शनिवार, 15 सितंबर 2012

नक्सलवाद और आदिवासियों के विकास पर सुलगते सवाल


(१) बस्तर में पाँचवी अनुसूची लागू है, तो इसके लागू रहते वहाँ फ़ोर्स की तैनाती कैसे हुई ?

(२) यदि फ़ोर्स की तैनाती वहाँ जनता की सुरक्षा और नक्सलवाद के खात्मे के लिये हुई भी तो फ़ोर्स और नक्सलवादियों के मुठभेड़ में आदिवासी ही क्यों मर रहे है ?

(३) बस्तर में सभी जाति वर्ग की जनता निवास करती है किन्तु उनके हताहत होने और नक्सलियों द्वारा मारे जाने या उन्हें फ़ोर्स द्वारा परेशान किये जाने का समाचार किंचित मात्र भी नहीं है. यदि गैर आदिवासी और आदिवासी एक ही छेत्र में रहते हुये भी गैर आदिवासी नक्सलवाद से ज़रा भी प्रभावित न होकर दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं तथा इसके विपरीत आदिवासियों को नक्सलवाद के नाम पर घर से बेघर किया जाकर उनके जीवन को प्रभावित किया जा रहा है. इसके मायने क्या है ?

(४) क्या फ़ोर्स नक्सलवाद के नाम पर बस्तर में केवल आदिवासियों के खात्मे के लिये भेजी गई है ?

(५) नक्सलवादी कहकर बेगुनाह, बेक़सूर आदिवासियों और उनके बच्चों को बस्तर में तैनात फ़ोर्स के द्वारा फर्जी मुठभेड़ के रूप में मारने का उनका औचित्य क्या है ?

(६) बस्तर में समाज सेवियों को नक्सलवादियों से ख़तरा बताकर घुसने नहीं दिया जाता किन्तु यहाँ जमीन का सौदा करने और उद्योग लगाने के लिये आने वाले उद्योगपतियों को सर आँखों पर बिठाकर उन्हें फ़ोर्स द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाती है. सामंजस्य बिठाने वाले समाज सेवकों को डर दिखाकर वहाँ से खदेड देना और दूसरी और वहाँ घुसने वाले, जमीनों, जंगलों और खनिज संपदा की दलाली करने वाले उद्योगपतियों को सुरक्षा प्रदान कर अति संवेदनशील और दुर्लभ क्षेत्रों का कोना-कोना घुमाए जाने से उन्हें कोई ख़तरा नहीं होना किस तरह की सुरक्षा व्यवथा का प्रतिफल है ?

(७) समाज सेवकों को नक्सलियों का ख़तरा बताना और दूसरी और उद्योगपतियों को सुरक्षा प्रदान करना किस तरह की सुरक्षा व्यवस्था की रणनीति है तथा ऐसा करने से किन लोगों का हित है ?

(८) पुलिस फ़ोर्स द्वारा आदिवासियों को ही नक्सलवाद प्रतिरोपित करना और उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार देने का क्या औचित्य है ? पुलिस फ़ोर्स द्वारा आदिवासियों के साथ ऐसा व्यवहार करने का क्या कारण है ?

(९) सुरक्षा में नाम पर पुलिस फ़ोर्स द्वारा आदिवासियों को उनके घर और जमीन जायदाद से उठाकर शिविरों में जबरदस्ती रखना किस तरह की सुरक्षा है ? ऐसा करने से क्या और किसको लाभ है ?

(१०) बस्तर के अनेक क्षेत्रों में विदेशी मूल- तिब्बती, बँगलादेशी लोगों को शरण दिया गया है. वे खूब तरक्की कर रहे हैं तथा सरकार उन्हें उनके ही सरण स्थल पर हर तरीके की सुविधा मुहैया करा रही है, किन्तु आदिवासियों को उनके घरों से निकाल कर शिविरों में रहने के लिये क्यों बाध्य कर रही है ?

(११) अनुसूचित क्षेत्रों के आदिवासियों के कृषि जमीनों को सरकार द्वारा जबरदस्ती अधिग्रहण कर उस पर उद्योगपतियों को उद्योग लगाने के लिये अनुमति क्यों दे रही है ? क्या ऐसा करना आदिवासियों के साथ संवैधानिक एवं नीतिगत न्याय है ?

(१२) अधिसूचित एवं आदिवासी क्षेत्रों में अति आवश्यक होने पर ही सरकारी स्थानापन्न के लिये पड़त एवं निजी जमीन ग्राम सभा और किसानो की सहमति एवं सम्पूर्ण मुवावजा देकर अधिग्रहण किये जाने का नीतिगत व संवैधानिक नियम है, किन्तु ऐसा न कर, बन्दूक की नोक पर आदिवासियों के जमीनों का अधिग्रहण करना, क्या उनका शोषण और अत्याचार नहीं है ?

(१३) किसानों के निजी जमीन पर लगने वाले उद्योगों में उनका शेयर प्रदान करने का संवैधानिक नियम है तथा एम.ओ.यू. (उद्योगों के स्थापना सम्बन्धी शर्त/सरकारी अनुबंध) में इनका उल्लेख होता है, किन्तु बस्तर में उद्योगों के स्थानापन्न के इतिहास में उनको अब तक किसी उद्योग में भागीदार नही बनाया गया. क्या यह संविधान नियम विरुद्ध नहीं है ?

(१४) एक तरफ सरकारें आदिवासियों के विकास के लिये तरह तरह की योजनाएं संचालित कर उनका स्तर उठाने के लिये सरकारी योजनाओं के कागजाती पुलिंदा तैयार कर रही है, किन्तु दूसरी ओर उनके जीवन संरक्षण के मूल साधन जल, जंगल, जमीन को छीनकर जानबूझकर बेदखल कर रही है. १७०(ख) के हजारों मामले न्यायालयों में लंबित है. कई मामलों में आदिवासियों के पक्ष में निर्णय हो चुके हैं किन्तु उन्हें अब तक जमीन का कब्जा दिलाने में उदासीन हैं. आदिवासियों के प्रति सच्ची न्याय में उदासीनता के क्या कारण है ?

(१५) वर्तमान आदिवासियों और उनके पूर्वजों का इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है. ईश्वी पूर्व और देवत्वकाल का इतिहास भी गौरवपूर्ण, संस्कृतिपूर्ण, देशप्रेमी, समृद्धशाली तथा विकसित रहा है. देश में आर्यों के आगमनकाल के इतिहास में भी आदिवासियों की गौरवपूर्ण इतिहास का उल्लेख मिलता है. दुश्मनों के साथ शक्तिपूर्ण संघर्ष और अन्याय पर विजयगाथा के श्रोत मिलते है. बताया जाता है कि इतिहास में अनार्यों (गोंडवाना/भारत के आदिवासी, मूलनिवासी लोग) और आर्यों (योरोपियन मूल के भारत में आये हुये विदेशी लोग) के बीच सदियों से स्वदेशी और विदेशी भावनाओं, शक्ति-सम्पन्नता, जाति-विजातिउंच-नीच, धर्म-अधर्म के भेद-भावपूर्ण अनेक संघर्ष होते रहे. किसी भी तरीके से मूलनिवासियों से विजय पाने के लिये वे अपने छल-बल और कुटिल नीति का उपयोग करते रहे और आगे बढते रहे, किन्तु मूलनिवासियों की सहज जीवन नीति पर विजय नही पा सके. आज भी उन आदिवासी पूर्वजों की संतानों के सरल, सहज नीति पर अनेक तरह से लाखों कुठाराघात के बावजूद भी विदेशी आर्य लोगों की संताने विजय नही पा सकी. उनकी कुटिल प्रहार आज भी उसी तरह है, जिस तरह इतिहास में रहा. इसीलिए कहीं ऐसा तो नहीं कि आर्य विदेशियों के सर्व सम्पन वंशज अब भी मूलनिवासियों के वंशजों को चतुराईपूर्ण छल-बल तरीके से किन्तु मीठी जुबान की कटार से समूल मिटाने के प्रयास में हों ?


बी.पी.एस.नेताम

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें