शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

महिषासुर-एक महान उदार द्रविड़ शासक


मैसूर, कर्नाटक में स्थापित महिषासुर
की शिलाकृति
महिषासुर ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जो सहज ही अपनी ओर लोगों को खींच लेता है। उन्हीं के नाम पर मैसूर नाम पड़ा है। यद्यपि कि हिंदू मिथक उन्हें दैत्य के रूप में चित्रित करते हैं, चामुंड़ी द्वारा उनकी हत्या को जायज ठहराते हैं, लेकिन लोकगाथाएं इसके बिल्कुल भिन्न कहानी कहती हैं। यहां तक कि बी. आर. आंबेडकर और ज्योति राव फूले जैसे क्रांतिकारी चिन्तक भी महिषासुर को एक महान उदार द्रविडियन शासक के रूप में देखते हैं, जिसने लुटेरे-हत्यारे आर्यों (सुरों) से अपने लोगों की रक्षा की।

इतिहासकार विजय महेश कहते हैं कि माहीशब्द का अर्थ एक ऐसा व्यक्ति होता है, जो दुनिया में शांति कायम करे। अधिकांश देशो के राजाओं की तरह महिषासुर न केवल विद्वान और शक्तिशाली राजा थे, बल्कि उनके पास 177 बुद्धिमान सलाहकार थे। उनका राज्य प्राकृतिक संसाधनों से भरभूर था। उनके राज्य में होम या यज्ञ जैसे विध्वंसक धार्मिक अनुष्ठानों  के लिए कोई जगह नहीं थी। कोई भी अपने भोजन, आनंद या धार्मिक अनुष्ठान के लिए मनमाने तरीके से अंधाधुंध जानवरों को मार नहीं सकता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके राज्य में किसी को भी निकम्मे तरीके से जीवन काटने की इजाजत नहीं थी। उनके राज्य में मनमाने तरीके से कोई पेड़ नहीं काट सकता था। पेडों को काटने से रोकने के लिए उन्होंने बहुत सारे लोगों को नियुक्त कर रखा था।

विजय दावा करते हैं कि महिषासुर के लोग धातु की ढलाई की तकनीक के विशेषज्ञ थे। इसी तरह की राय एक अन्य इतिहासकार एम.एल. शेंदज प्रकट करती हैं, उनका कहना है कि इतिहासकार विंसेन्ट ए स्मिथ अपने इतिहास ग्रंथ में कहते हैं कि भारत में ताम्र-युग और प्राग ऐतिहासिक कांस्य युग में औजारों का प्रयोग होता था। महिषासुर के समय में  पूरे देश से लोग, उनके राज्य में हथियार खरीदने आते थे। ये हथियार बहुत उच्च गुणवत्ता की धातुओं से बने होते थे। *लोककथाओं के अनुसार महिषासुर विभिन्न वनस्पतियों और पेड़ों के औषधि गुणों को जानते थे और वे व्यक्तिगत तौर पर इसका इस्तेमाल अपने लोगों की स्वास्थ्य के लिए करते थे।

क्यों और कैसे इतने अच्छे और शानदार राजा को खलनायक बना दिया गया?इस संदर्भ में सबल्टर्न संस्कृति के लेखक और शोधकर्ता योगेश मास्टर कहते हैं कि इस बात को समझने के लिए सुरों और असुरों की संस्कृतियों के बीच के संघर्ष को समझना पडेगा। वे कहते हैं कि जैसा कि हर कोई जानता है कि असुरों के महिषा राज्य में बहुत भारी संख्या में भैंसे थीं। आर्यों की चामुंडी का संबंध उस संस्कृति से था, जिसका मूल धन गाएं थीं। जब इन दो संस्कृतियों में संघर्ष हुआ, तो महिषासुर की पराजय हुई और उनके लोगों को इस क्षेत्र से भगा दिया गया

कर्नाटक में न केवल महिषासुर का शासन था, बल्कि इस राज्य में अन्य अनेक असुर शासक भी थे। इसकी व्याख्या करते हुए विजय कहते हैं कि “1926 में मैसूर विश्वविद्यालय ने इंडियन इकोनामिक कांफ्रेंस के लिए एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, जिसमें कहा गया था कि कर्नाटक राज्य में असुर मुखिया लोगों के बहुत सारे गढ़ थे। उदाहरण के लिए गुहासुर अपनी राजधानी हरिहर पर राज्य करते थे। हिडिम्बासुर चित्रदुर्ग और उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन करते थे। बकासुर रामानगर के राजा थे। यह तो सबको पता है कि महिषासुर मैसूर के राजा थे। यह सारे तथ्य यह बताते हैं कि आर्यों के आगमन से पहले इस परे क्षेत्र पर देशज असुरों का राज था। आर्यों ने उनके राज्य पर कब्जा कर लिया

आंबेडकर ने भी ब्राह्मणवादी मिथकों के इस चित्रण का पुरजोर खण्डन किया है कि असुर दैत्य थे। आंबेडकर ने अपने एक निबंध में इस बात पर जोर देते हैं कि महाभारत और रामायण में असुरों को इस प्रकार चित्रित करना पूरी तरह गलत है कि वे मानव-समाज के सदस्य नहीं थे। असुर मानव समाज के ही सदस्य थेआंबेडकर ब्राह्मणों का इस बात के लिए उपहास उड़ाते हैं कि उन्होंने अपने देवताओं को दयनीय कायरों के एक समूह के रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि हिंदुओं के सारे मिथक यही बताते हैं कि असुरों की हत्या विष्णु या शिव द्वारा नहीं की गई है, बल्कि देवियों ने किया है। यदि दुर्गा (या कर्नाटक के संदर्भ में चामुंडी) ने महिषासुर की हत्या की, तो काली ने नरकासुर को मारा। जबकि शुंब और निशुंब असुर भाईयों की हत्या दुर्गा के हाथों हुई। वाणासुर को कन्याकुमारी ने मारा। एक अन्य असुर रक्तबीज की हत्या देवी शक्ति ने की। आंबेडकर तिरस्कार के साथ कहते हैं कि ऐसा लगता है कि भगवान लोग असुरों के हाथों से अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते थे, तो उन्होंने अपनी पत्नियों को, अपने आप को बचाने के लिए भेज दिया

आखिर क्या कारण था कि सुरों (देवताओं) ने हमेशा अपनी महिलाओं को असुरों राजाओं की हत्या करने के लिए भेजा।* इसके कारणों की व्याख्या करते हुए विजय बताते हैं कि देवता यह अच्छी तरह जानते थे कि असुर राजा कभी भी महिलाओं के खिलाफ अपने हथियार नहीं उठायेंगे। इनमें से अधिकांश महिलाओं ने असुर राजाओं की हत्या कपटपूर्ण तरीके से की है। अपने शर्म को छिपाने के लिए भगवानों की इन हत्यारी बीवियों के दस हाथों, अदभुत हथियारों इत्यादि की कहानी गढ़ी गई। नाटक-नौटंकी के लिए अच्छी, लेकिन अंसभव सी लगने वाली इन कहानियों, से हट कर हम इस सच्चाई को देख सकते हैं कि कैसे ब्राह्मणवादी वर्ग ने देशज लोगों के इतिहास को तोड़ा मरोड़ा। इतिहास को इस प्रकार तोड़ने मरोड़ने का उनका उद्देश्य अपने स्वार्थों की पूर्ति करना था।

केवल बंगाल या झारखण्ड में ही नहीं, बल्कि मैसूर के आस-पास भी कुछ ऐसे समुदाय रहते हैं, जो चामुंडी को उनके महान उदार राजा की हत्या के लिए दोषी ठहराते हैं। उनमें से कुछ दशहरे के दौरान महिषासुर की आत्मा के लिए प्रार्थना करते हैं।

पिछले दो वर्षों से असुर पूरे देश में आक्रोश का मुद्दा बन रहे हैं। यदि पश्चिम बंगाल के आदिवासी लोग असुर संस्कृति पर विचार-विमर्श के लिए विशाल बैठकें कर रहे हैं, तो देश के विभिन्न विश्विद्यालयों के कैम्पसों में असुर विषय-वस्तु के इर्द-गिर्द उत्सव आयोजित किए जा रहे हैं। बीते साल उस्मानिया विश्विद्यालय और काकाटिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने नरकासुर दिवसमनाया था। चूंकि जेएनयू के छात्रों के महिषासुर उत्सव को मानव संसाधन मंत्री (तत्कालीन) ने इतनी देशव्यापी लोकप्रियता प्रदान कर दी थी कि, मैं उसके विस्तार में नहीं जा रही हूँ।

महिषासुर और अन्य असुरों के प्रति लोगों के बढ़ते आकर्षण की क्या व्याख्या की जाएक्या केवल इतना कह करके पिंड छुडा लिया जाए कि, मिथक इतिहास नहीं होता, लोकगाथाएं भी हमारे अतीत का दस्तावेज नहीं हो सकती हैं। विजय इसकी सटीक व्याख्या करते हुए कहते हैं  कि मनुवादियों ने बहुजनों के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा। हमें इस इतिहास पर पड़े धूल-धक्कड़ को झाडंना पडेगा, पौराणिक झूठों का पर्दाफाश करना पड़ेगा और अपने लोगों तथा अपने बच्चों को सच्चाई बतानी पडेगी। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर चल कर हम अपने सच्चे इतिहास के दावेदार बन सकते हैं। महिषासुर और अन्य असुरों के प्रति लोगों का बढता आकर्षण बताता है कि वास्तव में यही काम हो रहा है।

(गौरी लंकेश ने यह रिपोर्ट मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी थी, जो वेब पोर्टल बैंगलोर मिरर में 29 फरवरी, 2016 को प्रकाशित हुई थी)
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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

बोली से भाषा बनी गोंडी

गोंडी अब तक बहुत सारी बोलियों का समुच्चय थी. बहुत सी बोलियाँ, जिन सभी को गोंडी कहते थे पर उनको बोलने वाले आपस में एक दूसरे को समझ नहीं पाते थे.

भारत में राज्यों का गठन भाषाई आधार पर हुआ था पर गोंडी भाषियों के साथ एक ऐतिहासिक अन्याय हुआ था, जब गोंडी बोलने वाले आदिवासी कम से कम 6 प्रदेशों में बंट गए.

इन सभी प्रदेशों की अपनी भाषा है, जिसने उस प्रदेश में बोले जाने वाली गोंडी पर प्रभाव डाला. वैसे भी हर भाषा  हर कुछ सौ किलोमीटर में थोड़ा रूप बदलती है पर इन विभिन्न राज्यों के कारण गोंडी के विभिन्न रूप जैसे तेलगु गोंडी, हिंदी गोंडी और मराठी गोंडी सामने आए. यद्यपि इन सभी को इसको बोलने वाले गोंडी कहकर की पुकारते रहे पर वे एक दूसरे को समझ नहीं पा रहे थे तो एक दूसरे से और दूर होते गए.

मध्य भारत में 1.2 करोड़ गोंड आदिवासी रहते हैं. मध्य भारत पिछले लगभग 40 सालों से एक सशस्त्र आंदोलन के परिणामों से जूझ रहा है. आज इस आंदोलन का जिसे हम माओवादी या नक्सल आंदोलन भी कहते हैं, एक बहुत बड़ा हिस्सा गोंड आदिवासियों से बना है.

जैसे भारत देश का अंग्रेजी नाम बाहर से आए लोगों ने दिया, वैसा ही गोंड स्वयं को कोया, कोयतूर आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं और उन सभी समूहों को हम सरलता के लिए भी आज गोंड ही कहते हैं.

माओवादी आंदोलन की प्रमुख भाषा गोंडी है. उसके लगभग सभी लड़ाके गोंडी भाषी हैं. उनमे से बहुतों को गोंडी के सिवाय और कोई अन्य भाषा नहीं आती. उनके सेक्रेटरी या संचालक यद्यपि अधिकतर तेलगु, हिंदी, ओड़िया या मराठी जैसी भाषाओं में भी बात कर लेते हैं.

पिछले हफ्ते के पहले गोंडी का एक संवाद माध्यम बनाया जाना संभव नहीं था, जिसे हर गोंडी भाषी समझ सके. उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में बेमन से ही सही प्राथमिक कक्षाओं के लिए गोंडी के कुछ पाठ्यपुस्तकें बनाई गई हैं पर उत्तर और दक्षिण बस्तर के लिए दो अलग अलग पाठ्यपुस्तकें बनाई  गई हैं.

गोंडी में अब तक किसी सरकारी आदेश का अनुवाद करना भी संभव नहीं था, जिसे हर गोंड समझ सके. जंगल के क़ानून का आज 12 साल बाद भी गोंडी में अनुवाद नहीं हुआ है, जबकि उस क़ानून का निर्माण गोंडी भाषी जैसे जंगल में रहने वाले आदिवासियों के लिए ही हुआ है.

पिछले 4 वर्षो से मध्य भारत के गोंड आदिवासी के कुछ दर्जन प्रतिनिधि हर कुछ महीने किसी न किसी जगह मिलते रहे हैं और पिछले हफ्ते उन्होंने अपना पहला मानक शब्दकोष तैयार किया है. आम तौर पर इस तरह के काम सरकार करती है.

यह संभवतः पहली बार हुआ है जब एक समुदाय ने साथ आकर अपना मानक शब्दकोष बनाया है और सरकार से भी उनको मदद मिली है. अब गोंडी में पत्रकारिता, एक जैसा शिक्षण और प्रशासन का काम किया जा सकेगा. अब उत्तर बस्तर के शिक्षक दक्षिण बस्तर भी जा सकेंगे जो अब तक नहीं हो पा रहा था.

पिछले हफ्ते दिल्ली के इंदिरा गांधी कला केंद्र में मध्य भारत के 7 प्रदेशों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक से 80 गोंड आदिवासी एक हफ्ते के लिए जुटे और उन्होंने 4 साल से चल रहे अपने काम को आखिरी रूप दिया.

इस बैठक में समापन समारोह में आंध्र के अर्का माणिक राव ने धाराप्रवाह गोंडी में भाषण दिया और मध्यप्रदेश के गुलजार सिंह मरकाम ने उसका तुरंत फुरंत हिंदी में अनुवाद कर दिया. इस प्रक्रिया की शुरुआत के पहले ये दोनों गोंडी भाषा एक दूसरे का समझ नहीं पाते थे.

गोंडी इलाकों में यदि अब मातृभाषा में शिक्षण शुरू होता है तो बहुत से गोंडी भाषी युवाओं को नौकरी मिलेगी और स्कूलों से ड्रॉप आउट की संख्या घटेगी. माओवादी आंदोलन के अधिकतर लड़ाके स्कूल ड्रॉप आउट हैं. वे स्कूल इसलिए पूरा नहीं कर पाए थे, क्योंकि उनका शिक्षक हिंदी, मराठी, ओड़िसा और तेलगु बोलता था और वे गोंडी समझते थे.

गोंडी के शिक्षक भर्ती करने के लिए हो सकता है कि शुरू में हमें योग्यता में छूट देनी पड़ेगी, क्योंकि आज गोंडी जानने वाले पढ़े लिखों की तादाद कम है. ये अधिकतर गोंडी भाषी इसलिए माओवादियों के साथ जुटे हैं, क्योंकि उनके जीवन की छोटी छोटी दिखने वाली समस्याएं हल नहीं होती, क्योंकि अक्सर अधिकारी और पत्रकार गोंडी नहीं समझता है.

कुछ तकनीकी कंपनियां अब मानक गोंडी का बोलता शब्दकोष और हिंदी से गोंडी और उलटा की मशीन विकसित करने की बात कर रहे हैं. अगर अब गोंडी भाषा में मोबाईल रेडियो जैसे प्रयोग होंगे जहां दूर रहने वाले गोंडी भाषी अपनी समस्याओं की बात कर सकेंगे तो मशीन ट्रांसलेशन के बाद अधिकारी भी उसे समझ सकेंगे.

गोंडी के भाषा बनने को सरकारी मुहर लगनी अभी बाकी है, जिसके लिए उसे भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना होगा. आशा है सरकार इस दिशा में जल्द कदम उठाकर एक ऐतिहासिक चूक को सही करने की दिशा में महत्वपूर्ण निर्णय लेगी.

इससे मध्य भारत में शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है.
                                                                                                              शुभ्रांशु  चौधरी
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सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

विकासवाद का मुखौटा

अपने संवैधानिक हक और अधिकारों के लिए
तीर धनुष तानते शांतिप्रिय आदिवासी
आज शहरों में विकास की रफ़्तार चरम की ओर हैं. विकास करने के लिए जल, जमीन, संसाधन और धन की आवश्यकता होती है. शहरों में धन प्रचुर है. लोग धन से धन पैदा करते हैं और धनवान बनते हैं. धन कमाने का तरीका चाहे अनैतिक हो या गलत. इससे धन कमाने वाले को कोई फर्क पड़ता नजर नहीं आता ! चोरी, डकैती, लूटमारी, झूट, फरेब से धन कमाने की ललक शहरी जमीन की सत्यता है. धन कमाने की लालसा में भाई, बहन, माता पिता, परिवार, समाज, संस्कृति, धर्म, सभ्यता, मानवता कोई मायना नहीं रखती है. धन कमाने, समृद्धि प्राप्त करने, एशोआराम का जीवन प्राप्त करने के लिए यहाँ लोग जमीन को आसमान और आसमान को जमीन कहते हैं ! कहा कही में ही अपने माता पिता, भाई बहन, परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और आमजनों का आसानी से क़त्ल कर देते हैं. इन शहरों में धन कमाने की गलाकाट प्रतियोगिता बनी हुई है. इसी प्रतियोगिता में शामिल होकर आधुनिक मानव समाज देश की प्रगति में भागीदार हो रहे हैं !!

सरकारें राज्य और देश की प्रशासन व्यवस्था संभाल रहे हैं तथा पुलिस और न्यायवादी संस्थाएं शान्ति, सुरक्षा और न्याय दिलाने में व्यस्त हैं. देश और राज्यों के प्रशासन में टांग खिचाई, संसद और विधान सभा में गाली गलौच, मारपीट, तोड़ फोड़ के होते हुए भी शान्ति, सुरक्षा और न्याय व्यवस्था कायम हैं. सरकार के मुखियाओं के भाषणों के माध्यम से विकास और जीवन की मूलभूत योजनाएं और सुविधाएं जन जन, गाँव गाँव तक पहुँच रही है, किन्तु वास्तविकता की पुष्टि तो गाँवों में जाकर ही की जा सकती है.

इस देश के प्रगतिशील शहरों से दूर कस्बों, अंचलों में विभिन्न वर्ग समूहों के मानव समाज निवास करते हैं. उसी तरह दूरस्थ मैदानी वनों, पर्वतों, पहाड़ों में इस देश के लगभग सम्पूर्ण आदिवासी समाज की जनसंख्या निवास करती है. उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक परिवेश सशक्त किन्तु, शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्ध पेयजल आदि मूलभूत सुविधाओं से दूर हैं तथा आर्थिक परिस्थितियां अत्यंत कमजोर होने के बावजूद भी धैर्य के साथ, संतोष, शान्तिपूर्ण एवं प्रकृति संगत जीवन यापन कर रहे हैं.

स्वतंत्रता के सत्तर साल बाद विकास की रफ़्तार शहरों से गांवों, कस्बों, जंगलों, पहाड़ों की ओर बढ़ रही है. सुकून मिलता है यह सुनकर और जानकर कि सरकार अपने विकास के मिशन को लेकर जन जन तक पहुंचने का प्रयास कर रही है तथा पूरा प्रशासन तंत्र योजना व कार्यों को लेकर सरकार के साथ कदमताल कर रही है.

अभावों में जीने वालों के मन में "मन की बात" सुनकर आशा जगी है. अब वे गाँव की गली, टूटते घर, खेत की बंधियों (मेंड़) को श्रमदान से ठीक करने की मानसिकता छोड़ चुके हैं. वे सुन चुके हैं कि अब मुफ्त में मुख्यमंत्री, प्रधानमन्त्री ग्राम सड़क योजना से सड़क बनने वाले हैं. मुख्यमंत्री, प्रधानमन्त्री आवास योजना से उनका पक्की घर बनने वाला है. मेंड़ बंधान योजना से उनके खेत का मेंड़ सुधरना है. नल जल योजना से झिरिया के गंदले पानी से मुक्ति मिलेगी. खाद्यान्न योजना से मिलने वाले एक दो रूपये किलो चांवल, गेहूँ, चना, तेल और नमक से उनका पेट भर जाएगा. जंगल पहाड़ों के काँटों, कंकर पत्थरों से बचने के लिए चरणपादुका, पहनने के लिए लुगड़ा, पोल्का, ओढ़ने बिछाने के लिए चादर, कम्बल, बरसात के लिए छतरी, पढने जाने वाले बच्चों के लिए साइकल, कापी, पुस्तक, बस्ता, मोबाईल, लेपटॉप आदि. खेती के लिए मरहा बैला जोड़ी, दूध के लिए खरटी टाली गाय, इन सबका पांच साल के पांच साल जुगाड़ होते रहेंगे. क्या इसी तरह जंगल के साथ साथ जीवन साधनों का जुगाड़ होते रहेगा और वे विकास की धारा में जुड़ते रहेंगे ?

इन भोले भाले लोगों की सोच एकदम सटीक और सीधा है. अटल विश्वासी हैं. बाहरी परिस्थितियों से जूझे नहीं. धैर्य और संतोष इनका सबसे बड़ा जीवन का अस्त्र शस्त्र रहा. जल, जंगल और जमीन इनके जीवन के पुरखौती साधन रहे. अपने पुरखों की गौरवपूर्ण प्रकृति संगत संस्कृति के साथ, जीवन का अंधियारा उजियारा तलासते, संवारते और अंत में अपने इन्ही धर्म धरा की मिट्टी में विलीन हो जाते हैं. 

शहरों से गांवों की ओर बढ़ता हुआ वर्तमान विकास रुपी सुनहरा दानव, आज उन्ही की छाती पर मूंग दल रहा है. इस विकासवादी स्वप्नों के चेहरे का स्वरुप देखकर उनके पैरों के नीचे का जमीन खिसकने लगा है. इस विकास रुपी चेहरे का स्वरुप इतना विकराल और जीवन विनाशक होगा, ऐसा उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था. आज पूरे देश में ही नहीं दुनिया के आधुनिक विकास रुपी चक्र की चक्की में इन भोले भाले लोगों का जीवन पिस रहा है. विकास के स्वप्नदृष्टा सरकारों से इस आदिम जीवन विनाशकारी चक्की को ऊर्जा मिल रही है. देश का विकास पथ उनके जीवन को रौंदते हुए आगे बढ़ रहा है. ज़माना और जमाने के लोग इस विकास के जीवन विनाशकारी स्वरुप को देखकर भी अनजान बन रहे हैं, तालियाँ बजा रहे हैं, खुश हैं ! अखबारों के काले, पीले, हरे, नीले रंगीन शब्द सरकार की दृष्टि और द्रष्टिकोण सिद्ध कर रहे हैं. ऐसी स्थितियों में हमारी अनपढ़, अल्पबुद्धि में भी अनेक सवाल उभरते हैं, कि इस मानव विनाशकारी विकास से मानव प्रजाति का ही दूसरा संपन्न वर्ग खुश क्यों है ? उनकी इस ख़ुशी का राज क्या है ? विकास के इस विनाशकारी तांडव को देखकर भी मौन क्यों हैं ?

इस देश में पढ़े लिखे, समाज शास्त्री, न्याय शास्त्री, संविधान की व्याख्या करने वाले बहुए हैं. अभी भी देश के आदिवासियों के लिए इन शास्त्रों के शब्द काले अक्षर भैंस बराबर हैं. इनके सामने कितना ही विकास का शास्त्रीय सुर से गायन किया जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता. संकल्प के लोहे पर दौड़ता विकास का एक्सप्रेस अपनी पटरी पर भैंसों की भीड़ देखकर रुकने वाला नहीं है. बिना ब्रेक वाला विकास का एक्सप्रेस रेल अंधी रफ्तार से ऊबड़ खाबड़ तबेलों की ओर बढ़ रही है. लोग हैं कि अपना उजड़ा हुआ तबेला भी छोड़ने को तैयार ही नहीं. कारण साफ़ है कि इन तबेलों में भी रूखी सूखी जिन्दगी के अरमान फल फूल रहे हैं. वही छिन जाएगा तो भटकती आत्मा बनके रह जाएंगे, जैसे आज तक देशी विकास के थपेड़े खाकर करोड़ों लोग. आत्माएं भटकते हैं, ऐसा हमने सूना है, किन्तु यहाँ तो ज़िंदा इंसान और लाशें दोनों भटक रहे हैं !!

क्यों भटक रहे हैं ? इसका समाधानकारक उत्तर तक पहुँचने के लिए आदिवासियों को अपने पुरखों के धरातल के इतिहास को झांकना जरूरी है. सामाजिक जीवन, स्वाभाव, संस्कृति, धर्म, जीवन दर्शन के आईने में भी झांकर देखना होगा. अपने पुरखों से मिला ज्ञान, गुलामी मानसिकता से हटकर, अपनी बुद्धि का विवेकपूर्ण स्तेमाल और तर्क करना होगा. स्वर्गवासियों के ग्रंथों की कथा से हटकर अपने धरातल की खोज करने का प्रयास करना होगा. तभी आदिवासी समाज इनके मीठे बोल के पीछे छिपे ऐतिहासिक कातिलाना रहस्यों को समझ पाने में समर्थ हो पाएंगे.

प्राचीन इतिहास में आर्यों और अनार्यों के बीच जितने भी संघर्ष हुए वे सब धन, धर्म और धरा पर अधिसत्ता के लिए ही थे. उनके वंशज अभी भी इनको प्राप्त करने के लिए शाम, दाम, दंड, भेद, छल और बल से किसी भी हद तक जा सकते हैं और जा ही रहे हैं. इतिहास गवाह है, यहाँ आर्यों का कोई जन, धन, धरती और धर्म नहीं था. इस धरा के माता बहनों से ही अपना वंश वृद्धि किए. प्राचीन काल से लेकर अब तक भी अनार्यों के प्रति आर्यों के मन की घृणा गई नहीं है. द्वेष और बदले की भावना अभी भी प्रबल है. वर्तमान में यदि अनार्यों के प्रति उनमें कोई बदलाव आया है तो केवल घृणा, लड़ाई और संघर्ष के तौर तरीकों पर. भगवान, धर्म और राजनीतिक मीठे बोल के पीछे छिपे कातीलाना चेहरे को पढना सीधे साधे लोगों की बस की बात नहीं होती है. आज धर्म और धन उनके पास है. धर्म की वृद्धि की लालसा अभी भी बनी हुई है. मंदिरों के भगवान और धर्म इनके सपनों के उड़ान भरने के माध्यम हैं. धन और धरती की लालसा उनके मन से कभी ख़त्म होने वाला नहीं है. आदिम जनों के जल, जंगल और जमीन में अकूत नैसर्गिक धन संपदा है. इसके लिए आज भी वे किसी भी हद तक जा सकते हैं और जा ही रहे हैं !!

वर्तमान परिवेश में विकासवाद का चेहरा वोट और नोट के राजनीतिक गठबंधन से धरातल पर उतरता है. इस विकासवाद के धरातल पर केवल उन्ही की वोट और नोट के सफ़ेद पोशी, परिवारवाद, समाजवाद, धर्मवाद और जातिवाद की पूरी श्रंखला खड़ी है. छल बल से भरे आदर सम्मान के दो मीठे बोल से प्रभावित अनार्यों के दो चार सिपाही, गिड़ते पड़ते दौड़ लगाकर, इन सफ़ेद नाकाब पाशों की श्रंखला में जाकर खड़े होने के लिए लालायित रहते हैं. उन्हें अनादर और अपमान के वही मीठे जहर पीने पड़ते हैं, जो उनके ऐतिहासिक पूर्वजों को पिलाया जाता रहा. इस ऐतिहासिक सामाजिक भेदभाव और असमानता को नजरअंदाज करना सबसे बड़ी भूल है. आज भी मूल जनों के जीवन की विकट परिस्थितियाँ सबके सामने है. यह विकट परिस्थितियाँ केवल और केवल उनकी ऐतिहासिक दुर्भावना का प्रतीक है. इस धरा के ही मूल जनों के प्रति सदियों से दुर्भावना का जहर भरने वाले नकली नाकाबपोश समाज के हत्यारों से सावधान रहकर, उस दुर्भावना के प्रति संघर्ष के लिए सामाजिक बल पैदा करने की जरूरत है. अपने आत्मसम्मान के प्रति समाज को जागृत करने की जरूरत है. आत्मसम्मान को बचाने के लिए उनकी श्रंखला में गिड़ते पड़ते, दौड़ लगाकर जाकर खड़े होने की आवश्यकता ही नहीं है.

देश और राज्यों के शासन में, सत्ता में, राजनीति में, धन में, धर्म में आर्यों का ही कब्ज़ा है. इसलिए प्रशासनिक संस्थाओं से निकलने वाले आधुनिक विकासवाद की हवा में भी आदिम जन विनाशक छल और बल का मीठा जहर घुला हुआ है. यह विकासवाद की नहीं विनाशवाद की हवा है. 

स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा आज तक नहीं देखा गया कि आदिम जनों के विकासोन्मुखी सामाजिक, सांस्कारिक सरोकारों के अनुरूप उनके विकास की नीतियाँ बनाकर संचालित किया गया हो. जिन्हें विकास की जरूरत है, उन्हें ही विनाश के गर्त पर पहुंचाया जा रहा है. विकास के नाम पर क्रियान्वित होने वाले इन जन विनाशक परिस्थितियों को देश के हर आदिवासी राज्यों में देखा जा सकता है. वर्तमान में इन आदिवासी राज्यों में विकास के नाम पर क्रियान्वित किए जाने वाले कार्यों के स्वरुप और जिनके लिए विकास की अवधारणा रची जा रही है, उन्ही के विरोध के स्वरुप को देखकर एक अज्ञानी से अज्ञानी व्यक्ति भी इन विकास योजनाओं के पीछे छिपे भयंकर विनाशकारी चेहरे को पहचान सकता है.

केंद्र की सत्ता से विकासवाद की हवा तेजी से चलती है. राज्यों तक पहुँचती है और राज्य की सरकारें विकास की आधार रचना उद्योग लगाने के लिए सहमती ज्ञापन (MOU) पर हस्ताक्षर करते हैं. प्रचार प्रसार होता है और क्षेत्र की पचान बनने लगती है कि यहाँ उद्योग लगने वाला है. यहाँ के लोगों की नौकरी लगने वाली है. लोगों के आय के साधन बढ़ेंगे तो क्षेत्र के लोगों का विकास होगा. क्षेत्र के लोग गुब्बारे सा फूल जाते हैं. एक अनपढ़ से अनपढ़ और मजदूरी करने वाला व्यक्ति भी सोचता है कि उसे नियमित मजदूरी मिल जाएगा, जिससे वे परिवार का भलीभांति गुजारा कर सकेंगे. इससे ज्यादा वह सोच नहीं पाता, किन्तु जब उद्योग की स्थापना की बारी आती है तो पता चलता है कि यह उद्योग जिनके विकास के लिए लगना है उन्ही के जीवन के आधार जमीन को ही छीन लेती है. जीवन का गुजारा, विकास का सपने देखने वाले लोग ही अपने जमीन से सदा के लिए विस्थापित कर दिए जाते  हैं. जमीन का सही मुवावजा भी नहीं मिल पाता है. लोग अपने ही जमीन और घर से बेघर होकर हमेशा हमेशा के लिए ठगे के ठगे रह जाते हैं. यह सरकारी और कारपोरेटिया परिवेश में आमजनों का लूट नहीं तो और क्या है ?

देश और राज्य सरकारों के द्वारा आदिवासियों के विकास के लिए पढ़ाए जाने वाले सिलेबस को समझने में देश के आदिवासी नाकाम रहे हैं. देश के आदिवासियों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास का सिलेबस संविधान में अंकित हैं. सरकारें अनुच्छेद 244(1) एवं (2) के तहत पांचवी एवं छटवी अनुसूची को लागू क्यों नहीं करना चाहती ? वर्तमान में 10 राज्यों अर्थात आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान और तेलंगाना पांचवी अनुसूची के राज्य हैं. इन्ही राज्यों में आदिवासियों के विकास की बदतर स्थिति है. उनको मिलने वाली संवैधानिक मूलभूत सुविधाएं जमीदोह पड़े हैं ! अशिक्षा, खराब पेयजल, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी आदि उनकी जिन्दगी निगलने आतुर है ! वहीँ विकास का दानव उनका जल, जंगल, जमीन निगल रहा है ! बचे खुचे नक्सलवाद के गरल गाल में समा रहे हैं. क्या ऐसे विकासवाद का विनाशकारी मुखौटा आदिवासी समाज के लिए ही पहन रखे हैं भारत के लोक नायक ?

आदिवादियों के हित में इन अनुसूचित राज्यों के एक भी राज्यपाल के द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों और गरिमा का उपयोग आज तक नहीं किया गया ! देश के अनुसूचित क्षेत्रों की ऐसी दुर्दशा के बाद भी महामहिम राज्यपालों की गरिमा को सम्मानपूर्वक चाटेंगे आदिवासी ? क्या सरकारें संविधान में दिए गए उनके अधिकारों से वंचित रखकर उनका विकास करना चाहती है ? क्या कारण है कि सरकारें उनको संवैधानिक हक़ और अधिकारों से परे रखकर उनके समक्ष अपना राजनैतिक मुखौटे में छिपे शैतानी दिल रखने का प्रयास करती है ?

राजनेताओं का एक चलन बना हुआ है. चुनाव जीतकर राजनेता पांच साल तक बेफिक्र, तनखा पाऊ, कमाऊ, ठाठ बाट, मार झोर, उठापटक, तोड़ फोड़, मुफ्त का भोजन, मुफ्त की गाडी, जनता के लिए पिछवाड़ा उघाड़ी की राजनीति चलती रहती है. अगला चुनाव सामने आता है, फिर नेताओं की तंद्रा टूटती है. गाँव गाँव जाकर वोटों की भीख मांगते फिरते है, अपने पाच शाल का एशोआराम एकत्रित करने के लिए ! फिर भोले भाले लोगों को अपने राजनीतिक चाल में फांसने के लिए उनके साथ नकली हमदर्दी बांटने का  कार्य किया जाता है. क्या उनकी टूटी-फूटी झोपडी में जाकर उनसे हाथ मिलाना, उनके टूटे खाट में बैठना, उनके हाथ से बने चाय पीना, उनके रूखे-सूखे भोजन चखना, तेंदू, चार, भेलवा खाना, उनके साथ नाच-गान करना, ही आत्मीयता और विकास की सीढ़ी है ? क्या अब ऐसे आत्मीय सम्मान भी आदिवासियों को सरकार और उनके नुमाइंदों से सीखने की जरूरत है ? यदि नहीं तो उन अनपढ़, भोले भाले लोगों के बीच जाकर सरकारों और सरकारी नुमाइंदों का इस तरह से झूठी आत्मीयता दिखाने का नाटक क्यों ??

रविवार, 4 फ़रवरी 2018

कोया पुनेम, गोंडी गण व्यवस्था, प्रजातंत्र के कुछ प्रमुख शब्द

कोया- गुफा, खोह, गर्भ, महुआ का फूल, आधार, मूल बीज.

पुनेम- यह दो अक्षरों से मिलकर बना है- पुय याने सत्य, प्रकृति, सृष्टि (पुकराल). नेम याने मार्ग, रास्ता, पथ, जीवन पथ. इस तरह पुनेम अर्थात सत्य का मार्ग, सत्य का रास्ता, सतमार्ग, जीवन मार्ग, सतपथ. सत्य के मार्ग पर चलना, प्रकृति दर्शन को ग्रहण करना, सत्य के पथ पर चलना, प्राकृतिक गुणों का अनुसरण करना, सत्य को जीवन में उतारना. सत्य, प्रकृति संतुलन के गुणों को धारण कर जीवन यापन करना. 

पुनेमी- प्राकृतिक, सत्य को धारण कर चलने वाले लोग, सतमार्गी लोग, सत पथिक, प्रकृति के वाहक, प्रकृति के ज्ञान से प्रकाशित लोग, सृष्टि संतुलन के जनक, पारिस्थिति तंत्र (इकोसिस्टम) के पालन करता, धारक, प्रकृति संरक्षक वंश. प्रकृति, सृष्टि संतुलन के सत्य गुणों को धारण कर जीवन यापन करने वाले लोग, वंश. 

तूर- उत्पत्तित, भ्रूण, जीव, संतान, वंश, लोग.

कोयतूर- आधार वंश, मूल वंश, गर्भ से उत्पत्तित, मूल बीज.

कोया पुनेम- आधार सत्य मार्ग या सत्य मार्ग का आधार, आधारिक जीवन.

संय्युंग- पांच की सख्या.

गण्ड या गंड- लोगों का समूह, गण, जन, प्रजा, लोक.

गोंड- गो + अण्ड = गोंड या गोण्ड.  गो अर्थात गोंगो- विवेक, ज्ञान, धरती, शक्ति, प्रज्ञ. अण्ड अर्थात जीव, संतान. गोंड या गोण्ड अर्थात विवेकी जीव, धरती जीव, प्रज्ञ जीव, शक्ति युक्त, मानव, मनुष्य का पर्याय.

लेंग- बोली, भाषा.


नार- ग्राम, गाँव, कस्बा.

कोट- राज्य इकाई, राज्य का छोटा भाग.

शंभू- संय्युंग + भू =शंभू. संय्युग याने पांच, भू याने धरती, धरती का भाग, खंड. 

शेक- मालिक, राजा, प्रशासक.

शंभूशेक- पांच खंड धरती के मालिक, पांच खण्डों वाली धरती के राजा, पांच खण्डों वाली धरती के अधिपति, पांच खण्डों वाली धरती 'गोंडवाना' के प्रशासक.

गोटूल- गो + टूल =गोटूल. गो अर्थात गोंगो याने शक्ति, प्रकाश, ज्ञान, विवेक. टूल याने स्थान, केंद्र, ठीया, घर. अर्थात ज्ञान का स्थान, ज्ञान प्राप्ति केंद्र, ज्ञान शक्ति स्थल, ज्ञान प्रकाश स्थल, ज्ञान का ठीया, ज्ञान का घर.

पारी- व्यवस्था, रीति, नीति.

कुपार- मष्तिष्क, दिमाग, कपार, मस्तक.

लिंगो- ज्ञानी, ज्ञानवान, ज्ञान का भण्डार, सर्वोच्च, निराकार, शून्य.

पारी कुपार लिंगो- व्यवस्था में दिमाग लगाने वाला ज्ञानी. कोया पुनेम/ गोंडी पुनेम के अद्वितीय प्रणेता. कोया जीवन पद्धिति के निर्धारक. मानव जीवन संस्कार पद्धति के जनक. (1)

पुकराल- सृष्टि, प्रकृति, निसर्ग.


अंडोद्वीप- अंगारा लैंड, धरती का  उत्तरी भाग, प्राचीन 4 द्वीपों का समुह भू भाग.


गंडोद्वीप- गोंडवाना लैंड, धरती का दक्षिणी भाग, प्राचीन 5 द्वीपों का समुह भू भाग.
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          ऊपर लिखे गोंडी शब्द आदिम जनों के कोया पुनेम, गोंडी गण व्यवस्था, प्रजातंत्र के मूल आधार हैं. गोंडवाना की धरा पर विकसित "गोंड" नाम का विशाल आदिम सामाज रुपी पेड़, आधुनिक धरा पर उगे हुए किसी अन्य प्रजातीय समाज रुपी वृक्ष से कहीं अधिक आध्यात्मिक, वैचारिक, समता, समानता, बंधुत्व, भाईचारा के गुणों से संपन्न है. गोंडों की जितनी सामुदायिक शाखाएं हैं, उतनी उनकी भाषाएं. उनकी पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक रीति-नीति के अनुरूप जीवन संतुलन के आधार उनकी अपनी सामुदायिक भाषाओं में नीहित हैं तथा उसी आधार पर अभिव्यक्त होते हैं. इन आदिम प्राकृतिक भाषाओं की विविधता में एकता को समझ पाना किसी समाज शास्त्री, भाषाशास्त्री के लिए अत्यंत कठिन है. इन्ही कठिनाइयों के चलते आधुनिक समाज के बुद्धीजीवी साहित्यकार आदिवासियों के भाषाई तथ्यगत विचारों को मूलतः समझने और प्रस्तुत करने में हमेशा असमर्थ रहे.

         इसी के प्रतीक स्वरुप कई अंग्रेजी साहित्यकारों ने आदिम जीवन दर्शन को अज्ञानतावश उसके मूल दर्शन व सैद्धांतिक पक्ष को प्रस्तुत करने में लगभग असफल रहे. इस असफलता के कारण आदिम जनों के साहित्य में अधिकतर चारित्रिक व रूढ़िवादिता के विकृत अध्यायों के अभिलिखित स्वरूप प्रदर्शित हुआ. इस तरह आधुनिक जन मानस के बुद्धि और दृष्टि में आदिम जन हीनता के शिकार होते चले गए.


          इस दशा और दिशा के शिकार लोगों पर आज भी प्रबल दावेदारी होती है कि आदिम जन अपनी रूढ़िवादिता के शिकार होकर वह देश की मुख्य धारा से स्वतः दूर होता जा रहा है ! आधुनिता के प्रतियोगी दौड़ में धरातल से शिखर तक डूबे जन मानस के लिए यह समझना कठिन ही नहीं असंभव है, कि जिस बाबा साहब ने संविधान में समता, समानता, बंधुता, भाईचारा, एकता का उल्लेख किया है, वह आदिम मूल जनों के तन, मन और बुद्धि में जन्म जन्मांतर से रेखांकित है. बाबा साहब ने इन्हें भविष्य को देखते हुए शब्दों में पिरोया. संविधान में इन शब्दों से आदिम जनों को नहीं, बल्कि देश के ऐतिहासिक भविष्य को स्वर्ग की सत्ता में स्थापित करने वालों की स्वप्न तन्द्रीय जड़ता को प्रकृति के साथ विलीन करने के लिए संबोधन किया.


          भारत वर्ष ही नहीं दुनिया में विकास के स्वप्नदृष्टाओं ने आदिम जनों तथा उनके सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन पद्धति को रूढ़िवादी, अंधविश्वासी, गरीबी, लाचरी और पशुता के घ्रणित चरित्र के आईने में ही देखा, दुत्कारा ! दुत्कारा ही नहीं बल्कि उनके मूल प्रकृति दार्शनिक परिवेश में स्वर्ग-नरक, पाप-पुन्य, चमत्कार की परिगाथा थोपने के साथ ही आधुनिक विकास के लिए बलि का बकरा बनाते आया. न्यूनतम निर्वाह की भूमि, प्यास के लिए जल, भोजन के लिए जंगल और नंगा बदन होते हुए भी काफिरों द्वारा जीवन जिर्वाही साधन ही उनसे छीनते गए, फिर भी समाज है कि बिना कोई प्रतिक्रया के जंगलों के अंधेरे में गुमनामी जीवन जीते रहे. मूल वंश में आज भी उनके जीवन निर्वाह की पद्धति, आध्यात्म और सांस्कृतिक जीवन दर्शन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है. 


          अब समाज में धीरे-धीरे जागृति का संदेश प्रसारण हो रहा है. अनेक स्वभाषी साहित्यकार सामाजिक रीति-नीति, संस्कृति, आध्यात्म, दर्शन पर योग्य साहित्यों की रचना कर रहे हैं, जिसमे आदिम सामाजिक पारदर्शी संरचना को भली भांति प्रस्तुत किया जा रहा है. इनमे कई अति उत्साही भी हैं !  गोंडी आरती, महा आरती, गोंडी रामायण, गोंडी महापुराण, गोंडी गीता आदि की रचना भी कर चुके हैं !  उत्साहपूर्ण साहित्य लिखने का यह अत्यंत संवेदनशील और संक्रमण का दौर प्रतीत हो रहा है.

संदर्भ : (1) डॉ. नारवेन कासव टेकाम के शब्द विलेख

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

राजनीतिक मंच और नेताओं के स्वागत आदि के लिए नाचना बन्द करे जनजातीय समाज

राजनीतिक मंचों और नेताओं के स्वागत में देश के जनजातीय समाज अपने नृत्यकला का प्रदर्शन बन्द करे! राजनीति के लालची लोग समाज को मनोरंजनस्वागत के साधन और नचकार बना लिए हैं ! वैसे भी नेता देश के आदिम समाज के लोगों को इंसान और अपने पैर का धूल भी नहीं समझते !

जनजातीय सांस्कृतिक दलों के मुखिया लोगों को रतिभर लाभ और नेताओं की खुशी की चिंता है ! हमें पता है एक अधमरा सा पार्टी का नेता किसी शहर में पहुंचने की खबर क्या मिलती है, समाज के छुटभैये उनके स्वागत और मनोरंजन के लिए नृतक दलों का पिछवाड़ा पोंछने लगते है ! बखत परै बाक़ा त गधा ला कहै काका !!

समाज की प्राचीन गोंगो विधि, पुरखों की नृत्य कला उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक अमानत है। थोड़े से रुपये पैसे, लुगड़ा, पोल्का, टिकली, बिंदिया, चूरी, खिनवा, झुमका, फुँदरा के लालच में समाज के नृतक दल दौड़े चले जाते हैं ! समाज के पुरखों ने भूखे रहकर भी इस अमानत को अपनी जान से भी ज्यादा सुरक्षित रखा, तब आज इस पीढ़ी को अमानत के तौर पर प्राप्त हुआ है ! वे हैं कि गली गली, मंच मंच नेताओं के सामने अपनी सामाजिक गोंगो विधि, पुरखौती सांस्कृतिक, धार्मिक कला, अमानत का इज्जत उघाड़ने में लगे हैं !!

आधुनिक समाज के जिन सभ्य और सुंदर चेहरों ने अपने नंगा बदन दिखाकर व हाथ पैर झड़ाकर जिस कमाऊ, नोटदार संस्कृति और कला का विकास किया है, नेताओं और उनके दलालों में कूवत है तो उन्हें अपने भारी और सरकारी जेब दिखाकर हर बार, हर मंच में खुद के स्वागत करवाने के लिए बुलवा लें !!

आदिम जनजातीय पुरखों ने अपनी गोंगो विधि, धार्मिक व सांस्कृतिक कला को कभी नहीं बेचा ! इसे गोंगो (पूजा) का माध्यम बनाया। परन्तु आज उनकी संतानो के हाथों उनकी अमानत, पार्टी नेताओं के स्वागत और शौकीन बाजार में बिक रही है ! इसके प्रमुख दलाल समाज के ही पार्टिवाईरस ग्रसित, चापलूसरोगी छुटभैये नेता हैं !!

देश की राजनीति और आधुनिक समाज "आदिम जनजातियों की निजसंस्कृति" को विदेशियों के सामने सम्पूर्ण देश का सामाजिक, सांस्कृतिक आईना बनाकर सम्मानपूर्वक प्रस्तुत करता है ! अपने शानदार बंगलों में उनकी कला संस्कृति का सुंदर मनोहारी चित्र टंगवाते हैं, यह बताने के लिए कि यही हमारी और हमारे देश की महान संस्कृति है ! वहीं उनकी ही धरा पर, संस्कृति के मालिकों को राजनीति के ताकत का नंगा पिछवाड़ा दिखाकर अपमान करता है ! देश की राजनीति उन गरीबों की जल, जंगल, जमीन और संवैधानिक अधिकार बलपूर्वक छीनकर अपने सहयोगी कारपोरेट लुटेरों को मुफ्त में बाटता है ! नक्सलवादी कहता है, गोली मरवाता है, उनकी बहू बेटियों का बलात्कार करवाता है, घर जलवाता है ! वहीं समाज के कुछ अधकचरे लोगों में इस राजनीतिक नंगाई के सामने अपने समाज के बेटे, बहु, बेटियों को नचवाने का भूत सवार रहता है !!