देश की एक मात्र
राष्ट्रीय आदिवासी पत्रिका दलित आदिवासी दुनिया तथा विभिन्न सामाजिक पत्र
पत्रिकाओं व फेसबुक से हमें जानकारी मिलती है की झारखंड में "सरना धर्म" कोड की मांग जोरों पर है. "सरना धर्म"
कोड भारत के सभी आदिवासियों के लिए मान्य और उचित हो
सकता है ? मुझे यह नहीं पता कि यह मांग पूरे झारखंड के
आदिवासियों की ओर से उठ रही है या कुछ ही समुदायों द्वारा यह मांग उठाई जा रही है.
मेरा आशय है कि आदिवासी समाज के विभिन्न समुदाय विभिन्न राज्यों में निवास करते
हैं. समय के साथ साथ उनमे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक परिवर्तन आया है. किन्तु गोंडवाना लैंड तथा उसमे निवास
करने वाले लोगों की ऐतिहासिक जानकारी से सभी आदिवासी समुदाय गोंड हैं. वर्तमान में
आई संचार क्रान्ति के माध्यम से जुड़े देश के पढ़े लिखे लोगों ने फेसबुक के माध्यम
से इस सम्बन्ध में फेसबुक के विभिन्न ग्रुपों में प्रसारित मेरे लेख "गोंडवाना के गोंड और उनकी भाषाएँ" सायद पढ़ा होगा, जिसमे देश के अनेक समुदाय के आदिवासियों के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों की अस्मिता एवं स्वाभिमान का बोध कराता है. इस सम्बन्ध में
संक्षेप इस प्रकार है :-
"गोंडवाना ऐसा शब्द है
जिससे गोंडियनों के मूल वतन का बोध होता है, गोंडियनों की जन्मभूमि, मातृभूमि, धर्म भूमि और कर्मभूमि का बोध होता है. उनकी मातृभाषा का बोध होता है. फिर वे कोई भी गोंड हो, चाहे कोया गोंड हो, राज गोंड हो, परधान गोंड हो, कंडरी गोंड हो, माड़िया गोंड हो, अरख गोंड हो, कोलाम गोंड हो, ओझा गोंड हो, परजा गोंड हो, बैगा गोंड हो, भील गोंड हो, मीन गोंड हो, हल्बी गोंड हो, धुर गोंड हो, वतकारी गोंड हो, कंवर गोंड हो, अगरिया गोंड हो, कोल गोंड हो, उराँव गोंड हो, संताल गोंड हो, कोल गोंड हो, हो गोंड हो, सभी गोंडवाना भूखंड के गणराज्यों के गण, गण्ड, गोंड तथा प्रजा है.
गोंडवाना भूभाग के
गणराज्यों में मूल रूप से तीन भाषाएँ बोलने वाले गोंडियनों की प्रभुसत्ता प्राचीन
काल से ही रही है. भील, भिलाला, पावरा, वारली, मीणा यह भिलोरी भाषा बोलने वाले भीलवाड़ा एवं मच्छ गणराज्यों के गण्ड तथा गोंड
है. कोया, कंडरी, ओझा, माड़िया, कोलाम, परजा, बिंझवार, बैगा, नगारची, कोयरवाती, गायता, पाडाती, ठोती, अरख आदि गोयंदाणी भाषा बोलने वाले गोंडवाना गणराज्यों
के गोंड तथा गण्ड हैं. कोल, कोरकू, कंवर, मुंडा, संताल, हो, उराँव, अगरिया, आदि मुंडारी अर्थात कोल भाषा बोलने वाले कोलिस्थान
गणराज्य के गण्ड तथा गोंड हैं. जिस गणराज्य के परिक्षेत्र को वर्तमान में झारखंड कहा
जाता है. इस तरह गोंडवाना भूभाग के गणराज्यों से गोंडियनों की
मूल मातृभाषाओं का बोध होता है. गोंडियनों के प्राचीन प्रशासनिक इतिहास का बोध होता है. गोंडियनों के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों का बोध होता है. इसलिए
"गोंडवाना" यह शब्द गोंडियनों की अस्मिता एवं स्वाभिमान बोधक है."
सम्पूर्ण आदिवासी समाज
में जो लोग यह मानते हैं कि "गोंड" एक पृथक जाति है तथा गोंडियनों के उपरोक्त इतिहास को
देखा जाये तो यह औचित्य प्रतिपादित होता है कि गोंडवाना के सभी निवासी गोंड हैं.
इस आधार पर "गोंडी धर्म" कोड की मांग एक विकल्प भी है. आज सभ्य बन बैठे समाज
की वर्ण और जाति व्यवस्था ने आदिवासियों की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों की अस्मिता एवं स्वाभिमान पर पानी
फेर दिया है. फिर भी हमें अपने टूटे हुए कड़ियों को जोड़ने का प्रयास जारी रखना
होगा.
मेरा यह मत है कि समस्त
आदिवासियों कि ओर से एक ऐसे धर्म कोड की मांग उठे जो देश के सभी आदिवासियों को
मान्य हो. चाहे वे किसी भी राज्य से या संगठन से उठे जो सर्वमान्य के लायक हो.
छत्तीसगढ़ में काफी वर्षों से इस पर विचार होने के बाद यहाँ के धर्म गुरुओं ने "प्राकृत धर्म" के नाम से सभी आदिवासी समुदायों से सहमति/विचार बनाने अन्य राज्यों में निकल
चुके हैं. उनका मानना है कि देश के सभी आदिवासी चाहे वह देश के किसी भी कोने में
राज्य में रहता हो, प्राचीन काल से किसी न किसी रूप में वह प्रकृति के
करीब रहकर अपने सभ्यता, संस्कृति को कायम रख पाया है. इस आधार पर "प्राकृत धर्म" कोड देश के आदिवासी समाज के लिए उचित है.
मेरा यह भी मत है कि
वर्तमान में हमारा ऐतिहासिक गोंडवाना समाज आदिवासी समाज के नाम से जाना जाता है.
मै "आदिवासी" शब्द बोध के सम्बन्ध में कहना चाहूँगा कि प्राचीन
गोंडी धर्म, दर्शन एवं साहित्य में कहीं भी आदिवासी का शाब्दिक
उल्लेख नहीं मिलता. अतः यहाँ यह कहना उचित होगा कि आदिवासी न ही साहित्यिक
शब्दावली है, न कोई जाति न ही किसी धर्म और न ही किसी सांस्कारिक
प्रवृति को संबोधित करने वाला शब्द. आदिवासी संबोधन से ऐसा प्रतीत होता है कि वह
आदिकाल से इस धारा पर रह तो रहा है किन्तु मानो दूसरों की परोसी हुई बोली, भाषा, संस्कारों, कला-कौशल, रीति-रिवाज, खान-पान आदि की भीख पर पल रहा हो. अर्थात किसी भी
परिस्थिति में समाज के गौरवपूर्ण संबोधन का अर्थ "आदिवासी" शब्दावली में नहीं झलकता. इस संबोधन से हमें किसी भी
दृष्टिकोण से ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गौरव एवं सम्मान नहीं मिलता, बल्कि समाज को हीन भावना से संबोधित करते हुए सिर्फ गाली मात्र ही प्रतीत होता
है. ऐसा लगता है मानो आदिवासी संबोधन का मतलब गोंडवाना समाज को उनके सामाजिक मूल
स्थापत्य अस्तित्व को काल्पनिक तौर से वैचारान्तरित करने का बौद्धिक हथकंडा अपनाया
गया है तथा यह जारी है. अब वनवासी, गिरिजन आदि नामों से भी संबोधित किया जा रहा है, जो गलत है.
भारत की संवैधानिक
व्यवस्था में "आदिवासी" शब्द का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि इस आदिम समुदाय को "अनुसूचित जनजाति" के रूप में उल्लेख किया गया है, तब हम क्या अपने आपको आदिवासी कहकर गौरवान्वित हो
सकते हैं ? संवैधानिक व्यवस्था अनुसार हमें संघर्ष कर अपना हक
प्राप्त करना है तो आदिवासी, वनवासी, गिरिजन जैसे शब्दों के संबोधन पर सामाजिक व राजनैतिक प्रतिकार होना चाहिए, क्योंकि आदिवासी शब्दावली एवं संबोधन को संवैधानिक
व्यवस्था ने मान्यता प्रदान नहीं की है. संवैधानिक व्यवस्था अनुसार इस आदिम
समुदाय/समाज को "अनुसूचित जनजाति" के रूप में मान्यता प्रदान किया गया है, जिसे व्यवस्थागत अधिकार प्रदान करने हेतु संविधान
आबद्ध है. इस आधार पर "आदिवासी धर्म" की मांग भी निर्थक प्रतीत होता है. अत: आदिम समाज को आदिवासी शब्द से
संबोधन एवं वास्तविक उपयोग भी पूर्णरूप से असंवैधानिक है.
विभिन्न राज्यों में
निवास करने वाले लोग भी अपने समुदायगत धर्म कोड की मांग कर रहे हैं, जैसे गोंड लोग "गोंडी धर्म" कोड की मांग काफी पहले से करते आ रहे हैं, बाकी और भी समुदाय हैं जो "आदिवासी धर्म" या “आदि धर्म” कोड, "प्राकृत धर्म" कोड की भी मांग उठा रहे हैं. मेरा कहने का तात्पर्य
यह है कि यदि "सरना धर्म" कोड की मांग पूरी हो जाती है तो अन्य समुदायों में भी धर्म कोड की मांग की
बाढ़ आ जायेगी. और यह स्थिति आदिवासी समाज के लिए चिंतनीय विषय हो जाएगा कि समाज
धर्मों के विभक्तिकरण से टूटकर बिखर जायेगा. इस परिस्थिति का निर्मित होना समाज के
सामाजिक एवं धार्मिक चिंतकों के लिए अत्यंत चिंताजनक है. गैर आदिवासियों को तो
इससे बहुत संतुष्टि मिलेगी क्योंकि वे चाहते भी वही हैं.
ऐसी अवस्था में मेरा यह
मत है कि समस्त आदिवासियों कि ओर से एक ऐसे धर्म कोड की मांग उठे जो देश के सभी
आदिवासियों को मान्य हो. चाहे वे किसी भी राज्य से या संगठन से उठे जो सर्वमान्य के
लायक हो. छत्तीसगढ़ में काफी वर्षों से इस पर विचार होने के बाद यहाँ के धर्म
गुरुओं ने "प्राकृत धर्म" के नाम से सभी आदिवासी समुदायों से सहमति/विचार बनाने अन्य राज्यों में निकल
चुके हैं. उनका मानना है कि देश के सभी आदिवासी चाहे वह देश के किसी भी कोने में
राज्य में रहता हो, प्राचीन काल से किसी न किसी रूप में वह प्रकृति के
करीब रहकर अपनी सभ्यता, संस्कृति, बोली, भाषा, कला-कौशल, रीति-रिवाज, खान-पान को कायम रख पाया है. इस आधार पर "प्राकृत धर्म" कोड देश के आदिवासी समाज के लिए उचित और सम्मानजनक प्रतीत होता है.
देश के सभी प्रदेशों में
रहने वाले आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी इस पर भी जिंतन करे और एक सर्वमान्य "धर्म कोड" पर चिंतन कर संघर्ष को आगे बढ़ाएँ.
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