रविवार, 23 सितंबर 2012

गोंडी धर्म, संस्कृति, साहित्य पर पराश्रय


          यह सर्व विदित है कि किसी भी मानव समूह की जीवन पद्धति, संस्कृति, साहित्य का उत्थान या यथावत सम्मान तभी कायम रह सकता है जब उस देश की राजसत्ता उसे सहयोग और संरक्षण प्रदान करे और उसका संवर्धन करे. इस देश में आर्य, हूड, यवन, अफगानी, मुसलमान और क्रिस्चन आये. उन्होंने अपने अपने शासनकाल में अपनी धर्म, भाषा, संस्कृति, साहित्य का प्रचार-प्रसार और संवर्धन किया.

          इन गैर मुल्क के लोग इस देश के मूल निवासियों की सत्ता, धर्म, संस्कृति और साहित्य को तो रौंदा ही साथ ही इस देश के निवासियों के ऊपर आर्य, इस्लाम, क्रिश्चन धर्म को थोप दिया. आर्य और अंग्रेज यवन तो किसी तरह अपने अपने पितृ देश लौट गए किन्तु इस देश में औलाद छोड़ गए. आर्य दुनिया में कई धर्म मानते हैं. किसी भी मुल्क में जा बसते हैं. लेकिन इस कोयवा राष्ट्र के जमीन से जुड़े कोईतुरियन अपने कोयापूनेम गोंडी धर्म को अनादि काल से अपने सीमित दायरा में रखे हैं.

          इस जन समूह में अनादिकाल में गोंडी धर्म के संस्थापक पहांदी पारी कुपार लिंगो द्वारा जीवन के नीति नियमों का प्रतिस्थापन किया गया था. वह आज भी जीवित है. इस गोंडी धर्म के बारह गुरु, धर्म प्रचारक लिंगो के बाद हुए. तब अनादि राजा शंभूशेक ने धर्मपाल की हैसियत से सम्पूर्ण कोयवा राष्ट्र में प्रचार किया था. उसके बाद अनेक प्रतापी राजाओं ने ईशा के कई हजार वर्ष पूर्व से और ईशा के बाद मुगलों के आगमन तक गोंडी धर्म, संस्कृति, साहित्य और कला का संरक्षण किया.

          महाराजा संग्रामशाह के शासन काल तक गोंडी भाषा, गोंडी साहित्य कला एवं संस्कृति फलते फूलते रही. विश्व में अनेक राष्ट्रों और देश में एकतंत्र शासन व्यवस्था में परिवर्तन होने लगा और औद्योगिक क्रान्ति में अनेक वैज्ञानिक अविष्कार ने नया रूप धारण किया.

          भारत अंग्रेजों से आजाद हुआ. जो इस धरती पर सबसे बाद में आये थे वे भारत को अनेक जाति, अनेक भाषा, अनेक धर्म को राज व्यवस्था के अंतर्गत एक बनाने का ढोंग किया. अंग्रेजी भाषा, ईसामशी को मनवाने के लिए अपना शाहित्य प्रचार किया. इस पर प्रवासी मंगोलियन, आर्यन, यूनानी भी अपने को जागृत करने का साधन सरंजाम करने लगे. भारत आजाद हुआ और धर्म निरपेक्ष की कहानी गढ़ी गई. इस देश में हर धर्म को मान्यता दी जावेगी कहा गया. लेकिन आजादी के बाद जो हिस्सेदारी मिलना चाहिए था वह सभी धर्म, संस्कृति, साहित्य को हकदारी मिली. उनके नाम से संविधान में उनकी भाषा को उनके राज्य के नाम, धर्म के नाम और संस्कृति को मान्यता दी गई. लेकिन इस देश के पुरातन काल से निवास करने वाले करोड़ो जन समूह के हितों का तिरस्कार, उपेक्षा, घृणा और अनादर कर उपरोक्त धर्मों का गुलाम घोषित किया गया.

          करोड़ो मूलनिवासी आजाद भारत में गुलाम हैं- भाषा से, धर्म से, संस्कृति से, साहित्य से, राजसत्ता में हकदारी से. इस समूह का गौरवशाली इतिहास, स्मृतिचिन्ह से वंचित किया गया. पुरातन वीर बालाओं, योद्धाओं और उनकी संस्कृति का विकृत चित्रण कर घृणा के बीज बोते रहे और बोते हैं.

          इसीलिए अपने अस्तित्व और सम्मान के लिए धर्म, संस्कृति और साहित्य के निर्माण हेतु राजाश्रय के आकांक्षी हैं. इस देश की संविधान का आदर करते हुए प्रत्येक मानवजाति को प्रलोभन, धोखा-धड़ी, वर्णशंकर धर्मी न बनाया जाय. इस समूह के लोग प्रकृति में आँख खोलते हैं, प्रकृति में जीवन यापन कर प्रकृति के गोद में ही आँख बंद कर लेते हैं. हम प्रकृति प्रदत्त शक्तियों को धर्म संस्कृति, साहित्य के रूप में देखना पसंद करते हैं. अतः हम अपने हकदारी की लड़ाई में भागीदार बनें. यही हमारा जीवन, यही हमारा धर्म, यही हमारी संस्कृति और यही हमारा साहित्य है. इसे पराश्रित न होने दें. इसका संरक्षण करें.

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

सिंन्धु सभ्यता का उदभव


सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता वर्तमान पकिस्तान में स्थित शहर से लगभग २०० कि.मी. दक्षिण पश्चिम में राबी एवं सतलज नदियों के बीच में है. सिंधु नदी के पाकिस्तान देश में अरब सागर में गिरने के लगभग ४५० कि.मी. पहले नदी के किनारे मोहन जोदड़ो नामक स्थान है, जिसकी खोज जान मार्शल के निर्देशन में श्री राखलदास बनर्जी ने सन १९२२ ई. में किया. पुरातत्विक खोजों की वरीयता क्रम में हडप्पा संस्कृति कहा जाता है, पर व्यवहार में यह सिंन्धु सभ्यता कहलाने लगी. अनेकों वर्षों तक यह शोध का विषय रहा कि सिंन्धु सभ्यता के जनक कौन थे, वे स्थानीय थे व बाहरी थे. स्थानीय अर्थात द्रविणों के पूर्व से रहने वाले या जो कि बाद में द्रविण कहलाये तथा बाहरी का आशय दजला फरात नदियों के मुहाने में स्थित मेसापोटामियां की सभ्यता या अफगानिस्तान व बलूचिस्तान के लोग जो कि हिब्रु भाषा बोलतें थे, जो द्रविण भाषा से मिलती जुलती थी.

डॉ. व्हीलर कहतें हैं कि सिंन्धु सभ्यता के लोग भवन निर्माण कार्य में कच्ची ईटों का प्रयोग करते थे तथा भवन निर्माण में लकड़ी के छतों से (नशेनी, मंचान) का उपयोग करते थे. इस कार्य में मेसोपोटामियां के भवन निर्माता सिद्धहस्त थे. डी.एच गार्डन कहते हैं- मेसापोटामिया से लोग सिंधु घाटी में जलमार्ग से आये अपने साथ कम से कम सामान लाये जिसे यहाँ जोड़-जोड़कर काम लायक बनाये ताकि हड़प्पा की कृषि भूमि पर कब्जा करके कृषि का विकास किया. सांकलिया कहते हैं- तंदूरी चूल्हों को कालीबंगा के उत्खनन स्थल पर मिलना  ईरान तथा दक्षिण एशिया के प्रभाव दर्शातें हैं. डॉ. व्हीलर महोदय तो सिंधु सभ्यता के चबूतरों और मेसापोटामियां जिगुरेत के टीलों को एक ही प्रकार के राजतंत्र की प्रेरणा से निर्मित होने की संभावना मानते हैं. सिंधु सभ्यता में नगर का नियोजन एवं सार्वजनिक स्वछता की व्यवस्था को मेसापोटामियां ही नहीं वरन विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में श्रेष्ठ पाया गया है. यदि मेसापोटामियां के लोग समुद्री मार्ग से आकर भवन निर्माण का कार्य करते तो काम चलाऊ ही बनाते, इसके अलावा महत्वपूर्ण यह कि मेसापोटामियां सभ्यता में चबूतरों पर मंदिर निर्माण के अवशेष मिलते हैं. जबकि सिंधु सभ्यता में मंदिर मिर्माण के एक भी अवशेष प्राप्त नहीं हैं. दोनों सभ्यताओं की विधि में अन्तर है. यदि व्हीलर महोदय मानतें हैं कि सिंधु सभ्यता के विकास में मेसापोटामियां सभ्यता का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. किन्तु अलकानंद घोस कहते हैं कि भरत के ही लोगों ने सिंधु सभ्यता का विकास किया. डॉ. सांकलिया का विचार है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल तत्व की जानकारी हेतु सिंध प्रान्त पाकिस्तान के जकोबाबाद से २२ किलोंमीटर दूर जुड़ेईजोदड़ो की खुदाई एवं बलूचिस्तान के अबरकोट की खुदाई से रहस्य उजागर हो सकते है. बलूचिस्तान के मेहारगढ़ में खुदाई से सिंधु सभ्यता के मूल तत्व प्राप्त नहीं हुये तथा मेहारगढ़ से ७ कि.मी. दूर नौशादों में भी विकसित सिन्धु सभ्यता के चरण नहीं मिले. केश सलाईम खां पाकिस्तान से १० कि.मी. दूर गुमला एवं २३ किमी. दूर रहमान ढेरी में खुदाई से भी कुछ विशेष प्राप्ति नहीं हुई. फेयर सर्विस कहतें हैं कि सिन्धु के पूर्व की सभ्यता के अवशेष जो उपरोक्त स्थालों पर मिले उनमे मेसापोटामियां सभ्यता, ईरानी सभ्यता के स्वरूप देखने को मिले हैं. प्रो. एस. इंगनाथ राव के अनुसार राजस्थान के सीरी एवं लोथल में खुदाई से जो साक्ष्य मिले हैं उनके अनुसार स्थानीय संस्कृतियों व्दारा धीरे-धीरे क्रमशः सिन्धु सभ्यता को विकसित कर दिया गया. मार्क केन्योर के अनुसार सभ्यता का विकास चार कारणों के दीर्घकाल में हुआ. प्रथम काल में गेंहू का प्रचुर उत्पादन, द्वितीय काल में इन्हें सहेजकर रहने हेतु मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तन बनाये गये. तृतीय काल में मुद्रा बाँट एवं व्यपार की विकसित सभ्यता सामने आयी और अंत में सिंधु सभ्यता का विघटन काल आया. जिसे क्रमशः ६५०० ई.पू. से १६०० ई.पू. तक के काल में विभाजित किये हैं. विभिन्न स्थलों की खुदाई से हडप्पा सभ्यता के पूर्व की सभ्यता होना बताया है. जिनका क्रमिक विकास हुआ है, जिनमे नगर नियोजन, देश विमुख भवन, योजना आवास, सुरक्षा दिवार, गढ़ी, कच्ची पक्की ईट का प्रयोग, अन्नागार, मृदभाण्ड तथा मनकें आदि व्यपार-व्यसाय बढ़ने से बाँट का प्रयोग गिनती, लेखन कला, सामान के बंडलों पर मुद्रा लगाने के लिए मुदाओं का विकास, नगर नियोजन, विशालभवन, नारियों के लिये सुन्दर आभूषण आदि विकसित सिंधु सभ्यता की विशेषताएँ हैं. मार्क केन्योर का स्पष्ट मत है कि सिंधु सभ्यता उसी स्थल पर सदियों तक स्थित ग्रामो के विकसित रूप थे. भारत के मानचित्र को तथा उसके भागौलिक बनावट को ध्यान से देखने से ज्ञात होता है कि हडप्पा सभ्यता का उदभव एकाएक नहीं हुआ है. मानचित्र के अनुसार जो हडप्पा सभ्यता है वह वर्तमान मुबई से उत्तर की ओर लाहौर (पाकिस्तान) के मध्य भाग तथा समुद्री तट मुंबई से कंराची (पाकिस्तान) के मध्य विस्तृत नदी घाटियों के मैदानी प्रदेश में स्थित है. हडप्पा एवं मोहन जोदड़ो दो अलग-अलग स्थल है, जहाँ से सिंधु सभ्यता के मुहरें (सील) खुदाई में पाये गये हैं. हडप्पा नामक स्थान रावी नदी के दक्षिण किनारे पर रावी एवं सतलज नदी के मध्य स्थित है, जबकि मोहन जोदड़ो नामक स्थान सिंधु नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है. सिंधु नदी जब अरब सागर में गिरती वहाँ से मोहन जोदड़ो की दूरी ४५० कि.मी. और हडप्पा की दूरी लगभग ११५० कि.मी. है. हडप्पा और मोहन जोदड़ो में ७० कि.मी. दूरी है. सिंधु सभ्यता ई. पु. ६५०० से १५०० तक कुल ५००० ई.पू. वर्षों क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढते हुये गये हैं. मनुष्य शिकारी अवस्था से कृषक अवस्था की ओर क्रमशः बढता गया है. कंदराओं एवं गुफाओं से निकल शिकारी जीवन को छोड़ते हुये कृषि कार्य एवं पशुपालन कार्य हेतु नदी के मैदानी क्षेत्र में बढता गया है. उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि सिंधु सभ्यता के पूर्ण ५०० वर्ष ई.पू. ५००० वर्ष से पहले भी सभ्यता रही है. ये लोग गुफाओं एवं कंदराओं में रहते थे. गुफा मानव जंगलों में एवं पहाड़ों में शिकारी जीवन जीते थे. नर्मदा नदी तो अति प्राचीन है. नर्मदा एवं तापती नदियों का बहाव पश्चिम की ओर है. उन नदी घाटियों में आमूरकोट (अमरकंटक) को मानव का उत्पत्ति स्थल कहा जाता है. कोया संस्कृति में आमूरकोट नर्मदा नदी के उदगम स्थल में सर्वप्रथम नर व मादा का जन्म हुआ. नर-मादा से नदी का नाम नर्मदा प्रचलित हुआ है. इस प्रकार नर्मदा घाटी की जो आदिम सभ्यता थी, यहाँ से ही लोग उत्तर की ओर क्रमशः बढ़ते गये है. सिंधु नदी एवं इसकी सहायक नदियों के कछारी उपजाऊ प्रदेश में गेहूं अनाज, दलहन फसलों की उत्कृष्ट कृषि करने लगे. कृषि उत्पादन की मांग सुदूर उत्तर पश्चिम के प्रदेश में जो कि भौगोलिक दृष्टिकोण से पठारी एवं कम उपजाऊ थे, वहाँ से अनाज, पशु पक्षियों की मांग उठने लगी तब नदियों के नौकायन से व्यापार अन्य देश से किया जाता रहा. अनाजों के भरपूर उत्पादन, उनके भंडारण उनकी सुरक्षा की व्यवस्था आदि का क्रमिक विकास हुआ. वही हडप्पा सभ्यता कहलायी. हडप्पा सभ्यता में प्राप्त मुहरों (सीलों) का उद्वाचन गोंड़ी भाषा के रूप में किया जा चुका है. अत: हडप्पा सभ्यता के जनक कोयावंशी कोयतुर (गोंड) ही प्रमाणित होता है.

भूमि के निसर्पण (सरकने) के सिद्धांत के अनुसार भूमि का बहुत बड़ा टुकड़ा टूटकर अलग हुआ और उत्तर पूर्व की ओर सरकता गया. इस विसर्पण से टेथिस सागर का जल सागर तट को छोडकर मैदानी भाग में आता गया. इससे महाजल प्लावन (कलडूब) की विभीषिका उत्पन्न हुई. यह उत्तर पूर्व की ओर कोयामुरी व्दीप में सरकने से टेथिस सागर उथला होता गया. सागर में स्थित कीचड़ व दलदल वाला भाग दबाव से उपर उठाया गया, जो कि हिमालय पर्वत श्रंखला पश्चिम से पूर्व एवं दक्षिण से पूर्व की ओर बनता गया. थेटिस सागर समाप्त हो गया. वहाँ हिमालय श्रंखला बन गई. कालांतर में सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रम्हपुत्र एवं अन्य सहायक नदियों ने जन्म लिया. किन्तु नर्मदा एवं ताप्ती पर्वत बहती रही है. कोयामुरी भूखण्ड आफ्रिका के पूर्वी तट जंजीबार तट से जुड़ा था. वहाँ ये नदियाँ करोड़ो वर्ष पूर्व विक्टोरिया झील में समाहित होती थी तथा अमूरकोट से प्रथम नर-मादा की उत्पत्ति के प्रमाण स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन मानव खोपड़ी झील के आसपास ही पाये गए हैं.

अत्यंत प्राचीन काल करोड़ो वर्ष पहले अमूरकोट स्थल से चलकर विश्व के चारो ओर फैले हैं, जो कि विश्व विभिन्न प्राचीन जातियों के डी.एन.ए. टेस्ट से प्रमाणित हुआ कि विश्व में मानव जातियों का विस्तार इसी अमूरकोट स्थल एवं आफ्रिका में विक्टोरिया झील प्रदेश स्थल से होना प्रमाणित है. अत: अमूरकोट कोइतुरों के दाई-दादा का जन्म स्थल है.

जब कोयामूरी व्दीप आफ्रिका जंजीबार तट से जुड़ा था तब नर्मदा ताप्ती नदी का प्रदेश भूमध्य रेखा के पास था. यहाँ भू-मध्य रेखीय जलवायु थी. करोड़ो वर्षों तक यहाँ अत्यधिक वर्षा होती थी. सघन एवं ऊचे-ऊचें वृक्ष थे. घनघोर जंगल थे. इन जंगलों में विशालकाय शाकाहारी डायनासोर निवास करते थे. करोड़ों वर्ष पूर्व भूमि का विसपर्ण (सरकाव) शुरू हुआ तथा कोयामुरी व्दीप का सरकाव शुरू हुआ और अब नर्मदा ताप्ती का प्रदेश २२/१.२ अंश उत्तर पूर्व की ओर सरक गया. तब आमूरकोट कर्करेखा पर स्थित हो गया. इसी अमूरकोट स्थल के जबलपुर शहर की पहाड़ियों में डायनासोर के अनेक अंडे भू-गर्भवेताओं व्दारा माँह जनवरी २००७ में खोज निकाले गये हैं. अंडों का जीवाश्म मिलना प्रमाणित हुआ कि अमूरकोट की सभ्यता कोयतुर सभ्यता है जो कालांतर में हडप्प सभ्यता बन गया.

सिंधु हड़प्पा सभ्यता का विस्तार

सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता में भवन निर्माण योजना, नालियों के निर्माण, स्नानागार का निर्माण ईटों, मिट्टी के बड़े-बड़े घड़े, आयुधों, आभूषणों, मुद्राओं एवं मापतौल के वस्तुओं में लगभग एकरूपता पाई जाती है. गुजरात में उपरोक्त वस्तुओं में समानता पाये जाते हुये भी कुछ नये सामग्रियाँ प्राप्त हुये हैं. १९२१ ई. तक मिश्र नदी, नील नदी की प्रभुता एवं दक्षता उपरोक्त नदियों की समानता से मेसापोमिया को विश्व की उत्कृष्ट नगरीय सभ्यता में गिना जाता था, किन्तु. १९२१ में हडप्पा की खोज राय बहादुर दयाराम साहनी ने एवं १९२२ में मोहन जोदड़ो का राखलदास बनर्जी ने खोज की. इससे तीसरी शताब्दी के महान सभ्यताओं की खोज हुई. सौराष्ट्र के रैगपुर में भी इसी सभ्यता की कड़ी पाई गयी तथा राजस्थान और बहावलपुर में भी नगरीय सभ्यता के उत्खनिज सामग्रियां प्राप्त हुई.

आजादी के बाद १९४७ में लोथल, रोपड़, कालीबंगा, वर्णावलीकक, धौलाकीटा में भी उत्खनन से नगरीय सभ्यताओं के अवशेष मिले. उधर पाकिस्तान में सिंध प्रांत में कोटदीजी, गामनवाला, गावेरीवाला में भी सिंधु सभ्यता के स्थलों की सामग्री मिली.

भारतीय प्रायव्दीप के सुदूर उत्तर में पंजाब प्रांत के रोपड़ को ही उत्तरीसीमा कहा जाता था. खोजों से गुमला सरायखोला नामक पाकिस्तान के स्थल उत्तरी सीमा मानी हैं. नर्मदा घाटी में मेधम, हरेलोद एवं गवभाव तथा तापती नदी के निचली घाटी में मालवण (जिला सूरत) समुद्र सीमा से लगा हुआ है. दक्षिण में महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के संगम पर दाइमाबाद इस सभ्यता की उत्तरी सीमा जम्मू में स्थित मांण्डा तथा जमुना नदी की सहायक नदी हिण्डन नदी के किनारे आलमगीरपुर (जिला मेरठ, उत्तरप्रदेश) इसकी पूर्वी सीमा है. यह सभ्यता पश्चिम में मकरान के समुद्री तट करांची से लगभग पचासी कि.मी. पश्चिम में स्थित सुत्कागेंडोर तक विस्तृत है.

पश्चिम में सुत्कागेंडोर से पूर्व में आलमगीर तक लगभग १८०० कि.मी. है और उत्तर में जम्मू में माण्डा से लेकर दक्षिण में दाइमाबाद तक लगभग १४०० कि.मि. है. इस विस्तृत भू-भाग में विशाल नगर (यथा हड़प्पा सभ्यता मोहन जोदड़ो) कुछ कहके यथा रोपण तथा कुछ ग्राम यथा आलमगीरपुर लोथल समुद्री व्यापार का केन्द्र रहा होगा जबकि मकरान के समुद्रतटवर्ती सुत्कागेंडोर, सोत्काकोह और बालकोट ने बंदरगाहों में पश्चिमी एशिया के साथ होने वाले व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी. हाल ही में तुर्कमेनिया क्षेत्र उत्खनन से स्पष्ट हो गया है कि सिंधु सभ्यता का मध्य एशिया के साथ भी सम्पर्क था. इस तरह सिंधु सभ्यता का विस्तार प्राचीन मेसापोटामिया, मिश्र तथा फारस के प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र में कहीं अधिक था. यदि सभ्यता के विस्तार क्षेत्र को संस्कृति ही नहीं माने जाएँ तो रोमन साम्राज्य से पहले विश्व में शायद ही इतना विशाल राज्य कहीं रहा हो.

पुराविदों ने इस सभ्यता के कुछ नाम सुझायें हैं तथा सिंधु सभ्यता के कुछ नाम सुझायें हैं या सिंधु सभ्यता, भारतीय सभ्यता, वृहत्तर सिंधु सभ्यता, सरस्वती सभ्यता, सिंधु सरस्वती पुरातत्व की परम्परा के अनुसार सभ्यता का नामकरण उसके प्रथम ज्ञात स्थल के नाम पर किया जाना चाहिये. इसलिये इसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी अभिहित किया जाता है.

नर्मदा ताप्ती एवं गोदावरी नदियों के कछार में चांवल की कृषि करते हुये, क्रमशः उत्तर की ओर गेहूं उत्पादन के लायक वातावरण वाले क्षेत्र तथा कपास उत्पादन वाले क्षेत्र एवं गुजरात सौराष्ट्र एवं पंजाब सिद्ध की ओर सभ्यता विकसित हुई. चूँकि गोदावरी घाटी के गोंडियन लोग चावल का उपयोग मुख्य भोजन के रूप में करते रहे. इसलिये वस्त्र के लिये सौराष्ट्र को चुना. गेहूँ सिंधु घाटी में उपजाने लगे और अधिक मात्रा में उत्पादन होने से इसका भण्डारण भी करते रहे. अब चूँकि मध्य एशिया के लोंगों का मुख्य भोजन गेहूं तथा अन्य वस्तुओं का लोथल, मकरान, बालाकोट बंदरगाहों से समुद्र मार्ग से व्यापार करने लगे. मध्य एशिया में कड़ाके की ठंड से अनाज उत्पादन नगण्य होने लगा. गेहूं की रोटी की खुसबू आर्यों को सिंधु घाटी की ओर बढ़ने के लिये एवं इसे प्राप्त करने के लिये मजबूर कर दिया. व्यापार एवं उन्नति, वैभवशाली नगर के सीधे लोग, मेहमानों की आवगमन की प्राचीन व्यवस्था ने सभ्यता को समूल नष्ट करने का मार्ग प्रशस्त किया. किन्तु अब कुछ लुटाकर साहित्य, संस्कृति को स्वाहा होता देखकर अदम्य साहस का परिचय देते हुये हमारी माताओं ने हमे पुनः स्थापित किया. हमे अपने छाती का दूध पिलाया. यही दूध गोंडवाना संस्कृति का सबसे बड़ा गोंडवाना का कर्जा है. इसे ही चुकाने के लिये हम मामा-फुफूँ में शादी-ब्याह स्थापित करने, दूध का कर्ज उतारते हैं. माताओं ने जो हमारी पालन-पोषण, सेवा की है, इसलिये उनको इस सेवा की हम जय जयकार करते हैं. जय सेवा कहते हैं.

हड़प्पा सभ्यता के सुदूर दक्षिण में गोदावरी तट पर पूरा स्थल दाईमाबाद है, जो की वस्तुतः दाऊमाँबाद है. यह अपभ्रंश होकर प्रचलित है. दाऊ याने पिता, माँ याने माता, बाद याने स्थल अर्थात माँ-बाप का स्थल. हमारे पुरखा लोगों का स्थल. हमारे लिंगों जंगों का यही स्थान है. हम कोयावंशी हैं. कोयतुर हैं. माँ की कोख से उत्पन्न हुये हैं. हम अपने दाई के वीर हैं. दाईनोरवीर हैं. जो अब अपभ्रंश होकर द्रविड़ हो गया.

सुदूर उत्तर में जम्मू के पास माण्डा नामक स्थान है, जिसको गोंडी में आशय हिंसक पशुओं की गुफा होता है. मुमला का आशय नीलकंठपक्षी होता है तथा अवरकोट का आशय हल के निचे चीपा के रूप में लकड़ी का गढ़. इसका भावार्थ- गुफाओं में निवास करने वाले कोयावंशियों ने शिकारी व्यवस्था को छोड़कर कृषि कार्य किया और विपुल उत्पन्न प्राप्त किया, जो की नीलकंठ पक्षी की तरह बेजोड़ है. पूर्वी भाग में ‘आलमगीरपुर’ है, जो की हिन्डन नदी के पास है. इसका आशय- यहाँ पर पहाड़ी इलाके में आलू की खेती अच्छी होती है.  पश्चिम भाग में ‘मकरान’ नामक स्थान है. इसका आशय- यहाँ के उथले सागर तट एवं नदियों में छोटी एवं बड़ी मछलियाँ प्राप्त होती रही है.

क्या हड़प्पा संस्कृति गोंड़वाना संस्कृति है ?

संस्कृति का आशय सभाकृति अच्छे कार्य से हैं. वे कौन-कौन से अच्छे कार्य हैं अथवा कार्यकलाप है, जिनसे कोई सभ्यता उत्कृष्टता की सीढ़ी को प्राप्त करता है, ऐसे अनेक पहलुओं पर विश्लेषण आवश्यक है. इनसे यह प्रिपादित होगा कि क्या हड़प्पा संस्कृति या हड़प्पा सिंधु सभ्यता गोंडवाना संस्कृति के समान हैं ?

अब तक प्रचीन पुरातत्वविदों के अध्ययन से मोटे तौर पर जो सिंधु/हड़प्पा लिपियाँ प्राप्त हैं, उनसे सभी ने सही निष्कर्ष निकला है, कि यह दक्षिण पूर्व की लिपि है, किसी ने भी यह साहस नहीं दिखाया कि इस लिपि को गोंडी में उद्वाचित किया जाता है. इस दिशा में डॉ. मोतीरावण कंगाली की कृति-‘सैधवी लिपि की गोंडी में उद्वाचन’ एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ है. अब हड़प्पा की लिपि को गोंडी में उद्वाचित कर पढ़ा जा सकता है. तब निःसंदेह द्रविण पूर्व की भाषा, गोंडी है, जो कि आज भी प्रचलन में है. अत: हड़प्पा संस्कृति गोंडी-संस्कृति ही कही जावेगी.

नगर विन्यास एवं स्थापत्य

हड़प्पा सभ्यता के नगर विश्व के प्राचीनतम सुनियोजित नगर हैं. अधिकांश नगर सुरक्षा दीवारों से चारों ओर घिरे हुये थे, ऊचें स्थान को जिसे गढ़ी कहते हैं, गोंडी में आज भी प्रचलित भाषा में टिकरापारा कहा जाता है तथा इसके निचले नगर को खाल्हेपारा से संबोधित किया जाता है.

नगर तथा नगर में घर/कमरे निर्माण में वायु प्रकाश, नाली, सड़क की सुविधा को ध्यान में रखा गया है. सडकें १० मीटर चौड़ी मिली है. नगर/घर में स्नानागार महत्वपूर्ण है. तदनुसार गंदे पानी की निकासी के लिये नालियां बनी हैं. मकान में अनाज रखने की कोठियां बनी है. गंदे पानी के नालियों से बहने की व्यवस्था सिंधु सभ्यता में अत्यंत सुन्दर ढंग से किया गया है. ऐसा उदाहरण विश्व में इस सभ्यता के बाद शताब्दियों तक नहीं मिलतें है. लोग साफ सफाई पसंद के थे. हड़प्पा में अन्न भंडारण की कोठियां तथा अनाज को कूटने एवं पीसने की व्यवस्था रही है. आज भी गोंड समुदाय के लोग सामूहिक रूप से अनाज लूटने के लिये घर में विषेश प्रकार “ढेंकी” का उपयोग करते हैं. पीसने के लिये “जाता” का उपयोग करते हैं “मुसल” एवं “बाहना” का उपयोग व्यक्तिगत/अकेले व्यक्ति के व्दारा अनाज कूटने के लिये अभी भी किया जाता है. किन्तु मशीन युग में अब यह प्रथा समाप्त हो रही है. मोहन जोदड़ो में सार्वजनिक विशाल स्नानागार जो कि लगभग ५५,३३,२३३ मीटर के माप के हैं. ऐसा जलाशय गोंडवाना में चन्द्रपुर, सिंगौरगढ़, देवगढ़, नामनगर (मोतीमहल) आदि में आज भी स्थित है. नौशेरों चहुदड़ों में ईंट पकाने की बड़ी-बड़ी भट्टियां मिली है. लोथल में बंदरगाह, अन्नागर, जहाजों में सामान लादने की गोदियां मिली हैं. धौलावीरा में अनेक कुएं एवं विशाल जलाशय बने हैं जैसा कि- रायपुर का बुढातालाब, भोपाल सागर और आधारताल. गोंडवाना में धार्मिक अनुष्ठान एवं पेयजल व्यवस्था हेतु कुएं तालाब बनाने की परंपरा थी. धौलावीरा, सुरकोटला एवं अलीबंगा में राजा, मुखिया, पुजारी, अधिकारी रहा करते थे, जैसा कि धौलावीरा के लेख जो कि दस शब्दों के उद्वाचन से प्रतीक होता है. इसके भवन सुरक्षित एवं संरक्षित बनाये गये हैं. वणावी में व्यपारी वर्ग के लिये विशेष मकान, व्यापार, व्यवसाय की व्यवस्था करने वाले अधिकारी के माकन भी बने है.

पाषाण मूर्तियाँ

मोहन जोदड़ो में जो पाषण मूर्तियाँ मिली है, उन्हें लेखकों ने पुरोहित/पुजारी कहा है. वस्तुतः वे कोइतुर राजा हैं, जिसके चेहरे चौड़े, होठ मोटे, नाम चपटा, आँखे, खुली हुयी भाषा है. दाहिने बांह में एवं माथे में सिक्का/सील बंधा है, जो कि अलंकरण सामाग्री नहीं हैं. इसके पद प्रतिष्ठा के अनुकूल यह पट्टी सिक्का नुमा बंधा हैं. गोलतीर पत्तियों वाली छाप की किनारी का शाल ओढ़े हैं, जो बाएं कंधे को ढंका हुआ है. चेहरे का भाव किसी प्रश्न के उत्तर देने की प्रत्याशा में गंभीरता से प्रश्न को सुन, समझ रहा है तथा किसी प्रश्न का उत्तर देने हेतु या आदेश निर्देश हेतु तत्पर सा है.

हड़प्पा में जो बिना सिर की मूर्ति प्राप्त हुई है वह उपर की गले से उपर पुरुष आकृति एवं गले से निचे स्त्री आकृति की है. संभावना व्यक्त की गई है कि यह शिव एवं शक्ति की सम्मीलित प्रतिमा है. गोंडवाना की जंगो-लिंगों या शंभुशेक की शिव-पार्वती की सम्मिलित अवस्था की मूर्ति है. शंभुशेक इतने शक्तिशाली थे कि वे अपने को अर्द्धनारीश्वर के रूप में नटराज नृत्य करते हुये प्रकट कर सकते थे. यह पितृशक्ति एवं मातृशक्ति का सम्मिलित रूप ही है.

कास्य मूर्तियाँ

मोहनजोदड़ो से कांस्य धातु से निर्मित नग्न स्त्री की आकृति प्राप्त हुई है. जिसका दाहिना हाथ कमर पर अवलंबित है तथा इसमें दो चूड़ी कलाई में एवं दो कोहनी के उपर भुजा पर अलंकृत है. बायां हाथ बाएं घुटने में टिका है. हाथ में कोई पात्र है. पात्र का उपयोग संभवतः नृत्य के उपरांत इनाम या भेटराशी प्राप्त करने हेतु किया जाता होगा. एक हाथ में कोहनी से ऊपर सम्पूर्ण भुजा में चूड़ीयां पहनी है. गले में तीन गुटियाँ वाला कंठहार है. केश पीछे कि ओर गोलाई में बांधकर रखा गया है. माथा चौड़ा, नाम चपटी, होट मोटे आँखे आधी खुली हुयी है. चेहरे पर मुस्कान भाव नहीं हैं. पुराविद मार्शल कहतें हैं- यह किसी आदिवासी युवती का चित्रांकन है.

मिट्टी की मूर्तियाँ

यहां प्राप्त मिट्टी की मूर्तियाँ अलंकृत हैं. घुटने से ऊपर तक पहनावा है. कमर में कमरबंध अलंकृत है. यह पहनावा सुदूर बस्तर के माडिया स्त्रियों की तरह का है. छोटे बच्चों की मूर्तियाँ भी अलगढ़ रूप में मिली है. यह दर्शाने का प्रयास किया है कि माटी कि कोख से बच्चों की उत्पत्ति हुयी है. उन्हें माता ही संरक्षक के रूप में पालती पोसती है, मातृदेवी है. इनके साथ पशु पक्षियों की आकृतियाँ भी प्राप्त हुई है.

मुद्रायें मुद्रा छापे

हड़प्पा एवं मोहन जोदड़ो से जो मुद्रायें एवं शील प्राप्त हुयी है और उनमे जो लिपि लिखी है साथ में चित्र भी दर्शाया गया है. उसके साथ ही गोंड़ी उद्वाचन से यह स्पष्ट हो गया है कि हड़प्पा संस्कृति गोंडवाना संस्कृति है. इसमें शांम शंभु, शंभुशेक, मातृदेवी, फिरकियाँ, पारी कुपार लिंगों की चित्रलिपि अत्यंत महत्वपूर्ण है.

मनकें

पत्थरों को काटकर तराशकर चाहुदड़ों में मनकें बनाये जातें थे. एवं व्यपार किया जाता था. आज भी आदिवासी बहुल ग्रामीण अंचलों में छोटे बच्चों को मनके पहनाये जाते हैं कहीं-कहीं माड़ीया महिलाएं भी मनकें पहनती हैं. अब यह समाप्त प्राय हो गया है.

मृदभांड़

अब तो हम स्टील धातू के बर्तनों का उपयोग करने लगे हैं, किन्तु आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने, पानी भरने में किया जाता था. उन्हें चित्रित भी किया जाता था. कई प्रकार के मिट्टी के बर्तन हड़प्पा सभ्यता में प्राप्त हुये हैं.

औजार

उपयोग के लिये धातु, पत्थर के औजार एवं उपकरण, मिट्टी के उपकरण, हाथी दांत के उपकरण की यह अवस्था आज भी कोयतुर समाज में है.

 वर्तमान ग्रामीण क्षेत्रों में आज परंपरागत ढंग के औजार, कारीगरी, मिस्त्री, बढ़ई, सोनार, सुतार, सोनझरा, जनजातियों के उपकरण, शिकारी जनजाति के उपकरण, बंसोड कंडरा समाज के उपकरण, मछुवारे समाज के उपकरण पाये जाते हैं. हड़प्पा की यह व्यवस्था आज भी कोइतुर समाज में प्रचलन में है.

जाति निर्धारण

मोहन जोदड़ो से प्राप्त कंकालों के परीक्षण में चार प्रकार की जातियां निर्धारित की गई है-
१)                  आध आस्ट्रेलायड- नाटे कद, खोपड़ी सकरी व लंबी, नाक चौड़ी, चपटी ठुड्डी बाहर की ओर निकली हुई, रंग काला, बाल काले घुंघराले. उक्त सभी गुण जनजातियों में पाये जातें हैं, श्रीलंका, की बेड्डा जनजाति इसी वर्ग में आतें हैं.

२)                  भूमध्य सागरीय- खोपड़ियां कुछ लंबी, नाक छोटी व नुकीलीपूर्ण है.

३)                  मंगोलजाति – कोई बाहरी व्यक्ति सैनिक थे.

४)                  अल्पाइन जाति – इनमे से आधे आस्ट्रेलायड व हड़प्पा सभ्यता के जनक थे. दक्षिण भारत में इस प्रकार की जनजातियां आज भी निवासरत है. वर्गभेद में नगर के गढ़ी में शासक वर्ग तथा निचले सागर में सामान्य जन रहते थे.

राजनैतिक सत्ता

मोहन जोदड़ो, हड़प्पा एवं धौलावीरा सभ्यता के प्रमुख नगर एवं राजधानियाँ रही है धौलावीरा से प्राप्त दस अक्षरों के लेख से स्पष्ट होता है कि वो राजधानियों का शासक/राजा का यह नगर है. इतिहासकार कुषाण वंश का नामकरण क्योंकर किये हैं, छठवी शताब्दी के पूर्व सोलह जनपद का पाया जाना, कुषाणवंश की दो राजधानी पेशावर एवं मथुरा, मौर्यवंश के सम्पूर्ण भारत में प्रमुख सम्राट अशोक का बैल व शेर की आकृति वाले पत्थर की चिन्ह यह सभी बातें स्पष्ट करती है कि इतिहास विशेषकर प्राचीन भारत के इतिहास लेखन में हड़प्पा संस्कृति को जोड़कर नहीं देखा गया है. बाहरी आक्रमण से हडप्पा के लोग भागकर कहाँ गये ? विश्व की एक मात्र नगरीय सभ्यता कहाँ विलुप्त हो गई ? इसी बात को इतिहासकार नहीं बता पाये है. जबकि कुषाण का पुत्र सांढ़, सोलह्त्र नौ, अठारह जनपद, अठारह भाइयों का गढ़ सम्राट अशोक चिन्ह का बैल, मौर्य का मुरा (पह्यों की धुरी) या पहिये की धुरी पर आश्रित सोलह नाग आरे, यह सभी शब्द हड़प्पा के पशुपति की ओर इशारा करते हैं, हड़प्पा संस्कृति है. इसे इतिहासकारों ने स्वेच्छा से जानबूझकर सत्तासीन लोगों के विरोध की वजह से बदल दिया गया है, परिवर्तित कर दिया गया है. यह क्यों बदला गया है ? यह शोध का विषय है.

धार्मिक विश्वास और अनुष्ठान

गोंडवाना संस्कृति में मंदिर नहीं होता है. हडप्पा संस्कृति में भी देवालय,  मंदिर नहीं पाये गये हैंसल्ले गागरां के पुजारी बड़ादेव, मातृदेव के उपासक हडप्पा सभ्यता के लोग संभवतः चैत्र नवरात्र एवं अक्षय तृतीय जैसे पावन पर्व पर सूर्योदय से पूर्व एक साथ सम्पूर्ण नगरवासी स्नान कर सकें, ऐसे स्नानाकर बनाये गये थे.

हडप्पा सभ्यता के लोग वृक्ष पूजा करते थे. पशु पूजा पशु बली देते थे गोंडवाना में साजा वृक्ष में बड़ादेव की स्थापना व पूजा की जाती है.

आर्थिक जीवन

हडप्पा सभ्यता के लोग कृषि कार्य करते थे. पशुपालन करते थे. मछली पालन बदख, मयूर का पालन करते थे. मुख्य रूप से अनाज कपास, कपड़े सूत का व्यापार करते थे. महिलाएं आभूषणों लगे में मनके की माला पहिनते थे, जैसे की आज भी बैगा जनजाति की महिलाएं पहनती है. आमोद-प्रमोद के साधन में पासे का खेल, गोलियों का खेल खेला जाता था. मनोरजन हेतु मांदर, ढोल, बजाकर नृत्य गायन किया जाता था. आज भी बस्तर के सुदूर अंचलों में मांदर एवं ढोल की थाप पर नृत्य किये जाते हैं. आज भी हम गौरा-पार्वती के विवाह को मनाते हैं. गौरा शिव की सवारी बैल एवं गौरी की सवारी कछुआ बनाकर गोंडवाना संस्कृति में धारण किये हुये हैं.

शव वित्सर्जन

मोहन जोदड़ो में शवों को जलाये जाने का बोध नहीं होता है. किन्तु हडप्पा में गोंडवाना के रीतिरिवाज अनुरूप शव का सिर उत्तर की ओर व पैर दक्षिण की ओर रखकर पीठ के बल लिटाया जाता था तथा सिर एक तरफ पूर्व की ओर मुड़ा हुआ होता था. इसके अतिरिक्त एक क्रम से शवों को क्रमशः दफनाया गया पाया गया. संभवतः यह किसी गोत्र विषेश के लोगों का कब्र हो. शवों के सिर के पास ही मिट्टी के पात्र पैर की तरफ दिया या दीपक रखे पाए गये हैं. बर्तनों के खाद्य सामग्री, मृतक के दैनिक उपयोग की वस्तुएं, चूड़ी, अंगूठी मनकेहार आभूषण मिले हैं. शवों को जलाने की प्रथा आर्य लोगों की मुख्यतः है, ऐसा लगता है. आर्य जन यहाँ आकर बस गये व्यपार आदि मोहनजोदड़ो से करने लगे.

सभ्यता का अंत: सभ्यता का संस्कृति के उदभव एवं पतन ठीक-ठीक कारण ज्ञात करना अत्यंत कठिन है. अनेक कारण हो सकतें हैं. यथा प्रकाशनिक शिथिलता, व्यापार की अवनति, नैतिक पतन, वनों की कटाई, जलवायु में परिवर्तन, नदियों का मार्ग बदलना, भीषण बाढ़, जलतल का ऊपर उठना, समुद्र तटीय भूमि का ऊपर उठना, बाहरी आक्रमण आदि. आर्य. लोग एशिया माइना के अजखेन नामक स्थान में निवास करते थे. ऋग्वेद की रचना व्दितीय शताब्दी के मध्य हुयी. वीलर के अनुसार- सिंधु सभ्यता के विनाश के लिये आर्ये को उत्तरदायी मानते हैं. पतन लम्बे समय तक क्रमशः और विनाशक था. हडप्पा की पहचान ऋग्वेद के हरियूपिया नगर के मान्य की जाती है.
अंत में वे प्रमुख कारण या सार जिससे हडप्पा संस्कृति को गोंडवाना संस्कृति कह सकतें हैं-

·       १. वे लोग देवी देवता की पूजा करते थे.

२. वे लोग माता शक्ति के पुजारी थे.

३. वे लोग शिवपशुपतिनाथ (बड़ादेव) के उपासक थे.

४. वे लोग सल्ले गागरां की पूजा करते थे, शिवलिंग पूजा करते थे.

५. वे लोग विषेश आसन लगाकर पूजाकार्य में बैठते थे. योगसन जानते थे.

६. वे लोग पूजा के पूर्व माता सेवा के लिये सामूहिक स्नान किया करते थे.

७. वे लोग विभिन्न देव, देवी शक्ति के लिये अलग-अलग ध्वज/झंडे का उपयोग करते थे.

८. वे लोग पृथ्वी के दायें से बायें घूमने एवं सिंधुलिपि दायें से बायें की प्रथा के प्रतीक हेतु “फिरकी चक्र” चिन्ह दाहिने से बायें ओर घूमता हुआ, उपयोग पूजा स्थल पर करतें थे.

९. वे लोग बिदरी प्रथा, ब्याह करने कि पूजा रात में, बिना वस्त्र धारण करते थे जैसा की बैगा समाज में आज भी प्रचलित है.

१०. वे लोग पशुओं का सम्मान करते थे. सांडिया सृश्य आदर करते थे.

११. वे लोग पूजा कार्य अनुष्ठान में पशुबलि एवं कहीं-कहीं, कभी-कभी युद्ध में नरबलि भी देते थे.

१२. वे लोग वृक्षों की पूजा करते थे. यथा साजा वृक्ष में बुढादेव की स्थापना, सेमर वृक्ष में पारी कुपार लिंगों की स्थापना.

१३. वे लोग ताबीज को रक्षा कवच के रूप में धारण करते थे.

१४. वे लोग शक्ति की पूजा करते थे. नवरात्रि आदि में अग्निकुण्ड बनाकर अस्कनी पूजा करते थे.

१५. वे लोग बाघों के पुजारी थे. तीन बाघों को एक-एक करके चित्रण किये. सारनाथ सम्राट ने अपना राज्य चिन्ह बनाया. अशोक चक्र का बाघ छैदैया “जगत” का पशुओं के रूप में इष्टदेव होता है. अत: नाम भी बाघदेव, बघधरा गोंडवाना में रखा जाता है.

१६. वे लोग अपने घर की छत को नुकीला बनाते थे तथा घर के बीच में आंगन और चारो तरफ, मकान बनाते थे. गोंडवाना की यही परंपरा है.

१७. वे लोग गढ़ी के चारो ओर ऊंची दीवारों से घेरकर बनाते थे. जैसा कि सिंग्रामपुर का      दलपतशाह के सिंगोरगढ़ का किला.

१८. वे लोग सामूहिक स्नानागार बनाते थे. जैसे चन्द्रपुर तथा गोंडवाना के राजधानी में बने स्नानागार.

१९ वे लोग परिवहन के लिये बैलगाड़ी का प्रयोग करते थे.

२०. वे लोग हाथी पालते थे. रानी दुर्गावती की सफेद हाथी “सरवन” मुगल गोंडवाना युद्ध का का एक कारण बना था.

२१. वे लोग बांह पर चूड़ी पहनते थे. राजस्थान के मीना जनजातियों में प्रचलित है.

२२. वे लोग बच्चों को मनके, कौड़ी, आदि पहनाते थे. आज भी गोंडवाना में पहनाया जाता है.

२३. वहाँ की स्त्रियां घुटने तक का कपड़ा लपेटकर, साड़ी, कपड़ा पहनती थी. अधोभाग खुला होता था, आज भी बस्तर में प्रचलित है.

२४. वे लोग केश सज्जा हेतु ककई, ककवा (कंघी) का उपयोग करते थे. आज भी ककई, ककवा (कंघी) प्रचलित है.

२५. वे लोग घड़ों पर चित्रकारी करते, आज भी गौरा पूजा में कलस को चित्रकारी से सजाते हैं.

२६. वे लोग शवों को दफनाते थे. सिर उत्तर एवं पैर दक्षिण में. गोंडवाना रीतिरिवाज अनुसार सिर को थोड़ा सा पूर्व की ओर घुमाकर दफनाते हैं.

२७. वे लोग केश विन्यास में बालों का खोपा बनाते थे, जो कि आज भी बस्तर एवं उड़ीसा में प्रचलित है.
२८. वे लोग कमर में करधनी पहनते थे. आज भी करधनी का रिवाज है.
२९. वे लोग देव पुजारी को सिरमौर से सजाते थे. आज भी सुदूर बस्तर में नर्तक दल के नायक गौर के सींग से सिंगमौर बनाकर पहनते हैं.
३०. वे लोग नृत्य करते समय मांदर का उपयोग करते थे. यह वाद्य यंत्र आज भी झारखंड, मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़ के बस्तर आदि विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित है.
३१. वे लोग मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते थे. आज भी खाना बनाने, रोटी बनाने, झकने के बर्तन-तवा, तलई, परई, गघरी, गंगार, कुडेरा, हांड़ी प्रचलित है.
३२. वे लोग शवों को दफनाते समय उसके साथ हंडी में भरकर खाद सामग्री एवं जरूरत की चीजें रखते थे. आज भी रखते हैं.
३३. वे लोग अपने कान में छेद कराते थे. पुरष लुरकी या स्त्रियां खिनवा (कर्णफूल) पहनती थी.
३४. वे लोग सेमल से वृक्ष के देवता की पूजा करते थे. इस अवसर पर नृत्य भी करते थे सर्व सगा समाज मानते थे. उनके सभी अपने ध्वज होते थे, जिन्हें हम सप्तरंगी ध्वज कहते हैं.



साभार अभिनंदन ग्रन्थ

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

भारत के एतिहासिक बलिदानी महाराजा शंकरशाह एवं कूँवर रघुनाथशाह




भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आजादी के दीवानों व क्रांतिकारियों को अमानवीय सजा व फासी पर लटकाने के अनगिनत उदाहरण दर्ज हैं, किन्तु किसी क्रांतिकारी को तोप के मुहाने में जीवित बांधकर गोला बारूद से उड़ा देने की देश में यह पहली घटना थी. महाराजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथशाह सिर्फ विद्रोही ही नहीं बलिक एक समृद्धशाली राजवंश के शासक भी थे. मराठों और भोसलों राजघरानों ने मिलकर गोंड राजवंश को समाप्त करने का षड्यंत्र किया, जिससे गोंड साम्राज्य कमजोर हुआ परन्तु अदम्य साहस व वीरता के प्रतीक महाराजा शंकरशाह ने घुटने नहीं टेके और जबलपुर डिविजन में अंग्रेजों के खिलाफ अपने बल बूते पर सशस्त्र बगावत खड़ी कर दी. भारतीय राजघरानों को आपस में लड़वाकर अंग्रेजों ने भारत को अंततः पूरी तरह गुलाम बना डाला. गढ़ा मंडला के शक्तिशाली साम्राज्य के साथ मिलकर यदि मराठों और भोसले राजघरानों ने संयुक्त रूप से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा होता तो १८५७ में ही अंग्रेज भारत से भाग जाते. १८ सितंबर की तारीख स्वतंत्रता आंदोलन की एकलौती ऐतिहासिक घटना है, जिसमे गोंडवाना साम्राज्य के शूरवीर राजा व कुँवर दोनों को तोप के मुहाने पर बांधकर तोप चला दिया गया, जिससे गोंड वंश के सपूतों के चीथड़े उड़ गए. आदिवासियों की ऐतिहासिक शहादतों को शहीदे आजम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसा राष्ट्रीय सम्मान क्यों नहीं मिला ? यह चिंतन हमें करना चाहिए.
जबलपुर में स्वतंत्रता संग्राम का बीजारोपण राजा शंकरशाह के द्वारा किया गया था. राजा शौर्य, निर्भीकता, साहस और संकल्प के प्रतिमूर्ति थे जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध खड़े हुये थे. राजा के संघर्ष को जानने के लिए अतीत को देखना होगा. राजा शंकरशाह के पिता सुमेदशाह थे, जिन्हें पदच्युत करके नरहरीशाह दूसरी बार राजा बने थे. राजा नरहरीशाह (१७७६-१७८९) निःसंतान थे. बैशाख संवत १८३९ (अर्थात सन १७८२) को सुबह के वक्त जब राजा नरहरीशाह नहाने जा रहे थे तब राह में नर्मदा तट पर उन्हें लावारिस बालक मिला. रानी ने बालक को गोद में लिया और उनका नाम नर्मदा बक्श रखा. नर्मदा बक्श ने बाल्यकाल गढ़ा में बिताया और बालिग होते ही वह कहीं भाग गया. रानी ने खोज करवाया पर वह नहीं मिला तब उसने राजा शंकरशाह के पुत्र रघुनाथ शाह को गोद ले लिया. उस समय राजा शंकरशाह सागर में रहते थे. राजा नरहरीशाह की १७८९ ई. में मृत्यु होने पर राजा शंकरशाह गढ़ा की गद्दी के लिये प्रयास किया. उन्होंने १८०९ में मराठों के विरोधी आमीरखान पिण्डारी से सहायता ली और गढ़ा पर अधिकार कर लिया. सन १८१८ में गढ़ा की गद्दी पर बैठकर स्थानीय जमीदारों के सामने अपने को राजा घोषित किया. कुछ वर्ष बाद सन १८४१ को नर्मदा बक्श और और रघुनाथ के बीच जायदाद को लेकर विवाद शुरू हुआ और अंग्रेजों को दो विरोधियों के बीच घुसने का मौका मिल गया.
कैप्टन विलियन होड़ की अदालत में मुकदमा केस न. १०८ दि. १०.०८.१८४२ दर्ज हुआ मुकदमा चला और नर्मदा बक्श के पक्ष के फैसला दिया गया. रघुनाथशाह को पेंशन निश्चित कराने के लिए कमिश्नर के यहाँ अपील करने का निर्देश दिया गया. यह फैसला सोची समझी रणनीति के तहत था, जिसमे वास्तविक उतराधिकारी को बेदखल करना था तथा नर्मदा बख्श को फुसलाना था. यद्यपि दोनों पक्ष अंग्रेजी आँखों की किरकिरी थे तथा दोनों को मण्डला के किले से हटाना था. इस फैसले से एक पक्ष के राजा शंकरशाह और कुँवर रघुनाथशाह को उनके मण्डला के किले के उतराधिकार से वंचित कर दिया गया. राजा सुमेदशाह तिलकधारी राजा थे. जब भोसलों ने युक्तिपूर्वक नरहरीशाह को गद्दी के लिए उकसाया तब सुमेदशाह घर और बाहर शत्रुओं की फ़ौज देखकर नरहरीशाह को सत्ता सौपने राजी तो हुए, परन्तु इसके पहले अपने किशोर पुत्र शंकरशाह (१८ वर्ष) को युवराज के पद पर अभिषिक्त किया और कुलदेवी माला से आशीर्वाद दिलवाया था.
राजा शंकरशाह ने अंगेजों की वफादारी करके या थैली भेंट करके राजा का पद प्राप्त नहीं किया था. अत: विलियम होड़ की अदालत के फैसले से राजा शंकरशाह अप्रसन्न हुए. वे अंग्रेजों को सबक सिखाने की योजना बनाने लगे. कुछ ही दिनों बाद अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ बड़े नगरों में विद्रोह होने की सूचना मिलते ही उनके क्रोध को हवा मिलने लगी. जबलपुर और आस पास के इलाकों में सन १८५७ की जनवरी माह से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ विद्रोह की भूमिका बनाने के लिये अठवाइन (पूडियां) भेजी जाने लगी थी. चपातियों के साथ इस आशय की सूचना भी होती कि भविष्य में आकस्मिक और भयंकर घटना के लिये सजग रहे. सन १८५७ में जबलपुर संभाग के विद्रोहियों का नेत्रत्व राजा शंकरशाह ने स्वयं संभाला. उस वक्त जबलपुर की स्थिति झाँसी, कानपुर, अवध तथा मेरठ की तरह थी. जबलपुर की ५२वी पल्टन राजा शंकरशाह से मिल गई. इसी बीच अंग्रजों ने पल्टन के सिपाहियों को ऊँचा पद देने का प्रलोभन दिया साथ ही ईसाई धर्म स्वीकारने वाले को तत्काल हवलदार बनाने की पेशकश की गई. इस प्रस्ताव को सैनिकों ने नकार दिया.

असंतुष्ट सैनिकों एवं ठाकुर-जमीदारों की गुप्त बैठकें राजा शंकरशाह के नेत्रत्व में सम्पन्न होने लगी और विदेशी सत्ता को परास्त करने की योजनाएं यहाँ बना करती थी. राजा के सहयोगियों में ठाकुर कुन्दनसिंह (नारायनपुर, बघराजी), जैसिंहदेव, जगतसिंह (बरखेड़ा), मुनीर गौसिया (बरगी), भीमकसिंह (मगरमुहा), शिवनाथसिंह, उमरावसिंह, देवीसिंह, ठाकुर खुमानसिंह (मोकासी), रानी रामगढ़, बलभद्रसिंह, राजा दिलराज सिंह (इमलई), राजा शिवभानुसिंह (बिल्हरी), ठाकुर नरवरसिंह, बहादुरसिंह और कुछ मालगुजार तथा ५२वी पल्टन के ठाकुर पाण्डे और गजाधर तिवारी प्रमुख थे.
राजा शंकरशाह के पुरखों ने इसी जनता के भरोसे विशाल गोंडवाना साम्राज्य का संचालन किया था, वही जनता उनसे उम्मीद कर रही थी. उनकी गोंडी सेना मराठा काल में समाप्त कर दी गई थी. सैनिक और उनके सेनानायक भी गुजर गये थे, परन्तु उनके वारिसों के घरों में पुराने जंग लगे अस्त्र-शस्त्र अब भी मौजूद थे. सैनिकों की वारिसों को संकेत कर दिया गया था कि वे अपने पुरखों के कौशल को न भूले. वे सभी अवसर निकालकर राजा से मिल लेते थे. कुछ तो रानी फूलकुंवर देवी से धनुष-बाण, बंदूक, तलवार, गुफान और गुलेल का प्रशिक्षण भी प्रप्त कर रहे थे. रानी की सेना में गुरिल्ला टुकडियां भी थीं, जो कठिन जगहों में लड़ने में समक्ष थीं. साथ ही सागर, जबलपुर, मण्डला, नरसिंहपुर जिले के गोंड मालगुजारों, जमीदारों का राजा से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से संपर्क भी बना रहता था. यह सब देख अंग्रेज सरकार डर गई और विद्रोहियों के दमन के लिये फ़ौज दस्ता बुलवाई. जिसमे –
दस्ता न. एक- ०४ थी पल्टन मद्रास केलेवरी (घुड़सवार)– कप्तान टाटेनमोह.
दस्ता न. दो- ३३ वी पल्टन नेटिव इन्फेंट्री (पैदल सेना) फ़ौज– कप्तान कर्नल मिलर.
दस्ता न. तीन– वेटरी आफ फिल्ड आर्टिलरी (तोपखना दस्ता)– कप्तान जोंस.
दस्ता न. चार– नागपुर इरेग्यियुलर फ़ौज– कप्तान पेरीरा. 
१८५७ में समूचे देश में क्रांति की लहर फ़ैल चुकी थी. राजा शंकरशाह के महल में जमीदारों, मालगुजारों, बुद्धिजीवियों व ५२वी पल्टन के सिपाहियों की बैठकें होने लगीं, जिसकी सुचना ११ जुलाई १८५७ को जबलपुर इंचार्ज अंग्रेज को मिली. उन्होंने यह सूचना डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट क्लार्क व कमिश्नर मेजर एर्स्किन को दी. सितम्बर १८५७ के प्रारम्भ में केप्टन मोक्सन को ५२वी पलटन के एक पंडित और एक सिपाही के माध्यम से सूचना मिली कि उनकी टुकड़ी के कुछ सिपाही राजा शंकरशाह से मिलकर षड्यंत्र रच रहे हैं, कि सारे अंग्रेजों को मार डाला जाय. इस खबर की जानकरी ली गई तो पता चला कि पलटन के ८-१० सिपाही और कुछ जमीदार लोग राजा व उनके लडके रघुनाथशाह से मिलकर गुप्त मंत्रणा करते रहे. खुशालचन्द नामक गद्दार, राजमहल की सभी जानकरी अंग्रेजो को देता रहता था.    
१८५७ में विद्रोह के निर्णायक क्षणों में सेठ खुशालचन्द ने मेजर एर्सकाईन को घुड़सवार सेना खड़ी करने के लिये बड़ी रकम अग्रिम दी. इतना ही नहीं, अपितु १८५७ के वर्षाकाल में उसने पूरी अंग्रेज सेना को खाद्यान्न की आपूर्ति की. यह स्थानीय स्तर पर मदद रही. कानपूर और लखनऊ पर आक्रमण करने इलहाबाद से जाने वाली अंग्रेज सेना को परिवहन के साधन हेतु खुशालचन्द ने बहुत बड़ी रकम दी. खुशालचन्द के गाँव वालों ने विद्रोहियों को पकड़ने में और मारने में मदद की. खुशालचन्द इस सेवा के लिये उसे गव्हर्नर जनरल द्वारा शाल की खिलत, सोने का तमगा और परवाना दिया गया. उसके दो पुत्र हुये सेठ गोकुलदास और सेठ गोपालदास. चाटुकारों से सूचना मिलने पर पुख्ता जानकारी के लिए लेफ्टिनेंट क्लार्क ने अपना वफादार चपरासी भद्दूसिंह को नकली फकीर बनाकर राजमहल भेजा. उस समय मऊ, मेरठ, दमदम, बैरकपुर व छावनियों में क्रांतिकारी साधू, फकीर विभिन्न प्रकार के वेश और रूपधारण करके क्रांति का कार्य करते थे. राजा शंकरशाह इसी धोखे में रहे और अपना उद्देश्य बता बैठे. उस नकली फकीर ने राजा से भेद लिया और आकर जानकारी दी कि क्रांतिकारी अंग्रेज साहबान को जान से मारने व खजाना लूटने का मन बना चुके हैं.
सशंकित अंग्रेज अफसरों ने गुप्त मीटिंग की और योजना बनाकर क्लार्क के नेत्रत्व में घुडसवारों तथा पैदल सैनिक दस्ते भेजकर राजमहल घेर लिया और १४ सितम्बर १८५७ ई. को राजा शंकरशाह युवराज रघुनाथशाह व १३ अन्य क्रांतिकारीयों को बंदी बनाकर केन्टोनमेंट के मिल्टरी जेल में डाल दिया. रानी फूलकुंवर देवी अंग्रजों की आखों में धूल झोंककर महल से निकलकर क्रांतिकारीयों का नेत्रत्व करने लगी. राजा शंकरशाह और उनके साथियों के पकड़े जाने की यह घटना इतनी तीव्र गति से घटी जिसे क्रांतिकारी समझ नहीं पाये. कुँवर रघुनाथशाह अपने पिता की तरह देशभक्त और मात्रभूमि के लिये जान निछावर करने वाले युवक थे. राजा शंकरशाह अंग्रेजों के आशय को जानते थे, भविष्यफल के जानकर राजा ने अपने बेटे से कहा– बेटा रघुनाथ अपने पीछे ऐसा नाम छोड जाओ कि आने वाली अनंत पीढियां तुम्हारे स्मरण में अपने को शुद्ध करती रहें. राजा शंकरशाह की गिरफ्तारी पश्चात राजमहल की तलाशी की गई तो राजमहल से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के ढेरों दस्तावेज मिले, जिसमे राजा की लिखी हुई एक कविता भी थी जो इस प्रकार है :

मूंद मुख दंडिन को, चुंगलों को बचाई खाई,
खूंद डार दुष्टन को, शत्रु संघारिका |
मार अंग्रेज रंज, कर देई मात चण्डी,
बचै नहीं बैरी, -बाल बच्चे संहारिका ||
संकर की रच्छा कर, दास प्रतिपाल कर,
दीन की पुकार सुन, जाय मात हालिका |
खायले मलेच्छन को, झैल नहीं करो मात,
भच्छन कर तच्छन, दौर माता कलिका ||
कविता के द्वारा आराध्य देवियों की स्तुति जिसमे अंग्रेजी हुकुमत को नष्टकर सत्ताहीन होने की अर्चना की गई थी. इसी को आधार मानकर जबलपुर के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में राजा व युवराज पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और सजा ए मौत सुना दिया गया. दिनाँक १८ सितंम्बर १८५७ को क्वांर माह की अमावश के दिन ठीक ११ बजे सूर्य ग्रहण का समय था. पिता व पुत्र को तोप के मुहाने पर बाँध कर तोप चला दिया गया और उसी दिन उनकी सम्पत्ति राजसात कर ली गई. राजा के हथियार जिनमे तलवार, ढाल, फरसा, कुल्हाड़ी, दोधारी तलवार, नेजा, किरचें, जाली बख्तर, (लोहे के जालीदार कवच), सिरस्त्राण (सिरटोप), बंदूक, तोप आदि सब जब्त कर लिये गये.
जनमानस में तोप के संबंध में अभी भी एक किवंदती ताजी है. कहतें हैं, जब अंग्रेजी तोप नहीं चली वह फुस्स हो गई तब राजा ने मात्रभूमि की रक्षा के लिये प्राण देना निश्चय किया और स्वयं अपनी पुश्तैनी तोप लाने को कहा जो ३० इंच व्यास की नली वाली थी तथा चोखे लोहे की ढाली गई थी.
रानी फूलकुंवर देवी के लिये यह असहनीय पल था. पति और पुत्र को खोने के बाद भी वह क्षत्राणी वेष बदलकर अपने साथियों के साथ शहीद स्थल पर आई और यत्र-तत्र बीखरे देहावषेशों को एकत्रित कर रानी ने दोनों (पिता-पुत्र) का अंतिम संस्कार किया और मण्डला की ओर चली गई.
ईधर मृत्यु दण्ड की खबर सुनते ही जन सैलाब शहीद स्थल पर उमड़ पड़ा. वर्तमान उच्च न्यायालय और वन विभाग के कार्यालय के बीच का स्थल महान देशभक्त पिता-पुत्र का शहीद स्थल है, वहाँ स्थित पेड़ जिसे लोग तीर्थ बनाकर श्रद्धा सुमन अर्पित करने लगे, और अपने राजा को याद करने के लिये रोज सैकड़ों श्रद्धालु आने लगे तब अंग्रेजों ने उस पेड़ को कटवा दिया. जैसे-जैसे उनकी भयावाह मृत्यु दण्ड की खबर गांवों में फैलती गई लोगों का रेला पहुंचने लगा. बरगी, बरेला, पनागर, सीहोर, नारायणपुर, (बघराजी), कैमोरी, कटंगी, पाटन, कोंनी, मण्डला, घुघरी, दमोह, नरसिंहपुर आदि के साथ-साथ सम्पूर्ण नर्मदा-सोन घाटी पर क्रान्ति की आग सुलग गई. हिरन का कछार रक्त रंजित हो गया. उधर कुंडल के जंगलों में क्रांतिकारी फ़ैल गये और सरकारी दफ्तरों में लूट-पाट मचाने लगे, उन्हें पकड़ने पुलिस जाती तो वे देवगढ़ की गुफाओं में छुप जाते थे. इसके अतिरिक्त छतरपुर, सोनपुर, इन्द्राना के जंगल इनके अड्डे थे.

\शहर में क्रांतिकारीयों के लिये दोहा बना दिया गया जिसमे हथियार कहाँ मिलेंगें और गोला कहाँ गिरेंगें और उन्हें क्या करना है. वह दोहा इस प्रकार है-

लकड़गंज लाठी बिकें, गोरखपुर तलवार |
बीच सदर गोला गिरें, लूटो सकल बाजार ||
५२वी पल्टन के सिपाही हथियार लूटकर बैरक छोड़ पाटन पहुँच गये और वहाँ पदस्थ मेकग्रेगर को अपने कब्जे में ले लिया, बाद में कटंगी के पास उनकी हत्या कर अपने क्रोध को कुछ शांत किया. अंग्रेजी हुकुमत सतर्क हुई, प्रत्येक बड़े कस्बे में छावनी स्थापित कर दी गई. गोंडकालीन पड़ाव सोनपुर, इमलई, पनागर, बरगी, कटंगी पाटन, सीहोरा आदि ग्रामो में फ़ौजी दस्ते नियुक्त किये गये.

०७ नवम्बर १८५७ को कप्तान टाटेनहोम और लेफ्टिनेन्ट सी.एम. स्टीवार्ट पनागर में थे तभी उन्हें जानकारी मिली कि गोसलपुर को नीमखेड़ा के विद्रोहियों द्वारा लूटा जा रहा है. अंग्रेजी सेना वहाँ तक पहुंचती तब तक विद्रोही भाग चुके थे. उन्हें जानकारी मिली कि करीब एक हजार विद्रोही कटरा रमखिरिया की तरफ गये हैं, सेना वहाँ पंहुची लेकिन वहाँ भी कोई विद्रोही नहीं मिले. एक घर में विद्रोहियों के छुपने की संभावना को देखते टाटेनहोम ने दरवाजा तोड़ा तो उन पर गोलियों की बौछार होने लगी. गोलीबारी में टाटेनहोम घायल हो गये और दूसरे दिन उनकी मौत हो गई. मुडभेड में ०८ लोग मरे गये और १८ बंदी बनाये गये, बाद में उन्हें फांसी दे दी गई. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में आजादी के दीवाओं व क्रांतिकारियों को अमानवीय सजा व फासी पर लटकाने के अनगिनत उदाहरण दर्ज हैं, किन्तु किसी क्रांतिकारी को तोप के मुहाने में जीवित बांधकर गोला बारूद से उड़ा देने की देश में यह पहली घटना थी. महाराजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथशाह सिर्फ विद्रोही ही नहीं बलिक एक समृद्धशाली राजवंश के शासक भी थे. मराठों और भोसलों राजघरानों ने मिलकर गोंड राजवंश को समाप्त करने का षड्यंत्र किया, जिससे गोंड साम्राज्य कमजोर हुआ परन्तु अदम्य साहस व वीरता के प्रतीक महाराजा शंकरशाह ने घुटने नहीं टेके और जबलपुर डिविजन में अंग्रेजों के खिलाफ अपने बल बूते पर सशस्त्र बगावत खड़ी कर दी. भारतीय राजघरानों को आपस में लड़वाकर अंग्रेजों ने भारत को अंततः पूरी तरह गुलाम बना डाला. गढ़ा मंडला के शक्तिशाली साम्राज्य के साथ मिलकर यदि मराठों और भोसले राजघरानों ने संयुक्त रूप से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा होता तो १८५७ में ही अंग्रेज भारत से भाग जाते. १८ सितंबर की तारीख स्वतंत्रता आंदोलन की एकलौती ऐतिहासिक घटना है, जिसमे गोंडवाना साम्राज्य के शूरवीर राजा व कुँवर दोनों को तोप के मुहाने पर बांधकर तोप चला दिया गया, जिससे गोंड वंश के सपूतों के चीथड़े उड़ गए. आदिवासियों की ऐतिहासिक शहादतों को शहीदे आजम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसा राष्ट्रीय सम्मान क्यों नहीं मिला ? यह चिंतन हमें करना चाहिए.

साभार आदिवासी सत्ता