मंगलवार, 12 नवंबर 2013

संताल आदिवासियों का "बेलबोरोन पूजा"

सच्चिदानंद सोरेन



संताल आदिवासियों का बेलबोरोन पूजा 
"बेलबोरोन पूजा संताल आदिवासी मानते हैं" जब धरती मे मनुष्यों द्वारा पाप बहुत बढ़ गया तो ठकुर ने 12 दिन और 12 रात सेगेल दाह (अग्नि बान) धरती के सिंगबीर और मानबीर में गिराये और इसके साथ-साथ पुहह (जीवाणु/वायरस) भी छोड़े और मनुष्य जाति को ख़त्म करने का निर्णय भी लिये. जब यह बात ठकरन को पता चला तो उसने ठकुर से कहा ये सभी हमारे ही बच्चे है इन सभी को नाश नहीं करे. ऐसा करने से हमें ही हानि होगी. इसके लिये मै लिटह (मराङ बुरु) से बात करुगी और हम दोनों मिलकर मनुष्यों को धर्म के रास्ते वापस लायेगे.इसके लिये ठकरन ने लिटह (मराङ बुरु) को मोनचोपुरी (पृथ्वी लोक) से शिरमापुरी (देवलोक) बुलायी और कही- मनुष्य पाप के रास्ते चल पड़ा है जिस कारण ठकुर इन मानव जाति को नाश करने वाले है. ठकुर का संदेश है कि हम दोनों (ठकुर और ठकरन) का सपाप (आभूषण और वस्त्र) मोनचोपुरी (पृथ्वी लोक) ले जाये और मनुष्य दशांय नृत्य और गीत के माध्यम हमारा गुणगान करे. मेरा सुनुम-सिंदुर (तेल-सिंदुर) ले जाये और गांव- गांव घुमाये. मेरा सपाप (आभूषण और वस्त्र) साड़ीशंकाकाजल आदि और ठकुर का सपाप (आभूषण और वस्त्र) लिपुर,पैगोन,मोर पंख आदि ले जाये. कुछ लोग मेरा सपाप(आभूषण और वस्त्र)पहने और कुछ लोग ठकुर का सपाप(आभूषण और वस्त्र) पहने और दशांय नृत्य और गीत के माध्यम हमारा गुणगान करे.ऐसा करने पर ठकुर खुश हो जायेगे, उन्हें बिश्वास हो जायेगा कि मनुष्य पाप छोड़ धर्म के रास्ते चल पड़ा हैतब वे मनुष्य जाति का नाश नहीं करेगे. ठकरन ने लिटह (मराङ बुरु) से यह भी कहा कि मैं 12 गुरु बोंगाओ (गुरु देवताओ) को भी जाने के लिये कहुगा जो अपने-अपने कार्य क्षेत्र मे निपुण है. जैसे धरोम गुरु बोंगा-धर्म और धन, कमरू गुरु बोंगा-रोग मुक्ति, भुवग गुरु बोंगा- नृत्यसंगीत आदि. इन सभी को घर-घर घुमाओइससे ठकुर के माध्यम से मनुष्य जाति को ख़त्म करने के लिये छोड़े गए पुहह (जीवाणु/वायरस) के माध्यम से जो बीमारी फैली है वह इन गुरु बोगाओ (गुरु देवताओ) के माध्यम से खत्म हो जायेगा. इन गुरु बोगाओ (गुरु देवताओ) के माध्यम से मनुष्य बीमारियो का इलाजदवा, जड़ी-बुटीधर्मतंत्र-मंत्र आदि सिखेगा. मोनचोपुरी (पृथ्वी लोक) मे मनुष्य गुरु बोगाओ से गुरु-शिष्य का सम्बंध स्थापित कर हमारा गुणगान करे. आगे ठकरन ने कहा- मैं दशांय चांदु (संताली महीना) के छट्टा दिन (6th Day) को मोनचोपुरी (पृथ्वी लोक) मे गुरु बोगाओ(गुरु देवताओ) के साथ अवतरित होगी.इस दिन को संताल आदिवासी बेलबोरोन पुजाकरते है.इस बेलबोरोन पुजा मे धरोम गुरु बोंगा (2)कमरू गुरु बोंगा(3)भुवग गुरु बोंगा (4)कांशा गुरु बोंगा (5)चेमेय गुरु बोंगा (6)सिद्ध गुरु बोंगा (7)सिदो गुरु बोंगा (8)रोहोड़ गुरु बोंगा (9)गांडु गुरु बोंगा (10)भाइरो गुरु बोंगा (11)नरसिं गुरु बोंगा (12)भेन्डरा गुरु बोंगा की पूजा करते है. बेलबोरोन पुजा के एक सप्ताह पहले से गुरु-शिष्य गांव मे आखड़ा बांधते है जहा गुरु शिष्यो को मंत्र की सिद्धीपरंपरागत चिकित्सा विधि आदि का ज्ञान देते है. इसी दौरान गुरु-शिष्य पहाङ सहित कई जगहों पर जड़ी-बुटी के खोज मे जाते है जहाँ गुरु शिष्यो को जड़ी-बुटी की पहचान और उसका उपयोग किन बीमारियो मे किया जाता है का ज्ञान देते है. बेलबोरोन पुजा के दुसरे दिन से तीन दिन लगातर गुरु-शिष्य गुरु बोंगाओ को लेकर गांव-गांव घुमाते है और दशांय नृत्य और गीत के माध्यम ठकुर और ठकरन का गुणगान गाते है और साथसाथ भक्तों के घर मे सुख-शांतिधन आदि के लिये पुजा करते है. बेलबोरोन पुजा के चौथा और अंतिम दिन अपने गांव मे दशांय नृत्य और गीत करते है.इस तरह संतालो का बेलबोरोन पुजा गुरु- शिष्य का अट्तुथ सम्बन्ध का पूजा है.जो हमें पाप नहीं करनेधार्मिक बने रहनेसमाज को रोग मुक्त बनाये रखने, परंपरागत जड़ी-बुटी चिकित्सा विधि को जीवित रखनेपरंपरागत नाच गाने को बचाये रखने और खुश रहने का संदेश देता है.
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मंगलवार, 5 नवंबर 2013

आदिवासियों को ही असुर-राक्षस कहा धर्मग्रंथों ने

विनोद कुमार

दुर्गा पूजा के नाम पर असुरों की हत्या का उत्सव बंद होना चाहिए. महिषासुर और रावण जैसे नायक असुर ही नहीं, बल्कि भारत के समस्त आदिवासी समुदायों के गौरव हैं. वेद-पुराणों और भारत के ब्राह्मण ग्रंथों में आदिवासी समुदायों को खलचरित्र के रूप में पेश किया गया है, जो सरासर गलत है......



     भारतीय उप महाद्वीप के ज्ञात इतिहास में दानव, राक्षस, असुर जैसे जीव नहीं मिलते, लेकिन भारतीय वांगमय-रामायण, महाभारत, पुराण आदि ऐसे जीवों से भरे पड़े हैं. ये दानव भीमाकार, विकृताकार, काले व मायावी शक्तियों से भरे हुए ऐसे जीव हैं, जो देवताओं और मृत्युलोक यानी इस भौतिक संसार में रहने वाले भद्र लोगों को परेशान करते रहते हैं.

     वैसे इस बारे में विद्वान और इतिहासवेत्ता बहुत कुछ लिख चुके हैं और मान कर चला जाता है कि ये गाथाएं सदियों तक चले आर्य-अनार्य युद्ध से उपजी छायायें हैं. बावजूद इसके इन कथाओं को इस रूप में देखने वाले और अन्य सामान्य लोग सहज भाव से यह स्वीकार करते आये हैं कि दस सिर वाले रावण को मारकर राम अयोध्या लौटे होंगे और उस अवसर पर दिये जलाकर राम, लक्ष्मण और सीता का स्वागत अयोध्यावासियों ने किया होगा. तभी से दीपावली मन रही है, रावण वध का आयोजन हो रहा है.

     उसी तरह पूर्वोत्तर भारत में महिषासुर का बध करने वाली दुर्गा की अराधना होती है. हाल के वर्षों में बंग समाज के लोग जिन राज्यों में गये, वहां भी अब दुर्गापूजा होने लगी है. लेकिन सामान्यतः दुर्गा पूजा बिहार, बंगाल और ओडि़सा का त्योहार है. कभी कभी यह जिज्ञासा होती है कि दुर्गा पूजा पूर्वोत्तर भारत में ही क्यों होती है. शेष भारत में क्यों नहीं. इसी तरह रावण बध भी उत्तर भारत में ही क्यों होता है. रामलीलाएं इसी क्षेत्र में क्यों आयोजित होती हैं. दक्षिण भारत में क्यों नहीं ?

दुर्गा के द्वारा असुर आदिवासियों की ह्त्या
का चित्रण दुर्गा पूजा
     बहुधा यह भी देखने में आता है कि धार्मिक ग्रंथों, पुराणों में दुष्ट तो दानवों को बताया जाता है, लेकिन धुर्तई करते देवता दिखते हैं. मसलन, समुद्र मंथन तो देवता और दानवों ने मिलकर किया, लेकिन समुद्र से निकली लक्ष्मी सहित मूल्यवान वस्तुएं देवताओं ने हड़प ली. यहां तक कि अमृत भी सारा का सारा देवताओं के हिस्से गया और राहू केतु ने देवताओं की पंक्ति में शामिल होकर अमृत पीना चाहा, तो उन दोनों को सर कटाना पडा.

     महाभारत में लाक्षागृह से बचकर निकलने और जंगलों में भटकने के बाद पांडव पुत्र भीम किसी दानवी से टकराये. उसके साथ कुछ दिनों तक सहवास किया और फिर वापस अपनी दुनिया में चले आये. बेटा घटोत्कच कैसे पला-बढा इसकी कभी सुध नहीं ली. हालांकि उस बेटे ने महाभारत युद्ध में अपनी कुर्बानी देकर अपने पिता के कर्ज को चुकता किया.

     मर्यादा पुरुषोत्तम राम और रावण के व्यक्तित्व की तो बहुत सारी समीक्षाएं हुईं. रावण सीता को हर कर तो ले गया, लेकिन उनके साथ कभी अभ्रद व्यवहार नहीं किया, जबकि राम ने अपनी ब्याहता पत्नी को लगातार अपमानित किया. लंका से लौटने के बाद उसकी अग्नि परीक्षा ली. धोबी के कहने पर गर्भवती पत्नी का परित्याग कर लक्ष्मण के हाथों जंगल भिजवा दिया. छल से बालि की हत्या की. घर के भेदी विभीषण की मदद से रावण को मारा आदि..आदि.

     एकलव्य की कथा तो इस बात की मिसाल ही बन गयी है कि एक गुरु ने अगड़ी जाति के अपने शिष्य के भविष्य के लिए एक आदिवासी युवक से उसका अंगूठा ही किस तरह गुरु दक्षिणा में मांग लिया. पौराणिक गाथाओं की ये सब बातें पिछले कुछ वर्षों से तीखी बहस का हिस्सा बनी हैं.

    दलितों का गुस्सा और आक्रोश पहले फूटा और वह ब्राह्मणवादी व्यवस्था से घृणा की हद तक चला गया है. पिछले कुछ वर्षों से आदिवासी समाज भी आंदोलित है. इतिहास की अलग अलग व्याख्यायें हो रही है, खासकर पुराने बंगाल-जिसमें ओडि़सा और बिहार शामिल हैं- की. इतिहास की जिन पुस्तकों की मदद से यह बहस चल रही है, उनमें सबसे ज्यादा चर्चित है डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर की एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’, जो 1868 में लंदन से प्रकाशित हुई.

     हंटर का मानना है कि वैदिक युग के ब्राह्मणों और मनु ने जिस हिंदू धर्म की स्थापना की, वह दरअसल मध्य देश का धर्म है. मध्य देश यानी हिमालय के नीचे और विंध्याचल के ऊपर का भौगोलिक क्षेत्र. हिंदू धर्म की स्थापना मध्य एशिया से निकल कर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई सभ्यताओं को जन्म देने वाले आर्यों ने किया, जिन्होंने हिंदुस्तान में सबसे पहले उत्तर पश्चिम क्षेत्र के दो पवित्र नदियों- सरस्वती और दृश्यवती- के बीच पड़ाव डाला.

     वहां से वे दक्षिण पूर्व दिशा की तरफ बढे, जिसे ब्रह्मऋषियों और वैदिक ऋचाओं के गायकों का प्रदेश माना जाता है. इसके बाद वे दक्षिण पूर्व की दिशा में बढे और गंगा नदी के किनारे किनारे बसते हुए बंगाल के मुहाने तक पहुंच गये. इन्ही इलाकों को मनु अपना इलाका- हिंदू धर्म का इलाका मानते हैं जो शुद्ध बोलता है, उसके बाहर तो राक्षस रहते हैं जो शुद्ध बोल नहीं सकते, अखाद्य पदार्थों का भक्षण करते हैं. जो आर्यों की तरह गौर वर्ण के नहीं, काले हैं. वे शास्त्रार्थ करने वाले लोग नहीं, बल्कि उनके हाथों में तो बांस के बड़े-बड़े धनुष और जहर बुझे तीर हैं.

     हुआ यह भी कि वे यहां अपनी जडें जमा पाते और मनु द्वारा व्याख्यायित हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार कर पाते, उसके पहले ही बौद्ध धर्म यहां उठ खड़ा हुआ, जो इस इलाके के लोगों को सहज स्वीकार्य भी हुआ. यहां के राजा भी ब्राह्मण, क्षत्रिय नहीं बल्कि यहां के मूलवासी थे या वे लोग थे, जो मनु की वर्णवादी व्यवस्था के बाहर के लोग थे. चाहे वे सम्राट अशोक हों या फिर गौड़ को अपनी राजधानी बना कर 785 से 1040 ई. तक बंगाल पर शासन करने वाले राजे. उनमें से अधिकांश बौद्ध धर्म को मानने वाले थे.

     कम से कम 900 ई. तक बौद्ध धर्म को मानने वाले राजाओं का शासन था. सन् 900 ई. में खुद को हिंदू मानने वाले बंगाल के राजा आदिश्वरा ने वैदिक यज्ञ व पूजा पाठ के लिए कन्नौज से पांच ब्राह्मणों को बुलवाया. वे पांचों ब्राहमण गंगा के पूर्वी किनारे पर बसे. स्थानीय औरतों के साथ घर बसाया, बच्चे पैदा किये. जब वे यहां अच्छी तरह बस गये, उसके बाद कन्नौज से उनकी वैध पत्नियां यहां आयीं. वे स्थानीय पत्नियों और कथित रूप से अवैध संतानों को वहीं छोड़कर आगे बढ गये.


     उनकी अवैध संतानों से राड़ी ब्राह्मण पैदा हुए, साथ ही अनके अन्य जातियां जैसे कायस्थ आदि. यह ऐतिहासिक परिघटना 900 वीं शताब्दी की है. लेकिन ये जो मिश्रित नस्ल और जातियों का आविर्भाव हुआ. वे सिर्फ मनु की वर्ण व्यवस्था के लोगों के बीच आपसी विवाह का नतीजा न होकर ब्राह्मणों और हिंदू वर्ण व्यवस्था के बाहर की जातियों के मिश्रण का भी नतीजा था.


     हिंदू वर्ण व्यवस्था का अभिजात तबका ब्राह्मण ही था. जब क्षत्रियों का प्रभुत्व बढा तो परशुराम ने पृथ्वी से क्षत्रियों को समाप्त करने का संकल्प लिया था. दूसरी बात यह कि बौद्ध धर्म के पहले या बाद में मध्य देश से जो भी अतिक्रमणकारी बंगाल आये, उन्होंने स्वयं को ब्राह्मण कहकर प्रचारित किया. यह अलग बात है कि मध्यदेश के ब्राह्मणों ने बंगाल के ब्राहमणों को कभी भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया.


तब के बंगाल में जिसमें वीरभूम और मानभूम शामिल थे- की आबादी के मूल तत्व कौन कौन थे ? हंटर ने पंडितों के हवाले इस तथ्य का ब्योरा कुछ इस प्रकार दिया है- 1. यहां के गैर आर्यन ट्राईब 2. वैदिक व सारस्वति ब्राह्मण 3. छिटपुट वैश्य परिवारों के साथ परशुराम द्वारा खदेड़े गये मध्यदेश के क्षत्रिय जो बिहार से नीचे नहीं उतर पाये 4. सन् 900 ई. में कन्नौज से लाये गये ब्राह्मण और उनके वंशज और 5. उत्तर भारत से पिछले कुछ वर्षों में आये क्षत्रिय, राजपूत, अफगान और मुसलमान आक्रमणकारी और यह बिरादरी मनु की वर्ण व्यवस्था के हिस्सा नहीं रह गये थे.


     बंगाल के ब्राह्मणों को उत्तर भारत, यानी मनु के मध्यदेश के ब्राह्मणों ने राड़ी ब्राह्मणों की संज्ञा दे रखी थी और उनसे रोटी बेटी का संबंध नहीं रखते थे. अस्तु, बंगाल की आबादी दो बड़े खेमों में विभाजित थी. आक्रमणकारी आर्य, जिन्हें ब्राह्मणों जैसा दर्जा प्राप्त था और दूसरा यहां के आदिवासी जिसे आक्रमणकारियों ने यहां पाया था और जिसे वे जंगलों में खदेड़ते जा रहे थे. आर्यों को अपनी विशिष्टता का इतना अहंकार था कि वे आदिवासियों को वा-नर, मनुष्य से नीचे का जीव जंतु का दर्जा देने लगे.


     आदिवासियों से उनकी नफरत की अनेक वजहें थीं. एक तो उनका वर्ण काला था, दूसरे वे ऐसी भाषा बोलते थे, जिसका उनके अनुसार कोई व्याकरण नहीं था. तीसरे उनके खान पान का तरीका और चौथा वे किसी तरह के रीचुअल में विश्वास नहीं करते थे. वे इंद्र की पूजा नहीं करते थे और उनके पास कोई ईश्वर नहीं था. वे आत्मा के अमरत्व में विश्वास नहीं करते थे. आदि..आदि.


     आदिवासियों से उनकी नफरत इस कदर बढती गई कि वे उन्हें मनुष्येतर प्राणी के रूप में चित्रित करने लगे. वैदिक ऋचाओं में उन्हें दसायन, दस्यु, दास, असुर, राक्षस जैसी संज्ञाओं से संबोधित किया जाने लगा. उनके व्यक्तित्व को विरूपित कर दिखाया जाने लगा. पौराणिक कथाओं के ये दानव, राक्षस इसी टकराव की उपज हैं.


     ताजा संदर्भ यह कि आदिवासी समाज को दुर्गापूजा के नाम पर महिषासुर के समारोहपूर्वक बध से आपत्ति है. असुर समाज की सुषमा असुर ने झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा कार्यालय, रांची में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपील की है कि दुर्गा पूजा के नाम पर असुरों की हत्या का उत्सव बंद होना चाहिए. महिषासुर और रावण जैसे नायक असुर ही नहीं, बल्कि भारत के समस्त आदिवासी समुदायों के गौरव हैं.


     वेद-पुराणों और भारत के ब्राह्मण ग्रंथों में आदिवासी समुदायों को खल चरित्र के रूप में पेश किया गया है, जो सरासर गलत है. हमारे आदिवासी समाज में लिखने का चलन नहीं था इसलिए ऐसे झूठे, नस्लीय और घृणा फैलाने वाले किताबों के खिलाफ चुप्पी की जो बात फैलायी गयी है, वह भी मनगढंत है.


     आदिवासी समाज ने हमेशा हर तरह के भेदभाव और शोषण का प्रतिकार किया है. असुर, मुण्डा और संताल आदिवासी समाज में ऐसी कई परंपराएं और वाचिक कथाएं हैं जिनमें हमारा विरोध परंपरागत रूप से दर्ज है. चूंकि गैर-आदिवासी समाज हमारी आदिवासी भाषाएं नहीं जानता है, इसलिए उसे लगता है कि हम हिंदू मिथकों और उनकी नस्लीय भेदभाव वाली कहानियों के खिलाफ नहीं हैं.


     उनका यह भी कहना है कि असुरों की हत्या का धार्मिक पर्व मनाना देश और इस सभ्य समाज के लिए शर्म की बात होनी चाहिए. असुर समाज अब इस मुद्दे पर चुप नहीं रहेगा. इस समाज ने जेएनयू दिल्ली, पटना और पश्चिम बंगाल में आयोजित हो रहे महिषासुर शहादत दिवस आयोजनों के साथ अपनी एकजुटता जाहिर की और असुर सम्मान के लिए संघर्ष को जारी रखने का आह्वान किया.


     बहुधा हम भारतीय समाज की सामूहिक चेतनाकी बात करते हैं. क्या वास्तव में हमारे समाज की कोई सामूहिक चेतना है ? या इन नस्ली भेदभाव के रहते बन सकती है ? क्या हमने कभी विचार किया है कि बाजार से जुड़ कर आजकल जो दुर्गा पंडाल बनते हैं, भव्य प्रतिमाएं बनती हैं, सप्ताह दस दिन तक चलने वाले मेले ठेले में ठगा-ठगा सा खड़ा एक आदिवासी विस्फारित आंखों से इन आयोजनों को देखकर क्या महसूस करता है ?


     या हम इंतजार कर रहे हैं कि वह अपने ही पूर्वजों की हत्या के इस उत्सव का धीरे-धीरे आनंद लेने लगेगा ? ऐसा लगता तो नहीं. क्योंकि आदिवासी और गैर आदिवासी समाज के बीच विकास के मॉडल को लेकर एक तीखा युद्ध अभी भी जारी है.



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शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

युवाओं में आदिवासी संस्कृति, परम्पराओं, वैश्विक परिदृश्य एव आदिवासी साहित्य के प्रति अपना द्रष्टिकोण

दिनांक २०-२१ अक्टूबर २०१३ को इंदौर में आयोजित
"विश्व स्तरीय आदिवासी युवा शक्ति फेसबुक महापंचायत २०१३ 
आदिवासी संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, भाषा शैली, कला-कौशल को समझने के लिए उसके ऐतिहासिक पहलुओं पर जाना होगा तथा साहित्यों में इनके दर्शन को ढूँढने होंगे. किन्तु आदिवासियों के साहित्यों में इनके वास्तविक गूढ़ दर्शन दुर्लब हैं. कुछ साहित्यकारों ने आदिवासियों के प्राचीन इतिहास को “गोंडवाना” का इतिहास कहा है. गोंडवाना, आदिवासियों के निवास स्थान का प्राचीन भौगोलिक क्षेत्र, भू-भाग का बोध कराता है. इस भू-भाग में रहने वाले लोगों एवं उनके जीवन दर्शन (कोयापुनेम) को हमें व्यापक रूप में समझने की आवश्यकता है.

देश का आदिवासी समाज एवं समुदाय "गोंडवाना भू-भाग", "गोंड" एवं उनके "कोयापुनेम" के व्यापक सांस्कृतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, भाषिक दर्शन को केवल "गोंड" समुदाय की ओर इंगित करते हुए महसूस करना, कि यह तो केवल गोंड जाति के रीति रिवाज, अंग, स्थान को प्रदर्शित करता है, जो लोग यह समझते हैं कि हम तो उराँव, भील, हो, संथाल, मुंडा, बैगा, असुर, कोया, कोलाम, कोडकू, मीणा, परधान, हल्बा-हल्बी, ............ हैं, हमें गोंडवाना भू-भाग, गोंड और उनके कोयापुनेम से कोई वास्ता नहीं हैं, तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल होगी. जिस दिन देश का आदिवासी समाज एवं समुदाय "गोंडवाना भू-भाग", "गोंड" एवं "कोयामुनेम" का वृहद एवं वास्तविक स्वरुप एवं दर्शन को समझ जाएगा, उस दिन देश के आदिवासी समाज एवं समुदायों के अन्दर जाति, रीति, नीति, संस्कृति एवं दर्शन के प्रथक्कीकरण का बोध समाप्त हो जाएगा.

देश में अनेक आदिवासी/गैर आदिवासी लेखक/लेखिका/साहित्यकार/ इतिहासकार आदिवासी समाज, संस्कृति, भाषा शैली, रहन सहन, उत्पत्ति एवं विकास पर शोधपूर्ण साहित्य सृजन का कार्य कर रहे हैं, किन्तु देखने में आता है कि गिने-चुने साहित्यकार ही गोंडवाना भू-भाग, गोंडवाना के निवासियों और उनके एतिहासिक पुनेम अर्थात दर्शन को प्रस्तुत करने में सार्थक प्रयास कर रहे हैं. अधिकतर साहित्यकारों में इसका अभाव दिखाई दे रहा है. वर्तमान लेखकों का दर्शन केवल आदिवासियों के छोटे-छोटे समुदायों के दर्शन तक ही सीमित हो रहे हैं. गोंडवाना भू-भाग के आदिवासियों के आदिम प्रकृतिसम्मत एवं विशुद्ध वैज्ञानिक स्वरुप में विकसित सर्वव्यापक पुनेम अर्थात दर्शन को संसार के मानव समाज द्वारा आदिवासियों से ही ग्रहण किये गए. इसे क्षेत्र विशेष, समुदाय विशेष एवं सीमित क्षेत्र के लिए परिष्कृत कर प्रस्तुत किया जा रहा है, जो उचित नहीं है. यदि आदिवासियों के पुनेम को परिष्कृत करना है तो कोई भी आदिवासी लेखक सम्पूर्ण गोंडवाना भू-भाग, गोंड और पुनेम को परिष्कृत करे, तभी देश के समस्त आदिवासियों के वर्तमान अस्तित्व और उत्थान के लिए हमारा साहित्य सार्थक साबित हो सकता है. यदि कोई समुदाय यह कहता है कि वह उराँव है, उसकी भाषा कुडुख है, कोई कहता है कि वह हल्बा है, उसकी भाषा हलबी है, कोई कहता है कि वह संथाल है उसकी भाषा संथाली है, कोई कहता है कि वह गोंड है और उसकी भाषा गोंडी है, कोई कहता है कि वह भील है उसकी भाषा भिलारी है ............ आदि. इससे पहले यह समझ लेना उचित होगा कि यह सब समुदाय आदिवासी समाज के अंग हैं. आदिवासी समाज से पृथक होकर कोई भी "समुदाय" आदिवासी समाज की परिभाषा को पूर्ण नहीं करता है, बल्कि ऎसी स्थिति में साहित्य, सामाज की परिभाषा को तोड़ कर बिखेर देता है. देश के वर्ग विशेष द्वारा बनाई गई वर्ण और जाति व्यवस्था इसके सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है. दूसरों ने जो रास्ता हमें तोड़ने के लिए बनाई उसे बुद्धिजीवी वर्ग सहर्ष स्वीकार कर उसी रास्ते पर बढ़ रहे हैं. इस स्थिति के कारण क्षेत्रीय साहित्यकार और उनके साहित्य समाज को मार्गदर्शन करने के उत्साह में सम्पूर्ण आदिवासी समाज को टुकड़ों में तोड़ने के लिए उत्तरदाई प्रतीत हो रहें हैं.

समाज के एतिहासिक पृष्ठभूमि में उसके मूलतः चार स्तम्भ बताये गए हैं, जिसपर पूरा समाज टिका होता है. हमारा समाज अनेक छोटे-बड़े समुदायों से मिलकर बना है, जिन्हें "आदिवासी" कहा जाता है. आदिवासी शब्द आदिकाल से रहने वाले समुदायों के केवल समूह/समाज को प्रतिबिंबित करता है, उसके रहने के परिक्षेत्र तथा भू-भाग को नहीं. यदि आज आदिवासी समाज सम्पूर्ण विश्व में फैला हुआ है तो आदिकाल में उसका रहने का कोई निश्चित परिक्षेत्र/स्थान/भू-भाग भी रहा.  समाज के रहने का परिक्षेत्र/स्थान/भूभाग का होना समाज का प्रथम स्तम्भ है. वह प्रथम स्तम्भ आज के आदिवासियों (गोंडवाना के निवासियों) का भू-भाग "गोंडवाना भू-भाग" है जिसके अंतर्गत भारत तथा समीपवर्ती देश आस्ट्रेलिया, दक्षिण अमरीका, एंटार्कटिका, दक्षिण अफ्रीका और मैडागास्कर आते हैं. इस आदिम निवासियों/आदिवासियों के विस्तृत निवास क्षेत्र/भूभाग को इतिहास भी चिन्हांकित करता है. इस भू-भाग में रहने वालों की अपनी मूल भाषा "गोंडी" है, जिसे भाषाविद और इतिहासकरों ने विश्व के विविध भाषाओं की जननी माना है तथा इस भू-भाग में रहने वालों की पहचान है. एतिहासिक बोली-भाषा इस आदिवासी समाज का दूसरा स्तम्भ है. आदिवासी समाज की संस्कृति, रीति-रिवाज आज भी दुनिया के मानव समाजों से भिन्न है. यदि समाज का अपना परिक्षेत्र/भू-भाग है, उसकी अपनी बोली-भाषा है तो निश्चित ही समाज की अपनी संस्कृति विशुद्ध प्राकृतिक, समृद्धिपूर्ण संस्कृति भी है, जिसे आज के आधुनिक परिवेश में भी आदिवासी संजोकर रखा है. उनकी यह "संस्कृति" समाज का तीसरा स्तम्भ है तथा समाज का चौथा स्तम्भ उसका अपना "साहित्य" होता है. विद्वानों ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है, जिसके द्वारा समाज की वास्तविक भूमिका के चेहरे को प्रदर्शित किया जाता है. यह चार स्तम्भ समाज को सदियों-सदियों तक एकरूपता में बांधे रखता है, जिसके बल पर समाज विकास करता है और आगे बढ़ता है.

अब सवाल यह उठा है कि आदिवासी समाज का सबसे वृहद, संपन भू-भाग रहा, सदियों से उसकी अपनी बोली भाषा और लिपि भी रही, जिसके माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान, व्यापार विनिमय करते रहे, अपनी प्राकृतिक एवं समृद्धिपूर्ण संस्कृति रही, फिर भी हमें अपनी समृद्धि को बचाए रखने और विकास की ओर आगे बढ़ने के लिए किसने रोका ? समाज अब तक आगे क्यों नहीं बढ़ा ? इसपर चिंतन कर इसके गूढ़ को रहस्य को सुलझाने का दायित्व, आज देश के आदिम समाज के लिए चिन्तनशील साहित्यकार, पढ़े-लिखे और युवा पीढ़ी पर है.

यदि हम अपने समाज के इन चारों स्तंभों पर चिंतन, मनन और अध्ययन करें और आधुनिक परिवेश को देखते हुए हमें प्रक्रियागत आगे बढ़ने से रुकावट पैदा करने वाला और कौनसा महत्वपूर्ण तथ्य है ? तब हमें समझमे आता है कि वह है हमारा साहित्य. आदिवासियों के मूल साहित्य का अभाव, उसकी विकास की भूमिका को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाया.

गोंडवाना भू-भाग में आये सभी मानव समाज ने आदिम समाज की मूल संस्कृति को अपनाकर अपने जीवनशैली एवं विचारधारा के अनुरूप परिवर्तित किया, साहित्य निर्माण किया और अपने साहित्य के माध्यम से समाज को धार्मिक मार्गदर्शन प्रदान कर एक रूप में पिरोकर रखा. समाज के विकास के लिए नीतियां बनाई, वर्ण और जाति व्यवस्था बनाकर मानवों में भेद पैदा कर अपना वर्चस्व बनता गया, चाहे वे नीतियाँ सामाजिक विषंगत कूट नीति तथा आज की स्थिति में घोर आपत्तिजनक ही क्यों न हो. उन्ही नीतियों, धार्मिक साहित्यों, कोरी कल्पित किस्से कहानियों को आधुनिक समाज के पांचवे स्तम्भ के रूप में माने जाने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के लोकलुभावन प्रस्तुतिकरण के बदौलत आगे बढ़ते गए और उनकी कारवां बनती गई. उनकी इन काल्पनिक धार्मिक और मनभावन किस्से कहानियों को पाठ्यक्रमों में शामिल कर युवा पीढ़ी की मानसिकता प्रभावित करने के लिए अपने नीतिगत धार्मिक शिक्षा के नाम पर लादे गए. इन सबको पढ़कर और सुनकर आदिवासी समाज की भावी पीढ़ी भी अपना रुख दूसरों की साहित्य और दर्शन की ओर मोड़ लिया. यह आदिवासी समाज के लिए सबसे बड़ा घातक सिद्ध हुआ.

आदिवासी समाज आज भी जोर देकर कहता है कि वह सदियों से प्रकृति और अपने पुरखों के पूजक रहा है और है. वह प्रकृति पूजा को अपना धर्म मानता रहा है और है. वह सदियों से अपनी प्रकृति सम्मत सर्वोच्च मानव संस्कृति और सभ्यता का वाहक रहा है और है. वह अपनी बोली भाषा पर सदियों से अटल रहा है आज भी है, किन्तु समाज का धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्व साहित्य और साहित्यों में एकरूपता तथा प्रचार-प्रसार के अभाव में धीरे-धीरे सबकुछ विलुप्त होता जा रहा है. साहित्य की कमी ने हमारे सारे समृद्धि और विकास के रास्तों को अवरुद्ध कर दिया और दूसरों की साहित्यिक तथा धार्मिक अंधानुकरण ने गुलाम.

आज का परिवेश प्रतियोगिता का है. तथ्यपरख, खोजपूर्ण साहित्य लिखने और देखने पर विश्वास करने का है. तर्कसंगत, एकतापूर्ण विवेचनाओं का है, किन्तु लिखेगा कौन ? इस गोंडवाना की धरा पर आदिम समाज की सामाजिक उन्नति, धार्मिक, सांस्कृतिक सभ्यता, आर्थिक, व्यापारिक समृद्धी के जीवंत एवं निर्जीव तथ्य, पुरातात्विक अवशेष- गढ़, किले, महल, ताल-तलैया आज भी समाज को जगाने के लिए सदियों से आंसू बहा रहे हैं. किन्तु समाज के गिने चुने पुरातत्व विद, इतिहासकार, साहित्यकारों ने उनकी चीख पुकार सुन पाए हैं और अपना सम्पूर्ण गोंडवाना का साहित्य सृजन करने और जन जन को पहुंचाने का बीड़ा उठाया है. मै उन्हें सादर नमन करता हूँ. आज समाज के युवा पीढ़ी से समाज अपेक्षाएं रखता है कि वह आधुनिक समाज में पांचवे स्तम्भ के रूप में विकसित इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया को गोंडवाना भू-भाग के निवासियों, वृहद "गोंडवाना भू-भाग", "गोंड" एवं "कोयामुनेम" के ऐतिहासिक, समृद्धिपूर्ण, प्रकृतिक सम्मत धार्मिक दर्शन,  रीति, नीति एवं परिष्कृत संस्कृति के प्रदर्शन का सशक्त माध्यम बनाया जाए.

सम्पूर्ण आदिवासी समाज तथा साहित्यकारों से करबद्ध निवेदन करते हुए मेरा मत है कि देश के सभी क्षेत्रीय साहित्यों में उल्लिखित धार्मिक, सांस्कृतिक, आदिम सभ्यता, रीति-नीति तथा वीरगाथाओं का संकलन कर एकीकरण व समाहीकरण करते हुए, गोंडवाना भू-भाग के एक समग्र साहित्य के रूप में पिरोया जाए, ताकि गोंडवाना भू-भाग में रहने वाले समस्त आदिवासी अपने आदिम पूर्वजों के समृद्ध भू-भाग, बोली-भाषा, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, व्यापार विनिमय तथा ऐतिहासिक विरासत की वीर गाथाओं को पढ़कर, सुनकर, देखकर, जानकर तथा अपने जीवन में उतार कर, आगे आने वाली पीढ़ी हर परिस्थितियों में गर्व से एक साथ खड़े होकर गोंडवाना का गोंड कहने का सामर्थ्य हासिल कर सके.

आदिवासियों का अपना भू-भाग, आदिम संस्कृति एवं सभ्यता, उनकी बोली-भाषा और लिपि, उनका अपना साहित्य तथा वर्तमान परिवेश में इन्हें वास्तविक रूप में सम्मानजनक एवं रुचिकर माध्यमों (इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया) से मानव समाज में प्रस्तुतीकरण के अभाव अभी भी समाज में बना हुआ है. किन्तु अब समाज के जागृत समाज सेवियों, लेखकों, साहित्यकारों, मीडिया कारों द्वारा विविध पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से आदिम समाज के विभिन्न सामुदायिक परिदृश्यों तथा उनके सामाजिक विकास हेतु विभिन्न संवैधानिक नीतियों, निर्देशनों का सक्षम रूप में प्रस्तुतिकरण का कार्य किया जा रहा है. इनमे सर्वप्रथम वर्तमान में छत्तीसगढ़ से प्रकाशित मासिक पत्रिका “गोंडवाना दर्शन” (१९८३ से निरंतर प्रकाशित), राजस्थान से प्रकाशित मासिक पत्रिका “अरावली उद्घोष” (१९८४ से निरंतर प्रकाशित), छत्तीसगढ़ से प्रकाशित मासिक पत्रिका “आदिवासी सत्ता” (२००४ से निरंतर प्रकाशित) तथा पिछले १२ वर्षों से निरंतर प्रकाशित आदिवासियों से संबंधित एक मात्र राष्ट्रीय साप्ताहिक अखबार “दलित आदिवासी दुनिया” प्रमुख हैं. इन पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित आदिवासियों के ह्रदय विदारक वाणी को भी समझने की जरूरत है. समाज के सभी पढ़े-लिखे व्यक्तियों, युवाओं को जागृत होकर अध्ययन करने की ही नहीं बल्कि उन तथ्यों पर वास्तविक चिंतन कर, संगठित होकर आगामी कार्यरूप की ओर अग्रसर होने की आवश्यकता है.
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