सोमवार, 30 सितंबर 2013

गोंडी धर्मावलंबियों और "गोंडी धर्म" कोड पर एक चिंतन

गोंड आदिवासी द्वारा पेड़ और प्रकृति की पूजा 
विश्व में ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण के संरक्षण हेतु विभिन्न योजनाएं बनाए जा रहे हैं तथा उसके क्रियान्वयन हेतु विभिन्न कार्यक्रम और सेमीनार आयोजित किये जा रहे है. सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को राजनेताओं को सेमीनार और कार्यक्रमों के नाम पर पैसा जो खाना है !! इसलिए वे लोग इस तरह के कार्यक्रम कर रहे हैं. कार्यक्रम करने से प्रकृति का कायाकल्प सुधरने वाला नहीं है. अनावश्यक कार्यक्रमों में पर्यावरण बचाने के लिए पैसा बहाना बड़े लोगों का सिर्फ नाटकबाजी है. पर्यावरण और प्रकृति को बचाना है तो प्रकृति से जुड़े संस्कारों को अपनाके या जुड़के तो देखे ! प्रकृति और पर्यावरण जरूर बचेगी, किन्तु इनमे वह साहस नहीं है कि वे गोंडी आदिवासी संस्कृति को धारण कर सकें. जो लोग सदियों से आदिवासी संस्कृति, जीवन की आस्था, परम्परा को अंध विश्वास और गिरा हुआ समझते है, वे लोग इस प्रकृति पूजक परम्परा को कभी स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि इनके देवता स्वर्ग में जो निवास करते हैं ! ये स्वर्ग के ईश्वर पर विश्वास करने वाले लोगों को स्वर्ग में ही चला जाना चाहिए, किन्तु ये आडम्बरी लोग ऐसा क्यों नहीं करते और न ही इन्हें आदिवासियों को अंध विश्वासी और नीच और गिरा हुआ कहने और समझने में गुरेज नहीं हैं. ग्रामीण आदिवासियों को न तो ग्लोबल वार्मिंग और न ही पर्यावरण प्रदूषण को समझने से कोई लेना देना नहीं है किन्तु वे जन्मजात इस वैज्ञानिक सत्यता से परिचित है कि प्रकृति की रक्षा ही जीवन की रक्षा है. आडम्बर्पूर्ण आस्था को मानने वाले लोगों में वाकई में प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा की चिंता है तो वे आदिवासियों के प्रकृति पूजक संस्कृति को धारण करके दिखाएँ ! प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा अपने आप हो जाएगी. किन्तु इन ढोंगी लोगों को मंदिर बनवाने और उसमे ३३ कोटि देवताओं को बिठाकर उनकी पूजा करने में ही फुर्सत नहीं है. क्या ऐसे धर्मावलम्बियों की आस्था और संस्कृति से प्रकृति बचेगी ? कभी नहीं. जो आदिवासी जाने अनजाने में हिन्दूओं की आस्था, परम्परा, धर्म और संस्कृति को धारण करने में लगे हुए हैं, उनके लिए यह मेरी खुली चुनौती है कि क्या वे हिंदूवादी ब्राम्हण बन सकेंगे ? उनकी यह कुटिल चाल है कि वे आदिवासियों को सदियों से हिन्दू बनाने के लिए तुले हुए हैं ताकि उनकी हिन्दुवाद के जनसंख्या के आंकड़े बढे और देश हिन्दुओं का देश कहलाये.

आज विभिन्न राज्यों में धर्म कोड की मांग हो रही है. झारखंड के आदिवासी सरना धर्म की मांग कर रहे है क्योंकि वे सरना धर्म और संस्कृति की कट्टरता से पालन करते हैं और अपना धर्म सेन्सस रिपोर्ट (देश की जनगणना पत्रक) में भी गर्व से सरना धर्म लिखवाते है. उनकी जनसंख्या जैन धर्मावलम्बियों की जनसंख्या से भी अधिक है, फिर भी सरना धर्म को धर्म कोड नहीं दिया गया. मुझे यह लिखने में कतई खेद नहीं है कि देश के पढ़े लिखे गोंडो आदिवासियों की मानसिकता, सामाजिकता, सांस्कृतिकता का हिन्दुकरण हो गया है और वे लोग अपना धर्म हिन्दू लिखने लगे हैं. यह कटु सत्य है. देश में २०११ की जनगणना में धर्म के कालम में ऐसे कितने गोंड हैं जो "गोंडी" लिखे हैं, या कितने आदिवासी हैं जो धर्म के कालम में "आदिवासी" लिखे हैं, कोई नहीं बता सकता ? क्योकि वे हिन्दू ही लिखे है. किन्तु मै बता सकता हूँ कि मैंने अपने धर्म के कालम में "गोंडी" लिखा है, क्योकि मुझे अपनी परम्परा, संस्कृति और धर्म पर नाज है और रहेगा. झारखंड के एक आदिवासी सज्जन ने मुझे यह असलियत बताकर चौका दिया कि देश में २०११ की जनगणना के अनुसार सेन्सस रिपोर्ट में "गोंडी धर्म" मानने वालों कि संख्या केवल ५,००,००० (लगभग) दर्ज है. यह देश के गोंडों के लिए अत्यंत चिंताजनक और शर्म की बात है. केवल छत्तीसगढ़ में २००१ की जनगणना के अनुसार कंवर आदिवासी ६,००,०००. उराँव आदिवासी ९.००.००० एवं हल्बा हल्बी आदिवासी ३,००,००० है. अर्थात कुल आदिवासियों की संख्या ६६,००,००० छत्तीसगढ़ में ही निवास करते हैं, जिसमे से केवल गोंडों की संख्या ही ४४,००,००० है. अब सभी यह अनुमान लगा सकते हैं कि छत्तीसगढ़ के कितने गोंडो ने अपने धर्म के कालम में "गोंडी" लिखे होंगे ? २०११ के पूरे देश की जनगणना का आंकड़ा बता रहा है कि गोंडी धर्मावलंबियों की संख्या ५,००,००० है. क्या गोंडों के लिए "गोंडी" धर्म कोड मांग के लिए यह आंकड़ा पर्याप्त है ?

शासन से धर्म कोड मांग के लिए अन्य धर्मावलम्बियों के बराबर पर्याप्त जनसंख्या, भाषा बोलने वाले इत्यादि दस्तावेजों की आवश्यकता होती है. जनगणना के आंकड़े, एन.एस.एस.ओ. की रिपोर्ट में उनसे सम्बंधित जानकारी को प्रमुखता से मानी जाती है. ऐसी स्थिति में क्या गोंड "गोंडी धर्म" कोड या समस्त आदिवासी "आदिवासी धर्म" कोड, "प्राकृत धर्म" कोड, "आदि धर्म" कोड प्राप्त कर सकेंगे ? कदापि नहीं. देश के जितने भी आदिवासी है उन्हें इस विषय पर गहन चिंतन करना पड़ेगा. यदि आप गोंड हैं तो "गोंडी धर्म" लिखना चाहिए. किन्तु इस पर भी आदिवासियों के बीच वर्ण और जाति व्यवस्था से ग्रषित विचार उत्पन्न होंगे कि यह तो गोंड लोगों का धर्म कहलायेगा ! हम तो कंवर है, हम तो उराँव है, हम तो हल्बा हल्बी है, हम कैसे लिख सकते हैं गोंडी धर्म ? इस विषय पर आने से पहले आदिवासियों को यह जान लेना चाहिए कि गोंडवाना क्या है ? गोंडवाना एक भू भाग है जिसमे निवास करने वाले लोग गोंड हैं. गोंडवाना साहित्यों में लिखा है उसी आधार पर मेरा संकलन "गोंडवाना के गोंड और उनकी भाषाएँ" इसे समझने में काफी सहायक हो सकती है जो निम्नानुसार है :-

"गोंडवाना ऐसा शब्द है जिससे गोंडियनों के मूल वतन का बोध होता है, गोंडियनों की जन्मभूमि, मातृभूमि, धर्म भूमि और कर्मभूमि का बोध होता है. उनकी मातृभाषा का बोध होता है. फिर वे कोई भी गोंड हो, चाहे कोया गोंड हो, राज गोंड हो, परधान गोंड हो, कंडरी गोंड हो, माड़िया गोंड हो, अरख गोंड हो, कोलाम गोंड हो, ओझा गोंड हो, परजा गोंड हो, बैगा गोंड हो, भील गोंड हो, मीन गोंड हो, हल्बी गोंड हो, धुर गोंड हो, वतकारी गोंड हो, कंवर गोंड हो, अगरिया गोंड हो, कोल गोंड हो, उराँव गोंड हो, संताल गोंड हो, कोल गोंड हो, हो गोंड हो, सभी गोंडवाना भूखंड के गणराज्यों के गण, गण्ड, गोंड तथा प्रजा है.

गोंडवाना भूभाग के गणराज्यों में मूल रूप से तीन भाषाएँ बोलने वाले गोंडियनों की प्रभुसत्ता प्राचीन काल से ही रही है. भील, भिलाला, पावरा, वारली, मीणा यह भिलोरी भाषा बोलने वाले भीलवाड़ा एवं मच्छ गणराज्यों के गण्ड तथा गोंड है. कोया, कंडरी, ओझा, माड़िया, कोलाम, परजा, बिंझवार, बैगा, नगारची, कोयरवाती, गायता, पाडाती, ठोती, अरख आदि गोयंदाणी भाषा बोलने वाले गोंडवाना गणराज्यों के गोंड तथा गण्ड हैं. कोल, कोरकू, कंवर, मुंडा, संताल, हो, उराँव, अगरिया, आदि मुंडारी अर्थात कोल भाषा बोलने वाले कोलिस्थान गणराज्य के गण्ड तथा गोंड हैं. जिस गणराज्य के परिक्षेत्र को वर्तमान में झारखंड कहा जाता है. इस तरह गोंडवाना भूभाग के गणराज्यों से गोंडियनों की मूल मातृभाषाओं का बोध होता है. गोंडियनों के प्राचीन प्रशासनिक इतिहास का बोध होता है. गोंडियनों के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों का बोध होता है. इसलिए "गोंडवाना" यह शब्द गोंडियनों की अस्मिता एवं स्वाभिमान बोधक है."

सम्पूर्ण आदिवासी समाज में जो लोग यह मानते हैं कि "गोंड" एक पृथक जाति है तथा गोंडियनों के उपरोक्त इतिहास को देखा जाये तो यह औचित्य प्रतिपादित होता है कि गोंडवाना के सभी निवासी गोंड हैं. इस आधार पर "गोंडी धर्म" कोड की मांग एक विकल्प भी है. जो आदिवासियों की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों की अस्मिता एवं स्वाभिमान के टूटे हुए कड़ियों को जोड़ने के लिए संबल प्रदान कर सकता है.
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शनिवार, 28 सितंबर 2013

देश के आदिवासियों का धर्म कोड क्या हो- सरना धर्म, गोंडी धर्म, प्राकृत धर्म, आदि धर्म या आदिवासी धर्म

देश की एक मात्र राष्ट्रीय आदिवासी पत्रिका दलित आदिवासी दुनिया तथा विभिन्न सामाजिक पत्र पत्रिकाओं व फेसबुक से हमें जानकारी मिलती है की झारखंड में "सरना धर्म" कोड की मांग जोरों पर है. "सरना धर्म" कोड भारत के सभी आदिवासियों के लिए मान्य और उचित हो सकता है ?  मुझे यह नहीं पता कि यह मांग पूरे झारखंड के आदिवासियों की ओर से उठ रही है या कुछ ही समुदायों द्वारा यह मांग उठाई जा रही है. मेरा आशय है कि आदिवासी समाज के विभिन्न समुदाय विभिन्न राज्यों में निवास करते हैं. समय के साथ साथ उनमे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक परिवर्तन आया है. किन्तु गोंडवाना लैंड तथा उसमे निवास करने वाले लोगों की ऐतिहासिक जानकारी से सभी आदिवासी समुदाय गोंड हैं. वर्तमान में आई संचार क्रान्ति के माध्यम से जुड़े देश के पढ़े लिखे लोगों ने फेसबुक के माध्यम से इस सम्बन्ध में फेसबुक के विभिन्न ग्रुपों में प्रसारित मेरे लेख "गोंडवाना के गोंड और उनकी भाषाएँ" सायद पढ़ा होगा, जिसमे देश के अनेक समुदाय के आदिवासियों के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों की अस्मिता एवं स्वाभिमान का बोध कराता है. इस सम्बन्ध में संक्षेप इस प्रकार है :-

"गोंडवाना ऐसा शब्द है जिससे गोंडियनों के मूल वतन का बोध होता है, गोंडियनों की जन्मभूमि, मातृभूमि, धर्म भूमि और कर्मभूमि का बोध होता है. उनकी मातृभाषा का बोध होता है. फिर वे कोई भी गोंड हो, चाहे कोया गोंड हो, राज गोंड हो, परधान गोंड हो, कंडरी गोंड हो, माड़िया गोंड हो, अरख गोंड हो, कोलाम गोंड हो, ओझा गोंड हो, परजा गोंड हो, बैगा गोंड हो, भील गोंड हो, मीन गोंड हो, हल्बी गोंड हो, धुर गोंड हो, वतकारी गोंड हो, कंवर गोंड हो, अगरिया गोंड हो, कोल गोंड हो, उराँव गोंड हो, संताल गोंड हो, कोल गोंड हो, हो गोंड हो, सभी गोंडवाना भूखंड के गणराज्यों के गण, गण्ड, गोंड तथा प्रजा है.

गोंडवाना भूभाग के गणराज्यों में मूल रूप से तीन भाषाएँ बोलने वाले गोंडियनों की प्रभुसत्ता प्राचीन काल से ही रही है. भील, भिलाला, पावरा, वारली, मीणा यह भिलोरी भाषा बोलने वाले भीलवाड़ा एवं मच्छ गणराज्यों के गण्ड तथा गोंड है. कोया, कंडरी, ओझा, माड़िया, कोलाम, परजा, बिंझवार, बैगा, नगारची, कोयरवाती, गायता, पाडाती, ठोती, अरख आदि गोयंदाणी भाषा बोलने वाले गोंडवाना गणराज्यों के गोंड तथा गण्ड हैं. कोल, कोरकू, कंवर, मुंडा, संताल, हो, उराँव, अगरिया, आदि मुंडारी अर्थात कोल भाषा बोलने वाले कोलिस्थान गणराज्य के गण्ड तथा गोंड हैं. जिस गणराज्य के परिक्षेत्र को वर्तमान में झारखंड कहा जाता है. इस तरह गोंडवाना भूभाग के गणराज्यों से गोंडियनों की मूल मातृभाषाओं का बोध होता है. गोंडियनों के प्राचीन प्रशासनिक इतिहास का बोध होता है. गोंडियनों के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों का बोध होता है. इसलिए "गोंडवाना" यह शब्द गोंडियनों की अस्मिता एवं स्वाभिमान बोधक है."

सम्पूर्ण आदिवासी समाज में जो लोग यह मानते हैं कि "गोंड" एक पृथक जाति है तथा गोंडियनों के उपरोक्त इतिहास को देखा जाये तो यह औचित्य प्रतिपादित होता है कि गोंडवाना के सभी निवासी गोंड हैं. इस आधार पर "गोंडी धर्म" कोड की मांग एक विकल्प भी है. आज सभ्य बन बैठे समाज की वर्ण और जाति व्यवस्था ने आदिवासियों की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों की अस्मिता एवं स्वाभिमान पर पानी फेर दिया है. फिर भी हमें अपने टूटे हुए कड़ियों को जोड़ने का प्रयास जारी रखना होगा.

मेरा यह मत है कि समस्त आदिवासियों कि ओर से एक ऐसे धर्म कोड की मांग उठे जो देश के सभी आदिवासियों को मान्य हो. चाहे वे किसी भी राज्य से या संगठन से उठे जो सर्वमान्य के लायक हो. छत्तीसगढ़ में काफी वर्षों से इस पर विचार होने के बाद यहाँ के धर्म गुरुओं ने "प्राकृत धर्म" के नाम से सभी आदिवासी समुदायों से सहमति/विचार बनाने अन्य राज्यों में निकल चुके हैं. उनका मानना है कि देश के सभी आदिवासी चाहे वह देश के किसी भी कोने में राज्य में रहता हो, प्राचीन काल से किसी न किसी रूप में वह प्रकृति के करीब रहकर अपने सभ्यता, संस्कृति को कायम रख पाया है. इस आधार पर "प्राकृत धर्म" कोड देश के आदिवासी समाज के लिए उचित है.

मेरा यह भी मत है कि वर्तमान में हमारा ऐतिहासिक गोंडवाना समाज आदिवासी समाज के नाम से जाना जाता है. मै "आदिवासी" शब्द बोध के सम्बन्ध में कहना चाहूँगा कि प्राचीन गोंडी धर्म, दर्शन एवं साहित्य में कहीं भी आदिवासी का शाब्दिक उल्लेख नहीं मिलता. अतः यहाँ यह कहना उचित होगा कि आदिवासी न ही साहित्यिक शब्दावली है, न कोई जाति न ही किसी धर्म और न ही किसी सांस्कारिक प्रवृति को संबोधित करने वाला शब्द. आदिवासी संबोधन से ऐसा प्रतीत होता है कि वह आदिकाल से इस धारा पर रह तो रहा है किन्तु मानो दूसरों की परोसी हुई बोली, भाषा, संस्कारों, कला-कौशल, रीति-रिवाज, खान-पान आदि की भीख पर पल रहा हो. अर्थात किसी भी परिस्थिति में समाज के गौरवपूर्ण संबोधन का अर्थ "आदिवासी" शब्दावली में नहीं झलकता. इस संबोधन से हमें किसी भी दृष्टिकोण से ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गौरव एवं सम्मान नहीं मिलता, बल्कि समाज को हीन भावना से संबोधित करते हुए सिर्फ गाली मात्र ही प्रतीत होता है. ऐसा लगता है मानो आदिवासी संबोधन का मतलब गोंडवाना समाज को उनके सामाजिक मूल स्थापत्य अस्तित्व को काल्पनिक तौर से वैचारान्तरित करने का बौद्धिक हथकंडा अपनाया गया है तथा यह जारी है. अब वनवासी, गिरिजन आदि नामों से भी संबोधित किया जा रहा है, जो गलत है.

भारत की संवैधानिक व्यवस्था में "आदिवासी" शब्द का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि इस आदिम समुदाय को "अनुसूचित जनजाति" के रूप में उल्लेख किया गया है, तब हम क्या अपने आपको आदिवासी कहकर गौरवान्वित हो सकते हैं ? संवैधानिक व्यवस्था अनुसार हमें संघर्ष कर अपना हक प्राप्त करना है तो आदिवासी, वनवासी, गिरिजन जैसे शब्दों के संबोधन पर सामाजिक व राजनैतिक प्रतिकार होना चाहिए, क्योंकि आदिवासी शब्दावली एवं संबोधन को संवैधानिक व्यवस्था ने मान्यता प्रदान नहीं की है. संवैधानिक व्यवस्था अनुसार इस आदिम समुदाय/समाज को "अनुसूचित जनजाति" के रूप में मान्यता प्रदान किया गया है, जिसे व्यवस्थागत अधिकार प्रदान करने हेतु संविधान आबद्ध है. इस आधार पर "आदिवासी धर्म" की मांग भी निर्थक प्रतीत होता है. अत: आदिम समाज को आदिवासी शब्द से संबोधन एवं वास्तविक उपयोग भी पूर्णरूप से असंवैधानिक है.

विभिन्न राज्यों में निवास करने वाले लोग भी अपने समुदायगत धर्म कोड की मांग कर रहे हैं, जैसे गोंड लोग "गोंडी धर्म" कोड की मांग काफी पहले से करते आ रहे हैं, बाकी और भी समुदाय हैं जो "आदिवासी धर्म" या “आदि धर्म” कोड, "प्राकृत धर्म" कोड की भी मांग उठा रहे हैं. मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि यदि "सरना धर्म" कोड की मांग पूरी हो जाती है तो अन्य समुदायों में भी धर्म कोड की मांग की बाढ़ आ जायेगी. और यह स्थिति आदिवासी समाज के लिए चिंतनीय विषय हो जाएगा कि समाज धर्मों के विभक्तिकरण से टूटकर बिखर जायेगा. इस परिस्थिति का निर्मित होना समाज के सामाजिक एवं धार्मिक चिंतकों के लिए अत्यंत चिंताजनक है. गैर आदिवासियों को तो इससे बहुत संतुष्टि मिलेगी क्योंकि वे चाहते भी वही हैं.

ऐसी अवस्था में मेरा यह मत है कि समस्त आदिवासियों कि ओर से एक ऐसे धर्म कोड की मांग उठे जो देश के सभी आदिवासियों को मान्य हो. चाहे वे किसी भी राज्य से या संगठन से उठे जो सर्वमान्य के लायक हो. छत्तीसगढ़ में काफी वर्षों से इस पर विचार होने के बाद यहाँ के धर्म गुरुओं ने "प्राकृत धर्म" के नाम से सभी आदिवासी समुदायों से सहमति/विचार बनाने अन्य राज्यों में निकल चुके हैं. उनका मानना है कि देश के सभी आदिवासी चाहे वह देश के किसी भी कोने में राज्य में रहता हो, प्राचीन काल से किसी न किसी रूप में वह प्रकृति के करीब रहकर अपनी सभ्यता, संस्कृति, बोली, भाषा, कला-कौशल, रीति-रिवाज, खान-पान को कायम रख पाया है. इस आधार पर "प्राकृत धर्म" कोड देश के आदिवासी समाज के लिए उचित और सम्मानजनक प्रतीत होता है.

देश के सभी प्रदेशों में रहने वाले आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी इस पर भी जिंतन करे और एक सर्वमान्य "धर्म कोड" पर चिंतन कर संघर्ष को आगे बढ़ाएँ.

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सोमवार, 16 सितंबर 2013

अमर शहीद राजा शंकरशाह एवं रघुनाथशाह का बलिदान दिवस दिनांक १८ सितम्बर, २०१३

गोंडवाना की गौरव गाथा
अमर शहीद राजा शंकरशाह एवं रघुनाथशाह का बलिदान दिवस दिनांक १८ सितम्बर, २०१३



भारत के मूलनिवासियों का शौर्य, पराक्रम साहित्य, कला, अर्थात हमारा समूचा व्यक्तित्व, हमारी समूची अस्मिता ही नकार दी जाती है. न स्वाधीनता संग्राम में बहे हमारे रक्त का स्मरण होता है, न देश की सांस्कृतिक हरियाली को बनायें रखने व सींचने में हुये हमारे योगदान का उल्लेख. इस तरह की नीति समाप्त होना चाहिये और हमें अपने सभी भाई बहनों को गले से ही लगायें ही नहीं बल्कि अब तक हमारी उपेक्षा की जो भूल हमसे हुई है उसके प्रायश्चित स्वरूप वर्तमान विकास की धारा में आव्हान करें- तन से, मन से, धन से, यही समाज प्रेमियों से अपेक्षा है और इसी को मुखरित करता हुआ प्रस्तुत है महान क्रांतिकारी वीरों के जगमगाते इतिहास का झरोखा.

भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन का इतिहास, उसकी घटनाओं का विवरण और उसके नायकों के चरित्र-चित्रण मात्र नहीं, बल्कि यह जनता के अंतरमन की असीम गहराईयों का स्वतंत्र होने की गतिमय आंतरिक आकांक्षा और प्रवृत्ति की बाह्य अभिव्यक्ति का एक अनुपम अव्दितीय और अविस्मरणीय उदाहरण भी है, जिसकी दुनिया में कोई मिसाल नहीं है. सन १८५७ के स्वतंत्रता के महासागर की लहर देश व्यापी थी और वे पूर्णत: कभी लुप्त नहीं हुई. इसे देश के मूलनिवासियों के नेतृत्व सम्भालने के बाद में स्वतंत्रता के लिए आंदोलनों का दौर और तेज हुआ. हमारे इस आंदोलन की स्वाभाविक परिणित पूर्ण स्वराज और स्वाधीनता के रूप में हुई और सम्पूर्ण देश की जनता की संयुक्त इच्छा शक्ति और सुदृढ़ चेतना की एक महान संग्रामी विजय दुनिया के इतिहास में दर्ज हुई.


भारत के मूलनिवासियों का शौर्य, पराक्रम, साहित्य, कला, अर्थात हमारा समूचा व्यक्तित्व, हमारी समुची अस्मिता ही नकार दी गई है. न स्वाधीनता संग्राम में बहे हमारे रक्त का स्मरण होता है, न देश की सांस्कृतिक हरियाली को बनाये रखने व सीचने में हुए हमारे योगदान का उल्लेख. इस तरह की नीति समाप्त होना चाहिए और हम भी अपने सभी बहनों को गले से ही लगाये ही नहीं बल्कि अब तक हमारी उपेक्षा की जो भूल हमसे हुई है. उसके प्रायश्चित स्वरूप वर्तमान विकास की धारा में आहान करें-तन से, मन से, धन से, यही समाज प्रेमियों से अपेक्षा है और इसी को मुखरित करता हुआ प्रस्तुत है महान क्रांतिकारी वीरों के जगमगाते इतिहास का झरोखा”.

सन १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हिमालय से गोदावरी तक और बंगाल से मालवा तक क्रांति की ज्वालाएं धधक उठी थी. आजादी के दीवाने पूरे देश में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की समाप्ति के लिए उठ खड़े हुए थे. नर्मदा की सम्पूर्ण घाटी इस आग की लपेट में थी. इस तरह यह क्रांति का एक प्रकार से दबी गरम राख के भीतर दहकती चिंगारियां थी. धीरे-धीरे गरम क्रांति की चिंगारियां सुलगती ज्वाला बन गयी और इस विद्रोह की चिंगारी रोटी, भवन, सुपारी, कमल और लाल मिर्च के माध्यम से दूसरे स्थान तक फैलती जा रही थी. भारत के मध्य में विंध्याचल और सतपुड़ा की उपत्काएँ जहाँ फैली हुई है, उसके पूर्वी भाग का इतिहास बहुत कुछ अंजाना ही है. विंध्याचल सतपुड़ा की गोद में भोज राजा यादवराव ने एक राज्य की आधार शिला रखी. यह गणराज्य गढ़ा नाम से प्रसिद्ध हुआ. इस राज्य (गणराज्य) के अंतिम विचारवान और ख्याति प्राप्त महान क्रांतिकारी शासक संग्रामशाह जिनके ५२ गढ़ थे जिन्हें अखण्ड गोंडवाना का संस्थापक माना गया है. के वंशज, महान देश प्रेमी राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह ने भी ब्रिटिस हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का झंडा फहरा दिया (विद्रोह का बिगुल फूंक दिया). इतिहास के इस घटना क्रम में सन १८५७ का महान विप्लव सामंतवादी वर्ग व्दारा विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने और देश की स्वतंत्रता स्थापित करने के अंतिम प्रयास की अंतिम रूप-रेखा है.


आज स्वाधीनता के इस महल में उनके भित्तिचित्र भले ही न हो और प्रार्थना के समय उन्हें भले ही स्मरण न किया जाता हो पर इस गोंडवाना रणबांकुरों के रक्तीले हाथ कहीं न कहीं और कभी न कभी उभरे हुए अवश्य ही दिखाई देंगे. आजादी की लड़ाई लड़ी जाती है और लोहे की उन जंजीरों को काटने के लिये जिनसे सारा राष्ट्र साम्राज्यवादी ताकत से कस दिया जाता है, ये जंजीरे सुनहरी हथौड़ी से कट नहीं सकती और उसके टुकड़े टुकड़े करने के लिये फौलादी या सार्थक हथौड़ी चाहिये, जो लाखों बहादुरों के साथ गोंडवाने की परम्परा रही है”.


गोंड राजघराने के ७० वर्षीय राजा शंकरशाह और ४० वर्षीय सुपुत्र कुंवर रघुनाथशाह सैनिकों और जनता के बीच गुलामी के खिलाफ स्वाभीमान जगाने का प्रसार-प्रयास कर रहे थे. उन्हें याद दिलाते रहे कि उनका प्रथम कर्तव्य देश और समाज के प्रति है. सितंबर १८५७ के प्रारंभ में ५२ वीं रेजिमेंट के सैनिकों में भी क्रांति की लहर मचल रही थी. ५२ वीं रेजिमेंट के सहयोग से प्राचीन राजवंश के राजाओं/प्रतिनिधियों को  गढ़ा मंडला के गोंड राजा शंकरशाह के रूप में उत्साहवर्धक, योग्य साहसी  नेता मिला जो अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का दृढ़ संकल्पित था. जिनके पूर्वज अपने देश, राज्य और समाज की स्वतंत्रता के लिए मुगलों से युद्ध करके गोंडवाना की आन, बान, शान के लिए सुकीर्ति का अर्जन कर चुके थे. राजमहल के पारिवारिक कलह के कारण इस समय शंकरशाह पेंशनर थे. उसके पास तीन सौ गांव जागीर के थे और गढ़ा के पास पुरवा के हवेली में रहते थे. जबलपुर रेजीमेंट के अनेक सिपाही उनकी हवेली में उनसे मिलने आते थे और सागर, दमोह, रायपुर तथा अन्य स्थानों पर होने वाली विद्रोही घटनाओं के संबंध में विचार विनिमय करते थे. अंग्रेजों के विरुद्ध कानपुर, लखनऊ, झाँसी, दिल्ली, मेरठ और नागपुर में हो रहे विद्रोह के घटनाओं के समाचार उन्हें मिलते थे. वे विदेशी शासकों के विरुद्ध क्रोध से भरे राजा शंकरशाह ५२ वीं रेजिमेंट के सिपाहियों व अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ जबलपुर छावनी पर आक्रमण करने की गुप्त योजना बना रहे थे. इस तरह राजा शंकरशाह भारत में अंग्रेजों की समाप्ति की हृदय से कामना करते थे और इसके लिए अपनी आराध्य देवी का स्मरण भी किया करते थे. अंत में यह तय हुआ कि मुहर्रम के दिन जबलपुर केंटोंनमेंट पर धावा बोलकर समस्त अंग्रेजों को गिरफ्तार कर केंटोंनमेंट में आग लगा दिया जाय और खजाना लूट लिया जाये. परंतु दो गद्दार सैनिक जमादारों के कारण इस योजना का क्रियान्वयन के पूर्व ही भंडाफोड़ कर दिया गया. इस क्रांति की बाढ़ को रोकने के लिए अंग्रेजों ने भारी सुरक्षात्मक तैयारी की. हिंसात्मक प्रयोगों के लिए और प्रारंभिक तैयारियों के लिए मदनमहल की पहाड़ियाँ काफी निरापद रही है. विद्रोहियों की छानबीन और सैनिकों में असंतोष के कारणों का पता लगाने के लिए अंग्रेजों ने गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया. राजा शंकरशाह विद्रोहियों के नेता हैं. यह जानकारी अंग्रेजों को मिल चुकी थी. अतः डिप्टी कमीश्नर क्लार्क ने चालाकी से काम लिया. उसने  फकीर के वेश में एक चपरासी को विस्तृत जानकारी के लिए राजा के पास भेजा. शंकरशाह ने धोखे में अपनी सम्पूर्ण योजना उस फकीर को बता दी. क्योंकि उस समय कभी क्रांतिकारी साधु फकीर या संयासी का भेष धारण कर घुमा करते वे योजना बनाते थे. भेदियों से जानकारी पाते ही डिप्टी कमिश्नर क्लार्क अपने सहायक २० सवारों और ४० पुलिस के सिपाहियों के साथ १४ सितम्बर १८५७ को राजा शंकरशाह को गिरफ्तार करने के लिए चल पड़ा. राजा जबलपुर से ४ मील दूर स्थित पुरवा गांव के गढ़ी में रहते थे (वर्तमान में अब यह स्थान जबलपुर नगर का एक भाग है). जब राजा की हवेली एक मील दूर रह गई, वह डिप्टी कमिश्नर कुछ घुड़सवारों को साथ लेकर आगे बढ़ गया और उसने पुरवा गांव को तब तक घेरे रखा जब तक कि शेष बल वहां नहीं पहुंच गया. इस तरह डिप्टी कमिश्नर क्लार्क ने पूरे पुरवा गढ़ी को घेर लिया और राजा शंकरशाह को उसके महल में ही उसके सहयोगी पुत्र राजकुमार रघुनाथशाह तथा तेरह अनुयायियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. इन स्वाभिमानी वीरों को हथकड़ियों और बेड़ियों से बांध कर केंटोंनमेंट की सैनिक जेल रेसीडेन्सी (वर्तमान जबलपुर कमिश्नर कार्यालय) ले जाया गया, इसके बाद अंग्रेज सिपाहियों ने राजा के निवास की तलाशी ली तो विद्रोहात्मक प्रवृत्ति के संगठन के संबंध में उन्हें राजा के पलंग के पास एक थैली में कई प्रकार के दस्तावेज मिले. उन दस्तावेजों में राजा शंकरशाह व्दारा हस्तलिखित एक वंदना भी हाथ लगी, जो राजा ने ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने तथा अपना राज्य स्थापित करने के लिए अपनी आराध्य देवी “कालीका, देवी” से याचना की थी. यह वंदना उस सरकारी घोषणा पत्र के एक ओर लिखी गई थी. जो की मेरठ के विद्रोह के उपरान्त अंग्रेजों ने जारी किया था. राजा शंकरशाह व्दारा लिखित “वंदना” इस प्रकार थी :-


मलेच्छों का मर्दन करो, कालिका माई |
मूंद मुख डंडिन को, चुगली को चबाई खाई,
खूंद डार दुष्टन को, शत्रु संहारिका ||१||
मार अंग्रेज रेंज, कई देई मात चंडी,
बचै नाहि बैरी, बाल बच्चे संचारिका |
शंकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर ||२||
दीन की सुन आय, मात कालिका,
खाई लेई मलेछन को, झैल नहीं करो अब |
         मच्छन कर तछन, धौर मात कालिका ||३||

तत्कालीन जबलपुर के कमिश्नर मि. अर्सकिन ने इस वंदना का अंग्रेजी अनुवाद भी कराया था. राजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथशाह की गिरफ्तारी से ५२ वी रेजिमेंट के सैनिकों में उत्तेजना फ़ैल गयी. इस रेजिमेंट के सैनिक राजा शंकरशाह के निकट संपर्क में रहकर विद्रोह की तैयारी कर रहे थे. सैनिकों ने राजा को जेल से मुक्त कराने का पूरा प्रयास किया, किन्तु वे असफल रहे. अंग्रेज जानते थे कि राजा शंकरशाह की आजादी अंग्रेजी शासन के लिए बड़ा खतरा है. अत: इन पर मुकदमा चलाने का नाटक किया गया. डिप्टी कमिश्नर और दो ब्रिटिश आधिकारियों की एक सैनिक अदालत बैठाई गयी. अंग्रेज शासनकाल में यह पहला अवसर था कि किसी राजा को गिरफ्तार कर अंग्रजों ने तीन दिन में मौत की सजा सुनाकर तथा उन्हें जिंदा तोप के सामने बांधकर तोप से उड़ा दिया हो. (भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में अंग्रेजों व्दारा कुल दो मर्तबा जीवित व्यक्ति को तोप के मुंह में बांधकर सजा देने का उल्लेख है (पहला शहीद शंकर शाह और रघुनाथ शाह और दूसरा शहीद वीर सिंह) अंग्रेज अदालत ने बड़ी जल्दबाजी में निर्णय दिया, कि राजा और उनका पुत्र भीषण देशद्रोह के अपराधी हैं और उन्हें मृत्युदंड दिया जाये. उनका जीवित रहना भारत सरकार के लिए गंभीर खतरा है अतः उन्हें तत्काल तोप से उड़ा दिया जाय.


गोंडवाना के गढ़ा मंडला राज्य में अंग्रेजों व्दारा आतंकी की   दृष्टि से १८ सितम्बर १८५७ को जबलपुर एजेंसी हॉउस के सामने (वर्तमान प्रांतीय शिक्षण महाविधालय के पास) फांसी परेड हुई. दो तोपें एजेंसी हॉउस के सामने में लायी गयी. तत्पश्चात राजा शंकरशाह और राजकुमार रघुनाथशाह व अन्य पांच साथियों को जेल से लाया गया. उनके चेहरे में दृढ़ता झलक रही थी. एकत्र अपार जन समूह को नियंत्रित करने के लिए पैदल सैनिकों और घुड़सवारों की टुकड़ियां दौड़-दौडकर तोपों के आसपास से बैचेन और उत्तेजित भीड़ को पीछे ढकेल रही थी. राजा शंकरशाह तथा पुत्र रघुनाथशाह की हथकड़ियाँ और पैर की बेड़ियाँ निकालकर उनके पांच दरबारी साथियों के साथ तोप के मुंह में बांध दिये गये. तोप के मुंह में बांधे जाने के समय शंकरशाह ने स्मरण किया कि, हे “कालीका देवी” हमारे बच्चों की सुरक्षा करें जिससे वे अंग्रेजों से बदला ले सके शीघ्र ही तोप धारियों को तोप चलाने की आज्ञा दी गयी और तोप चलाते ही साथियों के साथ पिता-पुत्र के अंग क्षत-बिछ्त होकर चारों ओर बिखर गये. पूरा गढ़ा मंडला का राज्य मातम में डूब गया. रानी फूल कुंवर के व्दारा अधजले शरीर के अवशेष एकत्र करवाये गये. जिस समय रानी अपने पति और पुत्र के क्षत-बिक्षत शव के अवशेष एकत्रित कर रही थी उस समय अंग्रेज अधिकारी बड़ी ख़ुशी और तृप्ति के साथ यह दृश्य देख रहे थे. इस तरह इस देश के महान स्वतंत्रता संग्रामी जो विदेशी अंग्रेजों से गुलामी छुड़ाना चाहते थे, गोंड राजा शंकरशाह पुत्र राजकुमार रघुनाथशाह एवं पांच अन्य सहयोगी साथियों का यह अभूतपूर्व बलिदानों की स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अविस्मरणीय कड़ी के रूप में जुड़ गया. स्थल पर उपस्थित एक अंग्रेज अधिकारी ने इस घटना का वृतांत इस प्रकार किया है-

“वृद्ध का चेहरा शांत और दृढ़ था. इसके पूर्व भी वह अचल रहा और इसी तरह का भाव उसके ४० वर्षीय पुत्र रघुनाथ शाह के चेहरे पर भी था. उसके हाथ और पैर तोप के निकट ही गिरे क्योंकि वे बंधे हुए थे. सिर और शरीर के उपरी भाग सामने की ओर ५० फुट की दूरी तक बिखर गये. उनके चेहरों की जरा क्षति नहीं पहुंची थी और उनका गरिमा अक्षुण रही."

राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा देने के कुछ ही दिनों बाद रानी फूलकुंवर मंडला चली गयी. उन्होंने वहां अपने पति और पुत्र की हत्या का बदला लेने के लिए एक सेना गठित करके अंग्रेजों से डटकर युद्ध किया और रामगढ़, डिंडोरी में सभी सरकारी कर्मचारियों को निकाल बाहर किया. अंत में अंग्रजों की विशाल सैन्य वाहिनी के सम्मुख अपने आपको असमर्थ पाकर और वंश परंपरा के गौरव की रक्षा हेतु एक वीरांगना के सदृश्य पेट में कटार भोंककर रण क्षेत्र में मृत्यु को वरण कर लिया किन्तु जिंदा रहते हुए शत्रु के हाथ में नहीं लगी. भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की अमर गाथा गोंडवाना के अनगिनत शहीदों ने अपने रक्त से लिखी है. यही कारण है कि यहाँ के स्वधीनता आन्दोलन का दायरा बड़ा व्यापक और असीमित है. इस विप्लव के अग्नि-पथ पर चलकर यहाँ के महान क्रांतिकारियों ने जिन्दगी और मौत से एक साथ खेला हैं. हमारे स्मरणार्थ शहीदों ने प्रायः इस संघर्ष की लपलपाती हुई ज्वालाओं में छलांग लगाकर अपने अमूल्य प्राणों की बलि ही नहीं चढ़ाई, बल्कि अपने अनूठे बलिदान की परम्परा को कायम करके उन्होंने आने वाली पीढ़ियों को अपने देश की आन बान और शान पर मर मिटने की प्रेरणा भी दी है. अंग्रेज मानकर चल रहे थे कि राजा शकंरशाह की भयानकतम सजा से क्रांतिकारी भयभीत होकर शांत हो आयेगें किन्तु अंग्रेजों का अनुमान गलत निकला. राजा शंकरशाह की जघन्य हत्या से विद्रोह की चिंगारी बुझी नहीं, वरन वह और धधक उठी. ५२ वीं रेजिमेंट के सैनिक टुकड़ियों का व्यवहार सदैव शालीनता और सम्मानपूर्ण भावना से ओतप्रोत होता था. किन्तु इस घटना ने सभी को उव्देलित कर दिया और शासन के विरोध में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहलाया. जो महान सैनिक क्रांति के रूप में विश्व इतिहास में दर्ज है इस संग्राम से लेकर आजादी के लिए जितनी भी लड़ाईयां लड़ी गयी उसमे गढ़ा-मंडला की एक विशिष्ट तथा महत्वपूर्ण भूमिका रही है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि १८५७ के पूर्व में जितने भी विद्रोह हुए उसका नेतृत्व आदिवासियों ने ही किया था. जिसका उल्लेख व सम्मान भारतीय इतिहासकारों ने नहीं किया.


राजा शंकरशाह ने जीवित रहकर जो करना चाहा था वह उसके बलिदान के उपरांत पूरा हुआ. इस तरह राजा शंकरशाह ने गढ़ा-मंडला की गौरवशाली बलिदानी परम्परा में एक और अध्याय जोड़ा. लगभग लगभग ३०० वर्ष पूर्व गोंड वंश की अनेक वीरांगनाओं ने भी मुगल साम्राज्य के विरुद्ध हथियार उठाये थे. गोंडवाना के गढ़ मंडला की स्वाधीनता की रक्षा के लिए इन वीरांगनाओं ने रणभूमि में प्राण न्यौछावर किये थे. उनके वंशजों ने भी उनकी बलिदानी परम्परा का  निर्वाह किया. इन्हीं घटनाओं के पृष्ठभूमि में १५ अगस्त १९४७ को भारतीय स्वतंत्रता की पूर्णाहुति हुई और हमें लंबी दासता से मुक्ति मिली. आज स्वाधीनता के इस महल में उनके भित्तिचित्र भले ही न हो और प्रार्थना के समय उन्हें भले ही स्मरण न किया जाता हो पर इन रणबांकुरों के रक्तीले हाथ कहीं न कहीं और कभी न कभी उभरे हुये अवश्य ही दिखायी देंगे. आजादी की लड़ाई लड़ी जाती है और लोहे की उन जंजीरों को काटने के लिए जिनसे सारा राष्ट्र साम्राज्यवादी ताकत से कस दिया जाता है, ये जंजीरे सुनहरी हथौड़ी से कट नहीं सकती और उनके टुकड़े-टुकड़े करने के लिए फौलादी या सार्थक हथौड़ी चाहिए, जो लाखो बहादुरों के साथ गोंडवाने की परंपरा रही है. यह निर्विवाद सत्य है, भले ही आप अपने देश के लिए सत्य न हो, क्योंकि अपने देश ने आजादी पायी है, अहिंसा के रास्ते पर चलकर किन्तु यह सत्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि बिना रक्त के, बिना बलिदान के, बिना सूली के रस्सों से आजादी नहीं मिल सकती. यदि गोंडवाने का विगत १५० वर्षों का इतिहास क्रमशः प्रमाणिकता के साथ दस्तावेजों के आधार पर संकलित किया जाय तो उनमे न जाने अन्जाने महान क्रांतिकारी शहीद मिलेंगे जिनके खून से आजाद भारत का इतिहास तैयार किया गया लेकिन एक षड्यंत्र के तहत छुपाया जा रहा. रामगढ़ डिंडोरी, घुघरी, देवहारगढ़, बिछिया, नारायाणगंज, मंडला के तुमल संघर्ष और गढ़ा का नरसंहार साक्षी है कि विनाश के दर्शन से ही निर्माण की सत्य प्रतिबिम्ब नजर आता है. इस प्रकार गोंडवाने में स्वाधीनता-आंदोलनों के सृष्टाओं के गढ़ा मडला के प्रेरणा-स्त्रोत अग्रिणी नेताओं की भूमिका इतिहास बन गयी. जिसे हम सभी को एक दूसरे के सहयोग से पुनः स्थापित करने के लिए तन-मन-धन से समर्पित होना पड़ेगा.

पराधीन राष्ट्र की जागरूकता का मापदंड है साधारण जनता की बेचैनी और अवतार रुपाई की हर कीमत पर प्राणोत्सर्ग की तैयारी और अटूट संकल्पता. फिरंगी शासन को ध्वस्त करने के लिए देश को अपने सपूतों को वेदी पर चढ़ाना पड़ा. वे केवल प्रतीक है उस दार्शनिक भावना के जिसमे आजादी को मानव का जन्म सिद्ध अधिकार माना जाता है और बलिदान, यातनाएं और चुनौतियाँ अधिकार प्राप्ति के साधन होते हैं. यह दार्शनिक सिधांत गुलाम देश और गुलाम समाज दोनों के लिए हर कालखण्ड में श्रेयष्कर और अभिमान मय है. आजादी पाने के लिए हर उपाय गौरव और गरिमा समझा जाता है. देश में जो कुछ भी प्रयत्न इस मंजिल तक पहुंचने के लिए किये गये वे हमारे इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों के अमूल्य दस्तावेज हैं. “१८ सितम्बर” ना सिर्फ गोंडवाना के वंशजों के लिए वरण सम्पूर्ण देशवासियों के लये गर्व और गौरव का दिन है. १८ सितम्बर को राजा शंकरशाह व कुंवर रघुनाथ शाह की सहादत अजर अमर है, आओ हम सब सृद्धा सुमन अर्पित कर अपनी महान महात्माओं को श्रद्धांजलि दें.

साभार गोंडवाना बंधू