मंगलवार, 23 अगस्त 2016

आस्था, सुख शान्ति और विकास का यह कैसा बयार !!

क्या यही है आजादी के 70 सालों से बह रही सरकार की विकास रूपी "आस्था" का गंगा ! यह लाल किले से नहीं गाँव के धरातल से दिखेगा | इसके लिए जो भी सरकार के जिम्मेदार हाथ, पाँव और आँखें हैं, वे केवल कोष लुटेरे हैं |

आधुनिक मनुष्य आस्था के मायने बदल रहा है आस्था अब उत्सव में परिवर्तित हो रहा है आस्था की सांसें अब धीरे धीरे उखड़ने लगी है | आस्था, उत्सव रुपी भीड़ में तब्दील हो रही है | इस उत्सव रुपी भीड़ की तलाश को क्या नाम दें आस्था” ?

आदिवासियों में आस्था की अलग ही परिभाषा रही है | वे कभी आस्था को उत्सव का नाम नहीं देते | आस्था उनके जीवन की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है | नए जीवन की उत्पत्ति, उत्पत्तिकर्ता से जुड़ा हुआ है | उत्पत्तिकर्ता उनकी आस्था का स्वरुप है | समस्त जीव-निर्जीव, ठोस-द्रव्य सृष्टि के जीवानदायिनी पंचतत्वों (मिट्टी, जल, वायु, अग्नी, आकाश) के संयोग से ही उत्पन्न हुए हैं | सभी जीव-निर्जीव, ठोस-द्रव्य का अस्तित्व इन्ही पंचतत्वों पर निर्भर है प्राणवायु का संचार, शारीरिक स्वास्थ्य, भोजन, ज्ञान, जीवन दर्शन सृष्टि पर ही आश्रित हैं | उनका सृष्टि दर्शन ही उनकी आस्था है उनके जीवन की समस्त आवश्यकताएं और पूर्ति के साधन इस जगत में प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हैं | प्रकृति ही जीवन है | जीवन है तो आस्था है | जीवन के बगैर आस्था का कोई स्वरुप नहीं है | हम जीवन को प्रकृति में सहेजकर "आस्था" को स्वर्गवासी देवी देवताओं के ऊपर नहीं टांग सकते |  यह प्रकृति और मानवता के खिलाफ है | सभी प्रकार के ज्ञान और प्रतिभा प्राप्त करने के साधन और विनाशकारी साधन भी सृष्टि के कोष में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं | फिर आस्था जैसी चीज सृष्टि के कोष से अलग होकर "स्वर्ग" में कैसे स्थापित हो सकती है ?

आदिवासियों के लिए सृष्टि के सभी स्वरुप (पञ्च तत्व) आस्था के प्रतीक प्रथम पूज्य हैं | इनकी पूजा के लिए उन्हें किसी विशिष्ठ स्थान, वस्तु या स्वरूप गढ़ने की आवश्यकता नहीं होती | वे मानते हैं की सृष्टि का स्वरुप अनंत एवं चिरायु है | उसे किसी भी स्वरुप में गढ़ा नहीं जा सकता | वह मानता है की प्रकृति की जीवनदायिनी ईश्वरीय गुण उसके समीप और सारे संसार में व्याप्त हैं | उन्हें किसी विशेष स्थान या स्वरुप में ढूंढना व्यर्थ है | इसलिए आदिवासियों का पूजा स्थान कोई विशेष तरह का स्थान नहीं होता | घर के किसी छोटे से कमरे में या घर के बाहर पृथक छोटी सी झोपड़ीनुमा मकान उनका पूजा स्थान होता है | पूजा स्थान छुई (सफ़ेद मिट्टी) से पुता हुआ होता है या छुई से पुता हुआ छोटा सा चबूतरा | पूजा स्थान पर किसी विशेष मानव स्वरुप की मूर्ती नहीं रखी जाती | जो स्वयं खाद्य रूप में ग्रहण करता है वही वस्तुएं, जीवनदायिनी और जन्म देने वाले गुणियों (पुरखों/पूर्वजों) को अर्पित करता है | इसके अलावा उनके जीवन के कार्यों में विशेष स्थान रखने वाले औजार, पशु, अस्त्र शस्त्र की पूजा विशेष मौसम एवं कार्य आधारित त्योहारों में की जाती है |

आदिवासियों को जंगली जानवरों, सरीसर्पों का कदाचित डर नहीं होता | केवल सृष्टि के प्रकोप का डर ज्यादा होता है | प्राकृतिक प्रकोप उनके लिए प्रकृति स्वरूपा बड़ादेव, ईश्वर का प्रकोप होता है | इसलिए ग्राम बसाने के पूर्व ग्राम की दिशा, वनों की दिशा और दशा, वायु की बहने की दिशा, कृषि भूमि, चारागाह, भूजल का पारीक्षण कर ग्राम बसाया जाता था | ग्राम के अन्दर और बाहर प्राकृतिक रूप से विकसित किसी पेड़, चटान, पत्थर, नदी, तालाब आदि का चिन्हांकन कर ग्राम रक्षक, प्रकृति संरक्षक देवी देवताओं की स्थापना की जाती थी | आज भी ग्राम समूह के द्वारा किसी विशेष मानवीय स्वरुप की किन्ही देवी देवताओं की पूजा नहीं की जाती है | प्रति वर्ष ग्राम रक्षक देवी देवताओं के रूप में उन्ही की पूजा कर जीवन में आने वाले प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए प्रार्थना की जाती है | अब आधुनिक इंसान से सबसे ज्यादा ख़तरा है | आधुनिक मानव समाज में अब यह प्राकृतिक आस्था रूपी भावना ख़त्म होकर "धन लक्ष्मी" पर आस्था केन्द्रित हो गई है |

आदिवासी अपने किसी भी विधान से सृष्टि को क्षति पहुंचाना नहीं चाहता, क्योंकि वह सृष्टि को ईश्वर मानता है | वह जानता है कि सृष्टि के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है | जीवन के लिए सृष्टि से जो साधन हमें मिले हैं, वो सभी के लिए समान है | वह लकड़ी के आवश्यक औजारों की पूर्ती के लिए किसी पेड़ को काटने के पहले उसकी पूजा करता है और कामना करता है कि धरती माता इसकी पूर्ती करे और उसका कार्य सफल हो | किसी कार्य के लिए मिट्टी खोदने के पूर्व उस मिट्टी की पूजा की जाती है कि उसके कार्य से उसकी मनोकामना पूर्ण हो | किसी कार्य के लिए पत्थर को उठाने से पहले उसकी पूजा की जाती है, कि पत्थर के द्वारा किये जाने वाले निर्माण कार्य में उसे सफलता मिले | किसी कार्य के लिए पौधे को उखाड़ने से पहले उसकी पूजा की जाती है, कि उसके औषधीय गुण रोगी को शीघ्र लाभ दिलाए | प्रकृति के किसी भी उपयोगी सामग्री को जन उपयोग हेतु ले जाने से पहले प्रकृति, धरती, वन, जल, थल, नभ, वायु, अग्नि आदि जिससे सम्बंधित हो, की सुमरन कर अवगत कराता है कि ...... के लिए आवश्यकता है | वस्तु को ले जाने बाबत प्रकृति से अनुमति लेता है, उसकी शीघ्र पूर्ती के लिए प्रकृति शक्तियों सी प्रार्थना करता है और उपयोग के लिए ले जाता है | आदिम जनों द्वारा अपनाई जानी वाली यह प्रक्रिया प्रकृति के प्रति समर्पित आस्था का प्रतीक है | जिस प्रकृति सी उन्हें भोजन, जीने के साधन, जीवन और सुरक्षा मिलता है, वही उनके लिए ईश्वर है |

आधुनिक मानव समुदाय ज्ञान, प्रतिभा के साथ साथ आस्था और ईश्वर के अनेक विकल्प विकसित कर लिए हैं | देश में आस्था प्रकट करने की होड़ मची है | मंदिर, मश्जिद, चर्च, गुरुद्वारे में क्या आस्था प्रकट करने की जगह कम पड़ गई है, जो कि अब गली, कूचे, चौराहों में भी छः छः सात सात दिनों तक बाजे गाजे ढोल ढमाके के साथ फूट फूट कर आस्थावानों की आस्था प्रकट होती है ? यह किसी की आस्था पर सवाल नहीं है, किन्तु आस्था प्रकट करने वालों के तौर तरीकों पर एक सवाल है | हर परिवार के घर में मंदिर के स्वरुप में ईश्वर की पूजा का स्थान है | घर के बाहर शहर के विभिन्न गलियों, चौराहों में विभिन्न आस्था के मंदिर हैं | देश में पहले से ही धर्म आधारित आस्था प्रकट करने के लिए अनेक स्थाई भव्य मंदिर, मश्जिद, चर्च और गुरुद्वारे बन चुके हैं | अभी भी अनेक पहाड़ों, जंगलों को उजाड़कर मंदिर बनवाने का क्रम जारी है | दूसरी ओर जितनी मानवीय धर्म और आस्था का प्रचार प्रसार बढ़ रहा है, उतनी ही अमानवीयता बढ़ रही है | मानव पर मानव की क्रूरता बढ़ रही है | मानव का मानव पर अत्याचार बढ़ रहा है | मानव का मानव पर अनेक जुल्म और लूटमार बढ़ रहा है धर्म ज्ञानीसाधू संत, महात्माप्रवचन वाचकों का पूरा कुनबा, इन सबको रोकने के लिए दिशा निर्धारित कर मार्गदर्शन करने का कार्य कर रहे हैं |

धर्म ज्ञानी, साधू महात्मा, प्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ को त्यागकर ईश्वर के प्रति आस्था की सलाह देते हैं | क्या इन्होने अपने जीवन में इन सब का त्याग किया है ? क्या इन्हें ईश्वर के प्रति आस्था है ? इस देश के धर्म ज्ञानी, साधू महात्मा, प्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ से कितने परे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है | मानवीय धर्म और आस्था का पाठ पढ़ाने वाले ही लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ एवं अमानवीयता के दलदल में आकंठ डूबे हुए हैं | आस्था के नाम पर दान दक्षिणा लेकर भव्य मंदिर, मठ इनके पनाहगाह हैं | बड़े बड़े दानवीर, जो कभी किसी मरते हुए को चुल्लू भर पानी तक नहीं पिला सकने वाले लोग इन मंदिरों में सोना चांदी रुपया पैसा चढ़कर अपने स्वार्थ का आशीर्वाद खरीदते हैं | इस तरह अब आस्था का मंदिर धन देने और लेने की प्रतियोगिता में परिवर्तित हो गई है धर्म ज्ञानीसाधू संत, महात्माप्रवचन वाचक लोभ, मोह, लालच, स्वार्थ पूर्ती हेतु प्रतियोगी बन गए हैं | शिक्षित, विभिन्न पदों से सुसज्जित इन महाप्रभुओं को, दुनिया को धर्म का ज्ञान बांटने से पहले जंगलों में रहने वाले आदिवासियों से सीख लेनी चाहिए |

हर मनुष्य बुद्धिमान हैं | प्रकृति से किसी को ज्यादा या किसी को कम बुद्धि नहीं मिलती | प्रकृति किसी के साथ भेदभाव नहीं करती, किन्तु विकसित बुद्धि व ज्ञान में भेदभाव का बीज पनपने लगता है | ज्ञानवान हमेशा प्रयोगवादी होता है | अपने ज्ञान का प्रयोग स्वार्थपूरित आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए करने लगता है | जितना अधिक धन, संपत्ति और साधन उसके पास होता है, उससे ज्यादा प्राप्त करने की आकांक्षाएं प्रबल होती है | आकांक्षाएं इतनी प्रबल हो जाती है कि जीवन में कभी पूरी हो ही नहीं सकती | धनवान लोगों की यही मनोदशा होती हैं | धनवानों की इसी मनोदशा के कारण धनवान और अधिक धनवान तथा गरीब और अति गरीब होते जा रहे हैं | अनपढ़ों से अधिक पढ़े लिखों और उच्च शिक्षितों, धनवानों, चोला धारियों का किसी न किसी तरह समूचे देश की प्रकृति और प्रकृति के साथ साथ अभावग्रस्त, न्यूनतम जीवन निर्वाही साधनों के साथ संतोषपूर्ण जीवन जीने वाले जनमानस को लूटने वाला गिरोह खड़ा हो गया है !

पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय | सपूत और कपूत दोनों के लिए धन का संचय करना व्यर्थ है | धन प्राप्ति एवं सुखी जीवन की अपेक्षा हर किसी को होती है, किन्तु विचार, साधन और श्रम भिन्न होते हैं | जिस विचार, साधन और श्रम द्वारा प्रतिदिन की आवश्यकताओं की पूर्ती से आत्मशान्ति का अनुभव मिले वहीं सुख और शान्ति की बयार बहती है | यह बयार चमचमाते मेट्रो शहरों, शहरों में नहीं, जंगल के अन्दर सदियों से बसे अभावग्रस्त गांवों में बहती है | देश के ऐसे अभावग्रस्त लाखो गांव और वहां के आस्थावान लोग, सरकार की ओर से बहाई जाने वाली विकास रूपी "आस्था" का 70 सालों से बाट जोह रहे हैं |



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