रविवार, 17 अप्रैल 2016

आदिम समाज का पवित्र पुष्प 'इरुक' (महुआ)

इरुक मड़ा (महुआ पेड़)



     प्रकृति में पाए जाने वाले सभी संसाधन (मिट्टी, जल, वन, वायु, ताप आदि) प्राणी जगत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण व प्रथमतः जीवन सम्पादन के स्थाई साधन बने. जीवन के स्थाई साधन बन गए, कहना आसान सा वाक्य है, किन्तु इसके लिए हमारे आदिम पूर्वजों को जीवनोपयोगी पहचान प्रतिपादित करने के लिए कितने ही संघर्षपूर्ण परिस्थितियों, परीक्षणों से गुजरना पड़ा होगा, इसका सहजता से अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है. उनके द्वारा किए गए जीवनोपयोगी संसाधनों का अनुसंधान संबंधी शाब्दिक लिखित प्रमाण प्रस्तुत करना हमारे लिए अत्यंत दुर्लभ व कठिन ही है. इस धरा का आदिम मानव समुदाय प्रकृति के समस्त उपयोगी संसाधनों का अन्वेषक है, इसमें कोई दो मत नहीं. वस्तुतः संवेदनाएं, बोली भाषा, जीवन उपयोगी खाद्य सामग्री, औषधीय, आध्यात्म, संस्कार दर्शन के प्राचीनतम प्रायोगिक अनुसंधान व निर्माण विधि संबंधी कई दुर्लभ प्रमाण कार्यरूप में अभी भी हमारे वंश में मौजूद हैं.

     ऐसे दुर्लभ ज्ञान, अनुसंधानों की आधुनिक समाज में जहाँ आज चर्चा होती है, वहाँ यह भी ध्यान रखा जाना महत्वपूर्ण है कि क्या ये ज्ञान, अनुसंधान, कार्य की विधि व संवेदनाएं प्राचीन आदिम मानव की किस भाषा में व्यक्त किये जाते थे ? प्रकृति द्वारा संवेदनाएं प्रवाहित करने का माध्यम, किसी मानवीय भाषा एवं शब्दमुक्त हैं. तब प्रश्न यह उठता है कि उस आदिम मानव समाज की संवेदना को समझने और व्यक्त करने का माध्यम “भाषा” क्या थी ? ऐसी स्थिति में “भाषा” की उत्पत्ति का ख़याल आता है. प्रकृति द्वारा प्रवाहित संवेदनाओं को समझने के लिए उपजी प्राचीनतम मानव सभ्यता की भाषा “गोंडी” तथा विषयगत शब्द “इरुक” भी गोंडी भाषा का है. इसलिए इस भाषा की उत्पत्ति के आधारिक तथ्यों पर पृथक से विचार प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे.


     विषयगत गोंडी भाषा के शब्द “इरुक” (महुआ) पुंगार (फूल/पुष्प) इरुक पुंगार (महुआ फूल) के साथ जुड़ी आदिम जनों की प्राचीन आध्यात्म, भोजन, औषधीय गुण, संस्कार, प्रकृति संतुलन, पर्यावर्णीय संतुलन, जैव संरक्षण, पारिस्थिकीय आदि की ऐतिहासिक महत्ता, उपयोगिता के तथ्यों व संबंध को विस्तार से जानने का प्रयास करें.


     इरूक पुगांर/कोया पुगांर/महुआ फूल आदिम जनों का पवित्र पुष्प क्यों ? इस पुष्प के प्रति आदिम मानव समाज का प्राचीन काल से आधुनिक काल तक स्नेह क्यों बना हुआ है ? इस पुष्प से निर्मित भोजन एवं आसवन विधि से निर्मित दवा (औषधि) “दारु” से लेकर “शराब” तक कैसे पहुँच गया ? ऐसे ऐतिहासिक गूढ़ ज्ञान वर्तमान शहरी धरातल पर नहीं, उसी मूल धरातल पर पल्लवित और पुष्पित हैं जहां आदिम जनों का निवास हैं. उनका निवास वहीँ है जहां न्यूनतम जीवन निर्वाह के साधन जमीन, जल और जंगल हैं. जमीन, जल और जंगल का पर्याय ही आदिम मानव समाज की सामाजिक व सांस्कारिक जीवनगाथा है.


इरुक मड़ा का अस्तित्व एवं प्राचीन इतिहास


     हमारे आदिम मानव पूर्वज, शंभू महादेवों, मुठ्वावों, गायताओं, गोंडवाना गाथाकरों, वंश गाथाकारों, गीतकारों, साहित्यकारों आदि के विभिन्न प्राचीन मिथकों, गीतों, संगीतों, मन्त्रों, साहित्यों के माध्यम से इरुक के प्राचीनतम अस्तित्व की जानकारी मिलती है. हिन्दू धार्मिक ग्रंथो में इसे सम्पूर्ण मानवीय मुरादों की पूर्ती करने वाला पवित्र वृक्ष (कल्प वृक्ष) के नाम से वर्णन किया गया है. ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि ईशा के हजारों वर्ष पूर्व आर्यों और अनार्यों (देवों और असुरों) के बीच अनेक संघर्ष, संग्राम, युद्ध हुए. इनमे से एक भीषणतम संग्राम “देवासुर संग्राम” के नाम से जाना जाता है. ये देव और असुर कौन है ? इस विषय में इनके दैविक व चमत्कारिक इतिहास से हटकर धरातल के वास्तविक इतिहास को जानना अत्यंत आवश्यक है. इसकी प्रकृति सम्मत, समर्थ जानकारी ब्लाग के दूसरे विषय में दी गई है.

     इनके बीच संग्राम क्यों होते रहे ? संग्रामों के मूल कारण क्या थे ? ये भी अत्यंत विस्तृत विषय हैं. संक्षेप में कहा जाए तो ये संग्राम मूलतः आर्यों और अनार्यों के बीच प्रथमतः समाज के आर्थिक अस्तित्व को कायम रखने अथवा नये तरीके से स्थापित करने के लिए हुए. इसके पश्चात क्रमशः सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अस्तित्व को कायम रखने और नए सूत्रपात के लिए हुए. गोंडवाना की धरती प्राकृतिक संपदा से संपन्न था. आदिम जन इन्ही प्राकृतिक संसाधनों, फसलों, संस्कारों से संपन्न थे. यही संपन्नता आर्यों और अनार्यों (देवों और असुरों) के बीच अनेक संघर्षों का कारण बना. सिन्धु घाटी की सभ्यता, हड़प्पा, कालीबंग में सुव्यवस्थित वस्तु व्यवहार, विनिमय, बाजार व्यवस्था आदि से संबंधित प्राप्त पुरातात्विक अवशेष, मुद्राएँ, अन्न, वस्तुएं, प्राचीन आदिम जनों के सम्पूर्ण संपन्न व विकसित सभ्यता के प्रतीक हैं.



इरुक मड़ा का पाए जाने का स्थान एवं वैज्ञानिक नाम


     इरुक मढ़ा (महुआ पेड़) का वैज्ञानिक नाम मधुका लोंगफोलिआ (Madhuca longifolia) है. इसका पौधा लगभग 20 से 30 वर्ष के बाद ही फूल और फल देने वाला झाड़ के रूप में पूर्ण विकसित होता है. इसकी उम्र की कोई सालाना अंदाज नहीं है. पूर्ण विकसित तना सामान्यतः मोटे छिलके वाला, भूरा व खुरदरा होता है. डंठलयुक्त, जालीनुमा रेशेदार, हरे एवं चौड़े पत्ते इसकी मुख्य विशेषताएं हैं. जब तक इसकी जड़ और तना को किसी प्रकार का नुकसान न पहुंचे तब तक पशु, पक्षियों और मनुष्य को कई पीढ़ियों तक अपनी क्षत्रछाया में पोषित करते रहता है. इरुक (महुआ) एक महत्वपूर्ण भारतीय उष्णकटिबंधीय वृक्ष है. यह वृक्ष संपूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है. किन्तु भारत के मध्य क्षेत्र में बहुत अधिक पैमाने पर पाया जाता है. खासकर मध्य भारत के पर्वतीय, पठारीय व मैदानी क्षेत्रों में अधिकता से पाया जाता है. मध्य भारत का मध्य क्षेत्र वर्तमान में मुख्यतः महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा के नाम से जाने जाते हैं. इन तीनों राज्यों में विस्तारित सबसे बड़ा पर्वत सतपुड़ा मैकल और भारत के पश्चिम-मध्य में स्थित प्राचीन गोलाकार पर्वतों कि शृंखला जो मध्य उपखंड को उत्तरी भारत तथा दक्षिणी भारत में बाटती है, विंध्यांचल पर्वत माला है.


सतपुड़ा मैकल पर्वतमाला का भौगोलिक इतिहास


     सत+पुड़ा=सतपुड़ा (सत याने सत्य पुड़ा याने पुड़िया) सत्य से बाँधना, धारण करना, जीवन चर्या में उतारना ही सतपुड़ा है. दूसरे अर्थों में "सत" याने "सत्ता". अर्थात ऐसा परिक्षेत्र जहां प्रथमतः आदिम काल में मानव समाज और उसके जीवन को संयमित, नियमित और नियंत्रित करने के लिए नियम बनाकर अनुबंधित किया गया. जिस क्षेत्र के आदिम मानव समाज के द्वारा सृष्टि/ प्रकृति सञ्चलन की सत्यता के नियमों का अनुकरण कर दुनिया की पहली सामाजिक नियम, सामाजिक सत्ता, सामाजिक शासन व्यवस्था की स्थापना गई, वह क्षेत्र ही "सतपुड़ा" कहलाया.

     यह सतपुड़ा मैकल पर्वतमाला कान्हा बाघ आरक्ष की सबसे प्रमुख भौगोलिक भू-आकृति है. यह पर्वतमाला उत्तर-दक्षिण दिशा में निकली हुई है और त्रिकोणाकार सतपुड़ा पर्वत शृंखला की पूर्वी भुजा है. आरक्ष की पूर्वी सीमा पर स्थित यह पर्वतमाला नर्मदा और महानदी के जलग्रहण क्षेत्रों के बीच की विभाजन रेखा है. यह पर्वतमाला आरक्ष में पश्चिम की ओर भैंसानघाट तक फैली है और नर्मदा के जलग्रहण क्षेत्र को दक्षिण-पश्चिम और पश्चिम में बंजर, तथा पूर्व और उत्तरपूर्व में हलोन में बांटती है. मुख्य मैकल श्रेणी और भैंसानघाट से उत्तर की ओर अनेक स्कंध निकले हुए हैं जो हलोन नदी की ओर बढ़ रहे पानी को अनेक सर-सरिताओं में बांट देते हैं, जैसे फेन, गौरधुनी, कश्मीरी और गोंदला आदि। भैंसानघाट पर्वतश्रेणी बम्हनीदादर पर पहुंचकर दो भागों में बंट जाती है- मुख्य भाग उत्तर की ओर निकलता है और शाखाएं पश्चिम की ओर निकलकर बंजर के जलग्रहण क्षेत्र को स्वयं बंजर और उसकी सहायक नदी सुलकुम (जिसे उसके निचले भागों में सुरपन भी कहते हैं) के जलग्रहण क्षेत्रों में बांट देती हैं. मुख्य श्रेणी की ऊँचाई समुद्र तल से 800 से लेकर 900 मीटर है. (1)


     विंध्याचल पर्वत माला की शृंखला का पश्चिमी अंत गुजरात में, पूर्व में वर्तमान राजस्थान व मध्य प्रदेश की सीमाओं के नजदीक है. यह शृंखला भारत के मध्य तथा पूर्व व उत्तर से होते हुए मिर्जापुर से गंगा तक जाती है. इसी विंध्याचल को वेन + आचेल=वेनाचेल, सामुदायिक नाम 'वेन दाई आचेल', परिवर्तित नाम विंध्याचल कहा जाता है. 'वेन दाई आचेल' समाज का प्राचीन नाम है, जिसका अर्थ मानव वेन विस्तार को मातृत्व प्रदान करने वाली भूमि को ही 'वेनाचेल', विंध्यांचल कहा गया है.



पाए जाने वाले वनस्पति एवं प्रमुख फसलें


     यहाँ वनस्पति में काफी विभिन्नता पाई जाती है. घास और कंटीली झाड़ियों से लेकर पतझड़ी वनों के दानव- इमारती साल, बीजा, महुआ, हर्रा, बहेड़ा, तिन्सा, आम, जामुन, धौंरा, आंवला, कौहा (अर्जुन) और सागौन आदि प्रचुरता से मिलते हैं. कृषि इस पर्वतीय, दादर, मैदानी क्षेत्र के निवासियों का मुख्य व्यवसाय है. जलोढ़ मिट्टी वाली नदी द्रोणियों में होती है. भूरा दोमट, काली मिट्टी यहाँ पाई जाती है. धान, चना, गेंहू, मक्का, मकई, दालें, तिल और सरसों आदि यहाँ की मुख्य फसलों में शामिल हैं. आदिम जातियों द्वारा पीढ़ियों से उगाई जाने वाली तथा कई वर्षों तक सुरक्षित संधारण कर रखी जा सकने वाली अनाज की फसलें- कोदो, कुटकी, रागी, मड़िया, ज्वार, जई, कुल्थी आदि अब विलुप्त हो रहे हैं.


भूगार्भिक संपदा एवं पाए जाने वाली प्रमुख धातुएं


     यहाँ सोना, ताम्बा, कोयला, हीरा, चूना, बॉक्साइट, कुरंड (कोरंडम), डोलोमाइट, संगमरमर, स्लेट और बालुकाश्म (सैंडस्टोन) के निक्षेप बहुत अधिक मात्रा में हैं. नृजातिवर्णन (एथनोग्राफी) की दृष्टि से मैकल पर्वतमाला अनेक जनजातीय समूहों का निवासस्थान है, जैसे गोंड, हल्बा, भारिया, बैगा और कोरकू आदि.(2)


भू-वैज्ञानिक विशेषताएं


     इस क्षेत्र में एक बहुत ही रोचक भू-वैज्ञानिक विशेषता पाई जाती है, जिसके बारे में सर्वप्रथम ओस्ट्रियाई भूवैज्ञानिक एडुअर्ड सुएस (1831-1914) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “THE FACE OF THE EARTH (पृथ्वी का चेहरा) में लिखा था. उन्होंने सुझाया कि पुराजीव कल्प में, लगभग 16.5 करोड़ वर्ष पूर्व, “गोंडवानानामक एक अतिविशाल महाद्वीप का अस्तित्व था. यह नाम मध्य भारत में रहने वाले गोंड जनजाति के नाम से लिया गया है. इस विशाल महाद्वीप के घटक प्रदेशों में, अर्थात आजकल के आस्ट्रेलिया, अंटार्क्टिका, दक्षिणी नव गिनी, अफ्रीका, दक्षिण अमरीका और भारत में पर्मियन और कार्बोनिफेरस काल के प्रारूपिक भूवैज्ञानिक लक्षण मिलते हैं. पर्मियन गोंडवाना में मिलने वाला सबसे सामान्य पत्ता ग्लोसोप्टेरिस है, जो जीभ के आकार का एक पत्ता है जिसमें जटिल जालीदार शिराविन्यास होता है. ग्लोसोप्टेरिस के पत्ते और कुछ प्रकार के कशेरुकी जीवों का समस्त गोंडवाना देशों में मिलना पिछली शताब्दी के प्रारंभ में प्रतिपादित महाद्वीपीय अपसरण सिद्धांत के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है. वैज्ञानिकों में यह सिद्धांत काफ़ी अर्से तक विवादास्पद रहा क्योंकि प्लेट टेक्टोनिक की (अर्थात भू-पटलों के खिसकने की) जिस अवधारणा पर वह टिकी है, उसके काम करने की रीति अभी हाल ही में ज्ञात हुई है। प्लेट टेक्टोनिक के अनुसार गोंडवाना एक चलायमान भू-पटल पर स्थित था जो खिसकता रहा और टूटता रहा और उसके टुकड़े अभी के महाद्वीप बने.(3)

     गोंडवाना धरती का टूटा हुआ एक टुकड़ा भारत गणराज्य के मध्य क्षेत्र सतपुड़ा पर्वतमालाओं, पठारीय, मैदानी क्षेत्रों, वनों में सर्वाधिक रूप से आदिम जातियों के प्राचीन निवास रहे हैं. उत्तर पूर्व में अमूरकोट (अमरकंटक), दक्षिण में कोंदामेंदल (बैलाडीला), मध्य भाग पेंकमेढ़ी (पचमढ़ी), लोहगढ़ (कछारगढ़), लांजीगढ़, लौगुर, भैसानघाट (कान्हा राष्ट्रीय उद्यान परिक्षेत्र, भिमालपेन का लाट स्थल), इत्यादि पर्वतीय, पहाड़ी, मैदानी निवास क्षेत्रों/स्थलों/वनों में ही अधिकतर “इरुक मड़ा” का पाया जाना इस तथ्य का पुख्ता आधार है कि प्राचीन आदिम समाजिक जीवन में इस झाड़ का गहरा सामाजिक, आध्यात्मिक तथा आर्थिक महत्व रहा है तथा अभी भी है, आगे भी रहेगा.



प्रकृति, वनस्पति और मानव सामाजिक संरचना


     वैसे तो सम्पूर्ण गोंडवाना जनों का आदिम सामाजिक जीवन आदिम काल से प्रकृति के सभी पेड़ पौधों, वनों, पशु पक्षियों, नदियों, पर्वतों, पहाड़ों पर ही निर्भर रहा है, आज भी हैं. इन्ही संसाधनों में अपने जीवन के अस्तित्व और भोजन तलासे. इन्ही वन क्षेत्रों में रहकर पेड़ पौधों, वनों, पशु पक्षियों, जीव जंतुओं की बुद्धिमता को समझा. जिस तरह एक विशाल वृक्ष, अपने डगालों, पत्तियों, पुष्पों, फलों को पोषित करता है. धूप को अवशोषित करता है. वाष्प को आकर्षित करता है. परिपक्व पत्तियां डगालों से गिरकर भूमि को उर्वरा बनाती है. फल परिपक्व होकर धरती पर गिरते हैं. इन्ही फलों से बिना किसी भेदभाव के अनेक प्रजाति के पशु, पक्षी, चींटी, कीड़े, मकोड़े अपने अपने हिस्से का भोजन, प्राप्त कर लेते हैं. बाकी बचा बीज उसी उर्वरा भूमि पर तमाम पारिस्थितकीय कठिनाईयों के बाद भी पुनः अंकुरित होकर पौधे से पेड़ बनकर, फल फूल धारण कर, अपने वंश को आगे बढ़ाते हैं. यह प्रकृति का अत्यंत सहज या कठोरतम अनुशासन है. यही प्रकृति की पारिस्थिकीय चक्रण प्रणाली है. यही सृजन और विघटन प्रणाली है. यही जन्म और मृत्यु है. इसी जन्म और मृत्यु के बीच के मानव जीवन को प्रकृति के नियम अनुसार चरणगत विभिन्न अनुशासनों से अनुबंधित करने का विधान ही “संस्कार” कहलाते हैं.

     इसी अनुसाशित प्रकृति दर्शन से अपने जनों को “मानुष” से “मनुष्य” बनाने के लिए सामाजिक दर्शन प्रतिपादित किये. पेड़ों के दर्शन को समाज का दर्शन बनाया. यह पूर्ण प्रकृति दर्शन है. इस दर्शन का प्रतिपादन किसी परलोकी, परग्रही, ईश्वर, भगवान, गॉड, अल्लाह ने नहीं किया. इसका मूल प्रतिपादन हमारे आदिम मानव पूर्वजों ने संस्कारों के रूप में किया.



इरुक मड़ा की उपयोगिता एवं महत्व


     आदिम जनो के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और जीवन आश्रय के रूप में इरुक मड़ा की पहचान होती है. तना, छाल, जड़, पुष्प, फल, बीज, तेल, अर्क, पत्ते सभी मानव जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी साबित हुए हैं. आदिम समाज में इरुक मड़ा की उपयोगिता प्रमुखतः निम्नानुसार हैं-

(1) इरुक मड़ा और उसकी फसल प्राचीन काल से जीवन के प्रत्येक चरण में उपयोगी रहा है. इसकी लकड़ी अत्यंत कठोर, चिरस्थाई स्वरुप का होता है. इसलिए इसकी लकड़ी अधिक समय तक टिकाऊ होने के कारण इमारती लकड़ी के रूप में खिड़की, दरवाजे आदि बनाने के लिए उपयोग किया जाता है.


(2) इसकी छाल, जड़, पुष्प, फल, बीज, तेल, अर्क आदि अनेक औषधीय गुणों से परिपूर्ण होने के कारण इन्हें अनेक रोग दोषों के निवारण के लिए विभिन्न तरीके से उपयोग किये जाते हैं.


(3) इसके मोटे छाल में सफ़ेद, गाढ़ा एवं चिपचिपा पदार्थ संचारित होता है. जिसे चिक, गोंद या दूध कहा जाता है. इसे छाल से एकत्रित कर पात्र में कुछ दिन रखे रहने से इसके स्वरुप में बदलाव आकर अधिक चिपचिपा और गाढ़ा हो जाता है. इसे “चोंप” कहते हैं. चोंप आदिम जनों के शिकार का प्राचीनतम, सुलभ एवं सस्ता साधन है. अभी भी दुर्गम क्षेत्रों में इसका उपयोग गिलहरी, चूहा, खरगोस, पक्षियों आदि से फसलों की सुरक्षा व शिकार के लिए उपयोग किया जाता है.


(4) इसके छाल से अधिक मात्रा में दूध एकत्रित कर पत्थरों, चट्टानों, लकड़ियों को जोड़ने/चिपकाने के लिए उपयोग किया जाता था, अब भी किया जाता है. गोंडवाना कालीन पत्थर, चट्टानों के इमारत और नीव इन्ही वानस्पतिक चिक (महुआ वृक्ष का गोंड, दूध, बरगद वृक्ष का गोंद, दूध), वानस्पतिक फल (बेल फल), चूना पत्थर के मिश्रण से निर्मित हैं, जो बदलते परिवेश के साथ युगों से तोप, गोलों की मार सहकर भी अडिग हैं.


(5) इसके दूध का रंग परिवर्तनशील तथा अमिट है. इसलिए पाषाण काल के आदिम मानवों के द्वारा अपनी संवेदनाओं को विभिन्न प्रकार के चित्र आदि के रूप में उकेरे जाते रहे. उनके दुर्गम आदिम निवास स्थल, पत्थरों, चट्टानों, गुफाओं, कंदराओं में पाए जाने वाले भित्तिचित्र इसी चिक, गोंड, दूध की अमरता और अमिटता की निशानी है.


(6) इसकी हरे भरे डगाल एवं लकड़ी से आदिम जनों के मुख्य मड़मींग नेंग, बिहाव (शादी) के मंडप तथा मड़मींग खाम/मंगरोहन खाम (दूल्हा दुलही पेन शक्ति प्रतीक स्वरुप खाम) तैयार कर मंडप के बीचो बीच गड़ाया जाता है. इसी खाम के दाहिने से आगे बांयी की ओर (Anticlock wise) सात फेरे लगाते हुए दूल्हा दुलही जनम जनम तक प्रकृति, पुरखों, वंश, जीव, सगा समाज की सेवा करने की शपथ लेते हैं.


(7) इसके चिक, गोंड, दूध में औषधीय तथा संक्रमण रोकने के गुण पाए जाने के कारण डगाल का उपयोग दातून के रूप में किया जाता है.


(8) ऊष्ण प्रकृति के होने के कारण इसके सूखे तने, डगाल, पत्तियां बहुत अच्छा पारंपरिक इंधन है.


(9) इसकी कच्चे व सूखे पत्तियों को ग्रामीण कृषक जन एकत्रित कर पारंपरिक उर्वरक/खाद के रूप में फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए सदियों से उपयोग किया जाता रहा है. इसे ही जैविक खाद के रूप में आधुनिक नाम प्रदान किया गया है.


(10) इरुक मड़ा छायादार घना वृक्ष होने के कारण धूप, वर्षा, तूफ़ान आदि से जीवों का संरक्षण करती है. पक्षियों को घोसले बनाने के लिए आश्रय देती है. फूल और फल से उनका उदर पोषण भी करती है. राहगीरों को तपनमुक्त शीतल छाया देती है.


(11) यह वृक्ष बारिस के लिए मेघों को आकर्षित करती है. जड़ें भूमि क्षरण व कटान को रोकती है. पत्तियां नीचे गिरकर भूमि की उर्वरा को बनाए रखती है. विभिन्न माध्यमों से उत्सर्जित हानिकारक धुआं, गैस, कार्बन डाई ऑक्साईड का अवशोषण कर प्राणवायु उत्सर्जित करती है. प्रकृति की पर्यावरणीय संतुलन, मौसम चक्रण को बनाए रखने के लिए इसका महत्वपूर्ण योगदान है.


(12) यह वही पवित्र वृक्ष है जिसे आर्य ग्रन्थों में कल्पवृक्ष (कल वृक्ष) कहा गया है. इस वृक्ष के जीवन दायीनी, पुनर्यौवन प्रदायिनी गुणों के कारण इसी वृक्ष को प्राप्त करने के लिए प्राचीन काल में आदिम जनों के इलाकों में आर्य आक्रमण लगातार होते रहे हैं. इससे प्राप्त जीवन निर्वाही संपदा आर्य आक्रम के कारण बने.


(13) आर्यों द्वारा सिंघु घाटी की आदिम द्रविड़ मानव सभ्यता को नष्ट किये जाने पर वहाँ के बचे हुए मानव अपना जीवन बचाने जंगलों के आश्रय में चले गए. जंगलों में पाए जाने वाले इरुक मड़ा जैसे अनेक पेड़ पौधे, कंद मूल, पशु पक्षी उनके जीवन सहयोगी, जीवन निर्वाही साधन बने.



इरुक पुष्प और फल की पहचान



     इरुक पुष्प का वैज्ञानिक नाम मधुका (madhuca) है तथा फल का नाम मधुका इंडिका (madhuca-indica) है. इरुक मड़ा पतझड़ी
महुआ कूचियाँ एवं पुष्प
प्रकृति का होने के कारण इसके पत्ते पीले होकर माघ महीने से झड़ना शुरू हो जाते हैं. पत्ते झड़ने के साथ ही डगालियों के अंतिम छोर पर गुच्छेदार कूचियाँ (डंठलयुक्त गुठलीनुमा स्वरुप) निकलना शुरू हो जाते हैं. साथ ही साथ अन्य वन फसलें- साल (सरई), चिरोंजी (चार), भेलवा, आम (मरका), पलास, सेमर/सेमल (सावरी) आदि विभिन्न प्रजाति के वनस्पतियों में मौर (फूल) लगना शुरू हो जाते हैं. फाग महीने के आते तक पुष्पों के विकसित होते ही मानो प्रकृति की नवयौवन चरम पर होती है. ऐसा प्रतीत होता है मानो इस नवयौवना के लिए सुबह की सुनहरी किरणों के विकिरण के साथ चिड़िया, भौरे,
मधुमक्खियाँ, तितलियाँ, पवन संग मिलकर स्वागत के मधुर गीत गाते हुए सभी वानस्पतिक विभिन्न फूलों से इत्र एकत्रित कर नवयौवना के शारीर पर छिड़क रहे हों. मानो नवयौवना के बदन पर एकत्रित होकर प्रकृति का यह मनमोहक इत्र सफ़ेद बूंदों के रूप में डगालियों से बरस रहे होते हैं. सुबह से दोपहर तक एक ही दौर में पूर्णतः झर जाते है. हर रात दूसरे कूचियों में पूर्ण विकसित होकर अगली सुबह झरते रहने का क्रम लगभग पंद्रह दिन से एक महीने तक विशेषतः जारी रहता है.



     इरुक पुंगार का आकार अधिक से अधिक लगभग एक इंच अंडाकार लम्बा तथा आधे से पौन इंच तक चौड़ा, गोलाकार, पंखुड़ी विहीन, छोटे आकार के फल की तरह दिखने वाला सफ़ेद, रसीला पुष्प है. आज भी यह मिठासयुक्त रसीला पुष्प, पशु, पक्षियों और आदिम जनों के लिए बसंत के मौसम का रुचिपूर्ण भोजन है.



     इरुक पुष्प के पूर्ण विकसित होकर डंठल से मुक्त हो जाने के पश्चात उन्ही डंठलों में इरुक के फल निर्मित होते हैं. इनका पूर्ण विकसित आकार अंडाकार, गूदेदार व रंग पत्तियों की तरह हरे होते हैं. फल को महुआ फल/गुल्ली/गलेंदा/टोर आदि के नाम से जाना जाता है. फल पकने पर चीकू की तरह मीठा व स्वादिष्ट होता है. फल के अन्दर लंबाकार, हल्दी गाँठ की तरह बीज पाया जाता है. इरुक पुंगार की तरह फल भी पशु, पक्षियों के लिए अत्यंत रुचिकर भोजन है. निशाचर पक्षी (चमगादड़) को पके हुए इरुक फल का रस अत्यंत प्रिय है. वे फल का रस चूसकर बीज गिरा देते हैं. इसलिए चमगादड़ के झुण्ड प्रतिदिन इस मौसम में रात भर अपने प्रिय भोजन का आनंद लेकर सुबह अपने ठीये पर चले जाते हैं. ग्रामीण जन रात से ही या सुबह गिरे हुए बीजों को एकार्त्रित कर लेते हैं. पुष्प की तरह बीज भी भिन्न स्वरुप में खाद्य, औषधि आदि के लिए महत्वपूर्ण हैं.

     इरुक पुष्प और फल (बीज) की प्राचीन समय की विभिन्न उपयोगिता व महत्ता के संबंध में उल्लेख किया जाना हमारे लिए अत्यंत कठिन है. अभी भी आदिम समाज के बीच विभिन्न स्वरूपों में इसकी उपयोगिता बनी हुई है. हमसे दूसरी पीढ़ी पीछे आजी दादी, दाई दाऊ के अनुभव के साथ इसकी उपयोगिता और महत्ता को साझा करना चाहूँगा.


(1) इरुक पुष्प (पुंगार) का उपयोग भोजन के रूप में-


     इसकी जानकारी प्रस्तुत करने के लिए हमें पुनः प्राचीन
इरुक पुष्प बीनते लोग
मानव सभ्यता की धरातल पर जाना होगा, जहां से मानव विकास सीढ़ी दर सीढ़ी, पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ी.
जब मानव विकास आगे बढ़ता है तो प्राचीनता के कुछ तथ्य रूढ़ियों में परिवर्तित हो जाते हैं. जीवन उपयोगी सहूलियतें प्राप्त करना, नए नए संसाधनों का उपयोग, संपन्नता, आधुनिक शिक्षा, बदला हुआ व्यवहार, सुविधाओं में परिवर्तन, रहन सहन, चाल ढाल में परिवर्तन आदि को हम समाहित करते जाते हैं. इससे व्यक्त करने के भाषाई तरीके, समझ के स्वरुप, मान्यताएं बदल जाते हैं. इसका तात्पर्य यह नहीं है कि आधुनिक सभ्यता, अपनी पुरानी सभ्यता के जड़ और तना से पोषित न हुआ हो. आदिम सभ्यता के जड़ और तना से ही वर्तमान आधुनिक मानव सभ्यता का विकास हुआ है. विकास का आधार ही इतिहास है. इतिहास के धरातल पर आदिम मानव पूर्वजों की जीवन चर्या में इरुक पुष्प भोजन के रूप में कैसे पहचाना गया, इस सम्बन्ध में तथ्यों के आधार पर विस्तार से जानना आवश्यक है.


     आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है, किन्तु यहाँ आवश्यकता और अविष्कार दोनों की जननी प्रकृति है, यह कहना गलत नहीं होगा. जल, थल, वन, नभ, ताप, जीव, निर्जीव, चर, अचर सभी की जननी प्रकृति ही है. हम सब प्रकृति की ही फसलें हैं. किन्तु सबकी जीवन निर्वाह संबंधी आवश्यकताएं भिन्न हैं. सभी की जीवन निर्वाह संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु प्रकृति ने तरह तरह के पुष्प और फल प्रदान की है. इस प्रकृति में जो जीवित हैं, उन सभी की प्रथम आवश्यकता केवल भोजन ही है.


     मनुष्य को यह भ्रम है कि प्रथमतः प्रकृति के इन अनूठे फसलों की पहचान उसने की. यह सत्य है कि भोजन की पहचान सर्व प्रथम
महुआ फल/ गुल्ली/ गलेंदा
पशु पक्षियों ने की. उसके पश्चात मनुष्य उनके पहचाने गए भोजन को ही ग्रहण करना शुरू किया. उनका अनुकरण किया. आदिम काल से पशु पक्षियों के जो खाद्य पदार्थ हैं, वही आज भी आदिम समाज के जीवन निर्वाही स्थाई साधन बने हुए हैं. इसी कड़ी में आदिम से आधुनिकता तक इरुक पुष्प को भोजन के रूप में ग्रहण किये जाने की ऐतिहासिक पहचान मिलती है. मिठासयुक्त गुण के कारण पशु पक्षियों के बाद मनुष्य के लिए भी पौष्टिकता से परिपूर्ण पुष्प के रूप में भोजन हैं. इरुक आदिम जनों के लिए बसंत ऋतु का अमृत है.


(क) इस वन फसल को उपजाने के लिए परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती. इनके फूलों के प्राकृतिक परागण व प्रसारण से प्राणियों व पर्यावरण पर किसी भी प्रकार का विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता. पूर्ण विकसित होकर नीचे गिरने पर ही इनका उपयोग करने से वृक्ष को बिना नुक्सान पहुंचाए प्राप्त कर लिया जाता है. इससे पर्यावरण संरक्षण का संदेश प्रसारण जैसे पुनित उद्देश्य भी पुरा हो जाता है, जो कोया पुनेम का मूल आधार है.


(ख) यह अन्य वन फसलों (आम, इमली, जामुन, तेंदू, चिरोंजी, आंवला, हर्रा, बहेड़ा आदि) की तरह प्रकृति प्रदत्त है. बड़े वृक्ष में ही पुष्पित होने के कारण अधिक समय तक रखवाली करने की आवश्यकता नहीं पड़ने से समय की बचत होती है.


(ग) यह मौसमी फसल होने के कारण वर्ष में एक ही बार प्राप्त किया जाता है. लम्बे समय तक खाद्य रूप में इसकी उपयोगिता को बनाए रखने के लिए एकत्रित कर सुखाया जाता है. सूखने पर सफ़ेद से गहरा लाल रंग में परिवर्तित हो जाता है. इसे पूर्णतः सुखाकर कई वर्षों तक सुरक्षित संधारण किया जा सकता है.


ग्रामीण जीवन में मान्यता है कि किसी भी महीने के अंधियारी पक्ष में हवाबंद संधारण करने से कीड़े नहीं लगते, जिससे खराब नहीं होता. इसलिए किसी भी सामग्री को अधिक समय तक सुरक्षित रखने के लिए बिना किसी औषधि के अंधियारी पक्ष में ही संधारण किया जाता है. इरुक के सूखे पुष्पों को कई वर्षों तक संधारण के बाद निकालने पर भी इसकी खुशबू और पौष्टिकता में कमी नहीं आती, बल्कि वृद्धि हो जाती है.


(घ) इरुक पुष्प को तरह तरह के पकवान बनाने के लिए उपयुक्त पाए जाने के कारण इसे आदिम व्यंजनों का बादशाह माना गया है. इसे सूखा भूनकर भी खाया जाता है, जिसे “कोया” या अन्य स्थानीय नाम से भी व्यक्त किये जाते हैं. इसे सूखा भूनकर, साल बीज, मक्का, चना आदि के साथ पकाकर भी खाया जाता है. मक्के की लाई तथा कोया (सूखे फूल का भुना हुआ रूप) को पीसकर सत्तू बनाया जाता है, जो विभिन्न मिष्ठानों के लिए उपयोगी है. यह हरेक रूप में पौष्टिक व शक्ति प्रदान करने वाला पूर्ण आहार है.


(ड.) यह पशुओं का भी सुरुचिपूर्ण आहार है. सूखे या ताजे पुष्प को जल या अनाज के साथ चारे के रूप में पशुओं को खिलाया जाता है. इससे पशुओं की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है. दुधारू गाय की दूध देने की क्षमता बढ़ जाती है. इससे पशुओं की आयु में वृद्धि होती है, जिससे लम्बे समय तक पशुओं का उपयोग शक्ति कार्य के लिए किया जाता है.


(च) देश में अनेक अकाल, सूखा, विश्वयुद्ध के दौरान खाद्य संकट की स्थिति में आदिम जनों के परिवार और उनके पालतू पशुओं के भोजन के रूप में जीवन का सबसे बड़ा सहारा रहा है. आदिम जनों के पीढ़ियों को सदियों भुखमरी से बचाने में इरुक का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. हर ऐतिहासिक संकटपूर्ण परिस्थितियों में जंगल ही उनका आश्रय रहा है, जंगल ही जीवन रहा है और आज भी है. इसलिए आदिम जन इस आधुनिकता में भी अनेक मानव जनित संघर्षों, विकासवादी संघर्षों, आतंकी, नक्सली संघर्षों के बावजूद किसी भी रूप में अपना जल, जंगल और जमीन छोड़ने को तैयार नहीं है. प्रकृति और जीवन के बीच समन्वय के गहरे रहस्य को जानने वाले ऐसे आदिमजनों को आधुनिक समाज जंगली, आदिवासी, देहाती कहकर अपमान स्वरुप संबोधित करता है, जो अत्यंत आश्चर्यजनक और घृणास्पद प्रतीत होता है.



(2) इरुक का उपयोग प्रत्येक नेंग दस्तूर में पवित्र पुष्प के रूप में-



     इसकी जानकारी प्रस्तुत करने के लिए हमें पुनः प्राचीन मानव
सूखे इरुक पुष्प
सभ्यता की धरातल पर जाना होगा, जहां से मानव विकास सीढ़ी दर सीढ़ी, पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ी.
जब मानव विकास आगे बढ़ता है तो प्राचीनता के कुछ तथ्य रूढ़ियों में परिवर्तित हो जाते हैं. जीवन उपयोगी सहूलियतें प्राप्त करना, नए नए संसाधनों का उपयोग, संपन्नता, आधुनिक शिक्षा, बदला हुआ व्यवहार, सुविधाओं में परिवर्तन, रहन सहन, चाल ढाल में परिवर्तन आदि को हम समाहित करते जाते हैं. इससे व्यक्त करने के भाषाई तरीके, समझ के स्वरुप, मान्यताएं बदल जाते हैं. इसका तात्पर्य यह नहीं है कि आधुनिक सभ्यता, अपनी पुरानी सभ्यता के जड़ और तना से पोषित न हुआ हो. आदिम सभ्यता के जड़ और तना से ही वर्तमान आधुनिक मानव सभ्यता का विकास हुआ है. विकास का आधार ही इतिहास है. इतिहास के धरातल पर आदिम मानव पूर्वजों की जीवन चर्या में इरुक पुष्प भोजन के रूप में कैसे पहचाना गया, इस सम्बन्ध में तथ्यों के आधार पर विस्तार से जानना आवश्यक है.


(क) इस वन फसल को उपजाने के लिए परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती. इनके फूलों में प्राकृतिक स्वपरागण व प्रसारण से प्राणियों व पर्यावरण पर किसी भी प्रकार का विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता. पूर्ण विकसित होकर नीचे गिरने पर ही इनका उपयोग करने से वृक्ष को बिना नुक्सान पहुंचाए प्राप्त कर लिया जाता है. इससे पर्यावरण संरक्षण का संदेश प्रसारण जैसे पुनित उद्देश्य भी पुरा हो जाता है, जो गुण कोया पुनेम का मूल आधार है.

(ख) इरुक आदिम मानव समाज की संजीवनी के रूप में मान्य है. इसकी खुसबू प्राणियों में जिज्ञासापूर्ण उमंग भर देता है, उन्हें लालायित कर देता है, विचलित कर देता है, आकर्षित करता है. आदिम जनों की मान्यता है कि इसमें प्रकृति, वंश और समाजगत आध्यात्म के समस्त निराकार शक्तियों को आकर्षित करने का उत्कर्ष गुण हैं. इसलिए अपनी भविष्य की आशा, अभिलाषा, आकांक्षा रूपी ऊर्जा में बढ़ोत्तरी करने के लिए इस पुष्प को अर्पित कर पेनों को आमत्रित करने का नेंग (प्रक्रिया) की जाती है.


(घ) मौसमी पुष्प होने के कारण यह हर मौसम में उपलब्ध नहीं होता है. इसे सुखाकर भी उपयोग किया जाता है या पानी में भिंगाकर. सूखे पुष्पों को जल में भिंगोने से कुछ ही देर में अपने मूल स्वरुप को प्राप्त कर लेते हैं. इसे एक बार संग्रहीत कर कई वर्षों तक उपयोग किया जा सकता है. लम्बे समय तक जीवन के प्रत्येक चरण में ताजे या सूखे दोनों स्वरूपों में सांस्कारिक उपयोगिता के कारण आदिमजन हमेशा पवित्र पुष्प के रूप में इसका सम्मान करते हैं.


(3) इरुक पुष्प का उपयोग औषधि के रूप में


     आज भी आधुनिक औषधि विज्ञान यह मानता है कि आदिम जनों द्वारा शारीरिक विकारों को दूर करने के लिए किए गए विभिन्न वनऔषधियों का अनुसंधान व उपयोग पूर्ण वैज्ञानिक व जीवन के लिए अधिक सुरक्षित हैं. भारतीय आयुर्वेद अब तक लगभग 800 वनस्पतिक प्रजातियों का अनुसंधान कर औषधीय रूप में उपयोग कर पाया है. वहीँ आदिमजनों द्वारा विभिन्न असाध्य व साध्य रोग दोषों के निवारण हेतु लगभग 8,000 प्रजाति के वनऔषधि का उपयोग करते हैं. यह आधुनिक सभ्य समाज के लिए आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है. इनमे से इरुक पुष्प भी एक औषधि है. इरुक पुष्प का उपयोग आदिम समाज में विभिन्न तरीके से औषधीय रूप में उपयोग किए जाते हैं जो निम्नानुसार हैं-


(A) ताजे व सूखे पुष्प औषधि के रूप में-


(क) यह भोजन के रूप में शक्तिवर्धक और स्फूर्ति दायक होता है, साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता की बढ़ोत्तरी करता है. पेट व पाचन संबंधी विकारों को दूर करता है.

(ख) इसके ताजे फूलों का पेस्ट बनाकर लेप करने से त्वचा में निखार आता है. इसके साथ घृतकुमारी, चन्दन, हल्दी मिलाकर लेप करने से और अधिक असर कारक होता है.


(ग) ताजे फूलों के रस का सेवन रक्ताल्पता, हड्डियों एवं नेत्र ज्योति के लिए लाभदायक है. शक्तिवर्धक, वीर्य अल्पता तथा प्रजनन सम्बन्धी विकारों को दूर करता है.


(घ) सूखे पुष्प को जलाकर गुल्ली/टोर के तेल मिलाकर घाव, चोट के स्थान पर लगाने से घाव जल्दी सूख जाता है.


(ड.) ताजे पुष्प नियमित खाने से साईटिका में आराम मिलता है. रक्त दोष को दूर कर संचार को नियंत्रित करता है. मधुमेह के लिए भी ताजे फूलों का सेवन लाभकारी है.


(च) सूखे साल बीज और सूखे महुआ पुष्प को मिट्टी के बर्तन में पकाकर भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है. यह पौष्टिक, सुपाच्य तथा पाचन संबंधी विकारों को दूर करने के साथ ही मधुमेह को नियंत्रित करने के लिए ज्यादा असर कारक है.



(छ) मिट्टी के बर्तन से भुने हुए पुष्प का पिसान (आटा) और भुने हुए मड़िया पिसान (आटा) का सत्तू या लड्डू प्रसूता माताओं के लिए अमृत गुणकारी है. प्रसूति के समय सेवन करने से शक्ति में वृद्धि, दर्द निवारक होने के साथ ही दूध की मात्रा बढ़ाता है. सदियों से इरुक के इस औषधीय गुण के ज्ञान और विश्वास के कारण आज भी आदिम समाज की अधिकतर माताएं घर में ही प्रसूति करना पसंद करते हैं.

     आधुनिक आयुर्वेदाचार्य, चिकित्सक गर्भवती माताओं को हमेशा सलाह देते हैं कि वजन मत उठाना, ज्यादा मत झुकना, ज्यादा काम मत करना आदि. इससे गर्भ को नुकसान पहुंचता है. वहीँ ग्रामीण माताएं प्रसूति समय तक सभी प्रकार के कार्य करते हैं. कार्य करते रहने के बारे में उनका तर्क वैज्ञानिक और सबल है. कार्य करते रहने से कमर व शरीर की हड्डियां, मांसपेसियां क्रियाशील लचीला बनी रहती हैं, जिससे प्रसूति के समय कठिनाई नहीं होती.


     चिकित्सकों के लिए ऐसे सलाह उन माताओं के लिए उपयुक्त हैं, जो सुविधायुक्त तथा शारीरिक श्रम करने के लिए बाध्य नहीं हैं, जो श्रम करना नहीं चाहते या वैतनिक पेशेवर हैं. इसके विपरीत दूसरा पहलु यह होता है कि परिश्रम नहीं करने के कारण शरीर की हड्डियां, मांसपेसियां क्रियाशील नहीं होने से लचीलेपन में कमी आती है. जिससे प्रसूति के समय ज्यादा दर्द व कठिनाई होती है. इसीलिए शहरी माताएं चिकित्सालयों में प्रसूति के लिए मजबूर होती हैं. इसी परिस्थिति और मानसिकता का अधिकतर चिकित्सालय/नर्सिंग होम आर्थिक लाभ उठाने के लिए प्रसूता व गर्भस्थ शिशु को अचानक होने वाली कठिनाई व नुकसानदेह परिस्थितियां बताकर सीजरिंग प्रसूति (आपरेशन कर पेट से बच्चा निकालना) के लिए तत्परता दिखाते हैं. इससे चिकित्सालयों के वांछित लाभ की पूर्ती हो जाती है. अधिकतर आधुनिक चिकत्सक और चिकित्सालय चिकित्सा कम और हमारी छोटी छोटी अज्ञानता के कारण हमारे ही जेब से अधिक से अधिक रूपये लूटना चाहते हैं.


     एक रार्ष्टीय पत्रिका के माध्यम से ज्ञात हुआ कि वर्ष 2015 में अमेरिका के चिकित्सकों का एक टीम बस्तर के आदिवासी महिलाओं के द्वारा अपनाए जा रहे पारंपरिक प्रसव पद्धति का अध्ययन करने के लिए छत्तीसगढ़ आया था. अध्ययन में डाक्टर्स की टीम ने पाया कि आदिवासियों की प्रसव पद्धति और इसकी औषधि यहाँ के लिए सहज, निशुल्क, स्वस्थ, श्रेष्ठ तथा दुनिया के लिए अनुकरणीय है.
 अमेरिका सरकार अपने देश में इस पद्धति को विकसित करने के लिए चिकित्सकों को प्रशिक्षित करना चाहती है. यह आदिम समाज के लिए गौरवान्वित होने का विषय नहीं है. दुनिया का बुद्धीजीवी वर्ग आदिम जनों के कंधों पर पैर रखकर ही आधुनिकता का आसमान छूने का प्रयत्न कर रहा है. जो लोग नए नए खोज और आविष्कार करने का दंभ भर रहे हैं, उन्हें गोंडवाना के असली इतिहास को सौहाद्र रूप में खोजना और देखना चाहिए. जिस आधुनिकता की शिखर की नीति की सोच अब जो उत्पन हो रही है, हमारे पूर्वज हजारों वर्ष पूर्व इससे भी उन्नत आविष्कार, निर्माण और उपयोग कर चुके हैं, जिसका खामियाजा अपने विनास के रूप में उन्हें भुगता पड़ा है. 


(B) सूखे पुष्पों का तरल अर्क (दान्ड़गो/दारु) औषधीय रूप में-


     सूखे पुष्पों को मिटटी के बर्तन में पानी में भिंगोकर किण्वन (हानिरहित बैक्टीरिया के माध्यम से रसायन/सड़ाने) की प्रक्रिया में रखा जाता है. भींगे पुष्पों की खुशबू के प्रभाव से एक दो दिनों में बैक्टीरिया पैदा होने से किण्वन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. ठन्डे मौसम की अपेक्षा गर्म मौसम में यह प्रक्रिया जल्दी हो जाती है. महुआ पुष्प की खुशबू से भिन्न एक विशेष प्रकार की तीक्ष्ण गंध आने तक इसे किण्वन की प्रक्रिया में रखा जाता है. बर्तन में रखे रस को चखकर भी किण्वन के स्तर की पहचान की जाती है. एक निश्चित स्तर तक किण्वन की प्रक्रिया होने के पश्चात इसे विभिन्न आसवन विधियों से पकाकर अर्क निकालने की प्रक्रिया पूर्ण कर ली जाती है. इसका पका हुआ पुष्प और रस शक्तिवर्धक गुणकारी होने के साथ ही पशुओं का रुचिकर भोजन होता है. इस विधि से प्राप्त किया गया महुए पुष्प का तीक्ष्ण खुशबूयुक्त, रंगहीन तरल अर्क विभिन्न तरीके से औषधीय रूप में उपयोग किया जाता है.

(क) शुद्ध अर्क दर्द निवारक औषधि के रूप में प्रयुक्त किया जाता है.

(ख) निद्रादायी औषधि है. अल्प निद्रा के रोगियों के लिए लाभप्रद है.


(ग) अधिक सेवन से शरीर निश्चेतन हो जाता है. प्राचीन चिकित्सा पद्धति में इसका उपयोग निश्चेतना के लिए किया जाता था.


(घ) विशुद्ध रूप में इसका उपयोग अनेक प्रकार के आधुनिक एलोपैथिक दवाइयां बनाने के लिए किया जाता है. विभिन्न प्रकार के रोगों के लिए इसका विशुद्ध अर्क अलग अलग मात्रा में होम्योपैथी दवाईयों के साथ उपयोग किया जाता है.


(ड.) ग्रामीण आयुर्वेद में शुद्ध अर्क के साथ देशी मुर्गी अंडे (पीले भाग को छोड़कर) का घोल बनाकर दिया जाता है. उनका मानना है कि इस घोल की नियमित सेवन से मरीजों को क्षय (टी.बी.) के सुरुवाती संक्रमण से बचाया जा सकता है.


(च) फसलों में लगने वाले कीट व जल के हानिकारक बेक्टीरिया, फंगस से सुरक्षा हेतु खेतों में इसका छिड़काव कर फसलों की सुरक्षा का यह प्राचीन पद्धति है.


(छ) विभिन्न प्रकार के तरल प्रकृति की दवाएं, इत्र एवं सुगंधित वस्तुओं का निर्माण.


ककई (देशी कंघी)
(ज) ग्रामीण क्षेत्रों में प्राचीन समय से उपयोग की जाने वाली एक विशेष प्रकार के लम्बे कांटे की लकड़ी से निर्मित ककई (देशी कंघी) बाल कोरने की वस्तु के दांते को दिया (दीपक) के लौ में सेंक कर अर्क में डुबाया जाता है.  इस प्रक्रिया से ककई के दांते मजबूत तथा फंगस, बैक्टीरिया व कीटाणु रहित बनाया जाता है. इससे कंघी करते समय शिर में खंरोच लगने पर किसी प्रकार का घाव बनने का विकार पैदा होने की स्थिति निर्मित नहीं होती है. इस ककई का निर्माण और उपयोग अभी भी ग्रामीण दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले गोंड, बैगा, माडिया, मुरिया आदि जनजातियों द्वारा किया जाता है. अब आदिम जनों द्वारा निर्मित ककई (देशी कंघी) धीरे धीरे विलुप्त हो रहा है, तथा म्युजियमों में आदिम वस्तुओं का इतिहास बनकर देखा जा रहा है.

(झ) आदिम समाज आदिम काल से विभिन्न प्राकृतिक व संक्रमंकारी महामारी जैसे आपदाओं का सामना करते आया है. इन आपदाओं से समुदाय को बचाने के लिए उनके प्रमुखों ने अनेक प्रकृतिसम्मत, विज्ञानसम्मत जल एवं वायु प्रवाहन विधान (तर्पण विधि- जल और वायु के माध्यम से औषधि का प्रवाह करना) विकसित किये हैं.

     इस विधि में आदिम जनों के गायता पुजारी के द्वारा अपने ग्राम समुदाय की विभिन्न महामारी, संक्रामक बीमारियों से सुरक्षा के लिए ग्राम के पेन ठानाओं से अर्क तर्पण (जल एवं वायु प्रवाहन) का कार्य किया जाता है. इसके पश्चात परिवार प्रमुखों द्वारा अपने अपने घरों में अर्क तर्पण का कार्य किया जाता है ताकि परिवार को संक्रमण से बचाया जा सके.

(यं) पेन जात्रा, पेन मड़ई, पेन पडुंम आदि भारी जन समुदाय वाले आयोजनों में आसवित इरूक अर्क "दान्ड़गो" का तर्पण किया जाता है. समाज के गायता पुजारियों और जन प्रमुखों का मानना है कि वे इस प्रकृतिसम्मत, विज्ञानसम्मत आदिम सांस्कारिक अर्क तर्पण विधि (जल एवं वायु प्रवाहन विधि) से अपने समुदाय को विभिन्न संक्रामक बीमारियों से बचाने के लिए ऐसे आयोजन उनके पुरखों के द्वारा सदियों से करते आ रहे हैं.

इरुक अर्क का दुरूपयोग एवं हानि-


     जीवन उपयोगी सामग्रियां एक निश्चित मात्रा में जीवन दायिनी हैं. चाहे वह भोजन हो या औषधि. भूतकाल में इरुक पुष्प आदिम मानव जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण, उपयोगी तथा जीवन दायिनी रहा. आज भी उतना ही महत्वपूर्ण, उपयोगी. जीवन दायिनी और पवित्र माना जाता है. आधुनिकता के साथ इसका दुर्गुण और दुरूपयोग सामने आया है. अर्क की सीमित मात्रा जहां अनेक रूप में औषधीय गुण हैं. वहीँ अधिक सेवन नशीला और निश्चेतक भी है. आधुनिक स्वरुप में इसे एल्कोहलीय या शराबीय गुण कह सकते हैं. भागदौड़ भरा आधुनिक प्रतियोगी जीवन सायद इसके उपयोग के मायने बदल दिए हैं.

     वर्तमान में इसका उपयोग शराब के रूप में किया जाता है. इसकी व्यावहारिकता और उपयोग बदनाम से परिपूरित है. इसके उपयोग की मानसिकता बदल चुकी है. कोई गम भुलाने के लिए पीता है तो कोई दुःख भुलाने के लिए पीता है. कोई दर्द दूर करने के लिए पीता है तो कोई ख़ुशी जाहिर करने के लिए पीता है. औषधि का ऐसा सर्वहारा स्वरुप हमने कभी नहीं देखा. इसे एक बार पीने के बाद बार बार पीना चाहते हैं. मेडिकल चिकत्सा की दवाईयों को एक बार खाने के लिए कतराते हैं, किन्तु इसे दुःख, दर्द, गम, ख़ुशी के नाम पर अचेत होते तक पीते हैं और मर भी जाते हैं. ऐसा मनभावन, लोक लाज का बंधन तोड़ने वाला गुणधारक इरुक निसंदेश एक सर्वव्यापी औषधि है !!

एक ओर इरुक पुष्प का अर्क (दान्ड़गो/दारू) ग्रामीण स्तर पर सदियों से अच्छे गुणों के साथ बुराई को लेकर पनप रहा है वही आधुनिक अंग्रेजी शराब भी शहर से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर अपने विकराल विनाशकारी स्वरुप पसार रहा है. दोनों ही उपयोगिता में दानव का रूप ले रहे हैं. अंग्रेजी चिकत्सा की दवा जिसे खिलाने, पिलाने के लिए घर के सदस्य मरीज को बार बार याद दिलाने के बाद भी मुह फेरता है. वहीँ मयखाने में, जहां स्वस्थ मानव विचित्र तरह के बीमारियों से छुटकारा के लिए जाता है. सेवन करते ही दुःख दर्द, ख़ुशी, प्रेम, शक्तिशाली, बलशाली, उदार, सामाजिकता, धार्मिकता, अमीरता, दानवीरता, मित्रता, राष्ट्रीयता, ....... के गुण सभी उसमे उभर आते हैं. यह प्रक्रिया देश के सभी अमीर, गरीब और मयखानों की निरंतरता बन चुके हैं. शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के मयखानों का स्तर और प्रकार कुछ अलग अलग हैं, किन्तु उपयोग के पश्चात दिखने वाला व्यवहार एक सामान हैं.


     महुए से प्राप्त किये जाने वाले अर्क (दान्ड़गो/दारू) की अधिक मांग के कारण ग्रामीणजन इसको व्यवसायिक रूप में अपना लिए हैं. आदिम जनों के लिए सरकारी प्रतिबंधात्मक नीति की उदारता से इस मामले में ग्रामीणजन ज्यादा लाभ उठा रहे हैं. अधिकतर परिवार अभी भी परीश्रम करके बमुश्किल भोजन, बच्चों की शिक्षा, कृषि सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ती करते हैं. उन्ही लोगों के बीच दारु सेवन आदत में तब्दील हो चुकी है. वर्तमान परिवेश में इसके निरंतर बढ़ते दुरूपयोग से परिवार, समाज, संस्कृति और देश की नैतिक मूल्यों पर दाग लग रहा है. इसके विकृत लक्षण निश्चित ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक चरित्र और अधिकतर ग्रामीण समुदायों की आर्थिक स्थिति को गंभीर क्षति पहुंचा रही है. यह समाज के लिए अत्यंत निंदनीय, चरित्र हीनता, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक ..... विनाश का कारण बन गया है.


(1) दारु/शराब शारीरिक, मानसिक व आर्थिक रूप से अत्यंत नुकसानदेह है.

(2) अधिक उपयोग चरित्र विनाशक और जानलेवा है.


(3) मानसिक संतुलन बिगाड़ देता है, जिससे नैतिक और अनैतिकता की बुद्धिमता समाप्त हो जाती है.

(4) अपने परीश्रम की अधिकतर कमाई इसमें खर्च कर देते हैं, जिससे परिवार को आर्थिक तंगी व गरीबी का सामना करना पड़ता है.


(5) परिवार के एक सदस्य के द्वारा इसका उपयोग किये जाने से इसका दुष्प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है.


(6) जिस घर में सतत निर्माण व उपयोग किया जाता है, उस घर के सदस्यों को समाज का अनपेक्षित व नकारात्मक व्यवहार सहना पड़ता है, जिससे परिवार के लोग गंभीर अवसादग्रस्त हो जाते हैं.


(7) बड़ों को देखकर बच्चे भी इसका अनुकरण करने लगते हैं, जो भविष्य को जानबूझकर मौत के मुह में धकेलने के समान है.


(8) इसका सतत विनिर्माण और उपयोग किये जाने वाले ऐसे परिवार में बच्चों की शिक्षा व गुणवत्ता पर अत्यधिक विपरीत प्रभाव पड़ता है.


(9) अपने हित लाभ के लिए एक निर्माणकर्ता सैकड़ों परिवार की बर्बादी का कारण बनता है.


(10) विद्यार्थियों और युवाओं में इसकी बढती प्रवृति के कारण शैक्षणिक संस्थान भी इसके प्रभाव से परे नहीं बचे हैं.


(11) युवा वर्ग इसे शक्ति, मौज मस्ती, कमाल धमाल का प्रमुख साधन मान लिया है, जिसके कारण देश में रोड दुर्घटनाएं, मार पीट और ह्त्या की घटनाओं में वृद्धि हो रही है.


(12) आज इसके बढ़ते व्यवहार के कारण देश का युवा वर्ग अत्यधिक ग्रषित हो रहा है, जिससे उनकी मानसिक व शारीरिक श्रमशक्ति और विनिर्माण क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है.


(13) सरकार द्वारा अधिक अंग्रेजी बार लायसेंस जारी कर आर्थिक स्तर को सुदृढ़ तो कर रही है परन्तु दूसरी ओर इससे अनेक सामाजिक और मानवीय नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है.


(14) शहरी बारों का विस्तार होने से अपराधिक प्रवृतियां बढ़ रही हैं. चोरी, डकैती, लूटमार, महिलाओं के साथ छेड़ छाड़, बलात्कार और अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही है.


(15) देश में घटित होने वाले विभिन आपराधिक घटनाओं के लिए अन्य नशीली पदार्थों के साथ शराब भी प्रमुख कारक है.


(16) इसका बिना लायसेंस व्यवसायिक रूप से निर्माण पर प्रतिबंध है, जिसके तहत दंड के प्रावधान है. इसका पालन नहीं कराये जाने के कारण इसका सेवन कर मानव समाज अपनी बर्बादी की ओर तीव्रता से बढ़ रहा है. 

इरुक फल (बीज/टोर) की उपयोगिता-

महुआ बीज/गुल्ली

     महुआ फल (बीज), पुष्प की तरह अत्यंत महत्वपूर्ण व जीवनोपयोगी है, किन्तु इसका उपयोग सीधे तौर पर खाद्य रूप में नहीं किया जाता है. यह तेल संधारक बीज है, इसलिए इसका आदिम काल से तेल के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है. इसका तेल स्वास्थ्य वर्धक, एंटीबायोटिक, एंटिसेप्टिक प्रकृति का होता है. इरुक फल आदिम काल से आदिमजनों की खाद्यतेल, औषधि व विभिन्न आवश्यकताओं में उनके जीवन की रक्षा करते आया है.

(1) इसका तेल आदिम काल का अत्यधिक उपयोगी और जीवन निर्वाही साधन रहा है. बीज का तेल निकाल कर खाद्य तेल के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है अब भी प्रयुक्त किया जाता है.

(2) घर का अँधेरा दूर करने के लिए तेल का दिया, चिराग चलाने के लिए किया जाता रहा है अभी भी प्रयुक्त किया जाता है. आदिम काल से घर का अँधेरा दूर करने के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ है.


(3) एंटीबायोटिक, एंटिसेप्टिक होने के कारण शरीर में लगाने के लिए अत्यंत गुणकारी है. त्वचा को मुलायम बनाता है और निखार लाता है.


(4) बालों में लगाने से मजबूत होते हैं और बालों का झड़ना रोकता है. रूसी नहीं होते.


(5) विभिन्न प्रकार के आधुनिक तेल, साबुन और शैम्पू बनाने के लिए बीज और खली (तेल निकलने के बाद बचा पदार्थ) का उपयोग किया जाता है.


(6) खली का उपयोग खेतों की स्थाई पानी में विकसित होने वाले हानिकारक बैक्टीरिया, फंगस और कीटों को नष्ट करने के लिए कीटनाशक के रूप में किया जाता है.


(7) सूखे खली को जलाने पर उत्पन्न धुएं से मक्खियाँ भाग जाते हैं. मच्छर भगाने के लिए उपयुक्त है.


(8) जंगलों में निवास करने वालों के घरों में सर्प का प्रवेश करना आम बात है. इसकी सूखी खली को जलाकर धुएं के माध्यम से घर में घुसे किसी भी प्रकार के सर्प को आसानी से भगाने के लिए आदिम काल से प्रचलित है. सर्प को बिना नुकसान पहुंचाए घर से बाहर निकालने का यह आसान तरीका है. इसलिए ग्रामीण जन इसकी खली अपने घरों में हमेशा रखते हैं.

इरुक आदिम जनों का आर्थिक साधन-

     आदिम काल से वन फसल आदिम जनों के जीवन निर्वाही साधन होने के साथ साथ उनके आर्थिक स्रोत रहे हैं. इरुक आदिम जनों के खाद्य रूप में होने के साथ ही आर्थिक स्रोत का साधन रहा. अभी भी ग्रामीण आदिम जनों के लिए इरुक बसंत की प्राकृतिक स्वफसल रुपी जीवन अमृत के नाम से विख्यात है. खेत में उगाये जाने वाले फसलों के लिए अत्यधिक शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है. फसलों को खेतों में बोने के पश्चात खाद, पानी व सुरक्षा के लिए अतिरिक्त धन खर्च करना पड़ता है. इसके विपरीत प्राकृतिक स्वफसल होने के कारण इरुक पुष्प और फल को प्राप्त करने के लिए लम्बे समय तक परीश्रम, रखवाली की आवश्यकता नहीं होती है. इससे समय और धन दोनों की बचत होती है. पुष्प और बीज का अन्य फसलों के साथ व्यवहार विनिमय किया जाता है. यह आदिम युग से ही समाज का आर्थिक स्रोत रहा है. अभी भी विभिन्न आवश्यकताओं के लिए इसका क्रय विक्रय कर आदिम समाज आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती करता है.


     इरुक फसलों के दिव्य गुणों के कारण विभिन्न मानव उपयोगी संसाधन, महत्वपूर्ण दवाईयां, एंटीसेप्टिक, एंटीबायोटिक, साबुन, क्रीम, जेल, तेल, पशु चारा आदि के निर्माण हेतु इनकी मांग बढ़ रही है. वहीँ दूसरी ओर जंगलों के तेजी से विनास के कारण इनका संग्रहण घट रहा है. सरकारों के ग़रीबों को दिए जाने वाला सस्ता अनाज इसके संग्रहण कार्यों को काफी प्रभावित कर रहा है. इनका संग्रहण करने वाले केवल जंगलों में रहने वाले, गांवों में रहने वाले ग्रामीण जन ही हैं. उन्हें वर्तमान आधुनिक वैज्ञानिक युग में इसकी विभिन्न मानव महत्ता, मांग व बहुमूल्यता की जानकारी नहीं है. इसका फायदा उठाते हुए वर्तमान में व्यापारी वर्ग इन फसलों को ग्रामीणों से सस्ते में खरीदकर भारी मुनाफा कमा रहे हैं. इस कारण से इन फसलों का व्यापार करने वाले व्यापारी वर्ग दिन दुगनी रात चौगुनी आर्थिक संपन्नता प्राप्त कर रहे हैं.

     इरुक फसल के साथ सभी प्रकार के वन फसलों का संग्रहण, व्यवहार विनिमय और खरीदी बिक्री का अधिकार आदिम जनों को दिया जाना चाहिए, जिनके वे आदिम काल से वास्तविक हकदार हैं. राज्य सरकारों द्वारा सभी प्रकार के वन फसलों के लिए सालाना वास्तविक मूल्य निर्धारण किया जाना चाहिए. मूल्य निर्धारण की जानकारी राज्यों के राजपत्र में प्रकाशन कर ग्राम पंचायत व ग्रामसभा के माध्यम से ग्रामीण जनों तक पहुचाई जानी चाहिए. इससे ग्रामीण जनों में पेड़ों, वनों की सुरक्षा की भावना प्रबल होगी. वहीँ प्रकृति व पर्यावरण के बिगड़ते स्वरुप को रोकने में मदद मिलेगी.

भविष्य की संभावनाएं

     

     महुआ आदिम काल से जीवनदायी फसल रहा है. इसका अनेक तरह से उपयोग इसकी महत्ता को स्वयं ही बयां करता है. भविष्य में इसके पुष्प एवं बीज का वैज्ञानिक तरीके से विभिन्न तरल एवं ठोस उपयोगी सामग्री निर्माण के लिए संभावनाएं प्रबल है.


(1) पुष्प और बीज का उपयोग विभिन्न प्रकार के खाद्य सामग्री और औषधियों के रूप में ग्रामीण जीवन में अभी भी प्रचलित हैं. इनका वैज्ञानिक तरीके से अनेक आधुनिक चिकित्सा औषधियों का निर्माण किया जा सकता है.


(2) पुष्प से आसवन विधि से निकाले जाने वाला अर्क रंगहीन, धुंआ रहित ज्वलनशील तरल पदार्थ है. वर्तमान में उपयोग किये जाने वाले आधुनिक वाहन इंधन से पर्यावरण प्रदूषण की स्थिति भयावह होती जा रही है. ऐसी स्थिति में इसका वैज्ञानिक परिशोधन कर प्रदूषण रहित वाहन इंधन का निर्माण किया जा सकता है.


(3) विभिन्न वन फसल प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. इन वन फसलों का वैज्ञानिक तरीके से देश में ही विभिन्न उपयोगी सामग्रियां निर्माण कर उपयोग किये जाने से सस्ते दाम में उपलब्ध हो सकते है. जीवन को पोषित करने वाले ऐसे पेड़ पौधों के प्रति जन समुदाय में संरक्षण की भावना प्रबल होगी. इससे जीवनदायी पेड़ों की कटाई से बचाई जा सकती है.


(4) पेड़ों का संरक्षण ही पर्यावर्णीय और प्रकृति संरक्षण है. पेड़ों का संरक्षण कर पर्यावरण प्रदूषण और प्रकृति के जीवन उपयोगी संसाधनों के विनाश को रोकने के लिए मदद मिलेगी.



श्री नारायण मरकाम (केबीकेएस)
                                                                                                                              ==००==

सन्दर्भ : (1), (2) एवं (3) भारत मुक्त ज्ञानकोष