बनाने वालों को कभी नहीं सराहा गया. आदिवासियों की सान्कारिक व्यवस्थाओं का इन्होने चोरी किया, अपनाया किन्तु अपने ग्रंथों में यह नहीं बताया कि ये व्यवस्था गोंडवाना के मूलनिवासियो, आदिवासियों की देन है. वे लोग जिनसे घृणा करते हों, उनकी बड़ाई कैसे करें ? बल्कि उन्होंने हमेशा से अपने ग्रंथों में आदिवासियों को बन्दर, भालू, जानवर और राक्षसों की संज्ञा दी और उनसे जानवरों की तरह सदियों से व्यवहार किया. उनका संघार किया. उन्हें और उनकी बहुमूल्य संस्कृति को मिटाने का हमेशा प्रयास किया ताकि गोंडवाना में केवल आर्यों (ब्राम्हणों) का राज हो. प्रथमतः गोंडवाना में चोरी छिपे प्रेवश करने वाले ब्रम्हा, विष्णु, इंद्र नाम के आदि आर्यों ने महादेव (आदिवासियों के देवता जो पार्वती से शादी के बाद 'शंकर' कहलाया) उन्हें मिटाने के लिये कई छल-बल किये. रम्भा, मेनका, उर्वषा नामक नृत्यांगनाओं और रूप सुंदरियों को महादेव को रिझाने और अपने प्रेमजाल में फ़साने के लिये भेजा गया.शंकर महादेव से पूर्व इनकी पीढ़ी में ८७ महादेवों की जानकारी गोंडी ग्रंथों में मिलती है. जो शंकर महादेव से भी अति बलशाली, महाज्ञानी थे. इनकी तुलना में आर्य कहीं नही लगते थे. इसलिये उन्हें ईर्ष्या होती थी. इनके सामने आर्य ब्राम्हण- ब्रम्हा, विष्णु, इंद्र की कोई पूछ नहीं थी. इसलिये आर्यों के वंशजों ने अपनी पृथक अधिसत्ता स्थापित करने के लिये, अपने पक्ष को मजबूत करने के लिये कई कुतर्कीय ग्रंथ लिखे- गीता, वेद, पुराण आदि. इन ग्रंथों में आर्यों के देवताओं के ही गुणगान और केवल लोक लुभावन तथा प्रपंचों का ताना बाना है. अपने आपको इस गोंडवाना देश के मूलनिवासी साबित करने के लिये इन ग्रंथों की अति प्राचीनता बताई जाती है. आप लोग विज्ञान के युग में जीने वाले हो. इसलिये यह बताना उचित होगा कि, भारत में सबसे पहले छापाखाना मशीन ग्रेटब्रिटेन से सन १८०० में अंग्रेजों द्वारा लाई गई थी लगभग १८२५ के आस-पास में. तब प्रश्न यह उठता है कि क्या ये ग्रंथ ईशा के पूर्व छपे ? कदापि नहीं. विदेशों में देवनागरी लिपि का विकास या संस्कृत की निशाँ अभी तक नहीं है, तो संस्कृत में कब छापे गए ? निशंदेश लगभग १८००-१९०० के बीच में ही छपे. इस बात का मनन करने के लिये लोगों के पास टाईम नहीं है, यह दुर्भाग्य है. ब्राम्हणों के ग्रंथों के पीछे लोग भागे जा रहे है. इतनी बड़ी बौद्धिक अपंगता मैंने और किसी समाज में नहीं देखा, जितनी आदिवासी समाज में देख रहा हूँ. "गोटूल" की व्यवस्था गोंडवाना की देन है. नाम बदल कर आर्यों ने इसे "गुरुकुल" कहा और कह रहे हैं.

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  5. जय बड़ादेव जय सेवा, नमस्ते राम राम

    जय बड़ादेव जय सेवा, नमस्ते राम राम
    आदिवासियों के कौन कौन से ग्रन्थ है कृपया बताएं , स्वस्तिक का गोंडीय प्रमाण का फोटो कहा था इसे भी बताईये ,मेरी बातों को जानकर आप मुझे ब्राह्मणवादी या मनुवादी कहेंगे पर मै पंडितो को नहीं मानता यदि वह लायक नहीं है. मै अपनी कहानी भी बताऊंगा. आज जो मै हूँ उसमे गोंडवाना का ही योगदान है इसमें ३ साल लगे हैं.
    आप आर्यों के आक्रमण के सिध्धांत को मानते है , वह मेक्स्मुलर जो देश की कमजोरियों का पता लगाने आया था उसे पता चल gaya की जब तक हिन्दू धर्म है तब तक भारत का पूर्ण ईसाईकरण नहीं हो सकता अतः उसने इसे नष्ट करने के लिए यह सिध्धांत गढ़ा. आप वेद के बारे जानते नहीं , जरा इसके आज तक बने रहने में प्रिंट की आवश्यकता नहीं , इसे याद रखने की कला के बारे में पहले जाने. पुराने समय में स्मृति द्वारा ही ये आगे की पीढ़ी तक आते गए. वास्तव में पुराण काल में कुछ ज्यादा ही लिख दिया . उस ज़माने में ताड़ पत्र पर लिखते भी थे , वो तो सड़ ही जायेगा न, कहते है नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय जब मुसलमानों ने जलाया तो ३ माह तक वह जलता रहा तो क्या वह कचरा भरा था जिसे उन्होंने कुरान के सामने तुच्छ समझकर जला दिया , असली दुश्मन कौन हे यह नहीं जानते आसाम में बोडो लोगो को मुस्लिम मार रहे हैं उनके बारे में चिंता कीजिये पर ये मत लिख दीजियेगा की वे हिन्दू लोग उनको मार रहे हैं कहने को और भी है अगली टिप्पणी में कहूँगा
    आप आर्यों के आक्रमण के सिध्धांत को मानते है , वह मेक्स्मुलर जो देश की कमजोरियों का पता लगाने आया था उसे पता चल gaya की जब तक हिन्दू धर्म है तब तक भारत का पूर्ण ईसाईकरण नहीं हो सकता अतः उसने इसे नष्ट करने के लिए यह सिध्धांत गढ़ा. आप वेद के बारे जानते नहीं , जरा इसके आज तक बने रहने में प्रिंट की आवश्यकता नहीं , इसे याद रखने की कला के बारे में पहले जाने. पुराने समय में स्मृति द्वारा ही ये आगे की पीढ़ी तक आते गए. वास्तव में पुराण काल में कुछ ज्यादा ही लिख दिया . उस ज़माने में ताड़ पत्र पर लिखते भी थे , वो तो सड़ ही जायेगा न, कहते है नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय जब मुसलमानों ने जलाया तो ३ माह तक वह जलता रहा तो क्या वह कचरा भरा था जिसे उन्होंने कुरान के सामने तुच्छ समझकर जला दिया , असली दुश्मन कौन हे यह नहीं जानते आसाम में बोडो लोगो को मुस्लिम मार रहे हैं उनके बारे में चिंता कीजिये पर ये मत लिख दीजियेगा की वे हिन्दू लोग उनको मार रहे हैं कहने को और भी है अगली टिप्पणी में कहूँगा

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    1. हिन्दू कोई धर्म नही है एक व्यवस्था है व्यापार है मैं नही जानता कि आप आदिवासी हो या नही और मुझे जानना भी नही है।

      हिन्दू धर्म मे 4 वर्ण होते हैं

      1 .ब्राम्हण 2 क्षत्रिय 3 वैश्य और 4 शुद्र

      आप क्या हो इतना बता दो।
      सबसे ऊपर ब्राम्हण उसके नीचे क्षत्रीय उसके नीचे वैश्य और इस धर्म के सबसे नीच और छूत वर्ग है शुद्र। सभी धर्म के लोग चाहे मुस्लिम हो ईसाई हो सिख हो सब आपस मे बराबर होते हैं लेकिन इस धर्म मे एक वर्ग दूसरे वर्ग से बड़ा है न एक वर्ग का दूसरे वर्ग से रोटी और बेटी का लें दें नही।

      रही बात मुसलमानो की वे हिन्दू लोग को मार रहे हैं ये मीडिया वाले तो एक ब्राम्हण या क्षत्रियों के दंगे को पूरे हिन्दू धर्म का दंगा बता देते हैं और उधर भोले भाले 10 से 12 साल के बच्चों को मार कर आतंकवादी बता देते हैं । उनके जमीन हड़प कर कारखाने खड़ा कर देते हैं उसे नही दिखाएंगे क्यो क्योंकि ये आदिवासी है हिन्दू नही जब इनकी जरूरत है हिन्दू धर्म कब होगा जब ये राम मंदिर बनाने हो हनुमान मंदिर बनाने हो तब ये हिन्दू है आओ और हिन्दू धर्म के लिए दंगे करो और शाहिद हो जाओ ।

      सिर्फ और सिर्फ ब्राम्हण की बात ले लो वो तो साक्षात भगवान के अवतार हैं ब्राम्हण अगर चपरासी हो तो प्रणाम महाराज और आदिवासी हो तो अरे साहब है क्या मतलब इतना भेदभाव अंग्रेजों ने तो नही बनाया चलो आप लोग बोलोगे की ये भी अंग्रेजों की चाल है तो ब्राह्मण और क्षत्रीय लोग इस भेदभाव को दूर क्यों नही करते

      ये भेदभाव आज से हज़ारों वर्सो से चली आ रही है।

      इतना ही नही आदिवासियों के देवीदेवताओं को राक्षस कहते हैं, शिव संभु की पूजा करते हैं लेकिन कितना मज़ाक उड़ाते हैं कितना अजीब बात है ।

      और एक बात जिसके दिमाग में जो बात बैठ गया है उसे कोई नही हटा सकता आप खुद अपना तर्क लगा कर ही आगे बढ़ सकते हैं ।

      ब्रम्हा ब्रम्हांड के रचनाकार नही है ये एक अनन्त काल की परिक्रमा है और जितने भी देवी देवता हैं चाहे वो हिन्दू की हो या मुसलमान की या आदिवासियों की वो इसी धरती पर ही पैदा हुए हैं।

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  6. मै भारत में विभिन्नता देखता हूँ इसके आधार पर मै मानता हूँ कि सभी संस्कृतियों का अपना अलग अलग स्थान है जैसे नदी के इस पार अलग और उस पार अलग , आप लोग कहते है कि हम ही मूल निवासी है तो बाकि के लोगो के मूल निवास को भी प्रमाणित करके बताइए वे वापस लौट जायेंगे सबसे बड़ी समस्या यही है इतिहास कोई नहीं जानता सब अंदाज़ा ही होता है , ताजमहल एक हिन्दू महल था सह्जहाँ ने बनाया था, बादशाह नामा इसका प्रमाण है प़र सरकार इसे बताती ही नहीं ये है काले अंग्रेजो कि सरकार कांग्रेस जिसकी नीव ही अंग्रेजो ने रखी, मुझे गोंडवाना नहीं गोंडिय या गोंडी भाषा का जो भी शब्द है वह मान्य है न कि अंग्रेज द्वारा दिया नाम . एक भू गर्भ विज्ञानी ने पृथ्वी के एक भाग को गोंडवाना कह दिया तो उसे ऐसे कहते है जैसे भगवन ने ही यह नाम प्राचीन काल में दे दिया था , भ्रम है सबका , इससे तो संथाली भील अलग निवासी माने जायेंगे

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    1. थाईलैंड इंडोनेशिया की संस्कृति सभ्यता और देवी देवता कोन से है।।

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  7. उथले पानी में खूब हाथ पैर मारो संजय ! यही आपकी असलियत है मै पहले ही कह चुका हूँ. अंधों का आईने से कोई तालुकात नहीं. आपकी सोच और इतिहास केवल मैक्समूलर तक ही है और ज्ञान ग्रंथो तक. उसके अलावा सब खोखला है. लोगों के आँखों पर हिन्दुवाद का काला पर्दा चढ़ गया हो उनको हमारी बातें समझ में नहीं आएगी. जो नश्ल हिन्दुवाद की बीज हो, जिसमे प्रजातीय बदलाव आ चुका हो उसके लिये अपने भूत पर विश्वास करना कठिन ही नहीं नामुमकिन है. फिर भी यह अच्छी बात है कि आप लेखों को पढ़कर अपनी क्षमता अनुसार चिंतन और तर्क करते हो. मेरी बातों पर सबका भ्रम नहीं है. अपनी सोच के साथ साथ सबको मत लपेटो. संथाली और भील को हम अलग करके नहीं बल्कि आप अपने कुतर्कों से अलग करके देख रहे हो.

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    1. आपके पिताजी का 1980 से पहले का कोई प्रमाण पत्र दिखा दो

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  8. aapne bada dev k baare me bataya...jara budha dev k baare me bhi prakash daaliye ? ye blog me aapne jo kuch bhi likha hai wo kisi kitab me bhi hai kya ?

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  9. उपलब्ध साधन साहित्य ध्यान में रख कर ही शोधपूर्ण लेखन किया जाता है। आप को इसका खंडन करना हो तो सप्रमाण लिखे। श्री पारते जी का कृपया समय न खाये,उन्हें उनका शोध कार्य करने दीजिये,उनको इस संबंध में सहयोग कीजिये।

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  10. Odisha me janga bada dev ke rup me pujan kiya jata.Bhoipali ,Rourkela Ke paas Sundargad jile me unka mandir aur pratimurti abasthit hai. Sambo Dasami me unka pujan kiya jata hai..Koi odisha wale bhai beheno se sambandhit puratatwa sampark bata sakte hai to suchit kare

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  11. ''Pari Kupar Lingo Gondi Punem Darshan book written by Dr. Motirawan Kangali. Nagpur'' where can i get this book

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  12. Jai persapen Jai Seva Jai aadivaasi. Sir muje heera Suka patali(Pradhan) me baareme jankaari honatha. Krupiya aap log kuch jankaari de sakte hei.

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  13. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  14. जय जोहार
    जय सेवा
    जय आदिवासी
    जय गोंडवाना

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