बुधवार, 23 जनवरी 2013

गोंडवाना का सेवा सेवा जय सेवा महामंत्र

यही प्रकृति शक्ति है, यही मातृशक्ति है,
यही परिवार सेवा है, यही जन सेवा है,
यही समाज सेवा है, यही संसार सेवा है.
यह छोटे और बड़े, स्त्री और पुरुष
सभी में नीहित है. भूख में, प्यास में,
बस सेवा ही सेवा है. 
           "सेवा" कोयतूर का धर्म है, सेवा कोयतूर का नैतिक आचरण है, सेवा कोयतूर का सत्कर्म है, सेवा कोयतूरों का महामंत्र है. सेवा शब्द के अर्थ को लेकर अनेक व्यक्तियों में अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है. कुछ लोग इसे शिव या शिवा का परिवर्तित रूप मानते हैं. कुछ लोग उच्च वर्ग के हित में निम्न वर्ग द्वारा किया गया कार्य या त्याग को सेवा मानते हैं. कुछ लोग मंदिर में मूर्ती को नियमित जल, फूल इत्यादि चढ़ाने को सेवा मानते हैं. मेरे ख़याल से ये सभी धारणा कोयापुनेमी "सेवा" धारणा से भिन्न है. कोयापुनेम का महामंत्र/मूलमंत्र सेवा है, जो मानवता और मानवीय संबंधों की शाश्वत रक्षा के लिए आदि गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो द्वारा कोया वंशियों को दिया गया है. कुपार लिंगो द्वारा सेवा के अंतर्गत निम्नलिखित की सेवा का विधान है :-

१-     जन्मदाताओं की सेवा 


          प्रत्येक जीव को इस सृष्टि का प्रथम दर्शन कराने वाली दो महाशक्तियां हैं. वे हैं सल्लां और गांगरा शक्ति के धारक माता और पिता. जिन माता पिताओं के प्रति हमारा रोम-रोम चिर है. हमारा तन-मन और बुद्धि उन्ही की दी हुई है. हमारे पास आज जो कुछ भी है, उन्ही की कृपा से है. जब हम पैदा हुए तो असहाय थे, न तो चल फिर सकते थे, न भोजन प्राप्त कर सकते थे, न ही अपनी रक्षा कर पाते थे. उस समय माता पिता ने ही स्वयं कष्ट उठाकर भी पैदा होते ही हमारी सेवा किये. उस समय यदि माता पिता की सेवा नहीं मिलती तो हम जीवित नहीं रह पाते. उन्होंने हमें नहलाये, धुलाये, मल-मूत्र साफ़ किये, स्तनपान कराये. इसलिए माता-पिता के प्रति हमारा भी कर्तव्य बनता है की जब वे वृद्ध हो जावें तो हम उनकी पूर्ण सृद्धा और भक्ति से निस्वार्थभाव से तन, मन और धन से सेवा करें. जन्मदाताओं की सेवा ही सल्लां गांगरा की सेवा और सजोरपेन की पूजा है. जिसने माता पिता के महत्व को नहीं जाना, वह सजोरपेन को नहीं पहचाना. माता पिता को छोड़कर मंदिरों में मूर्ती पूजा किया, तीर्थों में घूम-घूम कर स्नान किया, वह व्यर्थ ही अपने जीवन के बहुमूल्य समय बर्बाद किया. कोयापुनेम में जन्मदाताओं की सेवा को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई है. महिलाओं के लिए सास-ससुर की सेवा सर्वोपरी है. जिस कुल में महिलाएँ विवाह करके लाई जाती हैं, उस कुल के वृद्धजन उनके लिए पूज्यनीय होते हैं.


२-     संतान सेवा 


          युवा स्त्री-पुरुषों के विवाहोपरांत संतान की उत्पत्ति होती है. उनकी सेवा सुश्रुषा का पूर्ण दायित्व उनके माता पिता का होता है. यदि माता पिता अपने बच्चों की ठीक ढंग से सेवा एवं परवरिश करेंगे तो वे भविष्य में होनहार, योग्य नागरिक बनेंगे. बलिष्ट एवं विवेकशील बनेंगे, सत्चरित्र बनेंगे. उनमे सुसंस्कार का समावेश होगा. अधिकांश पढ़े-लिखे सभ्य  कहलाने वाले व्यक्ति अपने बच्चों की सेवा स्वयं न करके किसी नौकर नौकरानियों से सेवा व परवरिश कराते हैं. अधिकांश शहरी माताएं अपने स्तन का दूध अपने बच्चों को नहीं पिलाती और बाजार से दूध खरीद कर पिलाती हैं. वे सोचती हैं कि स्तनपान कराने से उनकी सुन्दरता नष्ट हो जाएगी. परिणामस्वरूप उनकी संतान सुसंस्कारित नहीं हो पाते. अस्वस्थ, कमजोर, विवेकहीन, शीलगुणहीन होते हैं. इसलिए कोयापुनेम में अपनी संतान की सेवा सुश्रुषा स्वयं करने का विधान है.


३-     सगा सेवा


          गोंडी धर्म में सम और विषम गोत्र धारक आपस में एक-दूसरे के सगाजन कहलाते हैं. इन्ही सगाजनों के बीच आपस में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं. गोंडों में सभी धार्मिक और सामाजिक कार्य सगाजनों द्वारा संपन्न कराये जाने का विधान है. समाज में विवाह संस्कार, मृत्यु संस्कार या अन्य कोई भी देव पूजन कार्यों में ब्राम्हण, नाई, धोबी आदि से कोई भी कार्य नहीं कराये जाते. ये सभी कार्य सगाजनों द्वारा ही संपादित किये जाते हैं. इसलिए सगाजनों के बीच सामंजस्य और सेवा भाव आवश्यक है. सम और विषम गोत्रीय सगाजन आपस में एक दूसरे के पूज्यनीय होते हैं. उन्हें एक दूसरे की सेवा करनी चाहिए. जब भी जरूरत पड़े, सगाजन आपस में सेवा एवं सहयोग करके समस्त गोंडवाना समाज का कल्याण कर सकते हैं. इस प्रकार की सगा सामाजिक व्यवस्था विश्व के किसी भी धर्म में नहीं हैं. 


४-     दीन दुखियों की सेवा 


          गोंड समाज में कुछ धनी लोग हैं और अधिकांश निर्धन है. बहुतों की स्थिति तो और भी विकट है. उन्हें जिंदा रहने के लिए मुश्किल से आहार मिल पाता है. बीमार होने पर ईलाज नहीं करा पाते. शरीर ढकने के लिए पर्याप्त वस्त्र उपलब्ध नहीं हो पाते. रहने के लिए टूटी फूटी घास पूस की झोपड़ी होती है. इसी में किसी तरह धूप, सर्दी और वर्षा से अपनी जान बचाते हैं. ऐसे व्यक्ति विवाह या मृत्यु संस्कार के अवसर पर या बीमारी पड़ने पर मजबूर हो जाते हैं. अर्थाभाव के कारण ये अपनी रही सही जमीन बर्तन आदि भी बेच डालते हैं. समाज के धनी लोगों का कर्तव्य बन जाता है की वे ऐसे निर्धनों की वक्त आने पर यथासंभव सेवा करे एक व्यक्ति न करे तो समाज के व्यक्ति  चंदा करके उसे कष्ट से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए. दीन दुखियों की सेवा निःस्वार्थ भाव से होनी चाहिए ये भी हमारे समाज रूपी शरीर के अंग  हैं. शरीर का एक अंग विकारग्रस्त हो जाने पर पूरा शरीर अस्वस्थ्य हो जाता है. शरीर की कुशलता के लिए सभी अंगो का स्वास्थ्य होना आवश्यक है. इसी प्रकार समाज में सभी का विकास एक साथ होना आवश्यक है.


५ -     धरती की सेवा


            धरती से अनाज पैदा करना, वृक्ष लगाकर फल प्राप्त करना, धरती को खाध डालकर उपजाऊ बनाना ही धरती की सेवा है. गोंडीयनों का मुख्य व्यवसाय कृषि है. कृषि कार्य करना सच्चे मर्द की पहचान समझा जाता है. कृषि कार्य में हिम्मत और मेहनत की जरूरत होती है. भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, बरसात, थकान सभी को सहन करके गोंड धरती की सेवा करता है. पसीना बहाता हुआ सुख की आशा में अथक परिश्रम करता है. अन्न उपजाता है और विश्व का भरण पोषण करता है. आजकल अधिकांश लोग पढ़े लिखे होने के बाद कृषि कार्य नहीं करना चाहते. नौकरी की तलाश में समय बरबाद करते हैं. जो व्यक्ति अपने आपको कृषि के काबिल नही समझते वह मर्द कहलाने योग्य नहीं हैं. धरती माता की सेवा जो व्यक्ति सही लगन से करता है वह कभी भूख से नहीं मरता और कभी भीख नहीं मांगता. धरती माता की गोद में जितने जितने वृक्ष उगाएंगें. वह उससे कई गुनी अधिक फल प्रदान करता है. बड़े बड़े कारखाने स्थापित करने से, गोला बारूद बनाने से धरती की सेवा नहीं होती है. बल्कि धरती की हरियाली नष्ट होती है. धरती की सेवा करने के लिए अधिक से अधिक अनाज पैदा करें. फलदार वृक्ष लगायें. समाज कल्याण के लिए सेवा भाव प्रत्येक कोया जनों में होना चाहिए. एक पवित्र कार्य समझकर उसे करना चाहिये. जिस प्रकार दो सिक्ख आपस में अभिवादन करते समय "सत श्री अकाल " शब्द का प्रयोग करते हैं, मुसलमान अस्सलाम वालेकुम करते हैं, ईसाई गुडमार्निंग कहतें हैं, हिन्दू जयराम जी की कहते हैं. इसी प्रकार हम गोंडी धर्मी लोग अभिवादन करते समय "जय सेवा" कहते रहें. आदि गुरु व्दारा बताया गया यह सेवा मंत्र कोया समाज का मूल मंत्र है. हमे इस मंत्र का जाप श्रृद्धा एवं भक्ति के साथ करना चाहिए इससे हमे आत्म शक्ति एवं प्रेरणा की प्राप्ति होती.
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शनिवार, 19 जनवरी 2013

गोंडी धर्म और विश्व शान्ति

                 मानव जीवन को सौम्य और सुसंस्कृत बनाने वाले जीवन मार्ग को ही धर्म कहते हैं. आज विश्व में अनगिनत धर्म, पंथ विकसित हो गए हैं जो अपने आप को अलग और श्रेष्ठ धर्म की संज्ञा से विभूषित करते हैं. हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, यहूदी आदि धर्म अपने आप को श्रेष्ठ बताकर वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं. इन धर्मों के अपने अपने ग्रन्थ हैं और ये ग्रन्थ मानव रचित हैं. इन ग्रंथों में मनुष्य के विचार और कल्पनाओं के संग्रह हैं. अलग-अलग धर्मग्रंथ अलग-अलग मनुष्यों के विचार और उनकी कल्पनाओं को व्यक्त करते हैं. प्रत्येक मनुष्यों के विचार और कल्पनाएँ अलग-अलग होती हैं. एक व्यक्ति की कल्पनाएँ अन्य व्यक्तियों को पसंद नहीं आती. इसलिए धर्मावलंबियों में मतभेद है. विश्व के जितने भी धर्म कल्पना पर आधारित हैं वे सभी बल पूर्वक या छलपूर्वक लादे गए हैं. ये  धर्मावलम्बी यह जानते हुए भी कि अमुक मान्यता कपोल कल्पित है, फिर भी भयवश अंधानुकरण करते चले जाते हैं. इन धर्मों के ठेकेदारों ने स्वर्ग-नरक का भय बताकर धर्म के पक्ष-विपक्ष में तर्क करने की योजना को ही निरस्त कर दिया है और उन खोखले धर्मों के पक्ष में आँख बंद करके गुणगान करने का ही मार्ग प्रशस्त किया है. आखिर वे अपने धर्म की आलोचना से इतने घबराते क्यों हैं कि आलोचना करने वालों के लिए तलवार लेकर उठ खड़े हो जाते हैं ! जबकि शाश्वत सत्य पर तो आलोचना का प्रभाव ही नहीं पड़ता. शाश्वत सत्य धर्म वही है, जो निर्विवाद हो और निर्विवाद केवल प्रकृति ही है.


          प्राचीन काल के अनार्यों ने आर्यों के यज्ञविधान (अन्न जारण प्रथा) का विरोध किया सो आर्यों ने अनार्यों के संस्कृति और वैभव को मिटा देने का संकल्प लिया. इसी तारतम्य में बौद्धों की भी बड़ी तादात में हत्या किये. इसी प्रकार ईसाई और इस्लाम में भी धर्म को लेकर मारकाट, हत्याएं होती रहती है. जिस धर्म के नाम पर एक मानव दूसरे मानव के रक्त का प्यासा हो वह धर्म नहीं है. ऐसी धर्म की उपस्थिति में विश्व शान्ति स्थिति नहीं बन सकती. संकीर्ण विचारधारा को धर्म का नाम देकर विश्व शान्ति की दुहाई देना निरा मूर्खता है. आज सभी सुसंस्कृत कहे जाने वाले अधिकांश विधर्मी कुत्ते, बिल्लियों को तो बिस्तर में सुलाते हैं. अपनी थाली में खाना खिलते हैं और अन्य वर्गों के मनुष्यों की छाया को स्पर्श करने से भी परहेज करते हैं. उनका स्पर्श किया हुआ भोजन त्याज्य है, परन्तु उन्ही का कमाया हुआ अनाज त्याज्य नहीं है. सबसे आश्चर्य की बात यह है कि जिस वर्ग के मनुष्य को छूना पाप समझते हैं, उसी वर्ग की महिलाओं से बलात्कार करना त्याज्य नहीं है.


          हिन्दू धर्म ग्रंथों में लिखा है कि उनके धर्म के विषय में सन्देश करना पाप है. ऐसा करने वाला अंत में नरक में जाता है. वहाँ उन्हें अनेक यातनाएं दी जाती है. इस धर्म को मानने वाला स्वर्ग जाता है. वहाँ उसे देवी देवताओं के सामान सुख मिलता है. सच तो यह है कि हिन्दू ग्रंथों में जो स्वर्ग नरक की बात लिखी गई है, वह कोरी कल्पना है. वर्तमान युग में अन्तरिक्ष के विभिन्न ग्रह-उपग्रहों की जानकारी प्राप्त कर ली गई है परन्तु स्वर्ग और नरक नामक ग्रहों का कहीं भी पता नहीं है. हिन्दू ग्रंथों में आर्यों और अनार्यों के युद्ध का वर्णन अनार्य राजाओं की हत्या, उनकी संस्कृति का विध्वंश, यज्ञ विधान (अन्न जारण प्रथा) का प्रचार, नायक नाईकाओं का मिलन एवं विरह आदि का ही वर्णन है, इनके सिवा कुछ भी नहीं है. फिर भी बहकावे में आकर भयवश लोग उन्ही को धर्मग्रंथ समझकर पूजते हैं. आज तक लोगों को उस धर्म से क्या मिला है ? भेदभाव, तिरस्कार, साम्प्रदाईकता, गरीबी बस.


          आज विश्व स्तर पर सर्वत्र अशांति है. सभी जगह युद्ध की आशंकाएं  हर समय बनी रहती है. अधिकांश युद्ध, मार-काट और मतभेद धर्म के नाम पर ही होते हैं. धार्मिक मतभेद और युद्ध संकीर्ण मान्यताओं के कारण होते हैं. आज विश्व में जितने छोटे-बड़े सम्प्रदाय हैं, उनकी मान्यताएं एक-दूसरे  से नहीं मिलती. इसलिए वे सर्वमान्य एवं सार्वभौमिक नहीं हो सकते. जब तक एक सर्वमान्य और सार्वभौमिक धर्म अस्तित्व में नहीं होगा और उससे सब लोग परिचित होकर उसकी मान्यताओं को आत्मसात नहीं करेंगे तब तक विश्व शान्ति स्थापित नहीं हो सकती. एक सर्वमान्य एवं सार्वभौमिक धर्म का निर्माण करना आज मनुष्य के बूते की बाहर की बात है, क्योंकि सभी मनुष्यों के विचार अलग-अलग होते हैं. इस प्रकार का धर्म विश्व में एक ही है जो सर्वमान्य एवं सार्वभौम को कायम रख सकता है. वह है "कोया पूनम". इस धर्म के सभी नीति नियम और मान्यताएं मानव निर्मित नहीं हैं, वरण प्रकृति पर आधारित है. प्रकृति के नियम क्षेत्रीयता, जातीयता, साम्प्रदायिकता आदि संकीर्णताओं से मुक्त एक सार्वभौमिक नियम है. वर्षा, ठण्ड, धूप सभी मनुष्यों पर सामान रूप से प्रभाव डालते हैं. वे किसी धर्म या जाति के लिए नहीं होते. इसी प्रकार प्रकृति के समस्त गतिविधियों का प्रभाव समस्त चर-अचर, जड़-चेतन प्राणियों पर पड़ता है. हम सब उसी प्रकृति के अवयव हैं. प्राकृतिक तत्वों से हमारा शरीर निर्मित है. इसलिए हम इस प्रकृति के एक ही नियम से संचालित हो सकते हैं.


          यदि प्रकृति के इन नियमों को विश्व में सर्वत्र अनुकरण करें तो राष्ट्रों को सुरक्षा सम्बन्धी हथियारों का बजट समाप्त कर देना पड़ेगा, क्योंकि सभी सत्य ज्ञान संपन्न होकर एक दूसरे का सहयोग और सेवा करेंगे तथा वैमनष्यता समाप्त हो जाएगी. ईर्ष्या, द्वेष, युद्ध विध्वंश, साम्प्रदायिकता आदि शब्द लुप्त हो जायेंगे. जिस प्रकार आकाशीय पिंड अपने अपने परिपथ में घुमते हुए आपस में नहीं टकराते. इसी प्रकार हम भी सही रास्ते पर चलते हुए आपस में नहीं टकरायेंगे तब विश्व में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित हो सकती है. यदि विश्व के सभी देश अपने अपने संकीर्ण साम्प्रदायिकता के दायरे में रहकर विश्व शान्ति की बातें करते हैं तो वे अरण्य रोदन के शिवा कुछ नहीं कर रहे हैं. कोया पूनम की मान्यताओं से विश्व में झगड़े फसाद आपसी टकराव समाप्त हो सकते हैं और एक सौहाद्रपूर्ण वातावरण का निर्माण हो सकता है.

           आज कोयाजनों के प्राकृतिक शक्तियों का अमूल्य धरोहर है जिसका वे उपयोग करना नहीं जानते. यदि वे इनका उपयोग शुरू कर दें तो विश्व के सभी धर्म और सम्प्रदाय उनके सामने घुटने टेक देंगें. कुछ आर्य धर्मियों का विचार है कि वे यज्ञ हवन इसलिए करते हैं क्योंकि इसके द्वारा वे विश्व शांति की कमाना करते हैं. पर्यावरण में सुधार होगा, परन्तु गौर कीजिये कि एक गरीब जो रात दिन लंगोटी लगाकर ठण्ड और धूप को  सहन करके पसीने बहाकर मेहनत से अन्न पैदा करता है, उस गाढ़ी कमाई को आग के हवाले कर देने से क्या विश्व में शांति आ सकती है ? कदापि नही. उन अन्न जलाने वालों को क्या मालूम कि भूख की तड़फ क्या होती है. भूख से हमारे गरीब  भाइयों का किस तरह विकास अवरुद्ध होता है. देश में गरीबी का सबसे मुख्य कारण आर्यों का यज्ञ प्रथा ही है. हिंदु धर्म के लोग गरीबी से वाकिफ नही हैं, क्योंकि इन्हें तो मुप्त में खाने को मिल जाता है. वे भीख मांग लेने का धंधा भी कर लेते हैं. हमारे समाज में इस प्रकार की घृणित प्रथा नहीं है. हम तो बिना मेहनत के खाना सीखा ही नहीं हैं. यह अधर्म का काम है. जो लोग जीवन संघर्ष में टिक नही पाते वे या तो साधू सन्यासी बनने का ढोंग रचाते हैं या भीख मांगने का कायराना हरकत करते फिरते हैं. गोंड कभी भीख नहीं मांगता क्योंकि वह कायर नहीं है. वह तो जीवन संघर्ष में मरते दम तक पसीने बहाकर अन्न पैदा करता है और सभी जीवों का उदर पोषण करता है. यदि देश को समृद्ध और विकसित बनाना है तो गोंडी धर्म के सिद्धांतों का आत्मसात करना होगा. देश धन धान्य से सम्पन्न होगा. कोई भूखा नहीं रहेगा तो चोरी डकेती लड़ाई-झगड़ा सब शांत हो जायेंगें. यदि हमे विश्व में वर्ग विहीन, जाति विहीन स्वस्थ्य समाज की स्थापना करनी है तो हमें "कोया पुनेम" (गोंडी धर्म) के आदर्शों का अनुकरण करना पड़ेगा. हमें विधर्मियों के लच्छेदार बातों में कदापि नहीं आना है. स्वविवेक का सहारा लीजिए. सत्य ज्ञान और सत्यमार्ग का अनुसरण कीजिये. निश्चित ही निकट भविष्य में इसके लाभ आपके जीवन में परिलक्षित होंगें. गोंडी धर्म के पवित्र आदर्शों का प्रचार प्रसार कीजिये और विश्व शांति के निर्माण में अपना अपूर्व योगदान दीजिये.
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गुरुवार, 17 जनवरी 2013

फड़ापेन शक्ति उपासना

          कोया वंशीय गोंड सगा समाज के लोग फड़ापेन शक्ति
सल्लां गांगरा (फड़ापेन) का प्रतीक
की उपासना करते हैं. गोंडी धर्म तत्वज्ञान के अनुसार सम्पूर्ण संसार की सर्वोच्च शक्ति फड़ापेन को ही माना गया है. फड़ापेन शब्द का अर्थ है- परम शक्ति या सर्वोच्च शक्ति. फड़ा याने परम/सर्वोच्च तथा पेन याने शक्ति होता है. इस प्रकार फड़ापेन याने संसार की सर्वोच्च शक्ति जिसे सल्लां और गांगरा यह दो पूना-ऊना (धन-ऋण) गुणतत्व कहा जाता है. सल्लां आस तत्व का और गांगरा चक्र तत्व का, सल्लां नर सत्व का और गांगरा मादा सत्व का ध्योतक है. यही दो गुण तत्वों की क्रिया प्रतिक्रया से सम्पूर्ण संसार चक्र चलता है.


    गोंड समाज के लोग फड़ापेन के रूप में जिन सल्लां और गांगरा प्रतीकों की उपासना करते हैं, उनमे सल्लां का प्रतीक लम्बाकार और गांगरा का प्रतीक चक्राकार होता है. चक्र में १२  गांगरा होते हैं. बारह गांगरा सम्पूर्ण विश्व मंडलीय ग्रहों के और गोंड सगा समाज के १२ सगाओं के ध्योतक है. उसी प्रकार सल्लां तत्व का लम्बाकार प्रतीक आस तत्व का द्योतक है. जिस प्रकार पुकराल का हर ग्रह अपनी अपनी कक्ष में अपने अपने सल्लां रूपी आस तत्व के आधार से परिक्रमा करते हैं और एक दूसरे से अपनी गुरुत्वाकर्षण सल्लां शक्ति के बल पर जुड़ा करते हैं, ठीक उसी प्रकार गोंड समाज के बारह सगाओं के लोग अपने सगा कक्ष में बंधू भाव से रहते हैं और विषम सगाओं के लोगों से अपना पारी (वैवाहिक) सम्बन्ध स्थापित करते हैं. गोंडी तत्वज्ञान के अनुसार फड़ापेन शक्ति की उपासना याने सम्पूर्ण सगा समाज की उपासना माना जाता है.

       फड़ापेन शक्ति के सल्लां और गांगरा यह दो परस्पर विरोधी परन्तु एक दूसरे के पूरक पूना-ऊना (धन-ऋण) गुण तत्वों की क्रिया प्रतिक्रया से ही प्रकृति में एकरूपता और नियमबद्धता बनी रहती है. गोंडी धर्म तत्वज्ञान की मान्यता के अनुसार जिस जगत में हम रहते हैं, अनेक प्रकार के व्यवहार करते हैं, जिनका पञ्चज्ञानेन्द्रियों से अनुभव लेते हैं, वह जगत सत्य है. यह जड़ जगत मायाभास नहीं है. मनुष्य को जैसा अनुभव होता है, वैसा ही उसका स्वरुप है. प्रकृति का व्यवहार सूत्रबद्ध, नियमबद्ध रूप से चलता है. इसका कारण फड़ापेन शक्ति की सल्ला और गांगरा परस्पर विरोधी परन्तु एक दुसरे के पूरक पूना-ऊना गुण तत्वों की आपसी क्रिया प्रतिक्रया और उनका कार्यकारण सम्बन्ध है. यह घटना घटित करना या रोकना किसी के भी हाथ में नहीं है. नीयति या प्राकृतिक शक्ति जिसे हम फड़ापेन मानते हैं, सभी प्राकृतिक व्यवहारों का नियंत्रण करती है. उसी को ही धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो ने संसार की सर्वोच्च प्रजनन शक्ति माना है.

          गोंडी धर्म तत्वज्ञान के अनुसार प्रकृति सत्य है. वह पहले भी थी और आगे भी रहेगी. सत्य का स्वरूप स्वयं सिद्ध है. भौतिक जगत का ज्ञान, ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव पर ही होता है. ज्ञानेन्द्रियाँ ही यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं. अपने पञ्चज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्रत्यक्ष जगत का ज्ञान प्राप्त करके अपनी बौद्धिक शक्ति के आधार पर उसका अर्थ लगाकर उस प्रकार वर्ताव या व्यवहार करना बुद्धीमान का कर्तव्य है. बौद्धिक ज्ञान शक्ति से ही प्रकृति के तत्वों का और नियमों का ज्ञान मनुष्य को होता है. प्रकृति के तत्वों का ज्ञान, उपासना याने फड़ापेन शक्ति के सल्लां और गांगरा गुणतत्वों से निर्माण होने वाले जीव जगत, पशु-पक्षी और पनास्पति की उपासना करना है. अर्थात प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति की उपासना करना है. प्रकृति की सर्वोच्च ज्ञान शक्ति की उपासना करना याने मनुष्य के दिल में सभी जीव सत्वों के प्रति सेवा भाव जागृत करना है. यही सेवा भाव ज्ञान अनुभव को गोंडी धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो ने "सुर्वय पेंतोल" (सर्वोच्च आनंद) की अवस्था माना है. इस अवस्था में मनुष्य के दिल में सगाजन सेवा भाव, प्राणी सेवा भाव और निर्जीव सत्वों का सेवा भाव जागृत होता है. उसी से उसको सर्वोच्च आनंद की अनुभूति होती है, क्योंकि सगाजन सेवा भाव में ही स्वयं का कल्याण साध्य होता है. वह जय सेवा गोंडी धर्म मन्त्र का अधिष्ठाता बन जाता है. यही फड़ापेन शक्ति उपासना का तात्विक स्वरुप है.

         इस प्रकार की जो उच्च कोटि की फड़ापेन ज्ञान उपासना है, वही प्रकृति के सत्वों से अर्थात गुण सत्वों से निर्माण होने वाले जीव जगत के प्रति सेवा भावना है. एक ही फड़ापेन अधिष्ठान शक्ति के सल्लां-गांगरा, पूना-ऊना, माता-पिता, नर-मादा, दांया-बांया, आस-चक्र, समनी-उन्मनी यह दोनों प्रकार की विभिन्न भाव शक्तियां फड़ापेन शक्ति के तत्व हैं. जब इन दोनों परस्पर विरोधी गुण तत्वों की आपस में क्रिया प्रतिक्रया नहीं होती, तब तक नवीन गुण सत्व का निर्माण नहीं हो सकता. इसी फड़ापेन शक्ति का ज्ञानानुभव होना याने मानव की जीव जगत का यथार्थ ज्ञानानुभव होना है. फड़ापेन शक्ति रूपी सल्लां और गांगरा गुण तत्वों का ज्ञान होना याने मनुष्य को बौद्धिक ज्ञान का साक्षात्कार होना है. इसलिए गोंडी धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो ने तत्व ज्ञान की ज्ञान दृष्टि से यथार्थ ज्ञान प्रकाश की अनुभूति होती है, ऐसा अपने कोया पेन शिष्यों को बताया है. कुपार लिंगो का गोंडी धर्म तत्व ज्ञान प्रकृति और जीव जगत को मिथ्या नहीं मानता. अर्थात फड़ापेन शक्ति का स्थूल और व्यक्त रूप में जो जीव जगत हमें दिखाई देता है, वह सत्य है. उसके परे इस विश्व में और कुछ भी नहीं.

          गोंडी धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो के मातानुसार हर एक मनुष्य का ध्येय याने "सुर्वय पेंतोल" अर्थात परम आनंद की प्राप्ति है और व्यक्ति स्वयंपूर्ण सत्व नहीं होने के कारण वह अकेला जी नहीं सकता. उसे अपने मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक सुख शान्ति के लिए प्रकृति के अन्य जीव, निर्जीव सत्वों पर अवलंबित रहना पड़ता है. प्रकृति के अन्य सत्वों की सेवा उसे तभी प्राप्त होती है, जब वह उनकी स्वयं सेवा करता है. इस प्रकार परम आनंद की प्राप्ति सर्वोच्च सेवाभाव की जागृति है. सर्वोच्च सेवाभाव की जागृति तब तक नहीं होती जब तक मनुष्य की मुक्ति जीवन के क्लेशों से नहीं हो जाती. सुर्वय पेंतोल अवस्था याने जीव जगत के क्लेशों का अंत और चिरकालिक आनंद की प्राप्ति है. मनुष्य के सभी अन्य ध्येय इस अंतिम सेवाभाव के ध्येय से बहुत ही गौण है.

          मनुष्य जीवन दुखमय होने का कारण उसका अज्ञान और तमपेनी (आशक्ति) है. अज्ञान मनुष्य के तमपेनियों से आता है. मनुष्य ने अपनी तमपेनियों की भावनाओं पर विजय पाकर बौद्धिक ज्ञान विकास का मार्ग स्वीकार किया तो उसे फड़ापेन रूपी सल्लां-गांगरा गुणतत्वों का बौद्धिक ज्ञान प्रकाश प्राप्त होता है. उसके मन में जन कल्याण की भावना जागृत होती है और जन कल्याण करते हुए वह स्वकल्याण साध्य करता है. वह क्लेशों के बंधन से मुक्त होकर सुख-शान्ति और आनंद के सागर में तैरता है. उसके दिल में सगा जन सेवा भाव जागृत होता है और उसे जन सेवा यह गोंडी धर्म तत्वज्ञान के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करके सर्वोच्च आनंद की अनुभूति होती है.

          इसलिए गोंडी धर्म गुरु पारी कुपार लिंगो ने अपने शिष्यों को बताया कि अज्ञान दूर करने के लिए हर एक मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिए. यही बुद्धियुक्त मानव का परम कर्तव्य है. इसके लिए लिंगो ने गाँव-गाँव में गोटूल नामक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करने की सलाह अपने कोयापेन शिष्यों को दी और वहाँ पर सगा नेंग, सगाचार, सगा तय, सगा कयोम और सगा मोद अर्थात सगा नियम, सगा निर्णय, सगा कर्तव्य और सगा ज्ञान सम्बन्धी शिक्षा सम्पूर्ण मानव समाज को देने का मार्गदर्शन किया. सगा समाज नीतिमूल्यों के अनुसार वर्ताव या व्यवहार करने से मनुष्य का मन तृप्त होता है. सगा कक्ष में रहकर सगा समाज को पोषक कर्तव्य करने से मनुष्य का मन सगा समाज जीवन में केंद्रीभूत होता है. मन को केन्द्रित करके सगा सामाजिक तत्वज्ञान किस तत्व पर आधारित है, यह जानकारी अपनी बौद्धिक शक्ति से प्राप्त करने से मनुष्य को प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति फड़ापेन के सल्लां और गांगरा गुणतत्वों के ज्ञान प्रकाश का साक्षात्कार होता है. अर्थात इस ज्ञान से परम ज्ञान की प्राप्ति होती है, जिससे मानव जाति के दुखों का समूल अंत करने के लिए मनुष्य के दिल में सेवा भाव की जागृति होती है. इससे व्यष्टि मन समष्टिमन रूप बनता है. अज्ञानी जीव ज्ञान स्वरुप होता है. उसे पेंतीलावस्था अर्थात परम सुख की अनुभूति होती है और वह "जय सेवा" इस गोंडी धर्म मन्त्र का परिपालनकर्ता बन जाता है.

          इसी कारण पारी कुपार लिंगो ने सम्पूर्ण मानव समाज को सगा सामाजिक नीतिमूल्यों का परिपालन करके सगा ज्ञान की शरण में जाने के लिए कहा है. सगा समाज का सगा ज्ञान के शरण में जाना याने जिस प्राकृतिक शक्ति फड़ापेन के सल्लां-गांगरा परस्पर विरोधी गुण तत्वों के आधार पर गोंड समाज की सम-विषम सगाओं की संरचना की गई है, उस नैसर्गिक शक्ति के शरण जाना है. फड़ापेन रूपी नैसर्गिक शक्ति के शरण जाना याने सम्पूर्ण विश्व मंडल के जीव जगत का यथार्थ ज्ञान का विकास करना है. बौद्धिक ज्ञान का विकास करना याने अज्ञान का समूल अंत करना है. अज्ञान का समूल अंत करना याने क्लेशपूर्ण जीवन को आनंद स्वरुप बनाना है. जीवन को आनंद स्वरुप बनाना याने सगा जन कल्याण साध्य करना है. सगा जन कल्याण साध्य करना याने जय सेवा मन्त्र का परिपालन करके जन कल्याण के साथ स्वयं का कल्याण साध्य करना है.

          इसके लिए गोंडी धर्म गुरु पारी कुपार लिंगो ने श्रेष्ठ उपासनीय शक्ति फड़ापेन को ही माना है. उस शक्ति के सल्लां-गांगरा तत्व याने नर-मादा तत्व हैं, जो माता पिता के प्रजनन शक्ति के रूप में हैं. इसलिए लिंगो ने माता-पिता की सेवा को फड़ापेन शक्ति की उपासना के बराबर बताया है, क्योंकि वे फड़ापेन शक्ति के ही साक्षात रूप हैं.

          पहांदी पारी कुपार लिंगो को अपनी बौद्धिक ज्ञान शक्ति से सम्पूर्ण विश्व का साक्षात अंतर्ज्ञान प्राप्त हुआ था. उसी के आधार पर उसने सगा समाज की स्थापना की और सम्पूर्ण कोया वंशीय मानव समाज को सगायुक्त सामाजिक संरचना के ढाँचे में विभाजित किया. भौतिक शास्त्र ने भी यह सिद्ध कर दिखाया है कि प्रकृति के खगोलीय अणुओं से कोई भी तत्व स्थिर न होकर सूक्ष्म से सूक्ष्म घटक स्वयं शक्तिरूप क्रियाशील और परिवर्तनीय है. इन अणुओं के पूना-ऊना (धन-ऋण) परस्पर विरोधी गुण तत्वों के कारण उनमे क्रिया प्रतिक्रया होती रहती है. इन अणुओं का पूना-ऊना शक्ति याने फड़ापेन शक्ति के सल्लां और गांगरा गुणतत्व हैं. इसके अतिरिक्त इस पुकराल (सृष्टि) में कुछ भी नहीं है. अणुओं में हरदम क्रिया प्रतिक्रया होती रहती है और प्रकृति का चक्र भी नियमबद्ध चलता रहता है.

          अणु की क्रिया प्रतिक्रया से ही उनके कर्मात्मक संस्कार याने नवनिर्मित गुणयुक्त सूक्ष्म भाग बाहर फेंके जाते हैं और वे अन्य सत्वों में जाकर चिपकते हैं या उनको अपनी और खींच लेते. वे कर्मात्मक संस्कार मूल जिस वास्तु के होंगे, उन्ही के गुण संस्कार वे नित्य दर्शाते रहते हैं और परस्पर विरोधी गुणतत्वों में जाकर चिपकते हैं या स्वयं खींच लेते हैं. ठीक उसी तरह पारी कुपार लिंगो द्वारा सगा संरचना का निर्माण किया गया. गोंड सगा समाज के सगा शाखाओं में क्रिया प्रतिक्रियाएं होती रहती है. एक सगा घटक के स्त्री-पुरुष एक ही गुण संस्कार वाले होते हैं और विषम सगाओं के गुण संस्कार वाले स्त्री-पुरुषों से अपना पारी (वैवाहिक) सम्बन्ध स्थापित करते हैं.  सम सगाओं के गुण संस्कार वाले स्त्री-पुरुषों से वे कभी भी पारी सम्बन्ध स्थापित नहीं करते. सम सगाओं के लड़के-लड़कियों का रिश्ता भाई बहनों का होता है. उनमे कभी भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं होता. बल्कि दो परस्पर विरोधी गुण संस्कार वाले तत्वों की क्रिया-प्रतिक्रया से ही नवीनतम शक्तिशाली गुणतत्व का निर्माण होता है. विभिन्न सगाओं के विभिन्न आनुवांशिक गुण संस्कार वाले लड़के लड़कियों का पारी अर्थात वैवाहिक सम्बन्ध में शक्तिशाली और बुद्धिमान नव तत्वों का पैदावार हो सके, इसलिए पारी कुपार लिंगो ने सम-विषम सगाओं में पारी सम्बन्ध प्रस्थापित करने के सामाजिक सम्बन्ध बनाए हैं, जो आज भी गोंड सगा समाज में प्रचलित हैं. इन पर से गोंड सगा समाज की सामाजिक संरचना प्राकृतिक नियमों पर किस प्रकार आधारित है, यह सिद्ध होता है.

          इसलिए पारी कुपार लिंगो ने बताया है कि सगा सामाजिक संरचना जिस प्राकृतिक शक्ति के गुणतत्वों पर आधारित है, उस फड़ापेन शक्ति की उपासना करने से, उसके सल्लां-गांगरा तत्वों का ज्ञान प्रकाश अपनी बौद्धिक ज्ञान से समझने से प्रत्येक मनुष्य अपने सगा कक्ष के मार्ग से ही अपना वर्ताव और व्यवहार सुनिश्चित करता है, जिससे किसी को किसी भी प्रकार का दुःख नहीं पहुंचता. सभी लोग सगानीति, सगाचार, सगाकर्म, सगाकर्तव्य और सगा सेवा करते रहते हैं, जिससे सम्पूर्ण मानव समाज सुखी और समृद्ध होकर "सुर्वय पेंतोल" अवस्था का अनुभव करता है. इसलिए गोंडी धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो ने फड़ापेन को ही उपास्य शक्ति माना है.
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