गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

अगर भगवान् ने हमें बनाया, तो भगवान् को किसने बनाया ?

ब्रम्हांड / सृष्टि का निर्माण किसने किया, यह एक अनसुलझा / रहस्य है. सभी धर्मों में, सभी समाजों में, एक ईश्वर, गाड, अल्लाह, को स्वीकार किया गया है,  जिसने पृथ्वी, आकाश, समुद्र, सभी जीव, निर्जीव, प्राणी, वनस्पतियों की रचना की. यद्यपि ऐसी किसी शक्ति के अस्तित्व में होने का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलता है. अगर यह मान लिया जाय कि ब्रम्हांड का निर्माण भगवान ने किया, तो यह प्रश्न उठना वाजिब है कि भगवान को किसने बनाया, वह कहाँ से आया. अभी हाल में महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग ने अपनी पुस्तक Grand Design में कहा है कि सृष्टि, ब्रम्हांड, जीवन का निर्माण (Creation) स्वतः भौतिक शास्त्र के नियमों के अनुसार हुआ है. यह तो पता नहीं कि भगवान है कि नहीं, लेकिन अगर स्टीफन हाकिंग की बात माना जाए तो सृष्टि, ब्रम्हांड के निर्माण में भगवान की कोई भूमिका नहीं है.

हिन्दू शास्त्रों में भी कहा गया है कि शिव जी की उत्पत्ति भी स्वतः हुई है. इसीलिए उन्हें स्वयंभू या शंभू कहा गया है. स्वतः स्फूर्त उत्पत्ति (Self creation) का सिद्धांत हमारे यहाँ पहले से मौजूद है. यह सिद्धांत स्टीफन हाकिंग के सिद्धांत से मेल खाता है. एक अदृश्य महाशक्ति अस्तित्व को भी सभी धर्म स्वीकार करते हैं. इस्लाम में अल्लाह, क्रिस्चिऐनिटी में गाड और हिन्दुओं में अनेकों देवी देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है. यद्यपि इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नही मिलता है. हिन्दुओं में मुख्य रूप से ब्रम्हा, विष्णु, महेश को मान्यता प्राप्त है. इसके अतिरिक्त 33 कोटि देवी देवताओं के अस्तित्व में होने की बात स्वीकार की गई है. हिन्दुओं में सभी देवी देवताओं को कल्पना के मुताबिक शारीरिक आकार प्रकार दिया गया है. यह शायद इसलिए है कि साधारण आदमी के लिए आकार विहीन किसी अदृश्य शक्ति की कल्पना कर पाना मुश्किल कार्य है. यद्यपि भगवान है कि नहीं, इस बारे में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है और न तो इसको प्रमाणित या गलत साबित किया जा सकता है, फिर भी किसी भी रूप में भगवान के अस्तित्व में विश्वास करना विशुद्ध रूप से आस्था का विषय है. किसी की भी आस्था पर प्रश्न नही उठाया जाता है. किसी की आस्था को चोट पहुंचाना घृणित कार्य है.

अगर कर्मकांड, पूजा पद्धति को छोड़ दें तो ऐसे बहुत से सिद्धांत हैं जो सब धर्मों में समान हैं. झूठ नही बोलना, सहिष्णुता, चोरी नहीं करना, ग़रीबों पर दया करना आदि ऐसे बहुत से सिद्धांत हैं, जो सामान रूप से सभी धर्मों में सर्वमान्य है. समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए इन नियमों की उपयोगिता है. इन सिद्धांतों का पालन कराने में भगवान के डंडे का डर हमेशा ही बड़ा उपयोगी साबित होता है.

कर्ता (Creator) को सभी धर्मावलम्बी अलग अलग नामों से पुकारते हैं. ऐसे किसी भगवान, अल्लाह, गाड का अस्तित्व है कि नहीं, इस पर हमेशा संशय बना रहता है. भगवान हो या न हो उसका डर ही समाज को सुव्यवस्थित रखने में बड़ा उपयोगी साबित होता है. कई बार तो देखने में आता  है कि आदमी भारी से भारी मुसीबत में हो मंदिर में जाकर 5 या 11 रूपये का प्रसाद चढ़ाने से ही मुसीबत टल जाती है. बड़ी से बड़ी मुसीबतों का इस तरह समाधान होते मैंने देखा है.

एक प्रश्न यह उठता है कि भगवान ने हमें बनाया या हमने भगवान का आविष्कार किया. अगर भगवान ने हमको बनाया तो फिर भगवान को किसने बनाया. हिन्दुओं में अगर कर्म के सिद्धांत को माना जाय तो अपने कर्मों के अनुसार ही हमें उसके परिणाम भोगने पड़ते हैं. इसका निर्धारण कौन करेगा कि अपने कर्म के अनुसार किसको क्या फल मिलना चाहिए ? इस कारण एक निष्पक्ष महाशक्ति की आवश्यकता महसूस होती है. भगवान है या नहीं, इस पर विवाद अनावश्यक है. यह न तो साबित किया जा सकता है और न तो पूरी तरह नकारा जा सकता है. इतना निश्चित है कि हमें भगवान की जरूरत जरूर है, काल्पनिक ही सही. भगवान का आविष्कार हमने इसलिए किया कि एक ऐसी शक्ति हो जिसके सर पर हम सारी जिम्मेदारी डाल दें और उसके सामने बैठकर अपने सुख-दुःख सुना सकें और उसकी कृपा के भागी बनें.

ज्ञान, अज्ञान, विज्ञान और भगवान 
ज्ञान और अज्ञान का अंतर बहुत भ्रम पैदा करने वाला है. एक ज्ञान वह है जो हमें साधू, महात्मा, उपदेशक, प्रवचनकर्ता बताते हैं. आजकल प्रवाचंकर्ताओं की बाढ़ आई हुई है. आत्मा, परमात्मा, भगवान, भगवती की बातें की जाती हैं. कहा जाता है कि यह दुनिया माया है. इस माया को छोड़कर एक अदृश्य परमात्मा, जिसके अस्तित्व के बारे में कुछ भी पता नहीं है, को प्राप्त करने में ध्यान लगाना चाहिए. सांसारिक चीजों से विमुख होकर ईश्वर में ध्यान लगाना चाहिए. मान लीजिए अगर एक ईश्वर या सृष्टिकर्ता मौजूद है तो उसने तो सृष्टि के सृजन का काम कर भी दिया, अब बार-बार उसे क्यों परेशान किया जाय. हम अपने कर्तव्य का निर्वाह क्यों न करें. जो प्रवाचंकर्ताओं को सुनने जाते हैं, वे पता नहीं कितना उनकी बातों का अनुपालन करते हैं. भगवान ने निर्धारित कर दिया है कि कर्म के अनुसार फल मिलता है, इसलिए अच्छे कर्म करो.

इतने सब प्रचार और प्रसार के बावजूद देश में अत्याचार, अनाचार, लूटमार, भ्रष्टाचार धोखाधड़ी, व्याभिचार, गरीबी, बीमारी, भुखमरी, गैरबराबरी, अराजकता, परस्पर संघर्ष बढ़ता जा रहा है. कवि नीरज जी के शब्दों में है- "कदम कदम पर मंदिर मस्जिद, कदम कदम पर गुरुद्वारे, भगवानों की बस्ती में हैं जुल्म बहुत इंसानों पर." हमारे संत, महात्मा, स्वामी, प्रवचनकर्ता, हमें पलायनवाद का उपदेश देते हैं. कहा जाता है सब कुछ छोड़कर केवल एक अज्ञात शक्ति 'भगवान', जिसके अस्तित्व का कुछ अता पता नहीं, में ध्यान लगाओ, मोक्ष और निर्वाण प्राप्त करने का यही एक तरीका है. भगवान अगर है तो क्या वे चाहेंगे कि सारा समय उनके ध्यान में बर्बाद किया जाए ? अब भगवान को क्यों बार-बार परेशान किया जाए. क्या हमारे लिए यह उचित नहीं बनता कि हम अपने कर्तव्य का समुचित निर्वाह करें. गीता को महत्वपूर्ण बताया गया है- 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.' यानी कर्म के अनुसार ही फल मिलता है. भगवान ने इसका सूत्र बना दिया है कि जैसा कर्म करोगे वैसा फल पाओगे. जाहिर है भगवान किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहेंगे. उन्होंने हमें अपने कर्म के भरोसे छोड़ दिया है.

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी राम चरित मानस में लिखा है- 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करही तस फल चाखा.' हमें अपने कर्तव्य को समझना होगा. हमें अपने दायित्व को समझना होगा. परिवार, समाज और अपने राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को निभाना होगा. दुनिया में करने को इतना कुछ है. समाज में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, बीमारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, चोरी, लूटमार, हिंसा, व्याभिचार के खिलाफ संघर्ष करने का क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता है ? मानव मात्र का दुःख दूर करना भगवान की सबसे बड़ी सेवा है. भगवान भी अपेक्षा रखते हैं कि जिस उद्देश्य की पूर्ती के लिए उन्होंने सृष्टि का निर्माण किया, जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें इस धरती पर भेजा, हम उसका निर्वाह करें. आँख मूंदकर ध्यान लगाकर माला जपने से भगवान खुश नही होंगे. हमें अच्छे कर्म करके भगवान की अपेक्षा पर खरा उतरना होगा. कोई आसान रास्ता उपलब्ध नहीं है. भगवान को चापलूसी एकदम पसंद नहीं है. भगवान का नाम रटने से हमें अपने दुष्कर्मों के फल से मुक्ति नहीं मिलेगी.

भगवान बुद्ध के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने वर्ष तक घनघोर साधना की, लेकिन उनको सिद्धि नहीं मिली. फिर उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई कि दीन दुखियों की सेवा करना ही सबसे बड़ी साधना है. वह ग़रीबों, कोढियों, बीमारों की सेवा करने में लग गए. यह है सच्चा ज्ञान.

अब आईए विज्ञान में कितना ज्ञान है इस पर विचार कर लें. विज्ञान का मतलब है विधिवत, व्यवस्थित ज्ञान, यानी 'Systematic knowledge'. विज्ञान में वही सिद्धांत स्वीकार होते हैं, जो प्रायोगिक परीक्षण में खरे उतरते हैं, जिनको साबित किया जा सकता है. जो सिद्धांत आगे चलकर गलत पाए जाते हैं, उन्हें छोड़ दिया जाता है. वैज्ञानिक अनुसंधान एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. विज्ञान प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करता है. पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा है- 'Science illuminates dark corners of life'. विज्ञान प्रकृति के रहस्यों को समझकर उनका उपयोग मानव जीवन को सार्थक बनाने के लिए करता है. आज सभ्यता जिस विकास की स्थिति में पहुंची है, वह विज्ञान की देन है. विद्युत, हवाई जहाज, रेलवे, बीमारियों के इलाज के लिए नई-नई दवाईयों और  यंत्रो  का आविष्कार विज्ञान के माध्यम से संभव हुआ है. आज विज्ञान ब्रम्हांड के रहस्यों को जानने में लगा हुआ है. मानव जीवन को सुखमय और जीने लायक बनाने में विज्ञान की मुख्य भूमिका रही है. आध्यात्मिक ज्ञान अगर तथाकथित परलोक, जिसके बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है, की चिंता करता है, तो विज्ञान इस लोक की चिंता करता है. अगर हम पलायनवाद, कर्मकांड, अंधविश्वास को छोड़ दें, तो ज्ञान और विज्ञान का समन्वय संभव है.

इससे अलग, प्रकृति के नियमों का भी हमें ख्याल रखना होगा. विकासवाद के सिद्धांत को अनदेखा नही किया जा सकता. धर्म और विज्ञान को ध्यान में रखकर हमें सामान्य व्यवहार की ऐसी मर्यादाएं स्थापित करनी होंगी. एक ऐसी लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी, जिसका सब लोग अनुपालन करें. एक स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था के लिए यह अनिवार्य है.

भगवान का स्वरुप
भगवान के अस्तित्व और सत्ता को लेकर अनेक आशंकाएं मेरे और सभी के मस्तिष्क को उद्द्वेलित करती रहती है. हमारी जानकारी के मुताबिक़ भगवान भी कई हैं. हिन्दुओं के ईश्वर या भगवान हैं, तो मुसलामानों के अल्लाह, सिक्खों के वाहे गुरु और ईशाईयों के गाड इत्यादि इत्यादि. हर तरह के भगवानों को लेकर उनके आकार प्रकार, डील डौल, लम्बाई चौड़ाई, रूप रंग, वेश भूषा, आहार विहार, व्यवहार के बारे में असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है. भगवानों को लेकर एक परिकल्पना उभरती है. हिन्दुओं में तो विभिन्न भगवानों को आकार, प्रकार, निश्चित वेश भूषा में एक विशेष रहने के स्थान में बताया जाता है. गाड को यूरोपियनों की तरह लंबा चौड़ा, गोरा चिटठा, सूट बूट, टाई हैट में और इंग्लिश बोलने वाला होना चाहिए. अल्लाह का अगर कोई भौतिक स्वरुप हुआ तो उन्हें लंबी दाढ़ी वाला, पतली मोहरी के पायजामे और कुर्ता में, तुर्की टोपी लगाए हुए अरबी, फ़ारसी या उर्दू बोलने वाला होना चाहिए. वाहे गुरु नान वेजीटेरियन होने की कल्पना की जा सकती है. हिंदू देवी देवताओं के आहार के बारे में भ्रम की स्थिति है. हिंदुओं में एक मायने में स्थिति बेहतर है कि देवियों को भी उचित स्थान दिया गया है. उनकी अनदेखी नहीं की गई है. कभी कभी तो देवियाँ देवताओं पर भी भारी पड़ती हैं. समस्या हिंदू देवी देवताओं की जनसंख्या को लेकर आती है.

ये असख्य है. इनकी असली जनसंख्या पता कर पाना लगभग असंभव है. बताया जाता है कि हिन्दू देवी देवताओं की संख्या 33 कोटि या करोड़ है. मगर मान भी लिया जाय कि हिंदू देवी देवताओं की जनसंख्या स्थिर है, तो भी इतनी बड़ी जनसंख्या की बिजली, पानी, सड़क, परिवहन, ऊर्जा, स्वास्थ्य, शिक्षा, क़ानून व्यवस्था, आवास की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित प्रबंधन कर पाना निश्चित ही अत्यंत दुरूह कार्य होगा. इतनी बड़ी जनसंख्या का आवास कहाँ होगा, यह भी रहस्यमय है. इनकी जीवन मृत्यु भी होती है कि नहीं, बीमार पड़ने पर चिकित्सा की क्या व्यवस्था होती होगी, यह सब रहस्यमय है. हमारे देवी देवताओं के आवास एवं परिधान को लेकर भी विचित्र स्थिति है. हमारे सभी देवी देवताओं को रत्न जटित सोने का मुकुट पहना दिया जाता है. भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शैया पर विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही हैं, मानो विष्णु जी के पास विश्राम करने के अलावा कोई काम ही न हो. शिव भगवान बिच्छु, सांप लपेटे कैलाश पर्वत पर विराजमान हैं. कई देवी देवता पहाड़ की गुफा/कन्दरा में रह रहे हैं.

स्वर्ग और देवताओं के राजा इंद्र हैं. इंद्र सबसे कायर और डरपोक देवता हैं. राक्षसों द्वारा हमला किए जाने पर ये कभी विष्णु जी, कभी शिव जी और कभी दुर्गा जी की शरण में हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं. हमारे देवताओं के पास आधुनिक वाहनों का भी अभाव है. विष्णु जी गरुण की सवारी करते हैं तो शिव जी नंदी की. इंद्र ऐरावत हाथी की सवारी करते हैं. शायद यही कारण है कि ये जरूरत के वक्त जरूरत की जगह पर नहीं पहुँच पाते. भगवान जी जिस तरह से दुनिया का प्रबंधन कर रहे हैं, उससे ज्यादा आशावान नहीं हुआ जा सकता. भगवान जी का संसार का प्रबंधन बहुत ही खराब है. संसार में चारों ओर अराजकता, अत्याचार, अनाचार, चोरी, लूटमार, ह्त्या, व्याभिचार, भ्रष्टाचार का बोलबाला है. भगवान जी की प्रबंधन क्षमता पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगता है. ईश्वर, अल्लाह, गाड, वाहेगुरु, और अन्य सभी भगवानों के पारस्परिक संबंध, आपसी व्यवहार कैसा होगा, यह भी विचारणीय हैं. ये लोग जब आपस में मिलते होंगे तब किस भाषा में, क्या बात करते होंगे ? आशा है इनके आपसी संबंध सुमधुर और सौहार्द्रपूर्ण ही होंगे. बाक़ी भगवान जाने.


डॉ.एस.शंकर सिंग
नव भारत टाईम्स (ब्लॉग)
दिनांक 05 दिसंबर, 2012 से साभार

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

शैतान, आधुनिक मानव समाज और आदिवासी

हमने MSG-2 फिल्म का टाईटल देखा है. इसमें मुख्य पात्र की भूमिका में बाबा राम रहीम द्वारा आदिवासियों के प्रति यह संवाद बोला गया है- “ये इंसान हैं न ही जानवर, ये शैतान हैं शैतान”. बाबा राम रहीम ने IBC 24 के साक्षात्कार में यह भी कहा है कि ‘वे 2001-2002 में छत्तीसगढ़ आये थे. उन्होंने घने जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को बदन पर पत्ते लपेटे हुए, जिन्दा जानवर का कच्चा मांस खाते हुए देखा था. अभी भी वे मध्य युगीन जीवन जी रहे हैं. इसलिए उन्हें शैतान कहना गलत नहीं है.’ तो सही क्या है, आधुनिक नंगापन ? जो आधुनिक कलाकारी की चादर ओढ़कर पैसे वाले और अधिक पैसे कमाने के लिए अपने कमर के कपड़े उतारते हैं !! धन कमाने के लिए एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के खून का प्यासा है !! हवस मिटाने के लिए एक भाई दूसरे भाई के बहन की आबरू का प्यासा है !! आधुनिक समाज में ऐसे भी संत महात्मा हैं, जो बिना वस्त्र धारण किए समाज को उपदेश दे रहे हैं, पवित्र नदियों में शाही स्नान कर रहे हैं. यह आधुनिक समाज का कौन सा चेहरा है !! उन्हें शैतान कहने की हिम्मत है ?

मै यह समझता था कि जो सभी सामान्य मनुष्य को समझमे नहीं आता, नहीं दिखता, वह संत महात्मा देख लेते हैं, समझ लेते हैं. मानवता को देखने के उनके अपने दिव्य ज्ञान, नजरिये, समझ, भिन्न सिद्धान्त और दर्शन होते हैं. किन्तु मेरी यह सोच मिथ्या साबित हुई. आदिवासियों के जिस जीवन पद्धति को देखा और दिखाया गया, राम रहीम जी के दर्शन में यही सबसे बड़ी कमी है. आदिवासी अब तक इस तरह का जीवन क्यों जी रहे हैं ? बस्तर, छत्तीसगढ़ और देश के अन्य आदिवासी राज्यों का नक्सलवाद केवल और केवल उन नंगे, भूखे आदिवासियों के खून का प्यासा क्यों है ? इसके लिए जिम्मेदार तथ्य क्या हैं ? इस पर विचार किये होते. इन तथ्यों पर विचार करने के लिए किसी धर्मग्रन्थ, गुरु ग्रन्थ और गुरु वाणी की आवश्यकता नहीं होती है. केवल मानवीय अंतर्मन ही इसे देख सकता है और दिखा सकता है. किन्तु राम रहीम जी जो दिखा रहे हैं, इसे कहते हैं “दिया तले अँधेरा.” जो संत महात्मा अपनी सांस्कारिक वाणी से आधुनिक मानव समाज में संस्कार और सभ्यता की रौशनी फैला रहे हैं, उनके अंतर्मन में दूसरे मानव समुदाय के प्रति कितना अँधेरा और मैला भरा है, यह उसका प्रस्तुतिकरण है. मै समझता हूँ कि इसके निदान पर विचार कर देश को मार्गदर्शन करना, दुनिया को सीख देने वाले संत महात्माओं की भी जिम्मेदारी बनती है. किन्तु किसी समुदाय विशेष की कमियों को परदे पर घृणित रूप में गाली देकर नवाजा जाए, यह संत महात्माओं के लक्षण नहीं हैं.

सभी धर्मों के महापुरुषों ने भविष्य में अपने अपने समुदाय विशेष के जीवन पद्धति को विकसित कर पिरोये रखने के लिए तर्कपूर्ण धर्मग्रंथ गढ़े. तर्क केवल तर्क है तथा सत्य केवल सत्य. दोनों के अपने अपने गुण अपने अपने मार्ग हैं. तर्क सत्य की खोज कर सकती है, किन्तु अतिसंयोक्तिपूर्ण, अतिउत्साही तर्क की आँखें सत्य को नहीं ढूँढ सकती. धर्मग्रंथों में महापुरुषों ने अपने अपने मातृ पित्रपुरुषों की गाथाओं का अतिसंयोक्तिपूर्ण चित्रण किया. आधुनिक समाज इन्ही धर्मग्रंथों को आधार बनाकर अपने अपने समुदाय को मार्गदर्शन देने के प्रयास में हैं. इन धर्मग्रंथों में से कई ऐसे धर्मग्रन्थ हैं, जिनमे मानव का मानव के प्रति अनेक विकृत गाथाएँ भी हैं. जानवर, दैत्य, दानव, भूत, पिशाच, राक्षस के अवगुणी चेहरे और चरित्र दिखाए गए हैं. इन्ही जानवर, दैत्य, दानव, भूत, पिशाच, राक्षस आदि से लड़ाई कर विजय होने की गाथा का चित्रण, फिल्मी परदे पर विभिन्न चमत्कारिक तकनीकीपूर्ण आधुनिक तरीके से प्रचार प्रसार करने की होड़ लगी हुई है. देश में एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य की, एक परिवार से दूसरे परिवार की, एक समुदाय से दूसरे समुदाय की, एक जाति से दूसरे जाति की, एक धर्म से दूसरे धर्म की सामाजिक, सांस्कारिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक प्रदर्शन की बढ़-चढ़कर प्रतियोगिता हो रही है.

युगों से जानवर, दैत्य, दानव, भूत, पिशाच, राक्षस कहलाने वाले कुछ आदिवासी, अपनी प्राचीन मूल प्राकृतिक आस्था, जीवन दर्शन, संस्कृति, परम्परा, पद्धति को भूलकर, आधुनिक आदिवासी मुखौटा पहनकर, इन प्रतियोगिताओं में हिस्सेदारी निभाने की ओर तत्परता से अग्रसर हो रहे हैं. यह इस बात का प्रतीक है कि अब आधुनिक विकास का चोला ओढ़ने वाले आदिवासी अपनी प्राचीन मूल प्राकृतिक आस्था, जीवन दर्शन, संस्कृति, परम्परा, पद्धति को समृद्धि, विकासमूलक और प्रेरक बनाने के बजाय दूसरों की काल्पनिक आस्था, जीवन दर्शन, संस्कृति, परम्परा, पद्धति की फेंकी हुई चमत्कारिक जूती पहनने के लिए तैयार हैं.

आदिवासी समाज के कई मूर्धन्य साहित्यकार, समाज सेवी, पत्र पत्रिकाओं, चौपालों, मंडलियों के माध्यम से समाज को मार्गदर्शन करने के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिए. अब उन साहित्यकारों, समाज सेवियों के जीवन की कुर्बानी रंग ला रही है. इसी का परिणाम है कि अब आधुनिक परिवेश के आदिवासी युवाओं में अपनी प्राचीन मूल प्राकृतिक आस्था, जीवन दर्शन, संस्कृति, परम्परा, पद्धति की ओर जिज्ञासा जाग रही है. ऐसे समाज के भावी नवनिर्माताओं के लिए आधुनिक मानव समाज के प्राचीन ग्रन्थ, इतिहास, साहित्य, उनमे नीहित चमत्कारिक गाथाएँ, आस्था, आध्यात्म, दर्शन, आधुनिक समाज की आधुनिक विकास, नक्सलवाद और आदिवासी अस्तित्व, आस्था, आध्यात्म, जीवन दर्शन, संस्कृति, परम्परा, बोली भाषा, विकासमूलक, प्रकृति संरक्षण जैसे अनेक विषयों पर प्रकाश डालना चाहूंगा.

भारतीय संविधान में आदिवासी शब्द की महत्ता नहीं मिलती है, किन्तु किसी आधुनिक साहित्य में आदिवासी शब्द की केवल उपस्थिति ही प्रथमदृष्ट्या यह बोध कराता है कि अदिवासी, आदि और अनंतकाल से इस धरा का निवासी, स्वामी रहा है. युगाद्भव का प्रारंभी आदिम मानव जीवन शुरू करने वाला आदिवासी है. यह ऐतिहासिक अर्थजन्य नाम उसका अविरल जीवन दर्शन और संघर्ष का दर्पण रहा है. इस अगाध प्रकृति के स्वरूप में जो चल-अचल, चर-अचर, गतिमान, जीव-जंतुओं, पदार्थों के साक्ष्य रूप में उपस्थित विभिन्न गुणधर्म में जीवन तत्व की जानकारी हासिल की. जीवन की प्रारम्भिक आहार से लेकर स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों से अपना जीवन संरक्षण का मार्ग विकसित किया. यहीं से आदिवासियों ने बेनाम विज्ञान को जन्म देकर बाल्यकाल की ओर अग्रेषित किया. प्रकृति की मिट्टी, पानी, हवा, ताप, वनस्पति, जीव उनके जीवन निर्भरता के प्रथम पहचान बने. इसलिए सृष्टीगत निर्मित गतिमान एवं स्थिर मिट्टी, पानी, हवा, ताप, वनस्पति, चल-अचल, चर-अचर, जीव-जंतु, पशु-पक्षी आदि के प्राकृतिक गुणधर्म उनके अग्रेत्तर जीवन पद्धति में विलीन हो गए. प्रकृति के गुणों के साथ मानव जीवन पद्धति का समाहीकरण ही आदिवासियों का प्रकृतिवादी जीवन दर्शन, साक्षात ईश्वर स्वरुप रहा है और है.

प्रकृति संगत जीवन जीने वाले, भद्दे दिखने वाले, जंगल में रहने वाले, अवगुणी कहे जाने वाले आदिवासियों से जमाने के विकसित मनुष्य को किस बात का डर ? वही खाली हाथ, वही नंगा बदन, वही मिट्टी, वही नदी का पानी, वही हवा, वही जंगल, वही घासफूस और लकड़ी की झोपड़ी, साथ में उनके जीवन निर्वाह के साथी गाय-भैंस, भेड़-बकरी, कुकरी-मुर्गी आदि के साथ अभी भी न्यूनतम जीवन आवश्यकताओं में अपना जीवन निर्वाह कर रहा है. अब तक उनके जीवन निर्वाह के प्रकृतिगत साधन एवं सिद्धांतो पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है. बिना किसी व्यवसाय, मदद के प्रकृति में न्यूनतम उपलब्ध संसाधनों से जीवन का संतोष प्राप्ति का उदाहरण बनकर, इस धरती पर कोई मानव समुदाय अपना अस्तित्व बचाया है, तो वह है आदिवासी. इस तरह का संतोषी जीवन जीने वाला किसी विकृत मानवीय परिपाटी का प्रतिभागी नहीं हो सकता.

आदिवासियों में सृष्टि के सृजन/निर्माण/उत्पत्ति संबंधी उनकी अपनी मान्यता/सिद्धांत है. उनके पास सृजन/निर्माण/उत्पत्ति के सम्बन्ध में सरल उदाहरण हैं. उनकी मान्यता है कि सृष्टि की उत्पत्ति भी माता और पिता के गुणों के संयोग से ही हुई है. वे यह भी मानते हैं कि कोई भी दो घटक, जिनमे मातृत्व और पितृत्व गुण हों, वे ही किसी तीसरे स्वरुप का सृजन कर सकते हैं. इन दो घटकों के संयोजन के बिना किसी तीसरे पदार्थ/वस्तु/घटक/स्वरुप का सृजन/निर्माण/उत्पत्ति संभव ही नहीं है. ऐसे दो विपरीत गुणधारी घटक, जिनमे आकर्षण और समायोजन के गुण हों, उन्ही घटकों में मातृत्व और पितृत्व/सृजन के गुण पाए जाते हैं. कोई भी तरल व ठोस पदार्थ/वस्तु/घटक/स्वरुप जिनमे आकर्षण, प्रतिकर्षण और समायोजन के गुण/लक्षण निहित हों, वे ही किसी तीसरे पदार्थ/वस्तु/घटक/ स्वरुप का सृजन, विकास या विघटन करते हैं. उसी तरह आकर्षण, प्रतिकर्षण और समायोजन से उत्पत्ति, विकास और विनाश, आदिवासियों के जीवन दर्शन का आधार है. आकर्षण, प्रतिकर्षण और समायोजन, सृष्टि निर्माण और संतुलन का सिद्धांत है. इन्ही मातृत्व और पितृत्व गुणधारी घटकों के संयोजन से सृष्टि और उसके विभिन्न स्वरुपों/संसाधनों का सृजन हुआ है. उनका मानना है कि सृष्टि का निर्माण इन्ही आकर्षण, प्रतिकर्षण और समायोजन के गुणों के कारण व्यवस्थित हैं. सृष्टि के समस्त घटक आकर्षण, प्रतिकर्षण और समायोजन के गुणों के कारण ही अपनी अपनी जगह पर स्थापित तथा गतिमान होकर संतुलन बनाए रखे हुए हैं.

आदिवासियों में सृष्टि और जीव के सृजन संबंधी एक ही विधान है. गोंड आदिवासियों के जीवन दर्शन में “सल्ले-गांगरे” का उल्लेख मिलता है. सल्ले-गांगरे को हिंदी में “बड़ादेव” कहा जाता है. बड़ादेव जो सृजन करता है, बड़ादेव जो विनाश का स्वरुप है. जो दृश्य/अदृश्य किन्तु सर्वशक्तिमान है. गोंडी में “सल्ले” का अर्थ होता है अदृश्य धनात्मक शक्ति/पितृत्व गुणधारी/पिता. “गांगरे” का अर्थ होता है अदृश्य ऋणात्मक शक्ति/मातृत्व गुणधारी/माता. इस तरह सल्ले-गांगरे पितृत्व और मातृत्व गुणधारी दो शक्तियां, जो सृजन करते हैं और विनाश भी. आकर्षण अर्थात धनात्मक (+) शक्ति एवं ऋणात्मक (-) शक्ति जो संयोजित होकर सृजन करते हैं. प्रतिकर्षण अर्थात धनात्मक (+) एवं धनात्मक (+) अथवा ऋणात्मक (-) एवं ऋणात्मक (-) वियोजित या एक दूसरे से पृथक होना, विलग होना, या जिनमे दूरी बनाए रखने का गुण हो, जिनमे विखंडन के गुण हो. इसे हम सरल शब्दों में चुम्बकत्व की शक्ति कह सकते हैं. इन्ही गुणधर्मो की शक्तियों को आदिवासी सृजन और विनाश की शक्ति, सल्ले-गांगरे, सर्वशक्तिमान, बड़ादेव, सृष्टि सृजक, माता-पिता, पेन आदि पूज्य नामो से संबोधित करते हैं. चाहे वह सृष्टि या सृष्टि के समस्त संसाधन, जीव-निर्जीव, तरल-ठोस, दृश्य-अदृश्य, जिनमे सृजन, विकास और विघटन की प्रक्रिया निहित हैं, वे सभी आदिम जीवन दर्शन के आधार हैं. न ही उनका कोई धर्म है, न ही कोई धर्मग्रन्थ. सृष्टि ही उनका सल्लें गांगरे पेन, पेन ठाना (देव स्थान), धर्म और धर्मग्रन्थ है.

जो अभद्र लग रहा है, दिख रहा है, वह उसी गोंडवाना भूभाग के स्वामी, महामानव, महायोगी, देवों के देव, शंभू महादेव के वंश हैं, जिनकी समृद्ध, वैभवपूर्ण जीवन पद्धति, आर्यों (गोंडवाना भूभाग में घुसपैठ करने वाले मानव), जो स्वयं को सृष्टि के रचयिता, सृष्टि के देवी-देवता कहे जाने वालों की कुंठाओं का सदैव कारण रहा हैं. इन देवों और देवियों नें गोंडवाना भूभाग के मानवों को असुर, राक्षस, दैत्य दानव, पशु आदि घृणा सूचक संज्ञा देकर, देवों और असुरों का संग्राम, देवासुर संग्राम जैसे अनेकों छलपूर्ण संग्रामों के माध्यम से उनकी समृद्ध सभ्यता को विनष्ट करने का युगांतर प्रयास किया गया. धन्य हैं वे विज्ञ मानव, जिन्होंने विश्व के समक्ष मोहन जोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंग, सिन्धु घाटी जैसे गोंडवाना धरा के असली आदिम मानवों की समृद्ध सभ्यता, संस्कृति, बोली-भाषा, व्यवसाय, बेजोड़ कला-कौशल से पूर्ण भवन एवं शहर विन्यास आदि उस युगांध इतिहास को साक्षी बनाया.

भूगर्भ से प्राप्त हो रहे मिटटी, पाषाण, धातु, काष्ठ, रंग आदि से निर्मित विभिन्न मानवोंपयोगी सामग्री के अवशेष पूर्णतः सृष्टि के साथ विलीन शुद्ध प्रारंभी मानव जीवन पद्धति एवं गुणों को प्रकट करती है. पाषाण कंदराओं में प्राप्त हो रहे मिट्टी, पत्थर, वानस्पतिक रंगों से उत्कीर्ण विभिन्न रेखाचित्र इसी विकासवादी मानवीय संवाद और संवेदनाओं को प्रकट करने वाली प्रथम कलम हो सकती है. किन्तु युगांतर की उपज, अग्रेत्तर युग की विकासवादी कलम, अपनी भावी पीढ़ी को शायद किसी अन्य अनदिखे सृष्टि की ईश्वरीय, चमत्कारिक, भावनात्मक, मानवीय गुणों का दिशाबोध कराती है. धार्मिक गाथाकारों ने उन आदिम जाति, जंगल निवासी, आदिवासियों का दर्शन और दर्पण ही बदलने का दुराग्रही प्रयास किया. कलम रुपी खैनी, हथौड़ो से अपने ही मानव पूर्वजों के प्रकृतिवादी, मानव गुणी छाती पर संघार किया. क्या कलम इतना बड़ा हत्यारा और दुर्गुणी हो सकता है ? नहीं. कलम केवल लेखन में उपयोगी है. लेखन कलम की, कलम हाथ की, हाथ शरीर की और शरीर उस स्वार्थ और उत्कंठा से अभिप्रेरि ऊर्जावान मानव मष्तिष्क की अभिव्यक्ति का प्रदर्शन है. कलम लेखन के लिए महत्वपूर्ण साधन है, किन्तु जवाबदार नहीं है. जवाबदार वह मनुष्य है, जो कलम के माध्यम से अपने पूर्वजों के इतिहास को चमत्कारिक रूप में गढ़कर दुनिया में स्वार्थ पूरित कीर्ति स्थापित करने का प्रयास किया है और कर रहा है.

आधुनिक मानव समाज के उच्चवर्णधारी स्वर्ग के अधिष्ठाता, स्वर्ग के निर्माता, स्वर्ग के तमाम सुख-सुविधा भोगी, नारी को राज नर्तकी बनाकर भोगने व देवदासी बनाने वाले, मानव धर्मग्रन्थों के कर्ताधर्ता, मानव धर्मधारी, धरती से ऊपर लोकों के निर्माता एवं ईश्वर का दर्शन कराने वाले, चमत्कारी, स्वर्ग नरक का रास्ता बनाने वाले वर्तमान सद्बुद्धि के धारक, मुख से पैदा होने वाले, आधुनिक मानव समुदाय के पूर्वज, स्वर्ग के निवासी थे. किन्तु शायद स्वर्ग में पाप बढ़ने, जगह नहीं बचने या जीवन के साधन या जीवन की चमत्कारिक लीला का समय समाप्त होने के कारण, चमत्कारिक लीला का अगला चरण नरकलोक अर्थात भूमण्डल में नारकीय जीवन जीने वाले मनुष्यों को दिखाने के लिए उनके पूर्वजों ने भेजा होगा. तब से अब तक इस धरती पर इनकी चमत्कारिक लीला समाप्त नहीं हुई है. अपने पूर्वजो की चमत्कारिक जीवन लीला की कीर्ति दिखाकर, सुनाकर, इस नरकलोक अर्थात भूमण्डल पर स्वर्ग के सपने लेकर पहुंचे भूखे, नंगों को भी नर्कभोगी मनुष्य ने प्रथम पनाह दिया. इन्ही चमत्कारिक बुद्धि वालों की बढ़ती हुई बेसब्र मानव जनसख्या को अपनी जमीन पर पनाह देने वाला आदिवासी ही है. इस नरकलोक रुपी धरा का निवासी आदिवासी ही सदियों से अपनी जीवनदायिनी भूमि, जल, बन, धन, जन और अस्मिता का बलिदान करते आ रहा है और स्वयं अपने भूत के गर्त में समाता जा रहा है. इसके बावजूद भी स्वर्ग के देवता और उनके वंशज अपने जीवन के घृणित से महाघृणित अत्याचार का प्रयोग इस धरा के वासियों पर किया. नीच से नीचतम कार्य और संज्ञासूचक संबोधन आदिकाल से आदिम जातियों पर जबरन लादने का कार्य किया. इन सबका गवाह सृष्टि के जन्मदाताओं, स्वर्ग निवासियों के वंशजों द्वारा इस नरकलोक में फैलाई गई विकृत गाथाएं हैं, जिनके माध्यम से चमत्कारिक स्वरुप दिखाकर नरकलोक में मनुष्यों की भीड़ एकत्रित करने में सफल हो रहे है. देश के नेता इसका भरपूर लाभ उठाकर अनेक तौर तरीकों से स्वार्थ की राजनीतिक रोटी भी सेंक रहे हैं.

यह चमत्कारिक आधुनिक प्रपंची मानव अब भी विचार-व्यवहार, तीज-त्यौहार, धर्म-संस्कृति, संस्थान, साहित्य, सत्संग, उत्सव, राजनीति, सेवा, शिक्षा, तकनीकी, व्यवसाय, संचार माध्यम और प्रशासन आदि तमाम आधुनिक मानवीय विकासजन्य प्रवाही साधनों के माध्यम से अपने पूर्वजों के अधूरे सपने को प्रतिबद्धता से पूरा करने की ओर अग्रसर दिखाई दे रहा है. इन माध्यमो के द्विपक्षीय स्वरुप विचारणीय है.

आदिम जातियों के तीज-त्योहार में, प्रकृतिगत तमाम संसाधनों थल, जल, वायु, वनस्पति, जीव आदि के साथ तीज-त्योहार मनाने, ज्ञान-विज्ञान, धन-संपदा, सुख-शान्ति प्राप्त करने की एक पृथक एवं विशिष्ट आध्यात्म, सुरक्षात्मक कार्य व जीवन दर्शन की अनुभूति निहित है. वहीँ आधुनिक सुख सुविधा, संपदा, विलासिता भरी अगाध स्वार्थी अभिलाषा की प्रतियोगिता रुपी काल, मानवीयता और सृष्टि को निगलने के लिए आतुर है. एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य को नीचा दिखाने का प्रयत्न करता है. एक परिवार, दूसरे परिवार को नीचा दिखाकर ख़ुशी जाहिर करता है. एक समुदाय, दूसरे समुदाय को नीचा दिखाकर सुख की अनुभूति प्राप्त करता है. एक धर्म, दूसरे धर्म को नीचा दिखाने के लिए कटिबद्ध है. किसी न किसी प्रकार से अपने निजी, परिवार, समुदाय व धार्मिक स्वार्थपूर्ति के लिए बात-बात पर, कदम-कदम पर मनुष्य, मनुष्य के ही खून से प्यास बुझाने तैयार बैठा है. क्या यही आधुनिक मानव जीवन की परिभाषा है ?

आधुनिक मानव विकास के साथ साथ ईश्वरीय आध्यात्मिक आस्था आगे और भी चरम सीमा की ओर बढ़ रही है. घर-घर, गली-गली, मुहल्ला-मोहल्ला, पारा-पारा, शहर-शहर, पवित्र नदियों के किनारे, पहाड़ों, पठारों में छोटे, बड़े एवं भव्य रूप में अनेक आस्था के मंदिर, मस्जिद, मठ, गुरूद्वारे, चर्च आदि पूर्व से ही स्थापित हैं. देश में इनकी संख्या करोडों में हो सकती है. अभी भी इनका छोटे, बड़े एवं भव्य निर्माण सतत जारी हैं. बड़े से बड़े, छोटे से छोटे वाहन तक विभिन्न स्वरुप के ईश्वर और आस्था के स्थाई मंदिर बन गए हैं और बनते जा रहे है. आस्था के स्थान, दुकानों में प्रतिवर्तित हो रहे हैं, जहां ईश्वर और उसका आशीर्वाद बेचे और खरीदे भी जाते हैं. स्वार्थ पूर्ती के लिए ईश्वर को प्रलोभन दिए जाते हैं. धनवान से लेकर गरीब में अपने सामर्थ्य अनुसार ईश्वर को सोना-चांदी, हीरा-मोती, रुपया-पैसा, आभूषण, घीं, दूध चढ़ाने की प्रतियोगिता बन गई है. यही कारण हैं कि देश बड़े-बड़े मंदिर, मठ अपार धन का खजाना उगल रहे हैं. ऐसे धनी और अंध आस्था के मंदिर, उनके पंडित, पुजारी, स्वामी, मठाधीशों का ऐशबाग अपराध के घर बन गए हैं.

इसके अलावा पृथक एवं अस्थाई रूप से भी प्रतिवर्ष छोटे से छोटे एवं बड़े से बड़े विभिन्न कल्पना से पूरित मिट्टी, घास तथा जहरीले रंगों से निर्मित देवी देवताओं के विभिन्न स्वरूपों की प्रतिकृतियाँ और झाकियाँ, घर-घर, गली-गली, मुहल्ला-मोहल्ला, पारा-पारा, शहर-शहर लाखों की संख्या में सक्षम साज-सज्जा के साथ विराजित किये जाते हैं. दस दिनों तक ढोल धमाकों, आस्था गीतों, पूजा-अर्चना, नाच-गान के साथ आनन्दोत्सव मनाया जाता है. इन दस दिनों तक देश कोना-कोना, गली-कूचे, मानव समाज भक्ति की चरम सीमा को प्राप्त कर लेने का स्वांग रच लेता है. देश का मीडिया तंत्र ईश्वरीय महिमा का बखान करते श्वास तक नहीं लेता और न ही थकता. मानो तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को स्वर्ग से धरती पर उतार लिए हों. दसवे दिन प्रतिकृतियों के विसर्जन के साथ दस दिनों से धारण किया हुआ स्वांग धोकर अपने वास्तविक चरित्र में लौट आता है.

पूरा देश ईश्वर की आस्था में डूब जाता है. कोई गणेश को दूध पिलाता है तो कोई लड्डू खिलाता है. विघ्नहर्ता की परिचायक स्तुति “अंधन को आँख देत कोढ़िन को काया, बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया” जैसे अनेक स्तुतियाँ, स्तुतिकार की कल्पनाओं की उड़ान है या देश की उर्वरा मिटटी को गाली ? यहाँ समझने में अड़चन हो रही है. गणपति के स्तुति की ये पंक्तियाँ देश की बढती विज्ञान क्षमता और योग्यता के लिए चुनौती है. आधुनिक मानव समाज में जिस तरह गणपति चमत्कार विस्तार हो रहा है उससे ज्यादा निर्धन और निर्धन हो रहा है, रोग, दोष बढ़ रहा है, ज्ञान अज्ञानता के अन्धकार में समा रहा है, किन्तु पुत्र देने में कोई कमी नहीं की. यह धरती तो पूरी तरह बाँझ है ! यह तो गणपति का ही चमत्कार, है कि देश में जनसंख्या का सैलाब उमड़ रहा है ! किन्तु पुत्रियों के तरफ भी ध्यान दे. उनकी जनसंख्या पुत्रों के मुकाबले कम हो रही है. इस धरती के आदिवासियों की जनसंख्या कम हो रही है. निर्धनता, रोग दोष के शिकार हो रहे हैं. उनको देने के लिए आपके पास कुछ नहीं है ! सबकुछ आधुनिक ऊंचे दर्जे के लोगों को ही दे दिया ! गणपती आपकी लीला अपरम्पार है ! इस कलम में वह सामर्थ्य नहीं जो आपके चमत्कारों का वर्णन कर सके ! अपनी बुद्धि से आधुनिक मानव समाज को सद्बुद्धि दे.

देश में जिस गति से आध्यात्मिक तीज त्यौहार, गणपति, दुर्गा अष्टमी, रक्षाबंधन, दशहरा और अन्य धार्मिक मान्यताओं का विस्तार हो रहा है. उससे अधिक गति से देश में अमानवीयता, रोग, दोष और दरिद्रता का विस्तार हो रहा है. जिस इच्छा, आध्यात्म, धार्मिक मान्यताओं के आधार पर आधुनिक समाज द्वारा दस शिर, दस हाथ धारी, दुराचारी, राक्षस मानकर रावन की प्रतिकृति को मारने की प्रबल इच्छा शक्ति जागृत हो रही है, उतनी ही प्रबलता से प्रत्येक आधुनिक मनुष्य में दुराचार, राक्षस रावन जागृत हो रहा है. विभिन्न स्वरुप धारी दुर्गा द्वारा जिन पशुओं, राक्षसों का संघार किया किया गया, उससे ज्यादा आधुनिक पशु और राक्षस पैदा हो रहे हैं. आस्था और विभिन्न मान्यताओं से जुड़े अलग-अलग विधान, अलग-अलग नियम-पद्धति लेकर नए-नये स्वरुप में एक के बाद एक, इस देश में वर्ष के पूरे दिन तीज-त्यौहार, उत्सव मनाये जाते हैं. इन त्योहारी सामग्रियों की दुकान वर्ष भर सजी रहती है. एक त्यौहार ख़त्म होते ही दूसरे त्यौहार, उत्सव की तैयारी में लग जाते हैं. इस देश के आधुनिक मानव समाज की धार्मिक मान्यताएं कितना विचित्र है !

उस युग से अब तक “ये इंसान हैं न ही जानवर, ये शैतान हैं शैतान” जैसे अनेक विकृत अलंकरणों से पूरित आदिम मानव समाज जंगलों से जीवन आश्रय लेकर किसी तरह अपने अस्तित्व को बचाया है. पाषाण काल से आधुनिक काल के मानव विकास की कल्पना से परे जीवन जीने वाले आदिम मानव समुदाय तक प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ़ पेयजल जैसी न्यूनतम सुविधाएं भी उन तक नहीं पहुंची, तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है ?

इन्ही आदिम मानव वंश के अनेक वीर और वीरांगनाओं ने गोंडवाना साम्राज्य में 1700 वर्षों तक समृद्ध, वैभवपूर्ण मानव सभ्यता स्थापित करने, अखंड कुशल प्रशासन चलाने का कीर्तिमान स्थापित किया. प्रकृति स्वतः विज्ञान है. गोंडवाना का महामानव इस प्रकृति विज्ञान का प्रथम विज्ञानी रहा है. पेड़, पौधे, फूल, मिट्टी, जल, वायु प्रवाह, छाँव, पशु, पक्षी के व्यवहार आदि को पहचानकर, मौसम चक्र, धूप, गरमी, वर्षा और प्रकृति में घटित होने वाले घटना संबंधी सटीक प्रमाण जुटाकर विकासकारी योजनाओं का क्रियान्वयन करते थे. गोंडवाना साम्राज्य के शासनकाल के प्रकृति विज्ञान सम्मत तकनीकीपूर्ण अनेक बड़े-बड़े तालाब, सिंचाई के साधन, नहरें, पेयजल, पत्थरों के विराट महल, शिल्प कला, कौशल, उस काल की जीवित, समृद्ध सभ्यता की गवाही दे रहे हैं. एक मूर्धन्य लेखक ने 52 गढ़, 57 परगनों के इस विशाल साम्राज्य का विस्तार लगभग 67,500 वर्गमील बताया है. इसी साम्राज्य के 51वे शासक ने अपने राज्य का 15,360 वर्गमील उपजाऊ जमीन अकबर को दान में दिया था. इसी साम्राज्य में ही सोना, चांदी, ताम्बा के सिक्कों का आम प्रचलन हुआ. यह उस साम्राज्य का स्वर्णयुग था. इसी साम्राज्य ने भारत वर्ष को दुनिया में सोनचिरैया की उपाधि दिलवाया था. इस समृद्ध साम्राज्य की अंतिम शासिका रानी माता दुर्गावती की वीरता और कीर्ति से अन्य शासक डरते और जलते भी थे. अपने शासनकाल में रानी माता दुर्गावती द्वारा बाजबहादुर को युद्ध में 18 बार पराजित करने का उल्लेख मिलता है. रानी दुर्गावती की सेना का एक छोटा मोटा लालची सेनापति बदनसिंह, आसफखां को अपनी सेना का सारा गुप्तभेद बताकर, रानी की ओर से लड़ाई करने का ढोंग करता रहा. आसफखां और बदनसिंह की कूटरचित छल के कारण 24 जून सन 1564 को नर्रई नाला के दूसरी लड़ाई में गोंडवाना साम्राज्य का सूर्यास्त हो गया.

गोंडवाना किसी जाति विशेष के परिक्षेत्र, स्थान का नाम नहीं है. “गोंड” एक जीवन व्यवस्था है. “गोंडी” उनकी भाषा तथा “गोंडवाना”, गोंडी व्यवस्था में जीवन निर्वाह करने वालों का वृहद स्थान, साम्राज्य. आधुनिक वर्ण व्यवस्था ने “गोंड” को वर्तमान आदिवासी समाज का एक प्रथक समुदाय निरुपित कर दिया गया है. गोंडी भाषा के बगैर पूरी तरह गोंड और गोंडवाना को जानना असंभव प्रतीत हो रहा है. इसलिए गोंड और गोंडवाना को समझने में विभिन्न भ्रांतियां पैदा हो रही हैं. मोहन जोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंग, सिन्धु घाटी की सभ्यता से विभिन्न आदिम समुदायों के अस्तित्व का प्रकट होना सार्थक है, तब गोंडी और गोंडवाना से विलग होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. स्वर्गीय रामभरोस अग्रवाल ने अपने पुस्तक “गढ़ा मंडला के गोंड़ राजा” में अबुलफजल द्वारा अंकित रानी दुर्गावती के साथ वीरगति को प्राप्त होने वालों के कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार लिखे हैं- कानुर कल्याण बखीला, खान जहान डाकित, अधार सिंह कायस्थ, मान ब्राह्मण, हाथियों के फौजदार अर्जुनदास बैस, शम्स खान मियाना, मुबारक खान विचुल, चक्रमणि कलचुरि और जगदेव. उक्त नामों से यह स्पष्ट होता है कि गोंडवाना साम्राज्य में आजकल की तरह हिन्दू मुसलमान की वृत्ति नहीं थी.

उस समृद्ध साम्राज्य, मानव सभ्यता, शिल्प कला, कौशल, वीरतापूर्ण कुशल प्रशासन की कीर्ति का पदचिन्ह दूर-दूर तक इतिहास के पन्नों में दिखाई नहीं देते. उधार का ज्ञान, योग्यता और बोली भाषा के बिना किसी विशाल साम्राज्य का संचालन नहीं किया जा सकता. उन्होंने 1700 सौ वर्षों तक साम्राज्य का कुशल संचालन किया तो साम्राज्य और समाज का ज्ञान, योग्यता और बोली भाषा के बूते पर. जिन्होंने अपनी जन्मभूमि की रक्षा का प्रथम शंखनाद किये. आधुनिक सभ्यता के मरू भूमि में वीरता के बीज बोए. अपने प्राण न्योछावर किए. जिन वीरों के ज़िंदा व पार्थिव शरीर पर तोप चलाकर चीथड़े चीथड़े कर दिए गए. चौक चौराहों में फांसी देकर उनके पार्थिव शरीर को नौ-दस दिन तक लटकाए रखकर सड़ने, गलने दिया गया. मृत्यु जैसी सजा का इतना विभत्स चेहरा यदि कोई देखा और भोगा है तो वह है आदिम समुदाय. उनके वास्तविक विभत्स इतिहास लिखने में सायद इतिहासकार के कलम की श्याही फीकी पड़ गई. कहीं लिखा भी तो उथली वीरता दिखाकर निपटा दिए या विकृतिपूर्ण प्रदर्शित कर दिया.

ऐसे वीरों के वंशज तब से अब तक प्रजातांत्रिक देश के मुख्य धारा से नहीं जुड़ सके और न ही प्रशासन जोड़ सका. देश को आजाद हुए 68 वर्ष बीत गए. वनों में भूखे, नंगे बदन रहने वाले शैतानों तक प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसे मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंची है. ऐसी स्थिति में वर्षों से उनकी वास्तविक विकास की योजनाओं को माध्यम बनाकर कौन विकास कर रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है. आधुनिक मानव समाज, राजनीति का कठपुतला प्रशासन और न्यायतंत्र स्वार्थ संलिप्त आधुनिक विकासवाद और नक्सलवाद रूपी मुखौटा लगाकर, जल, जंगल, जमीन के साथ उनके अस्तित्व को पूरी तरह निगलने के लिए आतुर दिखाई दे रहे हैं.

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