शनिवार, 16 मार्च 2013

शिवमगवरा (शिवंगा)

          शिवमगवरा अर्थात शिवंगा याने होली का त्यौहार सम्पूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है. इस त्यौहार को मनाने के पीछे गोंड समाज का जो तत्वज्ञान है, वह अन्य समाज के लोगों के तत्वज्ञान से बिल्कुल निराला है. यह त्यौहार फागुन माह में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. कोया वंशीय गोंड समाज के लोग इस त्यौहार को अपने-अपने गांवों में सभी मिलकर मनाते हैं. गांव के सडकें पन्द्रह दिन पूर्व से ही हर दिन शाम को "गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया. किस कुंड मानता, निर मिटके किया !! ऐसा गीत गाते हुए घर-घर से लकड़ियाँ जमा करके गांव के बाहर पूर्व दिशा में जहाँ होली जलाई जाती है; ले जाकर जमा करते हैं. जो ढीग होता है उसे 'शिव-गवरा जो हार जो ! बणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! बिणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! ऐसे नारे लगाकर प्रदक्षिणा (परिक्रमा) डालते हैं. इस तरह लकड़ियाँ जमा करने के बाद पूर्णिमा के दिन की संध्या को गांव का भूमक सभी ग्रामवासियों के साथ सार्वजनिक आरती लेकर जाता है. वहां पर एक-दो फिट का गड्ढा खोदकर उसमे कुछ पैसे और लोहे का चुरा डालकर एक ऊँची लकड़ी खड़ी करते हैं. उसे सेंदुर, गुलाल कूं, कूं और चावल डालकर पूजा करते हैं. उस ऊँची लकड़ी के चारों ओर शेष सभी लकड़ियों को खड़ी करते हैं. बाद में चकमक की चिंगारी से उसे जलाया जाता है उस जलते लकड़ियों की होली में एक गुथे हुए आटे की गवारा की मूर्ति बनाकर डालते हैं. फिर सभी लोग "शिवमगवरा ! शिवमगवरा ! शिवमगवरा ! ऐसे जोर जोर से चिल्लाते हुए जलते होली का पांच चक्कर मारते हैं. ठीक उसी वक्त एक मनुष्य शिवाजी का वेशधारी त्रिशूल लेकर वहां आता है. और जलते होली को पांच चक्कर लगता है बाद में एक जलती लकड़ी को लेकर जलने वाली अन्य लकड़ियों के उपर क्रोधित होकर वार करता है बाद में सभी लोग "शिवगवरा जो हार जो ! बिणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! बिणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! ऐसे नारे लगाकर सात परिक्रमा करते हैं. उसके बाद रात भर शिवगवरा संबंधित गीतों की ताल पर नृत्य गान करके जागरण करते हैं.


          दूसरे दिन वे अपने अपने घर लौरते हैं फिर नहा धो कर वे फिर वहां जाकर गाय के गोबर के सूखे हुए गोबरियों को जलाकर उसकी राख अपने मस्तक पर लगाकर उसकी पूजा करते हैं. सभी गांववासी गोबरियों की राख अपने-अपने घर लाकर घर के सभी सदस्यों के मस्तक पर लगातें हैं. फिर बाद में गुलाल और पलास के फूलों से बनाया गया रंग एक दुसरे पर डालकर रंग खेलते हैं. इस तरह यह त्यौहार मनाया जाता है.

          शिवमगवरा अर्थात शिवंगा यह त्यौहार मनाने के पीछे गोंड समाज के लोगों का जो तत्वज्ञान है, वह अन्य समाज के लोगों के तत्वज्ञान से भिन्न है. शिवमगवरा यह गोंडी शब्द शिव+वोम+गवरा इन तीन शब्दों की मेल से बना है. शिव याने शम्भू अर्थात शंकर वोम याने ले जा और गवरा याने पार्वती को. ऐसा शब्द अभीप्रेत हैं. शिवमगवरा इस शब्द का अपभ्रंश रूप शिवंगा यह शब्द आज इस त्यौहार के लिए प्रचलित है. अब हमारे सामने यह सवाल उठता है कि शिवमगवरा ! शिवमगवरा !शिवमगवरा ! ऐसे नारे लगाते हुए गोंड समाज के लोग होली क्यों जलाते हैं. इस संबंध में जो लोक गाथा गोंड समाज में प्रचलित है, वह निम्न प्रकार है.

          गवरा यह दक्ष राजा की कन्या थी. दक्ष प्राचीन काल में एक आर्य राजा और अनार्य में जब अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध शुरू हुआ. अनार्य याने आज के गोंड समाज के पूर्वजों ने जो शिव शम्भू के उपासक थे आर्यों का शिरच्छेद करना आरम्भ कर दिया. वे बहुत ही शक्तिशाली और योद्धा थे. कोय वंशीयों का राजा शम्भू जोग और तंद्री विधा में इतना प्रबल था कि जब तक वह अपनी योग साधना में लीन रहता था तब तक जनता को कोई हरा नहीं पाता था, मार नहीं सकता था. इस बात की जानकारी गुप्तचरों व्दारा जब आर्य राजाओं को मिली, तब उन्होंने अपनी रूपवती कन्याओं को शिवाजी की योग साधना भंग करने के लिए, उसे अपनी मायाजाल में फसाने के लिए भेज दिया. दक्ष राजा की कन्या गवरा यह उन्हीं में से एक थी. परन्तु आर्य राजाओं को तब बहुत जबरदस्त धक्का बैठा जब गवरा शम्भू को अपनी मायाजाल में फसा नहीं पायी, बल्कि वह  स्वंय शिवोपासक बन गयी, जिससे दक्ष राजा को बहुत धक्का लगा. उसने अपने दिल में बदला लेने की ठान ली.

          एक दिन दक्ष राजा अपने घर में महायज्ञ का कार्यक्रम आयोजित किया. जिसमे सभी आर्य राजाओं को बुलाया गया. साथ ही शिवजी को निमंत्रण न देते हुए अपनी कन्या को निमंत्रण दिया. जो शिवजी के लिए अपमान की बात थी. इसलिए उन्होंने पार्वती के साथ जाने से इंकार कर दिया. गवरा अपने पिताजी के घर यज्ञ में भाग लेने के लिए गयी तब उसका सभी आर्य राजाओं के सामने बहुत अपमान किया गया. गवरा जी ने जब उनका विरोध किया तो कहतें हैं- उसके पिताजी ने उसे यज्ञ कुंड में धकेल दिया. यह खबर शिवजी के सेवकों को जो गवारा के साथ यहाँ आये थे, लगी तो वे शिवाजी की शिवमगवरा ! शिवमगवरा !शिवमगवरा ! ऐसा जोर-जोर से चिल्लाते हुए दौड़ पड़े. जब शिवजी को इस बात की खबर मिली तब वे क्रोधित होकर दौड़े चले आये. परन्तु तब तक गवरा जी जलकर राख हो चुकी थी. शिवजी को रहा नहीं गया. उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से आर्य राजाओं के उपर अपनी चिंगारियों को बरसाकर भगा दिया और दक्ष राजा की राजमहल को जला डाला.

          इस तरह दक्ष राजा ने गवरा जी को यज्ञ कुंड में धकेल दिया. वह जलकर राख हो गयी. परन्तु शिवजी ने उसके राजमहल की होली जला दी. उस वक्त वहां राजा जो शिवजी के सेवक थे. उन्होंने "शिवमगवरा जो हार जो ! बिणोंज्याल फ़ो-दाय-फ़ो ! बिणोंज्याल फ़ो दाय फ़ो अर्थात शिव-गवरा का जयकार हो ब्रहमा का सत्यानास हो ! विष्णु का सत्यानास हो ! ऐसे नारे बाजी की थी. इसी घटना को लेकर आज भी गोंड समाज के लोग होली जलातें हैं. अर्थात हर वर्ष दक्ष राजा की महल को जलाते हैं. उसके लिए वे पन्द्रह दिन पहले से ही गवरा के नाम से लकड़ियाँ जमा करते हैं. लकड़ियाँ जमा करते वक्त जो गीत गाया जाता है. वह निम्न प्रकार से है :-

          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          किस कूंडा मानता, निर मिटके किया !!
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          द्च्छीराज मायलोता, निर मिटके किया !!
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          बरमा स्कसाता, निर मिटके किया !!
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          बिसो नारयाना, निर मिटके किया !! 
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          किसकुंढा मानता, निर मिटके किया !!
          गवराना कट्या, सिम्ट उंदी लटिया !
          शिवगवरा मायता, जो हार जो किया !!

          उपरोक्त गीत का जो सार है, वह याने गवरा के नाम से एक लकड़ी दो जिसमे यज्ञ को भंग करने की शक्ति हो, दक्ष राजा की महल को जलाने की क्षमता हो, बरमा बिसो नारया को मार भगाने की शक्ति हो और शिव-गवरा का जय जय कार करने की शक्ति हो.

          इसी तरह होली जलाते वक्त "शिवमगवरा, शिवमगवरा" ऐसे जो नारे लगाये जाते हैं उसका अर्थ है शिव ले जावो गवरा जी को. ऐसा है. क्योंकि जब दक्ष राजा जी के यहाँ गवरा जी का अपमान किया जा रहा था. तब उसके समर्थक शिवजी के ओर "शिवम गवरा सिवम गवरा" ऐसा चिल्लाते हुए दौड़ पड़े थे. होली जलाने के बाद जो "शिवम गवरा जो हार जो ! बणोंज्याल फ़ो दाय फ़ो ! बिणोंज्याल फ़ो दाय फ़ो !" अर्थात शिव गवरा का जय जयकार हो. ब्रहमा का सत्यानास हो विष्णु का सत्यानास हो. ऐसे नारे लगाते जाते हैं. क्योंकि उन्ही के कारण गवरा जी की हत्या की गयी थी. होली के अन्दर जो गवरा जी की मूर्ति डाली जाती है वह इस बात की घोतक है. कि गवरा जी को जबरदस्ती यज्ञकुंड में डाल दिया गया था. या धकेल दीया गया था. गोबरियों को जलाकर राख को मस्तक में लगाने का जो रिवाज है. वह इस बात का घोतक है कि गवरा जी की राख मस्तक में लगाकर वे अपने दुश्मनों को मार भगाने का प्रण करते हैं. होली जलाने के बाद जो त्रिशूलधारी मनुष्य वहां आकर जलते हुए लकड़ियों पर त्रिशुल से वार करता है. वह शिवजी की क्रोधित रूप का साक्षात् दर्शन है जो गवरा जी  के जल जाने के बाद आकर दक्ष राजा के राज महल का होली जलाते हैं. इस तरह होली का त्यौहार मनाने के पीछे गोंड समाज के लोगों का जो तत्वज्ञान है, वह अन्य धार्मिक लोगों से भिन्न है.

          दूसरे दिन रंग गुलाल खेल कर खुशियां इसलिए मनाते हैं कि उस दिन उन्होंने अपने दुश्मनों की राज महलों की होली जला कर उन्हें अपने राज्य के बाहर मार भगाने का कार्य किया था.                         

रविवार, 10 मार्च 2013

देवगढ़ का धुरवा राजघराना

          भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं धार्मिक जीवन की संरचना में यहाँ के मूलनिवासियों का विशेष योगदान रहा है. देश का अतीत गोंडवाना के महाराजाओं की रोचक इतिहास, जय और पराजय से संबंधित अनेक स्मृतियों से आलोकित है. इनकी परम्पराओं में पूर्वजों का अत्यंत विस्तृत इतिहास खोजने से मिलता है. मध्य भारत (Central India) में सैकड़ो साल तक महान प्रतापी गोंड राजाओं ने राज्य किये. उन्होंने अपने शासनकाल में अनेक महलों, किलों, तालाबों और कुओं-बावलियों का निर्माण अपनी अदभुत कला-कृतियों के व्दारा किये परन्तु उनके वंशज अपने पूर्वजों का अमूल्य वैभव बचाकर नहीं रख सके तथा शासन ने उन्हें छीनकर मिटने के लिए छोड़ दिया.

          हरियागढ़ का किला :-  मध्यप्रदेश  के छिंदवाड़ा जिले में जुन्नारदेव से लगभग १०-१५ किलोमीटर की दूरी पर कान्हान नदी के किनारे एक पहाड़ पर स्थित हरियागढ़ धुरवा गोंड राजाओं की राजधानी कभी अपने  महकते सौन्दर्य, लहकते लावण्य और बहकते रूप के कारण प्रसिद्ध रहा है. अपना एक अलग आकर्षण था. गरिमा थी, किन्तु आज उजड़ा बिगडा टीला मात्र रह गया है. जिस पर वृक्षों के समूह दिखाई दे रहे हैं. इसी के पास हीरागढ़ स्टेशन है, जहाँ अभी भी गोंडी युग के बहुत कुछ स्मारक हैं. सम्भवतः हरियागढ़ और हिरदागढ़ एक ही है. लगभग १५०० फुट की ऊंचाई पर स्थित तथा लगभग २६ किलोमीटर के घेरे में फैले हरियागढ़ के इस किले में अभी भी सुरंगें बनी हुई है. किले के सुसज्जित व्दारों के अवशेष अभी भी विधमान है. किले के उपर चंडीमाई, खप्परमाई और काली कंकाली माई का स्थान खंडहर के रूप में अतीत की स्मृतियाँ गर्त में छिपाये खड़ा है. जहाँ पेंच और घाटामाली नदियों का संगम होता है. लोग इसे राजडोह कहते हैं. जहाँ नारयनदेव का पूजा किया जाता है. राजा रानी  के मूर्तियों के पास ही कुछ पुरातन कालीन नक्काशीयुक्त पत्थरों का समूह है, जो गांव के बाहर एक विशाल वट वृक्ष के नीचे पड़े अपने जीर्णोद्धार की प्रतीक्षा कर रहे हैं. ये मूर्तियां हरियागढ़ ही नहीं बल्कि समस्त गोंडवाना पुरातत्व की महत्वपूर्ण अमूल्य निधि है. यहाँ के स्थानीय लोगों का विश्वास है कि राजा रानी की प्रतीक मूर्तियां प्रकृतिक विपदाओं से छुटकारा दिलाती है. इसलिए वे उनकी विधिवत हूम-धूप और पुजवन करते हैं. इस गोंडवाना के स्वर्णिम इतिहास को संजोये मौनभाव से व्यक्त करता हुआ हरियागढ़ का किला हमारी संस्कृति की उत्कृष्टता को आज भी मुखरित कर रहा है.

          देवगढ़ का किला :- हरियागढ़ से लगभग १० किलोमीटर एवं छिंदवाड़ा से दक्षिण पश्चिम दिशा में ४० किलोमीटर दूर पहाड़ी पर देवगढ़ बसा हुआ है. गढ़ के आस-पास पुरानी इमारतें कुंए और बावलियों के खंडहर   दूर-दूर तक आज भी दिखाई देते हैं, जो कमानियों के अतिरिक्त सभी ईंट और चुने से बनी है. बादलमहल, नगारखाना, बड़े-बड़े पत्थर के हौज, अष्टकोनी कमरा, और प्रवेश व्दार आज भी सुरक्षा की प्रतीक्षा में मौन आसू बहा रहे हैं. देवगढ़ के नीचे धुरवा राजाओं की समाधि है. यहीं पर सुप्रसिद्ध महान प्रतापी राजा जाटवा की समाधि है. धुरवा गोंडी शासनकाल में देवगढ़ एक बड़ा और सुंदर नगर था. देवगढ़ एक समय इतनी उन्नति पर था कि उसके समझ गढ़ा मंडला, खेरला और चांदा के निकटवर्ती पडौसी गोंडी राज्य दब गये थे. किन्तु आज देवगढ़ का टूटा किला, महलों के निशान और जाटवा (जटलाशाह) की समाधि का ध्वसावशेष वर्तमान है.

          नागपुर का किला :- देवगढ़ राज्य के टूट जाने पर यहाँ से लगभग ९६ किलोमीटर दूर नाग नदी के किनारे बख्तबुलंद एवं अन्य गोंड राजाओं व्दारा निर्मित नागपूर के किले आज भी अच्छी हालत में गोंडी कलाकृति के मौन व्याख्यान कर रहे हैं. जहाँ के परकोट, बावलियां, कुंए और राजापुर बरसा नाम के बारह मोहल्ले के खड़हरयुक्त अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं.

          हरियागढ़, देवगढ़ और नागपुर के धुरवा राजाओं ने अपने राज्य का संचालन साहस के साथ कुशलतापूर्वक किये हैं. इसमें देवगढ़ अधिक शक्ति सम्पन्न गढ़ था. अत: राज्य का संचालन अधिक समय तक यहीं से हुआ.

देवगढ़ राज्य की स्थापना :-  गढ़ामंडला के मरावी राजघराना कमजोर हो जाने के बाद देवगढ़ में धुरवा गोंड राज्य का उदय हुआ. पनहालगढ़ के निकट भूरदेव का जन्म हुआ. इसके ठीक पैंतीसवी पीढ़ी में शरमशाह हुआ. इस समय यहाँ गौली, ग्वाल (अहीर) लोगों का राज्य था. शरमशाह के पांचवी पीढ़ी के उपरान्त बीरभान शाह हुआ. हरियागढ़ के धनसूर और रनसूर नामक ग्वाल राजाओं ने वीरभान शाह से देवगढ़ छीनकर ७० वर्ष तक राज्य किये. वीरभानशाह के पुत्र जाटवा ने धनसूर और रनसूर को मारकर अपने पुरखों की राज्य छीन लिए. इस प्रकार देवगढ़ राज्य की पुनर्स्थापना हुई. जाटवा ने दशहरे के ही दिन देवगढ़ राज्य को जीता था. इसलिए हमारा समाज इस पर्व को अपनी देवी देवताओं के लिए बली देकर वीरता दिवस के रूप में बड़े उल्लास के साथ मनाता है. जाटवा के शासनकाल से ही देवगढ़ राज्य की ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं. जाटवा के शासनकाल में देवगढ़ की पर्याप्त प्रगति हुई.

          धुरवा राजा जाटवा :- प्रथम (१५७० ई. से १६३४ ई.) :- छिंदवाड़ा से लगभग १० किलोमीटर नरसिंहपुर रोड़ पर राजा खोह नामक गांव में जाटवा का जन्म हुआ था. उसके आठ पुत्र थे. दलशाह (गोरखदास), केशरीशाह, दिनकरशाह, कोकशाह, धीरशाह, पोलशाह, दुर्गशाह और वीरशाह. आपके विषय में आईने अखबारी में अबुलफजल ने लिखा है कि-"खेरला के पूर्व दिशा में एक जमीदार रहता है. जिसका नाम जाटवा है, जो २,००० अश्वारोही,५०,००० हजार पैदल सैनिक और १०० से अधिक हाथियों का स्वामी है. सभी सैनिक गोंड जाति के हैं. इस प्रकार से जाटवा निःसंदेह एक शक्तिशाली राजा है.

           अकबरनामा (अनु. बेवरीज) जिल्द ३ प्र. ६३७ में उल्लेख किया गया है कि- "१६ वी. शताब्दी के अंतिम वर्षों में हरियागढ़ देवगढ़ में जाटवा एक कुशल शासक था."  जबकि १६१६ ई. में जहांगीर की एक आत्मकथा में जाटवा को 'जानवा' कहकर एक बड़ा जमीदार बताया है.

          जाटवा के शासनकाल में देवगढ़ राज्य की सीमा पूर्व में बैनगंगा नदी पश्चिम में वर्धा नदी, उत्तर में छपारा (बैनगंगा) और दक्षिण में चांदा राज्य तक फैली हुई थी. देवगढ़ राज्य की वार्षिक आय लगभग ९,०९,००० (नौ लाख नौ हजार ) थी. निराशी संशोधन मुक्तावली संस्करण ३ पृष्ठ २१४ के अनुसार-जाटवा ने सिक्के भी प्रचलित किये. उसके सिक्कों में "महाराजा" की उपाधि मिलती है. इससे पता चलता है की वह शक्ति और प्रभुत्व सम्पन्न था. जाटवा के व्दारा जारी किये गये दो सिक्के नागपुर संग्रहालय में उपलब्ध है.

          जाटवा के समय देवगढ़ राज्य में १५ प्रमुख गोंड जमीदार थे. इन सब में हर्रई जमीदारी प्रमुख थी. यहाँ के राजवंश के पास ७० पीढ़ियों की वंशावली है. इसी क्षेत्र में "पाताल कोट" है. यह पर्वतों से ३२ किलोमीटर घिरा है. इसमें लगभग १२ गांव बसे हैं. यहाँ राजाखोह नाम की गुफा भी है. 

          सी. यू. विल्स ने जाटवा का शासनकाल १५८० ई. १६२० ई. तक माना है. किन्तु इसके शासन की निश्चित तिथि नहीं मिलती है. अत: उसके समकालीन शासकों की तिथि के आधार पर ही शासन अवधि निर्धारित की जा सकती है. वह गढ़ा के मधुकरशाह के उतराधिकारी प्रेमशाह (१५८६-१६३४) का समकालीन हो सकता है.

          कोकशाह-प्रथम (१६३४-१६४४)- बादशाहनामा जिन्द I, भाग २ पृष्ठ २३०-३३ के अनुसार जाटवा की मृत्यु के बाद पुत्र कोकशाह को कोकसिंह, कुकिया तथा कोकिया भी कहा गया है. इसके शासनकाल में मुगल सेनापति खानदौरान ने नागपुर के किले को उड़ा देने का आदेश दिया. देवगढ़ राज्य के नागपुर किले पर तोफें आग उगलने लगी. ३-४ बुर्ज सुरंग से उड़ा दी गई. अंत में नागपूर का किला मुगलों के अधीन हो गया. उस समय कोकशाह देवगढ़ में थे. यह समाचार सुनकर वह भी नागपुर पहुच गये. मुगल सेनापीति से बात करके उसने १७५ हाथी और डेढ़ लाख रूपया देना स्वीकार कर लिया. इस प्रकार कोकशाह और सेनापति के बीच समझौता हो गया. नागपुर का किला पुनः कोक शाह को मिल गया.

          देवगढ़ राज्य की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. यहाँ के राजा विलासिता और शराबखोरी में डूबे रहने के करण भी राज्य की आर्थिक स्थिती नहीं सुधार पाये. मद्द और बहुविवाहों के कारण धुरवा गोंडी शासन खोखला होता जा रहा था और राजमहल में आपसी स्पर्धा और षड्यंत्र तेजी से चल रहे थे.

          केशरी शाह या जाटवा :- व्दितीय (१६४४-१६६०) मासिर डल उमरा जिल्द २ पृष्ठ ५८७-८८ के अनुसार कोकशाह के बाद पुत्र केशरी शाह देवगढ़ राज्य का उतराधिकारी हुआ. वह मद्यपान और विलांसता में समय व्यतीत  किया. राज्यकार्य में ध्यान नहीं देता था न कोई विकाशील योजना बनाए. इस प्रकार धुरवा राजा केशरीशाह ने देवगढ़ राज्य की उन्नति पर कोई ध्यान नहीं दिया. इसलिए वह समय पर लगान नहीं चुका पाता था. इसके शासनकाल में शहजादा औरंगजेब देवगढ़ पर आक्रमण किया था.

          कोकशाह व्दितीय :- ९१६०-१६८०) राजा केशरीशाह (जाटवा  व्दितीय) के बाद उसका पुत्र कोकशाह देवगढ़ राज्य की गद्दी पर बैठा. उसने २० वर्ष तक राज्य किया. इस समय दिल्ली में औरंगजेब राज्य कर रहा था. अपने ९वे वर्ष के शासनकाल में औरंगजेब ने अपने सेनापति दिलेरखान को कोकशाह व्दितीय के पास लगान की बकाया राशि की  वसूली करने को भेजा था लगान न देने की स्थिति में कोकशाह व्दितीय ने आत्मसमर्पण करके मुगल शासन के प्रति अपनी निष्ठा का परिचय दिया. इस प्रकार दिलेरखान ने १५ लाख रु. वसूल करने में सफलता प्राप्त की.

          सरकार, हिस्ट्री आफ औरंगजेब जिल्द ५. पृष्ठ  न. ५ पादटिप्पणी २ में उल्लेख किया गया है. कि "१६६९ ई. में कोकशाह व्दितीय के व्दारा लगान नहीं चुकाने के कारण दिलेरखान ने पुन: देवगढ़ पर आक्रमण कर दिया. यहाँ का शासन अप्रत्यक्ष रूप से मुगलों व्दारा संचालन होने लगा. कोकशाह ने अपना धर्म छोड़कर स्लाम धर्म अपना लिया और नाम "इस्लाम यारखान" रख लिया. इस प्रकार यह एक कमजोर शासक शाबित हुआ. 

          दींदार या दीनदारशाह :- कोकशाह व्दितीय की १७८० ई. में मृत्यु हो जाने के बाद बख्तबुलंद का भाई दींदार ने देवगढ़ की सत्ता संभाली. यह ६ वर्ष की शासन कर पाया था. की मार्च १६८६ ई. में औरंगजेब ने बख्तबुलंद को देवगढ़ की सत्ता सौप दी. कुछ समय के बाद १६९१ ई. में पुन: दींदार सत्तासीन हुआ और १६९५ ई. तक राज्य किया. राजा बख्तबुलंद-(१६८६-१३९१ई.एवं १६९५-१७०६ ई.) 

          कोकशाह व्दितीय के मरने के बाद उसके पुत्रों में राजगद्दी के लिए झगड़े होने लगे थे. उसके पांच पुत्र और चार भतीजे थे. बख्तबुलंद का असली नाम बख्तशाह था. जब वह देवगढ़ की गद्दी पर बैठा तो उसे दींदार ने हटा दिया. तब बख्तबुलंद औरंगजेब से मदद मांगने दिल्ली गया. औरंगजेब ने मुसलमान धर्म मानने पर मदद का वचन दिया. ऐसी विषम परिस्तिथि में बख्तबुलंद ने खानपान व्यवहार तो मंजूर कर लिया परन्तु बेटी व्यवहार मंजूर नहीं किया.

          औरंगजेब ने उसका नाम बख्तबुलंद रखा और समझौते से अनुसार देवगढ़ का राजा (१६८६-१६९१) बना दिया.

          गढ़ा राज्य में नरेंद्रशाह (१६८७-१७३१ई.) राज्य कर रहा था. इस समय देवगढ़ में बख्तबुलंद का शासन था. बख्तबुलंद देवगढ़ राज्य के इतिहास का सबसे प्रबल शासक था. इसी समय नरेंद्रशाह ने अपनी बड़ी बहन मानकुंवरी का विवाह बख्तबुलंद से करके दोनों राज्यों के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध और भी सुदृढ़ कर दिए. 

          राजा बख्तबुलंद के शासन काल में कृषि व्यपार और कारीगरी में विशेष उनति हुई. योगेन्द्रनाथ शील मध्यप्रदेश और बरार के इतिहास पृष्ठ  ११७-१८ में लिखते हैं कि- इस गोंडवाने राज्य में बसने के लिए लोग लालायित हुए. इस राजा ने मराठों को शरण दिया.

          उसने चांदा और मंडला राज्य का बहुत सा भाग अपने राज्य में मिला लिया था. मंडला के राजा जिसकी राजधानी चौरागढ़ में थी सिवनी, कटंगी, छपरा और ड़ोंगताल छीन लिया था. इस पर रामसिंह जो मंडला के राजा के संबंधी थे को राज्य करने का अधिकार दे दिया. रामसिंह ने अपना सदर मुकाम छपरा को बनाया था. उन्होंने यहाँ एक दुर्ग बनवाया था जिसके खंडहर आज भी विधमान है.

          राजा बख्तबुलंद ने देवगढ़ राज्य का खूब विस्तार किया. उसके राज्य में नागपुर, सिवनी, (डोंगरताल) भंडारा (प्रतापगढ़), होशंगाबाद (सोहागपुर) और बालाघाट जिले के अधिकांश भाग एवं छिंदवाड़ा और बैतूल वर्तमान जिले सामिल थे.

          जून १६९१ ई. में औरंगजेब ने बख्तबुलंद को बंदी बनाकर दींदार को सत्ता सौप दिया. दींदार ने १६९५ ई. तक राज्य किया. इसके बाद पुन: (१६९५-१७०६ई. ) बख्तबुलंद ने राज्य किया. उसने देवगढ़ में कई सुंदर इमारतें बनवाई. भंडारा जिले के प्रतापगढ़, नागपुर जिले के भिवगढ़ भिवपुर, जलालखेड़ा, पार सिवनी, पाटन सावंगी, सावनेर, बालाघाट जिले के लांजी, सोनहार, हट्टा तथा देवगढ़ के समीप सौंसर में किले बनवाए नागपुर और पाटन सावंगी नगर बसाए.

          बख्तबुलंद के पांच पुत्र थे. चाँदसुल्तान, महिपतशाह और युशुफ शाह नाम के तीन पुत्रों ने विवाहित  गोंडरानी से जन्म लिया था. शेष दो पुत्र अली से बलीशाह मुसलमान स्त्रियों से पैदा हुए थे. इसके वंशज आज भी नागपुर में निवास कर रहें हैं.

          अपने पूर्ववर्ती शासकों की तुलना में बख्तबुलंद अधिक योग्य और श्रेष्ठ शासक था. उसने अपनी भुजाओं के बल पर देवगढ़ के राज्य का विस्तार किया, जिस तरह गढ़ा राज्य का विस्तार संग्रामशाह ने किया था.

          कड़ा नागपुर सेटलमेंट रिपोर्ट कडिका २० के अनुसार "उसके शासनकाल में प्रदेश की वास्तविक उन्नति हुई. बख्तबुलंद शाह का स्वर्गवास १७०६ में हुआ."

        चांदसुल्तान :- (१७०६-१७३९ई.) देवगढ़ राज्य के अधिक शक्तिशाली राजा बख्तबुलंद के बाद उसके पुत्र चाँदसुल्तान राज गद्दी पर बैठा. इसका संबंध दिल्ली से था. चाँदसुल्तान ने अपनी राज्य की अवनती को देखकर देवगढ़ राजधानी हटाकर नागपुर में स्थापित कर लिया. चाँदसुल्तान ने नागपुर के चारों ओर पांच किलोमीटर का परकोट बनवाया इसके शासनकाल के दस्तावेज नागपुर के राज्य परिवार के पास है. जिसमे आमनेर और मनसबदारी जागीरदारी का उल्लेख है.

          भण्डारा और नागपुर के भू-भाग पर चाँदसुल्तान का अधिपत्य था. इसी समय बरार में भोसले अपने पैर जमा चुके थे. बरार भी देवगढ़ के सीमा से लगा हुआ था. इसके शासन काल में राज्य की आय ११,३८,२३३ रूपये थे. राज्य अनेक भागों में बटा हुआ था. परगने के मुख्या ठाकुर कहलाता था. ठाकुर के अधीन गांवों में पटेल कार्य करते थे. इस राजा का स्वर्गवास १७३९ ई. में हुआ. इसके बाद भाई बलिशाह ने (१७३९-१७४६ई.) में देवगढ़ के तख्त पर अपना कब्जा कर लिया. बलिशाह चाँदसुल्तान का अवैध पुत्र था चाँदसुल्तान की विधवा रानी रतनकुंवर के दो पुत्र थे बुढानशाह और अकबरशाह. रानी ने नागपुर के रघु से अपने पुत्रों की अधिकार की रक्षा के लिए अनुरोध किया. छिंदवाड़ा जिला गजेटियर १९०७ पृष्ठ ३० के अनुसार विधवा रानी के अनुरोध स्वीकार करते हुए रघु ने बलीशाह को पद मुक्त कर दोनों पुत्र बुढानशाह और अकबरशाह की (१७४०-१७४३) संयुक्त शासन करने हेतु देवगढ़ राज्य की गद्दी सौप दी इस कार्य के लिए रघु को  बहुत सा धन इनाम के रूप में दिया गया. कुछ दिन बाद दोनों भाइयों में मतभेद हो गया. बुढानशाह ने रघु की और अकबरशाह ने निजाम की मदद ली. रघु के लोगों ने धोखे से अखबरशाह को विष देकर मार डाले. बुढानशाह नाम मात्र का उतराधिकारी घोषित किया गया. इसी ख़ुशी में बुढानशाह रघु को अपने राज्य का आधा हिस्सा दे दिया. इस प्रकार वास्तविक अधिकार रघुजी भोसले के हाथ में आ गया. बुढानशाह एक कटपुतली की तरह राज्य करते रहे जिसे रघू मनमानी ढंग से नचाता रहा. इस तरह १७४३ ई. में देवगढ़ रघुजी भोसला राज्य का एक अंग बन गया कुछ समय बाद राज्य के आधा भाग को भी रघु को सौपकर स्वयं किले में रहने लगा देवगढ़ के धुरवा राज घराना शासन सत्ता समाप्त हो गया.
                                                                                                              गोंडवाना दर्शन