शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

मानसिक परिवर्तन से ही स्वाभिमान की जागृति

ऋग्वेद में एक व्यक्ति, एक स्थान में कहता है कि मै मन्त्रों की रचना करता हूँ | मेरे पिता चिकित्सक हैं | मेरी माता गेंहूँ आटा पीसने का कार्य करती है | इससे यह स्पष्ट होता है कि जातिगत भेद-भाव स्वार्थवश कथित विशिष्ट वर्ग के द्वारा थोपी गई है | विश्व प्रशिद्ध इतिहासकार पेंका का मत है कि आर्यों ने यूरेशिया (मध्य यूरोप एवं एशिया) के वोल्गा नदी के कछार से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जम्बूद्वीप (शंभू द्वीप, गोंडवाना लैंड), रेवाखंड में प्रवेश किया | तब सम्पूर्ण भारत गोंडवाना लैंड कहलाता था | वृहद गोंडवाना लैंड में दक्षिणी गोलार्ध- आस्ट्रेलिया, अफ्रिका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका, जावा, सुमात्रा द्वीप समूह जुड़ा था | यह भूगोल वेत्ताओं ने स्पष्टतः स्वीकार लिया है, क्योंकि यहाँ जो यूकेलिप्टस के वृक्ष पाए जाते हैं, जिसे नीलगिरी भी कहते हैं, आस्ट्रेलिया से भारत लाया गया था, ऐसी मान्यता थी जो कि अब निर्मूल सिद्ध हो चुकी है, वस्तुतः मध्यप्रदेश में नदियों के कछारों में पाए गए जीवाश्म यूकेलिप्टस के ही हैं और सम्पूर्ण भारत में इन महा भूखंडों के प्राणी, वनस्पति के जीवाश्म पाए जाते हैं, वे एक सामान हैं |

यूरेशिया में प्रवासियों ने इस संस्कृति के सभ्य धरती पर किस प्रकार प्रवेश किया, किस तरह यहाँ के निवासियों को उंच-नीच का भेदभाव डालकर, दस्तावेज और ग्रन्थ लिखकर वर्चस्व कायम किया | इनके विवेकपूर्ण अध्ययन और विश्लेषण से इन तथ्यों को ज्ञात किया जा सकता है | उनके द्वारा रचित इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यहाँ पर ही अपना रक्त संबंध और नश्ल भी मिलाने में कामयाब हो गए | आर्य और अनार्य जैसी भिन्न प्रकृति के संस्कृतियों से हिंदू संस्कृति के वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया | वही ग्रन्थ वर्ण व्यवस्था और आर्यों के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सत्ता कायम करने का अनुकूल अस्त्र बने | आर्यों द्वारा निर्मित धर्म के प्रचार स्तंभ, मंदिर, धाम, पीठ की स्थापना कर इस धरती के मूलनिवासियों को स्वीकार कराने का राज्य आश्रय तथा सत्ता प्रमुख को अपने बस में कर इस धरती के मूलनिवासियों को स्वीकार कराने का राज्य आश्रय तथा सत्ता प्रमुख को अपने बस में कर सम्पूर्ण समाज को अपने कब्जे में किया गया |

यूरेशिया में प्रवासियों ने इस संस्कृति के सभ्य धरती पर किस प्रकार प्रवेश किया, किस तरह यहाँ के मूल निवासियों को उंच-नीच का भेदभाव डालकर दस्तावेज और ग्रन्थ लिखकर वर्चस्व कायम किया | इनके विवेकपूर्ण अध्ययन और विश्लेषण से इन तथ्यों को ज्ञात किया जा सकता है | इनके द्वारा रचित इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यहाँ पर ही छल से अपना रक्त संबंध और नश्ल भी मिलाने में कामयाब हो गए | आर्य और अनार्य जैसी भिन्न प्रकृति के संस्कृतियों से हिन्दू संस्कृति के वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया | वही ग्रन्थ वर्ण व्यवस्था और आर्यों के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सत्ता कायम करने का अनुकूल अस्त्र बने | आर्यों द्वारा निर्मित धर्म के प्रचार स्तंभ मंदिर, धाम, पीठ की स्थापना कर इस धरती के मूल निवासियों को स्वीकार कराने का राज्य आश्रय तथा सत्ता प्रमुख को अपने बस में कर संपूर्ण समाज को अपने कब्जे में किया गया |

उन ग्रंथों में अपने ही वर्ग के हित साधन तथा उनकी ही भलाई हो, पूजा हो, इसलिए यह इतनी सफाई से छल, बल, ईर्ष्या, कपट के भेद भाव से यहाँ लोगों को असभ्य या संस्कारहीन का दर्जा देकर उन परिस्थितियों का निर्माण किया गया, जिससे यहाँ के मूल निवासी अपना सबकुछ भूलकर मोहवश उनका अनुशरण करते हैं | सैकड़ों वर्ष पूर्व इस धरा के गोंड आदिवासी मूल निवासी दैत्य, दानव, राक्षस, भूत, पिशाच और निशाचर कहलाते थे | इनके धर्मग्रन्थों में वर्णित विलेख आज भी सबूत के तौर पर मौजूद हैं | प्राचीन काल से अब तक इनके धर्मग्रंथों के ये शब्द आदिम जनों के साथ मात्र द्वेष और घृणा के द्योतक हैं |

क्या आपने कभी इस विषय पर चिंतन किया है कि हमें आदिवासी क्यों कहा गया है ? यह मूल वंशियों का देश गोंडवाना कहलाता था | यहाँ पर निवास करने वालों को गोंड कहा जाता था, किन्तु हम उस "गोंड" और उसके "गोंडवाना" धरा के गौरव को भुला दिया है | आर्यों के तिलिस्मी वर्ण व्यवस्था, ढ़ाचा का खाल ओढ़कर, संपन्न व्यक्ति दानी बन गए, दानियों के सुरक्षा में लगे क्षत्रीय, मध्यम वर्ग व्यवसायी और शेष शूद्र | आर्थिक रूप से कमजोर को शूद्र की श्रेणी में समझने लगे | यहाँ के मूल निवासी गोंड लोग वर्ण व्यवस्था से अलग हैं | उनकी संस्कृति, परंपराएं, प्रथाएं, धर्म, भाषा आर्यों से भिन्न हैं | इसके बावजूद यह सच है कि कोई जाति पूछता है उसे यूँ ही टाल देते हैं अथवा संकोचवश अपनी जाति या समुदाय का नाम बताने में सकुचाते हैं | वर्ण व्यवस्था के उंच नीच का ज्ञान बोध हो जाने के कारण समुदाय  का नाम बताने में अपराध बोध का चादर ओढ़कर ठाकुर या सामान्य प्रचलित सरनेम (उपनाम) का आड़ लेकर कितने उपाय ढूँढने का उपक्रम करते हैं | हमें अपना मूल उपत्पत्तिक समुदाय का नाम, गोत्रनाम बताने में संकोच क्यों ? कोई गलत कार्य तो कर नहीं रहे हैं ! यह हमारी सबसे बड़ी भूल है | हमें गर्व से अपना नाम, गोत्र नाम और अपने मूल उत्पत्तिक समुदाय का नाम गौरवान्वित होकर बताना चाहिए, जैसे जैसे आर्य लोग बताते हैं | इस देश में अपना प्रथम हक़ बनता है कि हम अपनी माँ की गोद में हैं, अपने घर, अपने जमीन पर हैं | हम आर्यों की तरह अप्रवासी अथवा शरणार्थी तो कदापि हैं नहीं |

आत्मविश्वास और अपने सच्चाई के आदर्श हमारे रगों में हैं | हमारी आत्मशक्ति में इस धरती का रक्त प्रवाहित होता है | फिर भी हम सच्चाई और इमानदारी की संस्कार को झुठलाने वाले नाकामयाब उद्देश्य का सहारा लेते हैं | अपने विशिष्ट गुण और भोलेपन की खास पहचान को झुठलाने का प्रयास करते हैं | वर्तमान में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं |

सच्चाई से आदिवासी इतना लबरेज है कि यदि ह्त्या का अपराध भी किया तो हथियार सहित थाने के सामने जा खड़ा होता है और जैसा किया वैसा पुलिस को बता देता है | बस्तर की एक घटना इसी प्रकार है | एक आदिवासी ने विवाद बढ़ने पर एक व्यक्ति को कोल्हाडी से जान से मार डाला | जब थाने को सूचना मिली तो थानेदार तीन सिपाहियों सहित उस आदिवासी के घर पहुच गया | थानेदार पियक्कड़ था | उसने आदिवासी के घर पहुँचते ही दारू की मांग की | थानेदार, सिपाही और आदिवासी मिलकर खूब दारु पिए | थानेदार इतना पी गया कि खड़े होना मुश्किल | शाम होने को चली थी | थाना भी पहुंचना था | ऐसी स्थिति में सिपाहियों ने और उस आदिवासी ने थानेदार को खाट में लिटाकर थाना पहुंचाए | थानेदार को जब तक होस नही आया तब तक वह आदिवासी थाने में ही कुल्हाड़ी को लेकर बैठा रहा | यही है सच्चाई और इमानदारी की जड़ता | किए हैं तो किए हैं, नहीं किए हैं तो नहीं किए हैं | वचन से पत्थर की लकीर होते हैं | जमीन फटे या आसमान गिरे | दुनिया की कोई ताकत उनके सत्य वचन को झुठला नहीं सकती | ऐसा उदाहरण किसी मानव समाज में देखने को कदापि नहीं मिलेगा | ऐसे आदर्श के होते हुए ही आदिवासी दूसरों का शिकार बन रहा है | आर्यों के कुटिल चाल में फंसकर जन्म से मृत्यु तक शोषण के चक्र में बंध गया है | मानव समाज में, राज्य सत्ता में, धर्म में, सामाजिक, सांकृतिक, आर्थिक विकास की योजनाएं बनती है मूलनिवासियों के लिए, किन्तु सुख भोगते हैं आर्य लोग !!


*****

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

गोत्र की हत्या, समाज की ह्त्या है

हर पढ़ा लिखा व्यक्ति अपने सामाजिक, सांस्कृतिक जानकारी के लिए ग्रन्थ मांगता है | हमारे पुरखों ने कोई किताब नहीं पढ़ी | फिर भी प्रकृति, मानवशास्त्रीय, सामाजिक एवं सांस्कारिक दर्शन के ज्ञानी रहे और हैं | वे प्रकृति के साथ पारंपरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दर्शन को जोड़ने वाले मानवतावाद के जनक हैं | हम दो अक्षरी किताबी ज्ञान पढ़कर शब्दों और किताबों के गुलाम हो जाते हैं | सत्य है कि ज्ञान किताबों से मिलता है, किन्तु अपने दर्शन, ज्ञान और विवेक से इनकी सेहत को समझना इतना मुश्किल नहीं है | व्यक्ति के लिए आवश्यक है तो वह है अपने सामाजिक दर्शन, ज्ञान और विवेक का बौद्धिक रूप से इस्तेमाल करना | प्रकृति ही सत्य है | इसकी सत्यता के गुणों की परख आदिवासियों को है, किन्तु पढ़े लिखे आदिवासी चमत्कारिक शब्दों के अँधेरे में गुम हो रहे है | हमारे पूर्वजों ने अक्षर ज्ञान और किताबों के अँधेरे में रहकर भी पुकराल (सृष्टि/प्रकृति) को पढ़ा |  मौसम को पढ़ा, समय की गति को पढ़ा, सूरज, तारे, ग्रह नक्षत्र, हवा की रुख को पढ़ा | मिट्टी को पढ़ा, पहाड़ पर्वत, पेड़ों, नदियों, झरनों को पढ़ा | पशु पक्षियों के साथ बात की | उन्ही से प्रकृति का जीवन ज्ञान लिया | उन्ही से खाने पीने और सुरक्षित जीवन जीने की जानकारी हासिल की | आज भी वे उन्ही के साथ बात करते हैं, उन्हें समझते हैं | हमने यह ज्ञान उनसे क्यों नहीं सीखा ? हमने आधुनिक दो अक्षर पढ़कर अपने पुरखों के विरासत, ज्ञान, परम्परा, संस्कृति, दर्शन को लात मारा और उन्हें अनपढ़, गंवार कहकर दुत्कारा | अभी भी दुत्कार की भावना हमारे ह्रदय के किसी कोने में समाई हुई है | इसी का प्रतिफल है कि हमें ग्रन्थ ढूंडने और पढने की लालसा बढ़ रही है | जब गोंड आदिवासियों के पुरखे ही नहीं पढ़े तो ग्रन्थ कौन लिखता ? उनके लिए तो सारा सृष्टि/ प्रकृति ही मानवता का विराट ग्रन्थ रहा और है | आधुनिक मानव समाज के द्वारा अनपढ़ और गंवार कहे जाने वाले आदिवासियों का ज्ञान दुर्लभ, सत्य और मानवता की कसौटी पर कसा हुआ है |

आदिम समाज की धरती से जुडी जीवन व्यावहारिकता ने ज्ञान और विज्ञान को जन्म दिया | इसकी पहचान पढ़े लिखे आदिवासी समाज को होनी चाहिए | इन तथ्यों को खोजना इतना मुश्किल नहीं हैं | यदि अपने आपको गोंडवाना के गोंड आदिवासी मानते हैं, तो यह निश्चित हो जाता है कि गोंड आदिवासी ही इस धरा के प्रथम आदिम मानव वंश हैं | दुनिया के सभी मानव शास्त्री, नृतत्व शास्त्री इस तथ्य को स्वीकार चुके हैं | दुनिया को संस्कार, मानवता, सत्य ज्ञान और विज्ञान के सूत्र देने वाले मानव समाज के वंशज आज कल्पना के ग्रंथों से आस्था के पंख लगाकर आसमान में उड़ान भरने को तैयार है ! इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है ? आज ग्रंथों के अक्षरों में आस्था का जो परिवेश है वह आदिवासियों का कदापि नहीं है, बल्कि कल्पना से पूरित, प्रकृति और मानवता के विनाश का प्रतीक है | आज जो भी आदिवासी ग्रंथों (गोंडी गीता, गोंडी आरती, गोंडी रामायण, गोंडी महाभारत आदि) की रचना हो रही है, वह दूसरों की थूंकी हुई प्रतिकृति का प्रतीक है, नक़ल है | हमारे पुरखों ने ऐसी नक़ल नहीं की | पढ़े लिखे आदिवासी, नकलची आदिवासी कबसे बनने लगे ?

गोंड आदिवासी समाज के बहुत से लोग अपने नाम के बाद गोंड, ठाकुर, सिदार, ध्रुव, राज, प्रधान आदि लिखते हैं | छत्तीसगढ़ में ध्रुव गोंड, अमात्य गोंड, सरगुजिहा गोंड, बिलासपुरिहा गोंड, रतनपुरिहा गोंड, बस्तरिहा गोंड आदि, इन सब का अलग अलग सामाजिक अस्तित्व बन गया है | यह पाया जा रहा है की इन सामाजिक समूहों के लोग एक दूसरे के समूह में शादी विवाह का सांस्कारिक व्यवहार करने में कतराते हैं | यह एक प्रकार से सामाजिक विकार है | गोंड अपनी असली सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना, रिश्ते नातेदारी, सगा पारी की पारदर्शी व्यवस्था को जानने में असमर्थ पाते हैं, इसलिए यह विकार उत्पन्न हो रहा है | यह असमर्थता अपने नाम के बाद गोंड, राजगोंड, ठाकुर, सिदार, ध्रुव, राज, प्रधान लिखने के कारण आई है | यदि स्पष्ट रूप से नाम के बाद अपना गोत्र लिखा जाता है तो गोत्र के आधार पर रिश्तों की पारदर्शिता को पढने में सहूलियत होती है | सम विषम देव संख्या भी गोत्र जानकर ही जाना जा सकता है | गोत्र लिखने की ही परंपरा ख़त्म हो रही है, इसलिए समाज का दर्शन और पारदर्शिता भी ख़त्म हो रही है | इस व्यवस्था को सुधारना चाहिए | इसकी आस आज की युवा पीढ़ी पर है |

गोंड केवल गोंड है | ईशा पूर्व शंभू काल की प्राचीन गोंडवाना धरा पर लगभग 15,000 से 5000 ( लगभग 10,000 वर्ष)  तक समृद्ध गणतंत्र की स्थापना कर संचालन करने वाले पूर्वजों के वंश, ईशा पश्चात 1700 सालों तक गोंडवाना गणतंत्र के राजवंशी नश्ल आज जनतंत्र के संचालन में फेल क्यों हो रहे हैं ? यह एक जटिल प्रश्न है | इसका विस्तृत विश्लेषण यहाँ संभव नहीं है | ईशापूर्व गोंडवाना की धरा पर आर्यों के घुसपैठ करने के बाद गोंडवाना के गणतंत्र को कमजोर करने का कुचक्र शुरू हुआ | उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, प्राकृतिक और आर्थिक रूप से समृद्ध गणतांत्रिक व्यवस्था को छल और बल से विखंडित कर कमजोर करने की कूट रचना की गई और वे कामयाब हुए | तब से आज तक गोंड आदिवासी समाज इस कूट रचित छल, बल का शिकार होते आया है और आज भी हो रहा है | इसका मूल कारण है सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, प्राकृतिक और आर्थिक रूप से समृद्ध गणतांत्रिक व्यवस्था से भ्रमित होना | सत्य, निष्ठा, विश्वास और सरलता उनके लहू में बसा है | तमाम छल, बल के माध्यम से उन पर अनेक तरह से अत्याचार किए गए किन्तु उनके प्रकृति संगत सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक स्वरुप आज भी समाज में कायम है | यही स्वयं पर विश्वास और कट्टरता का मूल आधार है | आधुनिक ज्ञान, बुद्धि और विवेक से समृद्ध समाज का व्यक्ति ही अपनी मूल व्यवस्थाओं से सबसे ज्यादा भ्रमित हो रहा है | यह समाज के अस्तित्व के लिए अत्यंत घातक और विनाशकारी है |

जो गोंड आदिवासी अपनी उत्पत्ति का प्रतीक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सगा पारी व्यवस्था का वृहद पारदर्शी स्वरुप को नहीं जानते या नहीं समझते वे लोग ही "गोत्र" के स्थान पर गोंड, राजगोंड, ठाकुर, सिदार, ध्रुव, राज, प्रधान आदि लिखते हैं | गोत्र लिखने में शर्म  क्यों ? ठाकुर लिख लेने से अपनी मानसिकता से शूद्रता की श्रेणी नहीं निकलेगी | ठाकुर लिखने से क्षत्रीयता का सम्मान नहीं आएगा, किन्तु ठाकुर के स्थान पर अपना असली गोत्र लिखने पर आपका और समाज का स्वाभिमान और सम्मान बढ़ता है | सम्मान और स्वाभिमान की परिभाषा को समझो और समझाओ, अन्यथा अपने जमीन से ही विलुप्त हो जाओगे | यदि ठाकुर लिखते हो तो कौन से ठाकुर ? वर्ण व्यवस्था वाले ठाकुर ? क्षत्रिय, ब्राम्हण, बनिया में शामिल ठाकुर ? तलवार वाला ठाकुर या छुरा वाला नाई ठाकुर या कौन से ठाकुर ? समाज के लोगों को केवल गोत्र बता देने, लिख देने से ही उस गोंड आदिवासी के कुल, पेन व्यवस्था, सामाजिक सगा पारी, रिश्ते नातेदारी का ज्ञान हो जाता है,चाहे वह दुनिया के किसी भी क्षेत्र में रहने वाला गोंड हो | 

गोत्र व्यवस्था गोंड आदिवासियों के वंश, परंपरा, कुल, टोटम (कुल के मूल गण चिन्ह) व्यवस्था को प्रदर्शित करता है | ऐसी व्यापक पारिवारिक, सामाजिक, संस्कृति से सुसज्जित पारदर्शी व दूरदर्शी व्यवस्था दुनिया के किसी ऐतिहासिक ग्रन्थ, किताब में नहीं है, जो गोंड आदिवासियों के मौखिक ज्ञान में हैं | यह पूर्ण वैज्ञानिक और मानव वंशगत सांस्कारिक व्यवस्थाओं से परिपूर्ण है | नियमानुसार विवाह संस्कारों में विषम गोत्रीय (रक्त संबंधों में भिन्नता), विषम मूल पेन संख्या के कुल से संबंध स्थापित करना, आने वाले नश्ल के लिए सटीक एवं वैज्ञानिक रूप से रोग प्रतिरोधक उपाय है | आज मानव समाज में यह व्यवस्था ख़त्म हो रही है, इसलिए इसलिए अस्पतालों के जंगल खड़े हो रहे हैं | गोंड आदिवासी लोग भी अज्ञानतावश संगत रक्त संबंधी सगोत्रीय समूहों से विवाह संबंध स्थापित करने लगे हैं | अपने समाज, सगा संबंधी, रिश्ते नाते और संस्कृति की दूरदर्शी पहचान गोत्र ही है | गोत्र न लिखकर अपने प्रथम महामानव, मानव वंश सृजक शंभू मादाव (शंभू महादेव) और प्रथम मानव गुरु रुपोलंग पहांदी पारी कुपार लिंगो की दी हुई प्रकृति व विज्ञान सम्मत सांस्कारिक व्यवस्था का क़त्ल कर रहे हैं | इसलिए गोंड आदिवासी अपनी खुद की समृद्ध सांस्कारिक धरती पर विलुप्त हो रहा है |

यदि यही हाल रहा तो गोंड आदिवासियों के आने वाले नश्ल को इन व्यवस्थाओं से अनभिग्य बनने से कोई नहीं रोक सकता | उन्हें अपने पूर्वजों के इस महानतम विरासती व्यवस्था से वंचित करने का श्रेय आप और हम पर होगा | गोत्र के स्थान पर गोंड, ठाकुर, सिदार, ध्रुव, राज, प्रधान आदि लिखकर हमने अपने असली गोत्र, पारी व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, सांस्कृतिक व्यवस्था, रिश्ते नाते की पारदर्शिता की ह्त्या कर कर रहे हैं ! यही घर, परिवार, समाज और पुरखों की दी हुई विरासती संस्कारों की ह्त्या होगी | इसलिए ऐसा करके सम्पूर्ण गोंड आदिवासी समाज और उनकी मूल व्यवस्थाओं का क़त्ल करने वाला कातिल मत बनो | आदिवासियों की विलुप्ति का यह भी एक कारण है | 

नाम के बाद राज गोंड, ठाकुर, सिदार, राज, प्रधान आदि लिखने की परम्परा कुछ गोंड आदिवासी राजवंशों, जमीदारों, मालगुजारों ने शुरू किया था, जो ब्राम्हणों की बनाई वर्णवादी व्यवस्था, उच्चता और निम्नता को प्रदर्शित करने का प्रतीक है | राजवंश इससे प्रभावित थे | यह उच्चवर्ण प्राप्ति की लोलुपता और मानसिक लालच का प्रतीक है | समाज में उच्चता और निम्नता का बीज बोने का प्रतीक है | यह मानवता में भेद भाव पैदा करने का एक भयानक मानसिक संक्रामक रोग है, जो बुद्दी, विवेक और मानवता को चर जाता है | प्रकृति ने उच्चता और निम्नता की भावना पैदा नहीं की | यह नीति गोंड आदिवासी समाज का द्योतक भी नहीं है | प्रकृति समता, समानता, समरसता, सद्भावना और समृद्धि तथा धन और धर्म सूत्र का मूल स्त्रोत है | इस धरा के मूल आदिम समाज ने इसी प्रकृति की स्त्रोत से इन सूत्रों को प्राप्त किया | आदिवासी इन सब सूत्रों का जनक है | इसलिए आदिवासी प्रकृति पूजक कहलाते हैं | जीओ और जीने दो उनका सिद्धांत है | आधुनिक मानव समाज के प्रगति सूत्र में केवल लूटो और लूटने दो की मानसिकता प्रबल है | चाहे जन, जमीन, धन और धर्म ही क्यों न हो ! 

जो सायद गोंडवाना नाम की समृद्ध एवं विराट धरती का इतिहास नहीं जानते या भूल चुके हैं या गोंड शब्द से जिन्हें किसी कारण से आपत्ति हो सकती है, ऐसे वर्तमान मानसिक परिवर्तित परिवेश के गोंडों का कुछ समूह आदिवासी कहलाना पसंद करते हैं | समाज संरचना की दृष्टि से जन्मभूमि, उत्पत्ति स्थान, निवास स्थान, भौगोलिक संरचना एक मुख्य स्तंभ है, जो "आदिवासी" कहने से समाज की प्राचीन ऐतिहासिक सामाजिक संरचना की पूर्णता परिलक्षित नहीं होती है | यदि अपने आपको आदिवासी कहते हो तो अपना ऐतिहासिक जमीन बताओ, आपके पूर्वज और वंश कौन सी धरती पर पैदा हुए ? जो आदिवासी अपने आपको "गोंडवाना" धरती के वंशज मानने से कतरा रहे हैं, उनकी मानसिकता को हम अच्छी तरह समझने की योग्यता रखते हैं | "आदिवासी" शब्द गैरों की घ्रणित मानसिकता की उपज है, फिर भी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अभिन्नता बनाए रखने के लिए गोंड आदिवासी व्यक्त करना आवश्यक हो जाता है | हम इस अलगाव के हिमायती कदापि नहीं हैं | 

जीवन सुधार की प्रक्रिया है | यदि कही अव्यवस्थित है तो सुधारा जाए | यदि बाप दादाओं ने गोत्र नहीं लिखा तो अब पढ़ा लिखा उनका वंश अपना गोत्र लिखे | इससे समाज का प्रकृतिसंगत संस्कारों, रिश्ते नातों की पारदर्शी व्यवस्था स्पष्ट परिलक्षित होता है | प्रकृति और विज्ञान से सम्बद्ध पारदर्शी मानव सांस्कारिक व्यवस्था दुनिया के किसी समाज में नहीं है | इसलिए आदिवासियों के लिए यह गर्व का विषय है कि उनके पूर्वजों ने आधुनिक शब्द ज्ञान से परे रहकर भी प्रकृति को पढ़ा और भविष्य के नैतिक मूल्यों को बांधे सहेजे रखने के लिए विज्ञान सम्मत संस्कारों का निःशब्द ज्ञान रुपी ग्रन्थ का निर्माण और परिमार्जन किया | एक ऐसा निःशब्द ग्रन्थ जो विश्व के किसी समोन्नत ज्ञानकोष में भी नहीं है |

गोंड आदिवासी अपने संस्कार, व्यवहार, परिवेश को पीढ़ियों तक लिखेंगे तो भी नहीं लिख पाएंगे | गोंड आदिवासियों के संस्कार प्रकृति की वैधानिक उपज है | प्रकृति के विधान का अब तक कोई लेखा जोखा नहीं है | प्रकृति का लेखा जोखा किसी शब्द या पुस्तक के बंधन में नहीं हैं | यह प्रकृति की व्यवहार की तरह समाज का मौखिक व मूल व्यवहार है | फिर भी कलमबद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है | प्रकृति के व्यवहार के समानांतर स्थापित गोंड, गोंडी और गोंडवाना के संस्कार दर्शन को लिखना इतना आसान नहीं है | अब तक स्व. डॉ. मोतिरावण कंगाली, महाराष्ट्रा द्वारा गोंड, गोंडी और गोंडवाना के दुर्लब दर्शन का सटीक आईना दिखाने का प्रयास किया गया है, जो गोंड आदिवासी सामज के विचार में अब तक श्रेष्ठतम माना जा रहा है | कई लेखक स्वर्ग वासियों के स्वार्थ नीहित धार्मिक खेल की पोल खोलने के लिए उतारू हैं | इसके अलावा समाज के अनेक विचारक, शोधक और लेखक भी सामाजिक संरचना के गूढ़ ज्ञान को समझने और समझाने के लिए अथक प्रयासरत हैं | इन सबका मानना है कि आदिम समाज का प्राचीन शब्द 'गोंड' (गण व्यवस्था के जनक, मानव समूह), 'गोंडी' (गण व्यवस्था के जनक, मानव समूहों की भाषा, प्रकृति की भाषा, द्रविण समुदाय की भाषा) और 'गोंडवाना' (प्राचीन भूभाग,गण व्यवस्था के जनक, मानव समूहों की भाषा, प्रकृति की भाषा, द्रविण समुदाय की भाषा बोले जाने वालों का निवास स्थान) का विश्लेषण किए बगैर, किसी गोंड आदिवासी, गैर आदिवासी समाज शास्त्री, मानव शास्त्री, लेखक, शोधक, विचारक के लिए आदिवासियों के दर्शन को जानना और अंकित करना कठिन ही नहीं नामुमकिन है |

दुनिया में विख्यात इस धरा के शिक्षा, दर्शन केंद्र नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला आदि प्राचीन देशीय विश्वविद्यालयों के पुस्तकगारों को आर्यों द्वारा जलाकर नष्ट कर दिया गया | गोंडवाना प्रशासकों के ऐतिहासिक शासन प्रणाली की पुस्तकें इन्ही प्राचीन पुस्तकगारों में संरक्षित थे | इसलिए आर्यों के द्वारा गोंडवाना की प्राचीन इतिहास की गाथा को इतिहास में ही दफ़न कर दी गई | इसी में गोंडवाना की इतिहास, प्रशासन व्यवस्था, धार्मिक, सांस्कृतिक व्यवस्था तथा उनकी ऐतिहासिक गौरव गाथा को समूल तरीके से समूल मिटा दिया गया, ताकि आर्य नशल नए शिरे से अपने स्वर्गवासी देवताओं की धार्मिक अधिसत्ता को स्थापित कर सकें | वही हुआ | आज भी आदिवासी अपने सामाजिक, सांस्कारिक, गणतंत्र के विनाशकारी स्वर्गवासियों के ग्रंथों में अपना अस्तित्व ढूँढ रहे हैं ! हम पूर्णतः कभी निकल पाएंगे इन स्वर्गवासियों के चमत्कारी, छलिया, माया के विनाशकारी मोह से  ?  

गोंड आदिवासियों की सांस्कारिक गाथा सीधे प्रकृति से जुड़े होने के कारण इसे पूर्णतः तोड़ने में आधुनिक मानव समाज के पसीने छूट रहे हैं | गोंड आदिवासी सांस्कारिक रूप से किसी कुतर्कीय व काल्पनिक संस्कारों का वाहक नहीं है, बल्कि प्रकृति की सांस्कारिक सत्यता का वाहक है | इसलिए समाज के पुस्तकों को बाजार में खोजना बहुत ही कठिन परीश्रम का काम है | अपने विवेक और बुद्धि से यह समझ लीजिए की इनके चमत्कारिक ग्रंथों में जिनका उल्लेख नहीं है वही आदिम जनों का दर्शन है | गोंड आदिवासियों के मूल आधार बीज की ऐतिहासिक गाथाएं सामान्य बाजारों में कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं, क्योकि यह बाजार भी आदिवासियों का है ही नहीं | यह तो बाजारुओं का बाजार है |

*****