रविवार, 15 अप्रैल 2012

आदिवासी मतलब उपयोग करो और फेंको ?



          दिनांक १९ मार्च, २०१२ को छत्तीसगढ़ की राजधानी, रायपुर में आदिवासियों पर जबरदस्त लाठी प्रहार किया गया, जिस पर प्रस्तुत अंक में विस्तार से लेख प्रकाशित है, जिसका मात्र अध्ययन, पठान-पाठन, तक सीमित न रहकर आज हमें इस प्रकार की घटनाओं का चिंतन मनन करते हुए मुखर होने की आवश्यकता है. आदिवासियों पर लाठी-डंडे बरसाने की यह पहली घटना नहीं है. अपनी समस्याओं के निराकरण या संवैधानिक अधिकारों की मांग को लेकर आदिवासी प्रदर्शनों पर देश के विभिन्न राज्यों में अब तक अनगिनत बल प्रयोग किए गए. झारखण्ड के आदिवासियों का पूरा इतिहास ही संघर्ष, त्याग, तपस्या और बलिदान से ओत-प्रोत रहा है. आजादी के पहले और आजादी के बाद भी झारखंड का आदिवासी सिर्फ और सिर्फ संघर्षरत है. उनका यह संघर्ष आज भी जारी है जबकि वहाँ सत्ता शीर्ष पर राज्य निर्माण से ही मुख्यमंत्री की आसंदी में आदिवासी काबिज है. यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि सामान्यतया समाज माँगता नहीं है.


          आदिवासी मसीहा के रूप में विख्यात भारत के महान आदिवासी नेता इंजीनियर कार्तिक उराँव जी कहते थे, कि आदिवासियों में देने की परम्परा रही है, मांगने की नहीं. इसीलिए कभी सरकार से कुछ मांगना भी पड़ा तो सरकार को लगता है कि उनकी कोई गंभीर समस्या नहीं है. श्री उराँव का मानना था कि आदिवासियों को मांगना आता ही नहीं है, अतः उन्होंने भारतीय आदिवासियों को अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद संगठन बनाकर सर्वप्रथम संगठित व जागरूक बनाने का कार्य प्रारंभ किया. श्री उराँव ने ही आदिवासियों को संवैधानिक अधिकारों को मांगने व प्राप्त करने के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी. विगत तीन दशक का अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि एतिहासिक अन्यायों से जूझते आदिवासी समाज ने न्याय मांगने सरकार के समक्ष जब कभी धरना, प्रदर्शन, जुलूस इत्यादि का आयोजन किया, सरकार ने उसे दबाने, डराने, धमकाने व मारने, पीटने का ही उपक्रम किया है.

          राजधानी रायपुर में हुआ लाठी चार्ज आदिवासी समाज के लिए एक दुखद घटना है, परन्तु विधानसभा घेरने आये प्रदर्शनकारी आदिवासियों में नक्सलियों का समागम व पुलिस पर कातिलाना आक्रमण की बात कहकर राज्य शासन और पुलिस प्रशासन ने आदिवासी जख्मो में नमक छिड़क दिया है. यह वक्त मरहम लगाने का था, लेकिन पुलिस प्रशासन ने आदिवासी आंदोलन को नक्सल चेहरा बताने की भारी गलती की है. वैसे बस्तर के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में निवासरत सभी आदिवासी पुलिस की निगाह में संदिग्ध माने जाते हैं. बस्तर में आज जितने नक्सली नहीं हैं, उससे कई गुना अधिक सुरक्षा बालों के जवान वहाँ तैनात किए गए हैं. आदिवासी अपने जंगल में जाने से आज डरता है. नाचने-गाने से डरता है. गीत-संगीत वह भूल गया. बस एक ही बात याद रहती है कि पुलिस वाला उसे नक्सलवादी घोषित कर मार न दे. जेल में डाल न दे. आदिवासी सत्ता के प्रतिनिध, प्रकाश चापा, उसूर ब्लाक का काम देखते हैं. यह विकासखंड चरम नक्सली गतिविधियों का केन्द्र माना जाता है. कुछ माह पूर्व की बात है जब "आदिवासी सत्ता" की प्रतियां लेकर प्रकाश चापा कहीं जा रहे थे, सी.आर,पी.एफ. का गश्ती दल सर्चिंग से अपना कैंप वापस जा रहा था तब रास्ते में जवानों में उसे रोक किया. तलाशी में "आदिवासी सत्ता" मिली तो जवानों ने नक्शल साहित्य रखने का आरोप लगाकर उसे अपने साथ कैंप चलने बाध्य कर दिया. श्री चापा ने लाख समझाया, परन्तु वे नहीं माने, अंततः उनके साथ उन्हें जाना पड़ा. लगभग ३-४ कि.मी. चलने के बाद सी.आर.पी.एफ. टुकड़ी एक स्थान पर विश्राम करने रुक गई. टुकड़ी के प्रभारी अधिकारी ने जप्त पत्रिका को पढ़ना शुरू किया तो पढते ही रहे. एक घंटे "आदिवासी सत्ता" का अध्ययन करने के बाद उन्होंने प्रकाश चापा को छोड़ने को कहा. श्री चापा को पास बुलाकर खेद व्यक्त करते हुए दो पत्रिका मांग ली और जाने कहा. टुकड़ी का अधिकारी समझदार था, अतः प्रकाश चापा को कोई हानि नहीं हुई, अन्यथा वही होता जो बस्तर में अक्सर होते आ रहा है.

          शासन व प्रशासन की निगाह में प्रत्येक आदिवासी संदिग्ध होते जा रहा है, क्योंकि अब वह अपने हक व अधिकार के लिए जागरूक होने लगा है. संवैधानिक अधिकारों को पहचानने व जानने लगा है. जब जान गया है, तो मांगेगा ही. आदिवासी किसी सरकार से खैरात तो मांग नहीं रहा है कि मर्जी होगी तो दोगे. १२ साल बाद जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण मिला, वह भी वह भी वर्ष २०१२ से. ११ साल लगा दिए, वह भी तब जब आदिवासी समाज हठ पर उतर आया. आदिवासी का यह संविधान सम्मत हठ भी सरकार को नागवार गुजरा, इसीलिए पूरे आंदोलन को नक्सलवाद से जोड़कर बदनाम करने का प्रयास हो रहा है, तो दूसरी तरफ विपक्ष की भूमिका में छत्तीसगढ़ कांग्रेस बल्ले-बल्ले कर रही है. आदिवासियों के ऊपर हुए लाठीचार्ज से कांग्रेश पार्टी दुखी और उद्देलिए है. पूरी भाजपा सरकार को निगल जाने आतुर दिखाई पड़ती है. भाजपा शासनकाल में आदिवासियों को राजधानी की सड़कों पर दौड़ा-दौड़ा कर मारने के विरोध में धरना प्रदर्शन कर हजारों कांग्रेसियों ने जेल भरो आंदोलन चलाया और मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह को पानी पी पीकर कोसा. प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी दहाड़ मार रहे हैं कि आदिवासियों को क्यों मारा ? जोगी मंत्रिमंडल में नंदकुमार पटेल गृहमंत्री हुआ करते थे, अब वे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं. श्री जोगी के कार्यकाल में आदिवासियों को सिर्फ दौड़ा-दौड़ा कर मारा पीटा ही नहीं गया बल्कि राजधानी आये सामाजिक प्रमुखों के मुह पर कालिख पोत उनका शानदार स्वागत भी किया था. गृहमंत्री की हैसियत से श्री पटेल ने विधान सभा में कहा था कि ऐसी कोई घटना राजधानी में हुई ही नहीं. आज कांग्रेस के नेताओं को आदिवासी अपमान देखा व सहा नहीं जा रहा है, क्योंकि उन्हें सत्ता चाहिए, वह भी आदिवासी वोटों से. चोली-दामन की तरह कांग्रेस से जुड़ा आदिवासी समाज कांग्रेस से दूर हुआ. क्यों हुआ ? सभी कांग्रेसी जानते हैं. ०४ नवंबर,२०११ को आदिवासियों ने मार भी खाई और कालिख भी पुतवाई. यह काम पुलिस ने नहीं किया. सत्ता में बैठी कांग्रेस और कांग्रेसियों ने भारी पुलिसबल के संरक्षण में किया. बड़े बेआबरू होकर कांग्रेस के कूचे से निकले थे आदिवासी, उस समय आज दहाड़ रहे कांग्रेसी नेताओं को रोना आया और न ही आँख का आँसू टपका.

          छात्तीसगढ़ में सत्ता की चाबी आदिवासी समाज के पास है, अतः हर कोई आदिवासी गम में घडियाली आँसू बहाकर आदिवासियों का हमदर्द बनना चाहता है. जबकि हकीकत यह है कि राजनीति में आदिवासी उपयोग कर फेंकने वाली वस्तु बनकर रह गया है. यह सिलसिला बहुत पुराना है और तब तक जारी रहेगा जब तक आदिवासी समाज जातिवाद और क्षेत्रवाद का शिकार होकर अशिक्षा, अज्ञानता, अजागरुकता और शराब जैसी महामारी से घिरा रहेगा. एक जानकारी के अनुसार हर दर्जे के असंगठित आदिवासियों को संगठित करने हेतु छत्तीसगढ़ में लगभग हजार से भी अधिक जाति/समाज संगठन पंजीकृत हैं. अपंजीकृत संस्थाएं भी अनगिनत हैं. अपने सामाजिक प्रेम को चमकाने और दमकाने के लिए और भी नए संगठन आदिवासी बाजार में आ जाय तो कोई अतिसंयोक्ति नहीं होगी. आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में आदिवासी उस मृग की तरह है जो कस्तूरी को बाहर खोजता है, जबकी वह उसके भीतर मौजूद है. आदिवासी समाज को आदिवासी सत्ता से परिचित कराना ही "आदिवासी सत्ता" पत्रिका का मूल उद्देश्य है और यह उद्देश्य तब सफल होगा, जब हम "आदिवासी सत्ता" को जानेंगे व मानेंगे.

साभार आदिवासी सत्ता








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