भारत वर्ष में जहां-जहां जनजातीय समाज के लोग
रहते हैं, विशेषकर छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड, विदर्भ (महाराष्ट्र),
आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात में जनजातियों के बहुत से नेता और बुद्धीजीवी
जनजातियों की विशिष्ठ पहचान (आइडेंटिटी) को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, लेकिन इन
राज्यों के बहुत से जनजाति के लोगों नें अपनी पहचान को त्याग दिया है और त्याग रहे
हैं. बहुत से जनजातीय लोग अपनी बोली भाषा छोड़ते जा रहे हैं. अपना धर्म और रीति रिवाज
छोड़ते जा रहे हैं. अपनी संस्कृति और सामाजिक, राजनीतिक संस्थाएं छोड़ते जा रहे हैं.
कुछ
लोग कहते हैं कि ऐसा ईसाईयत के प्रभाव से हुआ है. यह बात पूरी तरह से सही नहीं है.
यह सच है कि ईसाई बने जनजाति के लोगों ने अपनी संस्कृति की कई बातों को छोड़ दिया
है, लेकिन ईसाई जनजातियों की संख्या बहुत कम है. अधिकतर जनजाति गैर ईसाई हैं. वे
अपनी पहचान क्यों छोड़ रहे हैं ?
इन राज्यों के अधिकांश क्षेत्रों के
जनजातियों ने बहुत से हिन्दू रीति रिवाजों को अपना लिए हैं. ब्राम्हणों को अपना पुरोहित
बनाया है और हिन्दू पर्व, त्यौहार मनाते हैं तथा हिन्दू देवी देवताओं की पूजा करते
हैं. कुछ लोगों का कहना है कि इन सब के पीछे आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियों के
दबाव हैं. बाहरी ताकतों और शक्तिशाली पराये जातीय समूहों से घिरे होने के कारण
उनके दबाव से जनजातीय समाज अपनी पहचान, धर्म, संस्कृति, बोली भाषा आदि छोड़ने के
लिए मजबूर हुए हैं.
यह
बात सही है, लेकिन जनजातियों के द्वारा इनके प्रतिरोध का कोई विशेष प्रयास नहीं
दिखता. उनमे इन घटनाओं के प्रति विक्षोभ की मानसिकता नही दिखती. सबसे महत्वपूर्ण
तथ्य तो यह है कि स्कूल और कॉलेजों में पढ़ने वाले जनजातीय युवक युवतियों में अपनी
जातीय पहचान के प्रति कोई लगाव नहीं दिखता. शिक्षित जनजातीय युवक युवतियां अपने
जनजातीय होने पर शर्म महसूस करते हैं. जिन कॉलेजों में जनजातीय भाषा साहित्य के
विभाग खुले हैं, उनमे जनजातीय युवक युवतियों ने अपनी मातृभाषा और उनके साहित्य को
पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई. एक वाक्य में कहें तो “शिक्षित जनजातीय युवक युवतियों में अपनी जातीय
पहचान के प्रति हीनता की भावना मिलती है.”
ऐसी
स्थिति में कुछ जागरूक जनजातीय समाज के बुद्धीजीवीयों द्वारा जनजातीय पहचान को
प्रतिष्ठित करने का आन्दोलन कैसे सफल हो सकता है ? अगर लोग अपनी पहचान बताने में शर्माते
हों तो आप उनकी पहचान को कैसे प्रतिष्ठित कर सकते हैं ? सवाल यह है कि जनजातीय
समाज अपनी पहचान क्यों छोड़ते जा रहे हैं ? शिक्षित जनजातीय समाज के युवक युवतियां
अपनी जातीय पहचान से क्यों शर्माते हैं ? अपनी बोली भाषा, संस्कृति, समाज के प्रति
उनमे हीनता की भावना क्यों है ?
इन
प्रश्नों का उत्तर यह है कि बाहरी लोग जो शक्तिशाली हैं और अधिक/कृत्रिम सुसंस्कृत
और सभ्य समझे जाते हैं तथा जनजातीय समाज को नीची नजर से देखते हैं. बाहरी लोगों की
नजर में जनजातीय समाज असभ्य और असंस्कृत है. उनकी नजर में जनजातियों का धर्म, रीति
रिवाज, सामाजिक संस्थाएं, पर्व त्यौहार और बोली भाषा, साहित्य सब पिछड़ा हुआ है,
निम्न कोटि का है, असभ्य अवस्था में है ? वे अपनी बातचीत से और अपने वर्ताव से
जनजातीय समाज के प्रति घृणा प्रकट करते हैं और अपने समाज की हर चीज कुटिलता से
श्रेष्ठ घोषित करते हैं, जबकि वैसा नहीं है, सारी बुराईयाँ उनकी हैं.
दूसरों
के कहे अनुसार शिक्षित जनजातीय समाज यह महसूस करता है कि उनके समाज में हर चीज
घृणित है, उनका धर्म, रीति रिवाज, संस्कृति और बोली भाषा सब पिछड़ी हुई है. असभ्य
अवस्था में है तो वे अपने समाज पर गर्व कैसे करे ?
वे
अपने आँखों के सामने देखते हैं कि समाज में और देश में हर जगह हिंदी, अंग्रेजी आदि
भाषाओं का सम्मान है. इनके माध्यम से हर काम होता है, लेकिन जनजातीय भाषाओं के
माध्यम से नहीं ? वे देखते हैं कि जो लोग अधिक सभ्य और सुसंस्कृत हैं, अधिक संपन्न
और प्रतिष्ठित हैं. वे अपनी जनजातीय भाषाएँ नहीं बोलते है. वे हिंदी, अंग्रेजी आदि
बोलते हैं. वे देखते हैं कि जो शासन करते हैं, जो देश और समाज को चलाते हैं, जो हर
जगह बड़े पदों पर प्रतिष्ठित हैं, वे जनजाति समाज के नहीं, गैर जनजातीय समाज के
हैं. समय समय पर वे इन प्रतिष्ठित सम्मानित तथा संपन्न लोगों के मुह से अपनी
जनजातीय बोली भाषा, संस्कृति की निंदा भी सुनते हैं. सुनने से भी अधिक यह चीज वे
उनके व्यवहार से पाते हैं. बाहरी लोग आपस में वैसा व्यवहार करते हैं. उससे घटिया
दर्जे का व्यवहार वे आदिवासियों से करते हैं. रे इधर जाओ, उठो उधर जाओ और तुम ताम
कहकर वे आदिवासियों को संबोधित करते हैं. शहरों में, बसों में, ट्रेन में,
सार्वजनिक स्थानों में, मालिक के साथ मजदूर के रूप में और सबसे अधिक गाँव देहातों
में जनजाति समाज हर जगह अपने लिए ऐसा ही घटिया व्यवहार सहते हैं.
गाँव
देहातों में पहने जाने वाले पहनावा, उनकी रीति, रिवाज, संस्कृति, बोली भाषा में
कभी भी कहीं भी दरिद्रता नहीं झलकती, किन्तु शहरी और समृद्ध लोगों के द्वारा ये सब
देखकर यह मानसिकता बना चुके हैं कि देहातियों में समझ नहीं होती तथा वे सभ्य नहीं
होते. उन्हें हिंदी अंग्रेजी नहीं आती, किन्तु वे धन्य हैं जिन्हें अपनी मातृभाषा
आती है. शिक्षितों की अपेक्षा वे भाषाई भिन्नता और शिक्षित नही होने से समझ में
कमजोर पाए जाते रहे हैं. यदि वे भी शिक्षित हो जाएँ तो उनमे भी हर तरह की समझ आ
जाती है. केवल शिक्षित न होकर उनकी नासमझी को देखकर उन्हें सभ्य लोग कई तरह से
प्रताड़ित करते हैं, उन्हें असभ्य समझते हैं. इन सबको बचपन से देखते देखते समाज के
युवक युवतियों के मन में स्वाभाविक रूप से यह विचार बन जाता है कि उनकी समुदाय और
समाज ऐसे ही है. उनकी हर चीज घटिया और निम्न हैं और उसमे सभ्य और श्रेष्ठ कुछ भी
नहीं हैं. इसलिए शिक्षित युवक युवतियों को अपनी भाषा, संस्कृति और रीति रिवाज पर
गर्व नहीं होता. उन्हें अपने जनजातीय होने पर शर्म आता है. उनमे अपनी सामुदाईक
पहचान के प्रति हीनता की भावना पनपती है. वे चाहते हैं कि वे जनजाति न रहकर कुछ और
हो जाएँ. कुछ ऐसा हो जाएँ जिससे बाहरी लोगों के मन में उनके प्रति सम्मान बढ़े.
चूंकि बाहरी लोग सिर्फ अपनी ही संस्कृति, अपनी ही रीति रिवाजों को और सिर्फ अपने
ही धर्म और सामाजिक मूल्यों को सम्माननीय मानते हैं, इसलिए उनके नजरों में
सम्माननीय बनने के लिए जनजातीय समाज के लोग अपनी संस्कृति, रीति रिवाज, बोली भाषा,
धर्म और अपनी सामाजिक मूल्य छोड़कर बाहरी लोगों की संस्कृति, रीति रिवाज, बोली
भाषा, धर्म और मूल्य अपनाते जा रहे हैं
.
वास्तव
में यह घटना जनजातीय जीवन मूल्यों का पराजय है, कहा जा सकता है. यह सही है कि
अपेक्षाकृत जनजातीय समुदाय में गरीबी है. उनकी अर्थ व्यवस्था पिछड़ी हुई है. उनकी
उत्पादकता कम है, क्योंकि उनकी जमीन बहुत उपजाऊ नहीं है. उनके पास सिंचाई के साधन
तथा उत्पादन के आधुनिक साधनों का अभाव है. यह सही है कि जनजातीय समाज की सामाजिक,
राजनीतिक और आर्थिक संस्थाएं सरल, स्थानीय तथा समजोर हैं. लेकिन यह सही नहीं है कि
उनकी संस्कृति विकृत व घटिया है. यह सही नहीं है कि उनके रीति रिवाज, बोली भाषाएँ,
धर्म तथा जीवन मूल्य निम्न कोटि के हैं. सच बात तो यह है कि जनजातीय समुदायों की
संस्कृति, उनके जीवन मूल्य तथा बहुत सी सामाजिक परम्पराएं कथित सभ्य बाहरी लोगों
की सांस्कृतिक मूल्यों और सामाजिक परम्पराओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ, प्राकृतिक और
मानवीय है. सच बात तो यह है कि जनजातियों की संस्कृति और सामाजिक जीवनमूल्य मानव
जाति की कल्पना के आदर्श मानव समाज से अधिक मेल खाते हैं. जबकि जनजातियों को असभ्य
और असंस्कृत कहने वाले भारत के हिन्दुओं, ईसाईयों और मुसलमानों का समाज जिसमे
निवेशिक सभ्यता के कृत्रिमता तथा मध्ययुगीन सामंती संस्कृति व पशुत्व संस्कृति के
घृणात्मक मूल्यों के नीचे दबकर मनुष्यता और व्यक्ति की गरिमा कराह रही है.
उदाहरण
के लिए देश और दुनिया का सभ्य हिंदू समाज दहेज़ जैसी दानवीय समस्या से पीड़ित है और
दहेज़ के लिए पत्नियों और दूसरों की बहन बेटियों को ज़िंदा जलाने और उनकी ह्त्या कर
देने की घटनाएं आम हो चुकी है. जबकि जनजातीय समाज में दहेज़ जैसी विकराल समस्या
नहीं है और दहेज़ के लिए किसी को जलाने या जान से मार देने की तो जनजातीय लोग कल्पना
भी नहीं करते. शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले हिंदू समाज में आज की परिस्थितियों
में देखा जाए तो विकृति के अलावा और कुछ नजर नहीं आता. जितने शिक्षित और सभ्य है
उतनी ही सामाजिक जीवन की गंदगी उनमे पनप रहा है. महिला पुरुष की आनुपातिक कमियाँ
भी सभ्य और शिक्षित हिन्दू समाज की देन है. वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था तथा उंच
नीच की बर्बर मानव विरोधी व्यवस्था पर खड़ा है. जाति और वर्ण के आधार पर मनुष्य के
प्रति घृणा भाव रखना, हिंदू समाज व्यवस्था और धर्म का अंग है. जबकि जनजातीय समाज
अपने समाज के सदाचार, आदरणीय, समानता की भावना पर आधारित है. हिंदू नैतिकता के मूल्य
अस्वस्थ और अस्वाभाविक हैं.
हिन्दू
समाज तरह तरह की यौन विकृतियों जैसे बलात्कार, समलैंगिकता आदि से ग्रस्त है. जबकि
जनजातीय समाज में बलात्कार जैसी घटना शायद ही कभी सुनने को मिलती है. जनजातियों
में विवाह और तलाक की व्यवस्था सरल और व्यक्ति की स्वतंत्रता, सम्मान तथा भौतिक
आवश्यकताओं के अधिक अनुरूप है. इसलिए उसमे नारी की स्वतंत्रता और पुरुष से उसकी
समानता तुलनात्मक रूप से अधिक है. जबकि हिंदू समाज में विवाह धार्मिक और जाति वर्ण
की रूढ़ियों से ग्रस्त है और तलाक का धार्मिक आधार पर विरोध है, जो नारी की
स्वतंत्रता और सम्मान को असंभव बना देता है. पति के निधन होने पर विधवा को
तिरस्कार कर जीवन के हासिये पर डाल देते हैं. बाल, विधवा या युवति मथुरा,
वृन्दावन, काशी और मंदिरों में भेज देते हैं, जहां वे युवा नारियां देवदासी के नाम
से जिन्दगी भर शारीरिक शोषण सहते रहते हैं. फादर पी.पोनेट ने मुंडा नायक, अपने लेख
में लिखा है- “आदिवासियों की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उनके
समाज में अनाथ बच्चे नहीं होते. गाँव में जिन बच्चों को देखने वाला कोई नहीं होता,
आदिवासी बहुत प्यार से उन बच्चों को अपने भर में रख लेते हैं और उन्हें अपने
बच्चों जैसा ही प्यार देते हैं. यह आदिवासी समाज की एक महान विशेषता है.”
जनजातियों
की संस्कृति और मूल्यों की ये सारी विशेषताएं ऐसी है, जो भविष्य के समाजवादी समाज
की संस्कृति की बाहरी लोगों द्वारा की गयी व्यख्या को स्वीकार कर रखा है और बाहरी
लोगों के द्रष्टिकोण और विचारधारा के आगे सिर झुका दिया है. यही जनजातियों की
संस्कृति पराजय है. गैर जनजातीय लोग इस भू-भाग में चोर, उच्चके, भिखमंगा, अपराधी
बनकर यहाँ पर अपना आशियाना बनाए हैं. जर-जोरू और जनजातियों के जल, जमीन को येन-केन
प्रकारेण लूटपाट कर दबंगता से कबजा किए या नहीं के बराबर दारू पिलाकर लूटे हैं. सहकारी
बैंकों के कर्ज में दो-तीन हजार के कर्ज को उनकी पचास साठ हजार की जमीन या घर द्वार
कुड़की कराए. ये ही परदेशी लोग.
इस
देश में सिर्फ जनजातियों ने ही सांस्कृतिक रूप में पराजित नहीं हुए हैं. भारत वर्ष
का हिन्दू समाज भी इसी प्रकार विदेशियों के सामने सांस्कृतिक रूप में पराजित हुआ
था. यह बात तब की है. जब अंग्रेज इस देश में आये थे. और यहाँ आकर उन्होंने
भारतियों के ऊपर अपना राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व जमाना
शुरू किया था. यूरोपीय लोग जाकर हिन्दू समाज की संस्कृति, धर्म तथा रीति रिवाजों
की निंदा कर रहे थे और उन्हें निम्न कोटि का साबित कर रहे थे. वास्तव में हर विजित
जाति यह साबित करने की कोशिश करती है कि उसकी संस्कृति, भाषा, साहित्य, धर्म तथा सामाजिक
मूल्य अधिक श्रेष्ठ हैं. हर विजेता जाति ने विजित जाति को बर्बर कहा है, असभ्य कहा
है, राक्षस कहा है. बंगाल में यूरोपियों ने कई स्कूल और कालेज खोले थे, यहाँ
भारतीय युवक यूरोपीय शिक्षा प्राप्त करते थे. इन शिक्षा संस्थानो में तथा ऐसे ही
अन्य बौधिक संस्थानों में तथा ऐसे ही अन्य बौद्धिक केन्द्रों में हिन्दू युवकों के
सामने हिन्दू धर्म, समाज, संस्कृति तथा रीति रिवाजों के पिछड़ेपन तथा घटियापन को
साबित किया जाता था और बताया जाता था कि हिन्दू समाज एक बर्बर और असभ्य समाज है,
जिसके पास कोई गर्व करने योग्य चीज नहीं है. इसका प्रभाव पड़ा था शिक्षित हिन्दू
युवकों के मन में. अपने समाज के प्रति हीनता की भावना भर उठी थी. शिक्षित युवक
पिछड़ा मानकर शर्माने लगे थे. बहुत तेजी से बंगाल में ईसाई धर्म फ़ैल रहा था. ये
बहुत गरीब लोग नहीं थे, जो आर्थिक सुविधाओं के लोभ में ईसाईयत को अपना रहे थे. ये
शिक्षित अभिजात्य और सम्पन्न घरों के लोग थे जो ईसाई धर्म को अपना रहे थे. उनके मन
में अपनी जातीय पहचान के प्रति अपने समाज और संस्कृति के प्रति हीनता की भावना आ
गयी थी और वे यूरोपियों के नजरों से सम्मनित बनना चाहते थे.
उन्होंने
यूरोपियों द्वारा अपने समाज संस्कृति की व्याख्या के आगे सिर झुका दिया था. इस तरह
से शिक्षित हिन्दू भी विदेशियों के सामने सांस्कृतिक रूप से पराजित हो रहे थे.
लेकिन यूरोपीय लोग हिंदुओं को सांस्कृतिक रूप से पूर्णरूप से पराजित नहीं कर सके.
हालांकि की यूरोपियों की आर्थिक, राजनितिक व्यवस्था तथा सभ्यता संस्कृति का
भारतवासियों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा और यह स्वाभाविक भी था. फिर भी यूरोपीय भारतीय
संस्कृति, धर्म और मूल्यों तथा रीति रिवाजों को पराजित नहीं कर सके, क्योंकि
हिंदुओं ने अपनी हो रही सांसकृतिक पराजय के खिलाफ संघर्ष किया और उस पराजय को उलट
डाला.
बंगाल
में राजाराम मोहन राय पहले व्यक्ति थे. जिन्होंने यूरोपीय धर्म, संस्कृति और
मूल्यों के विरूद्ध विचारधारात्मक संघर्ष चलाया और यह साबित कर दिखाया कि यद्यपि
हिन्दू समाज, संस्कृति, धर्म और रीति रिवाजों में बहुत सी त्रुटियाँ हैं, फिर भी यह
घटिया नहीं है. वह यूरोपीय संस्कृति, धर्म और रीति रिवाजों से कहीं अधिक श्रेष्ठ
है. राजाराम मोहनराय ने अख़बारों में तथा सभा समितियों में यूरोपीय विद्वानों से
बहस किये, वाद- विवाद किए हिन्दू संस्कृति और समाज पर उनके प्रहारों का खण्डन कर
दिखाया और हिन्दू लोगों में अपनी मैलिक पहचान के प्रति, अपने समाज और संस्कृति के
प्रति गौरव की भावना भरी.
जब
बंगाल में राजाराम मोहनराय विदेशियों की विचारधारा के खिलाफ संघर्ष कर हिन्दूओं को
मन में अपने समाज संस्कृति और धर्म के प्रति श्रेष्ठता और गौरव की भावना भर रहे
थे. उसी समय पंजाब, गुजरात और उत्तरप्रदेश में स्वामी दयानंद सरस्वती तथा महारास्ट्र
में रानाडे भी यूरोपीय संस्कृति और मूल्यों के खिलाफ विचाधारात्मक संघर्ष चलाकर
किसी तरह भारतीय संस्कृति और मूल्यों की प्रतिष्ठा कर रहे थे. पूरे भारतवर्ष में
यूरोपियों द्वारा भारतियों की संस्कृति, धर्म और मूल्यों को नीचा दिखाने के खिलाफ,
सांस्कृतिक पराजय के खिलाफ एक महान सांस्कृतिक आंदोलन उठ खड़ा हुआ, जिसका उद्देश्य
था भारतियों को अपना महान संस्कृति, महान मूल्यों और परंपराओं का बोध करना. उनके
मन में अपनी संस्कृति पहचान के प्रति गौरव और गर्व की भावना भरना १९वी शताब्दी के
इस महान सांस्कृतिक अन्दोलन को भारतीय समाज के पुनर्जागरण का आंदोलन भी कहा जाता
है.
इस
सांस्कृतिक आंदोलन को हिन्दू समाज के बौद्धिक नेताओं ने दो तरीकों से किया था- एक
ओर तो उन्होंने यूरोपीय लोगों द्वारा हिन्दू समाज, धर्म और संस्कृति के खिलाफ किये
जा रहे प्रहारों और निंदा का जमकर मुकाबला किया और बहस करके, विचारधारात्मक संघर्ष
चलाकर उनकी आलोचना का खण्डन किया तथा हिंदू समाज और संस्कृति के औचित्य तथा
श्रेष्ठता को स्थापित किया, लेकिन साथ ही साथ दूसरी ओर उन्होंने हिंदू समाज में
रूढ़िवाद और गलत धार्मिक, सामजिक प्रथाओं तथा अंधविश्वासों के खिलाफ संघर्ष चलाया
और हिंदू समाज में सुधार का आंदोलन भी खड़ा किया, ऐसा करना जरूरी था. क्योंकि
हिन्दू समाज के इन्हीं कमजोर पक्षों को आधार बनाकर यूरोपीय लोग हिंदू समाज पर अपने
हमले करते थे. इन कमजोर पक्षों को खत्म किये बिना यूरोपियों की आलोचना के आधार को
खत्म करना मुश्किल था.
हिंदू
समाज के कमजोर पक्षों को खत्म करने और समाज का सुधार करने के लिये इन सुधारकों ने
प्राचीन परंपराओं, शास्त्रों, धर्म तथा रीति रिवाजों का गहरा अध्ययन किया. बहुत सी
पुरानी चीजों की नये युग के अनुसार नई व्याख्या की और कुछ चीजों के लिये नये विधान
बनाये. बाल विवाह, बहु विवाह प्रथा तथा सती प्रथा इसी तरह खत्म किया गया तथा विधवा
विवाह और स्त्री शिक्षा को उचित ठराया गाया. वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा के
अन्यायपूर्ण तत्वों का विरोध करके मनुष्य मात्र के लिए समानता के आदर्श को सामने
रखा गया.
१९वी सदी के बिल्कुल अंत में स्वामी विवेकानंद
ने ६० वर्षों से चल रहे इस महान सांस्कृतिक आंदोलन को इसके उत्कर्ष तक पहुंचा
दिया. विवेकानंद ने न सिर्फ भारत वर्ष के अन्दर, बल्कि यूरोप और अमेरिका में भी
जाकर विचारधारात्मक संघर्ष के जरिये भारतीय संस्कृति और मूल्यों की श्रेष्ठता को
साबित कर दिखाया. इस तरह सांस्कृतिक आंदोलन ने एक हद तक अपने उद्देश्य को पूरा कर
लिया. भारतीयों के मन से अपनी संस्कृति और आपनी जातीय पहचान के प्रति हीनता की
भावना खत्म हो गयी और उसकी जगह भारतीय स्वाभिमान और गौरव की भावना ने ले लिया.
यह
बदली हुयी मानसिकता अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम का आधार बनी
है. सांस्कृतिक आंदोलन जिस जातीय स्वाभिमान और सांस्कृतिक गौरव की भावना को भारतीय
युवकों के हृदय में जगाया, उसी से प्रेरित होकर लाखों लाख युवक अपने देश को
अंग्रेजों के गुलामी से मुक्त करने के लिये राजनीतिक संघर्ष में कुद पड़े. अगर १९वी
सदी में यूरोप के सांस्कृतिक प्रमुख के खिलाफ भारतियों का महान सांस्कृतिक आंदोलन
न होता तो १९वी सदी में अंग्रेजों के खिलाफ भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी नहीं
होता.
अपनी
पहचान के प्रति गौरव की भावना के बिना पहचान को प्रतिष्ठित करने का आंदोलन कभी भी
सफल नहीं हो सकता. अगर लाखों लोग अपनी पहचान पर शर्माते हैं, शिक्षित समुदाय अपनी भाषा, संस्कृति, रीति रिवाज और धर्म को हीन
दृष्टि से देखतें हैं और अपने ऊपर शासन करने वाले अपने शोषकों को अपना आदर्श
समझतें हैं तो वे अपनी पह्चान के लिये, अपने अलग व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा के लिये
संघर्ष कैसे कर सकतें है ?
जनजातियों
की समस्या यह है कि उनमे ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो उनकी सांस्कृतिक पराजय के खिलाफ
संघर्ष को संघठित करे. जनजातियों में राजाराममोहन राय तो हुआ लेकिन कोई विवेकानंद
नहीं हुआ. कहने का मतलब यह है कि बिरसामुण्डा ही एक मात्र ऐसे आदिवासी नेता थे.
जिन्होंने जनजातियों की स्वाभिमान और आत्म गौरव को जगाने का प्रयास किया था. लेकिन
उनका कार्य अधूरा ही रह गया. उनके बाद ऐसा कोई व्यक्ति या संगठन नहीं हुआ जो बिरसा
के अधूरे कार्य को उसके उत्कर्ष तक ले जाता.
इसके
उलटे जनजातीय समाज शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही बहुत तेजी से बाहरी लोगों के
सामने अपनी सांस्कृतिक पराजय को स्वीकार करते जा रहे हैं. यही कारण है कि जनजातियों
की राजनीतिक मुक्ती के आंदोलन सांस्कृतिक मुक्ति के आंदोलन के आधार ही कमजोर हैं. क्योंकि
उनकी आवश्यक पृष्ठभूमि तथा समुदाय का स्वाभिमान और आत्म गौरव की भावना जो एक महान
सांस्कृतिक आंदोलन से ही पैदा हो सकती है, नहीं बन पायी है.
आज
भारतवर्ष के जनजातियों को जरूरत है एक सांस्कृतिक आंदोलन की. एक ऐसा सांस्कृतिक
आंदोलन जो एक ओर बाहरी लोगों द्वारा जनजातीय समाज, उनकी संस्कृति, सामाजिक मूल्यों
और रीति रिवाजों के खिलाफ किये जा रहे प्रहारों का मुहतोड़ जवाब दे और विचाधारात्मक
संघर्ष चलाकर जनजातीय समाज की संस्कृति, धर्म, मूल्य और रीति रिवाजों के औचित्य
तथा श्रेष्ठता को स्थापित करके जनजातियों के मन में सामुदायिक स्वाभीमान और आत्म
गौरव की भावना को जगाये. दूसरी ओर जनजातीय समाज के रूढ़िवादी, अंधविश्वासों तथा गलत
परंपराओं के खिलाफ संघर्ष करके, समाज सुधार का आंदोलन खड़ा करके समाज को स्वस्थ और सबल
बनाये ताकि लोग प्रगति कर सकें कि हम कौन हैं ? हमारी संस्कृति और समाज की महान
परंपराएं क्या है ? हमारी बुनियादी मूल्य क्या हैं ? हमारे समाज और संस्कृति में
अच्छा क्या है और बुरा क्यों है ? हमारी संस्कृति और समाज के
बुनियादी मूल्यों को बनाकर रखने का औचित्य और जरूरत क्यों ? हमारी संस्कृति और
समाज कैसे हिन्दूओं से श्रेष्ठ है ? ऐसे सारे प्रश्न आदिवासियों को उठाने होगें और
उनका समुचित उत्तर देना होगा. बहस, तर्क और उदाहरणों से अपनी मान्यताओं को स्थापित
करना होगा. निःसंदेह ऐसे सांस्कृतिक आंदोलन में भाषा का प्रश्न महत्वपूर्ण होगा.
क्योकि भाषा के प्रति प्रेम और गर्व के बिना किसी प्रकार का सांस्कृतिक आंदोलन नहीं
हो सकता. समाज और संस्कृति के प्रति हीन भावना को दूर करके जो जनजातियों ने अपनी
श्रेष्ठता, सामुदायिक स्वाभिमान और अपनी पहचान के प्रति गौरव की भावना भर दे. ऐसे
महान सांस्कृतिक आंदोलन की रुपरेखा और कार्यक्रम क्या हो, इस पर अलग से विस्तार
पूर्वक विचार करने की जरूरत है. लेकिन एक बात तय है कि एक व्यापक सांस्कृतिक
अंदोलन के बिना, आज तेजी से टूटते और बिखरते जा रहे जनजातीय समाज को टिकाकर रखने
और राजनीतीक रूप से उसकी अलग सत्ता को प्रतिष्ठित करने का अंदोलन सफल नहीं हो
सकता.
भारत सिंह (IPS)
यदि आदिवासी लोग विकसित होते तो उन्हे आदिवासी कहा ही नही जाता । सारा खेल फूट डालो की नीति का है भाई
जवाब देंहटाएंपूर्वाग्रह मेँ आलोचना की सीमा न लाँघिए क्योँकि अति सब के लिए हानिकारक होता है