तीज-तिहार, तीज-तेवहार, तीज-त्यौहार की मूल भूतोत्स्व-अनुभूति
हमारी गौरव-गाथा भी रही है. मोल्हा-सेवा जंगो-क्रांति, कंकाली
समर्पण की स्मरणोत्सव-तीज हमारी आदिशक्ति भी रही है. शंभू उदगार, लिंगो वाणी, शक्ति-शांति की आनन्दोत्सव-तिहार हमारी
लौकिक-परंपरा भी रही है. धनित्तर-तत्वज्ञ, हिरासुका-संगीतज्ञ, मातादाई-मर्मज्ञ की
ज्ञानोत्सव-रसज्ञ, ज्ञान प्रखरता, जन हितैसी भी रही है.
जन-गण-मन वाणी देशज-उर्जा की सृजनोत्सव-तेवहार हमारी ज्योतिर्मय दिव्यज्ञान भी रही
है. सौर मण्डल, ज्योतिष्क-पिण्ड,
शाश्वत-चक्र की गमनोत्सव योगीतिथि हमारी प्रमुख त्यौहार भी रही है. देवी-देवता,
सगा-देवों, सगा-सोयरा की गुणोत्सव पूजन हमारी
सेवा नमन-सेवा समर्पण भी रही है. जय सेवा, जय जोहार भी रही
है. पुष्प भेट, नैवेद भेंट, परंपरा भी
रही है. घर घराता, धड़-धड़ाता, लहलहाता-महमहाता ज्योतिपुंज आत्मसात- अस्तित्व की
प्रकाशोत्सव तत्वज्ञान हमारी जीवन-मूल्य भी रही है. अमावश-पूनम, ज्वार-भाटा,
रंग-रीदम की तरंगोत्सव-नृत्य हमारी आत्म-छवि भी रही है. मिथक-गाथाओं,
जन-श्रुतियों, चमत्कृत चिंतनमनन की
विचारोत्सव-मूल कथा हमारी ठोस-प्रमाण भी रही है. लोक-कला, लोक-संस्कृति,
लोक-साहित्य, की लोकोत्सव-मानवीय घटना
पुरातत्व भी रही है. कोया धर्म कोय-वंशीय, कोया-समाज की
कोयोत्सव-पुनेम कोया-आध्यात्म दर्शन भी रही है. प्रकृति-शक्ति, आदिशक्ति-आदिदेव स्वस्तिक-प्रतीक की शाश्वतोत्सव ज्ञानविज्ञान
फड़ापेन-मूलाधार भी रही है. सद्गुरु-वाणी मोल्हा-शंभू, जंगो
लिंगो की आगोत्सव-नगद धर्म व्यवहारिक-सामाजिक, दार्शनिक-धार्मिक
भी रही है. महाशक्ति-महाकाल, महाज्ञान-महाधर्म
महासेवा-मानवता की पुनीतोत्सव उत्कान्ति जननी-जनक लाश्य तांडव भी रही है. गोटूल संस्कार,
संस्कारित-तत्वज्ञान, लिंगो-वाणी की
संचारोत्सव, तीज-तिहार के रूप में प्रवाहमान भी रही है. कोयतूरियन-समाज
में वर्तमान कालखंड पर मूलनिवासी-जनों की विध्मानोत्सव-स्पष्ट दृष्टि गोचर-तत्व
प्रमाणित भी होता है. सुख-दुःख आनन्द-करुणा, जन्म-मृत्यु की
मनोत्सव-क्रांति चेतना उत्पत्ति प्राणी मन भी रही है. चमत्कृत घटनाएँ, एतिहासिक घटनाएँ, वंश-परम्पराएँ, मिथक-गाथाएं, गढ़ावीर गाथाएं, जन
श्रुतियों की गहरी अटूट-आस्थाएं, श्रृद्धा-मन से समाहित होती
गई. नई पीढ़ी में क्रमबद्ध संक्रमित होती गई, कोया समाज की
धर्म-दर्शन देश-महादेश में योजना-बद्ध विस्तारिक होती गई, आज
कोया-वंशियों की धार्मिक-मान्यताओं में आदिदेव-शंभूशेक का महत्वपूर्ण प्रमुख स्थान
भी है. मूलनिवासियों की उत्पत्ति-गाथा में महादेवी-महादेव के रूप में मोल्हा-शंभू
का वर्णन विशेष मिलता भी है. पूरे वर्ष में, बारह महीने,
चौबीस पक्षों में अमावश-पूनम होते भी हैं. अमावश बारह-बारह पूनम पर ही
प्रथापित त्यौहार आन्दोत्सव-पर्व भी रही है. मोटे तौर पर सभी तीज त्यौहार
अमावश-पूनम को ही मनाते भी हैं. चौबीस-वंश पुरूष सगादेवों को बारह सगा साखा में
लिंगो संरचना में समायोजन भी रही है. वंश पुरुष-चौबीस प्रकृति-शक्तियों नव (समाहित
पंचतत्व और चार जिवोत्पति पद्धति) की योग संख्यान केवल तैंतीस ही बनती भी है. तैंतीस कंकाली पुंगार सगा दवों
की सामाजिक संरचना लिंगो चिंतन मनन भी रही है. शुक्र-डिम्ब धातु शक्ति पुंज से
गोत्रज-वंसज में समाहित आदिदेव-आदि शक्ति की जीव-भ्रूण-तत्व लिंगो सुयमोद तत्व भी
रही है. तैंतीस सगा देवों की परिपक्व कोयतुरियन-मन लिंगो की सत्योत्सव-साक्षात्कार
भी रही है. ज्योतिर्मय ज्ञान भी रही है. अनुपम देव भी रही है.
हास-उल्लास, दुःख-व्यथा, ज्ञान-चेतना की मनोभंग-मनोदास
संप्रेषण-अनुभूति के विश्वास मान्यता पर ही, मूलाधार,
चिंतन-मनन, मनोद्गार-मनोत्सव, प्रस्थापित-विस्तारित
वाणी, सुनियोजित सिद्ध धारा शाश्वत प्रकृति अध्यात्म कोया-पुनेम
कुपार-दर्शन लिंगो वाणी भी रही है गोंडवाना भू-भाग में बही मुखरित धारा गतिमान
ज्ञानोत्सव-आन्दोत्सव, तिहारोत्सव-तीजोत्सव त्योहरोत्सव-महोत्सव
लोकोत्सव-संगीतोत्सव की सनातनी-रंगोत्सव परम्परा विधिवत आयोजन-तिथिगत पूजा-विधान
भी विशिष्ट रही है. पारंगत विधि-विधान के साथ आज भी हम. अपनी श्रद्धेय अटल विश्वास
को स्मरणोत्सव-प्रेमोत्सव जोहारोत्सव के रूप में, मनाते रहते
और पूजते भी हैं, ताकि हमारी ज्ञान ज्योति, शक्ति, शांति सुदृढ़ बनी भी रहे, पर हम अपने तन मन वाणी में,
क्या शक्ति पाते हैं या खोते हैं ? विचारणीय तथ्य भी है. इसलिए हम मूलाधार चिंतन पर ही, कथ्य-तथ्य के
साथ तर्क सम्मत विचार विमर्श करेंगें. हमारी गोंडियन मईथोलोजी के मान्यतानुसार
चलित-साल में काल-गणना नुसार अंतिम-दिन अंतिम-तिहार के रूप में साल-समाप्ति का
प्रतीकोत्सव-अमावश-पूजा, माड़-अमावश-पूजा, माड़ अम्मास पूजा भी हम मनाते और करते हैं. जिसे हम पांडामान-फागुन माह
में अमावश के ही दिन आयोजित भी करते हैं. उजियारी पक्ष फागुन माह का पहला ही दिन प्रतीकात्मक रूप में, नये साल की काल
गणना गिनती भी शुभारम्भ हम करते हैं. नये-शाल का शुभोत्सव-मंगलोत्सव
कल्याणोंत्सव-महोत्सव, चेतनोत्सव-"शिवम गवरा" योगोत्सव
गोंडी शब्द शिव+वोम+गवरा शब्दार्थ शम्भू+सूर+शक्ति का दिव्योत्सव-प्रतीकोत्सव
अमृतमयी ज्ञान-प्रकाश पूर्णिमा सादृश्य भी रही है. इसे हम सर्वसार-शिमगा तत्व
ज्ञानानुसार आगऊर्जा+सूर्यऊर्जा+अग्निऊर्जा+गुणोंत्सव+रंगोत्सव+सुरोत्सव+प्रकृति
उर्जा की प्रतीकात्मक आदि शक्ति+आदिदेव+धर्मोत्सव, चन्द्राकर्षण+ज्वार
भाटा +तरंगोत्सव पुनवोत्सव की शुभामगन-शाश्वत-स्वास्तिक महोत्सव-होली-त्यौहार,
तत्वोत्सव-योगोत्सव स्मरणोत्सव के रूप में पूर्णिमा के ही दिन मनाते
भी हैं. उन्दिमान-चैत माह में अंधियारी-पक्ष के तीसरा-दिन, तीज
पर ही खड़ेरा पूजा, गढ़ा पूजा, आरवा-पूजा,
गर्रोत्सव, गढ़-तिहार, वंशोत्सव
के रूप में पूजते और मनाते भी हैं. चैत अमावाश के ही दिन नलेज-पूजा, चन्द्र-पूजा, माड़अमावश-पूजा भी हम करते हैं. चैत
उजियारी-पक्ष के नव दिन तक नवरातोत्सव के रूप में नव शक्तियों की पूजा-अर्चना
सेवार्थ-नेवल-ज्योति प्रस्थापित कर, माता सेवा की सूर ही
धारा के साथ-साथ ही आदिशक्ति के रूप में, विधिवत-मूलमंत्र पूजते मनाते और करते भी हैं. चैत उजियारी-पक्ष
में पंचमी के ही दिन प्रतिकोत्सव-बैगोत्सव-सेवोत्सव माता माय-पूजा, माता दाई-पूजा,
शितलामाई-पूजा औषधोत्सव बैगा-वैधक शक्ति के प्रतीकात्मक पूजा-अर्चना,
देवालय-मूल्य स्थान पर ही करते हैं. चैत पूर्णिमा के ही दिन जोहारोत्सव
संतोत्सव कुंआरा भीमाल पूजा, महावीर-भिवसन-पूजा, जन्मोत्सव-सिद्धपुरुष
मृत्योत्सव-पेनोत्सव के रूप में पूजते मनाते और करते हैं.
चिंदोमान-वैशाख माह के अंधियारी पक्ष अमावास में ही दिन कथ्योत्सव-तथ्योत्सव
तर्कोत्सव पर्वोत्सव, प्रतिकोत्सव-मुलोत्सव पुरवा नलेज पूजा, सूर्य
चन्द्र-पूजा, गुसाई-पुसाई पूजा, सल्लां-गांगारा
पूजा, आदिदेव-आदि शक्ति पूजा, निमित्त
विभिन्न प्रकृति-शक्तियों की मौलिक पूजा,-उपासना में,
जनक जननी की प्रतीकात्मक-सत्वोत्सव-जिवोत्सव, पिता-माता
के रूप में, पूजते और मनाते भी हैं. बैशाख उजियारी पक्ष में
पंचमी के ही दिन पुंगारोत्सव, नैवेधोत्सव, कर्मोत्सव-धर्मोत्सव के रूप में, इरुक-पूनो-तिदाना,
गाड़ा-पूनो-तिदाना, गुल्ली नया खाना, महुआ नया
खाना, सगा देवी देवता नैवेध, निमित्त
महुआ महोत्सव को गुणोंत्सव, सुगन्धोत्सव के
रूप में मनाते और करते हैं. सम्पूर्ण गोंडवाना-भूखण्ड में अधिक फलित मिलता भी है.
जो थलीय वृक्षीय फूल भी हैं. यह दिखने में तो छोटा परन्तु शक्ति का अक्षय कोष है.
इसमें अधिकांश पौष्टिकतत्व प्रचूर मात्रा में होते हैं. पर्वतों में लगभग तीन हजार फिट
की ऊचाई तक महुआ का पेड़ पाया जाता भी है. शंभू काल से ही कोया जनों में, महुआ
फूल-पत्ती-फलबीज-छाल के अचंभित-सारतत्व-ज्ञान में, प्रकृति
रहस्य महाऔषधिक गुण, धार्मिक महत्व में भी
परिपूर्ण विज्ञान सम्मत रहा है. इसलिए सगा देवी देवता के पूजा अर्चना में, महुआ फूल का श्रद्धा सुमन, विशेष समर्पण विशेष सार्थक
औषधात्मक कल्याणकारी तत्व भी रहा है. महुआ-फूलों से मीठी-मीठी भीनी-भीनी सी गंध
आती भी है. महुआ फूल पिली झाई लिए हुए स्वेत रंग के रसदार ठोस और बीज में खोखलापन लिए
होते भी हैं. महुआ फूल ही एक मात्र अचंभित गुणधारी प्रकृति प्रदत्त रस रसायन
भी रहा है. जो कभी मुरझाता नहीं. लाल रंग लिए सूखने पर भी उसे पानी में भिंगोया
गया तो, वह अपनी स्वाभाविक अवस्था में भी नजर आती रहेगी.
महुआ पेड़ के विभिन्न अंग भी जन हितैषी शक्ति से भरपूर सिद्धहस्त चहुँमुखी प्रयोगी
भी रहा है. बैगा-वैधक चिंतन-मनन पर भी महुआ-का महत्व अधिक गुणकारी सिद्ध तत्व रहा
है. सर्व-सार-सिद्धरस, सिद्ध भूमि, सिद्ध मंत्र, सिद्ध हस्त प्रकृति ने हमे जैसे दिए हैं, वैसे ही सिद्ध प्रकृतिगत शुद्ध
सेवन हितैषी भी है, पर क्रत्रिम-सेवन हानिकारक भी है. तर्क सम्मत चिंतन-मनन हितैषी
भी है, पर कृत्रिम जंजाल मिथ्या-कथन अपमान जनक भी है. वेन-पेन जीवन मूल्य हितैषी
भी है, पर कपोल-कल्पित जीवन-धारा कष्टप्रद भी है. पुष्प-पूजा, संगीत-पूजा हितैषी भी है, पर कुपृथा प्रपंची कुप्रभाव-ध्वंसक भी है. कोया-पुनेम,
लिंगो-वाणी, ही तन-सेवा भी है. कोया-पुनेम
लिंगो वाणी ही मन सेवा भी है. कोया पुनेम लिंगो वाणी ही जन सेवी भी रहा है.
पुनेमोत्सव-प्रतिकोत्सव, तिहारोत्सव पेनोत्सव पर्मोत्सव की
सेवा-नमन ही हमारी समर्पित-सुमन भी रहा है. इरुक-पुंगार, महुआ
फूल, कोया-सुमन, मधुमय-भी नीरस अमृतमयी
सुगंध भी रहा है. शक्तिवर्धक पौष्टिकतत्व जीवन-दाता, कल्याणकारी-प्रकृति,
आदिशक्ति-आदिदेव भी रहा है. इसलिए कोया जगत में अमृता के नाम से भी
"महुआ-फूल" प्रसिद्ध रहा है. बैशाख उजियारी-पक्ष में ही
पूर्णिमा के दिन फड़ापेन-पूजा, प्रकृति-शक्ति-पूजा महाशक्ति पूजा, सर्वोच्चशक्तिपूजा,
सर्वोच्चतम सत्ता-पूजा, कलात्मक प्रतीक-पूजा, पिंडात्मक प्रतीक-पूजा, त्रिशूलात्मक-प्रतीक पूजा,
ज्योतिर्मय ज्योति-पूजा, पारंगत विधि-विधान के साथ हम
गुणोंत्सव-धर्मोत्सव, मुलोत्सव-सुत्रोत्सव, बिजोत्सव-सत्वोत्सव दृष्टि सृजनकर्ता के रूप में पूजते मनाते और करते भी हैं.
उसी-सर्वोच्च सत्ता-शक्ति का प्रतीकात्मक-शुभ नाम को ही हम फड़ापेन, संजोरपेन, परसापेन, बुढालपेन, आदिदेव-महादेव, बुढादेव, बड़ादेव,
सरनादेव, भिलोट देव, सिंग-बोगा
देव मारागं बरुदेव से भी संबोधित करते है. थोड़ा सा और स्पष्ट समझ लें.
फड़ापेन मूलमंत्र है; गोंडवाना का. फड़ापेन पुनेम मंत्र है; गोंडवाना का. फड़ापेन
मुंजोक मंत्र है; गोंडवाना का. फड़ापेन यौगिक मंत्र है; गोंडवाना का.
फड़ापेन मुठ्वा मंत्र है; गोंडवाना का. फड़ापेन उद्गार है;
शंभू मोल्हा का. फड़ापेन क्रांति है; जंगो-कंकाली
का. फड़ापेन उद्घोषणा है; लिंगो वाणी का. फड़ापेन ज्ञान
विज्ञान है; सगा देव का. फड़ापेन ज्योतिर्मय ज्ञान है;
सगा-सोयरा का. फड़ापेन शिवपिंडी है; कोया जन
का. फड़ापेन ऊर्जा प्रजनन है; जीव धारी का. फड़ापेन धन ऋण है; अस्तित्व शक्ति का.
कोदोमान-जेठ माह अंधियारी, पक्ष में अमावश के ही दिन तिहारोत्सव के रूप में, हर्योम्मास पूजा, हरियोम्मास-पूजा, सब्जी-भाजी पूजा, हेरली-अमावश पूजा, निमित्त परम्परानुसार ऋतूवात सृजनित नयी सब्जी, कन्दमूल-फलादि
का नैवेध, सगादेवी-देवता की पूजा-अर्चना के साथ ही सप्रेम
समर्पित प्रक्रिया भी रही ही. इसलिए प्रकृति प्रदत्त नैवेध वस्तु के भेंटोपरांत ही
सेवन प्रथा का परम्परा भी रही है. जिसे ऋतुगत अमावश के ही दिन, पूजने मनाने करने की प्रथा भी रही है, जेठ उजियारी
पक्ष में पूर्णिमा के ही दिन सामूहिक-प्रकृति-पूजा, सामूहिक-ग्राम-पूजा,
समूहिक-अनाज-भंडारण, संचित-अनाज-भंडार,
अन्नपूर्ण-कोठी-माय, पंडरी-पुंगार-माय,
विभिन्न शक्ति-आव्हान, संकट-निवारण-निमित्त, वर्षाऋतु-पुर्वोत्सव, फसल बोवाई-पुर्वोत्सव के रूप में पुड़िया-वितरण तिहार, सिद्धबीज-वितरण-तिहार, सिद्ध पुड़िया वितरण-पूजा,
संजोरी-बिदरी-पूजा को हम विधि-विधान के साथ करते मनाते और पूजते भी
हैं. तीज तिहार
ही परम्परा है; हमारे कोया जनों का. लिंगो वाणी की दर्शन है; हमारे पुरखा जनों का.
घटित घटना ही गाथा है; हमारे वंशज-पुरखों का. संक्रमित-पुरातत्व ही मूल मंत्र है; हमारी
संस्कृति-सभ्यता का. देशज-पुनेम ही मूलाधार है; हमारे प्रकृति रहस्य का.
कुपार-लिंगो ही उद्घोषक हैं; हमारे प्रकृति शक्ति का.
नालोमान-आषाढ़ माह अंधियारी पक्ष से अमावश के ही दिन, आराधनोत्सव-उपासनोत्सव के रूप में
सगा देवी-देवता को पूजते और मनाते भी हैं. सामाजिक संरचनानुसार सगा वंशोत्सव
प्रतिकोत्सव के रूप में, मूल
पुरुष-पूजा, गोत्र पुरुष-पूजा ही सगा पेन
पूजा, सगादेव-पूजा, सगा-गोत्रज पूजा होती भी है. जिसे हम विधि-विधान
के साथ करते और मनाते भी हैं. लेकिन नियमित पूजा हेतु निम्नांकित आवश्यक वस्तुएं
भी हैं. जैसे-सगा ध्वजरंग सा आसन का कपड़ा, देवमूठ-देवपिण्ड, निमित्त
चांवल, नैवेध निमित्त रोट-खाजा, नवजोत-दिया बाती, महुआ फूल, बेल पत्ती, हरी दूबी, साल-गोंद, आग, पानी, पंच पकवान-नैवेध आदि भी हैं.
परम्परागत विधि-विधान के साथ ही सभी सदस्य-गण पूजा अर्चना नैवेध-भेंट श्रद्धा सुमन
समर्पित नमन करके ही प्रसादी-स्वरूप में भोजन ग्रहण भी करते हैं. कुल
वधुएँ-अविवाहित लडकियाँ सगोत्रीय-लोग ही सदस्य होते भी हैं. आषाढ़ उजियारी पक्ष में
पूर्णिमा के ही दिन पेनोत्सव-पीठोत्सव, स्मरणोत्सव-पर्वोत्सव के रूप में, खूंट पूजा, अखाड़ी-पूजा हम विधि विधान से
मनाते और करते भी हैं. खूंट का गोंडी भाषित शब्दार्थ "शक्ति" होता है.
शक्ति का विभिन्न प्रतीकात्मक रूप में हम प्रकृति की जितनी भी शक्तियाँ हैं, उनकी
विधिवत पूजा अर्चना करना भी हमारा महामंत्र रहा है; क्योंकि स्वत: यह प्रकृति भी अचंभितोत्सव-रहस्योत्सव, सत्य तत्व भी रहा है; क्योंकि उसमे
जितने भी सत्व हैं, वे सभी शक्ति रूप हैं. जो मानव जीवन निमित्त निर्भर शक्तियाँ
भी हैं, जो एक दूसरे के परिपूरक भी हैं. प्रकृति प्रदत्त दृश्य-आदृश्य सत्व
शक्तियाँ चाहे वह हितैषी हो या नुकसान देय, प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवाश्म
चाहे वह साधक हो या बाधक, बड़े-बड़े प्राणी मात्र चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक, दो
पैर से बहु पैर जीवधारी चाहे वह चलता हो या रेंगता, पंखधरी-पक्षी राज
जीवधारी-जन्तु चाहे वह उड़ता हो या चलता हो, स्थावर जीवधारी वनस्पति जगत चाहे वह
लाभप्रद हो या हानिकारक, कल्याण से कल्याणकारी बैगा-वैधक चाहे वह रस हो या रसायन,
जन्म से मृत्यु की जीवन-शैली चाहे वह साकार हो या निराकार, संस्कार से संस्कृति की
मुठ्वा पद्धति चाहे वह बौद्धिक हो या लौकिक, प्रकृतिमय दिव्यज्ञान, चाहे वह सात्विक हो या यौगिक,
मंगलमय फड़ापेन चाहे वह आदि शक्ति हो या आदिदेव, कल्याणमय उद्गार चाहे वह क्रांति दृष्टा
हो या युगदृष्टा, आनन्दमय उद्गाता चाहे वह योगी राज हो या नाटराज, क्रांतिमय संगीत
चाहे सुमन हो या अस्तित्व, चैतन्यमय सुरधरा चाहे वह अध्यात्मिक हो या दार्शनिक,
रसमय उद्घोषणा चाहे वह उत्क्रमण हो या अनुग्रह, योगमय सिद्ध पुनेम चाहे वह
विज्ञानमय हो या दिव्यज्ञान, तत्वमय चाहे वह भविष्य हो या सुनीति, ज्ञानमय संतुलित
धारा चाहे वह वाणी हो या सुनामा, जनगाथा सृष्टिकर्ता चाहे वह भूखंड हो या भूतल, गण
गाथा पालनकर्ता चाहे वह पानी हो या जल, मन गाथा संहारकर्ता चाहे वह सूर्य हो या
अग्नि, वाना गाथा अंतर्ध्यान-क्रिया चाहे वह पवन हो या वायु, धारी गाथा अनुगृह-क्रिया
चाहे वह पुकराल हो या आकाश, जीवंत सार तत्व पृथ्वी जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ (जीवात्म), सूर्य और चन्द्रमा अधिष्ठित
सप्तक गाथा है. कल्याण कर्ता संभूक फड़ापेन (प्रकृतिक शक्ति) का विश्वम्भरात्मक
रूप ही चराचर विश्व को धारण किये हुए हैं. समस्त जगत को जीवन प्रदान करने वाला, जलात्मक-सृजनात्मक, प्रजननात्मक प्रतीकात्मक स्वरूप
गांगरा सत्व भी कहलाता है. उग्रात्मक, उर्जात्मक, मूलात्मक, बीजात्मक रूप
शल्लां-सत्व भी कहलाता है. सत्यात्मक-शाश्वतात्मक, रहस्यात्मक, आकाशात्मक रूप सिरडी सत्व भी कहलाता है. समस्त जगत को सूर्य रूप में
प्रकाशित करने वाले रूप का नाम ईशर गौरा है. अमृतमयी रश्मियों से चन्द्रमा के रूप
में सम्पूर्ण विश्व को आल्हादित करने वाला रूप महादेव है. मातृभूमि-मातृभाषा
माता जननी का त्रिशुलात्मक रूप आदि शक्ति में आदि देव भी है. यही हमारी विभिन्न रंग
रूप खूट लोकोत्सव का स्पष्ट और साफ प्रकृति चित्रण भी रहा है. जन-गण-मन का त्रिशुलात्मक
पुनेम लिंगो वाणी में शाश्वत गतिमान, ऊर्जा भी रहा है. तन मन वाणी का त्रिशुलात्मक उर्जा जीवन धारा में रूप रंग सहज
ही रहता है. आकाश लोक में स्थित ग्रह-तारा नक्षत्र, तारक ईशर-गौरा के रूप में विराजित भी हैं, जहाँ देवी देवता उपासना करते हैं.
पाताल लोक में स्थित मूलाधार योगचक्र, घटना-ईशर-शंभू के रूप में विराजित भी है, जहाँ भूत भविष्य उपासना करते हैं.
पृथ्वी लोक में स्थित अनंत-अखंड महाकाल ईशर-महादेव के रूप में विराजित भी हैं, जहां
काल चक्र का अस्तित्व चलित है, चलायमान हैं, गतिशील है.
सयोमान-सावन माह में अंधियारी पक्ष अमावश के ही दिन, नैवेधोत्सव अर्पणोत्सव, झूलोत्सव-बांसोत्सव, ह्लोत्सव-पौधोत्सव के प्रतीक
में हर्योमास-पूजा, हरियाली-पूजा, हरेली अमावश विधिवत मनाते भी
हैं. हमारी युवा पीढ़ी आज के ही दिन पके बांस के गेड़ी निर्माण-निमित्त अधिक उत्साहित होते भी हैं, क्योंकि बरसात में गेंडी चढ़ने
और चलने पर जो रच-मच की मोहक धुनें तरंगित होती है. तो मन कितना अधिक आनन्दित होता
है ? यह तो केवल अनुभूति-साक्ष्य का
ही सुरीली-प्रसंग है! किन्तु गुरु-कृपा मिली हो तो, यह युवकों का सर्वाधिक उल्लास प्रधान नृत्य है. सुरबद्ध-तालबद्ध-लयबद्ध-साध्य
कला कोया संगीत चेतना है. युवा-नृतक लोक वेशभूषा से सुसज्जित हो तो आवाहिनीय
वातावरण मुखरित होता है. ज्ञान कुंज-गोटूल में संस्कारित युवा हो तो, मुठ्वा वाणी पुनेम शक्ति होती
है.
सावन उजियारी पक्ष में पंचमी के ही दिन सत्वोत्सव-जिवोत्सव - धर्मोत्सव
विषोत्सव के प्रतीक में प्रकृति प्रदत्त विषैले और रेंगने वाले जीवजन्तु निमित्त नाग-पूजा, भुजंग-पूजा विधिवत हम मनाते भी
हैं. नाग-भुजंग अत्यधिक विषैला-विषधर जीवधारी भी है. जो केवल आत्मरक्षार्थ निमित्त
ही डसता भी है. तब मानव का जीवन रक्षा संभव भी नहीं होता. यह भी एक प्रकृति
प्रदत्त बड़ी शक्ति रही है. क्योंकि उनके अस्तित्व के बिना प्रकृति संतुलन संभव भी
नहीं है. प्रकृति प्रदत्त जीवधारी-निमित्त विभिन्न भोज्य सामग्री, खाद्यान्न फलादि होतें भी है.
जिन्हें खाकर वे अपना जीवन यापन भी करते हैं. प्रकृति में यदि ये विषैले जीवजंतु न
रहे, तो छोटे छोटे कीड़े-मकोड़ों
मेढ़क, चूहों, की संख्या अत्यधिक बढ़ जाएगी तब प्रकृति संतुलन बिगड़ जाएगी
और मानव मातृ का जीवन दूभर हो जायेगा. लेकिन प्रकृति प्रदत्त यह शाश्वत नियम भी
रहा है, कि एक जीवात्मा दूसरे जीवात्मा पर पूर्ण निर्भर भी होता है. चाहे हम
उसे मासाहारी कहें या शाकाहरी, किन्तु
हमारा मतलब केवल इतना रहा है कि मूल पर नजर डालें तो हमे केवल (जंगम और स्थावर)
जीवधारी ही दिखाई पड़ती है. इसी मूलाधार पर ही हमारा मुंजोक मंत्र भी प्रस्थापित
रहा है. प्रकृति प्रदत्त इसी नियम पर ही हमारी सामाजिक-संरचना में, व्यवहार्य संरक्षक-संहारक कोकोयतुरियन
नीति -नियम भी गोत्रज प्रतीकों में प्रकृति संतुलन का मूल मंत्र ही कोया पुनेम
लिंगो वाणी भी रही है. जिसका उच्चादर्श केवल प्रकृति संतुलन को कायम रखना, मानव-जीवन, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, जड़ चेतना की
वंश-सुरक्षा भी महा मंत्र रहा है. जय सेवा रहा है. सदभाव रहा.
सावन उजियारी पक्ष में पूर्णिमा के ही दिन, संगीतोत्सव-तरंगोत्सव धुनोत्सव - मन्दोत्सव, उमंगोत्सव-विरोत्सव के प्रतीक
में, गीतोत्सव-नृत्योत्सव, वाधोत्सव-चेतनोत्सव, बरसातोत्सव-फुहारोत्सव- के
प्रतीक में, कोलांग-पूजा, सयला-पूजा, सैला-पूजा, डंडा-पूजा विधिवत मनाते भी हैं. लम्बी धुनों के साथ ललकार-ललकार कर ही गीत
गाये जाते भी हैं. अंग संचालन के साथ झूम-झूम कर ही नृत्य किये जाते भी हैं.
संगीत- प्रभावित तरंगित वातावरण में कम-दबाव का क्षेत्र निर्मित होती भी है, तब हवा-बादल का भारी दबाव उस ओर बढ़ता भी है, तभी उधर बरसात होती भी है. ऐसी
हमारी लोक मान्यता भी रही है. जो प्रकृति सम्मत प्रक्रिया भी रही है. जो विज्ञान
सम्मत तथ्य भी है. जो वाणी सम्मत दिव्य ज्ञान भी है.
सायोमान-भादोमाह में अंधियारी पक्ष अमावस के ही दिन नारोत्सव श्रमोत्सव, ग्राम्योत्सव-आनन्दोत्सव, साधकोत्सव-एंवोत्सव
बैलोत्सव-महोत्सव के रूप में, पोला-तिहार
खिचड़ी तिहार फलित तिहार सुमरन तिहार वैधक-तिहार निमित्त ही-पोरा-पाडेवा, पोरा-पाडवा, पोरा-बडगा, पोला-व्यवहार्थ विधिवत करते भी हैं.
इसे हम थोड़ा और गहराई से समझ लें ताकि उसका महत्व अधिक स्पष्ट हो सके. हमारा कृषि
प्रधान ग्राम्य-समम्यता कला-फलित महादेश का चेतनात्मक-चिंतन धारा ही शक्तिशाली बैल
की कर्मठता भी रही है. हमारी कोया वंशीय कोयतुरियन-आदि देव शम्भू शेक महादेव का
प्रतीकात्मक प्रिय वाहन नांदिया-बैल प्रसिद्ध भी रही है. देशज हिंसक-अहिंसक-खूंखार
पालतू दुधारू कल्याणकारी जीवधारी पशु ही प्रकृति प्रदत्त अवतरित शक्तिरूप भी रही
है. पारंपरिक-शैली में निर्मित मिटटी को बेजोड़ कलाकृति में, बच्चों के लिए खिलौने और
नांदिया, बैल ही पोरा का कलात्मक
सम्पूर्ण अभीव्यक्ति भी रही है. गेड़ी का संगीतात्मक मोहक-सुरमन भावन भी रही
है. उसकी बरसाती-फुहारें सी रच मच तरंगित-वातावरण सर्वत्र-गूंजती भी रही है.
फलस्वरूप आनन्द से सराबोर भी प्रकृति पुत्र हुए हैं. तभी अंतरंग से उनकी फूटती-धारा
अनुभूति मुखरित भी रही है. ज्ञानोत्सव-तत्वोत्सव, मूलोत्सव, सृजनोत्सव, प्रक्रियोत्सव-गर्मोत्सव,
धार्णोंत्सव-फसलोत्सव निमित्त चिंतन ही पौधदर्शन भी रही है. देशज खाद्यान्न में चांवल, गेहूं, कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा, तिल-जौ, सावां-मसूर, उड़द-मुंग, चना-तुवर आदि भी रहा है. किन्तु
पोरा के दिन विशेष चांवल से ही खिचड़ी पकायी भी जाती है. उसी पेनवंजी को पसहर धान
कहा जाता है. जो अपने आप ही उगता भी है. उसे बोया भी नहीं जाता. उसी धान के चांवल
से ही खिचड़ी पकाने की परमपरा भी रही है. घरेलू पशुओं जोड़ा-बैलों को साफ धोकर रंग
बिरंगे झूमर, घंटी माला, पलास-बकला निर्मित नाथ कासड़ा
से सुसज्जित करते भी हैं, तभी पूजा अर्चना के साथ ही पकी हुई खिचड़ी लोंदी खिलाने
की परम्परा भी रही है. पलास-बकला में बेलपत्ती बांधकर घर के सभी उपयोगी सामान में भी बाँधने
की हमारी परम्परा भी रही है. क्योंकि पलास पेड़ में ऐसी अदभुत कीट विनाशक-शक्ति
रही है, जिसके सम्पर्क में आने कहें या उसके गंध से ही, बरसाती बिमारियों के कीटाणु का
जो प्रदुर्भाव होता है, वे
नष्ट भी हो जाते हैं. घर खेत खलिहानों में मेरा, नारबोत मिलवा और छिप्पाल पेड़ की
पत्तियां भी रखते हैं. क्योंकि उसकी पत्तियों में भी कीटाणु नाशक-शक्ति होती है.
बैगा-वैधक पद्धति के ज्ञानी-गुणी जन दूसरे दिन ही जड़ी बूटियां खोदकर लाते भी हैं.
क्योंकि उनकी ऐसी लोकमान्यता भी रही है, कि शेष दिनों की तुलना में पोला-पाडवा के ही दिन, अमावश के दूसरे ही दिन, जड़ी-बूटियों में
अत्यधिक-गुणकारी भरी-शक्ति होती भी है. सर्वसार प्रक्रिया यह रही है कि, गांव के बाहर पूर्व दिशा की ओर
शाम को तिहार के ही दिन पोला मंत्र से मंत्रित विघ्न-विनाशक बोल के साथ ही, पलास-बकला तोरण तोड़कर
पोला-फोड़ने की भी परम्परा रही है. रात भर बंधे सम्पूर्ण पत्तों को भी दूसरे दिन
सुबह खोलकर बाहर फेकतें हैं. ग्राम्य सभ्यता, कृषि सभ्यता की मूल में, यही हमारा
कोयतुरियन-जीवन-दर्शन परंपरा भी रहा है, जो प्रकृति सम्मत तथ्य भी है, जो विज्ञान
सम्मत तर्क भी है, जो पद्धति सम्मत प्रथा भी है, जो खाद्यान्न सम्मत हितैषी भी है.
जो नांदिया-सम्मत सेवा भी है.
कोया मुरी महादेश में, शंभू
के उद्गार में, धनित्तर के तत्वज्ञान में, हिरासुका के सुरज्ञान में, गोटुलों के देश में, कुपार के वाणी में, मोल्हा के ममत्व में, जंगों की क्रांति में, कंकाली
के समर्पण में, कोयाजनों के धड़कन में, सगा
सोयरों के साधना में, कोयतुरों
के गाँव में, उत्सारित
बोल के बोली में, मुखरित भाषा के गीत में, संगीत कला के रंग में, तीज
तिहार के परम्परा में, जीवन पद्धति के व्यवहार्थ में, शाश्वत चक्र के निष्ठा में, भादो के उजियारी पक्ष में, तीज तिहार
के ही दिन आदि शक्ति गांगरा शक्ति लोकमाता-मोल्हामाय मातृ सुरक्षा-जंगोंम रायताड़
सगामाय कंकाली के सेवा नमन-स्मरणोत्सव का महोत्सव, महाशक्ति-महामंत्र तीजोत्सव के प्रतिकारात्मक में, तीजा
तिहार हरितालिका-तीज को बड़े उत्साह के साथ हमारी माताएं बहने भी विधि विधान से
करती, मनाती और पूजती रही हैं. इसे थोड़ा और गहराई से हम समझ लें ताकि हमारी
मातृ-प्रधान समाज की स्पष्ट-चित्र हमें दृष्टि-गोचर हो सके. हमारी बलिदानी माटी
में, माटी का रहस्य-तत्वज्ञ, माटी
का सुरंग-रसज्ञ, माटी
का महत्व-मर्मज्ञ, भी रहे
हैं. हमारी गोंडवाना माटी में, प्रकृति
के प्रेमीजन प्रकृति के प्रेमीजन, प्रकृति के श्रमीजन, प्रकृति के आनन्दीजन भी रहे
हैं. हमारी नारगोदा घाटी में मातृभूमि के सेवक जन, मातृ भाषा के वाहक जन, जननी
माता के पूजक जन भी रहे हैं. हमारी लिंगों वाणी के फड़ापेन मूलमंत्र भी है. आदिशक्ति-आदिदेव
भी है. कोयापुनेम व्यवहारिक धर्म तथ्य भी है. आदि शक्ति रहस्य को आज स्पष्ट समझना
सर्वसार भी है. शिशु भ्रूण की देखभाल की तुलना किसी पौधे के रख रखाव से की जा सकती
है. यदि बीज जमीन में डाला जाय, तो हो
सकता है वह बिना देखभाल के भी बच जाये, लेकिन इसके लिए काफी संघर्ष करना पड़ेगा, परन्तु धरती में बीज डालकर कोई भी उसे छोड़ नहीं सकता, उसे
खाद पानी से सींचा जाता है. खरपतवार निकाले जाते हैं और पौधों के स्वास्थ्य विकास
के लिए कीटनाशक दवाइयां डाली जाती है, ताकि वे भरपूर फल फूल दे सके. लडकियों के जीवन पर भी यही नियम लागू होता है.
जो हमारी मातृ प्रधान समाज की आदिकाल से मूल चिंतन-धारा भी रही है. क्योंकि अंततः
लडकियों को ही दाई माँ बनना है. दाई मां यदि कमजोर हो तो उसके बच्चे भी कमजोर
होंगे. इसलिए कोयतुरियन मान्यतानुसार, जिन्दगी जन्म से आरम्भ नहीं होती. बल्कि गर्भ धारण के पहले दिन से ही शुरू हो
जाती है. गर्भधारण प्रजनन और सुरक्षात्मक महाशक्ति में, नारीत्व स्त्री धर्म भी है.
मातृत्व प्रजनन शक्ति भी है. ममत्व दूध-अस्तित्व भी है. आदिशक्ति की यह
त्रिशुलात्मक चक्र दाई-माता जननी ने ही महान से महान नर-नारी पैदा किये भी हैं.
जन्म दिए भी हैं. भूतल पर लाये भी हैं. यह बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है. दाई के दूध का
मोल सचमुच में अनमोल है. क्या उसे चुकाया जा सकता है ? यह एक विचारणीय
प्रश्न चिन्ह है.
भाषा हमारी माँ है. यदि हम अपने माँ का सम्मान चाहते हैं, तो हमे दूसरों के माताओं का भी
सम्मान करना चाहिये, क्योंकि
भाषा जाति और धर्म से उपर देश की एकता है. सद्गुरु पाने के लिए शिष्यत्व का जागरण
आवश्यक है. कोया पुनेम में शिष्यत्व को जागृत करने की लिए सुस्पष्ट निर्देश दिए
गये हैं. ये निर्देश हैं, प्रकृति
के रहस्यों को जानने की चेष्ठा करना, जीवन के सार्थक लक्ष्य निर्धारिक करना, माता-पिता, परिवार समाज एवं राष्ट्र के
प्रति कर्तव्यों की जानकारी रखना और उनका निर्वाह करना. आत्मशांति, आत्मविकास, आत्मचिंतन के मार्ग पर चलने की
प्रवृत्ति रखना ही शिष्यत्व का बोध है. इसका स्वयम में जागरण ही शिष्यत्व का जागरण
है. सद्गुरु वे हैं, जो सम
सामयिक ज्ञान-विज्ञान की जानकारी रखने वाले देशकाल की तात्कालीन परिस्थियों के
ज्ञाता विश्व कल्याण का चिंतन करने वाले, अपने शिष्यों का सतत कल्याण व विकास की
परिकल्पना करने वाले, शिष्य के साथ माता-पिता भाई व सखा-भाव से जीवन व्यतीत करने
वाले, कोयतूरियन आदि देव के उद्गार में, धर्मगुरु के वाणी में, जीवन की अस्तित्व में, शाश्वत
फड़ापेन गतिमान रहा है. सदा उनकी प्रक्रिया और प्रक्रिया गुण रुपी सिक्के के दो पहलू रहे हैं. आग और राख कर्म रूपी
सिक्के के दो पहलू हैं. शक्ति और शांति धर्म रूपी सिक्के के दो पहलू रहे हैं. जन्म
और मृत्यु जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू रहे हैं. ऐसे सर्वसार मूलमंत्र का
जन्म से जीवन प्रारम्भ होता है तो मृत्यु उसकी स्वभाविक परिणति है. तब यहीं
अखण्डित ज्ञान ही उसका सत्य बोधक जोती भी है.
प्राणी मन से उदभूति ज्ञान चेतना का संचार संगती ही करुणा आनन्द मूल स्त्रोत
है. सागर जल में निर्मित ज्वार भाटा का पूर्णिमा संगति ही चढ़ाव-उतार
गुरुत्वाकर्षण है. चन्द्रकला में शाश्वत बढ़त-घटत का भू छाया संगति ही अमावश
पूर्णिमा गतिमान है. फूल-सुगंध में मदहोश पागल भौंरा का गूंज संगती ही ऐन रून
मंडराता है. प्रकृति प्रदत्त तत्वज्ञान सतधर्म दिव्यज्ञान-सतगुण का, जब मानव मन में अंतस चेतना
जागृत होती है. तब मोहक चन्द्र प्रकाश में कोयाजन सदभाव से सराबोर होती, है जब
अंतरंग सुर-नांद के तरंग में करुणामय व्युत्पत्ति बोध होती है, तब मन भावन मधुमय
ज्ञान में आनन्दमय संगति होती है. जब युग पुरुष शोधीज्ञाता आदि देव शम्भू शेक के
पहांदी-कुपार लिंगो पट शिष्य बने थे, तब उसने अंतसज्ञान के साथ वाणी-विज्ञान में गोएन्दारी-वन्क से महत्वपूर्ण खोज किया
था, तभी कुपार लिंगो से साथ "लिंगो" संबोधन भी जुड़ा था. लिंगो नामधारी
सच्चे अर्थों में भाषा के रक्षक नियंता निर्देशक और तत्वज्ञ भी कहे जा सकते हैं.
जब महान संगीतज्ञ हीरासुका गीतकार के कुपार लिंगो शिष्य बने थे, तब युवा पीढ़ी में
ऊर्जस्वी, समर्पित, मूल्यनिष्ठ और आध्यात्मिक नेतृत्व उत्पन्न करना ही, उनका अखिल कल्याणकारी सेवा का
असली उद्देश्य रहा है. सतगुरु स्वयम एक चिरंतन प्रज्वलित अग्नि हैं, जिसकी ज्वाला
व्यक्ति की चेतना को रूपांतरित कर देती है. चुनौती है, सद्गुरु उनके निकट आकर जैसे
थे वैसे रह पाना असंभव है. तब वाद्य के कुशल सृजक वाद्य के दक्ष-वादक, गीत के मधुर गायक, नृत्य के
निपूर्ण नृतक का पुंगारपगड़ी, कंधी
कलंगी पंख सिरमौर, माला
मुंदरी रंग बिरंगे गणवेश भी रहे हैं. आज गोंडवाना के जन जीवन में, सगा देवी देवता के पूजा अर्चना
में, तीज तिहार के आनन्दोत्सव में, जन्म-विवाह मृत्यु के लोकोत्सव में, गोटुल संस्कार के शिक्षकोत्सव
में, नार गुडा-गढ़ा के सुभोत्सव में लिंगो संगीत के ज्ञानोत्सव में, संगीतात्मक त्रिशुल वाध नृत्य-गीत का बहुत बड़ा स्थान रहा. संगीतात्मक
अभिव्यक्तियों की सांस्कृतिक जड़ें अत्यन्त गहरी भी है. आल्हादकारी, प्रभावशाली और विषय वस्तु की
दृष्टि से अत्यंत प्राचीन भी है. इसलिए कोया समाज में विद्दमान पुष्प-पूजा, नैवेध पूजा और संगीत पूजा की
विशिष्ट पद्धति अत्यंत महत्वपूर्ण भी है. थोड़ा और गहराई से स्पष्ट समझ लें, ताकि आत्म सात करने में आसुविधा
न हो.
गोंडी लोक साहित्य के प्रणेता तिरुमाल "मोतीराम कंगाली" के शब्दों
में समाहित कथानुसार- “शंभूकाल खण्ड में सर्व प्रथम प्रस्थापित गोटूल में कंकाली
पुंगार अध्ययनरत सगा देव रहे थे, जो हर
दिन की तरह ही सभी लिंगो-शिष्य, जब
सुबह नदी पर नहाने चले, तब
रस्ते में सुगंधित फूलों वाला वृक्ष उन्हें दिखाई दिया. उनके फूलों की खुशबु इतनी
अधिक सुंगधित थी, कि
आसपास का पूरा-वातावरण भी मन भावन हो गया था. जहाँ असंख्य भौरे रूं- रूं- रूं करते झटपट कर फूलों में
मंडरा रहे थे. सार तत्व यह रहा है कि एक फूल से दूसरे फूल पर और शेष दुसरे तीसरे
फूल पर मानो योजना बद्ध नियमबद्ध-क्रमबद्ध सभी भौरे एक खास गति से बार-बार मंडरा
रहे थे. ऐसे अचम्भित मनमोहक दृष्य में मदहोश लिंगो-शिष्य पूर्ण पागल हो गये थे, क्योंकि भौरों की उस हलचल में
रशमय वशीकरण महाशक्ति और उनकी उस मधुमय प्रणय लीला को देखते ही रह गये. अंतत: उस
मनोहरी छटा से सभी इतना अधिक आकर्षित हो गये कि वे भी भौरे की गुंज अपने ही कंठ से
उच्चारित रूं-रूं-रूं की ध्वनि करते हुए
जब पेड़ के चारों ओर गोल घूमने लगे तब सभी ने कब और कैसे एक दुसरे की हाथ में हाथ
डालकर धीमी गति से एक साथ नृत्य करने लगे ?
नृत्य कला की यही लोक कथा ही नृत्य की उत्पत्ति गाथा भी है. प्रकृति निर्देश
भी है. संगीत-संगति भी रही है. यदि किसी ने उसमे वृद्धि की है तो वह केवल कोया
पुनेम धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो ही हैं. जिन्होंने अपने प्रिय शिष्यों को
कोया संगीत में प्रकृतिमय पारंगत किये भी थे, तभी तो मूल धारा का संगीतात्मक सुख-समृद्धि विकास-प्रगति में गुरु परम्परा और
गोटूल-महामंत्र भी रहा है. अत: कोया नृत्य का मूल ढ़ांचा, गोले के स्वरूप में,
अर्धगोले के रूप में, तरगं के आकार में, आज भी देखे जा सकते हैं. भौरे की रुंजी गूंज सी नृत्य प्रक्रिया रही है.
पदन्यास और रेन-रून सी गीत-प्रक्रिया रही है, पालुपद. यही पूर्ण रूपेण साम्यता और
सादृश्यता की संगति, आज भी
देखे सुने जा सकते हैं. विभिन्न विशिष्ट वाध यंत्र के तरंगित सुर ताल-धुनें, आज भी सुने जा सकते है. कर्ता-सगा
देव, कर्मा-देव
सगा सोयरा सदा बहार-करम पेड़ का प्रतिकात्मक कदम्ब-पूजा शुभोत्सव, आज भी भादो उजियारी पक्ष
एकाद्शी के ही दिन विधि विधान के साथ पूजते मनाते और करते भी हैं. जो प्रकृतिमय
संगीतोत्सव जन्मोत्सव, ही
आनन्दोत्सव तिहार भी रहा है. आबाध आनन्द का सदाबहार करम-करमा पुर्णीमा सा
सुखमय अमृता त्यौहरोत्सव भी रहा है. समस्त-दुनिया में वनस्पति जगत स्थावर जीव ही
शक्ति वर्धक तत्व औषधि भोज्य फल- अन्न प्राणवायु जीवन दायनी भी रही है. क्योंकि
उनके अस्तित्व के बिना प्रकृति संतुलन संभव भी नहीं है. चाहे भलाई करता हो चाहे
बुराई करता हो पर उनका तो सर्वसार एक सूत्रीय कार्यक्रम सेवा धर्म की मूल मंत्र
रही है. गोत्र प्रतीकों में उनकी पूजा अर्चना की विशिष्ट पद्धति भी रहा है. लिंगो
संतुलन ही मौन पेड़ का रहस्य मय-करुणा मय संगीत मय मूलभूत शक्तिशाली धारा भी रहा
है. गुण धारी तरंग भी रहा है. प्रभावशाली संचार भी रहा है. संपन्नशाली संस्कृति भी
रही है. रंगधारी कला भी रहा है. जो विचाणीय तथ्य भी है.
येरोमान-कुवार माह अंधियारी पक्ष में परिवा से अमावश तक पक्ष भर परम्परोत्सव
पुरखोत्सव-वंशोत्सव कुलोत्सव-गोत्रोत्सव पित्रोत्सव श्राद्धोत्सव के रूप में, श्राद्धपक्ष पितरपक्ष श्राद्ध-अमावश तक ही हम अर्पण-तर्पण पकवान-नैवैध
पूजा-अर्चना विधिवत करते भी हैं. परिवा के ही दिन शुरुआत में सगादेव सुमिरन के साथ
पितरबैठ की और अमावश के ही दिन आखरी में सगा देव विदाई के साथ पितरखेद प्रक्रिया
शब्दबोध अभिव्यक्ति-संबोधन भी रहा है. कुंवार माह उजियारी पक्ष में परिवा के दशमी
तक के ही दिन तक, साधानोत्सव-मंत्रोत्सव ज्ञानोत्सव-पेड़ोत्सव औषधोत्सव बैगोत्सव महाशक्ति
महामंत्र-महासेवा के रूप में नव जागरण शक्ति, नव चेतना शक्ति, नव शक्ति पूजा, नवरात्रि पूजा, नव जोती पूजा, नरूंगमाय पूजा, मातामाय पूजा सेवार्थ-नेबात निमित्त
पद्धति भी रही है. मुयनीम-कडूनीम मोरनीम-खटटोनीम-सवोरनीम-हाईनीम-नल्लीनीम-हिर्रानीम-टकहानीम-सत्वधारी
नव शक्ति पेड़ भी रहे हैं. जो रोग निवारण निमित्त बैगा वैधक
पद्धति में महत्वपूर्ण तत्वज्ञान भी रहे हैं. युग पुरुष शंभूशेक आदिदेव ही कोया जन के कल्याणकारी कुशल
चिकित्सक भी थे. कुशल चिकित्सक और औषधि विशेषज्ञ होने के कारण ही शम्भू जी अपने
झोली में अनेक जड़ी बिटियाँ भी रखते थे. जिनमे कुछ औषधियां निम्न प्रकार के रहे
हैं. शंभू झोली में विधमान धतुरा, मदार, (आंक) भांग, गांजा, अफीम, हलाहल (कुचला), कालकुट (मिलावा), सिंगिया और संखिया भी
हैं. जो सोधन करने पर मृदु हो जाते हैं और रोग निवारक बन जाते हैं. इस प्रकार शंभू
कल्याणकारी आध्यात्मिक और मानसिक शांति प्रदाता के साथ-साथ चिकित्सक भी रहे हैं.
इसे बहुत गहराई से समझ लें, क्योंकि
अमृत और विष ज्ञान रूपी सिक्के के दो पहलू रहे हैं. शुद्ध और अशुद्ध तत्व रूपी
सिक्के के पहलू रहे हैं. सार्थक और निर्थक जीव रूपी सिक्के के दो पहलू रहे हैं.
संतुलन और असंतुलन काय रूपी सिक्के के दो पहलू रहे हैं. ज्ञान और विज्ञान जोत रूपी
सिक्के के दो पहलू रहे हैं. भूगर्भ और वनस्पति के शोधी ज्ञाता तत्वज्ञ धनितर भी
शंभू के शिष्य रहे हैं. बैगा सेवा मंत्र में अत्यधिक वर्णन मिलता भी रहा है. बैगा
पद्धति के औषधि-शोधी जड़ी बूटी के ज्ञानी जन भी गुरु-शिष्य के सेवा से परिचित भी
रहे हैं. जंगो और लिंगो क्रान्ति और वाणी के शक्ति और शांति रहे हैं. जनदेवी जननायक-जनसेवक-जनवाणी
जननाद भी रहे हैं. जन और गण मन और वाणी के अधिनायक और अस्तित्व भी रहे हैं. लिंगो
पदाधिकारी चौथे धर्म गुरु महारु लिंगो ही मातादायी के सद्गुरु रहे हैं. मातादायी
अपनी आठ सेवीकाओं के साथ ही मानव सेवा में समर्पित भी रही है. जो सिद्ध पुरुष
कुंवारा भीमाल की छोटी बहन भी रही है, जिसकी माता श्री कोतमा देवी थी और पिता श्री
मूरा पोय थे, जो बय्यर लांजी गढ़ कोट के गण
प्रमुख थे, जहाँ माता दायी का जन्म हुआ था, धनितर उदगार के उद्घोषणा में
बैगा वैधक विधा-प्रसार पर कोया समाज में अत्यधिक सिद्धि पायी भी थी. क्योंकि
जीवनभर गाँव-गांव घूम-घूमकर प्रचार-प्रसार के साथ ही सेवारत भी थी. नव नारी शक्ति
की उपासना को ही नव शक्तियों के रूप में की जाती रही है. उसे ही हम नरूंग माय की
पूजा संबोधित करते भी हैं. जो कुवार उजियारी पक्ष में दसवां दिन दशेरा दशमी पूजा
के प्रतिकात्मक तिहार पर हम महाशक्ति के रूप में पेन कड़ा देवालय, देव
स्थान देवगुडी, देवसरना-देवघर पर
आदिशक्ति-आदिदेव, सगा
देव-ध्वजबाना शस्त्र प्रतीक पूजा अर्चना भी, हम विधि विधान के साथ सम्पन्न करते हैं. दशहरा तिहार के आनन्दोत्सव में आज भी, कुछ विचारणीय तथ्य भी है. जैसे-बस्तर
कुमायु, मैसूर और कोटा भी अपनी विशिष्ट
परिपाटी के लिए ही राष्ट्र प्रसिद्ध स्थान भी हैं. अत: उनका रहस्योद्घाटन भी
आवश्यक है. सर्वसार है. बोध गम्य है.
साजा के पेड़ों की सुखद हरियाली का गौरव गाथा भी सब सगा सोयरा के मन में गहरा
उतर जाये, तब आतृप्त इतिहास तथ्य स्वत:
उजागर होता है. साजा जितना अदभुत सीधा छाल उतना संपन्न औषधि, शक्ति वर्धक स्वास्थ्यवर्धक मूल
प्रसिद्धि गुणधारी, सारगर्भित विशाल और मनोहर पेड़ होता है. गोंडवाने में यह बहुत होता है. गोंडो के अटूट
आस्था का प्रमुख प्रेरणा स्त्रोत होता है. गोंडियन माईथालांजी के मान्यतानुसार
संकेतिक तथ्य लिंगो वाणी में उद्घृत होता है. आध देव शम्भू देव को साजा तले ही
प्रकृति रहस्य की दिव्यज्ञान अनुभूति हुई थी. तभी तो शंभू से उदगारित स्वर में
अवतरित होता है. गुरुशिष्य परम्परा में मुखरित वाणी तब उपदेशित मंत्र होता है, तब
मंत्रित, लोक रस कुछ और गढ़ा होता है.
लोकवाणी में मुखरित जंगोम रायताड़ का
शब्दार्थ गोंडवाने में "क्रांति देवी" उद्घोषित होता है. लोक गाथा में
गुंजित पहांदी पुंगार महुआ फूल ही कुपार मुठ्वा का रक्षक उद्धारक वर्णित भी होता
है. अत: कुपार मुठ्वा, पहांदी
पुत्र का तथ्य गत भाषित होता है. शंभू वाध गोएन्दारी के वंक बोल पूर्णतया संवादन
माध्यम जब उच्चारित कुपार वाणी होता है, तब पहांदी कुपार 'लिंगो, विभूषित भी होता है. कोयली कछारगढ़ की तलहटी में बसी
धन्नेगांव, जब लिंगो पंडाव भी होता है, तब
यहाँ बाह्य आकृति अंतस-प्रकृति, प्रकृति धुनों की सप्तक सुरज्ञानी, मधुर
गीतकार भी होता है. कईगेरी सृजक हीरासुका पाटालीर महान संगीतज्ञ तब कुपार लिंगो का
सेवक और पट्टशिष्य भी होता है. अंततः लिंगो सधाना-निर्मित निर्जन स्थान की खोज में
संलग्न होता है. तब एकांतमाय शांत स्थान जहाँ पर पुनेम निर्मित अध्ययन नियमित
चिंतनरत लिंगो होता है. वहां पर सेमर पेड़तले खोजी कुपार चिंतनील लिंगो को
कालान्तर में कोया पुनेम की दिव्य अनुभूति का साक्षात्कार होता है. तब स्वयं
प्रकाशित लिंगो ही प्रकाशित जोति होता है. प्रकाश पुंज से सुशोभित सद्गुरु आभामंडित
पहांदी पारी कुपार लिंगो धर्म गुरु होता है. वहीं से दिव्यात्मक ज्ञान की अनुपम
जोति यात्रा का शुभारम्भ होता है. तब से सगात्मक सगादेव की पारी तत्वज्ञान का
सुनियोंजित देव होता है. तभी से कोयात्म्क पुनेम की लिंगो वाणी का उपदेशित स्वर
होता है. तब से रचनात्मक समाज की प्रकृति सम्मत व्यवहार्य चलन-कटन का उद्घोषित
मंत्र होता है.
बैगा वैधक मंत्र में सेमर पेड़ के गोंद को मोचरस कहते हैं. मोच रस बहुत हल्का
मुरमुरा और लाल रंग का होता है, जो पानी में डालने पर फूल जाता है. मोचरस शरीर के किसी भी स्थान में जाते हूए
खून को रोकने में अदितीय पाया गया है. सेमर पेड़ के नीचे की जड़ को सेमर मुसली
कहते हैं. औषधि प्रयोग में एक वर्ष से डेढ वर्ष के छोटे पौधे की जड़ ही औषधि योग्य होता है. सेमर
डालियाँ के सिरे पर ही एक से बारह पत्तों के झुमके होते हैं. ठीक उसी तरह यह झुमका
मंत्र सदगुरु लिंगो ने सगा समायोजन का सूत्रपात जिस मूल स्थान पर किया उसे कोया वंशीय
मानव समाज के लोक-लोगवेन 'मोड्ड' नामी
कहते हैं. इस गोंडी भाषा का शब्दार्थ केन्द्र बिंदु या मूल स्त्रोत होता है. इसलिए
कोया वंशीय सगा समाज तब से ‘लांजी गोटुल' को ही मूल स्थान और पृथ्वी का मध्य भाग मानते भी हैं. यही हमारा गोंडियन
मूलाधार है. प्रतिकारात्मक स्मरणोत्सव चेतना सूत्रपात कुंवार माह उजियारी पक्ष में
दशहरा-दशेरा-दशमी के ही दिन सगा सांवरी सेमर पेड़ तले जंगो-लिंगो लाटी-पूजा जंगो,
लिंगो ढाल पूजा, जंगो लिंगो प्रतीक पूजा गोंगो लाटी जंगो प्रतीक, कोप्पार लाटी लिंगो प्रतीक, ढाल
को प्रतिस्थापित करके, बड़े
धूम-धाम से विधि विधान के साथ सगा सोयरा जन प्रतिकोत्सव, पेनोत्सव, दिव्योत्सव,
ज्ञानोत्सव, योगोत्सव, मनाते भी हैं. इसे थोड़ा और स्पष्ट समझ लें, कि कोया वंशीय
सामाजिक संरचना में प्रस्थापित मान्यता नुसार सेमर पेड़ के ही नीचे, सर्वप्रथम
हमारे आदि धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो ने अपने प्रिय शिष्य तैंतीस कंकाली
पुंगार सगा देवों को, सगा
सामाजिक घटकों निमित्त समावासित पद्धति में, विषम-सम सगादेव घटकों का सुत्रपात
अनुवांशिक गुण संस्कारों के ध्रुवीय-पारी मूलाधार पर ही संबंध निमित्त कोया पुनेम
प्रस्थापित तत्वज्ञान का सुदृढ़ पारी-गोत्रज मार्गदर्शन गोटुल में दिए थे. जिसमे
पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जीव जन्तु, की तीन
गोत्र प्रतीक हरेक गोत्र धारक के साथ समाहित किये गए थे. प्रकृति संतुलन निमित्त एक
नियमन न्याय तत्व का संरक्षक, संहारक
गोत्र प्रतीकों के माध्यम से संपन्न किये थे. विसम सगा घटक में एक, तीन, पांच, सात, नव, ग्यारह सगादेव पारी को जंगोमाय के
प्रतीक समूह में समाहित किये थे. सम सगा घटक के दो, चार, छै:, आठ, दस, बारह सगा देव पारी को लिंगो
मुठ्वा के प्रतीक समुह में समाहित किये थे.
कालान्तर में हमारे कोया वंशीय तीसरे धर्म गुरु रायलिंगो (रावेण पोरियाल) ने
सरलीकरण निमित्त बारह सगा-घटकों को मूल चार सगा घटक, मूल-फड़ा सगा खांदा, चार, पांच, छै:, सात, सगा देव घटकों में ही शेष आठ
सगादेव घटकों को मूल मंत्रानुसार सम-विषम सगा घटकों के विलीनीकरण सम्पन्न किये थे.
तभी से विसम सगा घटक में पांच-सात सगा देव पारी जंगोमाय के प्रतीक समूह में समाहित
हुए थे. सम सगा घटक में चार छ: सगा सगा देव पारी लिंगो मुठ्वा के प्रतीक समूह में
समाहित हुए थे. चार सगा घटकों में समायोजित सारणी विवरण पर स्पष्ट देखे जा सकते
हैं. विवाहाधार की यही कोयतूरियन पद्धति सनातनी मूल मंत्र होता भी है. वही सगा
समाज में पूर्णतया विद्दमान नियमन आज भी है. उसी मूलाधार पर ही सगा-सामाज का
रिस्ता-नाता होता भी है. गढ़खूंट से तत्वात्मक स्वीकृति की मातृ प्रधान सगा समाज
स्वर मूलक वाणीधारी होता है. अंतस में सत्तात्मक स्वीकृति की सगा सोयरा, देशज मंत्र चिंतनधारी होता भी
है. लोकरंग से प्रेरणात्मक स्वीकृति की लोक कला, लोक संस्कृति, लोक साहित्यधारी जन
होता भी है. कठोर श्रम के तथ्यात्मक-स्वीकृति की अग्निउर्जा चेतना-चक्र प्रज्वलित
ज्योतिधारी गण होता भी है. सद्गुरु से पुनेमात्मक-स्वीकृति की दिव्यज्ञान ज्योति
पोहा-जतरा फड़ापेन मंत्रधारी मन होता भी है. दशहरा से दशेरा दशमी की जंगो लिंगो
पालकी-सवारी पोहा-जतरा गतिमान पुनेम होता भी है. सरना मूल से गांव गांव की मिलन
मेला मंडई जन-गण-मन वाणी धारी सगा पेन होता भी है. दिव्य ज्ञान होता भी है.
विज्ञान मय होता भी है.
गोंडवाना भूखंड में धन-धान्य की संपन्नता, कृषि की समृद्धि और अन्नदाता कृषकों के इतिहास को रेखांकित करता है. सृष्टि का
निर्माण किस तरह हुआ ? उसके मूलनिवासी कौन थे ? किस तरह उनमें उत्क्रान्ति हुई ? उनकी
भाषा और संस्कृति क्या थी ? ....... यह सब जानने के साधन यहाँ खूब है. उसी गोंडवाने के गोंडियन संस्कृति, धर्म, संस्कार और मान्यताओं का अपना एक अलग
संस्कार होता है, जिसमे सार बोधता सरलता, निश्चलता और प्रकृति रहस्य का अदभुत सामंजस्य होता है. अपनी मातृ भाषा से
प्रकृति रहस्य को पहचानना या समस्त जीव जगत के कल्याणकारी शक्ति को जानना ही हमारी
ज्ञान-विज्ञान होता है. कोया वंशीय मानव समाज मातृशक्ति का अनन्य उपासक होता है.
अपने जीवन के प्रारम्भ में मातृशक्ति को भली-भांति, पहचानता है. जानता है. मानता है. हमारे वाद्द्य नृत्य और गीत में अपना एक अलग
संगीतमय चेतना शक्ति होता है, जिसमे तरंग, गति और अस्तित्व का उत्साहवर्धक अदभूत शक्ति जन-जीवन में संचारित होता है. तभी
तो मेला, मंडई और त्यौहार में अपना एक
अलग सारगर्भित गौरवगाथा होता है. जिसमे हमारे आराध्य देवी देवता की
तस्वीर-प्रसिद्धि, हमारे
सगा देवी देवता की मौलिक महत्व, सगा
सोयरा की जय सेवा जय जोहार, से वह
पुनीत स्थान संबंधित होता है. उसकी मौलिक इतिहास वस्तुत: मेला मंडई और त्यौहार का
परिपाक-उर्जा होता है. शाश्वत चक्र होता है. स्वास्तिक प्रतीक होता है. आकलन तथ्य
होता है. अक्षुण्य मूल मन्त्र होता है. सत्यज्ञान परम्परा होता है.
तत्वज्ञान-सद्गुण वाणी होता है. जो शंभू-युग से गोंडवाने में प्रतिवर्ष अनेक
स्थानों पर मेले मंडई और त्यौहार का महत्वपूर्ण आयोजन होता रहा है. जिनमे
मुख्य रूप से आदि देव शंभूशेक ठाना (जुन्नादेव) तंत्रवेत्ता धनितर मूल ठाना बैगा
वैध के नियमावली में अवस्थित जंगोम रायताड ठाना नीलकोंड़ा (आंध्रप्रदेश) संगीतज्ञ
हिरासुका ठाना धन्नेगांव (भंडारा) कली कंकाली ठाना काची कोपाड़ कचारगढ़ (भंडारा)
कुपार मट्टा ठाना कोयली कचारगढ़ लोहागढ (भंडारा) सतपुड़ा परिक्षेत्र के सालेटेकड़ी
साखा के अंतिम छोर पर तहसील-सालेकसा दरेकसा निकटस्थ अवस्थित, यह पुनेम-चैतन्य-भूमि कोयली
कचाढ लोहागढ़ शोभायमान है. शल्ला मट्टा लांजी (बालाघाट) अमरकोट (मण्डला लिंगोगढ़
अमरकंटक) (मण्डला), केश्लागुडा (आंध्रप्रदेश लिंगो ठाना बाजागढ़ घनोरा, (गढ़चिरोली), सेमरगांव अंत: गढ़ में बस्तर
सयमंडी पाचालगढ़ पचमढ़ी (होशंगाबाद), कुवारा भीमाल ठाना आली कट्टा (सिवनी), नरुंगमाय, शितलामाई, माता दाई खैरमता ठाना तो
गोंडवाने के गांव-गांव में विराजमान हैं. जंगो रायताड ठाना कपलाई तट (आंध्रप्रदेश)
महाकाली कंकाली चान्दागढ़ (चंद्रपुर), माहुरगढ़ (यावत माल), बोमलाई-बमलाई डोंगरगढ़ (राजनांदगांव) दंतेवाडिन-दंतेश्वरी माई बस्तर समलाई-सम्बलपुर
उड़ीसा, हिंगलाजमाय-महामाय रतनपुर
(बिलासपुर) भ्रमरीमाय गंगाई-गंडाई (राजनांदगांव), आदि शक्ति मोल्हा माय-जंगो माय तो गोंडवाने के प्राणी मन में दैदीप्यमान हैं.
रहस्यमय संदर्भित-तथ्य के प्रकाश पुंज से सुरात्म्क योगात्मक तंत्रात्मक बस्तर
का शब्दार्थ बस+तर होता है. जो भी यहाँ आकर बसता है. वह संसार रूपी सागर से तर
जाता है. तभी तो बस्तर में माटी प्रेमी पागल साहित्यकार ने बहुत ही सटीक विशलेषण
किया है. उसी भोले बस्तर के मेले मंडई में आज रामाराम (कोटा बारसुर)(दंतेवाडा)
चित्रकूट (जगदलपुर) घोटिया (बस्तर) चपका नारायणपुर तथा औरछा विशेष प्रसिद्धि मंडई
है. जिसमे बस्तर नारायणपुर का मेला तो सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका
है. ओनम (केरल) पोंगल (तमिलनाडू) भगोरिया (भिलवाड़ा परिक्षेत्र) लोड़ी (पंजाब)
वैशाखी (पंजाब), दशहरा-दशेरा-कुमायु-गढ़वाल
(उतरप्रदेश), कोटा (राजस्थान) बहुप्रचारित बस्तर (छतीसगढ़) मैसूर (कर्नाटक), नवरात्रि-नवज्योति, नवशक्ति दिव्यज्योति (गुजरात)
मोजली-जंवारा पौध जोत (छतीसगढ़) अनन्त श्रद्धा अनवरत सेवा भाव की अव्दितीय
अध्यात्मिक अनुभूति का ज्ञान-विज्ञान को सारा देश विनम्र पुष्प समर्पण, आदि शक्ति दाई-तिरुमाय के चरण-कमल
में सादर अभिव्यक्ति करता है. जन-जन नमन करता है. जनवाणी जननाद जय जोहार करता है. जन-गण-मन
प्रणाम करता है.
सम्मा सरक्का देवी वारंगल (आंध्रप्रदेश), मुंबा देवी मुंबई (महराष्ट्र), कलम्बा
देवी मुंबई (महराष्ट्र), बाँध उकई निकटस्थ-अवस्थित वेन देवी-वनदेवी भीलवाड़ा
(गुजरात), हिडिम्बा देवी कुल्लू मनाली (हिमांचल), मनिया देवी मनियागढ़ बांदा (उत्तरप्रदेश), रहस्यात्मक राज-राजेश्वरी देवी
मंडला (मध्यप्रदेश), शबरी देवी शबर परगना कलिग (उड़ीसा), शबरी नारायण सूर-शिवरी
नारायण बिलासपुर (मध्यप्रदेश), कलिया माता (पश्चिम बंगाल), बिलाई माता धमतरी
(छतीसगढ़ रायपुर), बालाजी
(आंध्रप्रदेश), मीनाक्षी देवी मदुराई (तमिलनाडु), दिव्य ज्योति सबरी माई (केरल), वेनांचल-विध्यांचल
अवस्थित विंध्यावासिनी देवी मीरजापुर (उत्तरप्रदेश), दामोदर तट पर अवस्थित छिन्न
मस्तिस्का देवी संथाल परगना (बिहार), खप्पर
वाली देवी माय-महाकाली कलकत्ता (बंगाल), बग्वती-बागमती नदी तट पर अवस्थित-गुहय-गुहयेश्वरी
देवी काटमांडू (नेपाल), आदिशक्ति काम+अख्याधारी-कामाख्यादेवी गोहाटी (आसाम),
संदर्भित प्रसंग के रहस्यात्मक पुनेम-तथ्य में तीज तिहार के व्यवहार्थ तथ्य में, कोया संस्कृति के धर्म तथ्य में,
मातृ प्रधान सगा समाज के ज्योतिर्मय तथ्य में, पुरातत्विक-साक्ष्य के पुष्टतथ्य
में, मातृप्रधान दिव्यज्ञान होता है. देवी प्रधान आदिशक्ति होता है. प्रकृति-प्रधान
फड़ापेन होता है. अटूट आस्था-पूजनीय होता है. जननी माँ नारी होती है. नारी का
मार्ग है-समर्पण का प्रतीक्रमण का.
धर्म नारी का मार्ग है. धर्म नमन है. इसे बहुत ठीक से समझ लें. नारी का एक
महत्वूर्ण उत्तरदायित्व है, सृष्टि के संचालन का. यह अपने आप में एक अदभुत रोमांचक
और मधुर अनुभव है. माँ बनने की क्षमता उसे प्रकृति की अमूल्य भेट है, जो नारी को
पूर्ण व्यक्तित्व प्रदान करती है. देशज संस्कृति ने "नारी" में माँ का
स्वरूप देखा है और कोया सगा सोयरा समाज ने उसे परमपूजनीय माना है. अत: सगा-सोयरा
ने 'नारी' को माँ के रूप में करुणा,
प्रेम, त्याग की देवी के रूप में आदि शक्ति अधिष्ठात्री माना है. वस्तुतः हमारी
कोयतूरियन संस्कृति में धर्म के संबध में ज्ञान पुरातात्विक साक्ष्य के व्दारा
होता है. बहुसंख्या में प्राप्त ऐसी नारी-प्रतीकों से, जिनकी
पूजा की जाती थी, उससे संस्कृति में धर्म के देवी प्रधान होने की स्पष्ट-पुष्टि
होती है. अंततः मातृदेवी आदिशक्ति प्रकृति शक्ति की प्रतीक होती है. हमारी गोंडियन
मान्यताओं के विविध मंत्रो में भी स्पष्ट उजागर होता है कि यह दर्शनशास्त्र
देशज-परम्परा गुरु शिष्य-प्रथा दर्शन शास्त्र देशज शास्त्र देशज परम्परा गुरु
शिष्य प्रथा से ही पोषित रहा है. जिनकी विस्तृत पुष्टि निमित्त शंभू युग से आज तक
कोयावंशीय सगा समाज में हमे बहुत तांत्रिक बैगा तंत्रवेत्ता-मुठ्वा मिलते भी हैं.
तंत्रों में ज्ञान साधना और प्रकृति शक्ति के अतिरिक्त भौतिक ज्ञान १) पर भी अधिक
बल दिया गया है. अतएव स्पष्ट उजागर होता है कि रसायन शास्त्र, ज्योतिष विद्दया आयुर्वेद-चिकित्सा
शास्त्र २) और शरीर शास्त्र तांत्रिक परम्पराओं में ही, यह ज्ञान-विज्ञान अधिक विकसित
हुए हैं. अत: कोया सगा समाज में भौतिक ज्ञान अधिक विकसित रहा है. जो प्रकृति संगत
तथ्य भी है. जो तर्क सम्मत तथ्य भी है. जो व्यवहार्थ-सम्मत तथ्य भी है. कोयतूरियन-जगत
में मातृभूमि मातृभाषा और जननी माँ परम पूजनीय मातृदेवी होती है. गोंडियन जगत में मातृदेवी सगा सोयरा देव और
सगा-समाज प्रकृति सम्मत सामाजिक संरचना होता है. कोलारियन-जगत में कोलिंग-पोंग, ३)
त्रिपुरा वाला ४) और शबरोत्सव पूजा तन्त्र सर्वसार-बोधगम्य होता है. द्रविड़यन-जगत
में बाला नारी, और माता दायी माँ देवी माँ होता
है. सगा सोयरा में देवी माँय जय सेवा और जय जोहार मूलमंत्र त्रिशुलाधारी होता है.
हमारे संस्कृति में जन्म, गोटूल, विवाह और मृत्यु मूलाधार चार
संसार होता है. हमारे समाज में सगा गोटूल पेंनकड़ा और मुठ्वा पंचतत्व-वंदनीय
तंत्र-मंत्र होता है. हमारे पुनेम में सल्ला-गांगरा, आस-चक्र, धन- ऋण, उर्वरता-प्रजनन, जनक-जननी और पिता-माता. मूल
मंत्र-फड़ापेन क्रिया-प्रक्रिया होता है. हमारे संगठन में सतपुड़ा, गोत्रज-शाखा वंशज-ध्वज, दिन-रात, ५) सुर संगीत, रंग-रीदम, और योग्य चक्र, सप्तक गतिशील-कायाधारी ६) होता
है. हमारे परम्परा में सहकारी-प्रणाली, पंचायती प्रणाली
और लोकतंत्रीय पद्धति मूलाधार होता है. लिंगो वाणी में आत्म चिंतन, आत्म विश्वास और आत्मशांति की
चेतना में ही शिष्यत्व का बोध होता है. अंततः वस्तुतः कोया पुनेम दर्शन से
स्पष्ट-प्रणालीक पुष्टि उजागर होता है. इस दृष्टिकोण से पूर्णतया तांत्रिक, परम्परा गोंडवाना माटी नारगोदा
घाटी की अनुपम देन सिद्ध होती है, जो चहूँ दिशा गई भी है. लेकिन यह विचित्र
विंडबना की बात है, कि उसी
तंत्र मंत्र की विकृत व्याख्या और तंत्रवेताओं के लिए अपमान जनक शब्द संबोधन किये
भी हैं. जो आज विचारणीय प्रश्न चिन्ह है.
१) पंचभूत-पंचतत्व, (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि-तेज, आकाश-प्रकाश ).
२) कोया-ज्ञान, वनस्पति-ज्ञान, जड़ी-बूटी
ज्ञान, धातु ज्ञान, औषधी-ज्ञान.
३) संथाली भाषा का शब्दार्थ-कोल+इत्र, पे+एंगा, प्रेषित+धर्म में, तीन+नारी
(तीन नारी धर्म प्रेषित करना).
४) त्रि+पुर+वाला=तीन गुण धारी+वाला (तीन गुण वाली कन्या).
५) काल-खण्ड.
६) समस्त-विश्व-ब्रम्हाण.
गोंडवाना की धरती नारी-कंठो से निकले मार्मिक गीतों से मुखरित हो उठती है. चारों ओर करुणा की एक कोमल-धारा प्रवाहित
होने लगती है. वियोगिनी की पीड़ा हर श्रोता के हृद्द्य में उतर आती है और आंसू
पलकों पर छा जाते हैं. तब नारी दर्शन का प्रतिकारात्मक सुआ गीत नारी जीवन से
निनादित है. इसलिए इसमें प्रकृति के सभी प्राय उपमान, प्रतीक व सटीक सार्थक भाव
उपलब्ध होते हैं. पक्षी सुआ सरल निश्छल, सीधा साधा प्राणी भी है. उसे समझाने के लिए दुहराव-तिहराव का संयोजन भी आवश्यक
तत्व है. क्योंकि सुआ 'रटंत-विधा
वाला अदभुत पक्षी भी है. उसे हर बात को बार-बार समझाया जाता है, गोतों में भी, उक्त पालुपद की संयोजना है. सुआ
गीत नारी के समवेत स्वर का नृत्य, गीत
है. क्योंकि यहाँ एक नारी की जो स्थिति है. वह सभी में परिलक्षित होती है. खेत में
नारियां आवृत बनाती हुई, सुए की तरह फुदकती है. आधी महिला संगीत उच्चारित करते हैं. ऐसे समय में वे लगभग
खड़ी स्थिति में दृष्टिगत नही होती अर्थात वे नारियां हैं, जो अपनी जीवन कथा को
प्रस्तुत करती है. आधी दुहराती है और सुए की तरह फुदकती है. जो सुए के रूप को
उद्घाटित करती है. टोकनी में मिटटी का सुआ मध्य में अवस्थित है, जो इस बात का प्रतीक है, कि मिटटी का प्राणी भी अच्छा है, यदि वह स्वछन्द हो, सुआ
गीत जो नारी के सुख दुःख हर्ष-विषाद और अव्यथा को अभिव्यंजित करता है. सुवा-गीत
नारी दर्शन का मर्मस्पर्शी नामकरण है, जिसमे नारी की पराशता, असहायता
के साथ उसके कोमल कमनीय गुणों व महान उद्धार हृदयों की झांकी मिलती है. जब खेतों
में धान की बालियाँ झूमने लगती है तथा पुरवैया के झोंकों से नाचती-इठलाती है, तब
कोया-नारी का सुआ मन फुदकने लगाता है. एक ओर अन्नपूर्ण
की कृपा के कारण व्यक्त उल्लास का आवेग है तो दूसरी ओर भावी जीवन के मंगलमय दिवस
का संकेत. प्रेम और तरंगायीत नारियां मेड में आ जुटती है. एक नई प्रशन्नता सबकी
प्रसन्नता हो जाती है. सब अपने आल्हाद को समवेत स्वर में व्यक्त करते हैं. तब
सुआ-गीत-नृत्य की सृष्टि हो जाती है. जो नारियों व्दारा ही सम्पादित होती है.
गोंडवाना जगत में करमा और सुआ मानो संयोग और वियोग के गीतों के प्रतिनिधि हैं. सुआ
गीत तो मानो साक्षात् विरह गीत है. जिसमे नारियां फुदकती और तालियाँ भी बजाती है.
महादेवी-देवी मोल्हा-गवरा माय अपने अंतस मन के सुमन प्रियतम महादेव शंभू शेक को
सुग्गा-सुआ, सुआ-सुक के व्दारा ही संदेश भेजती है. वही नारी उद्गार की अभिव्यक्ति
है. वही करुणा की अभिव्यक्ति है. इन्ही दिनों रात्रि में गवरा गीत भी गाये जाते
हैं. कोयाजनो की अध्यात्मिक-दार्शनिक धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं में महादेव का
प्रमुख स्थान है. परन्तु उसकी उत्पत्ति भी मूल कथा में आदि शक्ति मोल्हा देव एवं
आदि देव शम्भू शेक का वर्णन भी अधिक मिलता है.
कोयाजनों में पारी-सूत्रपात विवाह-संस्कार संगीतमय-मूलकथा को अक्षुण्णता बनाये
रखने निमित्त एक प्रमुख तिहार के रूप में "आरोमान-कार्तिक माह" अंधियारी
पक्ष में अमावश के ही दिन आदिशक्ति आदिदेव आनन्दोत्सव मोल्हा-शंभू विवाहोत्सव, गवरा शंभू संस्कारोत्सव
प्रेणोंत्सव-महोत्सव धूमधाम से मनाते भी रहे हैं. गौरा गौरी स्थापना कार्तिक अमाशय
के लगभग पांच दिन पूर्व होता भी है. रात्रि में मंडपाछादित प्रांगण में
"बैगा" व्दारा पूजा पाठ करने के साथ ही महिलाएं गीत गाती रहती है, उसे ही गवरा गीत कहते हैं. किसी
पुरुष अथवा महिला को "देवता” भी चढ़ आता है. ज्यों-ज्यों मांदर के गम्भीर
नादों के साथ महिलाओं को कोमल कंठों से देवगान की गीत व स्वर बढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों
देव उन्माद भी बढ़ता जाता है. इस प्रकार रात्रि में "गवरा" पूजा करती
रहती है तथा दिन में एक मिटटी के सूए की प्रतीक धानयुक्त बांस की टोकरी में रखकर
तथा उसे सुंदर कपड़े से ढककर टोलियों में सुआ नाचने जाती भी रही है. नारी सेवा नमन
की समर्पित कृतज्ञता से अपने अटूट आस्था की अंतर्गत दिलों में, गांव ग्राम्य कलाकारों की अनुष्ठा-कलाकृति
में, प्रतीकात्मक मोल्हा शंभू की
बोधमय धारा में, सूत्रात्मक शंभू गवरा का ज्ञान विज्ञान
में, कलात्मक मनोहारी छटा की बेजोड़
नमूना में, विवाह विधिविधान की सगा पारी
में, शाश्वत विवाह प्रक्रिया की
गतिचक्र में प्रमुख पुजारी बैगा की दायित्व-निर्वाह में, मूल आराध्य देवी देवता की
मान्यता-व्यवहार्य में, मंगलमय मडमीग-मंत्र की बैगा नेंग में, कल्याण दर्शन की जय सेवा में, सर्वसार गौरवपूर्ण-इतिहास की
स्मृति को फिर से तरोताजा करने का आयोजन है. श्रृद्धांजली देने का प्रयास है.
जुड़ने का अवसर है. आत्मसात करने का एक पर्व है.
तेरस-धनितर, चौदस-नरकासुर का जागरण चेतना
है. अमावश-विवाहोत्सव-मोल्हा शंभू का संस्कार बोध है. नव चेतना नवजोत का अन्नकूट-सूर
होती देवारी जोत है. परिवा-उजियारी दूज गोवर्धन का मातर जागरण है. नवरंग-नवयुग, नवरस-नवशक्ति का नवजोतमंचम
ज्योतिर्मय है. कृषिप्रधान, ग्राम्य
जीवन-का ज्ञान-जतरा, शाश्वत
जोत है. कोया-पुनेम लिंगोवाणी का दार्शिनिक-पुनरुदघोषणा है. अंधकार में प्रकाश
अनास्था से आस्था तथा जड़ता से प्रगति की ओर बढ़ने का संदेश है. इसी धर्म में
देवारी प्रकाशोत्सव है. यह एकांगी नहीं सपूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति है. क्योंकि इसमें मानव की आंतरिक
चेतना बाहय समृद्धि दोनों के स्वीकार की गूंज है. गोंडियन जन-जीवन की उर्जा
उल्लास की अभिव्यक्त करने वाला आलोक पर्व है. कल्याण और समृद्धि की कमाना है.
प्रगति और विकास का संदेश है. आडम्बर और संशय से कोशो दूर है.
कार्तिक अंधियारी-पक्ष में अमावश के ही दिन, गुण धर्मी चेतानाधारी जोत ज्ञानी पुरुष की प्रतीकात्मक स्मरणोत्सव के
प्रतिष्ठा में विधि-विधान के साथ खीला मुठ्वा पूजा की आनन्दोत्सव कोया जन मनाते भी
हैं. वही विचारक एक सुनियोजित गांव निर्माण कला के निपूर्णवेता मुकोशा महान थे, क्योंकि योजनाबद्ध गांव बसाने
और बसने में उनका पूरा-पूरा मार्गदर्शन के साथ ही एक मात्र उद्देश्य जनसेवा करना
था. वही जन सेवा महान जननायक कुवारा भिमाल का प्रिय अनुज था. जिसे हम सम्मान से
खिला मुठ्वा कहते हैं. दो बहन पंडरी और पुंगार भी थी. जिन्होंने सरकारी पद्धति के
मूलाधार पर ही हरेक गांव में घूम घूमकर, अनाज भंडारण निर्मित कोठी निर्माण योजना के क्रियान्वयन में जन सहयोग से
सम्पन्न भी किये थे. यही प्रेरणा देवियाँ ही खिला मुठ्वा की छोटी बहन थी. सगा
सोयरा उनके प्रतीकोत्सव में आज खीला मुठ्वा और पंडरी-पुंगार ठाना सम्मुख एक छोटा
सा-गड्ढा निर्माण करते हैं, जो
कोठी का प्रतीक होता है. उसी प्रकार का गोंडी भाषा. में संकेत भाव शब्दार्थ 'अनाज संचय’ होता है.
निर्देशन-केंद्र 'संग्रह’
संजोरी होता है. सुरक्षित नियमन 'अनाज-भंडार' होता है. उस प्रतिकात्म्क
निर्मित कोठी में सव्वा पायली अनाज भरकर, आज विधिवत पूजा अर्चना समस्त
गांव वासी करते हैं. क्योंकि हम उसे धन सम्पत्ति की देवी-देवता मानते भी हैं, जो
तथ्य गत वस्तुत: गोंडवाना प्रधान माटी नारगोदा प्रधान घाटी, लोक जीवन प्रधान गांव, कृषि
प्रधान महादेश, धनधान्य प्रधान समृद्धि के लिए
विचारणीय प्रश्नचिन्ह भी है.
चिंतनीय-तथ्य भी है. मानवीय कथ्य भी है. हमारा देश गांव प्रधान महादेव भी है.
जिसके महान चिंतकों ने यहाँ सत्य उद्घृत किये भी हैं. उसी प्रमाण की मौलिक दर्शन
आज देश के गांवों में भी होती है. जो सारगर्भित बोधगम्य मूल मंत्र भी होती है.
भूगोलिक परिस्थिति के परिणाम से विभिन्न परिक्षेत्र में, नयी फसलों के पकने में पक्ष या
माह का विशेष अंतर भी देव में, स्पष्ट
प्रमाण तीज तिहार में, देखने
में आता है. लेकिन दार्शनिक और व्यवहारिक पक्ष में हमारे कोई अंतर दिखाई नहीं
पड़ती. भले ही आज शब्द संबोधन पर भ्रम हो, पर तथ्यगत मूलाधार स्पष्ट होता है. वही सारगमित-ज्ञान, बोधगम्य तत्व भी है. इसे ठीक से
समझ लें कि कार्तिक उजियारी पक्ष में पंचमी के ही दिन दाना पूनो निन्दाना, प्रमुख अनाज नया खाना, सठिया धान नया खाना, चांवलान्न नया खाना, नयान्न नेवज खाना, यह तिहार मनाने का हमारा
मूलाधार पक्ष भी है. जब तक अपने आराध्य देवी देवता और सगा देवी देवता को नयी फसल
नये अनाज या सठिया धान का चांवल, नैवेध
सम्पूर्ण किया नहीं जाता या चढ़ाया नहीं जाता, तब तक कोयाधर्मीजन उसका भोज्य गृहण नहीं करते, अत: विधिवत तिहार का शुभारम्भ देवी-देवता की परम्परानुसार पूजा अर्चना नैवेध
भेट के साथ अपनी एक निष्ठा श्रृद्धा सुमन समर्पित भी करते हैं. कुल वधुए और
कुवारी-बहनों को पूर्ण तथ्य नैवेध की पात्रता होती भी है. देवठाना-देवालय में ही
आटे से चौक पूरकर, उसके
उपर साजा की पत्तियां एक कतार में रखते हैं, जैसे की जितने सगा देव-धारक सगा-सोयरा होते हैं. दूसरी कतार में सिर्फ एक साजा
पत्ति सर्वज्ञ फड़ापेन के पवित्र नाम के लिए होती है. क्रमशः वंशज-गोत्रज के सभी
सदस्यगण हूम-धूप, अर्पण
तर्पण, नैवेध भेट करते भी हैं. उस दिन
के बाद से ही सगा सोयरा नया अन्न का भोजन गृहण करते हैं. यह हमारा दाना पूनो
निन्दाना की मूलाधार-पक्ष है. कार्तिक उजियारी पक्ष में पूर्णिमा के ही दिन, विशेष रूप से नार पूजा होती भी
है. गांव में सीमा रेखा के भीतर जितने भी देवी देवता की शक्तियाँ यहाँ
विराजमान हैं. इस महत्वपूर्ण दायित्व-निर्वाह के साथ जनहित में भुमका-मुठ्वा बैगा
गांव सुरक्षा या गांव बांधने का कार्य सम्पन्न भी करता है. ताकि प्रकृति की
अनिष्ट-शक्तियाँ गांव में प्रवेश न पा सके. जिस देवी देवता की पूजा आज हम करते
हैं. वे सभी पूर्वकालीन गांवों में संरक्षक भी रहे थे. अत: उसकी उपासना सार गर्भीत
भी है. प्रकृति मूल की न्यायतत्व का बलिदानी माटी पर बली भेंट उन्हें भी दी जाती
है. जिससे गाँव वासियों में आत्मबल तथा साहस बढती भी है. तब दुष्टशक्तियों पर
पूर्णतया: संतुलन भी होता है. शक्तिवर्धक प्रकृति-संतुलन में हरेक तीज-तिहार में, हरेक शुभ-कार्य में, हरेक मांगलिक काम में, इनकी पूजा अर्चना बैगा मुठवा पूर्णतय: सम्पन्न करते हैं. यही नार पूजा का
सहारा मूलाधार है.
कोयामुरी महादेश की प्रवाहमान गंगाई नदियां विभिन्न पर्वत की छोटी से निकली, तब गोंडवाना धरती की घाटी की
माटी को, चूमने-सीचने का चमत्कृत-दृश्य
किसका मन लुभा न होगा. यह इसलिए कि नदियों ने अपने उद्गम से जुडकर ही समुद्र से जा
मिलने की शक्ति पाई है. अपने उद्गम से कटकर न तो वर्तमान की प्यास बुझाई जा सकती
है और न भविष्य के साथ मिलाया जा सकता है. नारगोदा-महानदी गोदावरीय कृष्णा
कावेरी-घाटी और उनकी मैदान माटी की लोक-संस्कृति गोएन्दारी-वन्कबोल लिंगो वाणी का
भूत वर्तमान में जीवंत तत्व है, जो भूत से प्रेरणा लेकर वर्तमान में मजबूती से
अपने पाँव टिकाकर भविष्य की ओर बढ़ने की अदम्य लालसा रखती है. उसे ही उद्घृत करने
की यह हमारा विनम्र प्रयास है. नीलकोंडा पहाड़ी परिक्षेत्र के निकटस्थ शंभू कालखंड
में, कंकाली जागृति आश्रम जंगोमाय ने
संस्थापित भी की थी. वंहा तिरस्कृत प्रताड़ित और बहिष्कृत अबला नारियों को संगठित
कर उन्हें जहाँ समाज के सम्मान जनक जीवन मूल्यों के लिए आंदोलित किये भी थे. तभी
कोडवारी-कली उस जागृति-आश्रम में कली कंकाली माय संबोधित होती भी थी, क्योंकि उस आश्रम के तैंतीस
बच्चों की ठीक-ठाक पालन पोषण भी की थी. तब मोल्हा शंभू ने जंगो-कंकाली से उनके लिए
एक सद्गुरु तलाशने की सलाह दी थी. ताकि उन्हें उचित जीवन मूल्य प्राप्त हो, भविष्य उनका उज्वल, सद्गुणी हो सके और मानव समाज की सेवा में अपना
योगदान दे सके. गोंडवाना भूखण्ड में नदी नाले के किनारे कोडवारी नामक वनस्पति होती
भी है. जिसकी नयी कोमल पत्तियों को ही गोंडी में कल्लींग कही जाती है. लोग इस
भाजी की सब्जी को बड़े चाव से खाते भी हैं. वह आन्तरिक घाव के लिए महत्वपूर्ण होता
भी है. संदर्भित तथ्य का सटीक कथ्य-संबंध कली-कंकाली के जन्म से नजदीक नाता होता
भी है. अत: उसे हम कोड़वारी कली भी कहते हैं. जिनकी माता श्री सोना देवी थी और
पिता श्री जुगाद राहुड थे, जो
कलीपुट गणकोट के गणप्रमुख भी थे. जहाँ कोडवारी-कली की जन्म हुई थी. उसी
महाशक्ति-महामाय की स्मरणोत्सव के रूप में पदोमान पूष-पूस पौष माह अंधियारी पक्ष
में अमावश के ही दिन कोडवारी कली पूजा, कली-कंकाली-पूजा, कलियाँ
कुंवारी पूजा, आदिशक्ति सगादेव-माता, महाशक्ति दन्तेवाडिन-माता आदि
संबोधन के साथ विधि विधन से धूमधाम के साथ मनाते भी हैं यह पूजा विशेष रूप से गोटूल, मोरुंग गीती होरा और दुमकुरिया
के संस्कार केन्द्रों में की जाती है, लेकिन आजकल उक्त संस्कार केन्द्रों की
तांत्रिक प्रथा में कमी हो जाने से घरो पर ही पूजा की जाती है. कोया जनों का राग
ताल व लय के साथ शैला डंडा खड़क उठते हैं. अगुआ के 'कू' के
इशारे पर नृत्य में धीमापन, तीव्रता
एवं दिशा परिवर्तन होते हैं. यह नृत्य अत्यंत सुंदर होता है. यह डंडा नाच के नाम
से भी आज प्रसिद्ध है. यह टोली गांव-गांव में घूमती हुई, ख़ास-ख़ास कृषक एवं सम्पन्न
व्यक्तियों के बीच नृत्य का प्रदर्शन करते हुए अपनी एकता, प्रेम और पुरातन संस्कृति का
स्मरण दिलाती है. धान-चावल रुपया-पैसा ख़ुशी से भेट भी की जाती है. यही विरोत्सव
युवकोत्सव प्रतिकोत्सव महोत्सव के रूप में पूस उजियारी पक्ष में पूर्णिमा के ही
दिन, मूलमंत्र उत्साहवर्धक छेर-छेरा
छेरता तिहार युवाजन धूमधाम से मनाते भी हैं. नई फसल की उपलब्धि के आनन्द
उत्सव का प्रतीक भी है. इसलिए देवस्थल या प्रकृति स्थल पर प्राटत अन्न-धन्न को
युवाजन एक सामूहिक प्रीतिभोज में परिणित कर देते भी हैं.
जब से शंभू शेक के विषय में प्रमाणित सामग्री मिलती है, तब से ही उन्हें हम एक
सर्वमान्य युगपुरुष युगदृष्टा आदिदेव महादेव और कल्याणकारी कुशल मार्गदर्शक के रूप
में पाते हैं. लेकिन आज हम यह कहने को भी बाध्य हो रहे हैं कि गोंडियन सभ्यता और
गोंडियन संस्कृति के गठन में शंभूशेक की जो विराट भूमिका है. उसमे हमारा यह कहना
तथ्य संगत है, कि शंभू को हटा देने पर गोंडियन
सभ्यता और गोंडियन संस्कृति को ठहरने के लिए कोई धरातल भूमि नहीं मिल पाएगी.
किन्तु गोंडियन सभ्यता और गोंडियन संस्कृति को निकाल देने पर भी शंभू अपनी ही
महिमा के भास्कर होते रहेंगे, जैसे कि
आज अनेक बुद्धिजीवी, इतिहासकार
और साहित्यकार देख रहे हैं. सचमुच में वह कथ्य तथ्यपूर्ण नहीं हैं. गोंडवाने का यथार्थ
इतिहास लिखते समय शंभू को छोड़ देने से नहीं चलेगी, क्योंकि कोयाजनों को जहाँ भी, जब भी
जिस प्रयोजन की आवश्यकता हुई, जहाँ
जिस प्रकार से पानी बहा है, यही शंभू
ने अपनी रक्षा की छतरी खोज दी है. चाहे खगोल भुगोल ज्ञान हो. चाहे पंचतत्व भौतिक
ज्ञान हो. चाहे अध्यात्मिक दार्शनिक ज्ञान हो. चाहे वनस्पति जडीबुटी हो. चाहे बैगा
वैधक तत्वज्ञान हो. चाहे संल्ला गांगरा हो. चाहे नाद योग ओंकार हो. सुर सप्तक
ज्ञानी हो. चाहे वाध नृत्य गीत हो. चाहे मोल्हा जंगो कंकाली हो. चाहे तैंतीस
कंकाली पुंगार हो, चाहे
वाणी पुनेम शोधक हो. चाहे परम्परा प्रथा तिहार हो. चाहे मूलमंत्र सर्वज्ञ फड़ापेन
हो. चाहे ज्ञानेन्द्रिय हो. कर्मेंद्रीय नियंता हो. चाहे उद्घोषणा लिंगों
वाणी हो. किन्तु नियंता शेक स्वयं जिस सर्वोच्च सत्ता के उपाशक थे, उन्हें वे
सर्वग्य नियंता फड़ापेन जानते और मानते भी थे. अत: उनकी ज्योतिर्मय ज्ञान उद्गारित
भी होती है. ऐसे शाश्वत गतिशील प्रक्रिया के लिए प्रजनन उर्वरता जननी जनक अर्धनारी
नारीशर आदि शक्ति आदिदेव मोल्हा शम्भू मुठ्वा प्रतीक एक निष्ठ अटूटास्था स्वस्तिक
चक्र भी होता है. ऐसे सर्वोत्तम प्रवर्तन कर्ता के व्दारा ही, फड़ापेन बुढालपेन संजोरपेन परसा
पेन जुना देव जून्नार देव अव्दितीय प्रतीक प्राचीनतम नगर से ज्ञान प्रस्फुटित
कराये जाने का संकेत होता है. ऐसे चिंतनशील महामानव के लिए ही प्रतीक सम्मत
तत्वज्ञान रहस्यमय दिव्यज्ञान अनुभूति व्यवहार्य मानवीय-मानवता कल्याणकारी धर्म भी
होता है. ऐसे महान विचारक के लिए ही, योगीराज, नटराज, भोलेनाथ त्रिलोकी नाथ, जनकल्याणी, जीव प्रेमी, सर्वसार महादेव का संबोधन
सार-गर्भित-तथ्य भी होता है.
शंभू कोई पुरोहित नहीं हैं. शंभू मातृ सद्गुरु हैं. शंभू क्राति दृष्टा है, जिनके माता कुलीतरा देवी थी.
पिता श्री जायन्तोर देव थे. वे येरु गुट्टाकोर के गणप्रमुख थे. जहाँ शंभूशेक का
जन्म हुआ था. मोल्हा देवी के साथ ही कालान्तर में शंभूशेक का विवाह सम्पन्न हुआ.
तदुपरांत मोल्हा शंभू कैलासी कोईलवास कोयटा गणखंडाक के रानी-राजा रहे हैं. शक्ति
शांति रहे हैं. एकता समता रहे हैं. कोमलता कठोरता रहे हैं. प्रणेता प्रवर्तक रहे
हैं. जो वेनांचल सतपुड़ा (येरुंगुट्टाकोर) अमरकंटक-पचमढ़ी (संयू मंडी) नारगोदा-घाटी
और गोंडवाना-माटी की महिमा धारी सौंधी सुगंध भी मोल्हा शंभू रहे हैं. महादेव छोतेर, डोरिया, मानली टेक, बोरघा और कालीभीत सतपुड़ा की
सात मुख्य शाखायें भी विद्दमान रहे हैं, जिसके आँचल में पचमढ़ी, चिकलंदा और पातालकोट महत्वपूर्ण तीन दर्शनीय स्थल हैं.
घने वनों से आच्छादित यह भूभाग शंभू युग से ही धर्म, दर्शन और आध्यात्मिकता से ओतप्रोत होने के बावजूद विज्ञान और प्रौधोगिकी के
क्षेत्र में गोंडवाना की प्रचुर सांस्कृतिक विरासत भी है. आज तहसील मुख्यालय का
नगर जुन्नारदेव छिंदवाड़ा जिले में अवस्थित है. वहीं से जुडी है हमारे अटूट आस्था
का नाता भी. आज तहसील मुख्यालय का नगर सालेकसा के समीपस्थ गांव दरेकसा भंडारा जिले
में अवस्थित है. वहीं से लगी है पुनीत धनेगांव अदभुत काची कोपाड़ एकान्तमय
कोयलीकचाड गढ़ लोहागढ़ की पुनेम चैतन्य-भूमि शोभायमान भी है. वहीं से जुडी है हमारे
माड्डा-नाभि का नाता भी. आदिशक्ति और आदिदेव के प्रतीक है. अनंत के मानव ने बहुत
प्रतीक ख़ोजे हैं, लेकिन
मोल्हा शम्भू जैसे अनूठा प्रतीत बहुत मुशिकल है. सारे जगत में परमात्मा के लिए
जितने शब्द हमने खोजे हैं उनमे मोल्हा शंभू का कोई भी मुकाबला नहीं. इसके कारण है-
मोल्हा-शंभू का अर्थ ही है. उन्होंने ही फड़ापेन
के अस्तित्व और गतिशील व्यक्तित्व को हमें धन मरण कहें, वह सब जो परिचय कराने
मार्ग बताया जो मौजूद है. वह सब मौलिक तथ्य हैं. वह सब कीमती कथ्य हैं. वह सब
अनमोल मोती हैं. इसे बहुत ठीक से समझ लें. क्योंकि गोंडियन माईथोलाजी के मन्यानुसार
गांगरा बोधक आदि शक्ति आदिदेवी देवी मोल्हा मोल्हामाय के रूप में, कछुवा विराजित अव्दितीय
प्रतीक हैं. वह नारीधर्म समर्पण का इन्द्रिय-निग्रह योग साधना धारी है. वहां
मातृभूमि मातृभाषा और जननी माँ सर्वसार तथ्य भी है. जिसका सीधा नाता प्रकृति समत
ज्योतिर्मय ज्ञान की लींगो वाणी से भी है. लेकिन संल्ला बोधक आदिदेव महादेव
बड़ादेव- शंभूशेक के रूप में, बैल
विराजित अव्दितीय प्रतीक है. वह पुरुष धर्म आक्रमण का नांदिया-वाहन त्रिशुल-डमरू
गंग चन्द्र नाग ज्योतिर्मय आभा धारी है. वह कृषि प्रधान महादेश कोयमूरी कोयटा
गणराज्य स्वर मूलक वाणी धारी है. वहां नारगोदा के उत्तर में नाग परिक्षेत्र दक्षिण
में पोल चोल देश सूर्य परिक्षेत्र पूरब में गंगा-गंगाई धारा परिक्षेत्र, पश्चिम में चंद्र सोम अमृता-परिक्षेत्र
का सीधा नाता मोड्ड नाभी लांजी में अवस्थित तथ्य भी है. जो खरा हो जो पुरातत्व
इतिहास हो जो सभी के हित में हो, उसे ही
हम सहज स्वीकारें. इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि
आज का गोंडवाना जगत एक अत्यंत ही प्राचीन ऐतिहासक एवं सांस्कृतिक परंपरा का उतराधिकारी भी है.
फड़ापेन शक्ति तक पहुँचाने का मार्ग दर्शक शंभू शेक हैं. वह छोटा देव है.
बड़ादेव फड़ापेन सर्वोच्च शक्ति है. शंभूशेक के बाद ही फड़ापेन तक पहुंच सकते हैं.
इसलिए छोटा देव के भक्ति के बाद ही सर्वोच्च स्थान में आत्मसात संभव है. यह
श्रेणी भ्रमात्मक है कि छोटे देव को परमशक्तिमान लेते हैं. शंभूशेक-शंभूशेक है
फड़ापेन फड़ापेन है. पाठक इसे चिंतन घार से ही पहिचान सकते हैं.
शंभू जो भी
कहेंगे, वह आग है. उनकी बातों को ख्याल में रखकर एक-एक सूत्र
को समझने की कोशिश करें. ये सूत्र बीज है. इन्हें
तुम्हे अपने हृदय में बोना होगा. लम्बाकार प्रतीत सल्लाँ सत्व का घोतक है. गोलाकार
प्रतीक गंगारा सत्व का घोतक है. इनके क्रिया प्रक्रिया से जो ज्योति निर्मित होती
है, उसी से जीव जगत का प्रादुर्भाव होता है. वह मानव जाति का
भी संमूल प्रतीक है, जो शंभू आध्यात्म का घोतक है. त्रिशुलाकर
सूत्र बीज का मध्य शूल बौद्धिक अंग का प्रतीक है. बायांशूल मानसिक अंग का प्रतीक
है. वह त्रैगुण्य प्रतीक कोया पुनेम मूंद मुन्शूल दर्शन का घोतक है. सिरमोर मुकुट
गौरसींग भीमालपिट्टे का पंख सत्य और प्रगति का प्रतीक है. वह सूत्र बीज ही गोंडियन
संस्कृति का घोतक है. आराद्धयदेव फड़ापेन का वह ज्योतिर्मयी प्रतीक है. आदि देव
शंभू-शेक का त्रैगुण्य अस्त्र त्रिशूल प्रतीक है. सगा देव और सगा सोयारा का वह
सिरमोर मुकुट कलगी सांस्कृतिक प्रतीक है. वह अनूठा प्रतीक अध्यात्म दर्शन संस्कृति
का घोतक है. आदिशक्ति प्रतीक क्रांति-देवी-शांति का घोतक है. वाणी भाषा प्रतीक
समाज देशकालखंड का घोतक है. गोंडवाना प्रतीक गढ़ गढ़ा गढ़ी का घोतक है. कोयामूरी
प्रतीक गण गणराज्य गणतन्त्र का घोतक है. गोएन्दारी प्रतीक वंक उच्चरित वाणी का
घोतक है. महादेव प्रतीक सत्ता-अधिपति हाथी पर सवार सिंह लोकतंत्र का घोतक है. गढ़
शब्द का अर्थ है, दुर्ग और किला. दुर्ग-किला सुदृढता-वीरता
का घोतक है. कर्मठ शूरवीर ही दुर्ग-किले में निवास करते हैं. वस्तुतः गोंडवाना भूखण्ड
में एक-दो क्या छै-सात नहीं, कई दुर्ग किले हैं. लेकिन जहां
किले ही किले स्थापित हो, वह निश्चित ही वीर पुरुषों का
महादेश रहा होगा. ऐसे ही महादेश के गौरवमयी पुनीत धरती वीरगर्भा तथा वीर प्रसविनी
रही है, पुरातत्व और इतिहास इसका साक्षी है, तभी तो वर्तमान
में गर्रा-बर्रा, गढ़खूंट गढा पूजा परम्परा का घोतक है. जहां
क्रांति और शांति अनूठा प्रतीक में मोल्हा-शंभू, जंगो-लिंगों,
कंकाली-सगादेव का घोतक है. ऐसे ज्योतिर्मयी एक ही संतत्व आधार में कठोरता और
कोमलता का सुन्दर सम्मिश्रण पृथ्वी के मानवों को, इससे पहले
देखने में नहीं मिला था. इसी कारण ही तो, हर एक ने नतमस्तक
होकर, उनकी श्रेष्ठता को मान लिया था. ऐसे महान ज्योतिर्मय आभाधारी आधदेव शंभूशेक
की यह जो कोमलता है, प्रेम है, दया है, जिसके लिये आज का मानव तो अवश्य ही कृतज्ञ
है. भविष्य में भी मानव कृतज्ञ रहेंगें, जब तक पृथ्वी पर मानव
नाम धारी कोई भी जीव धरती पर रहेंगें, उनकी इस कृतज्ञनता का अंत नहीं हो पायेगा, न
ही होगा. ऐसे महान युगदृष्टा प्रणेता आदि देव शंभू शेक के आध्यात्मोत्सव चेतनोत्सव,
मूल मंत्रोंत्सव, सूत्र बीजोत्सव का चिंतन-मनन
जागर-जागरण होता है. इसे कोयाजन पादूमान माघ माह अंधियारी पक्ष में तेरस-तेरहवें
दिन ही, शंभू शेक नरका, शंभू-जगार-जागरण
शंभू जागरण रात्री, महाशिवरात्री पर्व के रूप में विधि-विधान से मनाते भी हैं. यह केवल पूजा-पाठ तथा
धार्मिक-अनुष्ठानों के लिये नहीं है. यह तो अपने आपको पहचानने की प्रक्रिया है. यह
तो अपने जीवन को रूपांतरित करने की प्रक्रिया है. यह तो स्वयं प्रकाशित हो औरों को
प्रकाशित करने की प्रक्रिया है. यह तो सगा-सोयरा को सद्गुरु की देन प्रक्रिया है.
यह तो हर लिंगों-हर जंगो की सराबोर स्नाने प्रक्रिया है.
पहान्दी पुंगार प्रकृति देन है. पारी ध्रुवीयकरण सगादेव सूत्रबीज है. कुपार धूनी
कर्मठ खोजी है. लिंगों वाणी जीवन दर्शन है. सतगुरु धर्मगुरु मार्गदर्शक सतगुरु है.
सतगुरु क्रांति की ज्वाला है, बाहरी नहीं भीतरी क्रांति, जहां क्रांति न हो, समझना ज्ञान नहीं है. ज्ञान अग्नि की भांति है. प्रज्वलित अग्नि की भांति और
जो ज्ञान से गुजरेगा वह अग्नि में जलकर कुन्दन हो जाता है. भौतिक ज्ञान का अर्थ है-
रहस्य. रहस्य और प्रकृति-रहस्य का अर्थ है- शंभू उदगार. शंभू उद्गार का अर्थ है- सूत्रबीज,
सूत्रबीज बड़ी कीमती मोती होती है. जिसे हम समझ भी ले तों समझ में
नहीं आता और हम जिसे न भी समझें हों, तो समझ में आता हुआ मालूम पडता है. लिंगों
वाणी का अर्थ है- ज्योतिर्मय ज्ञान. ज्योतिर्मय ज्ञान का अर्थ होता है- सर्वसार.
सर्वसार का अर्थ है- पुनेम. पुनेम बड़ी कीमती ज्योति होती है. जो भी आज तक जाना
गया गूढ़ ज्ञान है. उसमे से भी जो सारभूत है, जिसमे से रतिभर
भी छोड़ा नहीं जा सकता, वैसा यह पुनेम मूल्य है. सगा देव का
अर्थ है- शिष्य. शिष्य का अर्थ है- प्रश्न. कुपार लिंगों का अर्थ है- सद्गुरु.
सद्गुरु का अर्थ है- उत्तर. प्रश्नोंत्तर बड़ी कीमती क्रांति होती है. प्रश्न से
शुरू होता है, प्रश्न पर पूरा होता है. लेकिन प्रश्न का रूप,
प्रश्न की व्याख्या प्रश्न का गुण बदल जाता है. प्रश्न पूछा था
शिष्यों ने प्रारम्भ में और प्रश्न पूछता है सदगुरु अंत में और दोनों के बीच में
कही उत्तर है. वैसा यह लिंगों वाणी है. वैसा यह जीवन-मूल्य है. वैसा यह
शिष्यत्व-जागरण है. वैसा यह जोहार सेवा है. वैसा यह बैगा वैधक सूत्र है. वैसा यह
मुंजोक-मंत्र है वैसा यह गोटूल तन्त्र है. वैसा यह क्रांति शांति है. वैसा यह
सद्गुरु-देन है. कुपार लिंगों मात्र सद्गुरु है. कुपार लिगों धर्म गुरु है. कुपार
लिंगों अधिनायक है. जिनके माता श्री हिरवा देवी थी. पिता श्री पुलशिव देव थे. वे
पुर्वाकोट के गण प्रमुख थे. जहां कुपार लिगों का जन्म हुआ था. उसमे अपना सोलह-बसंत
गढ़ खूंट पुर्वाकोट में बिताया, तदूपरांत सत्रह वर्ष के उम्र
में माता पिता के आशीर्वाद प्राप्त कर, कोया वंशीय मानव समाज
निर्मित कल्याणकारी सत्यज्ञान की खोज में, अकेला कुपार लिगों
लक्ष्य की ओर अग्रसर हुआ था. दो वर्ष का कोयवा-कुयवा
राज्य में परिभ्रमण करता रहा, तब जंगोमाय, शंभू शेक और हिरासूका से प्रकृति सम्मत उचित मार्गदर्शन प्राप्त किया.
तदूपरांत निर्जन स्थल में सातवर्ष सत्यज्ञान की प्राप्ति साधना में संलग्न रहा,
तब कुपार स्वयं प्रकाशित हो चूका था. सत्यज्ञानी हो चुका था.
अंतरयामी हो चुका था. तब कुपार लिगों मात्र छबीस वर्ष का नवयुवक था. तभी उसने इस
प्रकृति सम्मत सतधर्म को कोया वंशीय मानव समाज के कल्याण निर्मित प्रचार-प्रसार
करने का कठोर निर्णय लिया था. अत: तैंतीस कंकाली पूंगारों को अपना शिष्य बनाकर,
उद्देश्य पूर्ति में जुट गया. सर्वप्रथम शिष्यों का बौद्धिक मानसिक
और शारीरिक विकास साध्य कार्य किया. तदूपरांत उन्हें पुनेम धर्मज्ञान गोटूल में
दिया. अंतत: पुखराल में विधमान तारागणों का प्रकृति समस्त कोया वंशीय मानव समाज की
सामाजिक संरचना बारह सगा घटकों से संस्थापित किया गया था. एक से सात सगा घटक गोत्र
बोधक थे. आठ से बारह सगा घटक पंचतत्व बोधक थे. सम विषम पारी-सगा देव से लिंगों
सूत्रानुसार कालान्तर में मूल चार सगा-घटकों में ही समायोजन धर्म गुरु रायलिगों ने
किये थे. वस्तुत: आज भी वैसा ही विधमान है. जिसके लिए आज का कोया मानव समाज कृतज्ञ
है. कृतज्ञ रहेंगें, उनकी इस कृतज्ञता का कभी अंत नहीं हो
पायेगा. कोयतुरीयन प्राचीन परम्परा और नवीन चिंतन प्रयासों के बीच से ऐसी आस्था और
युग सत्य उपलब्ध हो सकता है, जो हमारी कमजोरियों को दूर कर
हमे एक श्रेष्ठ व्यक्ति बना सके.
अध्यात्म की घोषणा यही है, कि
शास्त्र में संभव नहीं है. मेरा होना शब्द में मैं नहीं समाऊँगा, कोई बुद्धि की
सीमा रेखा में नहीं मुझे बाँधा जा सकता. जो शब्द सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है और
सब शब्दों को व्यर्थ कर जाता है और सब अभिव्यक्तियों को शुन्य कर जाता है, वैसी जो
अनुभूति है, उसका नाम अध्यात्म है. परिष्कार से अछूते किन्तु गतिमान, शक्ति शाली,
प्रभावशाली, सर्वोत्तम, स्वास्तिक ज्योतिर्मय, प्राणवान ज्ञान-चेतना है.
सृष्टिकर्ता समस्त पुखरालीय (ब्रम्हांडीय) अनूठा प्रक्रिया एक प्रकार की नियमितता
है. एक नियम है. जो दृष्टव्य है. इसमें केवल गति ही नहीं है, वरन उस गति की एक दिशा
भी है. स्वस्तिक चक्र की रचनात्मक प्रतीक बोध दिशा निर्देशक भी है. प्रकृति रहस्य
की कलात्मक अनुभूति बोध ज्ञान विज्ञान भी है. प्रकृति ऊर्जा की चेतनात्मक सारबोध
मूल मंत्र फड़ापेन भी है. फड़ापेन प्रक्रिया की चक्रात्मक गतिबोध अस्तित्व धारा भी
है. दायें से बाए निर्देशन की भ्रमणात्मक ग्रह बोध सौर जगत भी है. ज्योतिषिक चेतना
की गणनात्मक परिणाम बोध काल चक्र भी है. पृथ्वी की सूत्रात्मक सृष्टि बोध शाश्वत
मूल मंत्र भी है. शंभू लिंगो की चेतनात्मक अनुभूति बोध प्रकृति सम्मत भी है.
उद्गारक उद्घोषक की संबधात्मक नाता बोध गुरु शिष्य भी है. पेम कर्म की ज्ञानात्मक
और सृजनात्मक स्वास्तिक धारा का चिंतक- शोधक भी है. “लिंगो पुयमोदी” तत्वज्ञानी
अनुभूति रहा है. “लिंगो-सुयमोदी” सत्यज्ञानी साक्षात्कारी रहा है. “लिंगो रपोमोदी”
अन्तर्यामी दिव्यज्ञानी रहा है. “लिंगो-पुनेम” सतमार्ग सतधर्म शोधकर्ता रहा है.
“लिंगोवाणी” प्रकृति अध्यात्म-दर्शन की भाषित ज्ञान अनुभूति रहा है. लिंगो-मुंजोक
अहिंसा मंत्र की प्रकृति संतुलन का सूत्राधार गोत्र प्रतीक रहा है.
“लिंगो-मुन्दमुन्शुल सर्री” त्रिशुलात्म्क त्रैगुन्य मार्ग ही “जय सेवा” का सूत्र
बीज रहा है. “लिंगो गोटूल” ज्ञान कुंज संस्कार केंद्र का शिक्षण कला रहा है. “लिंगो
संगीत” सुरसप्तक कईन्गेरी-धारा की आल्हानि-धुन जय जोहार रहा है. जिसमे अठारह कलाओं
की चिन्तनात्मक संतबोध मोल्हा शंभू सा भी रहा है. बैगा वेधक की धनित्तरात्मक सेवा
बोध धातु तत्व औषधि सा भी रहा है. सप्तक सुर की संप्रेषणात्मक तरंगबोध शंभू सा भी
रहा है. जंगो माय की प्रेरणात्मक क्रांतिबोध कुल वधु प्रेरक धारा सा भी रहा है.
कली कंकाली की सृजनात्मक फलित बोध सगा देव समर्पण सा भी रहा है. कुपार लिंगो को
साक्षात्कारात्मक दिव्यबोध ज्योतिर्मय परमानन्द सा भी रहा है. कोया दर्शन की
चेतनात्मक सतधर्म बोध लिंगो वाणी प्रकृति सम्मत सा भी रहा है. कोया पुनेम की
सतमार्ग बोध फड़ापेन अध्यात्म सा भी रहा है. कोया नियमन की घोषणात्मक परम्परा बोध
प्रकृति संतुलन सा भी रहा है. सामाजिक संरचना की संगठनात्मक सूत्र बोध पुखराल सा
भी रहा है. सगा सोयरा की नैतिकात्मक तत्वबोध लिंगोवाणी सा भी रहा है. जन-गण-मनवाणी
की प्रमाणात्मक तथ्यबोध शाश्वत-धारा भी रहा है. मानस धारा भी रहा है. वाणी धारा भी
रहा है. जन धारा भी रहा है. गण धारा भी रहा है.
धर्मगुरु पहान्दी पारी कुपार लिंगो, अब केवल "लिंगो" नाम से जाने जाते हैं. शंभू-गोएंदारी के सृजनानुसार
उनका नाम गोंडवाने के गोंडी भाषा में उपलब्ध लई, अंग और ओदाल मूल तीन शब्दों से
लिया गया त्रैगुण्य धारी चेतना शक्ति है. जिसका अभिप्राय है, स्वर, धुन और नाद की वाक-शक्ति. स्वर मूलक
वाणी शक्ति वाणी निर्माणकर्ता महामानव. वाणी अधिष्ठाता महापुरुष वाणीसृजक
दिव्यज्ञानी. वाणी संस्कार संस्कृति पुरुष. जनवाणी-जनभाषा अधिनायक. 'लिंगों' से अनुभूति की व्याख्या होती
है. 'वाणी' से अभिव्यक्ति की व्याख्या होती
है और 'लिंगो वाणी’ से संस्कृति की व्यख्या
होती है. 'संस्कृति' से कला की प्रकटीकरण होती है. 'प्रकटीकरण' से पुरातत्व की व्याख्या होती
है. 'पुरातत्व' से इतिहास की व्याख्या होती है.
'इतिहास' से युग सत्य की व्यख्या होती
है. अंततः कोयामूरी में भी 'लिंगो' शब्द प्रयुक्त होता रहा है.
जिसका अभिप्राय है, ज्योतिर्मय
ज्ञान से परिपूर्ण उपलब्ध व्यक्ति, जिसका अनन्य श्रृद्धा से कोया वासी धर्म गुरु सम्बोधित करते हैं. क्योंकि
धर्मगुरु ने उन्हें बंदनीय और पूजनीय सर्वसार पंचतत्व, सगा गोटुल, पेनकड़ा, पुनेम और मुठ्वा की अटूट आस्था
दिए हैं. अंततः प्रवर्तक ने आत्मज्ञानानुसार कोया वंशीय मानव समाज को प्रस्थापित
भी किये हैं. वस्तुतः संस्थापक ने पुनेम संवाहक शिष्य सगा देवों को बारह देव सगा.
घटक में समायोजित भी किये हैं. अत: अधिनायक ने उदाम, चिंदाम और कोंदाम सगा घटक को, 'जंगो' प्रतीक में नाल्वेन, सेवेन, सार्वेन, और येर्वेन सगा-घटक को लिंगो
प्रतीक में आर्वेन, नर्वेन, पदवेन, पार्वुद और पार्र्ड सगा घटक को 'मुठ्वा' प्रतीक में, सूत्रपात शंभूपुरुष, मांगदर्शक-सगादेव, पंचतत्व, सगा भुमका, सगा गुरुओं का प्रस्फुटित गोटूल
में अनुठा प्रतीक नाम भी दिया है. जिसका अभिप्राय है- प्रथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश भी भौतिक ज्ञान का
नियमात्मक शक्ति है. 'मुठ्वा
प्रतीक घटक भी माने गये हैं. उन्हीं पांच सगा घटकों के सगा देवों को सगा घटक
मुठ्वा का गुरुत्तर कार्यभार सौपा गया था. जिन्हें क्रमशः शुभ नाम नारायण सुर, कोलासुर, हिरा ज्योति मान्को सुंगाल और
तुरपोडयाल भी रहे हैं. जिनमे नारायण सुर जंगों प्रतीक तीन सगा घटकों के भुमका
बनाये गये थे. कोलासुर नालवेन सगा घटक में, हिरा ज्योति सैवेंन सगा घटक के, मान्को सुंगाल सार्वेन सगा घटक के, तुरपोडयाल येर्वेन
सगा घटक के, भुमका बनाए गये थे. उसके मूल तात्पर्य को बहुत ठीक से समझ लें.
गुरु बड़ी कीमती सूत्र बीज है. गुरु वहीं हो सकता है, जो शिष्य के साथ पुनः साधना
करने को तैयार हो. जो मंजिल पर खड़ा है. और जो मंजिल पर खड़ा होकर जो यात्रा के
पहले कदम को उठाने का शिष्य के साथ साहस जुटा सकता है. वही केवल गुरु हो पाता है.
साधू होने के लिए बहुत निकटता चाहिए, एक आंतरिकता चाहिये, एक-भरोसा एक अटूट आस्था, एकगहरी श्रृद्धा, एक-प्रेम किसी को अपने से भी
ज्यादा अपने निकट मानने की क्षमता चाहिए तो संप्रेषण-संगति होता है. संचार
प्रक्रिया होता है. संवाद माध्यम होता है. साधक सेवक होता है. मुठ्वा संवाहक होता
है. सगा पंच घटक सार सगा देव सगा मुठ्वों, सगा भुमको, सगा गुरुओं को सेवोत्सव, जोहरोत्सव, पुनेमोत्सव, उपास्नोत्सव-आराध्नोत्सव पूजा
विधान भी होता है. इसे कोया जन पादूमान महीने (माघ) उजियारी पक्ष में पूर्णिमा के
दिन सय मुठोली पूजा, पंचमुठ्वा
पूजा, पांच भूमका पूजा, पंच गुरु पूजा, पांच पावली पूजा के रूप में विधि विधान से मनाते
भी हैं. पहली कतार में गोएन्दारी, दूसरी
कतार में सगा मुठ्वा के प्रतीकों, तीसरी
कतार में सगा देवों के प्रतीक के साथ दांयी ओर मोल्हा-शंभू और बायीं ओर जंगो-लिंगो के
प्रतीकों को प्रस्थापित किये जाते हैं. तब ध्वज रंग कपड़े में प्रतीक विराजीत किये
जाते हैं देवालय पर पूरा परिवार श्रद्धा सुमन समर्पित करते हैं. साजा पत्तियों पर
प्रतीक सम्मुख नैवेद समर्पित किये जाते हैं. विधि-विधान से कोयावंशीय मानव समाज
तिहार मनाते भी हैं. शब्द रचना, शब्द
उत्पत्ति शब्द अभीव्यक्ति का भी तो कोई इतिहास रहा होगा ! कोई समाज रहा होगा ! कोई
भुमाग रहा होगा ! कोई कालखण्ड रहा होगा ! कोई मूल निवासी रहे होंगे ! जिसका सीधा
नाता भी रहा होगा. तभी तो जंगो-क्रांति लिंगो-क्रांति लिंगो-अनुभूत मुठ्वा ज्योति
प्रकाश का अवतरण कोयामुरी एवं विश्व के इतिहास की एक महत्वपूर्ण-घटना है. क्योंकि
उनकी महत्व देशज अध्यात्म दर्शन, संस्कृति, समाज, धर्म, साहित्य
कला आदि क्षेत्रों में है. वस्तुतः वे विश्व मानव थे. इसलिए उनके व्दारा प्रवर्तित
कोया पुनेम परंपरा आज भी विश्वव्यापी है. जिसे लिपी बद्ध करके सगा-सोयरा, देश और समूची मानवता के
सपने रखने का यह विनम्र प्रयास है.
गोंडवाना शब्द जातिवाचक न होकर, एक भूभाग में मानव वादी व्यवस्थापूरक शब्द है. जिस शब्द को भारतीय और
पाश्चात्य साहित्यकार तुच्छ समझकर हीनता का परिचय अपनी लेखनी में दिए हैं. गोंडवाना
भू वैज्ञानिक का दिया हुआ भौगोलिक शब्द, गोंडवाना का व्यवस्था, गोंडवाना
एक सामाजिक सांस्कृतिक संरचना, गोंडवाना
प्रकृति प्रदत्त रीति नीति नियम है, जो जड़जगत के व्यवहारिक जीवन को उद्घृत करता है. गोंड उस गोंडवाना का एक गण
समूह है. ऐसे ही इस गोंडवाना में अनेक गण समूह हैं, जिनका इस गोंडवाना के गूरुत्वा धूरी
से संबंध है. विस्तृत खगोलीय और भूगोलीय प्रक्रियाओं ने प्राण के उदभव और विकास के
लिए वांछित वातावरण प्रदान किये हैं. प्राण से प्राणी-मन की उत्पत्ति
होती है. प्राणी मन से मानवीय बुद्धि की और उससे चेतना ज्ञान करुणा आनन्द की
उत्पत्ति हुई है. वाणी की ऊँची से ऊँची क्रांती मनस है. शास्त्र की ऊंची से ऊंची
संभावना मनस है, अभिव्यक्ति की आखिरी मनस है, जहाँ तन मन है, वहां तक प्रकट
हो सकता है. जहाँ मन नहीं हैं, वहां सब अप्रगट रह जाता है. इतना नैतिक और सांस्कृतिक, नैसर्गिक वैभव है हमारे पास फिर
भी हम हीनता महसूस करते हैं. क्या कारण है इस गोंडवाने की संतान गौरव का अनुभव
नहीं करती ? जो कुछ
अपना है उसे अपना मानने में संकोच करती है ? उस भूभाग की चर्चा चलती है तो, हम मौन हो जाते हैं, या
चर्चा चलाने वालों की विशेषताओं में डूब जाते हैं. पर आज भी लिंगो की वाणी, केवल संपूर्ण गोंडवाने के लिए
ही नही वरन, सम्पूर्ण संसार के लिए भी
हितैषी मार्ग दर्शक सिद्ध हो सकती है. सबके लिए भी उपयोगी जीवन-दर्शन प्रस्तुत कर
सकती है, कब ? तब, जब, हम उसे सही कर्यान्वित करने का साहस कर सकें. यह चिंतन व्यवहार्थ है. दैनंदनी
जीवन में, रोजमर्रा के जीवन में, प्रकृति संमंत ज्ञान में, तर्कसम्मत वाणी में, उपयोगी भी है. उसके रहस्य
प्रतीकात्मक अंक सूत्र बीजक एक, दो, तीन, चार, पांच, छै:, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, चौंतीस, तैंतीस, शुन्य को बहुत ठीक से समझना
होगा. नगद आत्मसात करना होगा. स्पष्ट उजागर करना होगा. प्रतीक सम्मत चलना होगा.
उसके ही माध्यम से समता-एकता, एकात्मता-शक्ति
और सदभाव की सशक्त शक्ति प्रकट हो सकता है. समस्त संसार इन सत मार्गी, आनन्दमार्गी, सेवामार्गी, नमनमार्गी मूल्यों को आज अपनाने
की स्थिति में हैं. गोंडवाना जगत तो सनातन से ही चिरपरिचित रहा है. परन्तु आज हम
थोड़ा सा विष्मृत हुए है. दिगभ्रमित हुए हैं. चकाचौंध के पागलपन से अंधे हुए हैं अत:
आत्म चिंतन करना होगा. ठीक से समझना होगा. क्योंकि सोने का ईंट घर में होते हुए भी, हमे उसका भान न हो. चिथड़ों में
लिपटे हुए हम घूमें, तो हमे देखने वाले चिथड़ों के आगे भी क्या कुछ देख पायेंगे ? तभी तो
सारी ईमानदारी के बावजूद भी अधिकांश बुद्धिजीवियों ने केवल अपमान दे पाये. सुभ
चिंतकों ने कमजोरियों का ताना बाना बुना. हम अपने अतीत से अनभिग्य हैं. अत: बिना
नीव के मकान की तरह हल्के आघात से ही हिल जाते हैं. असुरक्षित अनुभव करने लगते
हैं. वर्तमान को हम खण्डरा ही देखते हैं, परन्तु लिंगो वाणी को आज हमे अपने
व्यवहारिक पक्ष में पुनः
समन्वित करना होगा. केवल बातों से ही नहीं वरन
मानवीय प्रेम, कर्म और वाणी से भी. यही इस युग
का महत्वपूर्ण मांग भी है. यही वर्तमान काल की अनिवार्य मांग भी है. यही मानवता की
मौलिक मांग भी है. यही राष्ट्रीयता की नैतिक मांग भी है. यही गोंडवाना-जगत की
अध्यात्मिक मांग भी है. यही कोया जगत की दार्शनिक मांग भी है. यही कोयतूर जगत की धार्मिक
मांग भी है. क्योंकि सामाजिक न्याय और आनवीय प्रेम के लिए भी सद्गुरु कुपार लिंगो के वाणी से
जीवन दर्शनसार को, सही-सही
जानना भी है. मानना भी है. आत्मसात करना भी है.
गोंडवाने के त्यौहारों का अपना अनूठा बांकापन होता है. कोई त्यौहार अनाहुत की
भांति दबे पांव नही आता, वरन सामान्य अतिथि होता है. जिसका भाव भीनी स्वागत होता
है. विपन्नता उल्लास में कोई कमी नहीं ला पाती. क्योंकि आडंबरीय धमा चोकड़ी से
कोसों दूर है, हमारी विशिष्ट परिपाटी भी.
जिसका रूप, रस, गंध, सब सहज और स्वभाविक होता है.
आंतरिक होता है. बीजक होता है. पुरातत्विक होता है. ऐतिहासिक होता है, तांत्रिक होता है. वैज्ञानिक
होता है. पांडामान फागुन माह अंधियारी पक्ष में अमावश के ही दिन, प्रसिद्धि पूरक त्यौहार साल में
विश्रांति दिन ‘विदाई’ प्रतिकोत्सव के रूप में, माड़ अम्मास पूजा निमित्त विधि विधान के साथ अपने अराध्य देवी-देवताओं की पूजा
अर्चना भी कोया जन करते हैं. फागुन माह के उजियारी पक्ष में, पहले ही दिन कल्याणकारी
शुभकामनाएं सहित आंगतुक साल के सुरुआती-दिन "स्वागत" प्रर्तिकोत्सव के
रूप में, माड़ अम्मास पाडवा पूजा
विधिविधान से साथ धरती माय, धरती-भूमि
खेत-खार की पूजा अर्चना भी सगा सोयरा करते हैं. आज के ही दिन से नया साल की गणना
आरंभ होता है. अत: समस्त कोयामुरी भूखण्ड में कोयावासी बीते दिनों की सुख दुःख को
संतुलित कर, नया साल का हर्षोल्लास से साथ
स्वागत करते हैं. उसी मान्य पूजा पद्धति को ही गोंडी भाषा में 'तोड़ी 'पूजा भी कहते हैं. जिसका
अभिप्राय है नयासाल, नयी फसल, नए
उमंग निमित्त हवा, पानी
माटी धूप आदि प्रकृति शक्तियों की प्राप्य याचना के साथ पूजा अर्चना भी करते हैं.
उद्घृत अनूठा-चलन सार पद्धति में ये तीज त्यौहार विदाई और स्वागत संप्रेषण संगति
की सतत परिपूरक सेतुबंधन होता है. अंधियारी उजियारी पक्ष का मूल मंत्र विदाई और
स्वागत गतिशील ज्योतिषिक कालचक्र भी होता है. माड़ अम्मास पूजा का दार्शनिक
तत्वज्ञान महत्वपूर्ण संतति सूत्रपात भी होता है. साल का सम्पूर्ण सम्पन्न काल
प्रतीक है. अनुभूति पर्व का, साल का
आगंतुक प्रवेश-काल प्रतीक है, क्रांति
पर्व का, गर्मी ऋतू का प्रारम्भ जीत
अंधियारी से प्रारम्भ होकर भादो पूर्णिमा तक होती है. जो उतरायन पर्व भी कहलाता
है. जिसमे चैत, वैशाख, जेठ, आषाड़, सावन और भादो का काल चक्र समन्वित
होता है. शीत ऋतु का आगमन कुंवार अंधियारी से प्रारम्भ होकर फागुन-पूर्णिमा तक
होती है, जो दक्षिणायन-पर्व भी कहलाता
है. जिसमे कुंवार, कार्तिक, अगहन, पूस, माह और फागुन माह कालचक्र
समन्वित होता है. ग्रह में सूर्य के प्रवेश काल पर ही संक्रांति पर्व होता है.
पृथ्वी के अक्ष भ्रमण से ही दिन-रात होता है. चन्द्रमा के घटने-बढने में ही
अमावश्य पूनम होता है. अमावश के ही दिन सूर्य ग्रहण होता है. पूनम के ही दिन
चन्द्र-ग्रहण होता है. पृथ्वी के सौर संबंध से ही ज्योतिषीय गणना पर्व होता है.
यही क्रिया प्रक्रिया ही प्रकृति नियमों का निष्पादन करती है. यही प्रकृति चक्र शाश्वत
नियमबद्ध गतिमान रहता है. यही समस्त-विश्व की आत्मा का विराट शक्ति से ही समस्त
जीव-जगत और समस्त पार्थिक-तत्वों की उत्पत्ति हुई है. उसी प्रकृति शक्ति को शंभू
और लिंगो ने, फड़ापेन, सर्वोच्च सत्ता, सर्वोत्तम ज्ञान सर्वज्ञ ज्योति
संबोधित किये हैं. मूल मंत्र उद्गारित किये है. सूत्रबीज उद्घोषित किये हैं. अत:
गोंडियन अध्यात्म, दर्शन, संस्कृति और वाणी में अधिक
साक्ष्य उपलब्ध होता है. मूलतः भौतिक, रसायन, ज्योतिषी, चिकित्सा, शरीर, समाज और भाषा के ज्ञान-विज्ञान
पर सेवार्थ अधिक बल दिया गया है. वस्तुतः जिसकी पुष्टि कोया-पुनेम के लिंगो वाणी
से स्पष्ट उजागर होता है. मूलत: बोली और भाषा में प्रकृतिगत
कोई भेद नहीं है. बोली ही विशेष कारणों से विकसित होकर भाषा का आकार ग्रहण कर लेती है.
जब पलास की कली-कली लाज से रंग उठती है, अमराई
जब अपने उमड़ते यौवन की सुंगध से बौरा उठती है, जब बसंत का यौवन रंग-बिरंगे पुष्पों के रूप में फूटकर अपने उभार पर आ जाता है, तब गोंडवाना का वायुमंडल फाग
नामक बसंत ऋतु के गीतों से गूंज उठता है. नार गोदा का तब सारा-वातावरण नगाड़ा, मांदर, टिमकी, झांझ मंजीरा से दमक उठता
है, तब गांव का सारा जन जीवन सुर-ताल-धुन से झूम उठता है. ऐसी संगीतमय स्वर-लहरी
तब एक चेतना और उमंग है, मधुमय
श्रंगार के गीतों में एक ऐसी मस्ती है, ऐसा उल्लास है, जो गायकों के हृदय में न
समाकर फूट पड़ता है. प्रकृति में फूट पड़ने वाले पल्लवों की तरह, कलियों की तरह, फूलों की तरह, तुम
देखो पलास पुंगार का टेसू नामक खूबी है. टेसू बसंती-रंगो से सराबोर हो ली
है. तब सारा प्रकृति भी, सारा जगत भी, सारा कोयवा भी मादक-रंग से हो ली है. रंग-बिरंगे
तब फूल खिले हैं. उनकी सुगंध से सारा गोंडवाना-माटी और नर्मदा घाटी महक उठा है. तब
सगा सोयरा के अधरों पर गाय की रंगो से सम्मोहक हो ली है. रहेक मन-तब पुलकित हो ली है.
जनजीवन तब सराबोर हो ली है. ऐसी उनकी दार्शनिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषिक ज्योति रंगो से उज्वलित
हो ली है. ऐसी उनकी प्रतीकात्मक बिम्ब, सटीक, सार्थक सतरंगों से उज्जवलित हो ली
है. ऐसी उनकी चेतनात्मक स्वर-धारा, गति धर्मरंगो से प्रज्वलित हो ली
है. अत: गोंडियन लोकसाहित्य में "प्रतीक" अधिक उपलब्ध होता है. जिसका
सीधा नाता प्रकृति से अधिक होता है. मूलतः 'प्रतीक' शब्द
का प्रयोग उस दृश्य वस्तु के लिए किया जाता है, जो किसी आदृश्य (अगोचर या
अप्रस्तुत) विषय का प्रतिविधान उसके साथ अपने साहचर्य के कारण करती है. यद्दपि प्रतीकीकरण
मानव का सहज स्वभाव है, परन्तु
फिर भी प्रतीकों का प्रयोग गोएन्दारी वाणी, लिंगोवाणी, गोंडवाणी, लोकवाणी की अपनी मौलिक विशेषता
है. जैसे प्रकृति शक्ति फड़ापेन प्रतीक है- अनंत का. सल्लां-गांगरा प्रतीक है- शाश्वत
का. धनऋण प्रतीक है- अस्तित्व का. उर्वरता प्रजनन प्रतीक है- शक्तिमान का. आदिदेव आदिशक्ति
प्रतीक है- स्वस्तिक चक्र का. जनक जननो
प्रतीक है- पारी ध्रुव का. ज्योतिष गणना
प्रतीक है- काल चक्र का. तत्वज्ञान
सत्यज्ञान प्रतीक है- अनुभूति का. ज्ञान विज्ञान
प्रतीक है- साक्षात्कार का. उद्गार घोषणा
प्रतीक है दिव्य ज्ञान का. लिंगो वाणी प्रतीक है- कोया पुनेम का. जय सेवा जय
जोहार प्रतीक है- धर्म दर्शन का. वस्तुतः धर्म की खोज स्वभाव की
खोज है. स्वभाव की खोज धर्म है. क्योंकि वह शाश्वत है. उससे तुम न उबोगे क्योंकि
वह तुम ही हो जो हो ली है. उससे अलग होने का उपाय ही नही है. उसके पार खड़े होकर
देखने का उपाय नहीं. जिससे भी तुम दूर खड़े होकर देख सकते हो, उससे तुम उब जाओगे. वह तुम्हारा
स्वभाव नहीं है. तुम देखो ! सेमर का फूल, देखा है ? सेमर
का फूल लाल होता है. सेमर के वृक्ष की एक खूबी है कि उसके निचे एक कोई पौधा पैदा
नहीं हो सकता. इसलिए सेमर अपने बीज में रूई लगा देता है, ताकि कोई बीज निचे न गिर जाय
क्योंकि निचे गिरा तो मर जायेगा. तुम यह मत सगझ लेना की रूई तुम्हारे तकियों में
गद्दों में भरने के लिए सेमर लगाता है. रुई लगाता है, सेमर अपने बीज को पंख देने के
लिए ताकि हवा के झोकों में वह दूर चला जाय. एक बात पक्की कर लेता है कि नीचे न गिर
जाये बस, कहीं भी गिरे यहाँ न गिर पाए. क्योंकि सेमर के नीचे कोई भी वृक्ष न हो
पायेगा, क्योंकि सेमर सारे पानी को चूस लेता है.
मदोन्मत बसंत का बयार, हरे
भरे लहलहाते खेत, सरसों
की हरी भरी डालियों पर पीले-पीले लहलहाते फूल, जब धरती पर मोहक जीवन का बोद्ध कराते हैं. तब सृष्टि का अदभुत आकर्षण एक तरफ
ऋतु परिवर्तन का 'प्रतीक
बनकर आता है' तो दूसरी तरफ नव आगंतुक साल का
पूर्व-संकेत भी देता है. वह एक अनूठा प्रकृति है, प्रस्फूटिस सृष्टि-सृजन का. जो संभूत का सारभूत-ज्ञान भी कराती है. तब धरती पुत्रों, कृषकों, श्रमिकों का बहुरंगी
जनजीवन प्रकृति से सराबोर हो ली है. जन-जन की प्रसन्नता तब वासंतिक फाग गीतों का
रूप लेकर मधुमास को, रसमय
बना देने वाली धुनों से सुवासित हो ली है. जब नगाड़ा, मंजीरे मांदर की गुमकती नाद, ताल और थाप से सारा नभ-मण्डल गुंजारित
हो ली है. जब सदभावना संक्रांति पोंगल, लोड़ी, भगोरिया की उव्देलित प्रकृति
मूल से प्रभावित हो ली है. तब आव्दितीय संस्कृति की देशज जीवन-धारा से वासीजन
सराबोर हो ली है. वह अनूठा विश्रांति है, प्रकृति की जीवंत-अनुग्रह का.
जो धरती पर आकर जंगल में फ़ैल गयी, तब दावाग्नि, जठराग्नि और प्रेमाग्नि आदि से प्रसिद्ध हो ली है. अग्नि भी पांच महाभूतों में से
एक माना गया है, उससे सम्पूर्ण पृथ्वी भी
प्रकाशित हो ली है. अग्नि भी सात मुखों वाला माना गया है. जब अग्नि पंच
ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि से सतरंगा हो ली
है. अग्नि भी ज्ञानवान-प्रकाशवान अमर और अन्न से युक्त माना गया है. तब अग्नि रोग
निवारक औषधि हो ली है. अग्नि को केवल भौतिक-अग्नि ही नहीं माना गया है, मन का
उत्साह हृदय की प्रसन्नता, प्रेम
की आराधना विरह की तड़फन, भी
अग्नि का स्वरूप हो ली है. वह एक अनूठा उर्जा है, प्रकृति सर्वोत्तम-सत्ता का. जो
धरती पर जीवन धारी को अवतरित भी कराती है. तब पेड़ पौधे भी मानव परिवार के ही
अभिन्न अंग हैं. वे हमे प्राण वायु प्रदान करके जीवित रहते हैं. मूलतः जड़ी बूटी और
औषधि का भी वे विपुल भंडार रखते हैं. वे हमें पोष्टिक भोज्य सामग्री, फल, अन्न, सब्जी प्रदान करते हैं, बलिष्ट रखते हैं. वस्तुतः
गुणकारी चेतना प्रदान करके उज्वलित रखते हैं. इसके अलावा भी कई तरह से हमारी
सहायता करते हैं. साजा, सेमर, नीम, महुआ, डूमर-गुलर से प्रस्फुटित-ज्ञान
ज्योति हो ली है. कोड्वारी कचनार कली रंग रूप से मोहक-आकर्षण हो ली है. परसा पलाश
कमरकस गोंद टेसू फूल से लाल-बसंत प्रसिद्ध हो ली है. सामाजिक संरचना में गोत्र
प्रतीकों से प्रकृति संतुलन पुनेम होली है. वह एक अनूठा समर्पण है, प्रकृतिप्रदत्त
ज्ञान का. जो कोयामुरी पर शंभू-उद्गार लिंगो-वाणी, सगादेव-पुनेम, कोया दर्शन, हमे
ज्योतिर्मय प्रकृति-ज्ञान कराती है.
जब शंभू ने अंतस सूत्र बीज बोये हैं. लीगों ने अंतर्घट जटा सीचे हैं. सगा देव
अंतर्जगत उपजे अंकुर हैं. कोयाजन देशज विकसित फूलें हैं. तब जंगो संकल्प क्रांति
ज्वाला है. कंकाली अमोध समर्पण सेवा है. कोया मुरी सतरंगा झंगा दर्शन हैं. कोया
पुनेम लीगो वाणी हैं. गुरु शिष्य परंपरा पद्धति है. लिंगो वाणी क्रांति अग्नि है,
बाहरी नहीं भीतरी. मूलतः अग्नि, आग, सूर्य के महत्व को कोया जन ठीक से समझ लिए थे. वस्तुतः शंभू जो भी कहेंगे, वह आग है आग से आज कौन परिचित
नहीं है ? आग
उर्जा का ही एक रूप है. उर्जा का एक मात्र स्त्रोत है सूर्य. सूर्य से ही अग्नि, प्रकाश, उर्जा, ध्वनी उर्जा भी प्राप्त है. इसलिए
अग्नि चर्चा के क्रम में सूर्य और पृथ्वी की चर्चा भी आवश्यक है. आरम्भ में हमारी पृथ्वी सूर्य
की तरह ही आग का एक गोला था. करोड़ो वर्षों में ठंडी होकर पृथ्वी पर धरातल बना और
धीरे धीरे पृथ्वी पर जीव जगत शुरू हुआ. वह एक अनूठा उदभव है, जीवन अस्तित्व का. जो हमे इस
भूतल पर लाये हैं. वे प्रकृति की शक्तियाँ हैं. सौर मण्डल अक्ष गति है. आशचक्र
शाश्वत-स्वास्त्विक है. शल्ले-गांगरा, धन-ऋण, जनक-जननी क्रिया-प्रक्रिया है. उर्वरता प्रजनन शुक्र-डिम्ब है. नर-नारी, पिता-माता है. चन्द्र-सूर्य, देवी-देवता है. आकाश के चन्द्र
सूर्य आदि देवी-आदि देवता है. जीवधारी के सूर्य-चन्द्र जननी-जनक है. मानव के चन्द्र सूर्य मोल्हा
शंभू हैं. कोयाजन के चन्द्र-सूर्य माता-पिता हैं. सगा सोयरा के इसे हम थोड़ा सा और
गहराई से समझ लें.
ब्रम्हाण में जितने भी ग्रह हैं. उन सभी का व्यक्ति के जीवन पर विशेष और
अत्यंत महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. मानव ने जब से काल के चिंतन का प्रारम्भ किया, उसी समय से चन्द्रमा उसके लिए
अपने घटने-बढ़ने की प्रक्रिया के कारण प्रकृति का अखंड और निर्विवाद पंचाग रहा है.
संसार के समस्त देशों में सभी धर्मो के धर्म ग्रंथों में प्रत्येक काल में
चन्द्रमा की तिथियों के अनुसार ही धार्मिक विधि रचने का उल्लेख पाया जाता है.
समुद्र में उत्पन्न होने वाले ज्वार-भाटे का मूल कारण चन्द्रमा की स्थिति ही है.
पूर्णिमा का प्रभाव पशु-पक्षियों और धरती में चलने वाले कीड़े मकोड़ों पर ही नहीं
पड़ता बल्कि उन्मादग्रस्त मनुष्यों पर भी पड़ता है. यही नहीं नारियों के मासिक
धर्म और चन्द्रमा के २८ दिवस के चक्र के बीच सीधा संबंध है. इसलिए नारी का इस समय
देवधाम के शुभ कार्य में सहभागी होना पूर्णत: निषेध है. जिसकी स्पष्ट पुष्टि हमारी
सामाजिक परम्परा भी करती है. वह एक अनूठा महत्व है, शंभू मोल्हा का. जो लिंगो-वाणी का ज्योतिर्मय-ज्ञान कराती है. सम्पूर्ण संसार
के कार्य मात्र उर्जा की मदद से ही हो सकती है. बिना उर्जा के कार्य संभव
नहीं हैं और कार्य के बिना जीवन संभव नहीं हैं. हर जीवित कोशिका में अग्नि उर्जा
को उत्पन्न किया जाता है और इसी अग्नि उर्जा से कोशिका अपने जीवन संबंधी कार्य
करता है. मानव शरीर में भी उर्जा पैदा की जाती है. सूर्य-आग-अग्नि, जंगो-माय क्रांति और लिंगो
वाणी-जोत के महत्व ठीक से समझकर ही, शिवम-गवरा-शिवम-होली पर अग्नि पूजा का बृहद आयोजन हमारे प्राचीनतम कोयाजनो ने
तय किया है. तब से फागुन मह उजियारी पक्ष में पूर्णिमा के ही दिन, नए साल के उपलक्ष में
स्वागतोत्सव-बसंतोत्सव-चेतनोत्सव के रूप में, प्रकृतोत्सव संगीतोत्सव रंगोत्सव-आगोत्सव प्रतीकोत्सव के रूप में, अपने अपने गांवों में सभी
गांववासी मिल-जुलकर विधि-विधान के साथ मनाते भी हैं. 'होली-डांड' की स्थापना फागुन अंधियारी बसंत
पंचमी के ही दिन, गांव के पूर्व दिशा पर ही करते हैं. जहाँ पर प्रति दिन फाग गायन भी होता है.
युवक और बालक मिलकर हर घर से लकड़ियाँ भी इकट्ठा भी करते हैं. यह क्रम पूर्णिमा के
पूर्व तक बराबर हर दिन चलता भी है. घड़ी के विपरीत हर दिन होलीडांड की पांच
परिक्रमा भी बराबर करते हैं. तब शिवं गवरा जो हार जो. बणोरी याल फ़ो दाय फ़ो.
बिणोंरियाल फ़ो दाय फ़ो की जय धोष से सारा-वातावरण गुंजायमान होती भी है. पूर्णिमा
के दिन ही संध्या को गांव भुमका ग्राम वासियों के साथ 'होली-डांड' की पूजा करते हैं, चकमक
की चिंगारी से उसे प्रज्वलित भी करते हैं. अंत में सभी पर्व-जय-जय घोष की तरह ही
अब सात परिक्रमा भी करते हैं. फिर रात भर फाग गायन के साथ होली-जागरण भी करते हैं.
स्वर्ण-काल बीत गया स्वर्ण-धूलि रह गयी. दूसरे दिन सुबह स्नानोपरांत राख भस्म माथे
पर लगाते भी हैं और एक दूसरे के माथे पर मलते भी हैं. परसा (पलास) के फूलों से
तैयार किया गया लाली रंग से एक दूसरे को सराबोर करते भी हैं. रंगमय गढ़ते भी हैं.
रंग उड़ेलते भी हैं. इस तरह त्यौहार होली मनाते भी हैं.
मानव जीवन के विकास, संचालन
एवं नियन्त्रण में नाभि की महत्वपूर्ण भूमिका है. माता के पेट में गर्भ धारण से
लेकर नाभि मृत्यु तक नाभी केंद्र सजग-सतर्क व सक्रीय रहता है. माता के गर्भ में सबसे
पहले नवजात शिशु का नाभि केंद्र ही विकशित होता है. गर्भस्थ शिशु में प्राण उर्जा
की सारी विवरण-व्यवस्था नाभि के माध्यम से होती है. नाभि में हमारे प्राणों का
संचय है. यह शरीर की बैटरी है. कुन्डलिनी जागृत कर अन्य चकों का सजग करना हो, उसमे
नाभी स्वस्थता एवं प्रभावशाली भूमिका निर्भर करती है. जिस
प्रकार कमल पानी में रहते हुए भी उससे अपने को अलग रखता है. ठीक उसी प्रकार नाभि
जीवन की अधिकांश शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मिक गतिविधियों
का संचालन होते हुए भी बाहय रूप में अपना कोई संबंध नहीं दर्शाती. लोक कथाओं में
नाभी को कमल की उपमा दी गई है. मन एवं आत्मा की भांति ही नाभी भी एक्सरे अथवा
सोनोग्राफी की पकड़ में नही आती है. इस कारण एलोपैथी वाले नाभी के अस्तित्व को
स्वीकार नही करते. वैज्ञानिक दृष्टीकोण रखना और आंतरिक जगत में प्रवेश करना, करीब-करीब असम्भव-सम्भावना है.
लेकिन शंभू शिष्य पहान्दी पारी कुपार लिंगो दुर्लभ पुष्प है. कुपार लिंगो सबसे बड़े
वैज्ञानिक हैं- अंतर्जगत के. लिंगो वाणी की यात्रा में भीतरी हैं- लांजी-मोडु-नाभि
का. वे ही आरम्भ है और वे ही अंत है. लिंगो प्रश्नोत्तर-नाभि का. शाश्वत प्राकृत
स्वस्तिक प्रकृति दिव्यज्ञान हैं- लिंगो वाणी नाभि का. अध्यात्मिक दार्शनिक
सामाजिक ज्ञान केंद्र है- गोटुल-लांजी-नाभि का. स्वर्ण-युग बीत गया स्वर्ण धूलि रह
गई है- दर्शन कोया लांजी का. उसे ठीक से समझ लें कि वैभव से विवेक जन्म लिया,
विवेक से संस्कृति रह गयी, सजग-सतर्क-सक्रिय-नाभि का. स्वर्ण युग बीत गया स्वर्ण
धूलि रह गई- लांजी-मोड़-नाभि का. शंभू हीरा हो गया. शंभू नाद रह गयी,
लांजी-मोड़-नाभि का. जंगो-लिंगो हो गया, जंगों क्रांति रह गई लांजी-मोड़-नाभि का.
कंकाली पुंगार हो गया, कंकाली सुगंध रह गयी, लांजी-मोड़-नाभि का. लिंगो वाणी हो
गया, लिंगो आग रह गई, लांजी-मोड़-नाभि का. शिवम गवरा हो गया, शिवंगा होली रह गयी,
लांजी मोड्दु-नाभि का. राख भस्म बन गयी, राख रस्म रह गयी, लांजी-मोड्दु-नाभि का.
ठाकुर कोमल सिंह मरई
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