
आजादी के बाद भारत को १५०० बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के कारण १.६ करोड़ की आबादी विस्थापित हुई, इनमे ४० प्रतिशत आदिवासी थे. इस तरह आदिवासियों के जीविकोपार्जन का परम्परागत साधन छीन लिया गया, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती. वैश्वीकरण का दुष्प्रभाव का विवरण देते हुए विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (एस.सी.ई.) के निर्देशक सुनीता नारायण ने सितम्बर २०११ में रपट जारी करते हुए यह तथ्य उजागर किया कि ११वी पंचवर्षीय योजना के तहत इतनी परियोजनाओं को वैन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने स्वीकृति दे दी, जो १२वी पंचवर्षीय परियोजना के लक्ष्य से अधिक है.
बाँध परियोजना, राष्ट्रीय उच्च मार्ग, रेलवे लाईन, खनन व्यवसाय, औद्योगीकरण, अभ्यारण एवं अन्य कारणों से आदिवासियों का अनिवार्य विस्थापन होता है तो उन्हें पारंपरिक जमीन व परिवेश से विस्थापित होकर जीविका की तलाश में अन्यत्र पलायन करने को विवस हो जाना पड़ता है, क्योंकि उनकी जीविका का एक मात्र आधार ही समाप्त हो जाता है. प्रशन उठता है कि उनके जीविकोपार्जन के विकल्प की तलाश क्यों नही की जाती ?
आदिससियों के हित में संविधान की पांचवी अनुसूची के प्रावधानों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन करते हुए आदिवासियों को विस्थापित किया जाता है, जबकि संविधान के प्रावधानों के अनुसार आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना अधिकार की गारंटी दी गई है.
राष्ट्रीय आदिवासी नीति में भी निम्न प्रावधान रखे गए हैं :-
१. भूमि के एवज में कम से कम दो हेक्टेयर उपजाऊ जमीन, जिसमे एक परिवार आसानी से गुजारा कर सके.
२. नये स्थान पर आरक्षण के लाभ.
३. वनोपज पर अधिकारों की समाप्ति के बदले अतिरिक्त वित्तीय सहायता जो छह माह से एक वर्ष की न्यूनतम कृषि मजदूरी के सामान हो.
४. सामाजिक, धार्मिक आयोजनों के लिए भूमि मुफ्त में उपलब्ध कराई जाए.
५. सामूहिक विस्थापन की दशा में नये स्थान पर पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य, सफाई, शिक्षा, उचित मूल्य की दूकान, सामुदायिक केंद्र, पंचायत कार्यालय आदि सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाए.
याद रहे कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने आदिवासी विकास के पंचशील तय किये थे, जो निम्नानुसार हैं :-
१. आदिवासियों का विकास उनकी मनोदशा एवं परम्पराओं के आधार पर होना चाहिए. बाहर से थोपी जाने वाली नीति के तहत नहीं. इस क्षेत्र में आदिवासी परम्परागत कला व संस्कृति पर जोर दिया जाये.
२. आदिवासियों के जंगल व जमीन पर अधिकारों का सम्मान किया जाये.
३. प्रशासन एवं विकास में आदिवासियों के प्रतिनिधित्व को महत्व दिया जाना चाहिए. तकनीकी विशेषज्ञ शुरुवात में बाहर से लाये जा सकते हैं, अन्यथा बाहरी व्यक्तियों के हस्तक्षेप को नहीं के बराबर रखना चाहिए.
४. आदिवासियों के परम्परागत समाज व सांस्कृतिक संस्थाओं के आधार पर ही आदिवासी क्षेत्र में प्रशासनिक व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए.
५. आदिवासी विकास का मापदंड खर्च की जाए वाली राशि एवं विकास के आंकड़ों पर आधारित ना होकर विकास की गुणवत्ता के आधार पर होनी चाहिए.
आशा है माननीय प्रधानमंत्री जी आदिवासियों के लिए तय किये गए उपरोक्त पंचशील पर गौर करेंगे और राष्ट्रीय आदिवासी नीति की घोषणा शीघ्र करेंगे.
साभार दलित आदिवासी दुनिया