रविवार, 17 फ़रवरी 2013

गोंडवाना जगत में विभाजक और एकात्मक तत्व एक विचार प्रवाह सत्य की ओर

          भावुक और जानकार व्यक्तियों का विश्वास है कि आज के विश्व के लिए किसी सामाजिक, राजनीतिक अथवा आर्थिक पुनर्गठन से भी अधिक गहरी एवं मूलभूत आवश्यकताएं हैं. आत्मिक पुनर्जागरण की खोई हुई आस्था को पुनः प्राप्त करने की. जब सभ्यता में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, तब वह विखंडित होने लगती है. इससे उत्पन्न होने वाली निराशा के मध्य मानवप्रजा वर्तमान समाज व्यवस्था की अपूर्णता को स्वीकार करने और नए सिरे से उसकी नीव डालने एअथा उसके आधार को बदलने की ओर उन्मुख होता है. इसके कारण आत्मान्वेषण के महान आंदोलनों का जन्म होता है. ऐसी ही एक अदभुत कड़ी के रूप में आज गोंडवाना जगत में पुनर्जागरण की दिव्य-शक्ति के खोजी यात्रा-पथ में विश्व प्रसिद्ध इतिहासज्ञ की तथ्यपूर्ण, तर्क संगत, ज्ञानवर्धक, सूत्रात्मक वाक्यांशों की ओर, सगा जगत का ध्यानाकर्षण करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य होगा. ताकि हम हमारे वास्तविक माटी से जुड़े हुए उन महान व्यक्तियों के बलिदान को नजदीक से पहचान सकें, जिन्होंने जय-सेवा शक्ति से गोंडवाना-जगत की एक अलग पहचान बनाई थी और है. विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार सर मैक्समूलर महोदय ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में सन १८८२ में अपने भाषण में कहा था कि- "हम इतिहास क्यों पढ़ते हैं ? केवल यह जानने के लिए कि हमारे पूर्वज कौन थे ? उनके धार्मिक आचार विचार और विश्वास क्या थे ?" इस सूत्रात्मक वाक्यांश के पृष्ठभूमि में यदि हम आज गोंडवाना जगत के पुनर्जागरण के लिए बातें करें, तो सबसे पहले हमें अपने भूतकाल और वर्तमान काल को झांककर स्पष्ट देखना होगा और पुनर्विचार करने के लिए हमें चिंतन और मनन की आज अधिक आवश्यकता होगी और है.

          मैक्समूलर महोदय के इस मौलिक सूत्रात्मक वाक्यांश में समाहित कथावस्तु की एक सामान्य परिभाषा को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि आज भारत के प्राचीन कालातीत पर लिखा इतिहास आर्य, क्षत्रीय और ब्राम्हणों का इतिहास बनाकर लिखा गया है. उसके बाद राजपूतों का इतिहास, वह भी उच्च वर्ग का इतिहास ही कहा जा सकता है. तदोपरांत मुस्लिम सम्राटों, नवाबों और अंत में अंग्रेज लार्डों का इतिहास लिखा गया. परन्तु भारत के मूलनिवासियों का, जिनकी जनसंख्या का ८५% है, (१) का इतिहास लिखा गया ? इस प्रश्न-चिन्ह के साथ अत्यधिक महत्वपूर्ण बात “भारत के महापंजीयक के कार्यालय अनुसार ३१ दिसंबर १९८८ को देश की जनसंख्या ८० करोड़ से अधिक थी. (२) की जानकारी जिसमे दर्शाई गई है, जिसमे निसंदेह अब पहले से भी अधिक हमारी जनसंख्या आज देश में होगी.” के इस तथ्य को भी हमें याद रखना होगा. सगा-जगत के अंतः सूत्र में व्याप्त हमारी यह मूल भावना कि हम आज अपने इतिहास की एक निर्णायक घड़ी पर आ पहुंचे हैं. इसलिए हमें हमारी पोषक सोच तत्व में ऐसा चुनाव कर लेना होगा, जो सदियों की घटनाओं की गति एवं दिशा को निश्चित रूप से सत्य मार्ग का एक दिव्य दर्शन हमें प्रदान कर सके, जो हमारे युग के लिए कुछ नवीन नहीं होगा वरन प्राचीनतम और नवीनतम चिंतन प्रयासों के बीच से हमें एक ऐसी अटूट आस्था, अटल विश्वास, युग सत्य और दिव्य ज्ञान के साथ ही दिव्य ज्योति उपलब्ध हो सके, जो हमारी कमजोरियों और हींन भावनाओं की अंधकार को दूर कर हमें एक श्रेष्ठ व्यक्ति बना सके. अन्धकार को लाठी से कितना ही पीटें, अन्धकार दूर नहीं होगा, परन्तु हम एक छोटा सा दीपक जला दें तो अवश्य अन्धकार दूर होगा. इसी सोच की मूमि से प्रेरित यह एक विचार-प्रवाह होगा जो हमारा छोटा सा प्रयास होगा. ज्ञान दीप को हमें सदैव ही जलाये रखना होगा, तभी सगा-जगत में आज व्याप्त भयावहः विभाजक घटा छट सकेगा. छटने की गति हमारी पुनर्जागरण की गति पर निर्भर होगी और है.

          गोंडवाना वासी के इस खोजी इतिहास के लिये हमें आज गोंडवाना भूखण्ड में बिखरे हुए द्रविणी गोंडी भाषिक मूल निवसियों से संबंधित लोक-साहित्य में इतिहास के मौलिक सूत्रात्मक तथ्य कैसे और कब ? की प्रामाणिक दस्तावेज को, संकलित करना अधिक आवश्यक हो गया है. भारत में गोंडवाना-जगत का प्रादुर्भाव और हमारी सगा-समाजिक संरचना में समाहित प्रकृति सादृश्य दिव्य-शक्ति, गोंडी भाषा जगत, गोंडी दर्शन जगत, गोंडी संस्कृति जगत, गोंडी कला जगत, गोंडी लोकसाहित्य जगत, गोंडी भूखण्ड जगत इत्यादि मौलिक विषय वस्तुओं के तथ्यों से सृजनित हमारा यह खोजी गोंडवाना इतिहास अपने तथ्यात्मक कथावस्तु और दिव्य-शक्ति के सत्यज्ञान की चेतना-शक्ति को साकार रूप देने के लिये आज विभिन्न विषयों के विव्दानो की द्स्तावेजिक प्रमाणों की आवश्यकता होगी, इसलिए भूगर्भ शास्त्रियों, मानव शास्त्रियों, समाज शास्त्रियों, भाषाविदों, पुरातत्वविदों और इतिहासविदों के विभिन्न तर्क कसौटी, के भट्टी में तपे तथ्यात्मक चेतना-शक्ति के सटीक प्रामाणिक कथ्य से दमकते निखरे प्रमाणों को, जो दिव्य सत्य की दमक से चढ़े आवरण को, ऐसी महत्वपूर्ण, तथ्यपूर्ण एवं प्रामाणित दस्तावेजों को ही उपयुक्त स्थानों में समावेस करने का हमे पूर्ण प्रयास करना होगा, तभी हम सत्य की उस दिव्य-शक्ति के ज्ञान-दीप से गोंडवाना-जगत में सोती-चेतना को झकझोरने के लिऐ निश्चित रूप से हम कुछ दृढ़-पग उठा सकेंगें. इसी सोच भूमि से प्रेरित होकर यह कृमिक संकलित की गई महत्वपूर्ण तथ्य है. यदि हमारी पुनर्जागरण के उद्देश्य-पथ में थोड़ा सा भी योगदान सगा-जगत को कर सका, तो यह हमारा विनम्र प्रयास कार्य सफलीभूत हो सकेगा, परन्तु हमें एक बात सदैव याद रखना होगा कि सत्य इतना कड़वा भी होता है कि वह उजागर करने की बहुत कम इजाजत देता है और जिन्हें दे देता है, वे उसी के घूंट पीकर मरण कर लेते हैं, लेकिन उनका मरना ही एक मृत-समाज की एक संजीवनी होती है.

          गोंडवाना-दर्शन समय चक्र है जो गोंडवाना जगत में व्याप्त आज की विसंगतियों और हमारी हीन भावनाओं अर्थात अज्ञानताओं का सर्वनाश करने के लिए चल पड़ा है. गोंडवाना  सगा जगत की अंतरात्मा में गुरु कृपा से प्रज्वलित यह पुरातन दिव्य ज्ञान शक्ति, जो मानवीय गुणों से भरपूर, तथ्यात्मक, पोषक यह सत्यज्ञान दीप की इस दिव्य चेतना शक्ति को सगा जगत पुनः जन मानस के मनो में आत्मीय पुनर्जागरण के शक्ति रूप में पुनरोत्थान करने के लिए, आज हमें अनवरत प्रयास करना होगा, तभी हम हमारे अतीत और वर्तमान के लिए जिन मूल्यों को हम अब तक स्वीकार करते रहे और हैं, उन्हीं सामाजिक मूल्यों को आज हम विवेक और तर्क की कसोटी पर निष्पक्ष होकर कसें, तभी हम हमारे समाजिक सगा-जगत के अधिक गहराई तक अर्थात मूल-भाव में पहुंच सकेंगे, जो सत्यज्ञान की ओर हमारे बढ़ते कदम का श्रीगणेश होगा. गोंडवाना दर्शन पत्रिका में प्रकाशित तथ्यपूर्ण सामग्री, न केवल वैज्ञानिक खोज प्रमाणों के तर्क-संगत संकलित तथ्यों की दस्तावेजी जानकारी है, वरन यह हमारे बिखरे लोकसाहित्य की अनवरत तलाश-पथ भी होगा. इसलिए सदैव चिर-परिचित अपनी समाजिक मूल्यों की अलग पहचान को पुनर्जीवित करके उसे अनवरत बनाए रखना ही हमारे लिये आवश्यक पोषक तत्व होगा. गोंडवाना के विभिन्न हिस्सा में लुके-छिपे, दबे-गड़े इतिहास की तलाश ..... हमारी अपनी वैज्ञानिक विरासत और वैज्ञानिक संस्कृति की तलाश .... कितना विशाल आयोजन है, इस तलाश के पीछे ...... और कितना सफल हो गया है, यह आयोजन हमारे सगा-जगत के लिए, यह हमारा अंतरंग आंकलन का एक महत्वपूर्ण प्रश्न चिन्ह होगा, उस प्रश्नोत्तर की तलाश हमे होगी. गोंडवाना-दर्शन ऐसे ही युवा-मनों की तलाश में संलग्न है, जो गोंडवाना के विभिन्न हिस्सों और इतिहास के पृष्ठों में गोंडवाना की अपनी छाप को तलाशने में रोमांचक अभियान पर निकल सके, परन्तु उनका इरादा तो सत्य की सर्वोच्च ज्ञान-शक्ति, की प्राप्ति है. गोंडवाना जगत को अब जानने और समझने का अनुपम समयावसर के लिए आज योग चक्र बनता हुआ दृष्टिगोचर होता है, जिसके मिलन केन्द्र बिंदु में समाहित तत्वज्ञान, वैज्ञानिक सोच की परंपरा में कितनी पुरानी हैं ? ...... कि विज्ञान क्या मात्र पश्चिम की देन है .........? मूल तथ्यों को विवेचनात्मक विचारधारा, में चिंतन और मनन के माध्यम से सृजनित पुनर्विचार की शक्ति ही हमारी अज्ञानता को दूर कर हमे पुनर्जागरण के मूलमंत्र की एकात्मक शक्ति के रूप में सत्य मार्ग का दिव्य-दर्शन प्रदान करेगी ऐसी हमारी चिंतन प्रवाह है.

          यह वह महान भूखण्ड है, जहां जन्मे सिंह सपूतों ने अपने अदम्य साहस, शौर्य पराक्रम, तपस्या, बलिदानों के मानव-सेवा के साथ ही जंगम और स्थावर जीव-सेवा की अदभुत अलख जगाई और उसी सत्यज्ञान की जय सेवा पथ परम्परा में लौह-लाडली ललनाओं की हिस्सेदारी भी कहीं कम नहीं है. उनके जौहर और उत्सर्ग की अमर-गाथाएँ आज भी गोंडवाना जगत में, उनके बिखरे-उत्सर्ग की सोंधी मिट्टी से रचे सने, मन-मोहक, तथ्य, कथ्य के चंहुमुखी मानवीय सुगंध से सृजनित जय-सेवा दिव्य शक्ति जन मानस के मन को प्रेरित कर, उव्देलित करती रहती है और युग युगों तक करती रहेगी. हमारे इस चिर गौरवान्वित खोजी इतिहास की तलाश कड़ी में, यह हमारा विनम्र कार्य केवल संकलन में कृमिक कार्य में कथावस्तु को जोड़ने वाली एक कड़ी मात्र ही प्रयास होगा. गोंडवाना की समृद्धि, गोंडवाना की भौतिकी एवं भौमिकी इतिहास, गोंडवाना की समृद्ध पुरातत्व गोंडवाना जगत का महामानव, गोंडवाना धर्म जगत (कोया पुनेम जगत) गोंडवाना का गोइंदारी वाणी खोज वाली कुल देवताएं गोंडवाना की संगीतिक उपलब्धियां, गोंडवाना की गौरव गाथा इत्यादि हमारी मौलिक विचार प्रवाह है. गोंडवाना जगत को यदि खोजी विचार प्रवाह हमारे इतिहास सृजन में कुछ योगदान कर सका, या सत्य तथ्यों को उजागर करने के गौरव पथ में, कुछ शोभा वृद्धि कर सका, तो हमारा यह प्रयास सफल हो सकेगा. प्रमुख विषय वस्तुओं के बिभिन्न शीर्षकों पर लिखित और आज तक प्रकाशित महत्वपूर्ण तथ्यों पर हम पुनर्विचार करेंगें, तभी हमे सत्य मार्ग का पथ दृष्टि गोचर हो सकेगा. कहने का हमारा तात्पर्य है कि ज्ञान से ही हमे सत्यमार्ग मिल सकेगा और आत्मिक पुनर्जागरण से ही हमे सत्यज्ञान मिल सकेगा, तभी हम अपनी खोई हुई आस्था विश्वास, आत्मबल के दिव्यज्ञान को पुनः प्राप्त कर सकेगें. ऐसी हमारी सोच धारा है. इसलिए गोंडवाना जगत में हमारा विनम्र निवेदन होगा की अपना स्पष्ट दिशा निर्देश निसंकोच हमे सत्य पथ के लिये देने का कष्ट करेंगें. हम बहुत उत्सुकता से गोंडवाना जगत के खोजी सुझाव आशीर्वाद की बाट जोह रहे हैं, इस आस में कि आपके खोजी तलाश फल का अनुपम सहयोग प्रदान में अनुग्रहीत करेगा.

          गोंडवाना भूखण्ड में आदिकाल से गोंडवाना मानव जगत अर्थात कोया वंशीय सगा जगत के हमारे जन मानस के मनों में अर्थात हमारे मानवात्माओं में बिखरे लोक कथासरों, लोक गीतों, लोक जीवन में आज समाहित विभिन्न तथ्य और कथ्य सामग्री जो हमे आज उपलब्ध होगा, वह हमारा पुरातन समाजिक संरचना में लोकतंत्र व्यवस्था की देंन रही और है. उस महान शक्ति को हमे आज अनवरत बनाये रखना ही होगा. तभी हम हमारे गोंडवाना जगत के उपयुक्त और सही छबि की छाप सहित अलग पहचान के साथ हम आज जीवित रह सकेंगे. इसी मूल भावना से प्रेरित होकर, हम हमारे गुरु कृपा से प्राप्त गोंडवाना की दिव्य शक्ति स्थावर और जंगम जीव जगत के लिये लोंगो के अमर संदेश में निर्दिष्ट सेवाभाव जय सेवा प्रकृति सेवा मानव सेवा की महान सेवा शक्ति के संदेश के साथ भी हम न्याय कर सकेंगे. यही सोच प्रवाह हमे सबसे पहले हमारे धरती जगत (मात्र शक्ति के रूप में वनस्पति जगत (पितृ शक्ति के रूप में अर्थात जीवन शक्ति) और जीव जगत (फड़ापेन की शक्ति के रूप में) पुर्वांकित महान दिव्य शक्तियों के लये कृतज्ञता प्रगट करने के पुरातन पद्धति को हम आज भूलें नहीं, क्योंकि हमारे गोंडवाना जगत के धर्म प्रदर्शन में आदि धर्म गुरु पारी कुपार लिंगों ने कोया पुनेम दर्शन अर्थात गोंडवाना धर्म दर्शन में, प्रकृति सादृश्य क्रिया प्रक्रिया की सर्वोच्च दिव्य ज्ञान के अटूट विश्वास को कोया जगत अर्थात गोंडवाना जगत में आदि काल से हमारे आंतरिक मनों में एक आश्चर्य चकित दिव्य चेतना दीप को प्रज्वलित की है, जो चिरंतन सत्यज्ञान, सत्यमार्ग प्रकृति सादृश्य और विज्ञान सम्मत भी है. गोंडवाना जगत सदैव इसके उपर रहे और है, केवल आज हमे हमारे प्राचीन मूल्यों की सामाजिक मान्यताओं के मूल भाव को आज के वैज्ञानिक परिवेश में तुलनात्मक अध्ययन कर पुनर्विचार करना ही हमारे लिये बहुत आवश्यक और उपयुक्त तथ्य होगा. क्योंकि वही समन्वित निष्कर्ष तथ्य ही हमारी मानसिकता की सोच पथ की स्पष्ट दिशाबोध कर सकेगा. इसलिए गोंडवाना भूखण्ड की भौतिकी संरचना से संबंधित खोजी कथा वस्तु की इतिहास में सोभा वृद्धि के लिये सबसे पहले हमारी माटी से जुड़े धरती माता की वैज्ञानिक परिवेश में खोजी कथा से हम शुभारंभ करते हैं.

          धूल के बादल से महाद्वीपों और समुद्रों का ग्रह यह समझा जाता है कि पृथ्वी अपने अस्तित्व में सौर-प्रणाली के एक भाग के रूप में बनी. यह अपने अस्तित्व में किस प्रकार आई, निर्माण के समय इसका स्वरूप क्या था ? और इसकी उपरी पपड़ी आवरण और बीच के भाग के अपने वर्तमान स्वरूप में इसका विकास किस प्रकार हुआ इन बातों के बारे में वैज्ञानिक एक मत नहीं हैं. संभवतः पृथ्वी गैस और धूल के चक्कर लगाते हुए बादल से बनी है. अपनी प्रारंभिक आस्था में पृथ्वी सिलिकन यौगिकों, लोहे, मैग्नेशियम आक्साइडों तथा सभी प्राकृतिक रासायनिक तत्वों की थोड़ी थोड़ी मात्रा में एक पिंड के रूप में बनी. ऐसा विश्वास किया जाता है कि पृथ्वी आरंभ में ठंडी थी. निश्चित ही यह गरम नहीं रही होगी. इसके बहुत से उड़ जाने वाले तत्व, जैसे पारा वर्तमान में समान मात्रा में अधिक दिन नहीं टिक सके. अपने निर्माण के समय धरती गरम होना शुरू हुई. गर्मी तीन स्त्रोतों में प्राप्त हुई. पहला स्त्रोत वे परमाणु थे जो स्थिर स्थिति में आ गई थी. घूमते रहने की उनकी ऊर्जा ऊष्मा की ऊर्जा में बदल गई. इस गर्मी में से कुछ गर्मी पृथ्वी में ही बची रही. दूसरा स्त्रोत है इसका आंतरिक भाग पृथ्वी के विकसित होने से इसका अंदरूनी भाग सतह पर जमने वाली सामग्री के वजन से कड़ा हो गया. इस प्रकार कड़क होने से गर्मी पैदा हुई, जिसका अधिकांश भाग पृथ्वी के बाहर जमा होने वाली सामग्री के कारण अन्दर ही रह गया. इसके आलावा पृथ्वी में प्रवेश करने वाले यूरेनियम, थोरियम और पोटेशियम जैसे रेडियों धर्मी पदार्थों के पृथ्वी में प्रविष्ट होने से उनके नष्ट होंने पर गर्मी पैदा हुई गर्मी के पहले दो स्त्रोत पृथ्वी के पूर्णतः बन जाने के पश्चात समाप्त हो गये किन्तु रेडियो धर्मिता की गर्मी आज भी बराबर बन रही है, चूँकि चट्टानों में से गर्मी आसानी से बाहर नही निकल पाती इसलिए धरती की सतह के नीचे पैदा होने वाली गर्मी बहुत धीरे-धीरे बाहर निकलती है.

          प्रकृति में प्राप्त मूलतत्व हाइड्रोजन (परमाणु संख्या १) लेकर सबसे भारी मूल तत्व यूरेनियम (परमाणु संख्या ९२) तक. प्लूटोनियम नामक मूलतत्व (परमाणु संख्या ९४) यूरेनियम और थोरियम के अयस्कों में सूक्ष्म मात्रा में मिलता प्रकृति की इन्हीं बहुमूल्य ९२ मूलतत्वों की भौतिकी क्रिया प्रक्रिया से सृजनित, इस भौतिक धरती जगत के निर्माणावधि के काल चक्र में हमे खोजी महत्वपूर्ण तथ्यात्मक वैज्ञानिक कथावस्तु आज उपलब्ध हुआ है उसमें प्रकृति के मूलतत्व का धरती निर्माण के भौतिकी विकासावधि में योगदान किस स्थिति में, किस रूप में, किस प्रकार मिला यह प्रश्नोत्तर हमारे लिए अभी तक रहस्य बना रहा, उसी चिंतन प्रवाह में हमारे पुर्वांकित खोजी वैज्ञानिक कथावस्तु को गोंडवाना जगत के लिए आज प्रस्तुत किये हैं, यदि वह हमारे सगा जगत के चिंतन धारा में आज कुछ मदद कर सका, तो हमे बड़ी खुशी अनुभव होगी. गोंडवाना भूखण्ड में आदिकाल से गोंडवाना जगत में चिरपरिचित सामाजिक प्रथा या मान्यता के मूलभाव में हमारे कोया वंशीय मानव जगत अर्थात कोयतुर सगाजगत के अंतरात्मा में गोंडी कुल देवताओं ५ के प्रति अटूट विश्वास का सुदृढ़सेतु कैसे सृजनित हुआ यह प्रश्नोतर भी हमारे सामाजिक-जीवन में आज रहस्य बना हुआ है. उसकी पुष्टि के लिए आज हमे लोक जीवन में सदैव प्रवाहित हमारी मात्र-भाषा की शक्ति से सृजनित बिखरे लोक-साहित्य से निःसन्देह हो सकती है, इसलिए आज अधिक आवश्कता है इस चिंतन-प्रवाह से पुनर्विचार करने की. उसके तथ्यात्मक इतिहास कथावस्तु क्या है ? खोजना और मौलिक तथ्यों में विवेचनात्मक अध्ययन के लिए, आज हमे हमारे धर्म दर्शन के मूल तथ्यों का भी स्पष्ट और प्रमाणिक जानकारी आवश्यक है. गोंडवाना धर्म दर्शन के संस्थापक महामानव, आदि धर्मगुरु पहान्दी पारी कुपार लिंगों के मानव कर्तव्य संदेश में निर्दिष्ट दर्शन तथ्यों का कथावस्तु क्या है ? वह और न कुछ होकर मोटे तौर पर केवल प्रकृति की सर्वोच्च दिव्य-शक्ति से सृजनित, सत्यज्ञान के रहस्यात्मक तथ्यों की केवल महत्वपूर्ण दस्तावेजीक जानकारी है, का दिव्य ज्ञान शक्ति हमे कैसे मिला ? यह प्रश्न चिन्ह गोंडवाना जगत को अवश्य आज उठित होगा, क्योंकि विभिन्न धर्मों के भ्रमजाल से भ्रमित होकर, आज हम गोंडवाना धर्म जगत के सत्यज्ञान से अनभिज्ञ है, यही आज हमारी कमजोरी हीन भावना और अज्ञानता है, जो हमारे आत्मबल में गतिरोध उत्पन्न करती है. विवादास्पद तथ्यों के लिये शोध और स्पष्ट हमारा चिंतन-प्रवाह विवेचनात्मक प्रक्रिया का ही दिशा-बोध होगा. गोंडवाना-जगत की अंतरात्मा में दिव्य सत्यज्ञान की ज्योति की आदिकाल से ही गुरु की परंपरा ने प्रज्वलित किया और है, तभी तो इतिहास और धर्म के अनेक कठिनाइयों के बाद भी, आज हमारा गोंडवाना-दर्शन विद्दमान है. प्रकृति सादृश्य तत्वज्ञान पर आधारित गोंडी-दर्शन को स्थापना आदिकाल में धर्म गुरु लिंगों ने की और सगा सामाजिक संरचना में उसी दर्शन की मान्यताओं के मूल्यों को व्यवहारिक रूप से प्रदान कर सामाजीकरण किया, इसलिए आज भी हमे हमारे समाज में विधिवत विद्दमान दृष्टिगोचर होता है. वैज्ञानिक परिवेश और हमारे दर्शन परिवेश के मौलिक तथ्यों पर विवेचनात्मक अध्ययन ही, गोंडवाना-जगत को अपने दर्शन के वास्तविक महत्व से, आज पुनः परिचित करा सकेगा.

          दोनों तथ्यों में आज समन्वित चिंतन-प्रवाह की हम, अधिक आवश्यकता महसूस करते हैं, ताकि हम इसमें कितनी समानता है, इस पर आज सोचने समझने और बिचारने का प्रमुख दायित्व गोंडवाना-जगत पर होगी, क्योंकि आज हमे यह स्पष्ट जानना और समझना अधिक आवश्यक हो गया है, कि गोंडवाना-जगत में वैज्ञानिक-चिंतन की परंपरा कितनी पुरानी है ? कि विज्ञान क्या मात्र वर्तमान-युग की देन है ? संदर्भित कथावस्तु गोंडी विचारक, मूर्धन्य गोंडीविद, प्रसिद्ध गोंडी साहित्यकार को विज्ञान-सम्मत, तर्क-संगत, तथ्य पूर्ण और महत्वपूर्ण गद्यांशों का हम अग्रिम पृष्ठों में उल्लेख करेंगें. गोंडवाना-जगत को विवेक और तर्क की कसौटी पर कसेंगें, तभी हम स्पष्ट मूल्यांकन कर, समझ सकेंगें.

          कली कंकाली अर्थात जंगो रायतार माता के आश्रम के बारह पुत्र कालांतर में कोया पुनेम के आदि धर्म गुरु पहांदीपारी कुपार लिंगों के शिष्य बने. उनका देव सगा गोत्र विभाजन की प्रक्रिया ऐसा रहा- सावरी (सेमर) वृक्ष के पत्तियों के गुट समूहानुसार और सूर्य माला के ग्रहों की रचनाधार पर क्रमशः उन्दाम, चिन्दाम, कोन्दाम, नाल्वेन, सैवेन, सार्वेन, येर्वेन, अर्वेन, नर्वेन, पदवेन, पार्वूद और पार्र्ड  किया. प्रथम सात देव-सगा धारकों में सात सौ (७००) कुल गोत्र नाम है, कोआकाशी, शेंदरी, जामूनी, नीला, हरा, पीला, और लाल रंग का वस्त्र दिया और शेष पांच सगाओं (भूमक शाखा सगा) के केवल पचास (५०) कुल गोत्र नाम है, को सूर्य प्रकाशी (पुरवा तिरेपी) अर्थात सफेद रंग का वस्त्र दिया. अपने सभी शिष्यों को धर्म गुरु पारी कुपार लिंगों ने सगा-गोंगो बाना से सुसज्जित कर गोंएन्दाडी (गोंएंडी, गोंडी) भाषा में कोया पुनेम ज्ञान की दिव्य ज्योति दी. वे ही मूल मानव-समाज कालांतर में कोयावंशीय सगा-जगत के कुल-देवताएं अर्थात मूल पुरुष कहलाये. वंशोत्पत्ति के लिए स्त्री सत्व भी आवश्यक तत्व है, जो विज्ञान सम्मत महत्वपूर्ण ज्ञान तथ्य है, इसलिए कोयतूर-जगत में बारह कुल-देवियाँ अर्थात मूल स्त्री सत्व को भी कुल-देवता ही कहा गया, यही कुल देवी देवताएं ही आज कोयतूर-जगत में व्याप्त मूल चौबीस कुल-देवताओं की बहुप्रशंसित तथ्यपूर्ण संख्या रहा और है. कोयावंशीय मानव जगत में, जब कोया-पुनेमी प्रचार-प्रसार का कार्य सम्पन्न हो चुका, इसके अलावा सगा-संबंध प्रस्थापित प्रक्रिया में कठिनाईयां उत्पन्न होने लगी तब कोयतूर जगत में व्दितीय पुनेम मुठवाशय लिंगों (रावेण पोन्याल) ने कालांतर में बारह मूलसगा देवी (जंगो रायतार माता शाखा के एक, दो और तीन देव. आदि धर्म गुरु कुपार लिंगों शाखा के चार, पांच, छ:, सात देव. इन सात सगा देवों के भुमक शाखा के आठ, नौ, दस, ग्यारह और बारह देव) को सामाजिक और धार्मिक दर्शन में सगा समायोजन की विलीनीकरण के महत्वपूर्ण प्रक्रिया को, आदि धर्म गुरु पहांदीपारी कुपार लिंगों से मूल-सिद्धांत सम और विषम देव-संख्या के भावना के अन्तर्गत संपन्न किया, जिसमे उन्होंने धर्म गुरु कुपार लिंगों शाखा के मूल चार कुल सगा देवताओं को हरेक सगा देवता के साथ सगा समायोजन प्रक्रिया को सम्पन्न किये, जिसमे एक सगा देव भूमक शाखा से और दूसरा सगा देव जंगो रायतार माता शाखा से लिया गया जो मूल सात सौ पचास (७५०) कुल गोत्र नामों में सगा समायोजन की प्रक्रिया निम्नांकित है :-


१.   चार देव के साथ + दस देव शाखा + दो देव शाखा - १०० + १० + १०० = २१०
२.   पांच देव से साथ + नव देव शाखा + एक देव शाखा -  १०० + १० + १०० = २१०
३.   छ: देव के साथ + आठ देव शाखा + बारह देव शाखा  - १०० + १० + १० = १२०
४. सात देव के साथ + ग्यारह देव शाखा + तीन देव शाखा - १०० + १० + १०० = २१०

कुल योग = ७५०

          गोंडवाना भूखंड में मूलनिवासी गोंडी-भाषिक धरती-पुत्रों को अपने गोंडी-जगत में, गुरु-कृपा ने आदि-काल से ही हमारे सगा समाजिक संरचना में, इस अदभुत दिव्य ज्ञान-शक्ति गोंडी तत्वज्ञान में फड़ापेन शक्ति का दर्शन, गोंडवाना कुल-देवता की सैद्धांतिक मान्यता पर आधारित हमारे चौबीस मूल वंशोत्पादक कुल-देवता का दर्शन, सगा देव धारकों के कुल-गोत्र नाम और कुल गोत्र चिन्ह का दर्शन, सगा देव बाना अर्थात सगा धर्म ध्वज का दर्शन, सम-विसम सगा-गोत्र और कुल चिन्ह के सगा-शाखाओं में ही वैवाहिक संबंध प्रस्थापित करने का दर्शन, सम-विसम गोत्र नाम और सम-विसम कुल चिन्ह से धारकों के माध्यम से ही प्रकृति-संतुलन करने का दर्शन, इत्यादि इस मौलिक गोंडी तत्वज्ञान को गुरु-शिष्य परम्परानुसार ही, इस दर्शन को व्यव्हारिक रूप से व्यवस्थापित किया था और है. गोंडी लोक साहित्य में बिखरे अनमोल मोती, जो आज उसकी स्पष्ट पुष्टि करती है और सगा-जगत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण विचारणीय तथ्य चार संभाग के भूखण्ड, चार वंश के मानव, चार गोंडी तत्वज्ञान के महामानव धर्म गुरु, बारह मूल सगा देवों के समायोजन प्रक्रिया के उपरान्त (प्रकियोपरांत) कालान्तर में चार मूल सगा देव शाखाओं की मान्यता, इत्यादि मौलिक तत्व भी आज उपलब्ध करती है. गोंडी तत्वज्ञान और तथ्य से भली भांति सगा-जगत आज पुनर्परिचित हो गये ही होंगे, ऐसा हमारी समझ है. चार अंक संख्या की यह बहुचर्चित और सोचनीय तथ्यात्मक प्रशंग है जो निसंदेह आज सगा–जगत के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न-चिन्ह होगी. क्योंकि बारह मूल सगा देवों की समायोजन प्रक्रिया के कालान्तर में उभरी, यह हमारे मूल कुल देवताओं की बहू प्रशंसित चौबीस संख्या की ही सिर्फ गणनात्मक मान्यताओं का सूचक-संख्या रही होगी और है. धर्म गुरु कुपार लिंगों शाखा के मूल चार, पांच, छ: और सात सगा देवों की अंक संख्या को जोड़े तो सिर्फ बाईस-सगा देवों की संख्या हमे मिलती है. उसमे हमारे अन्य आठ मूल सगा-देव शाखाएं भी मूल गोंडी सिद्धांतिक प्रक्रिया के तहत सम्मिलित की गई है. इसके अलावा आदि धर्म गुरु पारी लिंगों और आदि क्रांति देवी जंगों रायतार माता को भी जोड़े तो हमे जो संख्या मिलेगी वह हमारे चौबीस मूल सगा देवों की गणनात्मक संख्या का सूचक चिन्ह होगा, परन्तु विश्व-निर्माण में हमारे गोंडवाना-जगत की इस महत्वपूर्ण बहु-प्रशंसिय चौबीस मूल वंशोत्पादक कुल-देवताओं के योगदान को दुनिया नकार नहीं सकती. इसी संदर्भ में कोयतूर सगा-जगत के चिंतन और सोधक् मान्यवर ऋषि मसराम ने भी अपने शोध-लेख में जानकारी भी दी है, कि कोयतूर धर्म जगत में आदिम समाज के आधदेव लिंगों और जंगो रायतार, इनसे चार शाखाएं निर्मित हुई. १. राजा कोलासुर (काली) २. सेनापति-मायको सुगाल ३. तत्ववेत्ता-होरा जोती ४. देवदूत-तुरपोऊ-याल (महाकाली) इन चारो को ४, ५, ६, ७, देवों को २२ देव बनाया गया. इस संदर्भ में चार कुल सगा देवों के २२ देव आध देवता लिंगों और जंगो, यही हमारे २४ देवताओं की संख्या है. इसकी मूल देवताओं को वंश में ही हमारे सम्पूर्ण गोंडवाना-जगत निहित है.

          इस संदर्भ में प्रोफेसर चौहान ‘भारतीय शूर वन्य जमात गोंड’ में लिखते हैं, उसे भी हमे गोंडी तर्क-कसौटी में कसना होगा. बुढादेव ने इस सृष्टि का निर्माण किया है, बारह गोंड देवताओं ने इस सृष्टि का निर्माण किया है. गोंड बारह देवताओं का धार्मिक रूप व व्यवहार आज भी पुरानी रीति से है. इसके देवता भी प्रथक हैं. इनका देवता बूढ़ा है, जिसमे बड़ादेव भी समाहित हैं, जो सभी देवी की सहयोग से बना है. बूढ़ादेव समूह से बना होगा ऐसा भी लोग बताते हैं. कुछ भी हो तो भी गोंड लोगों के विश्व-निर्माण में चौबीस देवताओं का विशिष्ट महत्व है. इसलिए कोयतूर-जगत के धार्मिक, सामाजिक और व्यवहारिक जीवन-मूल्यों की मौलिकता को समझें तभी हम कोयतुर-जगत को करीब से समझ सकेगें अन्यथा नही. इसी संदर्भ में हम एक और प्रसिद्ध गोंडी साहित्यकार मान्यवर लिखारी सिंह वट्टी के लेख ‘गोंडी संस्कृति का प्रतीत अशोक चक्र’ का प्रसंगांश भी उल्लेख करते हैं. हमे उनके विवेचनात्मक तथ्यों पर विशेष ध्यान देना होगा. कोया वंश चक्र में धम्म-चक्र का स्वरूप स्वयं ही स्पष्ट है. इसका पूर्व स्वरूप तथा विकसित संकल्प राजा अशोक ने अपने शिल्पकला में स्पष्ट किया है. जिसमे राजा अशोक ने सिंह मुद्रा शांति-चक्र का रहस्योदघाटन प्राचीन-काल में अनार्य गोंड कितने ही आर्यों के पूर्व से ही भारत में निवास कर रहे हैं. अशोक के चौबीस चक्र गोंड देवताओं के चौबीस बहुप्रशंसिय वंशोत्पादक याने बुद्ध धर्म में से चौबीस चक्र आभास होता है. यह भी अत्यंत सूचक तथा सोचनीय कल्पना है कि गौतम बुद्ध भी मुरीय गोंड थे, इसलिए गोंडी संस्कृति के संकेत तथा कल्पना उनके धर्म चक्र में मिलता है. आगे लिखते हैं कि धम्म-चक्र हिन्दू की कल्पना तथा पुराणों में कही गई बात ठीक नही है. धम्म-चक्र गोंडी-संस्कृति का शत प्रतिशत प्रतिबिम्ब है. मूल चक्र गोंडी संस्कृति की प्रतीक है. मूल स्त्रोत धम्म-चक्र का गोंगो संस्कृति ही है. हमारी भूल के कारण हिन्दू समाज के लोग, गुमराह करने के लिए नहीं चूकते कि धम्म चक्र हिन्दू का ही अंग है. अब हमे सजग होना होगा तथा स्पष्ट समझना होगा कि हमारा राष्ट्रीय चिन्ह धम्म चक्र (अशोक-चक्र) ही गोंडी संस्कृति का मूल स्त्रोत है.

          सारांश यह है कि गोंडवाना-जगत की उत्पत्ति और हमारी सगा-समाजिक संरचना में हमारे मूल धार्मिक और व्यवहारिक जीवन मूल्यों में सदैव उन्नति हित रीति-नीति का सीधा संबंध मोटे तौर पर प्रकृति सदृश्य नियम की उस सृजन-प्रक्रिया (धरती-जगत की दिव्य-शक्ति, वनस्पति-जगत की दिव्य-शक्ति, जीव-जगत की दिव्य-शक्ति) में अंतर्नीहित शक्ति की दिव्य ज्योति का ही संक्षेप में हमारी यही एकात्मक गोंडी तत्वज्ञान और दर्शन की मौलिक कथावस्तु रहा और है, जो जंगम और स्थावर जीव-धारियों के लिये सर्वथा उन्नत एवं समृद्ध दिव्य शक्ति रहा है और है. वह गोंडवाना के गौरवशाली अतीत का सदैव एक स्वर्णिम पृष्ठ रहा और है. हम गोंडवाना-वासियों को उस दिव्य-ज्ञान पर गर्व रहा है और है. उसकी मौलिक ज्ञान और तथ्य आज विज्ञान सम्मत भी है. जिस युग में हम सिधु घाटी सभ्यता के धनी थे, उस काल में पश्चिम की आनेक् जातियां असभ्य एवं बर्बर जीवन व्यतीत किया करती थी. इस बात का भी हमे ध्यान रहे कि बहुत संभव है, इससे भी अधिक व प्राचीन अवशेष भारत की रलगर्भा भूमि के निचे दबे पड़े हो, इसलिए भी गोंडवाना में चहूँमुखी खोज की आज आवश्यकता जान पड़ती है, क्योंकि महत्वपूर्ण नवीन जानकरियां तभी हमे प्राप्त हो सकेगा. आज हमारे पास इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि किसी समय पृथ्वी का सम्पूर्ण भूखण्ड २X१० की घात ८ वर्ग किमी. (८ करोड़ वर्ग मील) के एक मात्र महाव्दीप के रूप में था. उस आदिमयुगीन महाव्दीप आज ‘पेंजिया’ के नाम से जाना जाता है. लगभग १९ करोड़ वर्ग जुरेसिक काल में यह दो विशाल महाव्दिप में बट गया और लारेशिया (यूरेशिया, ग्रीनलैंड, उतरी अमरीका तथा ‘गोंडवाना लैंड’ (आफ्रिका, अरब, भारत, दक्षिण अमरीका, ओरोनिया, अंटार्कटिका) नाम दिये गये. लगभग १२ करोड़ वर्ष पूर्व गोंडवाना लैंड भी दो भागों में विभक्त हो गया. आज के लगभग ४५ करोड़ वर्ष पूर्व अर्थात, आडोबिशियन-काल तक दक्षिणी ध्रूव संभवत: वहाँ था, जहां आज सहारा का मरुस्थल है.

          मानव समाज की अनेक जातियां केवल, अपने आपको उच्च-वर्ग और सभ्य-समाज के साथ जोड़ने और समझने की लम्बी-दौड़ में लम्बे-समय से संलग्न रहे और हैं. अपितु यह न जाने बिना कि उनका अखण्डित सत्यज्ञान और दर्शन क्या रहा और है ? इसलिए वे मिथ्याभिमान से ग्रस्त और भ्रमित रहे और हैं. वे मानव समाज की इस दिव्य अखण्डित सत्यज्ञान तथा परखज्ञान और मानवीय जीवन मूल्यों की समाजीकरण में प्रकृति की अदभूत अनमोल और खोजी एकात्म तत्व, जिसमे मानव जाति की सही आदर्शो पर चंहुमुखी उन्नति, समृद्ध, सुखमय-जीवन और मनुष्यता के भाव में अन्तनिहित दर्शन रहा है. ऐसे दिव्य ज्ञान-ज्योति से वे अनजान रहे और हैं. उच्च-वर्ग और सभ्य-समाज से ही अपने को जोड़ने और उसमे समझने वालों के दिलों में, सृजनित-भू भाव कालान्तर में मिथ्याभिमान के दुश्चक्र के रूप में हमे यह मानव-विभाजित विभाजक-तत्व, वर्णभेद, जातिभेद, रंगभेद, भाषाभेद, धर्मभेद इत्यादि मिलता रहा और है. अमानवीय अहम-भावना की उनकी यही देन मानव जगत के लिए रही और है. इसकी पुष्टि मानव जगत को ठोस प्रमाणिक ऐतिहासिक घटनाएँ करती रही और है. इसके अलावा मानव समाज उसके अभिशाप के दुश्चक्र के रूप चतुर्दिक व्याप्त असमानता, अमानवीय, असमाजिक अज्ञानता, अवैज्ञानिक, कपोल कल्पित कथा को अदूरदर्शी तथ्यों ने ही मानव-जाति को कालान्तर में केवल विभाजित करती रही और है, फलस्वरूप उनमे शोषण की प्रवृत्ति बढती गई और मानव-जगत में उनकी वर्ण-व्यवस्था ब्राम्हण यज्ञ के नाम पर, क्षत्रिय करों के नाम पर तथा वैश्य लाभ के नाम पर, भयानक रूप से शोषण करते रहे और हैं. इसकी पुष्टि ब्राम्हण-ग्रंथों से होती रही और है. हमारा सगा-जगत उनके दुश्चक्र से कैसे अछूत रखते ? इसकी पुष्टि हमारे ठोस एतिहासिक घटनाएँ भी करती है और है. उनके द्वारा बोये गये फूट के बीजों की ही देंन रही है की हम अपने ही धरती और अपने ही गोंडवाना—आदर्शों के जीवन-मूल्यों पर आधारित सच्चे इतिहास से भी अनजान रहे और हैं.

          इस बात की भी हमे ध्यान रहे, कि जो धरती पुत्र सदैव मानव-पोषण अन्नदाता रहा और वह अपने ही धार्मिक और सामाजिक दर्शन मूल्यों पर आधारित सच्चे-इतिहास से प्रेरक-शक्ति प्राप्त करता रहा और है. वह मानव समाज कभी मृत नहीं रहा है और न रहेगा क्योंकि उसका निश्चित रूप से अस्तित्वकर्ता सदैव उपलब्ध रहा है और रहेगा. सगा-मानव का जन्म (प्रादुर्भाव पयुंडाय, सुधार) और मृत्यु (अस्तित्व विहीन भुरडाय, बिगाड) ठीक उसी तरह है जैसे प्रजनन शक्ति और प्रकृति बिगाड़-शक्ति की गुण धर्म परिवर्तनशील है, जो अखंडित सत्यज्ञान रहा है और रहेगा उसका कोया-जगत सदैव उपासक रहे, हैं और रहेगा. गोंडवाना-जगत में हमारा सगा-समाज सदैव गोंडवाना के जीवन मूल्यों पर आधारित सच्चे अस्तित्व में रहा है. और रहेगा. कोया मानव आते-जाते रहेगें जो एक शास्वत प्रक्रिया की अखण्डित नियम और सत्यज्ञान है. गोंडवाना-जगत में-चतुर्दिक बिखरे हमारी लोक-साहित्य में समाहित अनमोल, अमृत-विचार के दिव्य मोतियों का संकलन, अध्ययन और चिंतन-मनन की आज अधिक आवश्यकता जान पड़ती है, क्योंकि तभी हम हमारे दर्शन की समाजीकरण में बिखरे अलिखित अर्थात मौखिक दिव्य ज्ञान-ज्योति के ठोस प्रमाणों को सगा-जगत में स्थापित आदर्शों के नियम और उनके संस्थापक महामानव को आज हम स्पष्ट जान सकेंगें. हमारे सामाजिक संरचना में अंतर्नीहित लोकतंत्रिक आदर्शों, नियम की स्थापना के साथ ही राष्ट्र की स्पष्ट धारणा, तब सृजनित हो चुकी थी, जब आज का उच्च-वर्ग और सभ्य कहा जाने वाला समाज चरवाहों के घुमक्कड़-जीवन व्यतीत करता था. इसकी पुष्टि मोहनजोदड़ो की सभ्यता और संस्कृति करती रही और है. संस्कृति का संबंध मनुष्य के उदात्त गुणों के साथ है, जबकि सभ्यता भौतिक सुख-समृद्धि का घोतक करती है. सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य को मानव के रूप में विकसित करना सभ्यता एवं संस्कृति दोनों का लक्ष्य रहा है. दोनों के स्वरूप में बहुत कुछ मिले-जुले और परस्पर पूरक होते हैं. इसलिए कोयतूर-जगत को अपने धार्मिक, सामाजिक और व्यवहारिक सच्ची जीवन-मुल्यों को सच्ची सामाजिकता को ठीक से समझना होगा तभी कोयतूर-जगत अपने आदर्शों को आज समझ सकेगा. यही विचार मंथनोपरांत जानना, समझना और व्यवहारिक रूप में आदर्शों को मानना ही हमारी आत्मिक पुनर्जागरण की दिव्य शक्ति होगी, जो हमारी खोई हुई आत्मज्ञान को पुनर्स्थापित करने में अधिक बल देगी, जैसे हमारी सोच की मानसिकता बनती है.

          धरती निर्माण के प्रारम्भिक कालखण्ड में भौतिक प्रक्रिया की वैज्ञानिक मूल्यों पर तथ्यों में, यदि हम तुलनात्मक अध्ययन निष्पक्ष करें तों हमे गोंडवाना-जगत के सामाजिक आदर्शों के दर्शन में, उसके सच्चे मौलिक तथ्यों के जड़ों तक पहुंचने में अर्थात भली-भांति समझने में, यह वैज्ञानिक तथ्य आज हमे आत्माधिक सहायक सिद्ध करेगी ऐसी हमारी  मानसिकता की समझ है. मध्य भाग आवरण और पपड़ी पृथ्वी में गर्मी के सदैव बने रहने वाले इस स्त्रोत से पृथ्वी के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ा है. पृथ्वी की प्रारम्भिक अवस्था में रेडियो धर्मी बहुत तेजी से बनी, किन्तु उतनी तेजी से निकल नहीं सकी, उसके कारण लाखो वर्ष बाद पृथ्वी में तापमान लोहे के पिघलने के तापमान तक पहुँच गया, किन्तु पृथ्वी के बीच-बीच में ऐसा नहीं हुआ. पृथ्वी के बीच का हिस्सा सबसे गरम इलाका होने के बावजूद सबसे अधिक दबाव वाला हिस्सा भी बना रहा. किसी धातु के पिघलने का तापमान उस पर पड़ने वाले दबाव में वृद्धि होने से बढ़ता है. जिस-जिस क्षेत्र में लोहा पिघला वह पृथ्वी के अन्दर ४०० से ८०० किलोमीटर (२५०-५०० मील) की गहराई में था जहां पर तापमान और दबाव का एक उपयुक्त समन्वय मौजूद था. लोहे के पिघलने से वह बूंद-बूंद बनकर पृथ्वी के बीच में आना शुरू हो गया क्योंकि लोहे की वे बुँदे आसपास की अन्य समग्री से अधिक भारी थी. लोहे के इन बूंदों के जमा होने से इसकी गुरुत्वाकर्षण उर्जा गर्मी की उर्जा में बदल गई, जिससे पृथ्वी का तापमान और भी अधिक बढ़ गया. तापमान में इस वृद्धि से लोहे के पिघलने का क्षेत्र तब तक बढ़ता गया, जब तक वह पृथ्वी के अन्दर तकरीबन सारे भाग में नहीं फ़ैल गया. इस समय तक दूसरे अन्य तत्व भी पिछले. कुछ अंशतः और कुछ पूर्णतः भारी तत्व पृथ्वी के बीच में आ गये और हल्के तत्व ऊपर उठते हैं. वजन के कारण सामग्री अलग-अलग स्थान पर जमा होती गई. पिघलने वाले भारी तत्वों में मुख्य स्थान लोहे का था. ये तत्व पिघलकर पृथ्वी के बीच में द्रवरूप में जमा हो गये. हल्के तत्व में प्रमुख मात्रा सिलिकन की थी. वे तत्व पृथ्वी के सतह के भाग पर आ गये तथा वंहा ठंडे होकर कड़ो पपड़ी के रूप में जमा हो गये. बाकि मूल सामग्री बीह के और पपड़ी के मध्य आवरण के रूप में जमा हो गये.

          पृथ्वी के इतिहास का समय मान चट्टानों के निर्माण की सही तिथि दर्शाए जाने के बहुत पहले भू-वैज्ञानिकों ने एक सापेक्षित समय मान निर्मित किया था, जिसे उन्होंने युगों अवधियों तथा काल में विभाजित किया है. कुछ समय पहले तक पृथ्वी के निर्माण संबंधी मुख्य घटनाओं तथा पृथ्वी के उदभव के समय का अनुमान किया जाता था. किन्तु अब उनमे बहुत सी घटनाओं की तिथि बताई जा सकती है जो उनकी रेडियों धर्मिता के अध्यन से प्राप्त की गई हो.


प्रकृति की परिवर्तनशील शक्ति में भौतिकी प्रक्रिया की वैज्ञानिक मूल प्रमाणों पर आधारित उस सृजनित तत्वों को भी हम धरती-जगत की वैज्ञानिक उत्पत्ति के इतिहासानुसार राज्य से लगभग ३०० सौ करोड़ वर्ष पूर्व भूपटल के ठंडा होने से शैलों का सर्वप्रथम निर्माण इसी महाकल्प में हुआ था. इस महाकल्प में भूगर्भीय उथल पुथल तलछट एवं लावा का जमाव, अपरदन, भूसंचलन एवं पर्वतों के निर्माण की क्रियाओं की पुनरावृत्ति के फलस्वरूप विश्व के कतिपय प्राचीनतम कठोर भूखण्डों का निर्माण हुआ, जिसमे से दक्षिणी गोलार्द्ध में विस्तृत विशाल गोंडवाना भूखण्ड भी एक था. इसी गोंडवाना का एक भाग प्रायः व्दितीय भारत भी है, जिसके अंतर्गत सम्पूर्ण छतीसगढ़ आता. यह महाकल्प लाखो जीवों को छोड़कर प्राणीविहिन एवं वनस्पति विहिन था. इस उपरोक्त उल्लेख प्रसंगांश में, भौतिकी प्रभाव से उत्पन्न तत्व परिणामों और भूखण्ड को समझकर, धरती निर्माण प्रक्रिया पर आज सगा जगत स्वयं विचार मंथन कर, तथ्यों पर निष्पक्ष मूल्यांकन करते हुये, स्वतः सत्य की ओर बढ़ें, यही हमारी शुभकामनाएँ होगी.
ठाकुर कोमल सिंह मरई
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