शनिवार, 8 सितंबर 2012

यह मेरा स्वतंत्रता दिवस कैसे हो सकता है ?


          यह तुम्हारा स्वतंत्रता दिवस है, मेरा नहीं. कैसे हो सकता है ? आज मेरे २००० आदिवासी भाई-बहन छत्तीसगढ़ की जेलों में बंद हैं. ऐसे ही लगभग एक लाख शरणार्थियों से भी बुरी हालत में आंध्रप्रदेश के सीमावर्ती जिलों में खदेड़ दिए गए हैं. कैम्पों और गावों में रह रहे आदिवासियों पर जो अत्याचार सरकारी कारिंदों और सुरक्षाकर्मियों द्वारा किये जा रहे हैं सो अलग. १५ अगस्त १९४७ को स्वछंद आदिवासियों को इतिहास में पहली बार केन्द्रीय सत्ता के अधीन लाया गया और यह स्वीकारते हुए कि वह अन्य वर्गों की तुलना में जटिल कानूनों का पालन करने की स्थिति में नही है. संविधान में कई विशेष सुविधाएं प्रस्तावित की गईं. आजादी के ६५ साल बाद भी किसी सरकार ने संविधान में किये गए वह वादे नहीं निभाए.

          सांस्कृतिक और भू-स्वामित्व सुरक्षा, पांचवी अनुसूची का मूल विचार है और सरकारों ने लगातार शीर्ष और जमीनी स्तर पर अपनी कार्रवाईयों से इस वादे को तोड़ा है. 'मुख्य धारा' में खींच लाने की जिद और आधुनिक जीवनशैली के अबाध प्रचार का नतीजा यह हुआ है की एक ओर से आदिवासी अपनी संस्कृति से कटते गए और दूसरी ओर बाहरी लोगों के अंधाधुंध आगमन से वह अनुसूचित क्षेत्रों में भी तेजी से अपनी बहुसंख्यता गंवाते रहे. विदेशी शरणार्थियों को योजनाबद्ध तरीके से सरगुजा और बस्तर में बसाकर सरकारों द्वारा स्वयं संविधान की पांचवी अनुसूची का खुला उल्लंघन किया गया है. इससे क्रूर मजाक और क्या होगा कि भारत के वृहततम एकल आदिवासी क्षेत्र बस्तर के मुख्यालय जगदलपुर का विधायक आज एक मारवाड़ी व्यक्ति है.

          २००७ में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ की "मूलनिवासियों के अधिकारों की घोषणा" पर हस्ताक्षर किये. इसके तहत आदिवासियों को स्वनिर्णय, सांस्कृतिक सुरक्षा के अतिरिक्त यह अधिकार दिया गया है कि उनके क्षेत्र में कोई भी सैन्य गतिविधि उनकी इच्छा और मांग के बिना नही की जायेगी. तब भी छत्तीसगढ़ सरकार ने सैंकड़ो एकड़ भूमि (पांचवी अनुसूची और पैसा अधिनियम के प्रावधानों के विरुद्ध) स्थानीय मुखिया के विरोध के बावजूद भारतीय सेना को कैम्प बनाने के लिये दे दी है. उच्चतम न्यायालय द्वारा सलवा जुडूम मामले में जुलाई २००७ में स्पष्ट तौर पर आंतरिक अशान्ति के गहरे कारणों पर ध्यान देने के निर्देशों के बावजूद भी सरकार कोई दूरगामी, संवेदनशील रणनीति बनाने के बजाय केवल बल प्रयोग करने पर तुली हुई हैं. सरकारों के पास सारे भौतिक-बौद्धिक संसाधन जुटाने की सहूलियत है, लेकिन धन और सत्ता के लालच ने उन्हें आदिवासियों के प्रति इतना संवेदनहीन बना दिया है कि वह शान्ति प्रक्रिया के कोई इमानदार प्रयास नही करना चाहती. किसी भी कीमत पर त्वरित खनिज दोहन, हमारी अघोषित राष्ट्रीय नीति बन गई है और इसकी सबसे बड़ी कीमत हमारे आदिवासी भाईयों को चुकानी पड़ रही है.

          विशेष तौर पर पिछले २ सालों में मैंने स्थानीय शासन प्रशासन और स्वयं सेवी संगठनों के साथ मिलकर आदिवासी स्थिति की जटिलताओं को समझने और व्यापक समाज को समझाने की बहुत कोशिश की है. कलेक्टर, सचिव, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, राष्ट्रपति से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव तक को स्पष्ट तार्किक पत्रों द्वारा स्थिति से अवगत कराते हुए कार्रवाई का अनुरोध किया है. सवा साल के गहन शोध के बाद मैंने पांचवी अनुसूची की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की और जून २०१२ में बिलासपुर उच्च न्यायालय से जनहित याचिका के माध्यम से इस विषय पर हस्तक्षेप का अनुरोध किया है. कई विश्वविद्यालयों में इस पर चर्चा के दौरान माना गया कि संविधान की पांचवी अनुसूची का यह एक सार्थक विवेचन है और ६२ सालों में पहली बार इसे लागू कराने का प्रभावी प्रयास हो सकता है.

          इतना सब करने के बाद आज मुझे लगता है कि सभी शांत तरीके से बुद्धिजीवी प्रयासों द्वारा छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की दयनीय स्थिति की ठीक प्रस्तुति नहीं की जा सकती. जेनेवा, न्यूयार्क, नई दिल्ली और सबसे बढ़कर रायपुर के नागरिकों को आदिवासी स्थिति के प्रति जागरूक बनाना जरूरी है. यहाँ आदिवासी स्थिति को लेकर व्यापक समझ बहुत सतही है और प्रत्यक्ष जाकर देखना तो दूर आदिवासियों के बारे में नृशास्त्रीय (एंथ्रोपोलोजिकल), आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक, विधिक और संवैधानिक जानकारी के लिए प्रमाणिक पुस्तकें पढने का भी श्रम नही किया जाता. मेरा मानना है कि आदिवासियों पर यह लगातार अत्याचार सिर्फ स्थानीय युवाओं,  बुद्धिजीवियों की संवेदनहीनता के कारण चल पा रहा है. इसलिए प्रेस क्लब और राजभवन के बीच सड़क पर निर्वस्त्र रेंग घिसट कर उस तकलीफ और पीड़ा को सही प्रत्यक्ष उपमा से दिखाना चाहता हूँ. यदि सौ पचास युवाओं में भी इससे कुछ चेतना आती है तो मुझे मूर्ख और राष्ट्रदोही होने का आरोप  स्वीकार है.

बी.के.मनीष.

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