शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

आदिवासी कुल का महाबली रावण की पूजा

        भारत व दक्षिण गोलार्ध में अनार्य संस्कृति के अधिष्ठाता महान ज्ञानी रावण की पूजा होती है- मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाड़ू, कर्नाटक, केरल, श्रीलंका, मिनिकाय व्दीप, लक्ष्यव्दीप, अंडमान निकोबार, आफ्रिका, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, दक्षिण अमेरिका, और ब्रम्हदेश, थाईलेंड आदि देशों में महान दार्शनिक धर्मवेता वैज्ञानिक तंत्र-मंत्र के प्रकांड ज्ञाता अनार्य संस्कृति के प्रवर्तक गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो के अन्यन भक्त विश्व विजेता महाबली रावण की पूजा बड़े उत्साह और श्रद्धा से करते हैं.
        
        मध्यप्रदेश के राजपूत नगर से कोई ७० कि.मी दूर भाटखेड़ी नमक गांव पूरे देश में रावण मेघनाथ के गांव के नाम से जाना जाता है. इस गांव में रावण और मेघनाथ की दो विशालकाय मूर्तियाँ हैं. जिनकी पूजा की जाती है.


        गाँव वालों को रावण और मेघनाथ की मूर्तियों की स्थापना की पूरी जानकारी तो नहीं लेकिन वे कहते हैं कि हमारे बाप दादा बताते थे कि त्रेता युग में अवंतिका क्षेत्र से पुरी में संगम स्थान पर जाने के पश्चात रावण और मेघनाथ का यहाँ पड़ाव रहा है, तभी से यहाँ के लोगों ने रावण और मेघनाथ की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा शुरू की. आज से छह दशक पूर्व कारीगरों को बुलाकर गांव वालों ने पैसा इकट्टा कर सीमेंट कांक्रेट की दो मूर्तियाँ बनवा दी.


        गाँव के बुजुर्ग रामलाल यादव, दयाराम, बद्रीलाल ने गोंडवाना दर्शन के  सम्पादक को बातचीत के दौरान जानकारी दी कि रामायण ग्रंथों में कुछ इसका उल्लेख है. सात आठ सौ की आबादी वाले गाँव में घर-घर में इनका जीवन बदल दिया है.


        आगरा-बंबई राजमार्ग से गुजरने वाले राहगीरों के मन में इन विशाल मूर्तियों को देखकर एक जिज्ञासा होती है. कि आखिर ये किसकी है. देश-विदेश के पर्यटकों को यह स्थान बहुत अच्छा लगता है. वे यहाँ रुककर विभिन्न मुद्राओं में इन मूर्तियों के साथ फोटो खीचकर संतुष्ट होते है. यह क्रम आज भी जारी है. लोग यहाँ मन्नतें भी मांगने लगे हैं. जिसकी मनोकामना पूरी हो जाती है. वे यहाँ आकर नारियल चढ़ाकर अगरबत्ती जलाकर इन मूर्तियों को प्रसन्न करते हैं और संतोष का अनुभव करतें हैं.


        विशालकाय मूर्तियों की ऊंचाई आठ फिट और चौड़ाई चार फिट है. अन्जाने में बस, ट्रक, कार, आदि वाहनों से गुजरने वाले यात्री इन्हें देखकर चकित हो जाते हैं. कुछ पैसे फेकते हैं तो कोई हाथ जोड़कर नमन करते हैं.


        इन मूर्तियों से कुछ दूरी पर उज्जैन-गुना रेल्वे लाइन है. रेलयात्री भी इनको देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं. कुछ दूरी पर प्रचीन बावड़ी तथा समाधि स्थल का प्रतीक स्वरूप एक चबूतरा बना हुआ है. गाँव वालों को इनके संबंध में भी कोई जानकारी नहीं है.


        दशहरा यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. रावण और मेघनाथ के लिए दो अलग-अलग रथ सजाकर जुलुस निकाला जाता है और सम्मान के साथ विसर्जन किया जाता है.


        रायपुर के शैलेन्द्र नगर में भी लगभग १२ फीट की महाबली रावन की मूर्ती बनाई गई है. शैलेंद्र नगर वासियों ने बताया की वे लोग १९८२ में रावन की मूर्ती सीमेंट और कांक्रीट से बनवाया है और स्थापित किया. मूर्ती के पास में रहने वाले एक बुजुर्ग बताते हैं कि लोग इस आदिवासी कुल के रावन को बुराई के प्रतीक में मानते हैं और हर वर्ष दशहरा के दिन इस महाबली का दहन करते हैं, किन्तु हमारे पूर्वजों नें इसकी पूजा करने के लिए इसे बनवाया है. हमारे पूर्वज इस महाबली की पूजा कबसे करते आ रहे हैं हमें नहीं मालूम, किन्तु उन्हें देखकर हम भी इनकी पूजा करते हैं. सच्चे मन से इनकी पूजा करने से जीवन फलित होता है, ऐसा हमारे पूर्वज कहते हैं. इसलिए हम भी इनकी पूजा करते हैं, सम्मान करते हैं. हम भी महाबली रावन के आशीर्वाद से फलित होते रहे हैं. इन्हें हम नहीं जलाते. इन्हें जलाने वाले उत्सवों और त्योहारों में हम शामिल भी नहीं होते.


        लोगों ने इसे बुराई के प्रतीक में क्यों माना हमें पता नहीं है, किन्तु लोग अपने मन की बुराई को मन से निकालने के बजाय इस देवता का दहन करते हैं. यह बात हमें समझ में नहीं आता कि लोग अपनी बुराई को जलाने के बजाय इसकी मूर्ती बनाकर क्यों उसे जलाते हैं ? जलाना है तो अपने अन्दर की बुराई को जलाएं.


        शैलेन्द्र नगर वासी दशहरा के दिन महाबली रावन की धूमधाम से पूजा करते हैं और मोहल्ले भर प्रसाद बांटकर अपनी मनोकामना फलित करने हेतु खुशियाँ मनाते हैं.

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

देश में जनजातियों का उभरता आक्रोश

        देश के बुद्धिजीवी मनीषियों नें शासन व्यवस्था और प्रजातंत्र को अक्षुण कायम रखने के लिए सभी धर्म, सभी जाति, सभी वर्ग के हितों का ख्याल व मौलिक अधिकारों का आदर करते हुए मूल्यवान संविधान बनाया, लेकिन संविधान अभी भी देश में लागू नहीं है. उसकी जगह मनुस्मृति की नीतियां कार्य कर रही है. जिसमें भेदभाव तथा शीर्ष स्थानों में एक ही कुलीन अभिजात्य वर्ग का आधिपत्य कायम है. आजादी के ६५ वर्ष बीतने के बाद भी देश में संवैधानिक प्रक्रिया में यह अंतर आक्रोश और विद्रोह को प्रेरणा देता है. मूलनिवासी वर्ग जिनकी आबादी कुल आबादी का तीसरा हिस्सा है, आजाद भारत में गरीबी, गुलामी के लिए अभिशिप्त है. आजाद भारत में जंगल, जल और जमीन का अधिकार मूलनिवासियों के हाथ से निकलता जा रहा है. वहीं कल कारखाने बांध और औद्योगीकर से इन बेजुबानों एवं सहनशील लोगों को उपेक्षा, घृणा और तिरस्कार के शिवाय क्या मिला ? विकास तो उन्हीं अभिजात्य वर्ग का हुआ जो ब्रितानियों के बाद सत्ता में आए.


        सच्ची इतिहास को देखें तो स्वाधीनता की लड़ाई में  सबसे अधिक योगदान जल, जमीन और जंगल की रक्षा करने में मूलनिवासियों नें हजारों लाखों कुर्बानियां दी. लेकिन इन जंगल, जल और भूमि की रक्षा करने वालों के पास सर छुपाने झोपड़ी भी नहीं हैं. जीने के लिए रोजगार भी नशीब नहीं है. राजनीतिज्ञ लोग आज उन्हें मात्र वोट बैंक से अधिक कुछ भी नहीं बनाया.


        आरक्षण से तो मात्र चतुर्थ श्रेणी को भी पूरा नहीं किया जा सका और आगे की श्रेणीयों का कहना व्यर्थ है. विकास के नाम पर सैकड़ों योजनाएं बने, जिनका वास्तविक क्रियान्वय फाइलों तक सिमित रह गए. संस्कृति, भाषा और सामाजिक घटकों को अक्षुण बनाएं रखने का ढोल पिटकर देश के नेता संवेदनशील और अहसान बटोरने का केवल परिचय देते हैं.


        देश के पठारों उच्चसम भूमि (जगल पहाड़) में आदि अनंतकाल से बसने वाले अपनी प्रकृति, परंपरा, प्रथाएँ, भाषा और संस्कृति की युगों से अलग सगल भिन्न पहचान बनाए रखे हैं, जो अपनी मूल सामाजिक संरचना का ढांचा है. प्रकृति के अधिक नजदीक रहने के कारण प्रकृति, प्रवृति और शोषण अत्याचार का विरोध एकाएक करने में संयमित है. किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि अन्याय सहने के लिए ही यह समाज पैदा हुआ हो. जुल्म, सहन शक्ति से परे होने पर व्यवस्था के विरोध करने में पीछे नहीं रहेंगें. इसका परिणाम आज भेदभाव रखने वाले और कुलीन वर्ग के नीतियों के विरूद्ध अपनी अस्मिता और गौरव को कायम रखने झारखंड, गोरखा लैंड, नागालैंड के गोंडवानालैण्ड लिए मूलनिवासी आवाज बुलंद कर रहे है. ये आन्दोलन गैर क़ानूनी नहीं है. यदि सबको समानता का हक है तो फिर ऐसा भेद भाव क्यों ? अपनी अपनी भाषा का प्रान्त बनाए. अपने समाज को उच्च स्थानों में धर्म भाषा को बढ़ावा देकर देश में दो तिहाई लोगो के साथ उनकी भाषा धर्म, संस्कृति की उपेक्षा क्यों ? योजनाओं और विकास का लाभ कुलीन वर्गों को उद्योग व्यापार में केवल उन्ही का अधिकार क्यों ? इन सब का प्रतिकार करने के लिए जन मानस का आक्रोश आंदोलन के रूप में दिनों दिन सामने आता जा रहा है.


        अपने हक, अपने सांस्कृतिक धरातल, सामाजिक संरचना को जीवित रखने के लिए संघर्ष के लिए तैयार होना गैर क़ानूनी नहीं है. एक वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए देश का बजट लगा दे और दूसरा मुह ताकता रहे ? यह कैसा प्रजातंत्र हैं ? यह सवाल खड़ा होता है ! अपना भला स्वतः के व्दारा होता है, अपनी आँखों से नींद आती है. यह आम बात है. अपना समाज, अपना विकास, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक प्रगति कि उपेक्षा करने एवं दिखावा  प्रदर्शित करने राजनीतिक रूप में छलने वालों के प्रति सचेत होकर चेतना का उबाल पैदा हो जाए और पृथक पहचान के लिए संगठित आंदोलन का उग्र रूप दिखाई दे तो ईसमे आश्चर्य क्या है ?  
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मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

आदिवासी जनसत्याग्रह और देश की मीडिया का मौन वृत्त

देश की मीडिया को फुर्सत ही नहीं है आदिवासियों की  समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने के लिए ! इसलिए दिल्ली सरकार से पूछने आदिवासी पैदल चलकर खुद पहुँच रहे हैं कि हमारा कसूर क्या है ? क्या हम देश के नागरिक नहीं हैं ? जंगल, जल, जमीन, घर, द्वार छीनकर हमारा शोषण किया जा रहा है, फिर भी तुम मौन हो क्यों ? क्या तुम भी शामिल हो इस प्रपंच में ?


५०,००० से ज्यादा जनसत्याग्रही
आदिवासी दिल्ली कूच 
          जल, जंगल, जमीन से जुड़े आदिवासी समुदाय के सम्मुख अस्तित्व का संकट उन्हें मजबूर करता है कि वे अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़े. पिछले समय एक सनसनीखेज खबर रांची से आई. रांची रेलवे स्टेशन पर १००० आदिवासी युवक युवति और बच्चे रोजगार की तलाश में उत्तर पूर्वी राज्यों की ओर कूच करते हुए पकड़े गए. आखिर प्रश्न उठता है कि क्यों हजारों की संख्या में आदिवासी अपना गाँव, घर, द्वार छोड़कर भाग रहे हैं, जिन्हें हम पलायन कहकर पुकारते हैं. मै अक्सर इतिहास के पन्नों पर इस प्रश्न का उत्तर ढूंडा करता हूँ कि क्या कारण था कि झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा के हजारों हजार आदिवासी  एक साथ, कहीं पूरा परिवार तो कहीं पूरा गाँव असम या भूटान के चाय बागानों में जाकर बस गया. यही नहीं जिस अंडमान मिकोबार द्वीप समूह में भारतीयों को देशद्रोह जैसे भयंकर अपराधों के दंड स्वरुप काला पानी की सजा के रूप में प्रताड़ित करके निर्वासित जीवन गुजारने की सजा मिलती थी, वहाँ भी आदिवासी युवक युवति ख़ुशी-ख़ुशी जाकर बस   गए. उन्हें अब भी यह टापू, अपने देश की तरह सुन्दर और प्यारा लगता है. कारण ढूँढना कोई कठिन नही है, क्योंकि देश की आजादी के बाद विकास के विभिन्न योजनाओं के बावजूद आदिवासी समाज आज भी पलायन को मजबूर है. राजधानी दिल्ली गवाह है कि क्यों डेढ़ लाख से ज्यादा आदिवासी युवक युवतियां राजधानी के पोस इलाकों में घरेलु कामगार के रूप में जीविका अर्जित करने को मजबूर हैं.

          जिनका एक मात्र मूलधन जल, जंगल और जमीन ही लुट गया हो, वे भला पलायन न करें तो क्या करें ? मगर हम कब तक पलायन करते रहेंगे और कहाँ तक पलायन करंगे ? शायद इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए ग्वालियर से ५०,००० से ज्यादा आदिवासियों का दल सत्याग्रह के रूप में दिल्ली पहुंचकर दिल्ली की सरकार के समक्ष वह प्रश्न पूछना चाहता है कि हमारा कसूर क्या है ? गांधीवादी राजगोपाल पीवी के नेतृत्व में दिल्ली की ओर कूच कर रहे आदिवासियों की मांग है कि उनकी जल, जंगल और जमीन न छीनी जाए. संविधान बनाने वालों ने आदिवासियों की सुरक्षा हेतु पांचवी और छटवी अनुसूची का प्रावधान रखा, मगर संविधान के प्रावधानों का अनुपालन करने के लिए कोई सरकारी तंत्र कार्यशील नहीं दिखता.

          अपने अधिकारों की मांग के लिए आदिवासी सत्याग्रहियों का दल दिल्ली की ओर निरंतर बढ़ रहा है. दिन में तेज धुप की तपिस के साथ रात्री में आसमान के नीचे सोने की मजबूरी के बावजूद पदयात्रियों के इरादे बुलंद हैं. पदयात्री अपने पांवों के छाले की परवाह किये बगैर दिल्ली की ओर मुस्तैदी से बढ़ते चले आ रहे हैं. दिल्ली के राष्ट्रीय राजमार्ग पर हजारों की संख्या में कतार में पूरी तरह अनुशासित सत्याग्रहियों का १५ किलोमीटर लंबा जुलूस हर किसी को अभिभूत करता है. लोगों की आँख थक जाती है, पर उसके सामने से गुजर रहे जुलूस का अंत नहीं होता. रास्ते में इन आदिवासियों के विराट जुलूस को देखकर लोग उनके स्वागत में उमड़ पड़ते हैं. जहां वे पड़ाव डालते हैं, वही देखते ही देखते पूरा शहर बस जाता है. लोग पीने का पानी और भोजन का इंतजाम करते हैं. पचासों अलग अलग चूल्हे बन जाते हैं और हर एक सत्याग्रही के पास एक झोला और एक झंडा है, साथ ही एक एक प्लास्टिक सीट है, जिसे रात में सोते समय बिछा लेते हैं और धुप तथा बरसात में छाता बना लेते हैं. हर एक पड़ाव पर सभा और सांस्कृतिक कार्यक्रम द्वारा जोस और उत्साह बढ़ाई जाती है और जल, जमीन, जंगल पर अधिकार के लिए एकता मजबूत की जाती है. केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उन्हें समझा बुझाकर  वापस भेजने की कोशिश की जो बेकार साबित हुआ. आखिर ये वापस जाएँ तो कहाँ जाएँ, उनके घर और खेत तो पहले ही छीन चुके हैं. उनके पास पहचान, सुरक्षा और सम्मान नाम की कोई चीज नहीं रही. आजादी के ६६ साल बीत जाने के बावजूद उन्हें न्याय और सम्मान मिलना तो दूर अब उनके जीने के बुनियादि साधन भी छीन चुके हैं. इन पदयात्री आदिवासियों में काफी बड़ा हिस्सा उन आदिवासियों का है, जिनके इलाके मावोवादियों के चपेट में हैं, जहां उन्हें रात को मावोवादी धमकाते हैं तो दिन में राज्य की पुलिस प्रताड़ित करती है. सलवाजुडूम हो या ग्रीन हंट, आदिवासी अपने लाचार हालत में बदलाव के लिए गांधीवादी सत्याग्रह में कूद पड़े हैं.

          सत्याग्रहियों का काफिला जहां जहां से गुजर रहा है, वहाँ से हजारों लोग काफिला में जुड़ते जा रहे हैं. काफिले में बिहार से १५,००० दलित भी शामिल हैं, जो पिछले कई सालों से छत के लिए दस डिसमिल तो दूर मात्र ३ डिसमिल जमीन की मांग के लिए नीतीश सरकार के पास गुहार लगाते हुए निराश हो चुके हैं.

          कहना नहीं होगा कि भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी वर्तमान व्यवस्था में जहां एक ओर प्राकृतिक संपदा कोयला और लौह अयस्क के लुटेरों की नंगई की परतें एक एक तह खुलती जा रही है, वहीँ भूमिपुत्र आदिवासियों को किस कदर अन्यायपूर्वक अपनी मूल भूमि से खदेड़ा जा रहा है. इसी प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए सत्याग्रही दिल्ली के दरबार में गुहार लगाने को आ रहे हैं.

          वाह री कारपोरेट मीडिया, प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रानिक मीडिया ज़रा बिगबोस या क्रिकेट से फुर्सत निकाल के देश के इन वंचित और पीड़ित आदिवासियों की ओर एक नजर देखिये. प्राकृतिक भू संपदा से जुड़े आदिवासी समुदाय न्याय के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं. इन्हें न्याय दिलाईए.


साभार दलित आदिवासी दुनिया
(सम्पादकीय)


रविवार, 7 अक्तूबर 2012

बाणासुर की राजधानी दंडकारण्य

वर्तमान ऐतिहासिक ग्रंथों में देव, दैत्य, असुर, राक्षस जैसे मानव जातियों का सामाजिक जीवन का उल्लेख कहीं नही मिलता न उनकी भाषा-बोली, संस्कार, रीति-नीति ! वे देव, दैत्य, असुर, राक्षस हैं कौन ? इस पर न भारत के और न विश्व के इतिहासकार अपनी लेखनी से सिद्ध कर सके. भारतीय साहित्य जिनमे गीत, कहानी आदि रचनाओं को वर्णनात्मक शैली में प्रचारित किया, इससे ज्ञात होता है कि आर्यों के कोयवाराष्ट्र में पदार्पण के बाद उनके बारे में प्रथम पचार करते हुए 'अगस्त' नामक आर्य पुरुष भारत के उत्तर से दक्षिण को गया. जब विंध्याचल और सतपुड़ा की ऊँचाई हिमालय से भी ऊंची थी. कहने का तात्पर्य हिमालय को तो पार कर लिया गया लेकिन विंध्याचल और सतपुड़ा, बीच में नरमादा (नार गोदा-नर्मदा नदी) को पार करना लोहे के चना चबाने के बराबर था. इन पर्वत मालाओं में अनार्य राजाओं का प्रशासन था. अमरकंटक (लंका) में विश्व का महान वैज्ञानिक, तत्ववेत्ता, योद्धा रावण का राज्य था. पश्चिम जम्बूदीप, मेलघाट, पश्चिमी घाट के सम्मुख पम्पापुर में महान योद्धा, अतुलित शक्ति का आध्येता बाली का आधिपत्य था. उसे जीत सकना अपने को मिटाना ही था. पूर्वी समुद्र तट तक दंडकारण्य में बाणासुर का एक छत्र राज्य था.  दक्षिण भूभाग सिंहल द्वीप समूह तक समुद्र में भी रावण का अग्रज अहिरावण का साम्राज्य था.


यह थी हिमालय से भी शक्ति संपन्न राज्य में प्रविष्ट करना. सीमा क्षेत्र सिंधु तट खैबर और बोलन दर्रा, सिंधुकुश पर्वत को पार कर सिंधु क्षेत्र में वर्षों तक युद्ध होता रहा. वही युद्ध देवासुर संग्राम के नाम से आर्य गर्न्थों में वर्णन दृष्टांत आर्य ग्रंथों में दिया गया है. संस्कृत की रचना इस पृष्ठभूमि में आर्यों के ज्ञानी गायक, रचनाकार और प्रचारक हुए जो सिंधु पर सैकड़ों वर्षों तक कोयवाराष्ट्र को विजित कर प्रवेश करने की योजना बनाते रहे. योजना को क्रियान्वित करने वाला 'अगस्त' आर्य धर्म प्रचारक योद्धा के रूप में अपने कई अंगरक्षक साधू के रूप में सिंधु तट से गंगा तट, फिर नर्मदा तट और महानदी, इन्द्रावती, फिर गोदावरी तट तक पहुचा. गोदावरी नदी जो 'गोइंदारी' के नाम से विख्यात था. इस नदी के आगे 'अगस्त' की यात्रा समाप्त हो गई. अगस्त इस नदी में डूबकर मर गया. उसके साथी भी नदी में नाव डूबने से जल में समा गए. 


वेन्यांचल और येरुंगुट्टाकोर में योगी राज शंभूसेक अनार्य देव शक्ति का संरक्षक था. उसके अनुयायी अपनी मातृशक्ति और पितृशक्ति को आराध्य मानकर अन्य प्रकृतिसम्मत शक्तियों को देवी-देवताओं के रूप में प्रस्थापित करते थे. इन शक्तियों के आधार पर बाह्य आक्रमण और आंतरिक सुख समृद्धि के लिए सतत प्रयास करते रहते थे.


दंडकारण्य में भूपति विश्व वैज्ञानिक रावण का सहोदर असुर राज, योद्धा बाणासुर राज्य करता था. उसका दंडकारण्य भूभाग इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्रतट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्द्क कोया परिक्षेत्र था. वर्तमान बस्तर की बारसूर- इन्द्रावती नदी के तट पर समृद्ध नगर की नीव बाणासुर ने डाली और ग्राम देवी कोयतर माँ की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की. बाणासुर के द्वारा स्थापित देवी (दान्त तोना) गोंडी शब्द को कालान्तर में आर्यों के संस्कृति गीत में दंतेवाड़िन का सीधा अर्थ दांत से कर दिया गया.


इन शक्ति पीठों को ही ध्वस्त करना आर्य धर्म प्रचारकों का कार्य था. जो नगर बसे वहाँ आर्यो का कब्जा हुआ और उस स्थान में ऐसे शिल्प कला का प्रदर्शन करना हुआ जिससे उनके पुरखों की चित्रावली और उनके योद्धा पुरुषों के वर्णन अंकित किये गए. बारसूर राजधानी अनेक राजवंशों की राजधानी थी. ईशा पूर्व २००० वर्ष पूर्व तक असुर योद्धाओं की, नलवंश ४०० से ५०० ई. तक, गंगवंश ८५० ई. से १०२३ ई. और नागवंश महाभारत काल से छिट-पुट शक्ति संपन्न करने में सक्रीय रहे. छिंदक नागवंश ने अपने वंश की शक्ति १०२३ से १३१४ ई. तक अपने पुरखों की शक्ति को संपन्न किया. यह वही वंश है जो कौरव-पांडव के वंश को समाप्त कर दिया था. नागवंश को आर्य ग्रंथ सर्प की जाति मानती है. किन्तु यह अनार्य जाति नाग है, जिसका वंश सब जगह मिलेंगे.


कोईतोर मानवाल अपने मूल पुरुष और शक्ति स्त्रोत संपोषण पशु पक्षी और वनस्पति को मानता है. नागवंश अपना मूल पुरुष नाग जीवधारी से विकसित हुआ और उसे ही अपना देव के रूप में मानता है. नलवंश नेवला को अपना मूल पुरुष मानता है. इसलिए नल और नाग में कभी दोस्ती नहीं हो सकती. वे एक दूसरे से सदा के दुश्मन हैं. गंगवंश- कश्यप, नेताम कछुआ को अपना आध्य पुरुष मानता है. मरकाम लोग सांड को अपना मूल पुरुष के रूप में मानते हैं. बारसूर में नलवंश, गंगवंश, नागवंश, पोलवंश तथा पुलस्त्य वंश का भी आधिपत्य था.


महिसासुर संथाल योद्धा था. पूर्वांचल में पर्वत मालाओं में प्रवेश करना कठिन था. उस महान योद्धा महिषासुर में अनेक भैंसों के बराबर अपार शक्ति थी. उसे जीत पाना आर्यों को कठिन तो था ही तो उन्होंने रात्री के समय आर्य कन्याओं को श्रृंगारित और बना ठनाकर महिषासुर के पास भेजते थे. स्त्रियों को देख पहले तो महिषासुर को आश्चर्य होता था कि मै एक योद्धा और ये स्त्रियाँ, वह भी कमनीय इनसे युद्ध कैसा ? उनके पास जासूसी के लिए आई आर्य कन्या आर्यों के द्वारा दी गई मद्द (नशीली पेय) को पिलाकर अपने साथ रमण करने की इच्छा व्यक्त करती थी. जब पुरुष कामातुर हो जावे और स्त्री रजामंदी से उसे तृप्त करने की उत्सुकता जतावे  तब वह पुरुष, योद्धा प्रवीण होने पर भी स्त्री के सामने नतमस्तक हो जाता है. वैसे ही परिस्थिति में आर्य कन्या दुर्गा द्वारा महिषासुर की ह्त्या हुई, जिसका चित्रण जगह-जगह पत्थरों में, मूर्तियों में उकेरा जाता है और अतिसंयोक्तिपूर्ण प्रचार किया जाता है.


बारसूर में जो पत्थरों की मूर्तियाँ हैं वे १४वी १५वी सदी में आर्य शिल्पकारों द्वारा निर्मित किये गए हैं. छिंदक, दंतेवाड़ा और बस्तर के अनेक स्थलों में इसी समकक्ष के काल में आर्य धर्म प्रचार कड़ी तैयार किये. दंतेवाड़ा के आगे ५००० वर्ष से भी अधिक पुराना मरघट (मुर्दावाली) है. कोंदा मेंदल (बैलाडीला) के नीचे तराई में कश्यप गोत्र का गोंगो ठाना है. कोंदा मेंदल में नंदोरी पहाड़ है, जहां मरकाम गोत्र का सांड उस परिक्षेत्र में पहले पाया जाता था. वहीँ से शंभूसेक ने बाल गौरी को प्राप्त किया था. 


बारसूर वर्तमान बस्तर जिले में गीदम-बीजापुर रोड के उत्तर दिशा में प्राचीन भव्य नगर था. इन्द्रावती नदी के तट पर अनेक भग्नावेश प्राचीन ईशा पूर्व अनार्य राजा बाणासुर की स्थापित राजधानी है. वहीँ अंधकार युग के बाद नलवंश, नागवंश, पोलवंश फिर कौवेवंश की राजधानी का इतिहास तो प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य कारों द्वारा वर्णन किया गया है. किन्तु जब कोइतोर मानव समाज के सामाजिक अध्ययन और उनकी संस्कृति, धर्म, पूजा-अर्चना की अध्ययन करते हैं तो आर्य कथानक सर्वथा झूठे और मनगढ़ंत लगते हैं. दंतेवाड़ा का मड़ई-मेला वास्तव में आर्यों के धर्मानुसार नहीं है. वह तो कोयापुनेम के अधिष्ठाता आदि धर्म गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगो की ग्राम व्यवस्था के अनुकूल कोयतर माँ की बेटी माता माय खेरमाता मावली (मावा दायी) की पूजा होती है. दक्षिण बस्तर के सभी ग्राम के देवी माता इस मुख्य ठाना में आकर सेवा भेंट करती हैं. उनके सेवक उनका झंडा पालो और आंगा (अंग) को लेकर दंतेवाड़ा में फाल्गुन माह के मड़ई में आते हैं. मेला पखवाड़ा तक रहता है, लेकिन पूजा अर्चना एक दिन होता है. मड़ई में नित्य रात्री को जीवन के शिक्षणों, शिकार आनंद का प्रदर्शन, नृत्य-गीत वाद्य से होता है. यह पर्व बारसूर में प्रथम की जाती थी लेकिन राज्य व्यवस्था परिवर्तन होने पर नदियों के संगम में होने लगा. इस प्रथा परम्परा को आर्यों नें अपने अनुकूल मंदिर, मूर्ती और दंतेवाड़िन की कथा प्रचारित कर शक्तिपीठ को अपने अनुकूल किये. बारसूर में मावली माता (माता माय) की स्थापना लिंगो के सगा भूमकाओं द्वारा हुआ था.  योद्धा बाणासुर ने दंडकारण्य में राज्य स्थापित किया तो माता माय की सर्वप्रथम स्थापना किया, जो माता मावली के रूप में विख्यात हुई. वही १५वी सदी में कौवे वंश ने दंतेवाड़िन का नामकरण वास्तविक तथ्य को दबाकर तथा नया इतिहास गढ़कर प्रचारित किया. इस बाबत लोक भाषा में कोई उल्लेख या साहित्य उपलब्ध नहीं है.


गोंडवाना दर्शन 

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

लॉरेसिया एवं गोंडवाना लैंड


गोण्डवाना (पूर्वनाम 'गोंडवाना लैंड') प्राचीन वृहत महाद्वीप (अंग्रेजी;  Super Continent) पैंजिया का दक्षिणी भाग था। उत्तरी भाग को लौरेशिया कहा जाता है। गोंडवाना लैंड का नाम एडुअरड सुएस नें भारत के गोंडवाना क्षेत्र के नाम पर रखा था। गोंडवाना भूभाग आज के समस्त दक्षिणी गोलार्ध के अलावा भारतीय उप महाद्वीप और अरब प्रायद्वीप जो वर्तमान में उत्तरी गोलार्ध में है का उद्गम स्थल है।

गोंडवाना नाम नर्मदा नदि के दक्षिण स्थित प्राचीन गोंड राज्य से व्युत्पन्न है, जहाँ से गोंडवाना काल की शिलाओं का पहले पहल विज्ञानजगत्‌ को बोध हुआ था। इनका निक्षेपण पुराकल्प के अंतिम काल से अर्थात अंतिम कार्बन युग (Carboniferous) से आरंभ होकर मध्यकल्प के अधिकांश समय तक, अर्थात्‌ जुरैसिक (Jurassic) युग के अंत तक, चलता रहा। एक पूर्वकालीन विशाल दक्षिणी प्रायद्वीप के निम्न स्थलों अथवा विभंजित द्रोणियों में जो संभवत: मंद गति से निमजित हो रही थीं, नदी द्वारा निक्षिप्त अवसादों से इन शिलाओं का निर्माण हुआ। गोंडवाना काल में मुख्यत: मृत्तिका, शेलशिला (Shell), बलुआ पत्थर (sandstone), कंकरला मिश्रपिंडाश्म (conglomerate), सकोणाश्म (braccia) इत्यादि शिलाओं का निक्षेपण हुआ। स्वच्छ जल में निर्मित होने के कारण इन शिलाओं में स्वच्छ जलीय एवं स्थलीय जीवों तथा वनस्पतियों के जीवाश्म का बाहुल्य और महासागरीय जीवों एवं वनस्पतियों के जीवाश्म का अभाव है।

परिचय

इस महान्‌ स्थलखंड को भूगर्भवेत्ताओं ने 'गोंडवाना प्रदेश' की संज्ञा दी। कुछ विद्वानों का मत है कि यह प्रदेश एक विशाल भूखंड न होकर अनेक भूभागों का समूह था जो सँकरे भूसंयोजकों अथवा स्थलसेतुओं द्वारा एक दूसरे से संबद्ध थे। इसके अंतर्गत भारत तथा समीपवर्ती देश आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका, अंटार्कटिका, दक्षिणी अफ्रिका और मेडागास्कर आते थे। इस काल की शिलाओं, जीव जंतुओं, वनस्पतियों, जलवायु इत्यादि के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पूर्वकालीन गोंडवाना प्रदेश के उपर्युक्त अंतर्गत भागों पर इन दशाओं में आश्चर्यजनक समानताएँ थीं। इस प्रकार यह पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाता है कि पूर्वकालीन गोंडवाना प्रदेश के अंतर्गत भाग गोंडवाना काल में एक दूसरे से पूर्णतया अथवा भूसंयोजकों द्वारा संबद्ध थे, अन्यथा जीवों और वनस्पतियों का एक भाग से दूसरे भाग में परिगमन असंभव था। इसी काल में, उत्तरी गोलार्ध में, उत्तरी अमरीका, यूरोप तथा एशिया महाद्वीप भी एक दूसरे से संबद्ध थे और एक अन्य विशाल भूखंड का निर्माण कर रहे थे जिसे लारेशिया कहते हैं। लौरेशिया तथा गोंडवाना प्रदेश के मध्य टीथिस नामक एक संकरा सागर था। इन दोनों स्थलखंडों को मिलाकर 'पैंजिया' कहा गया है।

गोंडवाना प्रदेश का विखंडन मध्यकाल के अंत में अथवा तृतीयक कल्प के आरंभ में हुआ। इस काल में एक विशाल ज्वालामुखी उद्गार भी हुआ जो संभवत: इस विखंडन की क्रिया से संबंधित या इसी का पूर्वसंकेत था। यह परिवर्तन संभवत: अंतर्गत भूखंडों के तटस्थ भागों अथव स्थलसेतुओं के निमज्जन से या इन भूभागों के एक दूसरे से दूर खिसक जाने से संपन्न हुआ। इसी के साथ साथ बंगाल की खाड़ी, अरब सागर, दक्षिण अटलांटिक सागर इत्यादि का जन्म हुआ।


यह ऊपर बताया जा चुका है कि एक समय में, एक दूसरे से संबद्ध होने के कारण भारत, दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया इत्यादि की पुराभौगोलिक दशाओं में समानताएँ पाई जाती हैं। इस काल की भौगोलिक दशाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्रारंभ में, अर्थात्‌ अंतिम कार्बन युग में, गोंडवाना प्रदेश की जलवायु हिमानीय (Glacial) थी जिसकी पुष्टि इस युग के बोल्डर तहों (Boldar Beds) की उपस्थिति से होती है जो सभी अंतर्गत भागों पर मिलते हैं। भारत की तालचीर, दक्षिणी अफ्रीका की ड्वाईका, दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया की मुरी तथा दक्षिणी अमरीका की रियो टुबारो समुदायों की शिलाएँ इन्हीं बोल्डर तहों पर स्थित हैं। इस काल में ग्लासैपटेरिस (Glossopteris) एवं गंगमौपटेरिस वनस्पतियों की प्रचुरता थी तथा उभयचर जीवों का भूतल पर प्रथम बार आगमन हुआ था। तत्पश्चात्‌ पर्मिएन कार्बन युग में मोटे कोयला स्तर मिलते हैं जो उष्ण एवं नम जलवायु के द्योतक हैं क्योंकि प्रचुर वनस्पति की उपज के लिये, जिसके द्वारा कालांतर में कोयले का निर्माण होता है, इसी प्रकार की जलवायु की आवश्यकता होती है। ये कोयला-स्तर इस काल में निर्मित भारत की दामुदा समुदाय, दक्षिणी अफ्रीका की इक्का तथा दक्षिणपूर्व आस्ट्रेलिया की मेटलैंड उपसमुदायों की शिलाओं में मिलते हैं। इस काल में ग्लासौपटेरिस वनस्पति एवं उभयचर जीवों का पूर्ण विकास हो गया था परंतु गंगमौपटेरिस वनस्पति का ह्रास हो रहा था।

तदुपरांत मध्य गोंडवाना काल के आंरभ में अथवा आंरभिक ट्राइऐसिक (Triassic) युग में जलवायु में पुन: शीतलता आ गई, जैसा इस काल की शिलाओं के अध्ययन से स्पष्ट विदित होता है। इन शिलाओं में उपस्थित फेल्सपार के कणों में विघटन होकर विच्छेदन (disintegration) हुआ है। विच्छेदन क्रिया मुख्यत: शीतल जलवायुवाले प्रदेशों में तथा विघटन क्रिया समान्य (उष्ण एवं नम) जलवायु के प्रदेशों में अधिक महत्वपूर्ण है। इस काल की शिलाएँ भारत के पंचत्‌ समुदाय, दक्षिणी अफ्रीका के व्यूफर्ट तथा दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया के हाक्सबरी उपसमुदायों के अंतर्गत मिलती हैं। इसके पश्चात्‌ अंतिम ट्राइएसिक युग में जलवाय उष्ण एवं शुष्क हो गई। इसकी पुष्टि इस काल के लाल वर्ण के बालुकाश्म से होती है जिसमें लौहयुक्त पदार्थों का बाहुल्य तथा वानस्पतिक पदार्थों का पूर्णतया अभाव मरुस्थलीय जलवायु का द्योतक है। भारत में महादेव समुदाय की शिलाएँ इसी काल में निक्षिप्त हुई थीं। मध्य गोंडवाना काल की मुख्य वनस्पति थिनफैल्डिया-टिलोफाईलम (Thinnfeldia Telophylum) है जिसने पूर्वकालीन ग्लासेपटेरिस वनस्पति का स्थान ले लिया था। जीवों में सरीसृपों (reptiles) का पृथ्वी पर सर्वप्रथम आगमन इसी काल में हुआ था कि उभयचरों एवं मीनों का भी बाहुल्य था। इन सब जीवों के जीवाश्म इस काल की निक्षिप्त शिलाओं में मिलते हैं।

गोंडवाना काल के अंतिम भाग में, अर्थात्‌ जुरैसिक युग में, जलवायु में पुन: सामान्यता आ गई थी। इस काल की शिलाओं में वानस्पतिक पदार्थ मिलते हैं; परंतु कोयले का निर्माण महत्वपूर्ण नहीं हुआ था। मुख्य वनस्पतियाँ साईकेड, कानीफर एवं फर्न हैं तथा मुख्य जीव स्टेशिया एवं मीन हैं। गोंडवाना काल का अंत अथवा गोंडवाना प्रदेश का विखंडन संभवत: एक भीषण ज्वालामुखी उद्गार से हुआ, जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस काल में भारतवर्ष राजमहल उपसमूह तथा दक्षिणी अफ्रिका में स्टार्मबर्ग समुदाय की शिलाओं का निक्षेपण हुआ था।


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