मंगलवार, 18 सितंबर 2012

भारत के एतिहासिक बलिदानी महाराजा शंकरशाह एवं कूँवर रघुनाथशाह




भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आजादी के दीवानों व क्रांतिकारियों को अमानवीय सजा व फासी पर लटकाने के अनगिनत उदाहरण दर्ज हैं, किन्तु किसी क्रांतिकारी को तोप के मुहाने में जीवित बांधकर गोला बारूद से उड़ा देने की देश में यह पहली घटना थी. महाराजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथशाह सिर्फ विद्रोही ही नहीं बलिक एक समृद्धशाली राजवंश के शासक भी थे. मराठों और भोसलों राजघरानों ने मिलकर गोंड राजवंश को समाप्त करने का षड्यंत्र किया, जिससे गोंड साम्राज्य कमजोर हुआ परन्तु अदम्य साहस व वीरता के प्रतीक महाराजा शंकरशाह ने घुटने नहीं टेके और जबलपुर डिविजन में अंग्रेजों के खिलाफ अपने बल बूते पर सशस्त्र बगावत खड़ी कर दी. भारतीय राजघरानों को आपस में लड़वाकर अंग्रेजों ने भारत को अंततः पूरी तरह गुलाम बना डाला. गढ़ा मंडला के शक्तिशाली साम्राज्य के साथ मिलकर यदि मराठों और भोसले राजघरानों ने संयुक्त रूप से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा होता तो १८५७ में ही अंग्रेज भारत से भाग जाते. १८ सितंबर की तारीख स्वतंत्रता आंदोलन की एकलौती ऐतिहासिक घटना है, जिसमे गोंडवाना साम्राज्य के शूरवीर राजा व कुँवर दोनों को तोप के मुहाने पर बांधकर तोप चला दिया गया, जिससे गोंड वंश के सपूतों के चीथड़े उड़ गए. आदिवासियों की ऐतिहासिक शहादतों को शहीदे आजम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसा राष्ट्रीय सम्मान क्यों नहीं मिला ? यह चिंतन हमें करना चाहिए.
जबलपुर में स्वतंत्रता संग्राम का बीजारोपण राजा शंकरशाह के द्वारा किया गया था. राजा शौर्य, निर्भीकता, साहस और संकल्प के प्रतिमूर्ति थे जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध खड़े हुये थे. राजा के संघर्ष को जानने के लिए अतीत को देखना होगा. राजा शंकरशाह के पिता सुमेदशाह थे, जिन्हें पदच्युत करके नरहरीशाह दूसरी बार राजा बने थे. राजा नरहरीशाह (१७७६-१७८९) निःसंतान थे. बैशाख संवत १८३९ (अर्थात सन १७८२) को सुबह के वक्त जब राजा नरहरीशाह नहाने जा रहे थे तब राह में नर्मदा तट पर उन्हें लावारिस बालक मिला. रानी ने बालक को गोद में लिया और उनका नाम नर्मदा बक्श रखा. नर्मदा बक्श ने बाल्यकाल गढ़ा में बिताया और बालिग होते ही वह कहीं भाग गया. रानी ने खोज करवाया पर वह नहीं मिला तब उसने राजा शंकरशाह के पुत्र रघुनाथ शाह को गोद ले लिया. उस समय राजा शंकरशाह सागर में रहते थे. राजा नरहरीशाह की १७८९ ई. में मृत्यु होने पर राजा शंकरशाह गढ़ा की गद्दी के लिये प्रयास किया. उन्होंने १८०९ में मराठों के विरोधी आमीरखान पिण्डारी से सहायता ली और गढ़ा पर अधिकार कर लिया. सन १८१८ में गढ़ा की गद्दी पर बैठकर स्थानीय जमीदारों के सामने अपने को राजा घोषित किया. कुछ वर्ष बाद सन १८४१ को नर्मदा बक्श और और रघुनाथ के बीच जायदाद को लेकर विवाद शुरू हुआ और अंग्रेजों को दो विरोधियों के बीच घुसने का मौका मिल गया.
कैप्टन विलियन होड़ की अदालत में मुकदमा केस न. १०८ दि. १०.०८.१८४२ दर्ज हुआ मुकदमा चला और नर्मदा बक्श के पक्ष के फैसला दिया गया. रघुनाथशाह को पेंशन निश्चित कराने के लिए कमिश्नर के यहाँ अपील करने का निर्देश दिया गया. यह फैसला सोची समझी रणनीति के तहत था, जिसमे वास्तविक उतराधिकारी को बेदखल करना था तथा नर्मदा बख्श को फुसलाना था. यद्यपि दोनों पक्ष अंग्रेजी आँखों की किरकिरी थे तथा दोनों को मण्डला के किले से हटाना था. इस फैसले से एक पक्ष के राजा शंकरशाह और कुँवर रघुनाथशाह को उनके मण्डला के किले के उतराधिकार से वंचित कर दिया गया. राजा सुमेदशाह तिलकधारी राजा थे. जब भोसलों ने युक्तिपूर्वक नरहरीशाह को गद्दी के लिए उकसाया तब सुमेदशाह घर और बाहर शत्रुओं की फ़ौज देखकर नरहरीशाह को सत्ता सौपने राजी तो हुए, परन्तु इसके पहले अपने किशोर पुत्र शंकरशाह (१८ वर्ष) को युवराज के पद पर अभिषिक्त किया और कुलदेवी माला से आशीर्वाद दिलवाया था.
राजा शंकरशाह ने अंगेजों की वफादारी करके या थैली भेंट करके राजा का पद प्राप्त नहीं किया था. अत: विलियम होड़ की अदालत के फैसले से राजा शंकरशाह अप्रसन्न हुए. वे अंग्रेजों को सबक सिखाने की योजना बनाने लगे. कुछ ही दिनों बाद अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ बड़े नगरों में विद्रोह होने की सूचना मिलते ही उनके क्रोध को हवा मिलने लगी. जबलपुर और आस पास के इलाकों में सन १८५७ की जनवरी माह से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ विद्रोह की भूमिका बनाने के लिये अठवाइन (पूडियां) भेजी जाने लगी थी. चपातियों के साथ इस आशय की सूचना भी होती कि भविष्य में आकस्मिक और भयंकर घटना के लिये सजग रहे. सन १८५७ में जबलपुर संभाग के विद्रोहियों का नेत्रत्व राजा शंकरशाह ने स्वयं संभाला. उस वक्त जबलपुर की स्थिति झाँसी, कानपुर, अवध तथा मेरठ की तरह थी. जबलपुर की ५२वी पल्टन राजा शंकरशाह से मिल गई. इसी बीच अंग्रजों ने पल्टन के सिपाहियों को ऊँचा पद देने का प्रलोभन दिया साथ ही ईसाई धर्म स्वीकारने वाले को तत्काल हवलदार बनाने की पेशकश की गई. इस प्रस्ताव को सैनिकों ने नकार दिया.

असंतुष्ट सैनिकों एवं ठाकुर-जमीदारों की गुप्त बैठकें राजा शंकरशाह के नेत्रत्व में सम्पन्न होने लगी और विदेशी सत्ता को परास्त करने की योजनाएं यहाँ बना करती थी. राजा के सहयोगियों में ठाकुर कुन्दनसिंह (नारायनपुर, बघराजी), जैसिंहदेव, जगतसिंह (बरखेड़ा), मुनीर गौसिया (बरगी), भीमकसिंह (मगरमुहा), शिवनाथसिंह, उमरावसिंह, देवीसिंह, ठाकुर खुमानसिंह (मोकासी), रानी रामगढ़, बलभद्रसिंह, राजा दिलराज सिंह (इमलई), राजा शिवभानुसिंह (बिल्हरी), ठाकुर नरवरसिंह, बहादुरसिंह और कुछ मालगुजार तथा ५२वी पल्टन के ठाकुर पाण्डे और गजाधर तिवारी प्रमुख थे.
राजा शंकरशाह के पुरखों ने इसी जनता के भरोसे विशाल गोंडवाना साम्राज्य का संचालन किया था, वही जनता उनसे उम्मीद कर रही थी. उनकी गोंडी सेना मराठा काल में समाप्त कर दी गई थी. सैनिक और उनके सेनानायक भी गुजर गये थे, परन्तु उनके वारिसों के घरों में पुराने जंग लगे अस्त्र-शस्त्र अब भी मौजूद थे. सैनिकों की वारिसों को संकेत कर दिया गया था कि वे अपने पुरखों के कौशल को न भूले. वे सभी अवसर निकालकर राजा से मिल लेते थे. कुछ तो रानी फूलकुंवर देवी से धनुष-बाण, बंदूक, तलवार, गुफान और गुलेल का प्रशिक्षण भी प्रप्त कर रहे थे. रानी की सेना में गुरिल्ला टुकडियां भी थीं, जो कठिन जगहों में लड़ने में समक्ष थीं. साथ ही सागर, जबलपुर, मण्डला, नरसिंहपुर जिले के गोंड मालगुजारों, जमीदारों का राजा से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से संपर्क भी बना रहता था. यह सब देख अंग्रेज सरकार डर गई और विद्रोहियों के दमन के लिये फ़ौज दस्ता बुलवाई. जिसमे –
दस्ता न. एक- ०४ थी पल्टन मद्रास केलेवरी (घुड़सवार)– कप्तान टाटेनमोह.
दस्ता न. दो- ३३ वी पल्टन नेटिव इन्फेंट्री (पैदल सेना) फ़ौज– कप्तान कर्नल मिलर.
दस्ता न. तीन– वेटरी आफ फिल्ड आर्टिलरी (तोपखना दस्ता)– कप्तान जोंस.
दस्ता न. चार– नागपुर इरेग्यियुलर फ़ौज– कप्तान पेरीरा. 
१८५७ में समूचे देश में क्रांति की लहर फ़ैल चुकी थी. राजा शंकरशाह के महल में जमीदारों, मालगुजारों, बुद्धिजीवियों व ५२वी पल्टन के सिपाहियों की बैठकें होने लगीं, जिसकी सुचना ११ जुलाई १८५७ को जबलपुर इंचार्ज अंग्रेज को मिली. उन्होंने यह सूचना डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट क्लार्क व कमिश्नर मेजर एर्स्किन को दी. सितम्बर १८५७ के प्रारम्भ में केप्टन मोक्सन को ५२वी पलटन के एक पंडित और एक सिपाही के माध्यम से सूचना मिली कि उनकी टुकड़ी के कुछ सिपाही राजा शंकरशाह से मिलकर षड्यंत्र रच रहे हैं, कि सारे अंग्रेजों को मार डाला जाय. इस खबर की जानकरी ली गई तो पता चला कि पलटन के ८-१० सिपाही और कुछ जमीदार लोग राजा व उनके लडके रघुनाथशाह से मिलकर गुप्त मंत्रणा करते रहे. खुशालचन्द नामक गद्दार, राजमहल की सभी जानकरी अंग्रेजो को देता रहता था.    
१८५७ में विद्रोह के निर्णायक क्षणों में सेठ खुशालचन्द ने मेजर एर्सकाईन को घुड़सवार सेना खड़ी करने के लिये बड़ी रकम अग्रिम दी. इतना ही नहीं, अपितु १८५७ के वर्षाकाल में उसने पूरी अंग्रेज सेना को खाद्यान्न की आपूर्ति की. यह स्थानीय स्तर पर मदद रही. कानपूर और लखनऊ पर आक्रमण करने इलहाबाद से जाने वाली अंग्रेज सेना को परिवहन के साधन हेतु खुशालचन्द ने बहुत बड़ी रकम दी. खुशालचन्द के गाँव वालों ने विद्रोहियों को पकड़ने में और मारने में मदद की. खुशालचन्द इस सेवा के लिये उसे गव्हर्नर जनरल द्वारा शाल की खिलत, सोने का तमगा और परवाना दिया गया. उसके दो पुत्र हुये सेठ गोकुलदास और सेठ गोपालदास. चाटुकारों से सूचना मिलने पर पुख्ता जानकारी के लिए लेफ्टिनेंट क्लार्क ने अपना वफादार चपरासी भद्दूसिंह को नकली फकीर बनाकर राजमहल भेजा. उस समय मऊ, मेरठ, दमदम, बैरकपुर व छावनियों में क्रांतिकारी साधू, फकीर विभिन्न प्रकार के वेश और रूपधारण करके क्रांति का कार्य करते थे. राजा शंकरशाह इसी धोखे में रहे और अपना उद्देश्य बता बैठे. उस नकली फकीर ने राजा से भेद लिया और आकर जानकारी दी कि क्रांतिकारी अंग्रेज साहबान को जान से मारने व खजाना लूटने का मन बना चुके हैं.
सशंकित अंग्रेज अफसरों ने गुप्त मीटिंग की और योजना बनाकर क्लार्क के नेत्रत्व में घुडसवारों तथा पैदल सैनिक दस्ते भेजकर राजमहल घेर लिया और १४ सितम्बर १८५७ ई. को राजा शंकरशाह युवराज रघुनाथशाह व १३ अन्य क्रांतिकारीयों को बंदी बनाकर केन्टोनमेंट के मिल्टरी जेल में डाल दिया. रानी फूलकुंवर देवी अंग्रजों की आखों में धूल झोंककर महल से निकलकर क्रांतिकारीयों का नेत्रत्व करने लगी. राजा शंकरशाह और उनके साथियों के पकड़े जाने की यह घटना इतनी तीव्र गति से घटी जिसे क्रांतिकारी समझ नहीं पाये. कुँवर रघुनाथशाह अपने पिता की तरह देशभक्त और मात्रभूमि के लिये जान निछावर करने वाले युवक थे. राजा शंकरशाह अंग्रेजों के आशय को जानते थे, भविष्यफल के जानकर राजा ने अपने बेटे से कहा– बेटा रघुनाथ अपने पीछे ऐसा नाम छोड जाओ कि आने वाली अनंत पीढियां तुम्हारे स्मरण में अपने को शुद्ध करती रहें. राजा शंकरशाह की गिरफ्तारी पश्चात राजमहल की तलाशी की गई तो राजमहल से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के ढेरों दस्तावेज मिले, जिसमे राजा की लिखी हुई एक कविता भी थी जो इस प्रकार है :

मूंद मुख दंडिन को, चुंगलों को बचाई खाई,
खूंद डार दुष्टन को, शत्रु संघारिका |
मार अंग्रेज रंज, कर देई मात चण्डी,
बचै नहीं बैरी, -बाल बच्चे संहारिका ||
संकर की रच्छा कर, दास प्रतिपाल कर,
दीन की पुकार सुन, जाय मात हालिका |
खायले मलेच्छन को, झैल नहीं करो मात,
भच्छन कर तच्छन, दौर माता कलिका ||
कविता के द्वारा आराध्य देवियों की स्तुति जिसमे अंग्रेजी हुकुमत को नष्टकर सत्ताहीन होने की अर्चना की गई थी. इसी को आधार मानकर जबलपुर के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में राजा व युवराज पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और सजा ए मौत सुना दिया गया. दिनाँक १८ सितंम्बर १८५७ को क्वांर माह की अमावश के दिन ठीक ११ बजे सूर्य ग्रहण का समय था. पिता व पुत्र को तोप के मुहाने पर बाँध कर तोप चला दिया गया और उसी दिन उनकी सम्पत्ति राजसात कर ली गई. राजा के हथियार जिनमे तलवार, ढाल, फरसा, कुल्हाड़ी, दोधारी तलवार, नेजा, किरचें, जाली बख्तर, (लोहे के जालीदार कवच), सिरस्त्राण (सिरटोप), बंदूक, तोप आदि सब जब्त कर लिये गये.
जनमानस में तोप के संबंध में अभी भी एक किवंदती ताजी है. कहतें हैं, जब अंग्रेजी तोप नहीं चली वह फुस्स हो गई तब राजा ने मात्रभूमि की रक्षा के लिये प्राण देना निश्चय किया और स्वयं अपनी पुश्तैनी तोप लाने को कहा जो ३० इंच व्यास की नली वाली थी तथा चोखे लोहे की ढाली गई थी.
रानी फूलकुंवर देवी के लिये यह असहनीय पल था. पति और पुत्र को खोने के बाद भी वह क्षत्राणी वेष बदलकर अपने साथियों के साथ शहीद स्थल पर आई और यत्र-तत्र बीखरे देहावषेशों को एकत्रित कर रानी ने दोनों (पिता-पुत्र) का अंतिम संस्कार किया और मण्डला की ओर चली गई.
ईधर मृत्यु दण्ड की खबर सुनते ही जन सैलाब शहीद स्थल पर उमड़ पड़ा. वर्तमान उच्च न्यायालय और वन विभाग के कार्यालय के बीच का स्थल महान देशभक्त पिता-पुत्र का शहीद स्थल है, वहाँ स्थित पेड़ जिसे लोग तीर्थ बनाकर श्रद्धा सुमन अर्पित करने लगे, और अपने राजा को याद करने के लिये रोज सैकड़ों श्रद्धालु आने लगे तब अंग्रेजों ने उस पेड़ को कटवा दिया. जैसे-जैसे उनकी भयावाह मृत्यु दण्ड की खबर गांवों में फैलती गई लोगों का रेला पहुंचने लगा. बरगी, बरेला, पनागर, सीहोर, नारायणपुर, (बघराजी), कैमोरी, कटंगी, पाटन, कोंनी, मण्डला, घुघरी, दमोह, नरसिंहपुर आदि के साथ-साथ सम्पूर्ण नर्मदा-सोन घाटी पर क्रान्ति की आग सुलग गई. हिरन का कछार रक्त रंजित हो गया. उधर कुंडल के जंगलों में क्रांतिकारी फ़ैल गये और सरकारी दफ्तरों में लूट-पाट मचाने लगे, उन्हें पकड़ने पुलिस जाती तो वे देवगढ़ की गुफाओं में छुप जाते थे. इसके अतिरिक्त छतरपुर, सोनपुर, इन्द्राना के जंगल इनके अड्डे थे.

\शहर में क्रांतिकारीयों के लिये दोहा बना दिया गया जिसमे हथियार कहाँ मिलेंगें और गोला कहाँ गिरेंगें और उन्हें क्या करना है. वह दोहा इस प्रकार है-

लकड़गंज लाठी बिकें, गोरखपुर तलवार |
बीच सदर गोला गिरें, लूटो सकल बाजार ||
५२वी पल्टन के सिपाही हथियार लूटकर बैरक छोड़ पाटन पहुँच गये और वहाँ पदस्थ मेकग्रेगर को अपने कब्जे में ले लिया, बाद में कटंगी के पास उनकी हत्या कर अपने क्रोध को कुछ शांत किया. अंग्रेजी हुकुमत सतर्क हुई, प्रत्येक बड़े कस्बे में छावनी स्थापित कर दी गई. गोंडकालीन पड़ाव सोनपुर, इमलई, पनागर, बरगी, कटंगी पाटन, सीहोरा आदि ग्रामो में फ़ौजी दस्ते नियुक्त किये गये.

०७ नवम्बर १८५७ को कप्तान टाटेनहोम और लेफ्टिनेन्ट सी.एम. स्टीवार्ट पनागर में थे तभी उन्हें जानकारी मिली कि गोसलपुर को नीमखेड़ा के विद्रोहियों द्वारा लूटा जा रहा है. अंग्रेजी सेना वहाँ तक पहुंचती तब तक विद्रोही भाग चुके थे. उन्हें जानकारी मिली कि करीब एक हजार विद्रोही कटरा रमखिरिया की तरफ गये हैं, सेना वहाँ पंहुची लेकिन वहाँ भी कोई विद्रोही नहीं मिले. एक घर में विद्रोहियों के छुपने की संभावना को देखते टाटेनहोम ने दरवाजा तोड़ा तो उन पर गोलियों की बौछार होने लगी. गोलीबारी में टाटेनहोम घायल हो गये और दूसरे दिन उनकी मौत हो गई. मुडभेड में ०८ लोग मरे गये और १८ बंदी बनाये गये, बाद में उन्हें फांसी दे दी गई. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आजादी के दीवाओं व क्रांतिकारियों को अमानवीय सजा व फासी पर लटकाने के अनगिनत उदाहरण दर्ज हैं, किन्तु किसी क्रांतिकारी को तोप के मुहाने में जीवित बांधकर गोला बारूद से उड़ा देने की देश में यह पहली घटना थी. महाराजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथशाह सिर्फ विद्रोही ही नहीं बलिक एक समृद्धशाली राजवंश के शासक भी थे. मराठों और भोसलों राजघरानों ने मिलकर गोंड राजवंश को समाप्त करने का षड्यंत्र किया, जिससे गोंड साम्राज्य कमजोर हुआ परन्तु अदम्य साहस व वीरता के प्रतीक महाराजा शंकरशाह ने घुटने नहीं टेके और जबलपुर डिविजन में अंग्रेजों के खिलाफ अपने बल बूते पर सशस्त्र बगावत खड़ी कर दी. भारतीय राजघरानों को आपस में लड़वाकर अंग्रेजों ने भारत को अंततः पूरी तरह गुलाम बना डाला. गढ़ा मंडला के शक्तिशाली साम्राज्य के साथ मिलकर यदि मराठों और भोसले राजघरानों ने संयुक्त रूप से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा होता तो १८५७ में ही अंग्रेज भारत से भाग जाते. १८ सितंबर की तारीख स्वतंत्रता आंदोलन की एकलौती ऐतिहासिक घटना है, जिसमे गोंडवाना साम्राज्य के शूरवीर राजा व कुँवर दोनों को तोप के मुहाने पर बांधकर तोप चला दिया गया, जिससे गोंड वंश के सपूतों के चीथड़े उड़ गए. आदिवासियों की ऐतिहासिक शहादतों को शहीदे आजम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसा राष्ट्रीय सम्मान क्यों नहीं मिला ? यह चिंतन हमें करना चाहिए.

साभार आदिवासी सत्ता 

1 टिप्पणी:

  1. जय सेवा जय बड़ा देव गोंडवाना फिर से तेयार है संघर्ष के लिए

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