रविवार, 15 दिसंबर 2013

गोंडवाना जीव जगत की उत्पत्ति, उत्थान और पतन के पश्चात पुनरुत्थान संघर्ष

तिरुमाय चंद्रलेखा कंगाली

गोंडवाना लैंड और लौरेसिया 
गोंडवाना जीव जगत की उत्पत्ति, उत्थान और पतन की भूमिका में प्रवेश पाने के लिए गोंडवाना क्या है, यह जानना अनिवार्य है. गोंडवाना एक ऐसी व्यवस्था है, जिसे गंड जीवों की उत्पत्ति एवं विकास की प्रक्रिया से उसकी भाषा, संस्कृति, सभ्यता एवं सामुदायिक जीवन मूल्यों से, उसके भौगोलिक आवासीय परिवेश से तथा उसके प्राचीन कोप, कोट, गोंदोला, गुड़ा एवं गढ़ों की प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक अवशेष एवं गाथा से ही जाना जा सकता है. गोंडी मूल सूत्र में गंडोद्वीप के गंडजीवों की, गोंदोला वासियों की, गोयंदांड़ी से निर्मित गोंडवानी की और गंडोदाई की कोया से निर्मित कोयावंशियों की थोड़ी-बहुत जानकारी मिलती है. जैसे-

संयुंग खंडाना उंदी गंडा आसी, इदामा गंडो दईप रचे नाता |
गंडोदईनोर गंडजीवाना, उंदी गोंदोलाते ने पैचान आयाता ||
गोंदोलाता भूई गोंडवाना आसी, गोयंदाड़ी ता गोंडवानी पुटता |
गंडोदाईना कोयाते पोयसी वाया, इंजी कोया वंश बनेम आता ||

अर्थ- पांच खण्डों का एक गंडा होकर, यह हमारा गंडोदीप बना है. गंडोदाई के गंड जीवों की एक गोंदोला में पहचान होती है. गोंदोला की भूमि गोंडवाना बनी, गोयंदाड़ी से गोंडवानी निकली है. गंडोदाई की कोया से जन्म होता है, इसलिए कोया वंश बना है.

उक्त गोंडी सूत्र के अनुसार पांच खण्डों के संयुक्तीकरण से एक गंडा (संच) बनकर, इस धरती माता (गंडोदीप) की रचना हुई. गंडोदाई (धरती माता) के गंड जीवों की पहचान एक गोंदोला (समुदाय) के रूप में होती है. गोंदोलावासी गोंडों (गंडजीवों) की भूमि गोंडवाना बनी है और गोयंदाड़ी (डमरू) की आवाज से गोंडी भाषा निर्माण हुई है. गोंदोलावासी गोंडियनों की उत्पत्ति गंडोदाई (धरती माता) की कोया से हुई है, इसलिए उनका कोया वंश बना है.

गोंडी भाषा में पांच तत्वों के एक संच को गंडा कहते हैं. गोंडी मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी भी येर, तोड़ी, अदरी, वड़ी और पोकड़ी (जल, मिट्टी, ताप, वायु और पोकरण) इन पांच तत्वों से बनी है. इन पांच तत्वों के संच रूपी पृथ्वी को गोंडी में गंडोदीप कहा जाता है. गंडोदीप से गोंडियनों का तात्पर्य मात्र पांच खण्डों का संयुक्त द्वीप समूह से है. पृथ्वी के शेष भू-भाग को गोंडी में अंडोदीप कहा जाता है. गोंडी सार के अनुसार यह धरती दो द्वीपों में विभाजित है. एक नालूंग खंडाना अंडोदीप और दूसरा संयुग खंडाना गंडोदीप अर्थात चार खण्डों का अंडोदीप और पांच खण्डों का गंडोदीप, ऐसे कुल नौ खण्डों की धरती की मान्यता गोंड समुदाय में प्रचलित है. जैसे-

नालूंग खंडाना अंडोदीप, संयूंग खंडाना गंडोदीप |
नरुंग खंडाना धरती, मंदाकसारु खंडाना सिरडीदीप ||
धरती राजाल शंभू आंदूर, वेन राजालीर लिंगों रो |
धरती दाई मुलाल आंदू, वेन दाई रायतार जंगो रो ||
सिरडी दाऊ सल्ला आंदूर, दाई आंदूने गांगरा रो |
सबू जीवानूंग पोय सियाना, पेन मावा फरा रो ||

अर्थ- चार खण्डों का अंडोदीप, पांच खण्डों का गंडोदीप. नौ खण्डों की धरती है, सोलह खण्डों की सृष्टि. धरती का राजा शंभू है, वेनों का राजा लिंगों. धरती दाई मूला है, वेनों की दाई रायतार जंगो है. सृष्टि का दाऊ सल्लां है, तो दाई रूप में गांगरा है. सभी जीवों का जन्मदाता, फरावेन हमारा है.

उक्त धरती और सृष्टि के गीत के अनुसार चार खण्डों का अंडोदीप और पांच खण्डों का गंडोदीप याने भूगर्भशास्त्रियों द्वारा नामांकन किया गया पृथ्वी का उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध के चार खण्डों को अंडोदीप याने अंगारा लैंड और दक्षिणी गोलार्ध के पांच खण्डों को गोंडवाना लैंड कहा जाता है. इस तरह यह पृथ्वी नौ खण्डों की बनी हुई है, जिसकी जानकारी गोंडी दर्शन से मिलती है. गोंडी दर्शन में धरती का स्वामी शंभूसेक को माना गया है और धरती के गोंदोलावासी गोंडी सगावेनों का राजा लिंगों को माना गया है. उसी तरह धरती की माता मूलादाई और सगावेनों की माता रायतार जंगों दाई को माना गया है. इस चराचर जगत का जन्मदाता सल्लां-गांगरा, नर-मादा, ऊना-पूना, दाऊ-दाई शक्ति फरापेन/फाड़ापेन को माना गया है. 

भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार पृथ्वी की आयु करीब ३०० करोड़ वर्ष आंकी गई है. प्रारम्भ में पृथ्वी एक गतिशील वायु रूप तप्त गोला था. कालांतर में उसका भूपटल ठंडा होने की वजह से सर्वप्रथम शैल निर्माण हुए. प्रारम्भ में सभी शैल एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. पृथ्वी के ठण्ड होने की प्रक्रिया में वहाँ के जो वायु रूप पदार्थ थे, वे भूपटल पर ही उसके गुरुत्वाकर्षण शक्ति की वजह से वलयाकार में रहे. उसी वायु रूप आवरण से वातावरण बना. इस वातावरण में पानी का भाप भी था, जो ठंडा होकर पानी के रूप में पृथ्वी पर आ बरसा तथा ऊंचे क्षेत्र से ढलान की ओर बहकर नदी, नाले, जलाशय एवं समुद्र बने. पृथ्वी का ३ चौथाई हिस्सा समुद्र के पानी से ढक गया. बाद में पृथ्वी की शैलों में उलाढालियां होने से वह दो खण्डों में विभाजित हुआ. एक उत्तर खंड और दूसरा दक्षिण खंड तथा उन दोनों खण्डों के बीच टेथिस सागर निर्माण हुआ. पृथ्वी के शैलों में आंतरिक हलचल की प्रक्रिया निरंतर शुरू रहती है. ऐसे ही वृहत हलचल की प्रक्रिया से पृथ्वी का दक्षिण गोलार्ध फिर से पांच द्वीपों में विभाजित हुआ. (३) उन्ही पांच द्वीपों के संयुक्त स्थिति को गोंडी में गंडोदीप या सिंगारदीप कहा जाता है.

उक्त गंडोदीप तथा सिंगारदीप की जानकारी इस देश के मूलनिवासी गोंड समुदाय में अनादिकाल से प्रचलित है, जिससे यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी के दक्षिण गोलार्ध का पांच द्वीपों के समूह में विभाजित होने से पूर्व भी इस गंडोदीप में कोया वंशीय गोंदोला के गोंड अस्तित्व में थे. वे गोंदोला (समुदाय) में निवास करते थे, इसलिए उनका भू-भाग गोंडवाना नाम से जाना जाता था. यही वह ठोस वजह है कि भूगर्भशास्त्रियों ने गोंडवाना भू-खंड को व्यापक रूप से स्वीकार किया है.

पृथ्वी के चट्टानों का अध्ययन करते समय आस्ट्रिया के भूगर्भशास्त्री एडवर्ड सूएस ने एक विशेष प्रकार के चट्टानों वाला क्षेत्र खोज निकाला. उसी अध्ययन के दौरान उन्होंने यह पाया कि अटलांटिक महासागर का अमरीकी किनारा और आफ्रीकी का किनारा एक जैसा ही है. उसी तरह हिंद महासागर का आफ्रीकी किनारा और पेनीनसूलर इंडिया का, मेडागास्कर, आस्ट्रेलिया तथा अंटार्कटिका के किनारे भी कागज़ के फटे हुए टुकड़ों के सामान एक दूसरे से जोड़े जा सकते हैं. तब उन्होंने पहली बार यह प्रतिपादित किया कि पृथ्वी की दक्षिणी गोलार्ध के पांच द्वीपों का एक संयुक्त महादीप लगभग दो करोड़ वर्ष पूर्व मौजूद था. (४)

इस विषय पर अध्ययन करने हेतु वे १८८५ में भारत आये. उन्होंने यहाँ के शैल शमूहों को देखा. तब भारत के मूलनिवासियों का एक गोंडवाना प्रदेश विभिन्न गढ़ों के रूप में अस्तित्व में था. वहाँ के बहुसंख्यक मूलनिवासी गोंड थे, जिनकी मातृभाषा गोंडी थी, जो जन साधारण की भाषा थी. मध्य भारत के गोंडवाना प्रदेश में विद्दमान चट्टानों का अध्ययन करते समय उनका संपर्क गोंडी भाषा बोलने वाले गोंड समुदाय के लोगों से हुआ. गोंडी भाषा में प्रचलित गंडोदीप, सिंगारदीप, गंडोदाई आदि शब्दों का अर्थ पांच द्वीपों का समूह याने गोंदोला में निवास करने वाले गोंडों का गोंडवाना, यह जानकार उनको और भी पुख्ता प्रमाण मिला, कि दक्षिण गोलार्ध के पांच द्वीपों का विशाल द्वीप समूह प्राचीन काल में था और वहाँ के मूलनिवासियों के वंशज आज भी गोंडवाना प्रदेश में विद्दमान हैं. इस ठोस तथ्य को मूलाधार मानकर उन्होंने पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध के पांच द्वीपों के विशाल समूह (गंडोदीप) का नाम गोंडवाना लैंड रखा. उसी तरह पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध को लौरेशिया अर्थात लैंड ऑफ यूरोपियन्स एंड रशियंस ऐसा नाम दिया (५)

उक्त पांच द्वीपों के विशाल समूह को एडवर्ड सुएस ने कोई नया नाम नहीं दिया, बल्कि उसके प्राचीन मूल नाम गोंडवाना से ही उसे संबोधित कर सत्यता को दुनिया के सामने पुनः प्रकट किया. मूलनिवासी गोंड समुदाय में प्रचलित "नालूंग खंडाना अंडोदीप उंडे सयूंग खंडाना गंडोदीप" वाक्य प्रचार भी इस तथ्य को प्रमाणित करता है, कि चार खण्डों का अंडोदीप याने अंगारालैंड अर्थात लौरेसिया और पाच खंडों का गंडोदीप अर्थात गोंडवाना लैंड प्राचीन काल में था. इन दोनों अंडोदीप और गंडोदीप के संयुक्त द्वीप समूह को गोंडी में "नरुंग खंड धरती" (नौ खंड धरती) कहा जाता है, जिस पर से गोंड समुदाय की प्राचीनता और व्यापकता प्रमाणित होती है.

भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार आदिकाल में पृथ्वी पर जीवन या चैतन्य का कोई चिन्ह नहीं था. किन्तु पृथ्वी ठंडा हो जाने पर समुद्र के जलाशय में जीवों की उत्पत्ति हुई. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि प्रारंभिक जीवाणू समुद्र में ही निर्माण हुए. क्योंकि पानी में ही जीवाणुओं के निर्माण होने के तत्व होते हैं. जीवशास्त्री डार्विन के अनुसार प्रारंभिक जीव एक कोशीय रूप में विकसित हुए. तत्पश्चात संबद्ध होकर उनका अनेक कोशीय जीवों में विकास हुआ. इस तरह सूक्ष्म कोशीय जीवों से चराचर जगत का निर्माण हुआ.

गोंडी दर्शन के अनुसार जीवाश्मों का प्रादुर्भाव गंडोदीप में विद्दमान सल्लां तथा गांगरा (धन-ऋण) शक्तियों की क्रिया प्रक्रिया से जल, वायु, ताप और मिट्टी का धूसरण पोकूर में होने से होता है. सल्लां ऊना गुणधारी और गांगरा पूना गुणधारी नार-मादा तत्व हैं. प्रकृति के इन दोनों परस्पर विरोधी किन्तु एक दूसरे के पूरक धन-ऋण तत्वों का आपस में कयउर्कय (क्रिया-प्रक्रिया) होकर इस धरती पर जीवोत्सवों का प्रादुर्भाव होता है. जैसे-

सल्लां उनाता गांगरा पूना संगने गईट आयांता |
हिद सिरडीता जीवाना गाड़ा आपीने मुने ताकीता ||
सल्लां दाऊना गांगरा दाईना गोसिट रूप बियांता |
अवेना कय उर्कयताल गंडजीवांग पुटसी वायांता ||
येर तोड़ी अद्दी वडी ता कोया ते दूसरेण आयांता |
सुनों कोयाते जीवाना गंडा समे मासी हन्ता ||

अर्थ- सल्लां ऊना का गंगरा पूना के साथ समागम होता है. इस सृष्टि का जीवन चक्र उसी से आगे चलते रहता है. सल्लां पिता का गांगरा माता का रूप धारण करता है. उनके क्रिया प्रक्रिया से गंड जीवों की उत्पत्ति होती है. जल, मिट्टी, ताप, वायु का कोया में मंथन होता है. शून्य रूप कोया में जीवों का गंड समाहित हो जाता है.

उक्त गोंडी सिरडी जीवा सूत्र के अनुसार गंडजीवों की उत्पत्ति प्रकृति के सल्लां-गांगरा धन-ऋण शक्तियों की आपसी क्रिया प्रक्रिया से जल, मिट्टी, ताप, वायु का मंथन कोया (पोकरण) में होकर होती है. ईस तरह गोंडी दर्शन का यह सिरडी जीवा सूत्र भी डार्विन के सूक्ष्म कोशीय जीव सृष्टि सिद्धांत के अनुरूप है.

अब सवाल यह उपस्थित होता है कि सर्वप्रथम जीव जगत का प्रादुर्भाव इस नरुंग खंड धरती के कौन से द्वीप समूह में कब हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि प्रारम्भ में पृथ्वी के आवरण में पानी के रूप में जो भाप विद्दमान था, वह सर्वप्रथम पानी बनकर पृथ्वी के मध्य भाग में विषववृत्त पर ही बरसा और दोनों ध्रुओं में फैलता गया. क्योंकि सूरज के किरण विषववृत्त पर ही सीधे लम्बाकार पहुँचते हैं और वहाँ पर काम दबाव का क्षेत्र निर्माण होकर सर्वप्रथम पानी बरसा.  विषववृत्त पर ही अधिक तापमान होता है, इसलिए जीव जगत का प्रादुर्भाव भी सर्वप्रथम वहीं हुआ.

आदिमानव की उत्पत्ति संबंधी तथ्यों को तलाश कर नृतत्वशास्त्रियों ने जो निष्कर्ष निकाला है, उससे यह जानकारी प्राप्त होती है कि पृथ्वी के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न समय में आदि मानव की उत्पत्ति हुई और धीरे-धीरे उसका विकास हुआ. भारत के नर्मदा घाटी, जावा सुमात्रा, दक्षिण अफ्रिका के न्होडेसिया, क्रोमन्यान और ग्रीनाल्डी में आदि मानव के अवशेष पुरातत्वविदों को प्राप्त हुए हैं. उक्त सभी स्थल गोंडवाना द्वीप समूह में हैं और साधारण रूप से पृथ्वी के मध्य रेखा पर ही स्थित है. स्मरण रहे कि आदि मानव और प्रागैतिहासिक मानव समुदाय में अंतर है. आदिमानव सृष्टि उत्पत्ति के बाद जो सर्व प्रथम उद्भवित हुआ और तत्पश्चात उसके जीवन में विकास की कड़ियाँ जुडकर वह प्रागैतिहासिक मानव समुदाय की सभ्यताओं तक पहुंचा. प्रागैतिहासिक मानव सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के सम्बन्ध में खोज-बीन की गई है और पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है. इससे भारत की सिंधू घाटी की सभ्यता, मिश्र की नीलघाटी की सभ्यता, चीन की ह्यांग हो और यांगटी सिक्यांग घाटी की शाभ्यता, बेबोलियन की सभ्यता आदि प्रमुख हैं.

उक्त स्थलों में जिस प्रागैतिहासिक मानव समुदाय की सभ्यता का विकास हुआ, वह प्रमुखता से गोंडवाना द्वीप समूह के द्वीपों में ही सर्व प्रथम उद्भवित हुआ, ऐसा नृतत्वशास्त्रियों का मत है. भूगर्भ शास्त्रियों ने यह प्रमाणित किया है कि हिमालय निर्माण होने के पूर्व वर्तमान भारत पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध के विशाल द्वीप समूह से जुड़ा हुआ था और पृथ्वी के मध्य रेखा पर स्थित था. इसलिए नृतत्वशास्त्रियों और जीव शास्त्रियों का मत है कि इसी द्वीप में सर्वप्रथम जीवाश्म का प्रादुर्भाव हुआ और प्रथम मानव भी इसी द्वीप में विकसित हुआ, जिसमे वर्तमान भारत के नर्मदा घाटियों के खेत्र का समावेश होता है. इस तरह पृथ्वी का दक्षिणी गोलार्ध गोंडवाना द्वीप समूह में वर्तमान भारत ही वह द्वीप है, जहां आदिमानव सर्वप्रथम विकसित हुआ. तत्पश्चात शेष द्वीप समूहों में उसका विस्तार हुआ. 

हिमालय निर्माण होने के पूर्व ही गोंडवाना द्वीप समूह के वर्तमान भारत में आदिमानव की उत्पत्ति हुई थी, ऐसा गोंडी समुदाय के सिरडी सिंगार जीव सूत्र से प्रमाणित होता है. गोंडवाना द्वीप समूह के पांच द्वीपों की गाथा गंडोदीप तथा सिंगारदीप के रूप में गोंड समुदाय में आज भी प्रचलित है, जो वर्तमान भारत का मूलनिवासी समुदाय है. कुछ विद्वानों के अनुसार हिमालय का निर्माण आज से सात करोड़ वर्ष पूर्व हुआ है. जहां से सतलज, यमुना, गंगा तथा ब्रम्हपुत्र नदियों का उद्गम हुआ है और मध्य भारत का अमरकंटक (अमूरकोट) पर्वत का उद्गम पैंतीस करोड़ वर्ष पूर्व हुआ है, जहां से नर्मदा (नर-मादा) की जलधारा निकली है. इसलिए नर्मदा नदी के किनारे जिस मानव समुदाय का विकास हुआ, वह निश्चित ही प्राचीन आदि मानवों की सभ्यता थी. प्राचीन काल में महाप्रलय होने से अमरकंटक पर्वत के चारों ओर समुद्र निर्माण हुआ था. इस घटना की गाथा भी गोंड समुदाय में प्रचलित है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि वर्तमान नदी की जलधारा अमरकंटक से प्रवाहित होने के पूर्व से ही कोयावंशीय गोंड समुदाय इस द्वीप में विद्दमान हैं. अर्थात आदिमानव का उद्गम नर्मदा नदी प्रवाहित होने के पूर्व ही हो चुका था.

पुराविदों और भूगर्भशास्त्रियों का मत है कि अमरकंटक के चारों ओर कभी महाझील थी. डॉ. धर्मेंदू प्रसाद ने इस विषय पर मूल्यवान खोज की है. नर्मदा घाटी के पूर्व भाग में बड़ी संख्या में ऐसे वृक्षों के जीवाश्म मिले हैं, जिनका प्राकृतिक संवर्धन सामान्यतः सागर अथवा समुद्री मुहाने के खारे पानी के निकट होते हैं. इसी क्षेत्र में शंख तथा सीपों के जीवाश्मों के अवशेष भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं. वर्तमान खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि आदिमानव नूतन युग के आरम्भ में तथा उसके पूर्व नर्मदाघाटी में कभी समुद्र लहराता था. (९)

गोंड समुदाय में अमरकंटक से सम्बंधित ऐसी ही महाप्रलय की कथा अनादिकाल से प्रचलित है, जिससे यह पुष्टि होती है कि आदि नूतन युग के आरम्भ में तथा उसके पूर्व नर्मदाघाटी में कभी महाप्रलय होने से समुद्र निर्माण हुआ था. नर्मदाघाटी के क्षेत्रों में अनादिकाल से निवास करने वाले गोंड समुदाय में जो महाप्रलय की कथा प्रचलित है वह इस प्रकार है-

प्राचीन काल में कभी एक बार ऐसा कलडूब (महाप्रलय) हुआ था और चारों ओर पानी ही पानी फैला हुआ था. केवल अमूरकोट (अमरकंटक पर्वत) का टीला ही पानी की सतह के ऊपर दिखाई दे रहा था. वहाँ पर एकमात्र फरावेन सईलांगरा (ज्येष्ट सईला-गांगरा) का एक जोड़ा एक कच्छुआ और एक कौवा के साथ जीवित था. फरावेन सईलांगरा ने दो अंडाल (बच्चों) को जन्म दिया. गोंडी भाषा में "अंडाल" शब्द का मतलब बच्चा होता है. दो अंडाल में एक पुत्र और एक कन्या थी. पुत्र का नाम आंदि रावेन पेरियोर और कन्या का नाम सुकमा पेरी था. गोंडी में पेरियोर और पेरी का अर्थ क्रमशः लड़का और लड़की होता है.

दोनों बच्चे बड़े हो जाने पर, उनके माता पिता ने उन्हें सिंगारदीप की खोज करने के लिए कहा. अपने माता-पिता के आदेशानुसार वे सिंगारदीप की खोज में जुट गए. उन्होंने अपने साथी कौवा को आकाश मार्ग से और कच्छुआ को समुद्री जलमार्ग से पता लगाने को कहा. उन दोनों ने सिंगारदीप को खोज निकाला. परन्तु उस सिंगारदीप तक जाने की समस्या उनके सामने खड़ी हो गई. उनके पास कच्छुआ ही एक ऐसा साधन था जिस पर सवार होकर वे जा सकते थे. वे संख्या में चार थे और कच्छुआ पर मात्र दो ही लोग सवार होकर जा सकते थे. तब फरावेन सईलांगरा ने प्रथम अपने दोनों बच्चों को कच्छुआ पर सवार होकर जाने के लिए कहा. वे समुद्र दाई को हाथ जोड़कर कच्छुआ पर सवार हो गए. आकाश मार्ग से कौवा आगे बढ़ता गया और उसके पीछे कछुआ उन दोनों को लेकर समुद्र के पानी में तैरता हुआ धरातल की ओर चल पड़ा. समुद्र माता ने दोनों बच्चों की प्रार्थना सुनली जैसे ही वे समुद्र के पानी में कछुआ पर सवार होकर चल पड़े, तभी अचानक धरती के गर्भ में जोरदार हलचल हुई और अमुरकोट पर्वत ऊंचा उठ गया. उसके चारो ओर जो पानी था. वह तीव्र गति से ढलान की ओर बह निकला, जिस बहाव में आंदि रावेन पेरियोर और सुकमा पेरी के साथ कछुआ भी बहता गया. बहते बहते वे सिंगार दीप तक पहुंच गये. उनको लेकर कछुआ जमीन पर चढ़ गया. समुद्र का पानी जहां जहां से बहता गया वहां नदी निर्माण हो गई. कई दिनों तक पानी बहता रहा.

आंदि रावेन पेरियोर ने कौआ के माध्यम से अपने माता पिता का पता उठाने की कोशीश की, परन्तु उनका अमूरकोट में कहीं पता नहीं चला. फिर भी वह कौआ के व्दारा अपने माता पिता के लिए अमूरकोट में खाने की चीजें पहुंचाते रहा. कौआ प्रतिदिन खाना ले जाकर अमूरकोट में जहां फरावेन सईलांगरा रहते थे. वहां रख आया करता था. जब नदी के मार्ग से समुद्र का सम्पूर्ण पानी कालांतर में बह गया और वहां धरातल दिखाई देने लगा, तब दोनों बच्चे अमूरकोट गये. परन्तु वहां उनके माता पिता कहीं नजर नहीं आये. उन्होंने अपने जन्मदाता फरावेन सईलांगरा के स्मृति के कुछ प्रतीक बनाकर एक सरई के पेड़ पर स्थापित किये और प्रतिदिन उनकी उपासना करने लगे. गोंडी दर्शन में जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक वह वेन रूप होता है और जीवान्त के पश्चात वह पेन रूप हो जाता है. इस तरह जन्मदाता फरावेन सईलांगरा की उपासना फरापेन सलां-गांगरा के रूप में करने की प्रथा गोंड समुदाय में आज भी प्रचलित है. जन्मदाता फरापेन शक्ति की उपासना फडापेन, सजोरपेन, फ्रापेन, परसापेन, बुढालपेन सईगा बोंगा पेन, सईगा मालीपेन, भईल-ओटापेन आदि नामों में विभिन्न क्षेत्रों में अपने अपने सगा पाडी गोंदोला (समुदाय) के पेनगढ़ों, पेन कढ़ों, पेनठानो, पेन सरना स्थलों में करने की प्रथा सम्पूर्ण गोंदोलावासी गोंड समुदाय में विधमान है.

आंदि रावेन पेरियोर और सुकमा पेरी ने अमूरकोट से सम्पूर्ण सिंगारदीप में आगे चलकर अपनी वेन विस्तार किया. सर्वप्रथम अमूरकोट से निकलनेवाली नर्मदा नदी के किनारे जहां जहां रहने योग्य कोप थे वहां वहां उन्होंने अपने निवास बनाये. तत्पश्चात उनकी संख्या बढने पर वे गोंदोला (समुह) में रहने लगे. इस प्रकार सम्पूर्ण गंडोदीप (सिगारदीप) में गोंदोलाओं के रूप में उनका विस्तार हुआ. गोंदोला निवासियों ने अपनी सुविधा के लिए कुछ नियम बनाये. यही नियमावली उनकी गोंदोला व्यवस्था बनी. गोंदोला व्यवस्था के निवासी कालांतर में गोंड नाम से नामांकित हुए. उनके गोंदोला राज्य गोंड राज्य बने. वे गोंड राज्य जिस भू-भाग में विकसित हुए वह भूभाग गोंडवाना नाम से प्रख्यात हुआ, जिसे भूगर्भ शास्त्रियों ने व्यापक रूप से स्वीकार किया है. इस तरह फरावेन सईलांगरा की कोया में जन्म लेकर कोया वंशीयों का विस्तार एंव विकास गोंदोलावासी गोड़ों के रूप में इस गोंडवाना दीप समूह में हुआ, जिसकी जानकारी गोंड समुदाय में प्रचलित महाप्रलय को बयान करने वाला “सिरडी सिंगार सैला पाटा” से होती है जैसे :-

सिरडी सिंगार रेला पाटा

जुन्नाल बेरो ते फरा कलडूब आसी,
सिरडी सिंगार मावा मुरुंगसी मत्ता,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
समदूर ते उंदी अमूरकोट डूम्मा,
येर परो तनवा तला तंडसी मत्ता,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
फरावेन सईलागराता उंडी,
रंडू अंडानूंग वाहची सईलांगरा,
फरावेन सईलांगरा ता उंदी जोड़ा,
कावाल कछ्वान अरी पिस्सीमता,
केंजनावोर दाऊ केंजा रो.
कोया वैन जीवाना मुन्सार किता,
केंजनावोर दाऊ केंजा रो.
ओर रावेन पेरिओर डगूर आसी,
सुकमा पेरीना संगे मुंडारे मातूर,
केंजनावोर दाऊ केंजा रो.
रडि सिंगार पता तेहताने लाई,
हिगा हगा ओर डवांरे मातूर,
केंजनावोर दाऊ केंजा रो.
कावाने रोहतूर अगासे दीपते,
कछवाने रोहतूर समदुरता येरते,
केंजनावोर दाऊ केंजा रो.
पता अरी सिरडीन कावाले वातू,
समदूरता सर्रा कछवाले वहते,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
कय जोरे किसी समदूर दाईने,
सिंगारदीप हंदाना मिन्नेत कितूर,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
कछवाने परो सवार आसीकुन,
समदुरता येर ओर काटे कियातूर,
केंजनावोर दाऊ केंजा रो.
परसेन आसी अद समदूर दाई,
अमूरकोट तूने परों तहतूने,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
समदूर हिलोराता उंदीय झोंने,
सिंगार दीपने कछ्वाल अवसी हतूने,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
फरावेनता फरापेन कड़ा किसी,
सल्ला गांगरा पूंजे कियातूर,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
कोयाने पोयसी सईलांगरता,
इंजी कोयावंशी होर पूंजी हंदाकूर,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
पयचान कोयतोरता गोंदोलाते आता,
गोंदोलाना गोंडी राज बने माता,
केंजानावोर दाऊ केंजा रो.
सयुंग खण्डाने सिंगारदीप ता,
गोंडी राजाना गोंडवाना पोयसीता,
केंजा नावोर दाऊ केंजा रो.

उक्त सिंगार दीप सैला पाटा जो बालाघाट, सिवनी, मंडला, छिंदवाड़ा, बैतूल क्षेत्र के गोंड समुदाय में प्रचलित है, से यह प्रमाणित होता है, कि गोंडवाना दीप समूह के वर्तमान भारत के मध्यप्रदेश में स्थित अमूरकोट (अमरकंटक) पर्वत के आसपास प्राचीन काल में जिस मानव समुदाय की उत्पत्ति हुई और उसके सभ्यता का विकास हुआ, वह निश्चित ही वर्तमान गोंड समुदाय की ही सभ्यता है. गोंड समुदाय की यह भी मान्यता है कि उनके जन्मदाता फरावेन सईलांगरा तथा सहयोगी कछुआ और कौआ ये चारों अमूरकोट के जीव आज भी अजरामर हैं. ठीक इसी प्रकार की गाथा बयगा, भूमिया, भूरिया, भोई, भील, उरांव, संथाल और अन्य सभी कोया वंशीय समुदाय में नंगाबयगा-नंगीबयगन, सईगा-माली, सिंगा-अवाली, मूलाकोर-मूलिकोयार, परसाराज-परसा राईतार, भुजेंग राज-भुंजेग राई, मीनदाऊ-मीनदाई के रूप में प्रचलित है. उक्त सभी मिथकों में कौआ और कछुआ की बात सामान्य रूप से अनादिकाल से विधमान है. इसी तारतम्य में एक विशेष ज्ञान देने योग्य बात यह है कि इस देश में कोयावंशीय गोंड समुदाय के अतिरिक्त जो बहुजन समाज है, वह भी पित्रमोक्ष अमावश के पर्व पर अपने पितरों तक नैवेध पहुँचाने के लिए अपने घर आंगन में कौआ की ही प्रतिक्षा करता है. जिस पर से ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में या वे सभी गोंड समुदाय के ही अंग थे, या गोंडवाना भूभाग में बाहर से आजाने के पश्चात उन्होंने गोंडी रिवाजों को स्वीकार किया और वही आज उनमे प्रचलित है. अमूरकोट में अपने जन्मदाता फरावेन सईलांगरा तक कौआ के माध्यम से खाना पहुचाने की व्यवस्था आंदि रावेन पेलियोर ने की थी, जो सिंगार दीप में गोंड समुदाय के वेन विस्तार करने वाला मूल निवासी था और वही गोंड समुदाय की प्रथा बन गई जो वर्तमान में हिन्दू व्यवस्थाधारी बहुजन समाज के लोगों में भी विधमान है. गोंड समुदाय के “संयूग भूई के स्वामी” (पांच व्दीपों का स्वामी) शंभूशेक की उपासना महादेव के रूप में वे भी करते हैं. गोंड समुदाय में जिस प्रकार बारह सगा घटक युक्त सामजिक व्यवस्था है, ठीक उसी प्रकार उनमे भी प्रत्येक जाति के बारह घटक होते हैं. फिर चाहे वे कुणबी, मराठा, नाई, तेली, कलार, कुमार, पोवार, सोनार, कासार, यादव, कोष्टी आदि क्यों न हों सभी में गोंडी व्यवस्था ही विधमान है. यहाँ तक की बहुजन समाज के उक्त जातियों के नाम भी गोंडी भाषा से ही उद्गमित है. उनके नामों की उत्पत्ति, वे जिस भाषा का प्रयोग करते है, उसमे नहीं, बल्कि गोंडी भाषा में है. जैसे कोंदा बिये (बैला धारक) कोनबी या कुनबी, हलबिये (हलधारक) हलबी, मरापोसे किये (पौधे पालनेवाला) मरार, पोवारे किये (बोनेवाला) पोवारे, कुंभे किये (मिटटी बरतन पकाने वाला) कुम्हार, तलनी गारे (स्नीग्घ द्रव्य निकालने वाला) तेली (तएर, तएल, तरली गोंडी शब्द है जिनका अर्थ किसी भी वस्तु का अर्क होता है), कताकिये (गोवरी बनाने वाला) कतिया, कासो, कासिये (ताम्र कांस्य आदि के बर्तन बनाने वाला) कसार, मराहट ते मन्ने (पेड़ों में रहने वाला) मराठा, नईजा, ताकसिये (उस्तरा चलाने वाला) नाई, कलचुरे किये (दारु निकालने वाला) कलार, सोनो आरे किये ८ सुवर्ण को आर देने वाला सोनार, यांदीग पोसे किये (गाय पालने वाला) यादव, कोषा आटे किये (कोषा का धागा बनाने वाला) कोष्टी आदि सभी नाम गोंडी मूल के ही हैं. इस पर से वे सभी प्राचीन गोंडवाना के गोंड समुदाय के ही गण हैं. परन्तु आर्य व्यवस्था के प्रभाव से अपने मूलधारा से बिछुड़कर जातिरूप धारण कर चुके हैं, नहीं तो जिस कौआ को आर्य या हिन्दू दर्शन में अशुभ माना गया हो, उसी को अपने पितरों तक नैवेध पहुंचाने के लिये दिन भर बाट जोहकर विनती करने की क्या वजह हो सकती है ?

उक्त सिंगारदीप से संबंधित मिथक के आधार पर यह पुष्टि होती है कि प्राचीन काल में महाप्रलय से सामूहिक निवास हुआ था और समुद्र के बीच छोटे से अमुरकोट दीप में आदि कोया वंशियों का जन्म हुआ. वैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि पैंतिस करोड़ वर्ष पूर्व कभी नर्मदा घाटी में एक महाझील था, जहां पर अमरकंटक पर्वत स्थित है. गोंड समूदाय के लोग उसे मुन्साय कोट कहते हैं. क्योंकि वह समुद्र के पानी में कभी डूबा ही नहीं था. पृथ्वी के गर्भ में निरंतर रूप से होने वाली उथलपुथल की वजह से अमूरकोट पर्वत के इर्द्गीर्द वाला महाझील कालांतर में अट गया और वहां से नर्मदा की धारा वह निकली जिसके किनारे अमूरकोट में उद्गमित आदि मानव ने अपना विस्तार एवं विकास किया.

नर्मदा घाटी के अनेक स्थलों में प्राचीन मानव व्दारा बनाये गये गृहचित्र (कोप या कोया में मिर्मित चित्र) मिलते हैं. सुविधा के कारण आदि मानव शैलगृहों या शिलाश्रयों में रहकर अपना जीवन यापन करता था. जबलपुर के सिहोरा तहसील के गढ़ाखेटा ग्राम में, बालाघाट के सिहारपाट में, सागर जिले के नरीयावासी ग्राम में, भंडारा जिले के डारीकसा, कोयलीकचाड, ससाकरन, सुयाल मेट्टा और अमाखोरी कोप में, सिवनी जिले के कुराई मेट्टा कोप में, नागपुर जिले के भिमाल मेट्टा घुग्गुसगढ़ कोप में, होशंगाबाद के पचमढ़ी (पन्कमेढ़ी) परीसर में अंबिकापुर के सुरगढ गुफाओं में तथा हीरापुर, बोरी, नरसिंहपुर, कटनी और सिंगरौली में स्थित अनेक गुफाओं में आदि मानव व्दारा उत्कीर्ण चित्र है. (१०)

गुफा चित्रों में पुरा पाषाण काल को लेकर पाषाण काल के अंत तक की जानकारी मिलती है. इन विभिन्न कालों में आदि मानव व्दारा बनाये गये पत्थर के फर्शों तथा औजारों जैसे हस्तकुठार, खुरपे, चकमक, लघु अश्म उपकरण आदि के साथ-साथ मानव अस्थीपंजर भी उपलब्ध है. गुफाओं से यह भी ज्ञात होता है कि आदि मानव घोडा, बकरी, भैस, गाय, बैल, कुत्ता आदि जानवर भी पालता था. इस तरह आखेटक युग, पशुपालन युग, और कृषियुग इन तीनों युगों के चित्र गुफाओं में मिलते हैं. आदि मानव धरती के कोरा, कोक तथा कोया से एक कोशीय रूप में जन्म लेकर कोप तथा कोया में निवास करता था, इसलिए वह  कोयावंशीय और कोयावासी था. कोया वंशीय याने कोक से कोसीय रूप में निर्माण होने वाला और कोयावासी याने कोप में निवास करने वाला था. समुदाय के लोग भी स्वयं को कोयावंशीय तथा कोयावासी “कोईतोर” कहते है, यह विशेष उल्लेखनीय है.(११)

मध्यप्रदेश के विभिन्न पुरातात्विक अवशेष, यह सिद्ध करते हैं कि गोंडवाना सभ्यता या नर्मदा घाटी की सभ्यता अत्यंत प्राचीन है. अमूरकोट (कभी न डूब हो ऐसा कोट) में फरावेन सईलांगरा इस नर मादा दाऊ दाई की कोया से कोया वंशीय गोंड समुदाय के पूर्वजों की उत्पत्ति हुई. इसलिये वहां से जो नंदी उद्गमित हुई है उसे नरमादा कहा जाता है. फरावेन सईलांगरा का प्रतीक है. उसी नर्मदा के किनारे आंदी रावेन पेरियोर के संतानों का विस्तार हुआ. उनकी सभ्यता का विकास हुआ. इसी नरमादा और उसके सहायक नदियों के किनारे कोया वंशीय गोंड समुदाय के मूल भूमिपुत्रों का निवास है, जो वर्तमान में भूईयां, भूमिया भुईया, भूरिया या भारिया, भूईल या भील भुईना, भूईमीना या मीना आदिनामों से जाने जाते हैं. वे सभी भूदाई के कोक से जन्मे हुए कोया वंशीय कोईतूर गोंदोला के गोंड हैं.

डॉ. सांकलिया के अनुसार नर्मदा घाटियों के क्षेत्र में आदि मानव के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, वैसे आज पृथ्वी पर कहीं नहीं मिलते. नरमादा घाटियों में कोया वंशीय गोंड समुदाय का उद्गम फरावेन सईलांगरा पुत्र आंदि रावेन पेरियोल से हुआ इसलिए वे स्वयं को रोवेन वंशी भी कहते हैं. गोंड समुदाय का विस्तार सर्व प्रथम नर्मदा और उसके सहायक नदियों के किनारे हुआ इस तथ्य की पुष्टि गोंड समुदाय में प्रचलित लोक शाहित्य के बोल से भी होती है. जैसे :-

ढोडाय ढोडाय दाकाट अपो गोदा बने किकाट |
मींक बिसीकुन अपोना पीर निहताकाट ||

अर्थात नदी नदी से जायेंगे, अपना बसेरा बनायेंगे और मछली पकड़कर अपना पेट भरेंगे. इस बिर्वा गीत से उनके शिकारी युग का बोध होता है. उसी तरह पर्वतों की गुफाओं में कृषियुग को ब्यान करने वाला साहित्य भी गोंड समुदाय में प्रचलित है. जैसे :-

मट्टा कोट सूटे किसी सांगों वडा नावा पज्ज |
बने किसी नेल वीतीकट कोढो कुटकी विज्ज ||
दाना येर पंडसीहची अपो चंगो मंदाकाट |
छव्वा पूतांग मिले मासी पाटा वारीकाट ||

अर्थात पर्वतीय गुफा या कोट से निकलकर आजा साथी मेरे साथ जमीन जोतकर हम कोदो कुटकी बोयेंगे. अनाज पानी पाकर हम चैन से रहेंगे और अपने बाल बच्चों के साथ ख़ुशी के गीत गायेंगे. अतिरिक्त इसके प्रकृति के कोप से कभी कभी विस्थापित होने की नौबत भी उन पर आती थी, उस अवस्था को प्रकट करने वाला साहित्यिक बोल भी गीतों के माध्यम से गोंड समुदाय में प्रचलित है :-

पीर्र वायो वडी वायो नरमदाल बच्ची हत्ता,
दाना वाहून पंडार तोड़ी कोरो आसी हत्ता.
हिंगा बाडी मंदाकाट अपो कर्रू सायाले,
रेहूक नाटें दा दाकाट कमेय संगने कियाले.

अर्थात बारीश नहीं हुआ नहीं नर्मदा नदी सूख गई है, अनाज कैसे पकेगा जमीन निर्जन हूँ गई है. यहाँ क्यों रहेगें हम भूखे मरने के लिए. अत: दुसरे गांव जाकर हम कमाकर खायेंगे. इस तरह प्राकृतिक विपदा के स्थिति में एक जगह से दुसरे जगह पर जाने की उनपर भी आती रही, जिसे वे अपने लोक गीतों में सहजता से व्यक्त करते है.

उक्त बिर्वा गीत साहित्य से यह पता चलता है कि गोंड समूदाय का विकास क्रमबद्ध रूप से नरमदा घाटियों में प्राचीन काल में किस प्रकार हुआ. सर्वप्रथम वे नरमदा और उसके सहायक नदियों के किनारे आखेट अवस्था में भटकते रहे. तत्पश्चात नार, गोदा, गुडा गट्टा, बसाकर पशुपालन और कृषियुग तक पहुंचे इस तरह उनका विस्तार एवं विकास सर्वप्रथम नरमदा उसके पश्चात पूर्व में सोनगोदा, (सोननदी), मावागोदा (महानदी), मयान गोदा (महान नदी) गोमतीरा ढोडा, दक्षिण के वेनगोदा (वेनगंगा), पन्कढोडा (पेच नदी), तायपी ढोड़ा (तापी नदी), पेनगोदा (पेनगंगा), पोरणा ढोडा (पूरणा नदी), कोयलारी ढोड़ा (कोल्हार नदी), गोईदारी ढोड़ा (गोदावरी), कोसूरना ढोडा (कृष्णानदी), कयवेरी ढोड़ा (घग्गर नदी), तथा उत्तर पश्चिम में सांगोला ढोडा, (चम्बल नदी) उम्मा ढोड़ा, (यमुना नदी), गुणगा ढोड़ा (गंगा नदी), खोबरी ढोड़ा (घागरा नदी), मागोंडमुरी ढोड़ा (सिन्धु नदी), भरेट ढोड़ा, टागरी ढोड़ा, उर्टागरी, ढोड़ा पेन्नीर ढोड़ा, पेनाईल ढोड़ा आदि नदियों के किनारे उनका विस्तार हुआ.

गोंडी गुण सूत्र के अनुसार बारह सहायक नदियों से बना मागोंडमुरी नदी के किनारे मुर्वाकोट और हर्वाकोट ये गोंडी गणों के गणराज्य, उम्मोगुट्टा कोर संभाग में थे और पांच नदियों से बना उम्मागोदा के किनारे डलवा कोट, पुर्वाकोट और सिर्वाकोट गणराज्य थे. घागरी गोदा के पास मीनकोट, भईलकोट, बांसाकोट और सुयालकोट गणराज्य थे. उसीतरह टांगरी और उर्टांगरी नदियों के किनारे पेन्नूरकोट और सुमेर-कोट गणराज्य थे.

पार्र्ड ढोड़ाना उंदी उम्मागोंडमुरी |
ने मुर्वाकोट हरवाकोट मतांग पोईसीन्तांग ||
संयूग ढोड़ाना गोदा ते पुर्वाकोट सिर्वाकोट पाडसीतांगा |
घागरी ढोड़ाते भईल कोट मीनकोट सुयालकोट पूंगारे मासी |
भरेट ढोड़ाते कोंदा कोट गोंदाकोट ता मुन्सार आसी ||
टांगरी ढोड़ाते वेन गट्टा उंन्डे उर्टागरी ते मावा चेरकुंडा |
सुमेरकोट ते पेन गटता कोयवंशी गोंदोलाना तलामुंडा ||

उक्त गोंडी गुण सूत्र से यह पुष्टि होती है कि वर्तमान सिन्धु घाटी सात नदियों का प्रदेश नहीं बल्कि बारह नदियों का मागोंडमुरी ढोड़ा का प्रदेश था, जिस पर से वर्तमान मान्टगोमरी जिला बना है. वर्तमान मोहनजोदड़ो और हडप्पा की प्राचीन मुर्वाकोट और हर्वाकोट गोंडी गणराज्य है जो बारह नदियों के मागोंडमुरी नदी के किनारे बसे थे. उसी तरह पांच नदियों का उम्मा गोदा याने वर्तमान यमूना नदी है, जिसके किनारे गोंड समुदाय के प्राचीन पुर्वाकोट सिर्वाकोट औड दलवाकोट ये गणराज्य थे जहां के गढ़ प्रमुख शंभूर, पुलशीव और पुरपोय थे. घागरी याने वर्तमान घग्गर नदी किनारे भईलकोट, सुयाल कोट, मीन कोट और दमूरकोट ये गणराज्य थे और भारेटनदी किनारे कोंदाकोट और गोंदाकोट गणराज्य पल्लवित हुए थे. अतिरिक्त उसके टागरी नदी किनारे मुर्दाघाट, उर्टागरी नदी में स्नानकुंड तथा सुमेरकोट में कोयावंशी गोंदोला का पेन ठाना था. टागरी नदी, उर्टागरी नदी, सुमेरकोट और पेनूरकोट वर्तमान में कहां पर है, यह शोधन का विषय है.

पुरातत्ववेत्ताओं, नृतत्वशास्त्रियों और इतिहासकारों ने यह सिंद्ध कर दिया है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता द्रविड़ सभ्यता थी. द्रविड़ सभ्यता से उनका तात्पर्य यह है कि द्रवीड भाषा बोलने वाले दक्षिण भारत के द्रवीड भाषाओं में प्रमुख रूप से तमील, तेलगु, कन्नडी और मल्यालम भाषाओं के द्रवीड वंश की उन्नतशील भाषाओं के रूप में भाषाविदों व्दारा स्वीकार किया गया है. परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि उक्त चारों भाषाओं में ना तो द्रवीड शब्द की उत्पत्ति मिलती है और न ही उसका शाब्दिक अर्थ उनमे विधमान है. इस तरह इतिहासकारों ने दक्षिण अमेरिका की माया सभ्यता, युफ्राटीश और टैग्रीश नदियों की मेसोपेटोमिया, बोबीलोन, सिन्धु घाटी की सभ्यता, घग्गर की कालीबंगा सभ्यता, गुजरात की सुरकोटड़ा, प्रभाष और देशलपूर सभ्यता, हरियाणा की रोजड़ी, शिसवाली, बनावली और मिथावल सभ्यता, उत्तर प्रदेश की आलगीर सभ्यता और पंजाब की रोपड़ सभ्यता का संबंध अँधेरे में ही दक्षिण भारत के द्र्वीड़ो की सभ्यता से जोड़ दिया है. उन्होंने इस तथ्य को अनदेखा किया है कि उक्त सिधुघाटी की सभ्यता (जो उत्तर में जम्मू, दक्षिण में गुजरात, पूर्व में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पश्चिम में बलूचिस्तान तक फैली थी). और दक्षिण भारत की सभ्यता के बीच मध्य भारत में गुजरात से लेकर बंगाल तक गोंड, भील, मीणा, कोल, आदि समुदाय की सभ्यता विधमान है और सिन्धु घाटी से संलग्र है. उक्त चारो समुदाय के लोग अपनी मूल भाषा को भूल गये हैं परन्तु गोंडी और कोलारीयन भाषा आज भी विधमान है, जिसमे द्रवीड शब्द की उत्पत्ति और उसका शाब्दिक अर्थ भी प्रचलित है द्रवीड यह शुद्ध गोंडी शब्द है. गोंडी सभ्यता में दई शक्ति की प्रधानता है. गोंडी में दई के बीरो (उपासकों) को “दईनोर बीर” का संक्षिप्त रूप से द्रविर है जिससे द्रविर या द्रविड़ रूप बना है. इस बात की पुष्टि निम्न तोन्दाना मांदी ते वारीना पाटा (भोजन के समय गाने का मंत्र) से होती है.

ये कोया टूरा इरा कंकाली देईनोर बीर इमा |
जंगो दई, गवरा दई, भुईदईबोर भुई बीर इमा ||
गोंडी दई, शक्तिताल इमा हिमें पुट्सी वातोनी |
दईनोर-बीर ताल दरबीर आंसीनेड दरवीड मातोनी ||

उक्त तींदाना मांदीते वारीना पाटा के अनुसार हे कोया पुत्र तू कंकाली दई का बीर है, जंगो दई, गवरा दई एक भूई दई का भी तू बीर है, गोंडी दई शक्ति से तेरा जन्म हुआ है इसलिए दाई का बीर याने दई का उपासक तू दरबीर है और आज तू दरबीर नाम से जाना जाता है. डॉ. गिर्यसन के अनुसार गोंडी यह सभी द्रवीड भाषाओं की जननी है. इसलिए यह द्रवीड शब्द सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं में प्रचलित है. किन्तु उनकी उत्पत्ति मात्र गोंडी भाषा में हैं.

सभी नृतत्वशास्त्री और पुरातत्वविद यह मानते हैं कि बलूचिस्तान, इरान और मेसोपेटोमिया की प्राचीन सभ्यता सिन्धु घाटी की सभ्यता के समान ही द्रविड़ समुदाय की ही सभ्यता थी, किन्तु वे यह मानने के लिए हिचकिचाते हैं, कि नरमदा घटियों से उद्गमित गोंडियनों की सभ्यता थी वे गोंडी सभ्यता को अनार्य और जंगली मानकर उसे द्रविड़ सभ्यता से पृथक समझते हैं. इसमें उनका दोष नहीं उनके मानसिकता का है. उनकी मानसिकता यह मानने को तैयार नहीं है कि मध्य भारत के आज के पिछड़े गोंड समुदाय की प्राचीन काल में इतनी वैभवशाली सभ्यता थी. सिन्धु घाटी का हर अवशेष वर्तमान गोंडी समुदाय के सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ा हुआ है. बलूचिस्तान में विधमान ब्राहुई भाषा गोंडी भाषिकों के अस्तित्व की पुष्टि करती है कि प्राचीन काल में बलूचिस्तान, ईरान और बोबीलोन में गोंडी सभ्यता थी. यही नहीं बल्कि मेसोपोटेमिया के युफ्रोदिश और टैग्रीस नदियों का प्रवेश भी गोंडयिनो का टागरी और उर्टागरी नदियों का ही सुमेरकोट प्रदेश था, जिस पर वे वहां की गोंडी सभ्यता सुमेरीयन सभ्यता के नाम से विख्यात है. इस तरह नरमदा घाटी के मूल गोंडी गोंदोला का विस्तार नदियों के किनारे न केवल वर्तमान सम्पूर्ण भारत भी तमाम गोंडवाना व्दीप समूहों में हो चुका था.

सर्वप्रथम निवास हेतु उन्होंने गिरी कंदराओं, गुफाओं और कोपों को प्रयोग किया. तत्पश्चात जैसे जैसे उनका विकास हुआ उन्होंने अपने मट्टा, मुंडा, गोंदोला, गांव, नार और कोट निर्माण किये. जैसे पुर्वाकोट, मुर्वाकोट, हर्वाकोट, सिर्वाकोट, येर्वाकोट, नर्वाकोट, क्वाकोट, मीनकोट, गर्राकोट, बर्राकोट, झारीकोट, सीरदीकोट, समडूलाकोट, महाडूलाकोट, अमेरकोट, सरगुडाकोट, पतालकोट, चवराकोट, अशीरकोट, भूजंगकोट, संबूरकोट, चितेरकोट, यादीमाकोट, आदिलकोट, लंकाकोट, समदूरकोट, नालुदाकोट, सियामकोट, कोम्बूरकोट, सुमालकोट, लांजीकोट, कोर्धाकोट, सरसाकोट, अंत:कोट, कोराकोट, कोईनोरकोट, मेंडाकोट, अलारकोट, वेनकोट, कचारकोट, परंदुलकोट, किरंदुलकोट, बांदीकोट, भिलारकोट, शियालकोट, साबुरकोट, धारीकोट, खंडकोट, भरुडकोट, सालेरकोट, ड़ेंगूरकोट, बासंकोट, गवरीकोट, सुमेरकोट, बाबालकोट, आयालकोट, उमेरकोट, आदि कालांतर में इन्हीं गोंदोला कोटों का रूपान्तर गोंदोला गढ़, गोंदोला राज, गोंडराज्य) तथा गणराज्यों में हुआ. वे जिस व्दीप समूह में थे वह पांच व्दीप, समूह में थे. वह पांच व्दीपों का समूह था, जिसे संयूगारदीप, सिंगारदीप तथा गंडोदीप कहते थे. शेष भाग को अन्डोदीप कहते थे. इस तरह मूल कोय से उद्गमित कोय वंशीयों से कोयावासी (कोपनिवाशी) कोयावाशी कोटावासी, कोटावासी से गोंदोलावासी और गोंदोलावासी (समुदायवासी) से गोंड बने. तत्पश्चात गोंड राज्य, गण राज्य, गढ़राज्य बने और गोंड राज्य जिस भूभाग में थे वह गोंडवाना व्दीपसमूह बना.

गोंडी गण गाथा के अनुसार गोंडवाना का गोंड समुदाय प्रारम्भ में चार संभागों में विभाजित था. उम्मोगुट्टा कोर (उत्तर पश्चिम वर्तमान भारत और उससे जुड़ा हुआ संभाग जैसे, सिंधुघाटी, काबूल, कोंदार, गोंडार, गणकोट, सुमेरकोट, नांदीयालकोट (नाईल नदी की घाटी) २) सईमालगुट्टा कोर, (वर्तमान अमरकंटक का पूर्वी भाग महाननदी, महानदी सोननदी, संथाल परगना, गोंडतीरी, बस्तर, उड़ीसा और सम्पूर्ण गोंड़ प्रदेश ३) येरुंगुट्टा कोर (सम्पूर्ण मध्य भारत, विन्ध्य, सतपुड़ा, मेकल, अमरकंटक पर्वत श्रेणियों का क्षेत्र और वर्तमान विदर्भ), और ४) आफ्रिका गुट्टा कोर (वर्तमान गोदावरी से सम्पूर्ण दक्षिण भारत और उससे) जुड़े हुए सभी व्दीप समूहों का पदेश) (१४)

गोंड समुदाय का विस्तार सम्पूर्ण गंडोदीप क्षेत्र में होता गया. उस क्षेत्र में भौगोलिक पर्यावरण के आनुसार वह विकसित होता गया और विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न विशेषनोयुक्त नामों से जाना जाने लगा. जैसे- उम्मोगुट्टा कोर (संभाग) के गोंडी गणराज्यों को प्रमुखो ने पुरार (छोटा कबूतर) को शान्ति का प्रतीक मानकर उसे अपने राज्यों का प्रतीक बनाया और कालांतर में पुरार वंशीय गोंडो के रूप में प्रख्यात हुए. सईमाल गुट्टाकोर के गोंडी गोंदोला के गण्ड प्रमुखो ने नलेंज (सारस) की शान्तिप्रियता और विशालता को देखकर उसे अपने राज्यों का प्रतीक बनाये और कुछ अर्शे पश्चात वे नलेंज वंशीय गोंडो के रूप में प्रसिद्ध हुए. येरुंगुट्टा कोर संभाग के गोंडियनों ने भुजंगराज (नाग) को अपने राज्यों का प्रतीक बनाये और उसपर से ही भूंजग वंशीय गोंडो के नाम से प्रचलित हुए. उसी तरह अफोका गुट्टाकोर (संभाग) के गोंडीयनों ने रावेन (टीटीहरी पक्षी) को अपना प्रतीक मानकर उसपर से रावेनवंशीयों के विशेष नाम से आगे चलकर प्रख्यात हुए. रावेन का तात्पर्य लंकापति राजा रावेन से नहीं बल्कि रावेन पक्षी से है. लंकापति राजा रावेन भी रावेन वंशियों में से ही था. इसके अतिरिक्त कुछ क्षेत्र में मीन (मछली) वंशीय, कछवा वंशीय, पन्नीर (बेडक) वंशीय, कावाल (कौवा) वंशीय, भईल तथा भीलाला (मगर) वंशीय, उरूग तथा उरांव घोरपड) वंशीय आदि के रूप में भी गोंड समुदाय का विस्तार हुआ. वर्तमान राजस्थान के मीन वंशीय गोंड मीना नाम से, गुजरात के भील वंशीय गोंड भील नाम से, काबूल कोंदाहार के पन्नीर वंशीय पेन्नी नाम से, बिहार के उरुंम वंशीय उरांव नाम से, छतीसगढ़ के कुछ गोंड कछुआ वंशीय कछवाह नाम से और बस्तर और उडीसा के कुछ गोंड कौआ वंशीय काकतेय नाम से, जाने जाते हैं. इस तरह मीन, भईल, कछवा, पन्ने, कावा, उरुम आदि सभी गोंडी भाषा के ही शब्द है और सभी प्राणियों के नाम है. प्रमुख रूप से गोंडवाना का गोंड समुदाय चार संभागों में चार वंशों में विभाजित था. अर्थात इस अवस्था तक पहुंचने के लिए नर्मदा घाटियों में उद्गमित कोया वंशीय गोंड समुदाय को करोड़ों वर्षों की कालावधि अवश्य लगी होगी. भले ही नृतत्व शास्त्रियों के अनुसार दो करोड़ वर्षों का अनुमान लगाया गया है, तथापि अमूरकोट और वहां से उद्गमित नरमादा नदी तथा उससे जुडी हुई गोंड समुदाय की तारतम्यता एवं तादात्म्यता से निश्चित रूप से पैंतिस करोड़ वर्षों का अनुमान कुछ विद्वानों व्दारा लगाया गया है, जो उचित प्रतीत होता है.

इस विकसित होने की गोंड समुदाय की प्रक्रिया में कुछ कालावधि बीत चुकने  के पश्चात येरुंगुट्टा कोर संभाग के संयूमेडी कोट गणराज्य में कुलीतरा के गणगुडार में एक ऐसा महागोंड जीव पैदा हुआ, जो बड़ा होने पर सम्पूर्ण गोंडवाना दीप समूह का राजा बना, भूस्वामी बना. उसे संभूशेक उपाधि से संबोधित किया गया. वह बहुत ही योगसिद्ध महाजीव था. उसने सभी प्राणीमात्रों की सेवा प्रेम, दया, करुणा, भाव से करने का संदेश गोंडी गणों को दिया. वह सभी भूचर, जलचर, वायुचर, पगधारी, बिनपगधारी, पंखधारी, बिन पंखधारी आदि सभी गंडोदीप के जीवों का स्वामी बना. कुछ ही दिनों में उसकी ख्याति गंडोदीप के चारो संभाग में फ़ैल गयी. गणोंदीप के गोंड समूदाय के सभी लोग उसे पूज्य मानने लगे. वह अपनी शक्ति से अपने गणों की हिफाजत किया करता था. इसलिए वह गंडोदीप का संभूशेक (पांच व्दीपों का स्वामी) बना. “संभूशेक” यह शब्द सं+भू+शेक इन शब्दों से बना है. गोंडी में सं याने संयूग अर्थात पांच भू याने भूई अर्थात धरती और शेक याने स्वामी. इस तरह संभूशेक याने पांच व्दीपों का स्वामी. उसका विवाह मेलकोट की कन्या मुलादाई से हुआ. संभू-मूला के जीवन से संबंधित अनेक घटनाओं की गाथा गोंड समूदाय में लोकगीत एवं कथासारों के रूप में प्रचलित है. उसने सभी जीवों का कल्याण साध्य करने वाला मूंदशूल (त्रिशूल) का प्रचार एवं प्रसार किया.

इस सिंगारदीप में एक के बाद एक अनेक संभूशेक (पांचव्दीपों) के स्वामी हुए. अपना जीवनकाल मर्यादा समाप्त होने के पूर्व ही विधमान संभूशेक अपना दायित्व अपने होनहार अनुचर को सोप दिया करता था. संभूशेक की यह परिपाटी इस गोंडवाना व्दीप समूह में आर्यों के आगमन काल तक चली. जैसे संभू मूला, संभू गोंदा, संभू मूरा, संभू सय्या, संभू रमला, संभू बीरो, संभू रय्या, संभू अनेदी, संभू ठ्म्मा, संभू गवरा संभू बेला, संभू तुलसा, संभू आमा, संभू शेक अपनी अपनी आर्धांगणियों के जोड़ी से ही जाने जाते हैं और उनकी उपासना संभू जागरण के पर्व पर गोंड समुदाय के लोग करते हैं. वे संभूओं के नाम से गीत गाते हैं. और गीत या पाटा के प्रत्येक चरण के अंत में अरूरूं संभू जोहार संभू, वरू वरु संभू, सेवा सेवा संभू इन शब्दों का उच्चारण कर अपना अभीवादन एवं सेवाभाव अर्पित करते हैं. जैसे :-

संभू पाटा

रेना रेना रे रेना रेनाss | रेना रेना रे रेना रेनाss |
रेना रेना रे रेना रेनाss, रेना रेना रे रेना रेनाss
अरुरुं संभू, जोहार संभूss, वरू वरू संभू, सेवा सेवा संभूss
नीवा मेंडी बेगा मेदा संभूss, निवा मेंडी बेगा मंदाss
नीवा मेंडी बेगा मंदा संभूss, वेहारो संभू, मेंडी रो संभूss
अरुरुं संभू, जोहार संभूss, वरु वरु संभू सेवा सेवा संभूss
पेन मेंडी नीवा आदू संभूss, पेन पेडी निवा आंदूss
पेन पेडी नीवा आंदू संभूss, केंजा ये संभू, पेनमेडी संभूss
अरूर संभू, जोहार संभूss, वरु वरु संभू, सेवा सेवा संभूss

उक्त संभू गवरा पाटा के हर चरण अंत में अरुरुं संभू जोहार, जोहार संभू, वरु वरु संभू सेवा सेवा संभू इन शब्दों के उच्चारण से ही अनेक संभूओं का बोध होता है. अरूरुं यह शब्द दो शब्दों के ही मेल से बना है. अरु+अरूंग (अस्मी+आठ) याने अरुरूं अर्थात अट्ठाशी और वरु वरु याने हर के या प्रत्येक ऐसा गोंडी अर्थ होता है. इस तरह वे सिंगार व्दीप अट्ठाशी संभूओं को जोहार (प्रणाम) करते है और उनमे से हर एक को अपना सेवा भाव अर्पित करते है. दूसरी भाष बोलने वाले “वरु वरु” के स्थान पर हर हर शब्द का प्रयोग करते हैं. जैसे हर हर संभू, हर हर महादेव जिसका अर्थ भी हर एक संभू, हर एक महादेव ऐसा ही होता है. उक्त समाधानों में यह पुष्टि होती है कि संभू या महादेव एक उपाधि है. जिसे पांच व्दीपों के स्वामी के लिए प्रयुक्त किया जाता था. जिनकी संख्या अरुरुं याने अट्ठाशी है.

उक्त अरुरूं संभूओं के संभू-मूला की प्रथम जोड़ी थी. उन्हीं में से एक संभूसेक की सहगामीनी सईसालगुट्टा कोर के पसारू कोट राजा विजासूर की कन्या गवारादाई थी. संभू-मूला की तरह संभू-गवरा से संबंधित अनेक कथासार गोंडसमुदाय में अनादी काल से प्रचलित है. गवरा माता के पिता ने अपनी कन्या की बरात उसे सांडाल कोंदा पर उठाकर ले गये थे. और उसी सांडाल कोंदा का उन्होंने संभू-गवरा को दान में दे दिया था. गोंड समूदाय के रिवाज के मुताबिक़ विवाह हेतु कन्या की बारात वर के घर जाती है. इसलिए संभू के पेनमेडी में गवरादाई की बारात पसारू कोट से सांडाल कोंड़ा पर गई थी. वही सांडाल कोंदा बाद में संभू गवरा का वाहन बना.

प्रथम संभू-मूला जोड़ी का तीन शूलों युक्त जीवन मार्ग के अनुसार सभी संभूओं ने इस धरातल में जीवों की सेवा की. वे सभी जीवों के स्वामी थे, इसलिए उन्हें जायजनतोर राजाल अर्थात पशुपतिनाथ कहा जाता था. संभू गवरा के जीवन काल में गंडोदीप के गोंदोला निवासी गोंडी गणों की बोली, भाषा, संस्कृति के साथ साथ गणराज्य व्यवस्था और कृषि, अर्थ व्यवस्था का विकास और विस्तार हो चुका था. नगर कोटों एवं गणों की व्यवस्था प्रस्थापित हो चुकी थी किन्तु उनमे सुनियोजित समुदायिक जीवन और गणगोत्रयुक्त पारिवारिक जीवन मूल्यों का आभाव था. संभू-गवरा के जीवनकाल में यादमालकोट (वर्तमान चांदागढ़) के यादराहूड राजा की नया कलीया कुआरी (कली कंकाली), परंदूल कोट के कोषाल राजा की कन्या जंगो रायतार और पुर्वाकोट के पुलशी राजा का पुत्र रुपोलंग का जन्म हुआ. इन तीनो महान जीवों ने अपने जीवन में सम्पूर्ण गंडोदीप के चारों संभागों एवं चारों वंशियों के गोंड समुदाय को विशेष समुदायिक सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों से परिपूर्ण नया जीवन मार्ग दिया. दाई कली कंकाली ने सगा वेनों को जन्म दिया, दाई जंगों रायतार ने उनका लालन पालन किया दाई गवरा ने उन्हें दूध पिलाया, दाऊ संभूशेक ने उन्हें उचित दण्ड देने हेतु कोयली कचाड कोप में बंद किया और संभू गवरा के मार्ग दर्शन के अनुसार हिरासुका पाटालीर की सहायता से रुपोलंग मुठ्वा पहांदीपारी कुपार लिंगो ने उन्हें कोप से मुक्त किया और अपने शिष्य बनाया. गोंडी पुनेमी मूल्यों से उन्हें शिक्षित एवं दिक्षित कर उनके, माध्यम से लिंगों ने गंडोदीप के सम्पूर्ण कोया वंशीय गोंड समूदाय जो विभिन्न गढ़कोटों, कोरो और वंशों में विभाजित था, को सगा युक्त समुदायिक संरचना में संरचित कर उसे सम विषम सगा घटक एवं गोत्र सूत्र में अनुबंधित किया. संभू गवरा के गोएन्दाडी के सुरलेंग को शब्दरूप देकर गोंडवाणी बनाया और उसके माध्यम से गोंडी पुनेम मूल्यों का प्रचार एवं प्रसार किया.

लिंगो ने सर्वप्रथम सलां-गांगरा शक्ति परसापेन (संजोरपेन, फरापेन, हजोरपेन,, सिंगाबोंगापेन, भईलोटा पेन) का मुख्य पेनगढ़ अमुरकोट में बनाया, जहां से नरमादा, माता-पिता, दाईदाऊ शक्ति ने कोया वंशियों के मूल जीव आंदी रावेन पेरियोर और सुकमा पेरी को जन्म दिया था. कोयली कछाढ (काची कोपाड़) गढ़ को सगादेवों की मुक्ति भूमी बनाया और लांजीगढ़ जहां उसने अपने सगा शिष्यों को सगायुक्त समुदायिक संरचना में संरचित किया था, को गोंडी गणों का मूल नाभी बनाया, तत्पश्चात सात सौ पचास गोत्रों के पत्येक गोत्र धारक सगा के लिए पृथक फरापेनगढ़ (सरना+थल,पेंनकड़ा) स्थापित करवाया. इसी दौरन सिंगार दीप के स्वामी संभू-गवरा की जोड़ी वेनरूप से पेनरूप अवस्था में पहुंची अर्थात उनका जीवन कार्य समाप्त हुआ और उनके उतराधिकारी के रूप में शंभूशेक-बेला की जोड़ी ने सिंगारदीप के स्वामी का कार्यभार संभाला. गोंडी मुठ्वा पारी कुपार लिंगो और संभू-बेला ने संभू-गवरा के स्मृति में उनके वाहन संडाल कोंदा के साथ “संभू-गवरा पिण्डा” की स्थापना अमुरकोट में की. तत्पश्चात गंडोदीप में जहाँ जहां गोंडी गणों का विस्तार और उनके पुनेमी मूल्यों का प्रचार एवं प्रसार हुआ, वहां वहां संभू गवरा के पिंडों की स्थापना धारती के स्वामी के रूप में वे करते गये. यह कार्य पारी कुपार लिंगो के मार्गदर्शन से होता रहा, इसलिए उसे लिंगोपिंडा भी कहा जाता है.

शंभू-गवरा के जो गण थे वे सभी शंभू-गवरा के साथ साथ उनके वाहन साण्डाल कोंदा के भी उपासक बने. शंभू-गवरा के पश्चात इस गंडोदीप या सिंगारदीप के स्वामी शंभूबेला. शंभू-मूरा, शंभू-तुलसा, शंभू-ऊमा, शंभू-गिरजा, शंभू-सती और शंभू पार्वती तथा उनके समकालीन जो भी गोंडी पुनेम मुठवा लिंगो हुए वे सभी संल्ला-गांगरा शक्ति साथ साथ शंभू गवरा पिण्ड के भी उपासक बने. यही वजह है कि वेनों के राजा लिंगों, धरती के स्वामी शंभू और जीव जगत जन्मदाता संल्ला-गांगरा शक्ति परसापेन की उपासना गोंड समूदाय में आज भी प्रचलित है. सिंगारदीप के राजा शंभू की अनुमती के बिना तथा उसकी अधिसत्ता मान्य किये बिना इस गोंडियनों के गोंडवाना में कोई बाहरी व्यक्ति प्रवेश नहीं पा सकता था. इस धरती में प्रवेश पाने के लिए तथा मरणोंपरांत इस धरती पर समाधि के लिए जगह पाने के लिए इस धरती के राजा शंभू को राजस्व देना पड़ता था. इसलिए उन्होंने राजाओं के राजा ‘महाराजा” देवों के देव “महादेव”, नाथों के नाथ “महानाथ”  डोमों के डोम “महाडोम”, लिंगो के लीगों “महालिंगों”, कहा जाता है. इस तरह शंभू गवरा के पश्चात उसके उतराधिकारी शंभूसेकों ने सम्पूर्ण गोंडवाना व्दीपसमूहों में शंभू-गवरा के पिंडों को स्थापित करने लगा. यह कार्य वर्तमान भारत के पेन्कमेडी (पेचमडी) और अमूरकोट (अमरकंटक) से प्रारंभ हुआ और सारे संसार में इसका प्रचार एवं प्रसार हुआ. अफगानिस्तान में इस पांच व्दीपों के स्वामी शंभूसेक के पिण्ड को पंचशेर या पंचवीर कहा जाता है. ग्रीक में प्रचलित शेबोंन पूजा भी पांच व्दीपों के स्वामी की पूजा है. शेबोंन या हेवोन का अर्थ ही ग्रीक भाषा में पांचव्दीप ऐसा होता है. भारत में शंभू गवारा पिण्ड का नामांतरण बाद में शालीगराम, शिवमगवरा, शिवलिंग इसतरह होकर वर्तमान में उसे एक विशेष शैव पंथ के लिंगायतों से जोड़ा दिया गया है. जबकि लिंगायत तीसरे दूसरे कोई नहीं बल्कि गोंडी पुनेम मुठ्वा लिंगो के ही अनुयायी थे, जो आर्यों ने मिथ्या सांस्कृतिक दमनचक्र में दिगभ्रमित होकर अपने मूल गोंडियन मूल्यों से परे जा चुके हैं. आर्यों व्दारा रचित शिव+पूरण, लिंगपुराण, स्कंदंपुराण शंभू-पार्वती के जीवन से संबंधित है, क्योंकि शंभू महादेव को अपने कूटनीति से वस में करने हेतु उन्होंने दक्ष कन्या पार्वती को प्रयोग किया और उक्त पुराणों की रचना कर मिथ्या प्रचार किया, जिससे अनादी काल से गोंड समुदाय में जो शंभू शेक और लिंगो की परिपाटी चले आ रही थी वह खण्डित हो गई.

शंभू गवरा और लिंगो के जो गण थे सभी शंभू गवरा के साथ साथ उनके वाहन साण्डाल कोंदा के भी उपासक बने हर जगह जहां जहां शंभू–गवरा के पिण्ड या मठ है वहां साण्डाल कोंदा भी स्थापित है. साण्डाल कोंदा नाम पर अनेक प्राचीन स्थलों के नाम रखे गये हैं. जैसे कोंदा-मेंन्दोल, कोंदानाल, कोंदाहार, कोंदाबुल, कोंदा कोज्जी, कोंदाकोर, कोंदाताल, कोंदामेंट्टा, कोंदालांजी, कोंदाझार, कोंदानूर, कोंदापल्ली, कोंदाली, कोंदामेडी, कोंदागुट्टा, कोंदावाड़ी, हनामवारकोंदा, नालदाकोंदा, गोलकोंदा घाट, डोमकोंदा, नेरदीकोंदा, रमकोंदा, आदि ऐसे अनेक प्राचीन स्थलों के नाम हैं जो शंभू गवरा के वाहन कोंदा पर रखे गये हैं. उक्त प्राचीन स्थलों के नामों से गोंडी समुदाय की प्राचीनता का बोध होता है.

इस गोंडवाना दीप समूह में गोंडी गणों की पुनेमी पहिचान बताने वाले सभी मूल्यों को स्थापित करने का महान कार्य लिंगों ने किया. अर्थात इस कार्य को अकेले रूपोलिंग पहांदी पारी कुपार लिंगो ने नहीं बल्कि उसके सभी सगा शिष्यों ने और उनके पश्चात लिंगो उपाधि धारण करने वाले अनेक महान गोंडी पुनेम के मुठवाओं ने किया. लिंगो यह गोंडी पुनेम मुठ्वा की उपाधि है. इस उपाधि को धारण करने वाले अनेक लिंगो गोंड समुदाय में हुए. जैसे-कुपार लिंगो, मूठ लिंगो, राय लिंगो, भूरा लिंगो, महारु लिंगो, भिमा लिंगो, दवगनलिंगो, धन्नातरी लिंगो, धन्नात्री लिंगो, गन्नातरी लिंगो, दानूर लिंगो, ओसूरलिंगो, राहूड लिंगो, पोय लिंगो, कोया लिंगो, रवेण लिंगों, मिंड लिंगो, भूईण्डलिंगो, सूर लिंगो, आदि अनेक लिंगो भूमका तथा माझिओं का उल्लेख गोंडी पुनेम सूत्रों से मिलता है. कोया लिंगो शंभू पार्वती के जीवन काल में हुआ, जब इस गोंडवाना दीप में प्रवेश पाना असंभव था. शंभू शेक की अनुमति के बिना इस दीप में प्रवेश पाने के लिए उन्होंने सभी प्रकार के प्रयास किये, परन्तु विधमान शंभू ने उन्हें नकार दिया. शंभू सेक को कूटनीति से अपने वश में करने हेतू आर्यों ने दक्ष कन्या पार्वती को स्तेमाल किया. उसे अनेक प्रकार के नशीली पदार्थों का आदि बनाया गया. भोले शंभू आर्यों के कूटनीति को समझ नहीं पाए और उनके जाल में फंस गये. रोद्र रूप धारण कर अपने तीसरे नेत्र से दुश्मनों पर आग बरसाने वाले शंभू पार्वती के माया जाल में फंसकर सुप्त अवस्था में पहुंच गये. इस तरह गोंडी समुदाय के शंभू शेक और लिंगो व्यवस्था पर ही आर्यों ने अपने कूटनीति से आघात किया, जिससे यह व्यवस्था ही खण्डित हो गई. इसके बावजूद भी शंभू शेक और लिंगो व्दारा प्रस्थापित किये गये जीवनमूल्य कई हजारों वर्ष बाद भी आज गोंड समूदाय में विधमान है. 

गोंडवाना गंडोदीप के गोंदोला निवासी गोंडी गणों के मूल उत्पत्ति की पहिचान बताने वाले अमूरकोट आज भी अमरकंटक के रूप में खड़ा है. वहां पर फरापेन सईलांगरा नरमादा शक्ति ने दाऊ दाई का रूप धारण कर गंडोदीप के गणजीवों को सर्वप्रथम जन्म दिया था और तत्पश्चात सिंगार दीप में उनका विस्तार हुआ. फरावेन सईलांगरा दाऊ दाई शक्ति का प्रतीक नरमादा नदी अमुरकोट के “कोया वंश भिड़ी” से उद्गमित होकर “कोया पिलांग धारा” (कोया पीलों का प्रवाह) को लेकर आज भी प्रवाहित है. कोया वंश भिड़ी स्थल को वर्तमान में वंश भिड़ा और कोया पिलांग धारा को कपिल धारा कहा जाता है. “झर धर नरमदाल वानारों, कोया वंशीन जीवदान सीतारो” इस गोंडी नृत्यगीत के माध्यम से नरमादा (सल्लां-गांगरा) शक्ति का गुणगान करने का रिवाज अनादी काल से गोंड समुदाय में प्रचलित है. जिस येरुगुट्टाकोर संभाग के पेन्कमेडी कोट में कुलीतरा के कुट्मार प्रथम शंभू का जन्म हुआ और लगातार अरुरुं ८८ शंभू की परिपाटी चली जहां से उन्होंने गंडोदीप के गोंडी गणों की सेवा की और इस धरती के स्वामी बने वह शंभूमेटा पेन्कमेडी (पेंचमेंढ़ी) के रूप में आज भी विद्धमान हैं शंभूमूला से शंभू-पार्वती तक सभी शंभू सेक जब तक जीवीत थे तबतक वेन रूप में रहे और जीवान्त के पश्चात वे सभी पेन्क बन गये. इसलिए उनके निवास स्थल को पेन्कमेडी (पेंचनदी) कहा जाता है. वह आज भी गोंड समुदाय के पुर्खों की प्राचीनतम सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों के साथ साथ उनके प्रणेताओं की श्रृंखलाबद्ध गाथा बयान करती है. लांजीकोट में अपने सगावेन शिष्यों को शिक्षित एवं दीक्षित कर उन्हें जिस नदी के बहते प्रवाह में लिंगोने जय सेवा मंत्र की सपथ दिलाई थी वह वेन गोदा आज भी वेनगंगा के रूप में प्रवाहित है. गोंड समुदाय के सगावेन जब तक जीवीत थे वे वेन रूप में थे और उनका जीवनकाल समाप्त होने के पश्चात जिस नदी किनारे वे पेनरूप में समाधिस्त हुए वह पेनों की नदी पेनगोदा याने पेनो का निवास दर्शाने वाली पेनगंगा आज भी विधमान है.

वेनगोदा, पेनगोदा और पेन्कढोड़ा गोंड समुदाय को जीवन दान दिए हैं और आज भी दे रहे हैं, इसलिए इन तीनों नदियों के संयुक्त नदी को पराणहिता कहा जाता है. पराण हित का गोंडी अर्थ जीवनदाता होता है. जीवन प्रदान करने वाली यह परानहित अंत में समदूर दाई के गोदा तक गोएदारी नदी में मिलकर जाती है इसलिए उसे गोदावरी कहा जाता है.

गोंडी पुनेम मुठ्वा लिंगो को जिस परिक्षेत्र में सत्य ज्ञान का साक्षात्कार हुआ अर्थात “संत पुथडा” मिला वह सतपुडा आज भी विधामान है. गोंडी समुदाय के वेनों का विस्तार सर्वप्रथम अमुरकोट के पूर्व संभाग में जहां हुआ, वह “वेनाआचेल” आज भी, वेन्यांचल के रूप में जाना जाता है. गोंडी वेनों की दाई का आचेल याने “वेनदाईआचेल” भी वेन्दियाँचल रूप में विराजमान है. वेनों के दाई का ठाना “वेनदाई ठाना’ आज भी बस्तर में संकनी और डंकनी नदी किनारे दानतेवाडा में है. प्राचीन वेन दाई को वर्तमान में दंतेश्वरी नाम रखा गया है. जंगो राईतार दाई का ठाना निलकोंदा मेट्टा आज भी आंध्रप्रदेश में परंदूली कोट के पास है. यादमाल गुंडा के राजा की कन्या तथा गोंडी सगावेनों की दाई कलीकंकाली का ठाना आज भी झरपट नदी के किनारे चांदागढ़ में है. गोंडी सगा समुदाय को उनके मुठवा पारी कुपार लिंगों ने जहां जहां जाकर मार्गदर्शन किया है वे स्थल लिंगों गढ़ों के रूप में आज भी विधमान है. जैसे अमूरकोट लिंगोगढ़, समूरगांव लिंगोगढ़, धनोराबाजा लिंगोगढ़, चांदामेटा लिंगोगढ़, शंभूमेडी लिंगोगढ़, सिंगाभूमा लिंगोगढ, कोरपाट लिंगोगढ़, भूवानपाट लिंगोगढ, केऊनझारी लिंगोगढ़, कईरांडूला लिंगोगढ़, परांडूला लिंगोगढ, गजामकोट लिंगोगढ़, उमेरकोट लिंगोगढ़, मागोडमूरी लिंगोंगड़, आऊटबंटा लिंगोगड, निलकोंदा लिंगोगढ़, पेंडूरमेटा लिंगोगढ़, मुरातोड़ी लिंगोगढ़, आलीकोट, लिंगोगढ़, भूवानसूरी लिंगोगढ़, सीयारपाट लिंगोगढ़, मेनपाट लिंगोगढ़, चिनूरगुडा लिंगोगढ़, बान्सूरवाडा लिंगोगढ़ , सीमोरडेगा लिंगोगढ़, बिदारवाडा लिंगोगढ़, भीमालगोदा लिंगोगढ़, उकाईगुटा लिंगोगढ़, मरकाधोंदी लिंगोगढ़, बिंगालमेटा लिंगोगढ़, भैसागुडा लिंगोगढ़, कोइलमेटा लिंगोगढ़, काचीकोपाड़ लिंगोगढ़, कुपारमेटा लिंगोगढ़ आदि अनेक स्थल और कोट लिंगोमढ़ों के रूप में विधमान है.

गोंडी पुनेमदाई जंगो रायतार, वेनदाई कली कंकाली, सईतला दाई हईगलास दाई आदि के गढ़ गंडोदीप के हर गुडा, गाँव, कसबा, नार, पारा, तथा गुट्टा में उपस्थित है. उसी तरह भिमलिंगों के नाम से भी भिमालकोरी, भिमालधोंदी, भिमालमेट्टा, भिमालगढ़, भिमालढ़ोंड़ा, भिमालपाट, भिमाल कुंड, भिमालकोट, भिमाल कोप, भिमालगुट्टा आदि अनेक स्थल जहां तहां स्थित है.

गोंडी पुनेममुठ्वा पारी कुपार लिंगो ने चारों संभागों के कोया वंशीय गोंड को बारह सगाओं और सात सौ पचास क्षेत्रों में विभाजित कर प्रत्येक गोत्र का एक पेनगढ़ स्थापित किया था. जहां पर एक गोत्र के सभी सगाजन अपनी जन्मदाता ईस्ट शक्ति की उपासना किया करते थे और अपने परिवारों के सभी सदस्यों का लेखा जोखा पेंगगढ़ प्रमुख को दिया करते थे और आज भी करते हैं. इस प्रकार सात सौ पचास गोत्रों के सात सौ पचास पेनगढ़ इस गंडोंदीप में विभिन्न क्षेत्रों में आज भी विधमान है. गोंड समुदाय के ये पेनगढ़ कोई ईटगारा, पत्थरों से बनाये गये देवालय नहीं, बल्कि महूआ, सरई, साजा, बरगद आदि पेड़ पौधों के प्राकृतिक स्थल होते है, जहां पर संल्ला-गांगरा प्रतीकों के रूप में जन्मदाता फरापेनशक्ति स्थापित होती है. उसी स्थल को पेनगढ़, पेनकड़ा, पेनसरना, पेनगाढवा, पेनठाना या पेनभिना कहा जाता है. ऐसे ही कुछ गोत्र धारकों के मूल पेनगढ़ निम्न प्रकार हैं :-


आत्राम–शिरपुरगढ़
अरमे-अंतागढ़
ओयमा-कारीकोटगढ़
अरमाची-घुग्गुसगढ़
आड़े-सीरागढ़
आयाम-मुन्नोरगढ़
अहाका-खुमापीगढ़
अलाम-मुरुमागढ़
अड़में-कोहकागढ़
इरपाची-पोनूरगढ़
उंदामी-दोवदारगढ़
सिडाम-जुनगढ़
इनावातौ-खनोरागढ़
पुरम-पुरतागढ़
उसैंडी-बासनगढ़
कुमरा-कुराईगढ़
वरकड़ा-पालीगढ़
बोगामी-पोरलागढ़
परतेती-देवरीगढ़
कड़ीयाम-बौकागढ़
तोड़साम-पिट्टोगढ़
कंगाली-सारवागढ़
कुवरेती-हरईगढ़
वट्टी-हिरागढ़
भलावी-अम्मूदागढ़
वट्टी-बनातगढ़
सरोता-सीरसागढ़
पसराम-आहीरीगढ़
वड्डे-बंसारगढ़
पंदरो-रीवागढ़
करपेती-करेलीगढ़
कोकोड़ा-बेनीगढ़
वरकाटा-नंदीरागढ़
उईका-केवलारीगढ़
धुरवा-भैसागढ़
तलांडी-कोवरागढ़
खंडाता-हथियागढ़
पुर्रे-राईगढ़
कोरेटी-बाजागढ़
मर्सकोला-ड़ोंडेरागढ़
पंधराम-रीमगढ़
तोयका-अलसगढ़
मलधाम-खिर्रीगढ़
टेकाम-लांजीगढ़
पुसाम-डूंगरीगढ़
मडावी-टंकागढ़
वलक-काचीगढ़
तोरे-उमरीगढ़
कुंजाम-बिदारगढ़
कुमराम-मसारूगढ़
भोजाम-कंगोलीगढ़
गजाम-चंदरगढ़
नेटी-सालडोंगरीगढ़
चोलाम-चेनागढ़
गोरंगा-रोंगागढ़
कनाके-मालबोड़ीगढ़
गदामी-डंडागढ़
गोटा-भालीसूरगढ़
सीरसाम-डोंगरनालगढ़
पोरेटी-तोड़ोगढ़
दुगा-पालमूरागढ़
कचराम-सिंगनगढ़
कर्लाम-निर्सागढ़
सोयाम-टाईपारगढ़
नेताम-सेईपारगढ़
मुचामी-करेलागढ़
चेराम-पसूदागढ़
खुशरो-गंडाईगढ़
चिलाम-पिमरागढ़
चिचाम-कचीडमागढ़
कोराम-नोंदगढ़
तराटी-वंजोरागढ़
ताराम-बय्यरगढ़
टोपा-धनोरागढ़
पोया-पेरमागढ़
तुमराम-बीजाऊरगढ़
वेलादी-मानीगढ़
पूरापा-खेडोगढ़
सोरला-गंगारगढ़
सेरमाका-ताडवागढ़
रायमेंन्ता-ओसागढ़
सरीयाम-जावेलीगढ़
घोडाम-जानरलागढ़
उरेती-मरूमागढ़
कोरेटी-कुत्तुलगढ़
कचिमूरा-कोकागढ़
महाकाटा-पेवारीगढ़
गावडे-मरोड़ागढ़
येरमेंता-सरोनागढ़
सरुता-कोहकागढ़
लेकामी-लामनीगढ़
तोडासे-अट्पालगढ़
वेरमा-झांजीगढ़
तीवारी-खलारीगढ़
सीट्राम-आड़ेरगढ़
अरमाची-घोटगढ़
केराम-भारंगागढ़
दुरांडी-आमावेड़ागढ़
कुपोड़ा-बामनीगढ़
सिंगाम-झरपेगढ़
कोपा-बस्तारीगढ़
पावला-उलनागढ़
करमा-परसागढ़
मुरपाडा-कचोरागढ़
वरमा-बीदारगढ़
कोगा-चिमरीगढ़
पावला-उलनागढ़
करमा-बस्तारीगढ़
पावला-उलनागढ़
करमा-परसागढ़
मुरपाडा-कचोरागढ़
वरमा-बीदारगढ़
कोगा-चिमरीगढ़
तुलानी-वित्रागढ़
कोडगाम-जीकागढ़
सरमा-भदेरागढ़
हिचामी-टाकरागढ़
कल्लाटी-इलसगढ़
पुरकाटा-माटियागढ़
कुरसंगा-ऐडकागढ़
मोईमा-कारीकोटगढ़
नामुर्ता-काकवागढ़
तोराटी-घुमरागढ़
हुंझेडी-गुमरीगढ़
कठोना-गोंदोलीगढ़
सोरीजयतागढ़
पोया-छेरतागढ़
बोदबोयना-कोसोगढ़
चराटी-कलेपागढ़
पोरता-दतेवाड़ागढ़
गेडाम-माटीगढ़
नेलांजी-गोंडूलगढ़
निडाम-कालपाटीगढ़
पायकाटा-पल्लीगढ़
कोडवाना-पंजोलीगढ़
मटाम-करंजीगढ़
जिरकाम-वेड्मागढ़
कर्नाका-परसागढ़
नरोटी-मारीगढ़
पटावी-भंगारगढ़
पटावी-केलाकोटगढ़
तिर्गाम-कानागढ़
वोटी-मुकरीगढ़
टेकामी-रेमागढ़
दर्रो-महाकागढ़
कुचाग-लक्कामीगढ़
पुराटी-कोंगोरगढ़

इस तरह सभी गोत्र धरकों का एक एक पृथक पेनगढ़ की व्यवस्था गोंड समुदाय में विधमान है. इसी पेनगढ़ व्यवस्था के साथ लिंगो ने गोंड समुदाय का परगना, कोटा और गढ़राज्यों से युक्त राजकीय व्यवस्था भी बहाल की थी, जिसके अनुसार उनका राज्य कार्यभार भी चलता था. गोंडी गण्डराज्यों के प्रमुखों को उसने “हत्ती परो सिंगारियाणा सवारी” (हाथी पर सिंह की सवारी) यह राजमुद्रा प्रदान की थी. इसलिये सभी गोंड राजाओं की राजमुद्रा हाथी पर सवार सिंह यही थी. उनके प्राचीन परगना, कोट और गढ़ आज भी इस गंडोदीप में हैं. उनकी पंचायत व्यवस्था नारगढ़ मोकासगढ़, मुड़ागढ़ (परगनागढ़) और राजगढ़ इन चार स्तरों में विभाजित थी. नारगढ़ में ग्राम सियानगणों की व्यवस्था, मोकाशगढ़ में बारह ग्रामों के सियानगणों की व्यवस्था मुंडागढ़ में चालीस ग्रामों के सियानगणों की व्यवस्था और राज गढ़ों में गढ़प्रमुख और उसके परगना प्रमुखों के सियानगणों की व्यवस्था थी, जो प्रजा के सभी समस्याओं का निदान किया करते थे.

इस गंडोदीपीय गोंडवाना में गोंदोलावासी गोंडियनो की गढ़ व्यवस्था प्रणाली अति प्राचीन है, जिस पर लगभग ईसा पूर्व ३००० वर्ष के दरमियान अंडोदीप (अंगारालैण्ड) के एशिया माईनर संभाग से घुमून्त आर्य टोलियों का आक्रमण सुमेरकोट से लेकर लंकाकोट तक हुआ. गोंड समुदाय को जो नार, गुडा, कोट, गढ़ गंडराज्य और पेनगढ़ थे. उसको हथियाकर या ध्वस्तकर उनके स्थान पर नगर दुर्ग, जनपद और मंदीर स्थापित करने का कार्य विगत पांच हजार वर्षों से लगातार हो रहा है. नगर दुर्ग, जनपद और मंदीर व्यवस्थाधारी आर्यों के पश्चात इस गंडोदीप में शहर, किला, साम्राज्य और मश्जिद व्यवस्थाधारी मुगलों का और सीटी फोर्ट, कैपिटल कन्ट्री तथा चर्च व्यवस्थाधारी ईसाइयों का आक्रमण हुआ. उक्त मनु के मानवों, आदम के आदमियों, इल्लाह के इन्सानों और मशीहा के मैनों के साथ इस गोंडवाना गंडोदाई, मूलादाई, गवरादाई और बेनदाई के बीरों ने अर्थात दरवीरों ने अपने गोंडी गोंदोला के समुदायिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा राजकीय अस्तित्व के लिए प्राचीन काल से निरंतर संगर्षरत है, और आज भी इस आजाद भारत में संघर्ष कर रहे हैं. गोंडवाना दर्शन की गाथा या गोंडवाना व्दीप समूह के कोया वंशीय गोंदोला के गोंडियनों की अर्थात दाईदाऊ के बीर (उपासक) दईरविरों (दरवीडो) की, दाई दाऊ के सूर दईस्यूरों (दस्यूरों) की, दाई दाऊ के तूर (संतान) दईतूरों की, दाईदाऊ के भूत (वंशज) दईभूतों की समुदायिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा राजकीयउद्गम उत्थान और पतन के पश्चात पुनरुत्थान की ओर स्वीय अस्मिता एवं अस्तित्व की संघर्ष गाथा है. इस स्वीय अस्मिता और अस्तित्व के पुनरुत्थान का संघर्ष ही गोंडवाना दर्शन का अंतिम लक्ष्य है.

संदर्भ सूची :-
१- मूलगोंडी सूत्र, गोंडवाना गढ़दर्शन, जुलाई १८, पृ.१६.
२- भौतिकी एवं भौमिकी इतिहास कोमलसिंहमरई, गोंडवाना दर्शन ८७.
३- मानव संस्कृति का इतिहास, डॉ. केसट्टीवार पृ. ३-४.
४- दी अर्थक्रस्ट, विलियन एच, मैथ्यू पृ. ६६-६७.
५- दी इंट्रोडक्शन तु जियोलाजी, वोल्यूम-२,पार्ट
६- एच.एच. रीड एन्ड वाटसन पृ. १४.
७- पारी कुपार लिंगो गोंडी धर्म गुरु दर्शन, मोतीराम कंगाली पृ.९४.
८- भौतिकी एवं भौमिकी इतिहास कोमलसिंह मरई, गोंडवाना दर्शन, सप्टेम्बर ८७.
९- भौतिकी एवं भौमिकी इतिहास कोमलसिंह मरई, गोंडवाना दर्शन, सप्टेम्बर ८७.
१०- भौतिकी एवं भौमिकी इतिहास कोमलसिंह मरई, गोंडवाना दर्शन, सप्टेम्बर ८७.
११- भौतिकी एवं भौमिकी इतिहास कोमलसिंह मरई, गोंडवाना दर्शन, सप्टेम्बर ८७.
१२- गोंडी गुडा सूत्र, गोंडवाना कोइतूर, अंक ४२, जुलाई ८७.
१३- गोंडी श्लोक, मोतिरावण कंगाली पृ. ८.
१४- गोया भिडीता गोंड सगा बिडार, मोतीरावण कंगाली.


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