सोमवार, 10 मार्च 2014

सत्यमेव जयते के उद्घोष की आड़ में खोखली जागरूकता फैलाने का कारोबार

                                                                                    अनिल सिंह गोंड 

हमारे देश में बच्चों को फिल्मों, पाठ्य पुस्तकों, धार्मिक उपदेशों और अन्य सांस्कृतिक माध्यमों के जरिये यह बताया जाता है कि झूठ बोलना, चोरी करना,  भ्रष्ट कार्य करना, दहेज लेना आदि बुरी बातें हैं और ये सब पाप है, जिनसे हमें दूर रहना चाहिए. जब बच्चा कुछ बड़ा होता है, जवानी की दहलीज पर कदम रखता है और इन आदर्शों को गंभीरता से लेने लगता है तो उसको दुनियादार बनने का पाठ पढ़ाया जाता है और उसको  बताया जाता है कि ये आदर्श किताबों और फिल्मों में तो ठीक है लेकिन इनको गूंथकर दो वक्त की रोटी नहीं बनाई जा सकती और इसलिए युवाओं को अपने केरियर पर ध्यान देना चाहिए, उन्हें अपने बारे में सोचना चाहिए, अपने परिवार के बारे में सोचना चाहिए.


शासक वर्ग के विभिन्न हिस्सों के बीच अपने अपने मीडिया और प्रचारतंत्र के जरिये युवाओं में यह जागरूकता पैदा करने की होड़ लगी रहती है कि उन्हें राजनीति और सामाजिक पचड़ों में पड़ने की बजाय अपने घर, अपनी गाड़ी, अपनी आने वाली पीढ़ी के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए तथा अपने सुखी (लड़के की शिक्षा और लड़की की शादी के लिए) रिटायरमेंट के लिए संपत्ति बनाने में जुट जाना चाहिए. इस प्रकार उम्र के इस निर्णायक मोड़ पर उनको सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों से काटकर एक सुनियोजित तरीके के उनका अराजनीतिकरण कर दिया जाता है.


दूसरे शब्दों में उनको कूपमंडूक बना दिया जाता है और उनको यह यकीन दिला दिया जाता है कि जिंदगी की चूहा दौड़ में पशुवत उछल कूद कर दूसरों को पछाड़ना ही जिंदगी की दौड़ का अवश्यंभावी सामाजिक और मकसद है, लेकिन जब जिंदगी की इस चूहा दौड़ में आर्थिक समस्याओं और संकटों के रूप में सामने आता है तो शासक वर्ग को यह डर सताने लगता है कि कहीं युवा पीढ़ी में यह जागरूकता न पैदा हो जाए कि दरअसल इन समस्याओं और संकटों की जड़ घोर असमानता और मुनाफे की अंधी हवस पर टिकी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था है और कहीं उसकी चेतना इस सच्चाई तक न पहुँच जाए कि तमाम समस्याओं और संकटों से निजात पाने के लिए इस व्यवस्था को बदलकर एक मानव केंद्रित व्यवस्था का निर्माण करना न सिर्फ जरूरी है बल्कि संभव भी है. इसलिए शासक वर्ग एक नया पैतरा अपनाता है. अपने उसी प्रचारतंत्र के माध्यम से युवा वर्ग में ऐसी खोखली जागरूकता पैदा करने का आडम्बर रचता है, जिससे लोगों को समस्याओं का जड़ पता ही न चले और उनमे यह भ्रांति फ़ैल जाए कि समस्याएं दरअसल व्यवस्थागत नहीं बल्कि चंद बुरे लोगों की वजह से है और लोगों में जागरूकता की कमी की वजह से है.


एक बार लोग जागरूक होकर इन बुरे लोगों को हिकारत भरी निगाह से देखने लगेंगे तो सारी समस्याएं छूमंतर हो जायेंगी. इस प्रकार मौजूदा व्यवस्था पर कोई आंच भी नही आयेगी और लोगों में यह भ्रम भी बना रहेगा कि धीरे धीरे करके लोगों में जागरूकता पैदा होगी और समस्याओं का समाधान हो जाएगा. यही नही, उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के युग में पिछले दो दशकों से इस प्रकार की नापुशंक जागरूकता पैदा करने को न सिर्फ व्यवस्था विरोधी आग पर ठन्डे पानी के छींटे फेंकने के काम के लिए बढ़ावा दिया गया है, बल्की इसलिए भी कि यह बेहिसाब मुनाफ़ा पीटने का विश्वव्यापी कारोबार भी है.


दुनिया भर में लाखो एनजीओ खोखली जागरूकता पैदा करने के लिए इस घृणित कारोबार में लिप्त हैं और उनको फंड करती हैं, दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियां और उनसे संबद्ध फंडिंग एजेंसियां और इस पूरे गोरख धंधे की ब्रांडिंग के लिए नाम दिया जाता है- कारपोरेट सोशल रिस्पोंसिब्लीटी या ठेठ भाषा में कहें तो धंधेबाजों की सामाजिक जिम्मेदारी. इसी धूर्तता भरे धंधे को अंजाम देने के लिए लोगों की जिंदगी, बीमारी और तकलीफों से सौदेबाजी करने वाली बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनियां अपने अकूत मुनाफे का छोटा सा टुकड़ा स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता पैदा करने वाले एनजीओ को देती है. पर्यावरण को बेइंतहा तबाही पहुचाने वाली तेल, गैस और आटोमोबाईल कंपनियां पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने के अभियानों को फंड करती हैं तथा आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे कारपोरेट घराने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का पुरजोर समर्थन करते हैं.


यूँ तो भारत में खोखली जागरूकता फैलाने का यह गोरख धंधा पिछले कई वर्षों से जारी है, लेकिन पिछले दिनों जबरदस्त कारोबारी उछाल देखने में आया. कारण है- सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूकता फैलाने का नया रिएलिटी शो "सत्यमेव जयते." लोगों में जागरूकता का वहां कुछ इस कदर पैदा करने के लिए कि शोषक व्यवस्था को खरोंच तक न पहुचे, एक ऐसे अभनेता की दरकार थी जो इस पाखंडपूर्ण कार्य को बखूबी अंजाम दे सके, और इसके लिए 'मिस्टर परफेक्शनिस्ट' आमीर खान से बेहतर और कोई अभिनेता हो ही नहीं सकता था जिन्होंने सामाजिक मुद्दों से सरोकार रखने वाले चिंतनशील अभिनेता के रूप में सुनियोजित ढंग से खुद की 'ब्रांड बिल्डिंग' की है. युवा वर्ग के अच्छे खासे हिस्से में इस 'ब्रांड बिल्डिंग' का असर इतना ज्यादा है कि यदि आप सत्यमेव जयते की आड़ में चल रहे गोरख धंधे के बारे में कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करने की जुर्रत कर बैठते हैं तो आमीर खान के उत्साही प्रशंसक तपाक से बोल पड़ते हैं कि तो क्या हुआ कि वह पैसे कमा रहा है, पैसे तो सभी कमाते हैं. वो हमें सत्यमेव जयते के सकारात्मक पक्ष को देखने की राय देते हैं कि किस प्रकार आमीर खान इसके माध्यम से लोगों में जागरूकता फैला रहा है. इस राय को गंभीरता से लेते हुए और अपनी इस जिज्ञासा को पूरा करने के लिए कि आखिर वो कौन सी जागरूकता है जो करोड़ो रूपये के एवज में सत्यमेव जयते के माध्यम से फैलाई जा रही है, हाल ही में मैंने यूट्यूब पर इस कार्यक्रम के कुछ एपिसोड देखे.


निचोड़ के रूप में सत्यमेव जयते के अब तक प्रसारित चार एपिसोड में आमीर खान ने करोड़ो रूपये की एवज में जागरूकता फैलाई है कि हमारे देश में बड़े पैमाने पर लड़कियों को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है, हमारे देश में बाल यौन शोषण बहुत बड़े पौमाने पर होता है, हमारे समाज में दहेज नामक प्रथा प्रचलित है जिसमे शादी में लड़की वालों को लड़के वालों की फरमाईश पूरी करनी होती है और ऐसा न करने पर लड़की को भीषण यातनाएं सहनी पड़ती है तथा हमारे यहाँ स्वास्थ्य सेवाओं में जबरदस्त भ्रष्टाचार है, जिसकी वजह से ग़रीबों को समुचित स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं. यदि इस किस्म के सामान्य ज्ञान को जानकर कोई विदेशी व्यक्ति अपने आपको भारत की समस्याओं के बारे में जागरूक होने को दावा करता तो बात समझी जा सकती थी, लेकिन जब कोई भारतीय ऐसा दावा करता है तो उससे बस यही कहा जा सकता है कि यह आमीर खान की अभिनय क्षमता से ज्यादा उस व्यक्ति के भारतीय समाज से कटाव और उसकी कूपमंडूकता को दर्शाता है.


कार्यक्रम में कुछ भावुक दृश्यों को नाटकीय ढंग से प्रस्तुत कर दर्शकों की आँखों में गुस्से की जगह आंसू लाने के बाद आमीर खान अंत में इन आंसुओं को पोछने के लिए कुछ नुस्खे भी बताते हैं. जब वो दर्शकों से अपील करते हैं कि एक दिए गए नंबर पर एसएमएस करें और कुछ चुनिन्दा एनजीओ को आर्थिक सहयोग करें. और इसके बाद वो इस सत्यमेव जयते के जनकल्याण सहयोगी में बारे में दर्शकों को बताते हैं. जी हाँ, इस सहयोगी के नाम का अनुमान लगाने पर कोई पुरस्कार नहीं है, ये है "रिलायंस फाउन्डेशन". आजाद भारत में लूट खसोट, शोषण, भ्रष्टाचार और अत्याचार का प्रतीक और सभी पार्टियों के नेताओं और तमाम वरिष्ठ नौकरशाहों को अपनी जेब में रखने के लिए मशहूर रिलायंस समूह अब सत्य की विजय की नैसर्गिक चाहत को भी अपनी मुट्ठी में कर रहा है. इसी से सत्यमेव जयते और आमीर खान के पाखण्ड की कलाई खुल जाती है. इतिहास गवाह है कि अब तक किसी भी देश में सामाजिक कुरीतियों और बुराईयों का खात्मा शासक वर्गों द्वारा प्रायोजित खोखले जागरूकता अभियानों से नहीं बल्कि जनता की व्यापक भागीदारी वाले जन आन्दोलनों द्वारा ही संभव हुआ है.


निश्चित रूप से लोगों को तमाम समस्याओं के विभिन्न पहलुओं के बारे में उनके सामाजिक और आर्थिक संरचना से जुड़ाव के बारे में जागरूक करना जन आन्दोलनों में यकीन रखने वाले लोगों का एक बेहद जरूरी कार्यभार है. लेकिन उतना ही जरूरी कार्य यह भी है कि लोगों में खोखली जागरूकता फैला कर गुमराह करने की प्रायोजित मुहिमों का पर्दाफ़ाश किया जाए.

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रविवार, 9 मार्च 2014

लक्ष्मी, पूजा से कभी नहीं मिलती

हम भारत के लोग प्रतिवर्ष दीप पर्व को बड़े ही धूम-धाम व हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं. दुनिया के मानचित्र में भारत भारत गरीब आबादी वाला सबसे बड़ा देश माना जाता है. विश्व में हम इकलौते ऐसे देश के निवासी हैं, जहां माँ लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए ब्रम्हांड का सबसे बड़ा जश्न मनाया जाता है, और मनाएं भी क्यों ना ! दुनिया के सबसे गरीब जो ठहरे !! अपनी भूख-प्यास, दरिद्रता और बदहाल जिन्दगी से निजात पाने के लिए न जाने कितने सालों से  हम धन की देवी लक्ष्मी की कृपा व दया की चाह से तरस तरस कर, तड़प तड़प कर पूजा पाठ, वृत उपवास में लीं और तल्लीन हैं, इसका हिसाब न तो हमारे पुरखों ने रखा, न ही हम रख पा रहे हैं.

मैंने अति निकटता से देखा है कि माँ लक्ष्मी को प्राप्त करने भारत के लाखो करोड़ो लोग, जिन्हें सरकार ने अल्प आय वर्ग, निराश्रित, गरीबी रेखा से निचे, गरीबी रेखा के बीच और कमजोर वर्ग आदि इत्यादि प्रमाणपत्रों में विभाजित कर रखा है, दीपावली मनाने के लिए माँ लक्ष्मी को प्रसन्न रखने के लिए "उत्सव कर्ज" लेते हैं. यह कड़वा सच है कि भारत के करोड़ो लोगों की दीपावली कर्जों व ब्याजों से ली गई राशि पर मनाई जाती है. दीपावली प्रत्येक वर्ष आती है, अतः इस कर्ज को लौटाने में ही आदमी की आधी उम्र गुरार जाती है तो शेष बची आयु शिक्षा, स्वास्थ्य और वैवाहिक कर्जों की अदायगी में निकल जाती है. भारत के लोगों को सदियों से एक ही पाठ पढ़ाया गया है कि कर्म से धर्म बड़ा होता है. धर्म के सामने देश, राष्ट्र, संविधान, नियम, क़ानून सब तुच्छ हैं. "धर्म के लिए जियो और धर्म के लिए मरो" यही एक मात्र मूल मन्त्र जन्म से मृत्यु तक सिखाया गया है. भारत के वेदांता (वेदज्ञानी) ब्रम्हज्ञानी व मनीषियों द्वारा देश की भूखी, नंगी, अनपढ़, जाहिल और गंवार, अशिक्षित जनता को जो धर्म का ज्ञान परोसा गया, आज उसी परम्परा का पूरी निष्ठा व लगन से, मन, वचन व कर्म से ईमानदार पालन कर रहे हैं.

भारत की महिलायें जिस शुद्धता व पवित्रता से प्रतिमाह वृत, उपवास व जाप ताप करती हैं, दुनिया में संभवतया शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां की महिलायें भारतीय नारियों का इस क्षेत्र में मुकाबला कर सके. दुनिया के किसी भी कोने में ईश्वर के प्रति धन की देवी माँ लक्ष्मी के प्रति इतनी श्रृद्धा, त्याग और तपस्या देखि जाती है और न ही सुनी जाती है, फिर भी भारत विश्व मानचित्र में सबसे गरीब, भूखा, नंगा और कमजोर है.
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शनिवार, 8 मार्च 2014

अल्पसंख्यक शासक और बहुसंख्यक गुलाम

भारतीय जातिगत रणनीति की अपनी विशेषताएं अनेक हैं, फिर भी जो जाति सामाजिक स्तर पर संख्या में कम है वह पूरे भारतीय समाज कों अनैतिक रूप से गुमराह कर उस पर राज करती चली आ रही है. नई नई समस्याओं में अन्य समाजों कों उलझाकर वह स्वयं ही इस देश का हुक्मरान होता चला आ रहा है.


इसके विपरीत जो सामाजिक स्तर पर संख्या में अधिक हैं, वे आज देश के गुलाम हैं. आजादी के पहले इन मूलनिवासियों का आंदोलन का अपना एक मजबूत असर हुआ करता था. आजादी के बाद अब मूलनिवासियों के आंदोलन क्यों असरदार नहीं होते ? यह एक विचार करने वाली बात है.


आजाद भारत में गुलाम मूलनिवासियों की ऐसी स्थिति का जिम्मेदार कौन है ? जो भारत का असली मूलनिवासी समाज है वही बद से बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर है. क्योंकि दुश्मन बड़ा होसियार है, वह मैदानी लड़ाई में विश्वास नहीं रखता, वह तो केवल अपनी छल बुद्धि का इस्तेमाल करता है. मैदानी जंग में उतरने की तो हमारा दुश्मन भूलकर भी यह भूल नही कर सकता, क्योंकि उसे मालूम है कि उसका समाज संख्या में कम है. मैदानी जंग में उतरने पर उसकी समाज की संख्या और कम हो जायेगी. हमारा दुश्मन हमसे ज्यादा होशियार है. उसमे वृहद मूलनिवासी समाज कों विभिन्न जाति/ जनजाति में बाटकर आपस में मिलने नहीं दिया है. अर्थात हममें एकता नहीं बनने दिया है.


इसका नतीजा यह हुआ कि हम अपने वृहद स्वरुप से हटकर छोटे-छोटे समुदायों में बटकर बिखरते चले गए. हम मूलनिवासी ऐसे बिखरे कि हमें एक दूसरों से कोई मतलब नहीं रहा और इसका फायदा हमारा दुश्मन बड़े मजे से उठाता चला आ रहा है. मूलनिवासियों कों आजाद भारत में पुनः अपनी आजादी के लिए आंदोलन करना होगा, लेकिन इस आंदोलन का स्वरुप वृहद मूलनिवासी समाज का होना आवश्यक है. छोटे-छोटे बिखरे समुदाय का एक एक कर संघर्ष करना मूलनिवासियों के उज्जवल भविष्य के हक में नहीं है.


अतः समस्त मूलनिवासियों का एक होना जरूरी है. इतिहास गवाह है कि दुनिया के आंदोलन से इतिहास में आज तक कोई जाति/समुदाय पूरी तरह एक नहीं हुई है न ही कोई आंदोलन पूर्णतः शत प्रतिशत सफल होता है. इसलिए निर्धारित लक्ष्य कों रखकर मूलनिवासियों कों एक होना होगा. पूर्णतः न सही ३५%-४०% में ही दुश्मन चारों खाने चित्त नजर आएगा.
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