रविवार, 29 अप्रैल 2012

भारत अप्रवासियों का देश है.

     
     भारत अप्रवासियों का देश हैं। यहाँ के मूलनिवासी उनके पूर्वज थे, जिन्हें हम आज आदिवासी कहते हैं। इस समय आदिवासी भारत की आबादी के ८ प्रतिशत हैं। अर्थात ९२ प्रतिशत भारतवासी बाहर से आकर यहाँ बसे हैं। वे आज से लगभग १०,००० वर्ष पहले भारत के उत्तर उश्चिम से आये थे। औद्योगिक  क्रांति के पहले पूरी दुनिया में कृषि मुख्य व्यवसाय था। उस समय भारत कृषकों का स्वर्ग था। यहाँ कृषि के लिए उपयुक्त वातावरण एवं संसाधन मौजूद थे। इसलिए चारो ओर से लोग भारत में बसने आये। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े साहित्यकारों की यह मान्यता है की आर्य भारत के मूलनिवासी हैं और वे बाहर से नहीं आये हैं। अपने इस दृष्टिकोण को सही साबित करने के लिए वे आदिवासियों को वनवासी कहते हैं। उन्हें वनवासी कहकर वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि आर्य ही यहाँ के मूलनिवासी हैं और आज के हिन्दू आर्यों की संतान हैं। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मत हैं कि आर्य मध्य यूरोप से भारत में आकर बसे थे। लोकमान्य तिलक का तो यहाँ तक कहना था कि आर्यों का मूलनिवास उत्तरी ध्रुव था। यह विवाद लम्बे समय से जारी हैपरन्तु पहलीबार इस मुद्दे पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी राय प्रकट की है। बीती पाँच जनवरी२०११ को सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने स्पष्ट रूप से कहा है कि आर्यों के आने के पूर्व जो लोग भारत में निवास करते थे आज के आदिवासी उन्ही की संतान हैं।

     सर्वोच्च न्यायालय ने यह राय महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के एक निर्णय को रद्द करते हुए प्रकट की। इस मामले में यह भी जाहिर होता है कि हम आदिवासियों से किस तरह का व्यहार करते हैं। इस मामले का सम्बन्ध एक भील महिला से है, जिसका नाम  नन्दबाई है। इस महिला को नग्न किया गया, बुरी तरह पीटा गया और गांव में घुमाया गया। इस महिला पर यह आरोप था कि उसके एक उच्च जाति के पुरुष से अवैध सम्बन्ध थेजिन लोगों ने उसके साथ यह व्यवहार किया था। उन्हें जिला एवं सत्र न्यायालय, अहमदनगर ने दोषी पाया और सजा सुनाई। सजा जिन धाराओं के अंतर्गत सुनाई गई उनमे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम भी शामिल था। जब मामले कि अपील हाईकोर्ट में हुई तो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति क़ानून के अंतर्गत दी गयी सजा रद्द कर दी गयी। यद्यपि अन्य धाराओं के अंतर्गत सुनाई गयी सजा यथावत रखी गई। उसके बाद यह मामला माननीय सर्वोच्च न्यायालय में आया। सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठजिसमे न्यायमूर्तिद्वय मार्कंडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा ने न सिर्फ हाईकोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कानून के अंतर्गत दी गयी सजा को रद्द किया जाना गलत बतायावरन इसके साथ ही भारत के मूलनिवासी कौन थे, इस विषय पर भी अपना मत व्यक्त किया। निर्णय में कहा गया कि आज के आदिवासी ही भारत के मूलनिवासियों की संतान हैं। इस तथ्य के बावजूद उनके साथ सदियों से मानवोचित सुलूक यहीं किया जा रहा है। खंडपीठ ने इतिहास के अनछुए पहलुओं का सहारा लेते हुए यह निर्णय किया है कि वास्तव में हमारा देश अप्रवासियों का देश है। हमारे देश की ९२ प्रतिशत आबादी अप्रवासियों की संतान हैं और मात्र ८ प्रतिशत भारतीय १०,००० वर्षों से अधिक समय से भारतीय उपमहाद्वीप में रह रहे हैं। पिछले हजारों सालों में विश्व के अनेक हिस्सों से लोग यहाँ आये और बस गए। इसी कारण हमारे देश में अनेक धर्मों के मानने वाले लोग रह रहे हैं। भाषाओँ और अन्य प्रतीकों के आधार पर खंडपीठ ने माना कि बाहर से आये अप्रवासियों के आक्रमण और अन्य कारणों से भारत के उक्त मूलनिवासी जंगलों और पहाड़ों पर सिमटने पर मजबूर हो गए। भारत के ये मूलनिवासी अब मुख्यतः झारखण्ड, छत्तीगढ़,  उड़ीसा,  पश्चिम बंगाल  और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में पाए जाते हैं। खंडपीठ ने अपने निर्णय में इस बात पर जोर दिया है कि भारत की नस्लीय, जातीय, धार्मिकसांस्कृतिक और भाषाई विभिन्नताओं ने हम पर एक गंभीर उत्तरदायित्व डाल दिया है। वह उत्तरदायित्व है विभिन्नताओं के बावजूद देश को एक बनाए रखने का। इस कठिन चुनौती का सामना करने में हमारे संविधान निर्माता काफी सहायक बन पड़े हैं। हमारा संविधान सभी धार्मिक समूहों, विभिन्न भाषा-भाषियों को सामान अधिकार देता है और उनके अधिकारों की रक्षा की गारंटी देता है, परन्तु सिद्धांत में सभी को बराबरी का दर्जा देना यथेष्ट नहीं है। उन समूहों कोजो पहले से ही अभावों का जीवन जी रहे हैंविशेष संरक्षण और सहायता की जरूरत है तभी वे गरीबी और असमान सामाजिक परिस्थितियों से ऊपर उठ सकेंगे। इसलिए संविधान में इस तरह के समूहों को विशेष अधिकार दिए गए हैं। इनमे आदिवासी शामिल हैं, जो भारत के मूलनिवासियों की संतान हैं। वे सदियों से गरीबी और अभाव की जिन्दगी जी रहे हैं। उनमे से अधिकांश आज भी निरक्षर हैं और कुपोषण एवं अज्ञानता के चलते बीमारियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। अन्य लोगों की तुलना में उनकी मृत्यु दर भी ज्यादा है।

     इसीलिए वे सब इस देश से मोहब्बत करते हैं और जो इसकी बेहतरी चाहते हैं, उनका कर्तव्य है कि वे आदिवासियों के उन्नयन में सहयोग करें। सब मिलकर यह सुनिश्चित करें कि आदिवासी आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से देश के अन्य नागरिकों के स्तर तक पहुँच सकें। हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि वे सदियों से शोषण और अन्य प्रकार की ज्यादतियों के शिकार रहे हैं। उनके प्रति हमारे रवैये में परिवर्तन आना चाहिए। हमें उनका पूरा आदर और सम्मान करना चाहिएक्योंकि वे हमारे पूर्वज हैं। हमने आदिवासियों के साथ जो अन्याय किया है, वह हमारे देश के इतिहास का सर्वाधिक  सर्मनाक  अध्याय है। एक समय था, जब इन आदिवासियों को हम राक्षस या असुर कहते थे। हमने इनकी हत्याएं की और जो बचे उन पर हर संभव अत्याचार किये। हमने उनकी जमीनें छीनी और उन्हें जंगल में खदेड़ दिया, जहाँ वे अत्यधिक कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन करते हैं। अब हम औद्योगीकरण के नाम पर उनसे जंगल भी छीन रहे हैं और उन्हें अभावों के गर्त में ढकेल रहे हैं।

     निर्णय में आदिवासियों के साथ नारकीय व्यवहार के उदाहरण स्वरुप एकलव्य का उल्लेख किया गया है। द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से इंकार कर दिया, परन्तु जब द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा स्वरुप एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांगलियाभोले भाले एकलव्य ने उन्हें अपना अंगूठा गुरु दक्षिणा के रूप में दे दिया। इस तरह द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपंग बना दिया। द्रोणाचार्य ने अंगूठा इसलिए माँगाक्योंकि उन्हें लगा कि एकलव्य अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया है। निर्णय कहता है कि उस समय से लेकर आज तक हम इन लोगों के साथ ऐसी ही व्यवहार कर रहे हैं।

     खंडपीठ द्रोणाचार्य के व्यवहार को शर्मनाक बताते हुए कहती है कि जब द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिक्षा दी ही नहीं थी तो उन्हें एकलव्य से गुरु दक्षिणा मांगने का क्या अधिकार था। माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इतनी ज्यादतियां सहने के बावजूद आदिवासियों ने अपना उच्च नैतिक कायम रखा है। वे साधारणतः किसी को धोखा नहीं देते, झूठ नहीं बोलते और ऐसे अनैतिक कार्य नहीं करते जो गैर आदिवासियों में आम है, इसके बावजूद वे आज तक ज्यादतियों के शिकार हैं। यह जिसमे सम्बंधित  ने विरोधी रवैया अपनाया इसी तरह के व्यवहार का प्रतीक है। हमें यह रवैया बदलना होगा, यदि हम ऐसा करते हैं, तो यह देशहित में होगा.

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रविवार, 15 अप्रैल 2012

आदिवासी मतलब उपयोग करो और फेंको ?



          दिनांक १९ मार्च, २०१२ को छत्तीसगढ़ की राजधानी, रायपुर में आदिवासियों पर जबरदस्त लाठी प्रहार किया गया, जिस पर प्रस्तुत अंक में विस्तार से लेख प्रकाशित है, जिसका मात्र अध्ययन, पठान-पाठन, तक सीमित न रहकर आज हमें इस प्रकार की घटनाओं का चिंतन मनन करते हुए मुखर होने की आवश्यकता है. आदिवासियों पर लाठी-डंडे बरसाने की यह पहली घटना नहीं है. अपनी समस्याओं के निराकरण या संवैधानिक अधिकारों की मांग को लेकर आदिवासी प्रदर्शनों पर देश के विभिन्न राज्यों में अब तक अनगिनत बल प्रयोग किए गए. झारखण्ड के आदिवासियों का पूरा इतिहास ही संघर्ष, त्याग, तपस्या और बलिदान से ओत-प्रोत रहा है. आजादी के पहले और आजादी के बाद भी झारखंड का आदिवासी सिर्फ और सिर्फ संघर्षरत है. उनका यह संघर्ष आज भी जारी है जबकि वहाँ सत्ता शीर्ष पर राज्य निर्माण से ही मुख्यमंत्री की आसंदी में आदिवासी काबिज है. यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि सामान्यतया समाज माँगता नहीं है.


          आदिवासी मसीहा के रूप में विख्यात भारत के महान आदिवासी नेता इंजीनियर कार्तिक उराँव जी कहते थे, कि आदिवासियों में देने की परम्परा रही है, मांगने की नहीं. इसीलिए कभी सरकार से कुछ मांगना भी पड़ा तो सरकार को लगता है कि उनकी कोई गंभीर समस्या नहीं है. श्री उराँव का मानना था कि आदिवासियों को मांगना आता ही नहीं है, अतः उन्होंने भारतीय आदिवासियों को अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद संगठन बनाकर सर्वप्रथम संगठित व जागरूक बनाने का कार्य प्रारंभ किया. श्री उराँव ने ही आदिवासियों को संवैधानिक अधिकारों को मांगने व प्राप्त करने के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी. विगत तीन दशक का अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि एतिहासिक अन्यायों से जूझते आदिवासी समाज ने न्याय मांगने सरकार के समक्ष जब कभी धरना, प्रदर्शन, जुलूस इत्यादि का आयोजन किया, सरकार ने उसे दबाने, डराने, धमकाने व मारने, पीटने का ही उपक्रम किया है.

          राजधानी रायपुर में हुआ लाठी चार्ज आदिवासी समाज के लिए एक दुखद घटना है, परन्तु विधानसभा घेरने आये प्रदर्शनकारी आदिवासियों में नक्सलियों का समागम व पुलिस पर कातिलाना आक्रमण की बात कहकर राज्य शासन और पुलिस प्रशासन ने आदिवासी जख्मो में नमक छिड़क दिया है. यह वक्त मरहम लगाने का था, लेकिन पुलिस प्रशासन ने आदिवासी आंदोलन को नक्सल चेहरा बताने की भारी गलती की है. वैसे बस्तर के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में निवासरत सभी आदिवासी पुलिस की निगाह में संदिग्ध माने जाते हैं. बस्तर में आज जितने नक्सली नहीं हैं, उससे कई गुना अधिक सुरक्षा बालों के जवान वहाँ तैनात किए गए हैं. आदिवासी अपने जंगल में जाने से आज डरता है. नाचने-गाने से डरता है. गीत-संगीत वह भूल गया. बस एक ही बात याद रहती है कि पुलिस वाला उसे नक्सलवादी घोषित कर मार न दे. जेल में डाल न दे. आदिवासी सत्ता के प्रतिनिध, प्रकाश चापा, उसूर ब्लाक का काम देखते हैं. यह विकासखंड चरम नक्सली गतिविधियों का केन्द्र माना जाता है. कुछ माह पूर्व की बात है जब "आदिवासी सत्ता" की प्रतियां लेकर प्रकाश चापा कहीं जा रहे थे, सी.आर,पी.एफ. का गश्ती दल सर्चिंग से अपना कैंप वापस जा रहा था तब रास्ते में जवानों में उसे रोक किया. तलाशी में "आदिवासी सत्ता" मिली तो जवानों ने नक्शल साहित्य रखने का आरोप लगाकर उसे अपने साथ कैंप चलने बाध्य कर दिया. श्री चापा ने लाख समझाया, परन्तु वे नहीं माने, अंततः उनके साथ उन्हें जाना पड़ा. लगभग ३-४ कि.मी. चलने के बाद सी.आर.पी.एफ. टुकड़ी एक स्थान पर विश्राम करने रुक गई. टुकड़ी के प्रभारी अधिकारी ने जप्त पत्रिका को पढ़ना शुरू किया तो पढते ही रहे. एक घंटे "आदिवासी सत्ता" का अध्ययन करने के बाद उन्होंने प्रकाश चापा को छोड़ने को कहा. श्री चापा को पास बुलाकर खेद व्यक्त करते हुए दो पत्रिका मांग ली और जाने कहा. टुकड़ी का अधिकारी समझदार था, अतः प्रकाश चापा को कोई हानि नहीं हुई, अन्यथा वही होता जो बस्तर में अक्सर होते आ रहा है.

          शासन व प्रशासन की निगाह में प्रत्येक आदिवासी संदिग्ध होते जा रहा है, क्योंकि अब वह अपने हक व अधिकार के लिए जागरूक होने लगा है. संवैधानिक अधिकारों को पहचानने व जानने लगा है. जब जान गया है, तो मांगेगा ही. आदिवासी किसी सरकार से खैरात तो मांग नहीं रहा है कि मर्जी होगी तो दोगे. १२ साल बाद जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण मिला, वह भी वह भी वर्ष २०१२ से. ११ साल लगा दिए, वह भी तब जब आदिवासी समाज हठ पर उतर आया. आदिवासी का यह संविधान सम्मत हठ भी सरकार को नागवार गुजरा, इसीलिए पूरे आंदोलन को नक्सलवाद से जोड़कर बदनाम करने का प्रयास हो रहा है, तो दूसरी तरफ विपक्ष की भूमिका में छत्तीसगढ़ कांग्रेस बल्ले-बल्ले कर रही है. आदिवासियों के ऊपर हुए लाठीचार्ज से कांग्रेश पार्टी दुखी और उद्देलिए है. पूरी भाजपा सरकार को निगल जाने आतुर दिखाई पड़ती है. भाजपा शासनकाल में आदिवासियों को राजधानी की सड़कों पर दौड़ा-दौड़ा कर मारने के विरोध में धरना प्रदर्शन कर हजारों कांग्रेसियों ने जेल भरो आंदोलन चलाया और मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह को पानी पी पीकर कोसा. प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी दहाड़ मार रहे हैं कि आदिवासियों को क्यों मारा ? जोगी मंत्रिमंडल में नंदकुमार पटेल गृहमंत्री हुआ करते थे, अब वे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं. श्री जोगी के कार्यकाल में आदिवासियों को सिर्फ दौड़ा-दौड़ा कर मारा पीटा ही नहीं गया बल्कि राजधानी आये सामाजिक प्रमुखों के मुह पर कालिख पोत उनका शानदार स्वागत भी किया था. गृहमंत्री की हैसियत से श्री पटेल ने विधान सभा में कहा था कि ऐसी कोई घटना राजधानी में हुई ही नहीं. आज कांग्रेस के नेताओं को आदिवासी अपमान देखा व सहा नहीं जा रहा है, क्योंकि उन्हें सत्ता चाहिए, वह भी आदिवासी वोटों से. चोली-दामन की तरह कांग्रेस से जुड़ा आदिवासी समाज कांग्रेस से दूर हुआ. क्यों हुआ ? सभी कांग्रेसी जानते हैं. ०४ नवंबर,२०११ को आदिवासियों ने मार भी खाई और कालिख भी पुतवाई. यह काम पुलिस ने नहीं किया. सत्ता में बैठी कांग्रेस और कांग्रेसियों ने भारी पुलिसबल के संरक्षण में किया. बड़े बेआबरू होकर कांग्रेस के कूचे से निकले थे आदिवासी, उस समय आज दहाड़ रहे कांग्रेसी नेताओं को रोना आया और न ही आँख का आँसू टपका.

          छात्तीसगढ़ में सत्ता की चाबी आदिवासी समाज के पास है, अतः हर कोई आदिवासी गम में घडियाली आँसू बहाकर आदिवासियों का हमदर्द बनना चाहता है. जबकि हकीकत यह है कि राजनीति में आदिवासी उपयोग कर फेंकने वाली वस्तु बनकर रह गया है. यह सिलसिला बहुत पुराना है और तब तक जारी रहेगा जब तक आदिवासी समाज जातिवाद और क्षेत्रवाद का शिकार होकर अशिक्षा, अज्ञानता, अजागरुकता और शराब जैसी महामारी से घिरा रहेगा. एक जानकारी के अनुसार हर दर्जे के असंगठित आदिवासियों को संगठित करने हेतु छत्तीसगढ़ में लगभग हजार से भी अधिक जाति/समाज संगठन पंजीकृत हैं. अपंजीकृत संस्थाएं भी अनगिनत हैं. अपने सामाजिक प्रेम को चमकाने और दमकाने के लिए और भी नए संगठन आदिवासी बाजार में आ जाय तो कोई अतिसंयोक्ति नहीं होगी. आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में आदिवासी उस मृग की तरह है जो कस्तूरी को बाहर खोजता है, जबकी वह उसके भीतर मौजूद है. आदिवासी समाज को आदिवासी सत्ता से परिचित कराना ही "आदिवासी सत्ता" पत्रिका का मूल उद्देश्य है और यह उद्देश्य तब सफल होगा, जब हम "आदिवासी सत्ता" को जानेंगे व मानेंगे.

साभार आदिवासी सत्ता